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________________ करने की ओर प्रयत्नमात्र है। यह प्रयत्न दर्शन के शाश्वत तत्त्वों, धर्मों के मौलिक सिद्धान्तों तथा मनोविज्ञान के स्वस्थ नियमों' का सन्तुलित संकलन है । गांधीवाद के अनुसार अन्तःसत्य बाह्य जीवन का आवश्यक अंग है। मनुष्यों में सत्तात्मक एकता है। विश्व की विविधता एकता के सूत्र में पिरोयी हुई है। भिन्नता केवल अविद्या की देन है। अतएव यह नैतिक कर्तव्य है कि मनुष्य एक-दूसरे के सुख-दुःख को समझे और संसार से अन्याय, दरिद्रता और दुःख को मिटाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहे एवं लोक-कल्याण की वृद्धि करे । संक्षेप में, गांधीजी की नैतिकता 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की नैतिकता है; उसमें विश्व-प्रेम अथवा मानव-प्रेम ही एकमात्र साध्य और साधन है।। अहिंसा-गांधीजी के भीतर प्रतिष्ठित मनुष्यत्व की भावना उनके सत्य और अहिंसा के प्रादर्शों के द्वारा अभिव्यक्त होती है। गीता में कर्मयोग ढूंढ़नेवाले गांधीजी ने सत्य और अहिंसा को एक-दूसरे का पूरक कहा है। उन्होंने सत्यज्ञान को ही सदाचार कहा है। सत्य का क्रियात्मक रूप ही अहिंसा है। सत्यज्ञान तथा अहिंसा द्वारा ही अज्ञान, अन्याय और अधर्म दूर हो सकते हैं और मानव-हृदय में प्रेम का संगीत तथा उसकी श्वासों में शान्ति की सुगन्ध भरी जा सकती है । अहिंसा (विश्वप्रेम) ही सत्यज्ञान तथा 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के सिद्धान्त की सार्थकता है। अहिंसात्मक निष्काम लोक-कार्य ही जीवन का ध्येय है। सब व्यक्तियों में एक ही सर्वव्यापी ईश्वर व्याप्त है। यह सर्वात्मबोध ही आत्मबोध है। दूसरों का दुःख अपना दुःख है। उसे हटाना हमारा कर्तव्य है। वास्तविक शान्ति जीवमात्र को स्नेह और प्रेम का पात्र समझने से ही प्राप्त हो सकती है। पाप से घृणां करना उचित है, पापी से नहीं। पापी स्नेहास्पद है । पापी को प्यार करते हुए पाप और अधर्म के विरुद्ध अहिंसात्मक युद्ध करना ही मनुष्य का कर्तव्य है। गांधी-दर्शन यह अखण्ड विश्वास देता है कि सभी प्राणियों में एक ही चेतन-शक्ति व्याप्त है। सब एक ही पिता के पुत्र १. परिपूर्ण मंगलमय जगत् अथवा रामराज्य के आदर्श को सम्मुख रखते समय उन्होंने मानव___ स्वभाव के दोनों पक्षों-बौद्धिक और भावुक-को समझा । २. मनोवैज्ञानिकों के अनुसार विचार-साहचर्य के नियम इस बात की पुष्टि करते हैं कि पापी और पाT में तादात्म्य स्थापित हो जाता है। उसके विरुद्ध इतना ही कहना है कि गांधीजी ने जो कुछ भी कहा उसका पहले अपने जीवन में अभ्यास और अनुभव कर लिया । फिर भी यह मानना उचित है कि साधारण व्यक्ति के लिए यह कठिन कार्य मानसिक और प्राध्यात्मिक उन्नति से ही सम्भव है। गांधीजी | ३४६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004082
Book TitleNitishastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanti Joshi
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year1979
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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