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“અહો ! શ્રુતજ્ઞાનમ્” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૭૫
મુહૂર્ત ચિંતામણિ સટીક
: દ્રવ્ય સહાયક :
પૂ. આ. શ્રી પ્રેમ-ભુવનભાનુસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના સમુદાયના દીક્ષા દાનેશ્વરી પૂ. આ. શ્રી ગુણરત્નસૂરીશ્વરજીના આજ્ઞાવર્તિની પ્રવર્તિની સાધ્વી શ્રી પુણ્યરેખાશ્રીજી મ.સા.ની શિષ્યા પૂ. સાધ્વી શ્રી રક્ષિતરેખાશ્રીજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી શ્રી અર્બુદગિરિ સોસાયટીની આરાધક શ્રાવિકાઓના સં. ૨૦૬૮ ના ચાતુર્માસની જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫ (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543
ઈ. ૨૦૧૩
સંવત ૨૦૬૯
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
પૃષ્ઠ
___84
___810
010
011
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
ता-टी515ार-संपES | 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
| पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
238 | 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
| पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता
प. मेघविजयजी गणि म.सा. 004 | श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. | 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. | 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
| पू. मानतुंगविजयजी म.सा. | 007 | अपराजितपृच्छा
श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 | 009 | शिल्परत्नम् भाग-१
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 322 शिल्परत्नम् भाग-२
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
162 | 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे
302 प्रासादमजरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारती गोंसाई
352 | शिल्पदीपक
श्री गंगाधरजी प्रणीत
120 | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई दीपार्णव उत्तरार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
110 જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
498 | जैन ग्रंथावली
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स 502 | હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव 022 | दीपार्णव पूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा.
452 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
श्री एच. आर. कापडीआ
500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
454 026 | तत्त्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
188 | 027 | शक्तिवादादर्शः
| श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
214 | क्षीरार्णव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
414 029 | वेधवास्तु प्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
___192
013
454 226 640
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053
054
शिल्परत्नाकर
प्रासाद मंडन
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
(?)
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय - 3 (२)
(૩)
श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय -५ વાસ્તુનિઘંટુ
તિલકમન્નરી ભાગ-૧
તિલકમન્નરી ભાગ-૨
તિલકમન્નરી ભાગ-૩
સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ
સપ્તભઙીમિમાંસા
ન્યાયાવતાર
વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સામાન્યનિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સપ્તભઙીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
નયોપદેશ ભાગ-૧ તરઙિણીતરણી
નયોપદેશ ભાગ-૨ તરઙિણીતરણી
ન્યાયસમુચ્ચય
સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
જ્યોતિર્મહોદય
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री
पं. भगवानदास जैन
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી
સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા)
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા)
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
પૂ. દર્શનવિજયજી
સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી
824
288
520
578
278
252
324
302
196 190
202
480
228
60
218
190
138
296
210
274
286
216
532
113
112
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શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
ભાષા |
218.
|
164
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६
| पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
प. जिनविजयजी म.सा.
160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन
पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि
202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
सं पू. मेघविजयजी गणि
516 064| विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
| पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 06764शमाता वही गुशनुवाह
गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
१४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376
060
322
073
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075
076
સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી
077
1 ભારતનો જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય
079
શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - १
081 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - २
જૈન ચિત્ર કલ્પબૂમ ભાગ-૧
જૈન ચિત્ર કલ્પવ્રૂમ ભાગ-૨
082 ह शिल्पशास्त्र भाग - 3
O83 आयुर्वेधना अनुभूत प्रयोगो भाग-१
084 ल्याए 125
ORS विश्वलोचन कोश
086 | Sथा रत्न छोश भाग-1
0875था रत्न छोश भाग-2
હસ્તસગ્રીવનમ્
088
089
090
એન્દ્રચતુર્વિશનિકા
સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
गुभ.
शुभ,
गुभ.
गुभ.
शुभ
श्री साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
श्री विद्या साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
सं.
श्री मनसुखलाल भुदरमल
श्री जगन्नाथ अंबाराम
शुभ.
शुभ.
शुभ.
शुभ,
गु४.
सं.हिं श्री नंदलाल शर्मा
गुभ.
गुभ.
सं
सं.
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
पू. कान्तिसागरजी
श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
पू. मेघविजयजीगणि
पू.यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी
आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
374
238
194
192
254
260
238
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114
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436
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार- संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम संपादक / प्रकाशक मोतीलाल लाघाजी पुना
क्रम
कर्त्ता / टीकाकार
91 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी
92 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
93
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
वादिदेवसूरिजी
94
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
95 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब
टी. गणपति शास्त्री
टी. गणपति शास्त्री
वेंकटेश प्रेस
97 समराङ्गण सूत्रधार भाग - १
98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग - २
99 भुवनदीपक
100 गाथासहस्त्री
101 भारतीय प्राचीन लिपीमाला
102 शब्दरत्नाकर
103 सुबोधवाणी प्रकाश
104 लघु प्रबंध संग्रह
105 जैन स्तोत्र संचय - १-२-३
106 सन्मति तर्क प्रकरण भाग १,२,३
107 सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४, ५
108 न्यायसार न्यायतात्पर्यदीपिका
109 जैन लेख संग्रह भाग - १
110 जैन लेख संग्रह भाग-२
111 जैन लेख संग्रह भाग-३
112 | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग - १
113 जैन प्रतिमा लेख संग्रह
114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
115 | प्राचिन लेख संग्रह - १ 116
बीकानेर जैन लेख संग्रह
117 प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग - १
118 प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग - २
119 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - १
120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो २ 121 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल - १ 123 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
भोजदेव
भोजदेव
पद्मप्रभसूरिजी
समयसुंदरजी
गौरीशंकर ओझा
साधुसुन्दरजी
न्यायविजयजी
जयंत पी. ठाकर
माणिक्यसागरसूरिजी
सिद्धसेन दिवाकर
सिद्धसेन दिवाकर सतिषचंद्र विद्याभूषण
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
कांतिविजयजी
दौलतसिंह लोढा
विशालविजयजी
विजयधर्मसूरिजी
अगरचंद नाहटा
जिनविजयजी
जिनविजयजी
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन जिनविजयजी
भाषा
सं.
सं.
सं.
सं.
सं.
सं./अं
सं.
सं.
सं.
सं.
हिन्दी
सं.
सं./गु
सं.
सं,
सं.
सं. सं.
सं./हि पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./ हि
जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार
सं./हि
अरविन्द धामणिया
सं./गु
सं./गु
सं./हि
सं./हि
सं./हि
सं./गु
सं./गु
सं./गु
अं.
सुखलालजी
मुन्शीराम मनोहरराम
हरगोविन्ददास बेचरदास
हेमचंद्राचार्य जैन सभा
ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट वरोडा
आगमोद्धारक सभा
अं.
अं.
अं.
सं.
सुखलाल संघवी
सुखलाल संघवी
एसियाटीक सोसायटी
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
नाहटा धर्स
जैन आत्मानंद सभा
जैन आत्मानंद सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा.
जैन सत्य संशोधक
पृष्ठ
272
240
254
282
118
466
342
362
134
70
316
224
612
307
250
514
454
354
337
354
372
142
336
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656
122
764
404
404
540
274
414
400
320
148
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754
194
3101
276
69 100 136 266
244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी
| शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274 168
282
182
गुज.
384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
160
Page #8
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________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार
क्रम
विषय
संपादक/प्रकाशक
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम 154 उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य 155 | उणादि गण विवृत्ति
कर्त्ता / संपादक पू. हेमचंद्राचार्य
पू. हेमचंद्राचार्य
156 प्राकृत प्रकाश-सटीक
157 द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति
158 आरम्भसिध्धि सटीक
159 खंडहरो का वैभव
160 बालभारत
161 गिरनार माहात्म्य
162 | गिरनार गल्प
163 प्रश्नोत्तर सार्ध शतक
164 भारतिय संपादन शास्त्र
165 विभक्त्यर्थ निर्णय
166 व्योम वती - १
167 व्योम वती - २ 168 जैन न्यायखंड खाद्यम् 169 हरितकाव्यादि निघंटू 170 योग चिंतामणि- सटीक 171 वसंतराज शकुनम् 172 महाविद्या विडंबना 173 ज्योतिर्निबन्ध 174 मेघमाला विचार 175 मुहूर्त चिंतामणि- सटीक
176 | मानसोल्लास सटीक - १ 177 मानसोल्लास सटीक - २ 178 ज्योतिष सार प्राकृत
179 मुहूर्त संग्रह
180 हिन्दु एस्ट्रोलोजी
भामाह
ठक्कर फेरू
पू. उदयप्रभदेवसूरिजी
पू. कान्तीसागरजी
पू. अमरचंद्रसूरिजी दौलतचंद परषोत्तमदास
पू. ललितविजयजी
पू. क्षमाकल्याणविजयजी
मूलराज जैन
गिरिधर झा
शिवाचार्य
शिवाचार्य
संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं. ५
- -
यशोविजयजी
व्याकरण
व्याकरण
व्याकरण
धातु
ज्योतीष
शील्प
प्रकरण
साहित्य
न्याय
न्याय
न्याय
उपा.
न्याय
भाव मिश्र
आयुर्वेद
पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
आयुर्वेद
ज्योतिष
पू. भानुचन्द्र गणि टीका
ज्योतिष
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका शिवराज
ज्योतिष
ज्योतिष
पू. विजयप्रभसूरी रामकृत प्रमिताक्षय टीका
ज्योतिष
भुलाकमल्ल सोमेश्वर
ज्योतिष
भुलाकमल्ल सोमेश्वर
ज्योतिष
भगवानदास जैन
ज्योतिष
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास ज्योतिष
काव्य
तीर्थ
तीर्थ
भाषा
संस्कृत
संस्कृत
प्राकृत
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत
हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत / गुजराती
संस्कृत/ गुजराती
हिन्दी
हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत / हिन्दी
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत / हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत/ गुजराती
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
प्राकृत / हिन्दी
गुजराती
गुजराती
जोहन क्रिष्टे
पू. मनोहरविजयजी
जय कृष्णदास गुप्ता
भंवरलाल नाहटा
पू. जितेन्द्रविजयजी
भारतीय ज्ञानपीठ
पं. शीवदत्त
जैन पत्र
हंसकविजय फ्री लायब्रेरी
साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी
जैन विद्याभवन, लाहोर
चौखम्बा प्रकाशन
संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय
बद्रीनाथ शुक्ल
शीव शर्मा
लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस
खेमराज कृष्णदास सेन्ट्रल लायब्रेरी
आनंद आश्रम
मेघजी हीरजी
अनूप मिश्र
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट
भगवानदास जैन
शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी पिताम्बरदास टी. महेता
पृष्ठ
304
122
208
70
310
462
512
264
144
256
75
488
226
365
190
480
352
596
250
391
114
238
166
368
88
356
168
Page #9
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________________
क्रम
181
182
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमलाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
192
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
विषय
पुस्तक नाम
काव्यप्रकाश भाग-१
काव्यप्रकाश भाग-२
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३
183
184 नृत्यरत्न कोश भाग-१
185 नृत्यरत्न कोश भाग- २
186 नृत्याध्याय
187 संगीरत्नाकर भाग १ सटीक
188 संगीरत्नाकर भाग २ सटीक
189 संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक
190 संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी जैन ग्रंथो
193 न्यायविंदु सटीक
194 शीघ्रबोध भाग-१ थी ५
195 शीघ्रबोध भाग-६ थी १०
196 शीघ्रबोध भाग- ११ थी १५ 197 शीघ्रबोध भाग - १६ थी २० 198 शीघ्रबोध भाग- २१ थी २५ 199 अध्यात्मसार सटीक
200 | छन्दोनुशासन
201 मग्गानुसारिया
कर्त्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत
पूज्य मम्मटाचार्य कृत
उपा. यशोविजयजी
श्री कुम्भकर्ण नृपति
श्री
नृपति
श्री अशोकमलजी
श्री सारंगदेव
श्री सारंगदेव
श्री सारंगदेव
श्री सारंगदेव
नारद
-
-
-
श्री हीरालाल कापडीया
पूज्य धर्मोतराचार्य
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य गंभीरविजयजी
एच. डी. बेलनकर
श्री डी. एस शाह
भाषा
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत
गुजराती
संस्कृत
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
संस्कृत/ गुजराती
संस्कृत
संस्कृत/गुजराती
संपादक/प्रकाशक
पूज्य जिनविजयजी
पूज्य जिनविजयजी
यशोभारति जैन प्रकाशन समिति
श्री रसीकलाल छोटालाल
श्री रसीकलाल छोटालाल
श्री वाचस्पति गैरोभा
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग
मुक्ति-कमल जैन मोहन ग्रंथमाला
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा नरोत्तमदास भानजी
सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
पृष्ठ
364
222
330
156
248
504
448
444
616
632
84
244
220
422
304
446
414
409
476
444
146
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
Page #11
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...
290909090029-99999 Game - తలల
నాలుకలు
and coord Ganesha
FILM
Aho ! Shrutgyanam
can chance
|
OM
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ASIA
6. నా సానువాదం
Page #12
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अथ मुहूर्तचिंतामण्यनुक्रमणिकाप्रारंभः।
का: प्रकरणानि
| पृष्टांकाः प्रकरणानि शुभाशुभप्रकरणम् १ १३ दोषापवादभूता रवियोगाः १ मंगलाचरणम्
१३ सूर्यादिवारेषु नक्षत्रविशेषैः सिद्धियोगाः १ ग्रंथप्रयोजनम्
१४ उत्पातमृत्युकाणसिद्धियोगाः २ ज्योतिःशास्त्राध्ययनफलम्
१४ दुष्टयोगानां देशभेदेन परिहारः ३ नक्षत्रसूचकस्य श्राद्धभोजने निषेधः
१४ समस्तशुभकृत्ये वर्ण्यपदार्थाः ४ मुहूर्तप्रयोजनम्
१५ ग्रहणनक्षत्रे ग्रासभेदेन निंद्या मासा ६ तिथीशाः
दिवसाश्च ६ तिथीनां संज्ञाः फलं च
१६ सामान्यतोऽवश्यं वानि पंचांगदूष६ सिद्धियोगाः
णादीनि ७ व्यादिवारेषु यथाक्रमं निषिद्धतिथयः । १६ पक्षरंध्रतिथय आवश्यकत्वे तन्निष्ठवर्य७ दग्धनक्षत्राणि
घटिकाश्च ७ क्रकचादिनिंद्ययोगाः
१७ कुलिकादिदोषाः ८ कृत्यविशेषेषु निषिद्धतिथयः १७ सूर्यादिवारे दुर्मुहुर्ताः ८ दग्धादियोगचतुष्टयम्
१८ विवाहादिशभकृत्ये होलिकाष्टकनिषेधः ९ चैत्रादिमासे शून्यतिथयः
१८ मृत्युक्रकचादीनां परिहारः १० तिथिनक्षत्रसंबंधिदोषाः
१८ तेषां पुनरपवादः १० चैत्रादिमासेषु शून्यनक्षत्राणि १९ भद्रा ११ चैत्रादिषु शून्यराशयः
१९चतुर्थ्यादितिथिषुभद्राया मुखपुच्छविभागः ११ विषमतिथिषु दग्धलग्नानि
१९ भद्रापरिहारः ११ दुष्टयोगानां शुभकृत्यावश्यकत्वे परिहारः। २० भद्रानिवासस्तत्फलं च १२ शुभकार्येषु सिद्धिदानामपि हस्तार्कादि- २० कालाशुद्धौ (गुरुशुक्रास्तादिके ) नियोगानां निंद्यत्वम्
पेध्य वस्तूनि १२ भौमाश्विनीत्यादिकानां सिद्धियोगानां २२ सिंहमकरस्थगुर्वादिष्वतिदेशः - . कार्यविशेषेऽतिनिंद्यत्वम्
२३ सिंहमकरस्थगुरोः प्रकारत्रयेण परिहारः १२ आनंदाद्यष्टाविंशतियोगाः
२४ सिंहराशिगतगुरुनिषेधवाक्यानां प्रति१२ आनंदादियोगानां गणनोपायः
प्रसववाक्यानां च निर्गलितार्थः १३ आनंदादिषु कियतां दुष्टयोगानां आ- २४ मकरस्थितगुरोः प्रकारद्वयेन परिहारः वश्यककृत्ये परिहारः
२४ लुप्तसंवत्सरदोषोऽपवादसहितः
Aho! Shrutgyanam
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________________
प्रकरणानि
पृष्ठांका: २५ वारप्रवृत्तिः
२५ वारप्रवृत्तिप्रयोजनपुरस्सरं कालहोरा
. २६ कालहोराप्रयोजनमन्यच्च २६ मन्वादयो युगादयश्च
मुहूर्तचिंतामण्यनुक्रमणिका । पृष्ठांकाः
अथ नक्षत्रप्रकरणम् २ २७ नक्षत्रस्वामिनः
२७ ध्रुवनक्षत्रगणस्तत्कृत्यं च २७ चरनक्षत्रगणस्तत्कृत्यं च
२८ उग्रनक्षत्रगणस्तत्कृत्यं च
२८ मिश्रनक्षत्रगणस्तत्कृत्यं च
२८ लघुनक्षत्रगणस्तकृत्यं च २८ मृदुनक्षत्रगणस्तत्कृत्यं च २८ तीक्ष्णनक्षत्रगणस्तत्कृत्यं च २८ अधोमुखोर्ध्वमुखतिर्यङ्मुखनक्षत्राणि २९ प्रवालदंतशंखसुवर्णवस्त्रपीरधानमुहूर्तः २९ नवधा विभक्तस्य वस्त्रस्य दग्धादिदोषे शुभाशुभफलम्
३० कचिद्दुष्टदिनेऽपि वस्त्रपरिधानम्
३० लतापादपारोपणराजदर्शनमद्यगोक्रय
विक्रयमुहूर्ता:
३१ पशूनां रक्षामुहूर्त: ३१ स्थितिनिवेशनिषेधमुहूर्तश्व
३१ औषधसूच्योर्मुहूर्तः
३२ क्रयविक्रयनक्षत्राणि
२२ विक्रयविपण्योर्महतः
३३ अश्वहस्तिकृत्यमुहूर्त:
३३ भूषाघटनादिमुहूर्त:
३४ मुद्रापातननववस्त्रक्षालनमुहूर्तः ३४ खङ्गादिधारणं • शय्याद्युपभोगमुहूर्तश्च ३९ अंधादिनक्षत्राणि
प्रकरणानि
३५ अंधादिनक्षत्राणां फलम् ३५ धनप्रयोगे निषिद्धनक्षत्राणि ३६ जलाशयखनननृत्यारंभयोर्मुहूर्तः ३६ सेवकस्य स्वामिसेवायां मुहूर्त: ३७ द्रव्यप्रयोग ऋणग्रहणमुहूर्त: ३७ हलप्रवहणमुहूर्तः
३८ बीजोप्तिमुहूर्तः फणिचक्रं च ३९ शिरामोक्षविरेकादिधर्मक्रियामुहूर्तः
३९ धान्यच्छेदमुहूर्तः
४०
३९ कणमर्दनसस्यरोपणमुहूर्तः धान्यस्थितिर्धान्यवृद्धिश्च शांतिकपौष्टिकादिकृत्यमुहूर्तः
४०
४० होमाहुतिशुद्धिः
४१ वन्हिनिवासस्तत्फलं च ४१ प्रतिवर्षोत्पन्ननवान्नभक्षणमुहूर्त:
४१ नौकाघट नमुहूर्तः
४२ वीरसाधनाभिचारयोर्मुहूर्तः
४२ रोगनिर्मुक्तस्नानमुहूर्तः
४२ शिल्पविद्यामुहूर्तः
४२ संधानमुहूर्तः
४३ परीक्षामुहूर्तः
४४ सामान्यतः शुभकार्येषु लग्नशुद्धिः
४४ नक्षत्रेषु ज्वरोत्पत्तौ सत्यां तन्निवृत्तौ दिनसंख्या
४४ शीघ्रं रोगिमरणे विशिष्टयोगः
४५ प्रेतदाहमुहूर्तः प्रेतदाहादिनिषेधश्व
४५ काष्ठगोमयपिंडानां संग्रहमुहूर्तः
४५ त्रिपुष्कर योगस्तत्फलं च ४६ शवप्रतिकृतिदाहेनिषिद्धकाल: ४७ वीतराणि
Aho! Shrutgyanam
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________________
प्रकरणानि
मुहूर्तचिंतामण्यनुक्रमणिका। पृष्ठांकाः प्रकरणानि
| पृष्ठांकाः ४७ त्रिपादनक्षत्राणि द्विपादनक्षत्राणि च
संक्रातिप्रकरणम् ३ ४८ अभुक्तमूलस्वरूपम्
६७ नक्षत्रवारवर्शन संज्ञाफलं च ४८ मूलाश्लेषानक्षत्रोत्पन्नस्य चरणवशेन शु. ६७ दिनरात्रिविभागेन संक्रांतिफलं उत्तराभाशुभफलम्
यणदक्षिणायनसंज्ञा च ४९ मूलवृक्षविचारः
६८ अवशिष्टसंक्रांतिषु षडशीतिमुखादि४९ मूलनिवासस्तत्फलं च
संज्ञाः ५० मूलप्रसंगाढुष्टगंडांतनिमित्तेषु ज तस्य ६८ संक्रांतौ गौणमख्यक्रमण कालः परिहारः
६९ अर्धरात्रसंक्रांतिषु मकरकर्कटयोश्च वि५० मूलशांतिः
शेषः ५४ आश्लेषाशांतिविधिः
६९ उदयास्तादिवचनस्यापवादः ५४ गंडांतशांतिविधिः ५५ ज्येष्ठाशांतिविधिः
७० विष्णुपदादिविशेषः ५५ दिनक्षयव्यतीपातयोगादिशांतिः
७१ सायनांशसंक्रांतिस्तत्पुण्यकालश्च ५६ कुहूसिनीवालीदर्शनिर्णयः
७२ जघन्यबृहत्समनक्षत्राणि
७२ संज्ञाप्रयोजनम् ५६ सिनीवालीकुहूशांतिः ५८ दर्शशांतिः
७२ कर्कसंक्रांतावब्दविंशोपकाः ५८ कृष्णचतुर्दशीजननशांतिः
७३ कीदृशस्य रवेः संक्रमो जातस्तत्फलम् ५९ एकनक्षत्रजननशांतिः
७३ संक्रांतेः करणपरत्वेन वाहनादि ६० गोमुखप्रसवशांतिः
७४ संक्रांतिवशेन प्रतिमनुष्यशुभाशुभफलम् ६० त्रीतरशांतिः
७४ कार्यविशेषे ग्रहविशेषबलं सामान्यतो ६१ सूर्यचंद्रग्रहणजननशांतिः
ग्रहबलं च ६१ ज्वराद्युत्पत्तिकालीननक्षत्रशांतिः ७५ अधिमासक्षयमासलक्षणम् ६२ नक्षत्रदेवताध्यानानि ६३ काकमैथुनदर्शनशांतिः
अथ गोचरप्रकरणम् ४ ६३ कपोतादिशांतिः
७६ रव्यादिग्रहाणां गोचरफलम् ६४ पल्लीसरठशांतिः
७७ वामवेधः शुक्लपक्षे चंद्रबलं च ६४ अश्विन्यादिनक्षत्राणां तारकामानम्
७७ द्विविधवेधे मतद्वयम् ६४ अश्विन्यादिनक्षत्राणां स्वरूपम्
७८ ग्रहणीयनक्षत्रफलं ग्रहणीयराहुगोचर६५ जलाशयारामदेवप्रतिष्ठामुहूर्तः
फलं ग्रहाणां शुभप्रतीकारो दुष्टग्रहण६५ देवप्रतिष्ठायां सामान्यतो लग्नशुद्धिः
दर्शननिषेधश्च । ८२ चंद्रबले विशेषः
Aho ! Shrutgyanam
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________________
J
पृष्ठांकाः
प्रकरणानि
८२ चंद्रबलस्य विधानांतरम्
मुहूर्तचिंतामण्यनुक्रमणिका ।
पृष्ठांका:
९२ जलपूजामुहूर्त: दुग्धपानमुहूर्तश्च
९२ अन्नप्राशनमुहूर्तः
९३ लग्नबलं ग्रहाणां स्थानवशात्फलानि च ९४ भूम्युपवेशन मुहूर्तः
९४ जीविकापरीक्षा
८२ ग्रहाणां नवरत्नसमुदायधारणम् ८२ असति द्रव्यसामर्थ्ये तत्तद्रहरत्नधारणम्
८३ अल्पमूल्यरत्नानि ताराबलं च ८३ शेषक्रमेण सफलास्ताराः
८३ अवश्यकृत्ये दुष्टताराणां परिहारः ८४ चंद्रावस्थागणनोपायः
८४ द्वादशावस्थानामानि
८४ ग्रहाणां वैकृतपरिहारार्थं सौपधजलस्नानं दक्षिणाश्च
८५ सूर्यादयो ग्रहाः गंतव्यराशेः कियद्भर्दिनैः फलं दद्युरित्येतत् ८५ प्रसंगादावश्यकृत्ये दुष्टे तिथ्यादौ दानम् ८९ सूर्यादिग्रहाणां राश्यंतरगमे फलम्
८६ निंद्यरजोदर्शनम्
८७ प्रथमरजखलायाः स्नानमुहूर्तः ८७ गर्भाधानम्
८८ गर्भाधाने लग्नम्
८८ सीमंतोन्नयनमुहूर्तः
८९ मासेश्वराः स्त्रीणां चंद्रबलं च ८९ पुंसवनमुहूर्तः विष्णुबलिमुहूर्तश्च ९० जातकर्म नामकरणयोर्मुहूर्तः
प्रकरणानि
९५ शिशोस्तांबुलभक्षणमुहूर्तः ९९ कर्णवेधमुहूर्तः
९९ कर्णवेधे लग्नशुद्धिः ९६ चूडाकर्मनिषेधकाल:
संस्कारप्रकरणम् ५
८६ शुभफलसूचकप्रथमरजोदर्शनम्
८६ प्रथमरजोदर्शने शुभमध्याऽशुभनक्षत्राणि | १०० क्षौरस्य विधिनिषेधौ
९६ तत्प्रसंगतोऽन्यकर्मनिषेधकालश्च ९६ गुरुशुक्रयोल्यवार्धकदिनसंख्या ९७ परमते बाल्यवार्धकदिनसंख्या ९७ चौलमुहूर्तः
९८ मातरि सगर्भायां चौले विशेषः ९९ चौले दुष्टतारापवादः
९९ चौलादिकृत्ये कालविशेषनिषेधः ९९ सामान्यक्षौरादिमुहूर्तस्तन्निषेधकालश्च
४
१०० राज्ञां क्षौरे विशेषः वर्ज्यनक्षत्राणि च १०१ अक्षरारंभमुहूर्तः १०१ विद्यारंभमुहूर्तः १०२ व्रतबंध:
१०२ तस्य कालत्रयं नित्यकाम्यगौणभेदेन १०३ व्रतबंधे नक्षत्रादि
१०४ व्रतबंधे सामान्यतो लग्नभंगयोगः
Aho! Shrutgyanam
C
१०४ व्रतबंधे लग्नशुद्धिः
९० सूतिकास्नान मुहूर्त:
१०४ वर्णाधीशाः शाखेशाश्च १०४ वर्णेशशाखेशप्रयोजनम्
९९ प्रथमादिमासोत्पन्नदंतफलम्
९१ दोलाच दोलारोहणमुहूर्त : निष्क्रमण - १०५ सामान्यतो निषिद्धजन्ममासादेः प्रति
मुहूर्तश्च
प्रसवः
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प्रकरणानि
पृष्ठांका: १०६ गुरुबलम् १०६ गुरुदीष्टापवादः १०७ व्रतबंधे वर्ज्यपदार्थाः
१०७ व्रतबंधे व्याद्यंशफलम् १०८ चंद्रनवांशफलं सापवादम् १०८ केंद्रस्थसूर्यादिग्रहाणां फलम् १०८ चंद्रगुरुशुक्राणां ग्रहयोगे फलम्
१०९ चंद्रादिवशेन शुभाशुभयोगौ १०९. व्रते अनध्यायाः ११० प्रदोषलक्षणम्
११० बह्वृचां ब्रह्मौदनसंस्कारः १११ वेदपरत्वेन नक्षत्रविशेषः
१११ धर्मशास्त्रीयविशेषः
११२ छूरिकाबंधनमुहूर्तः ११२ केशांतसमावर्तनमुहूर्ती
मुहूर्तचिंतामण्यनुक्रमणिका ।
अथ विवाहमकरणम् ६
११३ प्रश्नलग्नाद्विवाहयोगद्वयम् ११४ अन्यद्विवाहयोगद्वयम् ११४ प्रश्नलनाद्वैधव्ययोगत्रयम् ११४ प्रश्नलग्नात्कुलटामृतवत्सायोगः ११४ विवाहभंगयोगः
११५ प्रश्नमाद्वैधव्यमुतापत्यादियोगः ११५ बालवैधव्ययोगे परिहारः ११५. सावित्रीव्रतम्
११५ पिप्पलतम्
११६ कुंभविवाहः
११६ अश्वत्थविवाहः
११६ विष्णुप्रतिमादानविधिः
वृष्ठांका:
११८ कन्यावरणमुहूर्तः ११८ वरवरणमुहूर्तः
११८ कन्याविवाहकाल: ग्रहशुद्धिश्व ११९ विहितमासाः
१२० मासप्रसंगाज्जन्ममासादिनिषेधविधयः
१२० ज्येष्ठमासप्रयुक्तविशेषः
१२१ अन्यविशेषः
१२१ प्रतिकूलनिर्णयः
प्रकरणानि
१२४ विवाहानंतरं पुरुषत्रये चूडादिनिषेधः
१२४ मूलादिदुष्टनक्षत्रोत्पन्नयोर्वधूवरयोः श्वशुरादिपीडकत्वम्
१२४ तदपवादः
१२९ राशिकूटानां नामानि
१२५ वर्णकूटं वश्यकूटं ताराकूटं योनिटम् १२७ ग्रहमैत्री
१२७ गणकूटं तत्फलं च
१२८ राशिकूटं तत्फलं च
१२८ दुष्टभकूटस्य परिहारः
१२९ दुष्टानां गणकूट भकूटग्रहकूटानां परिहारः '
१२९ नाडीकूटं तदपवादश्च
१३१ प्राच्यसंमतं वर्गकूटम्
१३१ नक्षत्रराश्यैक्ये विशेषः
१३२ राशिस्वामिनः नवांशविधिश्व
१३२ होराविधिः
१३३ त्रिंशांशाः
१३३ द्रेष्काणकांशाः
१३३ द्वादशांशाः
१३३ त्रिंशांशकाः
११७ अस्याः कन्यायाः कीदृशं प्रथमापत्यं । १३४ गंडांतदोषः भवितेति प्रश्न उत्तरम्
१३४ नक्षत्रगंडांत:
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प्रकरणानि
पृष्ठांकाः
१३४ लग्नगंडांतः
१३४ तिथिगंडांतः
१३४ कर्तरीदोषः
१३५ सग्रहदोषः
१३५ अष्टमग्नदोषः सापवादः
मुहूर्तचिंतामण्यनुक्रमणिका ।
पृष्ठांका:
प्रकरणानि
१४४ प्राच्यमतेन बाणः सापवादः
१४४ समयभेदेन त्रिविधो बाणपरिहारः
१४५ ग्रहाणां दृष्टिः
१४५. उदयास्तशुद्धिः
१४७ सूर्यसंक्रमणाख्यदोषः
१४७ सर्वग्रहाणां संक्रांतिघट्यः १४७ पंग्धकाणबधिराख्यलग्नदोषाः १४७ परमते पंग्बंधलग्नदोषाः
१४८ येषां प्रयोजनं सापवादं १४८ विहितनवांशाः
१४८ विहितनवांशे कचिन्निषेधः १४८ सर्वथा लग्नभंगयोगः
१३६ अन्यदपि
१३६ विषघटीदोषः
१३७ दिवामुहूर्ताः १३७ रात्रिमुहूर्ताः १३७ वारभेदेन मुहूर्ता:
१३८ वेधदोषविवक्षया विहितनक्षत्रादिकम
भिजिन्मानं च १३८ वेधदोषः
१३८ पंचशलाकाचक्रम्
१३९ सप्तशलाकावेधः
१३९ क्रूराक्रांतादिनक्षत्रदोषः सापवादः १३९ लत्तादोषः
१४० पातदोषः
१४० सूर्यचंद्रक्रांतिसाम्यापरपर्यायो महापातदोषः १४० खार्जूरदोषः
१४० उपग्रहदोषः
१४१ पातोपग्रहलत्तास्वपवादः
१४१ वारदोषभेदकुलिकः
१४२ दग्धतिथ्याख्यदोषः १४२ जामित्रदोषः
१४२ एकार्गलदोषाणामपवादः
१४२ केषां चिद्दोषाणां देशविशेषेण परिहारः १४३ दशयोगदोषाः दशयोगफलं तदपवादश्च १४४ बाणदोषः पंचकाख्यः
१४८ रेखाप्रदग्रहाः
१४९ कर्तर्यादिमहादोषापवादः
१४९ विवाहेऽब्ददोषाद्यनेकदोषापवादः १५० उक्तानुक्तदोषपरिहारः १५० सामान्यतो दोषसमूहपरिहारः १९१ लग्नविंशोपकाः
१९९ ग्रहवशेन श्वशुरादिविभागज्ञानम् १९१ संकीर्णजातीनां दिवाहे विशेषः १५२ गांधर्वादिविवाहे विशेष: १५२ विवाहात्प्राक् कर्तव्यानामावश्यककृत्यानां दिनशुद्धिः
१५२ वेदीलक्षणं मंडपोद्वासनदिननियमश्च १९३ तैलादिलापने संख्यानियमः १९३ मंडपादौ स्तंभनिवेशनम् ११३ गोधूलिप्रशंसा
१५४ गोधूलिभेदाः
१९४ गोधूलिसमयेऽवश्यवर्ज्यानि १९४ सूर्यस्पष्टगतिः
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मुहूर्तचिंतामण्यनुक्रमणिका । . पृष्टांकाः प्रकरणानि
पृष्ठांका प्रकरणानि १५४ सूर्यस्य तात्कालिकीकरणम् १६५ प्रश्नलग्ने विशेषः १५५ इष्टकालिकलग्नानयनम्
१६५ योगांतरम्' १५५ रविलग्नाभ्यां इष्टघटिकानयनम् १६५ यात्राकालः १५५ घटिकानयनविशेषः
१६६ तिथ्यादिशुद्धिः ११६ विवाहादौ आवश्यकवानि १६७ वारशूलनक्षत्रशूली
१६७ वारशूलनक्षत्रशूलापवादः कालशूलश्च वधूप्रवेशप्रकरणम् ७ १६७ मध्यमानां मिषिद्धानां च कियतां भाना १५७ वधूप्रवेशमुहूर्तः
वय॑घटिकाः १५८ वधूप्रवेशे नक्षत्रशुद्धिः
१६८ मतांतरेण वय॑घटिकाः
१६८ भानां जीवपक्षादिकाः संज्ञाः द्विरागमनप्रकरणम् ८
१६८ जीवपक्षादीनां फलम् १५८ द्विरागमनमुहूर्तः
१६९ सफलोऽकुलकुलाकुलकुलगणः १५९ संमुखशुक्रदोषः
१७० पथि राहुचक्रम् १५९ प्रतिशुक्रापवादः
१७० पथि राहुचक्रफलम्
१७० तिथिचक्रं सफलम् अग्याधानप्रकरणम् ९
१७३ सर्वांकज्ञानम् १६० अग्याधानादिमुहूर्तः
१७३ अडलभ्रमणदोषौ १६० अग्न्याधाने लग्नशुद्धिः
१७३ हिंवराख्ययोगः १६१ यागकर्तृत्वयोगाः
१७३ घबाडं टेलकं गौरवं च ।
१७३ घातचंद्रस्तत्परिहारश्च राजाभिषेकप्रकरणम् १०
१७४ घाततिथयः घातवाराश्च १६१ कालशुद्धिः
१७५ घातनक्षत्राणि घातलग्नानि च १६२ राजाभिषेकनक्षत्राणि लग्नशुद्धिश्च ।
१७५ योगिनीदोषः १६२ राजाभिषेके विशेषः
१७५ कालपाशाख्ययोगौ
१७६ पारिघदंडदोषः यात्राप्रकरणम् ११
। १७६ विदिक्षु गमने नक्षत्राणि पारिघदंडा१६३ यात्राधिकारिणः
पवादश्च १६३ प्रश्नादेव फलम्
१७६ अन्यदपि १६४ अन्यौ प्रश्नौ
१७७ अयनशुद्धिः । १६४ अशुभफलदप्रश्नः
१७७ संमुखशुक्रदोषः तत्परिहारदानं शांतिश्च
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मुहूर्तचिंतामण्यनुक्रमणिका ।
पृष्ठांकाः
प्रकरणानि
१७८ शुक्रस्य वक्रास्तादिदोषः सापवादः १७८ अन्यदनिष्टलग्नं शुभलग्नं च १७९ अन्यदनिष्टलग्नम्
१८० अन्यच्छुभलग्नम्
१८० शुभलग्नानि १८१ दिकूस्वामिनः
१८१ दिगीशप्रयोजनम्
१८१ लालाटिकयोगाः
१८२ पर्युषितयात्रायोगचतुष्टयम्
१८२ समयबलम्
१८२ लग्नादिभावानां संज्ञा: १८२ रेषाप्रदग्रहाः
१८३ योगयात्रा तदारंभप्रयोजनं च १८३ योगयात्रा
१८३ योगयात्रालग्नानि
१९१ विजयादशमी मुहूर्त: १९१ अन्यदपि
१९२ यात्रायामवश्यनिषिद्धनिमित्तानि १९२ एकदिनसाध्यगमनप्रवेशे विशेषः १९२ प्रयाणे नवमीदोषः १९३ यात्रादिनीयविधिः
१९३ नक्षत्र दोहदाः
१९४ दिग्दोहदम्
१९४ वरदोहदम्
पृष्ठकाः
प्रकरणानि
१९६ मतभेदेन प्रस्थानपरिमाणम्
१९७ प्रस्थानदिनसंख्या
१९८ प्रस्थानकर्तुर्नियमाः
१९८ अकालवृष्टिदोषः १९९ दुष्टशकुनशांतिर्दानं च
१९९ शुभसूचकशकुनाः
२०१ अशुभसूचकशकुनाः
२०१ अन्यशकुनाः
२०२ कोकिलादीनां वामभागे श्रेष्ठत्वम् २०२ छिक्कारादीनां दक्षिणभागे शुभत्वम् २०३ उक्तव्यतिरिक्तानां सामान्यतः प्रादक्षिण्येन शकुनः
२०३ विरुद्धशकुने परिहारः
२०३ यात्रानिवृत्तौ गृहप्रवेशमुहूर्तः
२०४ विवाहप्रकरणोक्तदोषा यात्रायां वर्ज्याः २०४ अन्ये दोषाः
वास्तुप्रकरणम् १२
२०९ ग्रामपुरादिषु गृहनिर्माणे स्वस्य शुभा -
शुभम् २०६ राशिपरत्वेन ग्रामनिवासे निषिद्धस्था
नानि २०७ इष्टनक्षत्रेष्टायाभ्यां इष्टभूम्या विस्तारायाम
२०८ आयैर्वर्णपरत्वेन च द्वारनिवेशनम् २०८ गृहारंभे विशिष्टकालनिषेधः २०९ व्ययकथनपुरःसरमंशकज्ञानं सफलम् २०९ शाला ध्रुवाद्यानयनम्
१९४ तिथिदोहदम् १९९ गमनसमये विधिः
१९५ दिश्ययानानि
१९६ निर्गमनस्थानानि
१९६ गमनविलंत्रे वर्णक्रमेण प्रस्थानवस्तूनि २१० ध्रुवादीनां नामाक्षरसंख्या १९६ प्रस्थानपरिमाणम्
२११ गृहस्यायादिनवकम्
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मुहूर्तचिंतामण्यनुक्रमणिका।. पृष्ठांकाः । प्रकरणानि
| पृष्टांकाः प्रकरणानि २१२ गृहारंभेवृषवास्तुचक्रम्
२१८ फलविशेषाच्छुभसूचकं योगद्वयम् २१२ सौरचांद्रमासैक्येन प्राच्यादिदिक्षु द्वारा- २१९ अन्ययोगद्वयमशुभम्
णि गृहनिर्माणनक्षत्राणि सूतिकागृहनि- २१९ द्वारचक्र सफलम्
र्माणप्रवेशौ च २१४ प्रागभिहितसौरचांद्रमासानां प्रकारांतरे- गृहप्रवेशप्रकरणम् १३ णैकवाक्यता
|२२० तत्र प्रवेशश्चतुर्विधः २१५ तिथिपरत्वेन द्वारनिषेधः
२२० कालशुद्ध्यादिकम् २१५ गृहारंभे पंचांगशुद्धिः लगशुद्धिश्च २२१ जीर्णगृहप्रवेशे विशेषः २१५ देवालये गृहारंभे जलाशये च विदिग- २२२ गृहप्रवेशदिनात् प्राग्वास्तुपूजाविधिः वस्थितराहुमुखं सफलम्
२२३ लग्नशुद्धिस्तिथिवारशुद्धिश्च २१६ गृहकूपनिर्माणे दिगवस्थित्या फलम् २२४ वामरविः २१७ कूपे कृते गृहमध्ये करिष्यमाणानां उप- २२४ प्रवेशे कलशवास्तुचक्रम्
करणगृहाणां दिक्परत्वेन करणम् |२२५ प्रवेशोत्तरकालीनकर्तव्यविधिः २१७ गृहस्य आयुर्दाययोगद्वयम् २२६ ग्रंथसमाप्तौ पितामहवर्णनम् २१८ अन्ययोगद्वयम्
२२६ क्रमप्राप्त स्वपितवर्णनम् २१८ अन्यत् योगत्रयम्
२२७ स्वनामकथनपूर्वकं ग्रंथसमाप्तिः २१८ गृहस्य परहस्तगामित्वे योगः
इति अनुक्रमणिका समाप्ता ॥
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11 T: 11
॥ मुहूर्तचिंतामणिः ॥
॥ रामकृतप्रमिताक्षराटीकासहितः ॥
शुभाशुभप्रकरणम् ॥ १ ॥ कैलासे पूर्णराकाहिमकररुचिरे वीक्ष्य बिंबं स्वकीयं भूयोभूयोऽपि धावन्प्रतिभटकरटिस्पर्धया चंडशुंडः ॥ मा धाव त्वं त्वदंघ्रिप्रहतिभिरभितो धूयतेऽसौ धरित्रीत्यंबावाग्भिर्निरुद्धाः कपटकरटिनः केलयो नः पुनं ॥ १ ॥ मुहूर्तचिंतामणिसंज्ञकस्य स्वयं कृतस्य प्रमिताक्षराख्याम् || रामो विधत्ते विवृतिं प्रणम्य विष्ण्वर्करुद्रान् पितरौ गुरूंश्र ॥ २ ॥ प्रारिप्सितस्य ग्रंथस्य निर्विघ्नपरिसमाप्त्यर्थं शिष्टाचारानुमितश्श्रुतिबोधितकर्तव्यताकं स्वाभीष्टगणेशदेवताशीर्वादरूपं मंगल मिंद्रवज्जयोपनिबध्नाति
गौरीश्रवः केतक पत्रभंगमाकृष्य हस्तेन ददन्मुखाग्रे ॥ विनं मुहूर्ताकलित द्वितीयदंतप्ररोहो हरतु द्विपास्यः ॥ १ ॥ गौरीश्रव इति ॥ द्विपस्य गजस्यास्यं मुखं यस्येति द्विपास्यो गणेशो विघ्नं हरतु नाशयतु । युष्माकमिति शेषः । कीदृशो गणेशः गौरीश्रवः केतकपत्रभंगं हस्तेनाकृष्य मुखाग्रे ददत् । गौरी पार्वती तस्याः श्रवणयोः कर्णयोः स्थितं केतक्याः पुष्पं केतकं
य पत्रं पर्ण तस्य भंगं खंड हस्तेन शुंडादंडेनाकृष्य हठाङ्गृहीत्वा स्वमुखाग्रे स्वमुखौष्ठे ददाति स्थापयतीति ददत् । अनेन गणेशस्य बाललीला सूचिता । बालोऽपि मातृसमीपवर्ति यत्किचित्स्वेष्टं वस्तु बलात्कारेण गृहीत्वा मुखे निक्षिपतीति । अतएव मुहूर्ताकलितद्वितीयदंतप्ररोहः । मुहूर्त क्षणमात्रमाकलितोऽनुसृतो द्वितीयदंतप्ररोहो द्वितीयदंतोद्गमो येन सः । अनेन केतकपत्रस्य मुखस्थापनसमये यावन्निगरणं न करोति तावद्गणेशोऽपि द्विदंतएवालोकि । लोक्कैरित्यभूतोपमेयम् ॥ १ ॥
अथ ज्योतिषग्रंथमारभमाणो विषयप्रयोजनसंबंधाधिकारिणः सूचयन्कर्तव्यमुपजातिकया प्रतिजानीते
क्रियाकलापप्रतिपत्तिहेतुं संक्षिप्तसारार्थविलासगर्भम् ॥ अनंतदैवज्ञसुतः स रामो मुहूर्तचिंतामणिमातनोति ॥ २ ॥
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मुहूर्तचिंतामणौ क्रियाकलापेति ॥ अनंताख्यज्योतिर्वित्पुत्रः स प्रसिद्धो रामो मुहूर्तचिंतामणि मुहूर्तानां दिनशुद्धिविशेषाणामथवा दिनस्य रात्रैर्वा पंचदशो विभागस्तत्र लक्षणया तदुपलक्षितः कालो मुहूर्तशब्देनोच्यते । तस्य चिंता शुद्धयशुद्धिरूपो विचारस्तस्य मणिरिव मुहूतचिंतामणिः । यथा मणिहीरकादिः समस्तकांतीनामाधारस्तथायमपि ग्रंथो निखिलमुहूर्तानामाधार इत्यन्वर्थनामानं मुहूर्तचिंतामणिं ज्योतिषग्रंथमातनोति । निषेधविध्यादिसन्निवेशविशेषेण निरूपयतीत्यर्थः । ननु जीर्णग्रंथैरेव मुहूर्तविचारे सिद्धे किमनेनेत्यत आह । कीदृशं मुहूर्तचिंतामणि क्रियाकलापप्रतिपत्तिहेतुम् । क्रिया जातकर्मादिकास्तासां कलापः समूहस्तस्यामुकस्मिन् शुभदिने कार्यमेतदस्मिन्नशुभदिने न कार्यमित्येवंरूपा द्रुततरं प्रतिपत्तिः सम्यग्ज्ञानं तस्य हेतुं कारणम् । अयमर्थः । अन्यग्रंथेषु तिथ्यादिप्रकरणेषु तिथ्यादिशुद्विरुक्ता तज्ज्ञानं तत्प्रकरणानां पुनःपुनरालोडनेन सिद्ध्येदिति गौरवम् । अत्रत्वेकस्मिन्नेव पद्ये यो यो मुहूर्तो विचार्यते तस्य तस्य तत्रैव निर्वाह इति लाघम् । नन्वन्येष्वपि ग्रंथेष्वेवंविधमुहूर्तनिरूपणाद्वयर्थोऽयं श्रम इत्यत आह । पुनः कीदृशं मुहूर्तचिंतामणि संक्षिप्तसारार्थविलासगर्भम् । संक्षिप्तश्चासौ सारार्थविलासगर्भश्च तं सारार्थों निष्कृष्टार्थस्तस्य विलासः प्रकाशः स गर्ने यस्यासौ अत्र शब्दलाघवेन निष्कृष्टार्थस्य निरूपणात् यथा गुरुमुखं विनैवार्थज्ञानं सद्यो मनसि जागर्ति तथा नान्यग्रंथेषु । तत्र शब्दकाठिन्यागुरुमुखादपि झटित्यर्थज्ञानं न भवतीत्येतदर्थमस्यारंभ इति । ननु संबंधादिचतुष्टयकथनं विना कथं श्रोतप्रवृत्तिः । उक्तं च । सिद्धिः श्रोतृप्रवृत्तीनां संबंधकथनाद्यतः । तस्मात्सर्वेषु शास्त्रेषु संबंधः पूर्वमुच्यते ॥ किमेवात्राभिधेयं स्यादिति पृष्टस्तु केनचित् । यावत्प्रयोजनं नोक्तं तावत्तत्केन गृह्यत इति ॥ उच्यते । मुहूर्तचिंतामणिमित्यनेन पदेनैव सर्वं सूचितम् । तथाच नारदः । अस्य शास्त्रस्य संबंधो वेदांगमिति धातृत इति । यद्वा । अत्राभिधेयपदार्थानां मुहूर्तानां ग्रंथस्य च प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावः संबंधः । प्रयोजनं तु शुभाशुभनिरूपणं विवाहादिकालनिर्णयश्च । यदाह नारदः । प्रयोजनं च जगतः शुभाशुभनिरूपणमिति । कश्यपोऽपि । ग्रहणग्रहसंक्रांतियज्ञाध्ययनकर्मणाम् । प्रयोजनं व्रतोद्वाहक्रियाणां कालनिर्णय इति । तज्जिज्ञासुरधिकारी । स च द्विज एव नान्यः । उक्तं च नारदेन । सिद्धांतसंहिताहोरारूपस्कंधत्रयात्मकम् । देवस्य निर्मलं चक्षुयोतिःशास्त्रमकल्मषम् ॥ विनैतदखिलं श्रौतस्मातकर्म न सिद्धयति । तस्माजगद्धितायेदं ब्रह्मणा निर्मितं पुरा । अतएव द्विजैरेतदध्येतव्यं प्रयत्नतः । अत्रैवकारस्य पाठक्रमेण योजने प्रयोजनं विनैव ज्योतिःशास्त्राध्ययनस्यावश्यकत्वं प्रतीयते । द्विजैरेवेति व्याख्याने द्विजव्यतिरिक्तैः शूद्रै ध्येयामिति च प्रतीयते । व्याख्यानद्वयमपि युक्तमेव । ननु कथं श्रौतस्मातकर्मोपयोगि ज्योतिषमिति चेदु. च्यते । अष्टवर्ष ब्राह्मणमुपनयीत वसंते ब्राह्मणोऽनीनादधीत दर्शपौर्णमासाभ्यां यजेतेत्या
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शुभाशुभप्रकरणम् ।
दिश्रुतयः संति । तत्र वषोदिज्ञानं वसंताद्यूतुज्ञानं दर्शपूर्णमासयोर्ज्ञानं च ज्योतिषं विना सर्वथा न निर्वहतीत्यवश्य मध्येतव्यं ज्योतिःशास्त्रम् । उक्तंच वेदांगज्योतिषे । वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः । तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञान् ॥ यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा । तद्वद्वेदांगशास्त्राणां ज्योतिषं मूर्धनि स्थितम् || तस्मात्कर्मोपयोगिकतयाऽवश्यमध्येतव्यं ज्योतिःशास्त्रम् । तच्च सुपरीक्षितशिष्याय देयम् । तदुक्तं श्रुतौ । विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम । गोपाय मा शेवधिष्टेऽहमस्मि । असूयकायानृजवेऽयताय न मा ब्रूया वीर्यवती तथा स्याम् । अन्यच्च । नैतद्देयं दुर्विनीताय जातु ज्ञानं गुप्तं तद्धिसम्यक्फलाय । अस्थाने हि स्थाप्यमानैव वाचां देवी कोपान्निर्दहेत्तं चिराय || विनयावनताय दीयमानं प्रभवेत्कल्पलतेव सत्फलाय । उपकृत्यनुचितकानि शास्त्राण्युपकारस्य पदं हि साधुरेवेति । शूद्रपाठे च महान्दोषः । गर्गः । स्नेहालोभाच्च मोहाच्च यो विप्रोऽज्ञानतोऽपि वा । शूद्राणामुपदेशं तु दद्यात्स नरकं व्रजेदिति । ज्योतिःशास्त्राध्ययने फलमाह मांडव्यः । एवंविधस्य श्रुतिनेत्रशास्त्रस्वरूपभर्तुः खलु दर्शनं वै । नित्यशेषं कलुषं जनानां षडब्दजं धर्मसुखास्पदं स्यात् ॥ अत्र ज्ञानविशेषेण ज्योतिर्विदः पूजातारतम्यं जीर्णैरभ्यधायि । दशदिनकृतपापं हंति सिद्धांतवेत्ता त्रिदिनजनितदोषं तंत्रविज्ञः स एव । करणभगणवेत्ता हंत्यहोरात्रदोषं जनयति घनमंहस्तत्र नक्षत्रसूची ॥ नक्षत्रसूचिलक्षणं वराहसंहितायाम् | अविदित्वैव यः शास्त्रं दैवज्ञत्वं प्रपद्यते । सपंक्तिदूपकः पापो ज्ञेयो नक्षत्रसूचकः ॥ तिथ्युत्पत्तिं न जानंति ग्रहाणां नैव साधनम् । परवाक्येन वर्तते ते वै नक्षत्रसूचकाः ॥ नक्षत्रं सूचयतीति नक्षत्रसूची । नक्षत्रसूचकोद्दिष्टमुपवासं करोति यः । स व्रजत्यंधतामिस्त्रं सार्धमृक्षविडंबना || नक्षत्रसूचकं पापं भिषजं शुल्कजीविनम् । तादृंपौराणिकादींश्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत् ॥ ऋक्षविडंविना नक्षत्रसूचकेन सहांधतामिस्त्रं नरकं व्रजति अतश्चायथाशास्त्रमादेशक एव नक्षत्रसूचको न तु संपूर्णशास्त्रपरिज्ञाता । दैवज्ञत्वं प्रपद्यत इत्युक्तत्वात् । पूर्वकर्मार्जितसदसत्कर्मविपाको दैवं तज्जानातीति दैवज्ञस्तस्य भावो दैवज्ञत्वम् । गुरुः । दैवज्ञैः शास्त्रतत्वज्ञैर्मुहूर्तोऽन्विष्यते यदि । सन्मुहूर्तः समन्वेप्यो नान्यैर्नक्षत्रसूचकैरिति । अतएव कश्यपो वेदपारगसाहित्येनैव नक्षत्रसूचकस्य श्राद्ध भोजनमाह । अरिर्विश्रंभहंता च व्यंगो नक्षत्रसूचकः काणः कुब्जश्च मंदश्व श्वित्री मूर्खश्व कुष्ठवान् ॥ सर्वे श्राद्धे नियोक्तव्या मिश्रिता वेदपारगैरिति । वसिष्ठः । त्रिस्कंधपारंगम एव पूज्यः श्राद्धे सदा भूसुरवंदमध्ये | नक्षत्रसूची खलु पापरूपो हेयः सदा सर्वसुधर्मकृत्ये । वराहोऽपि । नासांवत्सरिके देशे वस्तव्यं भूतिमिच्छता । चक्षुर्भूतो हि यत्रैष पापं तत्र न विद्यते ॥ मुहूर्ततिथिनक्षत्रमृतवश्चायनानि च । सर्वाण्येवाकुलानि स्युर्न स्यात्सांवत्सरो यदि ॥ अतो गणकानां यदपांक्तेयत्वंमभ्यधायि धर्मशास्त्रे तच्च सूचकाभिप्रायेण ज्ञेयम् । महाप्रयोजनं
1
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मुहूर्तचिंतामणी
त्वेतच्छास्त्रस्य सम्यग्ज्ञानाद्ब्रह्मसायुज्यमिति । तथाच गर्गः । ज्योतिश्चक्रे तु लोकस्य सर्वस्योक्तं शुभाशुभम् । ज्योतिर्ज्ञानं तु यो वेद स याति परमां गतिम् ॥ सूर्यसिद्धांते । दिव्यं चक्षुर्ब्रहाणां तु दर्शितं ज्ञानमुत्तमम् । विज्ञायार्कादिलोकेषु स्थानं प्राप्नोति शाश्वतम् ॥ वराहः । न सांवत्सरपाठी च नरके परिपच्यते । ब्रह्मलोकप्रतिष्ठां च लभते दैवचिंतक इति । तस्माज्ज्योतिःशास्त्रमवश्यमध्येतव्यमिति स्थितम् । तत्राप्यार्षवाक्यानां पाठमात्रेणापि फलमस्ति स्मृत्यादिपठनवदिति । अथ मुहूर्तप्रयोजनमाह सत्याचार्यः । शुभक्षणक्रियारंभजनिता पूर्वसंभवाः । संपदः सर्वलोकानां ज्योतिस्तत्र प्रयोजनमिति । तेन शुभमुहूर्तारब्धं कार्यं सिध्येदशुभमुहूर्तारब्धं तु न सिद्ध्येदिति । नन्वेतन्न युज्यते । येन तु यत्प्राप्तव्यं तस्य विपाकं सुरेशसचिवोऽपि । यः साक्षान्नियतिज्ञः सोऽपि न शक्तोऽन्यथा कर्तुमिति शौनकोक्तेः । प्राचीन सदसत्कर्मरूपदैवस्यावश्यंभावित्वादिति चेन्न । विवाहादिषु विहितकालस्य पुरुषप्रयत्नसाध्यत्वादुभययोगे सत्येव कार्यसिद्धिर्न केवलदैवेनेति । तदुक्तं केशवार्किणा । फलेद्यदि प्राक्तनमेव तत्किं कृप्याद्युपायेषु परः प्रयत्नः । श्रुतिः स्मृतिश्चापि नृणां निषेधविध्यात्मके कर्मणि किं निषण्णेति । यदि तु दैवमेव फलेत्तदा सर्वो जनः कृष्याद्युपायेषु कथं प्रवर्ततेति । किंच श्रुतिस्मृत्यादयोऽपि निषेधविध्यात्मका निरर्थकाः स्युः । न वृक्षमारोहेन कूपमवरोहेन्न बाहुभ्यां नदीं तरेन्न प्राणसंशयमभ्यापद्येतेत्यादीनामाश्वलायनादिवचनानां चिकित्साशास्त्रस्येव वैयर्थ्यप्रसंगः स्यादित्यर्थः । याज्ञवल्क्योsपि । दैवे पुरुषकारेऽपि कर्मसिद्धिर्व्यवस्थिता । तत्र दैवमभिव्यक्तं पौरुषं पौर्वदै - हिकमिति । कर्मसिद्धिः फलावाप्तिरिष्टानिष्टलक्षणा सा च केवलदैवे न व्यवस्थिता अपितु पुरुषकारेऽपि । पुरुषकारः प्रयत्नः पुरुषकाराभावे दैवमेव नास्तीत्याह । तत्र दैवमिति । पूर्वदेहाजितपौरुषमेव दैवमित्युच्यते तच्चाल्पपुरुषप्रयत्नानंतरं महाफलोदयेनाऽभिव्यक्तं भवति । अतएव वसंतराजः । पूर्वजन्मजनितं पुराविदः कर्म दैवमिति संप्रचक्षते । उद्यमेन समुपार्जितं तदा वांछितं फलति नैव केवलमिति । दैवप्रयत्नयोरन्यतरेण सिद्धिर्न भवतीत्यत्र दृष्टांतमाह याज्ञवल्क्यः । यथा ह्येकेन चक्रेण रथस्य न गतिर्भवेत् । तद्वत्पुरुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ॥ केशवार्कोऽपि । प्राक्कर्मबीजं सलिलानलोर्वीसंस्कारवत्कर्म विधीयमानम् । शोषाय पोषाय च यस्य तस्य तस्मात्सदाचारवतां न हानिरिति ॥ यत्प्राक्कर्म जन्मांतरोपा - जिंतं कर्म दैवरूपं तस्य विधीयमानमधुना क्रियमाणं कर्म शोषाय पोषाय च भवति । बीजं सलिलानलोर्वीसंस्कारवत् । यथा सद्बीजं शुभसलिलादिसंस्कारैः संस्कृतं सद्देति व च तद्वत्प्राक्कर्माप्यैहिकेन सत्प्रयत्नेन वर्धतेऽन्यथा क्षीयते इत्यर्थः । तस्माज्ज्योतिःशास्त्रविहितकाले विवाहादिकुर्वतां शांतिचिकित्सादिसदाचारवतां पुरुषाणां सदा न हानिः स्यात् । अन्यच्च । दैवं हि पुरुषनिष्ठं तद्देशकालवशत एव विपच्यते । दुष्टमपि दुष्टांतरसाहित्येनैतदुष्टकारि भवति । यथा दुर्जनो रंध्रान्वेषणेन । अतएव वसंतराजः । सर्पवह्निविषकंटकादिकं
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शुभाशुभप्रकरणम् । येन देवशरणोऽपि मानवः । दूरतस्त्यजति पौरुषं तदा तेन न स्फुरति दैवतोऽधिकम् ।। पौरुषेण हृदयेप्सितां गतिं प्राप्नुवंति पुरुषाः सुमेधसः । यांति देवशरणा लयं यथा पादपा ज्वलति दावपावके इति ॥ शकुननिमित्तादिभिः सूचितमशुभं दैवफलं शुभेन प्रयत्नेन वंच्यत एव । यथा च वसंतराजः । तन्निरूप्य शकुनेन दुःखदं वंचयंति नियतं समुद्यतम् । पौरुघेण पुरुषाः सुमेधसः संश्रयंति पुनरात्मनो हितमिति । तदैवफलं दुःखं समुद्यतं शकुनेन निरूप्यं ज्ञातारः पुरुषाः पौरुषेण वंचयंतीत्यर्थः । यथा येन ग्रहेण यावती दशांतर्दशा वा दत्ता तस्याः फलपरिपाकस्तावंतं कालमभिव्याप्य भवेदेवेति स्थिते दशाप्रवेशकालीनचंद्राद्यच्छुभाशुभफलनिरूपणं यथा तस्य दशाफलस्यान्यथात्वमल्पत्वमाधिक्यं वा रुंधयति तद्वदेतदपि बोहव्यम् । नन्वनंतरोक्तसर्पविषवैद्यादिदृष्टांतेन पौरुषमेव फलसाधनं कथं न स्यात् । तथा च वृहद्यात्रायां वराहः । तथा परमुपेक्ष्यैव दैवं धैर्यावलंबिनः । प्रत्यक्षतः क्रियासिद्धौ केवलं जगुरुद्यमम् ॥ उत्थानहीनो राजा हि बुद्धिमानपि सर्वदा । प्रधर्षणीयः शत्रूणां भुजंग इव निर्विषः ॥ विधानगणनाजडः पुरुषकारमुक्तादरो मनोरथपरिश्रमैन परिचुंबति श्रीमुखम् । पराक्रमविनिश्चितैकसुनयो हि सद्यः कृतं हरिर्मदसुवासितं पिबति कुंजरासमध इत्यादि । उच्यते । समानभूमिषु समानसलिलादिप्रयत्नेऽपि फलवैचित्र्यदर्शनात् कारणांतरं कल्प्यते तदेव दैवमिति । अत उभयोोंगे सत्येव फलसिद्धिरिति । एतदपि तत्रैव । कृषिष्टिसमायोगादृश्यते फलसिद्धयः । अस्मिन्नर्थे शृणु श्लोकान्दैपायनमुखोद्गतान् ॥ कृषिः पौरुषं दृष्टिदैवं कर्षकः पौरुषेण कृषि करोति तां दैवं वृष्टया साधयति । अथ कृषि करोति चेत्तदा दृष्टया विना न किंचित्फलमाप्नोति । यदि पुनः कर्षको बीजं वपति दैवं च वर्षति तदा फलमधिकमुत्पद्यते । एवं दैवपुरुषकारयोः समयोर्यत्फलसिद्धयो दृश्यते । अत्रार्थे श्रीव्यासमुखोद्गता इमे श्लोकाः । न विना मानुषं दैवादैवं वा मानुषाद्विना । नैको निवर्तयत्यर्थमेकारणिरिवानलमिति । केचिद्गुद्धिः कर्मनुसारिणीति मान्यमानाः प्रयत्नोऽपि दैवरूप इति कृत्वा दैवमेव फलसिद्धेः कारणमिति वदंति तन्न । अनवस्थादोषप्रसंगात् । तथाहि । प्राकार्जितपौरुषमेव किल दैवशब्देनोच्यते । अत्रत्यः प्रयत्नः प्राचीनपौरुषलक्षणेन देवेन जन्यते । तदपि तत्प्राचीनपौरुषजन्यमित्यनवस्थाऽतः प्रयत्नोऽपि दैवप्रेरित इत्यनुपपनम् । ननु बीजांकुरन्यायेनानवस्थादोषो न भवतीतिचेन्न । नहि बीजांकुरन्यायेन दैवमेव मूलमिति निश्चीयते नापि प्रयत्नः । अतः सत्युभययोगे फलसिद्धिरिति तत्त्वम् । एवं चेत्तर्हि पू. वोक्तानां शौनकादिवाक्यानां । येन तु यत्प्राप्तव्यं तस्य विपाकं सुरेशसचिवोऽपि । यः साक्षानियतिज्ञः सोऽपि न शक्तोऽन्यथा कर्तुमित्यादिकानां का गतिः । उच्यते । दैवं तु दृढकमजमदृढकर्मजं चेति द्विविधम् । तत्र दृढकर्मजस्यावश्यंभावित्वात् ग्रहशांत्यादिरूपापूर्वप्रयनादपि तन्निवारयितुं न शक्यते । दृढमूलत्वात् प्रबलवाताघातेऽपि दृढमूलपादपवत् । अह
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मुहूर्तचिंतामणौ ढकमज तु दैवं प्रयत्नेन निवर्त्यमतिशिथिलमूलपादपवत् । तथाच जातके । ये धर्मकर्मनिरता विजितेंद्रिया ये ये पथ्यभोजनजुषो द्विजदेवभक्ताः । लोके नरा दधति ये कुलशीललीलां तेषामिदं कथितमायुरुदारधीभिरिति । प्रयत्नाभावे तु विपच्यते । तथा च तत्रैव । पापिष्ठा ये दुराचारा देवब्राह्मणनिंदकाः । अपथ्यभोजिनस्तेषामकाले मरणं ध्रुवमिति । वैद्यकेऽपि । पूर्वजन्मकृतं पापं व्याधिरूपेण बाधत इति । सर्वव्याधीनां साधारण्येन कर्मजत्वेऽपि साध्यासाध्यत्वेन द्वैविध्यम् । तत्रापि । कृच्छ्रोपायः सुखोपायो द्विविधः साध्य उच्यते । असाध्यो द्विविधो ज्ञेयो साध्यो यश्चाप्रतिक्रियः। साध्या याप्यत्वमायांति याप्याश्चासाध्यतां तथा ॥ नंति प्राणानसाध्यास्तु नराणामक्रियावतामित्यादिनाऽचिकित्स्यव्याधेदृढकर्ममूलत्वमन्येषामढढकममूलत्वं निश्चीयते । ततो देवस्येदृशं द्वैविध्यमस्ति । अतः शौनकवाक्यानामयमर्थः । येन त्विति । येन पुरुषेण यत्प्राप्तव्यमवश्यंभोक्तव्यं दृढकीपार्जितमिति यावत् । तदन्यथा कर्तु बृहस्पतिरपि न शक्तः । अर्थादन्यददृढकर्मोपार्जितमन्यथा कर्तुं शक्त इत्यर्थः । अतो निमित्तशकुनादिभिर्दुष्टफले ज्ञाते बौधायनादिविहितेन तच्छांतिदानादिरूपधर्मेण प्रयत्नेन तनिवर्तते शुभं वर्धते । अतएव तेनैवोक्तम् । सुपरीक्षितं विलग्नं धर्मार्थसुखाय दंपत्योः । अपरीक्षितं विलग्नं नहि देयं पंडितेन दैवविदा । अयशोंऽबुनिधौ मजति शास्त्रमविज्ञाय यो दद्यादिति । बृहस्पतिरपीद्रं प्रत्याह । स्वभावादेव कालोऽयं शुभाशुभसमन्वितः । अनादिनिधनः सर्वो न निर्दोषो न निर्गुणः ॥ तस्मानिर्दोषकालाथै मुहूर्तमधिगच्छताम् । कालः शुभो गुणैर्युक्तो बलवद्भिः शुभप्रदः ॥ दोषैर्युक्तोऽपि चाप्राप्यैर्बहुभिर्व्यत्ययं द्वयोरिति । अतः शुभमुहूर्तबलेन पूर्वकर्मार्जितमशुभमपि दैवफलं निवार्यते इत्यनवद्यम् ॥ २॥ अथ तिथीशाननुष्टुभाहतिथीशा वह्निको गौरी गणेशोऽहिहो रविः॥
शिवो दुर्गातको विश्वे हरिः कामः शिवः शशी ॥ ३॥ तिथीशा इति ॥ एते तिथीशास्तिथीनां स्वामिनः । वह्निश्च कश्च । को ब्रह्मा शेषं स्पढम् । प्रयोजनं तु तत्तदेवतापूजाप्रतिष्ठादि । अथ मुहूर्तविचारस्य प्रतिज्ञातत्वात्संवत्सरप्रकरणं नोक्तं तदन्यत एवावधार्यम् ॥ ३ ॥ _अर्थ तिथीनां संज्ञां सफलामाहनंदा च भद्रा च जया च रिक्ता पूर्णेति तिथ्योऽशुभमध्यशस्ताः॥ सितेऽसिते शस्तसमाधमाः स्युः सितज्ञौमार्किगुरौ च सिद्धाः॥४॥
नंदेति। प्रतिपदादि पंच तिथयो नंदाभद्राजयारिक्तापूर्णासंज्ञाः स्वस्वनामसदृशफलदाः स्युरिति । एवंप्रकारेण सर्वाः षष्ठ्यादयो ज्ञेयाः ताः शुक्लपक्षे अशुभमध्यशुभफलदाः स्युः ।
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शुभाशुभप्रकरणम् ।
असिते कृष्णपक्षे शुभमध्याधमफलदाः स्युः । ता एव नंदादितिथयः शुक्रबुधमंगलशनिगुरुवारेषु सिद्धिकराः स्युः । यथा नंदाशुक्रवारे एवं भद्रा बुधवारे जया भौमे रिक्ता शनौ पूर्णा गुराविति ॥ ४ ॥
अथ सूर्यादिवारेषु यथासंख्यं निषिद्धतिथीर्दग्धनक्षत्राणि च शालिन्याह
नंदा भद्रा नंदिकाख्या जया च रिक्ता भद्रा पूर्ण संज्ञाऽधमाकीत् ॥ याम्यं त्वाष्ट्रं वैश्वदेवं धनिष्ठार्यम्णं ज्येष्ठांत्यं रवेर्दुग्धभं स्यात् ॥ ५ ॥
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नंदेति ॥ अदिति ल्यलोपे पंचमी । अर्कमारभ्य नंदादिका तिथिरधमा स्यात् यथा सूर्यवारे नंदाधमा एवं सोमे भद्रा भौमे नंदा बुधे जया गुरौ रिक्ता शुक्रे भद्रा रानौ पूर्णेति । इदमाधुनिकानां प्राच्यानां मतम् । वस्तुतस्तु ते शुभा अमृतयोगाः । तथा च वसिष्ठः । नंदा भौमार्कयोर्भद्रा शुक्रेंद्रो जया बुधे । शुभयोगा गुरौ रिक्ता पूर्णा मंदेऽमृताह्वया ॥ गुरुरपि । आदित्यभौमयोर्नदा भद्रा शुक्रशशांकयोः । जया ज्ञे च गुरौ रिक्ता पूर्णार्थौ चामृता शुभेति । नारदवाक्ये शनौ पूर्णा च मृत्युदेति कल्पितः पाठः । वसिष्ठादिवचनविसंवादात् । बहुषु पुस्तकेषु शनौ पूर्णाऽमृताशुभेति पाठाच्च । पूर्णसंज्ञाऽमृतार्कादिति पाठः साधुः । तथा रविवारादिषु याम्यं भरणी तदादीनि नक्षत्राणि यथाक्रमेण दग्वनक्षत्राणि स्युः । यथा रविवारे भरणी दग्धा सोमे चित्रा भौमे उत्तराषाढा बुधे धनिष्ठा गुरावुत्तराफाल्गुनी शुक्रे ज्येष्ठा शनौ रेवती । नारदः । आदित्यभौमयोनँदा भद्रा शुक्रशशांकयोः । जया सौम्ये गुरौ रिक्ता शनौ पूर्णाऽमृताशुभेति । नारदः । यमक्षमर्कवारेऽब्जे चित्रा श्रविष्टार्यम्ण गुरौ ज्येष्ठा भृगोर्दिने । रेवती शनिवारे तु दग्धयोगा भवत्यमी । एतान्येव नक्षत्राणि रव्यादीनां जन्मभानीत्युक्तानि तान्यपि निषिद्धान्येव । लल्लः । याम्यं त्वाष्ट्रोत्तराषाढे घनिष्ठोत्तरफल्गुनी । ज्येष्ठा च रेवती चैव जन्मक्षै भानुतः क्रमात् । क्रमात्सप्तेंद्रदिक्सूर्यनवाष्टौ पौर्णमास्यमा ७, १४,१०,१२,९,८,१९,३० । सूर्यादिजन्मतिथयः संत्याज्याः शुभकर्मणि । जन्मर्क्षे जन्मतिथिषु शुभकर्म विवर्जयेत् । बलाञ्चेत्कुरुते कर्म न तत्फलमवाप्नुयादिति ॥ ५ ॥ अथ क्रकचादिनिंद्ययोगाननुष्टुभाह
विश्वम् ।
षष्ठयादितिथयो मंदाद्विलोमं प्रतिपद्बुधे ॥
सप्तम्यर्केऽधमाः षष्ठयाद्यामाश्च रदधावने ॥ ६ ॥
षष्ठयादीति ॥ क्रमेण षष्ठ्यादितिथयः मंदाच्छनैश्चराद्विलोमं विपरीतगणनयाऽधमाः स्युः । यथा शनौ षष्ठी अधमा शुक्रे सप्तमी गुरावष्टमी बुधे नवमी भौमे दशमी सोमे एकादशी रखौ द्वादशी एते योगाः क्रकचाख्या ज्ञेयाः । तथा प्रतिपदुधवासरे सप्तमी रवि
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मुहूतचिंतामणौ वारे संवर्तयोगा अधमा स्यात् । अथ षष्ठी आद्या प्रतिपत् अमा अमावास्या रदधावने दंतानां काष्ठादिभिर्मलनिराकरणेऽधमा निषिद्धाः स्युः । क्वचिन्नवमीरविवारयोरपि निषेधः । काशीखंडे । प्रतिपद्दशमी षष्ठी नवम्यां रविवासरे । दंतानां काष्ठसंयोगो दहेदासप्तमं कुलमिति ॥ ६ ॥
अथ कृत्यविशेषेषु निषिद्धतिथीरिंद्रवंशाछंदसाहषष्ठयष्टमीभूतविधुक्षयेषु नो सेवेत ना तैलपले क्षुरं रतम् ॥ नाभ्यंजनं विश्वदशद्धिके तिथौ धात्रीफलैः स्नानममाद्रिगोष्वसत् ॥७॥
षष्ठीति ॥ षष्ठ्यष्टम्यौ प्रसिद्धे भूतश्चतुर्दशी विधुक्षयोऽमावास्या एतासु तिथिषु ना पुरुषः तैलं पलं मांसं क्षुरं क्षौरम् रतं मैथुनं नो सेवेत । यथा षष्ठयां तैलम् अष्टम्यां मांसम् चतुर्दश्यां क्षौरम् अमावास्यायां मैथुनम् न सेवेतेत्यर्थः । विधुक्षयः पर्वोपलक्षकः । वसिष्ठः । स्त्रीसेवनं पर्वसु पक्षमध्ये पलं च षष्ठीषु च सर्वतैलम् । नृणां विनाशाय चतुर्दशीषु क्षुरक्रिया स्यादसकृत्तदाशु । नारदः । व्यतीपाते च संक्रातावेकादश्यां च पर्वसु । अर्कभौमदिने विष्टयां नाभ्यंगं न च वैधृताविति । पर्वाणि वसिष्ठ आह । चतुर्दश्यष्टमी कृष्णा अमावास्या च पौर्णिमा । पुण्यानि पंच पर्वाणि संक्रांतिर्दिनपस्य चेति । अत्र तिथिस्तात्कालिकी ग्राह्या । उक्तं च । स्नाने चाभ्यंजने चैव दंतधावनमैथुने । तिथिस्तात्कालिकी ग्राह्या तथा मरणजन्मनोरिति । अथ विश्वे त्रयोदशी दश दशमी द्विका द्वितीया एतासु तिथिषु अभ्यंजनमभ्यंगं मलापहाथ न सेवेत । अयं निषेधो ब्राह्मणव्यतिरिक्तस्य । तथा च भट्टभास्करो निर्णयामृते । त्रयोदश्यां द्वितीयायां सप्तम्यां च विशेषतः । शूद्रविटक्षत्रियाः स्नानं नाचरेयुः कदाचनेति । अथ धात्रीफलैरामलकैः स्नानममाद्रिगोषु अमासप्तमीनवमीषु असत् निषिद्धमित्यर्थः । अत्र वसिष्ठादिमते त्रयोदश्यादितिथिष्वामलकत्तानस्यैव निषेधो नाभ्यंगस्य । वसिष्ठः । कामदुर्गातकरविनप्टेंडर्कदिनेषु च । सकदामलकस्नानं संपत्पुत्रविनाशनम् । भट्टभास्करस्तु नवम्यादिष्वेवामलकस्नानं निषेधति । सप्तम्यचंद्रानवमीषु देहश्रीसंततीरामलकैनरस्य । स्नानं निहत्यंत्यदिने तु धत्ते तिलैः श्रियं पुण्यकरं सदैवेति ॥ ७ ॥ ___ अथ सूर्यादिवारेषु दग्धादियोगचतुष्टयमिंद्रवज्रोपजातिकाभ्यामाहसूर्येशपंचाग्निरसाष्टनंदा वेदांगसप्ताश्विगजांकशैलाः॥ . सूर्यांगसप्तोरगगोदिगीशा दग्धा विषाख्याश्च हुताशनाश्च ॥ ८॥ सूर्यादिवारे तिथयो भवंति मघा विशाखा शिवमूलवह्निः॥ ब्राह्मं करोऽर्काद्यमघंटकाश्च शुभे विवा गमने त्ववश्यम् ॥९॥
सूर्येशेति ॥ सूर्यादीति च ॥ सूर्यशपंचाग्निरसाष्टनंदाः तिथयः सूर्यादिवारे दग्धसंज्ञा
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शुभाशुभप्रकरणम् । भवति । यथा । द्वादशी रविवारे दग्धा सोमे एकादशी भौमे पंचमी बुधे तृतीया गुरौ षष्ठी शुक्रेऽष्टमी शनौ नवमी । उक्तं च नारदेन । एकादशी चंदुवारे द्वादशी चार्कवासरे । षष्ठी बृहस्पतेवीरे तृतीया बुधवासरे ॥ अष्टमी शुक्रवारे च नवमी शनिवासरे । पंचमी भौमवारे च दग्धयोगाः प्रकीर्तिताः ॥ अथ विषयोगाः ॥ वेदेति ॥ चतुर्थ्यादितिथयोऽर्कादिवारेषु विषाख्या भवति । यथा । रवौ चतुर्थी विषाख्या | चंद्रे षष्ठी भौमे सप्तमी बुधे द्वितीया । बुधे भद्रारूपः सिद्धियोगस्तु सप्तमीद्वादश्योश्चरितार्थः । एवं नवमीशन्यादावपि । गुरावष्टमी शुक्र नवमी शनौ सप्तमी । तथा च गुरुः । षष्ठी शशांके नवमी च शुके बुधे द्वितीया तपने चतुर्थी । जीवेऽष्टमी सौरिकुजेऽह्नि सप्तमी योगा विषाख्याः कुलनाशनाः स्युः ॥ अथ हुताशनाख्याः ॥ सूर्यागेति । द्वादश्यादितिथयः सूर्यादिवारेषु हुताशनाख्याः स्युः । यथा रवौ द्वादशी सोमे षष्ठी भौमे सप्तमी बुधेऽष्टमी गुरौ नवमी शुक्रे दशमी शनावेकादशी । वसिष्ठः । सप्तषष्ठ्यादितिथयः सोमवारादिभिर्युताः । अग्निजिताः सप्त योगा मंगलेप्वतिगर्हिताः ॥ अथ यमघंटाः । मघाविशाखादिनक्षत्राणि रविवारादिषु यमघंटसंज्ञानि स्युः । यथा। अर्कवारे मघा यमघंट एवं सोमवारे विशाखा इत्यादि । गर्गः । मघा विशाखा आर्द्रा च मूलमक्षं च कृत्तिका । रोहिणी हस्त इत्युक्ता यमघंटाः क्रमाद्रवेः ॥ एते दग्धादियोगाः शुभे विवाहादिकायें वाः । गमने तु यात्रायामवश्यं वाः । एषामपवादो वसिष्ठेनोक्तः। दिवा मृत्युप्रदाः पापदोषास्त्वेते न रात्रिषु । शुभकायें प्रसूतौ च सर्वदा परिवर्जयेदिति ॥ आवश्यककृत्ये दीपिकायाम् । यमघंटे त्यजेदष्टौ मृत्यौ द्वादश नाडिका इति । अन्येषां पापयोगानां मध्याह्नात्परतः शुभमिति ॥ ८ ॥९॥ अथ चैत्रादिमासे शून्यतिथीः शार्दूलविक्रीडितेनार्धानुष्टुभाहभाद्रे चंद्रदृशौ नभस्यनलनेत्रे माधवे द्वादशी पौषे वेदशरा इषे दश शिवा मार्गेऽद्रिनागा मधौ ॥ गोष्टौ चोभयपक्षगाश्च तिथयः शून्या बुधैः कीर्तिता ऊर्जाषाढतपस्यशुक्रतपसां कृष्णे शरांगाब्धयः॥ १० ॥
शक्राः पंच सिते शकाव्यग्निविश्वरसाः क्रमात् ॥ भाद्र इति । शका इति च ॥ भाद्रपदादिश्लोकोक्तमासेषु चंद्रदृशौ प्रतिपहितीये इत्यादिक्रमोक्ततिथय उभयपक्षगाः शुकुकृष्णपक्षगताः शून्यसंज्ञका बुधैः कीर्तिताः कथिताः । यथा । भाद्रपदे प्रतिपहितीये उभयपक्षे शून्ये । एवं नभसि श्रावणे उभयपक्षे तृतीयाद्वितीये शून्ये इत्यादि । अनुक्तमासानामूर्जाषाढतपस्यशुक्रतपसां कार्तिकाषाढज्येष्ठफाल्गुनमाघानां कृष्णपक्षे क्रमेण शरांगाब्धयः शक्राः पंच एतास्तिथयः शून्याः। यथा । कार्तिककप्णे पंचमी शून्या एवमाषाढकृष्णे षष्ठी फाल्गुनकृष्णे चतुर्थी ज्येष्ठकृष्ण चतुर्दशी माघ
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मुहूर्तचिंतामणौ कृष्णे पंचमी । अथैषामेव कार्तिकादिमासानां शुक्लपक्षे शक्रायग्निविश्वरसाः क्रमाच्छ्रन्याः । यथा । कार्तिक शुक्ले चतुर्दशी शून्या । आषाढशुक्ले सप्तमी फाल्गुनशुक्के तृतीया ज्येष्ठशुक्ले त्रयोदशी माघशुक्ले षष्ठी चेति । वसिष्ठः । अष्टमी नवमी चैत्रे पक्षयोरुभयोरपि । माधवे द्वादशी त्याज्या पक्षयोरुभयोरपि ॥ ज्येष्ठे त्रयोदशी निंद्या सिते कृष्णे चतुर्दशी । आषाढे कृष्णपक्षस्य षष्ठी शुक्ले तु सप्तमी । द्वितीया च तृतीया च श्रावणे सितकृष्णयोः। प्रथमा च द्वितीया च नभस्ये मासि निंदिते ॥ दशम्येकादशी निंद्या मासीषे शुक्लकृष्णयोः । ऊर्जे चतुर्दशी शुक्ला कृष्णपक्षे तु पंचमी ॥ सप्तमी चाष्टमी सौम्ये पक्षयोरुभयोरपि । पौषे पक्षद्वये चैव चतुर्थी पंचमी तथा ॥ माघे तु पंचमी षष्ठी शुले कृष्णे यथाक्रमम् । तृतीया च चतुर्थी च फाल्गुने सितकृष्णयोः ॥ तिथयो मासशून्याख्या वंशवित्तविनाशनाः । आसु श्राद्धं प्रकुर्वीत नैव मंगलमाचरेदिति ॥ १० ॥ अथ नक्षत्रसंबंधिदोषान् सार्धानुष्टुब्वयेनाह
तथा निंद्यं शुभे सापं द्वादश्यां वैश्वमादिमे ॥११॥ अनुराधा द्वितीयायां पंचम्यां पित्र्यभं तथा ॥ त्र्युत्तराश्च तृतीयायामेकादश्यां च रोहिणी ॥ १२॥ स्वातीचित्रे त्रयोदश्यां सप्तम्यां हस्तराक्षसे ॥
नवम्यां कृतिकाष्टम्यां पूभा षष्ठयां च रोहिणी ॥१३॥ तथेति । अनुराधेति । स्वातीति च ॥शुभे कृत्ये द्वादश्यां सार्पमाश्लेषा निंद्या। आदिमे प्रतिपदि वैश्वमुत्तराषाढा । राक्षसं मूलम् । लल्लः । द्वितीयया चानुराधा व्युत्तराश्च तृतीयया । पंचम्या च मघा युक्ता चित्रास्वात्योस्त्रयोदशी ।। प्रतिपद्युत्तराषाढी नवम्यां कृत्तिका यदि । सप्तम्यां हस्तमूले च षष्ठयां ब्राह्मं भवेद्यदि ॥ पूर्वाभाद्रपदाष्टम्यामेकादश्यां च रोहिणी । द्वादश्यां च यदाश्लेषा त्रयोदश्यां मघा यदीत्यादि । एषु कार्ये कृते चेत्स्यात्षण्मासान्मरणं ध्रुवमिति ॥ ११ ॥ १२ ॥ १३॥ अथ चैत्रादिमासेषु शून्यनक्षत्राण्यनुष्टुब्रयेनाहकदास्रो त्वाष्ट्रवायू विश्वेज्यौ भगवासवौ ॥ वैश्वश्रुती पाशिपौष्णे अजपादग्निपित्र्यभे ॥ १४ ॥ चित्राद्वीशे शिवाव्यर्काः श्रुतिमूले यमेंद्रभे॥
चैत्रादिमासे शून्याख्यास्तारा वित्तविनाशदाः॥१५॥
कदास्रेति।चित्रेति च ॥ कदात्रभे रोहिण्यश्विन्यौ चैत्रे शून्ये नक्षत्रे । एषु शुभ__ कार्य न कार्यम् । यतो वित्तविनाशदाः धननाशकरा इत्यर्थः । एवं वैशाखे त्वाष्ट्रवायू
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शुभाशुभप्रकरणम् ।
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चित्रास्वात्य शून्य । पाशी वरुणस्तद्वं शततारा अजपात्पूर्वाभाद्रपदा । वसिष्ठः । अश्विनी रोहिणी चैत्रे शून्यभे परिकीर्तिते । चित्रा स्वाती च वैशाखे ज्येष्ठे विश्वेज्यतारके ॥ भगवासवमाषाढे श्रावणे हरिविश्वभे । नभस्ये वारुणात्यर्क्षमजपादाश्वयुज्यपि ॥ कार्तिके पितृक्षे सौम्ये चित्राद्विदैवते । पौषे दस्तकरार्द्राः स्युर्माघे मूलं च विष्णुभम् ॥ तपस्ये शक्रभरणी शून्यभान्याहुरग्रजाः । एषु यत्तु कृतं कर्म धनैः सह विनश्यतीति
॥ १४ ॥ १५ ॥
अथ चैत्रादिमासेषु शून्यराशीननुष्टुभाह
art झष गोमिथुनं मेषकन्यालितौलिनः ॥
धनुः कर्को मृगः सिंहचैत्रादौ शून्यराशयः ॥ १६ ॥
घट इति ॥ वसिष्ठः । घटमत्स्यतृषा युग्ममेषकन्याः सवृश्चिकाः । तुला चापकुलीराख्या मृगसिंहाश्च राशयः । चैत्रादौ मासशून्याख्या वंशवित्तविनाशना इति ॥ १६ ॥ अथ विषमतिथिषु दग्धलग्नानींद्रवज्जयाह
पक्षादितस्त्वजतिथौ घणौ मृगेंद्रनो मिथुनांगने च ॥ चादुभे कर्करी यांत्या गोंडत्यौ च नेष्टे तिथिशून्यलने ।। १७ ।
पक्षादित इति ॥ शुक्लपक्षकृष्णपक्षादितः प्रतिपदमारभ्य ओजतिथौ विषमतिथौ प्रतिपत्तिथौ घणौ तुलाकरौ तृतीयायां मृगेंद्रनक्रौ सिंहमकरौ पंचम्यां मिथुनकन्ये सप्तम्यां चार्षेदुभे धनुःकर्कौ नवम्यां कर्कहरी कर्कसिंहौ एकादश्यां हयांत्यौ धनुर्मीनौ त्रयोदश्यां गोंऽत्यौ नृपमीनौ एते तिथिशून्यलग्ने तस्यां तस्यां तिथौ नेष्टे निषिद्धे । वसिष्ठः । मृगसिंहौ तृतीयायां प्रथमायां तुलामृगौ । पंचम्यां बुधराशी द्वौ सप्तम्यां चापचंद्रुभे || नवम्यां सिंहकीटाख्यावेकादश्यां गुरोर्गृहे । वृषमीनौ त्रयोदश्यां दग्धसंज्ञास्त्वमी ग्रहाः । दग्वसद्मनि यत्कर्म कृतं सर्वं प्रणश्यति ॥ १७ ॥ अथैषां दुष्टयोगानां शुभकृत्यावश्यकत्वे सति परिहारमाह
तिथयो मासशून्याश्च शून्यलग्नानि यान्यपि ॥ मध्यदेशे विवर्ज्यानि न दृष्याणीतरेषु तु ॥ १८ ॥ पंrधकाणलग्नानि मासशून्याश्च राशयः ॥ गौडमालवयोस्त्याज्या अन्यदेशे न गर्हिताः ॥ १९ ॥
तिथयो मासशून्या इति द्वाभ्याम् || पंग्बंधकाणलग्नानि विवाहप्रकरणे वक्ष्यंते । नारदः । चंद्रे चैव त्रिकोणे च शुभे ह्युपचयेऽपि वा । एकोऽपि बलवांश्चापि शून्यतिथ्युडुनाशक इति ॥ १८ ॥ १९ ॥
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मुहूर्तींचंतामणौ अथ हस्तार्कादिसिद्धियोगानां तिथिविशेषेणातिनिंद्यत्वमनुष्टुब्धयेनाहवर्जयेत्सर्वकार्येषु हस्ताकै पंचमीतिथौ ॥ भौमाश्विनी च सप्तम्यां षष्ठयां चंद्रेदेवं तथा ॥२०॥ बुधानुराधामष्टम्यां दशम्यां भृगुरेवतीम् ॥ नवम्यां गुरुपुष्यं चैकादश्यां शनिरोहिणीम् ॥ २१॥ वर्जयेदिति । बुधानुराधामिति च ॥ श्रीपतिः। हस्ते रवौ शशधरे च मृगोत्तमांगं भौमेऽश्विनी बुधदिने च तथानुराधा । पुष्यो गुरौ भृगुसुतेऽपि च पौष्ण्यधिष्ण्यं रोहिण्यथार्कतनयेऽमृतसिद्धियोगाः ॥ एते पंचम्यादितिथिषु चेद्भवंति तदा वाः । यथा । पंचम्यां हस्ताों वर्त्यः एवमग्रेऽपि सप्तमीषष्ठयादौ । उक्तं च । अर्के हस्तः पंचमी च सोमे षष्ठी च चंद्रभम् । अश्विनी सप्तमी भौमे बुधे मैत्रं तथाष्टमी ॥ गुरौ पुष्यं च नवमी दशमी रेवती भृगौ । एकादशी शनौ ब्राझं वर्जयेत्सर्वदा बुध इति ॥ २० ॥ २१॥ . अन्यदप्याह- .
गृहप्रवेशे यात्रायां विवाहे च यथाक्रमम् ॥ भौमाश्विनी शनौ ब्राह्मं गुरौ पुष्यं विवर्जयेत् ॥ २२ ॥ गृहप्रवेश इति ॥ ननु भौमाश्चिन्यादीनां गृहप्रवेशादौ स्वत एव वा नक्षत्रदोषादप्राप्तेः किमर्थमिदं वचनम् । उच्यते । यदि विष्टिर्व्यतीपातो दिनं वाप्यशुभं भवेत् । हन्यतेऽमृतयोगेन भास्करेण तमो यथेति वचनात् । कार्यमात्रे प्राशस्त्यप्राप्तेरावश्यकत्वे प्रवेशादिसंभावना स्यात्तदर्थमपवादवचनं युक्तमेव ॥ २२ ॥
अथानंदादियोगान् शालिन्युपजातिकाभ्यामाहआनंदाख्यः कालदंडश्च धूम्रो धाता सौम्यो ध्वांक्षकेतू क्रमेण ॥ श्रीवत्साख्यो वज्रकं मुद्रश्च छत्रं मित्रं मानसं पद्मलुंबा ॥२३॥ उत्पातमृत्यू किल काणसिद्धी शुशोऽमृताख्यो मुसलं गदश्च ॥ मातंगरक्षश्वरसुस्थिराख्यः प्रवर्धमानाः फलदाः स्वनाम्ना ॥२४॥
आनंद इति । उत्पात इति च ॥ २३ ॥ २४ ॥ अथैषां गणनोपायमनुष्टुभाहदास्रादर्के मृगादिदौ सााझौमे कराहुधे ॥
मैत्राद्गुरौ भृगौ वैश्वाद्गण्या मंदे च वारुणात् ॥२५॥ दास्रादिति ॥ अथ नक्षत्राणां साभिजितां गणना कार्या । यतोऽष्टाविंशतियोगाः । यथार्कदिने दिननक्षत्रं श्रवणस्तदश्विनीतः साभिजिद्गणनया त्रयोविंशतिसंख्यमस्ति । तथा
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शुभाशुभप्रकरणम् ।
सत्यानंदादियोगेषु त्रयोविंशतिसंख्यो गदयोगो जातः । एवमिंदुवारे मृगशीर्षाद्गणनयाऽनंदादयो ज्ञेयाः ॥ २९ ॥
अथैतेषु कियतां दुष्टयोगानामावश्यककृत्ये परिहार शालिन्याह
१३
ध्वांक्षे वज्रे मुद्गरे चेषुनाड्यो वर्ज्या वेदाः पद्मलंबे गदेऽश्वाः ॥ धूम्र का मौसले भूयं द्वे रक्षोमृत्यूत्पातकालाच सर्वे ।। २६ ।। ध्वांक्ष इति ॥ ध्वांक्षवज्रमुद्गरयोगेषु आद्या इषुनाड्य : पंच घटिका वर्ज्याः । पद्मवयोर्वेदाश्वतस्त्रः एवं गदेऽश्वाः सप्त धूम्रे भूरेकैव काणे घटिकाद्वयं मुसले द्वे घटिके | राक्षस मृत्यूत्पातकालाः सर्वे षष्टिघटिकात्मका वर्ज्याः । कालः कालदंडः । अत्रानुक्तेऽपि चरे योगे घटिकात्रयं वर्ज्यम् । उक्तं च ज्योतिः सागरे । ध्वांक्षेद्रायुधमुद्गरेषु घटिकास्त्यज्यास्तु पंचादितः पद्मालुंबकयोश्चतस्त्र उदिता धूम्रे सदैका पुनः । द्वे काणे मुसलाह्वयेऽपि च गदे सप्तैव तिस्रश्चरे मृत्यूत्पातकरक्षसां दिनगतास्ताः कालदंडे तथा ॥ २६ ॥ अथ दोषापवादभूतान्नव योगाननुष्टुभाह
सूर्यभावेदगोतर्क दिग्विश्वनखसंमिते ॥
चंद्र रवियोगाः स्युर्दोषसंघविनाशकाः ॥ २७ ॥ सूर्यभादिति ॥ सूर्यो यत्र तन्नक्षत्रमारभ्य चंद्र दिननक्षत्रे चतुर्नव षड् दश त्रयोदश विंशतिसंख्या के सति रवियोगाः स्युस्ते च दोषसमूहानां नाशकराः । उक्तं च । सूर्याच्चतुर्थे दशमे च षष्ठे विश्व के विशति नव । भवंति षड्भानुसदृक्षयोगाः कुयोगविध्वंसकराः शुभेषु ॥ २७ ॥
अथ सूर्यादिवारेषु नक्षत्रविशेषैः सिद्धियोगाद्रिवत्रोपजातिकाभ्यामाह
सूर्येऽर्कमूलोत्तर पुष्यदास्रं चंद्रे श्रुतिब्राह्मशशीज्यमंत्रम् ॥ Historiesकुशानुसा ज्ञे ब्राह्ममैत्रार्ककृशानुचांद्रम् ॥ २८ ॥ जीवsत्यमैत्राव्यदितीज्यधिष्ण्यं शुक्रेऽत्यमैत्राइव्यदितिश्रवोभम् । art श्रुतिब्राह्मसमीरभानि सर्वार्थसिद्धये कथितानि पूर्वैः ॥ २९ ॥
सूर्य इति । जीव इति च ॥ रविवारे हस्तमूलत्र्युत्तरा पुष्याश्विनीनक्षत्राणि पूर्वैराचार्यैः सर्वार्थसिद्धयै कथितानि । एवं चंद्रे श्रवणादीनि । एते सिद्धियोगा दास्रादर्के मृगादिदावित्यादिप्रकारेणानंदादिसमीचीनयोगसंबंधिनक्षत्रैरुपनिबद्धाः । भीमपराक्रमेण कुयोगा अयुक्ताः । ज्येष्ठावह्निमघा विशाखवसवो मैत्रं यमाख्यं रवौ सोमे शैवविशाखपुष्यपवनाश्चित्रा त्वषाढाद्वयम् । भौमे विश्वजलेशमित्रवसवः प्राग्भाद्रसार्णौ शिवः शूलीरेवति पूर्वयोनिभरणीवस्वश्विमूला बुधे || जीवे मूलमघार्द्रयाम्यवरुणाः पूषा शशी रोहिणी शुक्रे स्वा
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मुहूर्तचिंतामणी
तिभुजंगदैवतमघापुष्योत्तरा रोहिणी । सौरावर्यममूलहस्तवरुणाषाढाद्वयं रेवती चित्राविष्णुमघाश्च सर्वसमये त्याज्या अयोगा बुधैरिति ॥ २८ ॥ २९ ॥
अथावश्यकवर्ज्यत्वेन झटित्युपस्थित्यर्थमुत्पातमृत्युकाणसिद्धियोगान् शालिन्याहदीशान्तोयाद्वासवात्पौष्णभाच्च ब्राह्मात्पुष्यादर्यमक्षचतुभैः ॥ स्यादुत्पातो मृत्युकाणौ च सिद्धिर्वारेऽर्काचे तत्फलं नामतुल्यम् ॥ २० ॥ दीशादिति । विशाखादिचतुर्नक्षत्रैरुत्पात मृत्युकाणसिद्धियोगा रविवारे स्युः । यथा रवौ विशाखा उत्पातः अनुराधा मृत्युः ज्येष्ठा काणः मूलं सिद्धिरिति । एवं सोमवारादौ पूर्वाषाढादितो ज्ञेयम् । तत्फलं नामसदृशम् । उत्पातमृत्युकाणा निषिद्धाः सिद्धिः शुभ इत्यर्थः । नारदः । विशाखादिचतुर्वर्गमर्कवारादिषु क्रमात् । उत्पातमृत्युकाणाख्ययोगाश्वामृतसंयुता इति ॥ ३० ॥
अथ देशविशेषेण कुयोगानां परिहारमनुष्टुभाह
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कुयोगास्तिथिवारोत्थास्तिथिभोत्था भवारजाः ॥ हूणवंगवशेष्वेव वर्ज्या स्त्रितयजास्तथा ॥ ३१ ॥
कुयोगा इति ॥ तिथिवारोत्थाः कुयोगाः क्रकचादयः तिथिभोत्था अनुराधा द्वितीयायामित्यादयः भवारजा याम्यं त्वाष्ट्रं वैश्वदेवमित्यादयः तथा त्रितयजास्तिथिवारनक्षत्रजाः वर्जयेत्सर्वकार्येषु हस्तार्के पंचमीतिथावित्येवमादयस्ते सर्वे हूणवंगखशदेशेष्वेव वयः अन्यदेशे न निषिद्धा इत्यर्थः । नारदः । तिथिवारोद्भवा नेष्टा योगा वारर्क्षसंभवाः । हूणवं खशेभ्योऽन्यदेशेष्वेते शुभप्रदा इति ॥ ३१ ॥
अथ समस्त शुभकृत्ये वर्ज्यान् शार्दूलविक्रीडितेनाहसर्वस्मन्विधुपापयुक्त नुलवावर्षे निशाहोर्घटी
त्र्यंशं वै कुनवांशकं ग्रहणतः पूर्व दिनानां त्रयम् ॥ उत्पातग्रहतोऽद्रग्रहांश्च शुभदोत्पातैश्च दृष्टं दिनं
षण्मासं ग्रहभिन्नभं त्यज शुभे यौद्धं तथोत्पातम् ॥ ३२ ॥ सर्वस्मिन्निति । सर्वस्मिन्शुभे कार्ये एतानि वै निश्चयेन त्यज परिहरेत्यर्थः । विधुना पापेन वा पापैः क्षीर्णेद्वर्कमहीसुतार्क तनयैर्वा युजौ युक्तौ तनुलवौ लग्ननवांशौ त्याज्यौ । पूर्णः क्षीणोऽपि वा चंद्रो लग्ने सर्वत्र गर्हित इति कश्यपोक्तेः । पापेंद् लग्नगौ वांशगतौ वज्य शुभे सदेति च । निशाह्नोर रात्र्यर्धे दिनार्थे च घटीत्र्यंशं विंशतिपलानि दश पूर्वं दश पश्चाच्च परिहर । उक्तं च । मूर्तः कालो निवसति महानिशायां च दिनदले यस्मात् । दश पूर्वं दश परतस्तस्माद्वर्ज्यानि च पलानि । कुनवांशकं पापग्रहनवांशकं परिहर । अथ ग्रहणतः पूर्वं दिनानां त्रयं परिहर । उत्पातग्रहतः उत्पाता दिव्य भौमांतरिक्षास्ते यस्मिन् दिने भवति ततो
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शुभाशुभप्रकरणम् ।
यहांश्च सप्त दिनानि, वानि । ग्रहो ग्रहणं तस्मादपि सप्त दिनानि वानि । उक्तं च । चंद्रसूर्योपरागेषु व्यहं पूर्व शुभे त्यजेत् । सप्ताहमशुभं पश्चात्स्मृतं ग्रहणसूतकम् ॥ त्रिविधोत्पाततश्चोर्ध्व सिंहिकासूनुदर्शने । सप्तरात्रं न कुर्वति यात्रोद्वाहादि मंगलमिति ॥ अंगिरा अपि । सर्वग्रासे तु सप्ताहमर्धग्रासे दिनत्रयम् । त्रिढेकांगुलतो ग्रासे दिनमेकं विवर्जयेत् ॥ वसिष्ठः । सर्वग्रासे दिनान्यष्टौ सर्वकार्य विवर्जयेत् । षट् दिनानि त्रिभागोने अर्धग्रासे चतुर्दिनम् ॥ चतुर्थीशे त्रिरात्रं स्याग्रहणे चंद्रसूर्ययोः । अत्र कार्यस्यावश्यकत्वे परिहारो ज्योतिर्निबंधे । पंच दिनानि वसिष्ठस्त्रिदिनं गर्गश्च कौशिकस्त्वेकम् । यवनाचार्यस्य मतं पंच मुहूर्तानि दूषयति राहुरिति । अयं च निषेधो नित्यनैमित्तिकादिकृत्यातिरिक्तविपयः । गुरुः । नित्ये नैमित्तिके काम्ये जपहोमक्रियासु च । उपाकर्मणि चोत्सर्गे ग्रहवेधो न विद्यत इति । शुभदोत्पातैश्च दुष्टं दिनमिति । शुभदोत्पाता वराहसंहितायाम् । चंडाशनिमहीकंपसंध्यानिर्वातनिःस्वनाः । परिवेषरजोधूमरक्तास्तिमनोदयाः ॥ दुर्मेध्यान्नरसस्नेहमधुपुष्पफलोद्गमाः । गोपक्षिमदवृद्धिश्च शुभाय मधुमाधवे ॥ इत्यादय ऋतुपरत्वेनोक्ताः । एते यहिने भवंति तद्दिनमेव त्यज । अथ ग्रहभिन्नभं ग्रहैौमादिभिभिन्नं भेदितं तथा यौद्ध ग्रहयोर्यद्धं यस्मिन् दिननक्षत्रे जातं तथोत्पातभं यस्मिन्नक्षत्रे दिव्यांतरिक्षभौमास्त्रिविधोत्पाताः संभूताः । एतानि ग्रहभिन्न यौहोत्पातनक्षत्राणि षण्मासं त्यज । भेदस्ताराखेटयोर्यत्र वा स्यादिति विवाहवृंदावने नारदः । ग्रहणोत्पातभं त्याज्यं मंगलेषु ऋतुत्रयमिति । ननु नक्षत्रसंघौ जायमाने ग्रहणे किं नक्षत्रं दूषयेदित्यत्राह । शार्ङ्गधरः । यस्मिन् विधुं राहुरिनं च धिष्ण्ये गृह्णाति तत्त्याज्यमृतुत्रयं स्यात् । पाणिग्रहे पुंमरणं विधत्ते द्वयोर्भयोश्चेद्वयमेव जह्यात् ॥ अन्यच्च । पक्षांतरेण ग्रहणद्वयं स्याद्यदा तदा तद्हणोपगं भम् । पक्षाद्विशुद्धं भवति द्वितीयं पाणिग्रहे शुध्यति भोगषट्कादिति ॥ ३२ ॥
अथ ग्रहणनक्षत्रे ग्रासभेदेन निंद्यान्मासान् दिवसांश्चेद्रवज्रयाहनेष्टं ग्रहदं सकलार्धपादनासे क्रमात्तर्कगुणेंदुमासान् ॥ पूर्व परस्तादुभयोस्त्रिघस्रा ग्रस्तेऽस्तगे वाभ्युदितेऽर्धखंडे ॥ ३३ ॥
नेष्टमिति ॥ ग्रहसं ग्रहणनक्षत्रं क्रमात्संपूर्णार्धचतुर्थांशग्रासे सति षट्व्येकमासान्नेष्टम् । गुरुः । सर्वग्रासेषु षण्मासांस्त्रीन्मासांस्तु दले ग्रहे । आपादग्रहणे धिष्ण्ये मासमेकं विवर्जयेत् । अथ क्रमाद्स्तेऽस्तगे वाऽभ्युदितेऽर्धखंडे पूर्व परस्तादुभयोस्त्रिघत्रा नेष्टाः । ग्रस्तास्ते पूर्व त्रिदिनं नेष्टम् । ग्रस्तोदये पश्चात्रिदिनं नेष्टम् । अर्धखंडे ग्रस्तास्तग्रस्तोदययोरभावेऽपि अर्धग्रासे उभयोः प्रापश्चाच्च त्रित्रिघत्रा नेष्टाः । गुरुः । ग्रस्तास्ते त्रिदिनं पूर्व पश्चाद्वस्तोदये तथा । खंडग्रासे त्रित्रिदिनं निःशेषे सप्त सप्त चेति । कश्यपः । ग्रस्तोदये परो दोषो प्रस्तास्तेऽवाक् शशीनयोः । द्युनिशार्धे तूभयं तत्खंडाखंडव्यवस्थयोरिति॥ ३३॥
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मुहूर्तचिंतामणी
अथ सामान्यतोऽवश्यवर्ज्यानि पंचांगदूषणादीनि वसंततिलकानुष्टुभ्यामाहजन्मर्क्षमा सतिथयो व्यतिपातभद्रावैधृत्यमापितृदिनानि तिथिक्षयर्धी ॥ न्यूनाधिमासकुलिक प्रहरार्धपात विष्कंभवज्रघटिकात्रयमेव वर्ज्यम् ॥ ३४ ॥
परिघा पंच शूले षट् च गंडातिगंडयोः ॥ व्याघाते नव नाड्यश्च वर्ज्याः सर्वेषु कर्मसु ॥ ३५ ॥
जन्मक्षैति । परिघार्धमिति च ॥ जन्मनक्षत्रजन्ममासजन्मतिथयः शुभकर्मसु वयः । अयं निषेध आद्यगर्भस्यैव । नारदः । न जन्ममासे जन्म न जन्मदिवसेsपि वा । आद्यगर्भसुतस्याथ दुहितुर्वा करग्रह इति । जन्ममासलक्षणं जगन्मोहने वृद्धगर्गः । आरम्य जन्मदिवसं यावत्रिंशद्दिनं भवेत् । जन्ममासः स विज्ञेयो गर्हितः सर्वकर्मसु । वस्तुतस्तु यत्र शुक्लादिचांद्रमासे चैत्रादौ जन्माभूत् स चांद्रो मासो जन्ममासतया त्याज्यः । इंद्राग्नी यत्र हूयेते मासादिः संप्रकीर्तितः । अग्नीषोमौ स्मृतौ मध्ये समाप्तौ पितृसोमकाविति हारीतोक्तमासलक्षणात् । व्यतीपातादयश्च वर्ज्याः पितृदिनं मातापित्रोर्मरणदिनं श्राद्धदिनमित्यर्थः । तिथिक्षयर्धी तिथिक्षयस्तिथिवृद्धिश्व तल्लक्षणमाह । वसिष्ठः । स्युस्तिस्वस्तिथयो वारे एकस्मिन्नवमा तिथिः । तिथिर्वारत्रये चैका त्रिद्युस्टद्वेऽपि निंदिते । न्यूनमासोऽधिमासश्च वर्ज्यः । संक्रमद्वयसहितः क्षयमासः अधिकमासोऽसंक्रांतः । कुलिकार्धप्रहरौ वक्ष्यमाणौ पातो महापातः । विष्कंभयोगवज्ञयोगयोराद्यं घटिकात्रयमेव वर्ज्यम् । एवकारेण कैश्वियोगे नव घटिका वर्ज्या इति यदुक्तं । यथा । विष्कंभाद्यघटीत्रयं च नवकं व्याघातवमिति वृत्तते । तथा । व्याघाते वज्रकेंडका इति गणेशज्योतिर्विदुक्तिरपि निरस्ता । विष्कंभवज्ज्रयोस्तिस्रः षट् च गंडातिगंडयोः । व्याघाते नव शूले तु पंच नाड्यो विगर्हिता इति कश्यपोक्तेः । परिघस्याद्यार्धं वर्ज्यम् । शूलस्याद्याः पंच गंडातिगंडयोराद्याः षट्टू षट् घटिकाः । व्याघाते चादिमा नव घटिका वर्ज्याः ॥ ३४ ॥ ३५ ॥
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अथ पक्षरंप्रतिथीरावश्यकत्वे तन्निष्ठवर्ज्यघटीश्चानुष्टुभाहवेदांगावा केंद्रपक्षरंप्रतिथौ त्यजेत् ॥
वस्वकमनुतत्त्वाशाशरा नाडीः पराः शुभाः || ३६ ||
वेदांगेति ॥ चतुर्थी षष्टी अष्टमी नवमी द्वादशी चतुर्दशी एताः पक्षरंप्रतिथयो ज्ञेयाः आसु शुभकृत्यस्यावश्यकत्वे सति आदिमाः क्रमाद्वत्त्वकमनुतत्त्वाशाशरा नाडीस्त्यजेत् । यथा । चतुर्थ्यामादिमा अष्ट घटिकाः पष्ठयां नव अष्टम्यां चतुर्दश नवम्यां पंचविंशतिः
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शुभाशुभप्रकरणम् ।
१७
द्वादश्यां दश चतुर्दश्यां पंच घटिकास्त्याज्या इत्यर्थः । परा उर्वरिताः शुभा ज्ञेयाः । वसिष्ठः। चतुर्दशी चतुर्थी च अष्टमी नवमी तथा । षष्ठी च द्वादशी चैव पक्षच्छिद्राह्वया इमाः । क्रमादेतासु तिथिषु वर्जनीयाश्च नाडिकाः । भूताष्टमनुतत्त्वांकदश शेषास्तु शोभनाः । दोषनाडीषु यत्कर्म कृतं सर्वं विनश्यतीत्यादि । कश्यपेन सर्वसाधारण्येन दशैव वर्जिताः || ३६ || अथ कुलिककालवेलायमघंटकंटक दोषाननुष्टुभाह
कुलिकः कालवेला च यमघंटश्च कंटकः ॥ वाराद्विघ्ने क्रमान्मंदे बुधे जीवे कुजे क्षणः ॥ ३७ ॥
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कुलिक इति ॥ वर्तमानवान्मंदे शनैश्वरे गणिते सति योंऽको भवति तस्मिन् द्विगुणेयों कस्तत्संख्यालक्षणो मुहूर्तः कुलिको भवति । एवं बुधे जीवे भौमे वर्तमानवाराद्गणिते योंऽको भवति स स द्विघ्नः क्रमात् कालवेलायमघंटकंटकसंज्ञा दुष्टमुहूर्ताः स्युः । यथा रवितः शनिः सप्तसंख्याकस्तस्मिन् द्विगुणे चतुर्दश जाताः । तेन रवौ चतुर्दशो मुहूर्त: कुलिकः । एवं बुधे संख्या चत्वारः तद्विगुणोऽष्टमो मुहूर्तः कालवेला जीवे पंच द्विघ्ने दशमो यमघंटः । भौमे तृतीये द्विघ्ने षष्ठो मुहूर्तः कंटकसंज्ञ इत्यर्थः । एवं सोमवारादावपि । अथ शुभकृत्यावश्यकत्वे सति देशभेदेन कुलिकादिदोषपरिहारमाह । गर्गः । विध्यस्योत्तरकूले तु यावदतुहिनाचलम् । यमघंटकदोषोऽस्ति नान्यदेशेषु विद्यते । मत्स्यांगमागधांध्रेषु यमघंटस्तु दोषकृत् । काश्मीरे कुलिकं दुष्टमर्धयामस्तु सर्वत इति । केचिन्मते । स्यात्कालवेला रवितः शराक्षि तर्कानलांगांबुधयो १, २, ६, ३, ६, ४ गजेंदू ॥ ८, १ दिने निशायामृतुवेदनेत्रनगेषु रामा ६,४,२,७,९,३ विधुदंतिनौ १, ८ च ॥ गजेंद् इत्यर्धप्रहरद्वयं शनौ । यात्रायां मरणं काले वैधव्यं पाणिपीडने । व्रते ब्रह्मवधः प्रोक्तः शुभकर्म ततस्त्यजेत् । गौडाः । सूर्ये वेदशरौ ४,१ चंद्रे हयपक्षौ ७,२ कुजेऽक्षिभूः २,१ ॥ ज्ञे बाणानी १,३ गुरौ दंतिहयौ ८, ७ शुक्रे त्रिवेदकौ ३,४ ॥ मंदे तर्कगजौ ६, ८ ज्ञेयौ यामाधवशुभौ सदेति ॥ ३७ ॥ अथ सूर्यादिवारेषु शिष्याणां सद्य एव दोषज्ञानार्थं दुर्मुहूर्तादिनामकान् मुहूर्तान शार्दूलविक्रीडितवसंततिलकाभ्यामाह
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सूर्ये षट्स्वरनागदिझनुमिताश्चंद्रेऽधिषट्कुंजरांकाक विश्वपुरंदराः क्षितिसुते वध्यग्नितर्का दिशः ॥ सौम्ये safoधगजांकदिमनुमिता जीवे द्विषद्भास्कराः शक्राख्यास्तिथयः कलाश्च भृगुजे वेदेषु तर्कग्रहाः ॥ ३८ ॥ दिग्भास्करा मनुमिताश्च शनौ शशिद्विनागा दिशो भ
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मुहूर्तचिंतामणौ . वदिवारकरसंमिताश्च ॥ दुष्टक्षणः कुलिककंटककालवेलाः
स्युश्चार्धयामयमघंटगताः कलांशाः ॥ ३९॥ सूर्ये इति । दिग्भास्करा इति च ॥ रविवारे पष्ठसप्ताष्टमदशमचतुर्दशमुहूर्ता निद्याः । एवं सर्वत्र । अयमर्थो मूले न्यासतः स्पष्ट एव । एषु मुहूर्तेषु कश्चिदुर्मुहूर्तः कश्चित् कुलिकः कंटकः कालवेलाख्योऽर्धयामाख्यो यमघंटाख्यः स्यात् । तत्प्रमाणं कलांशः दिनमानस्य षोडशांशः ॥ ३८ ॥ ॥ ३९ ॥ अथ विवाहादिशुभकृत्ये होलिकाष्टकनिषेधं देशपरत्वेनाह
विपाशेरावतीतीरे शुतुद्रयाश्च त्रिपुष्करे ।।
विवाहादिशुभे नेष्टं होलिकामाग्दिनाष्टकम् ॥ ४० ॥ विपाशेति ॥ विपाशा इरावती शतद्रूः । एताः पश्चिमदेशप्रसिद्धा नद्यस्तासां तीरे उभयतटवर्तिदेशे त्रिपुष्करे देशे च होलिका फाल्गुनशुक्लपौर्णिमा ततः प्रादिनाष्टकं विवाहादिशुभकृत्ये नेष्टं निषिद्धम् । अर्थादन्यदेशे न निषिद्धम् ॥ ४० ॥ अथ मृत्युयोगादिदुष्टयोगपरिहारमनुष्टुभाह
मृत्युक्रकचदग्धादीनिंदौ शस्ते शुभान जगुः ॥
केचिद्यामोत्तरं चान्ये यात्रायामेव निंदितान् ॥ ४१ ।। मृत्युक्रकचेति ॥ मृत्ययोगा दास्त्रादर्क इत्यादिनाऽऽनंदादिषूक्ताः । क्रकचाः षष्ठयादितिथयो मंदाद्विलोममित्युक्ताः । दग्धादियोगाः सूर्येशपंचाग्नीत्यादिनोक्ताः । चंद्रे शस्ते कर्तुर्गोचरेण समीचीने सति एतान् योगान् शुभान् शुभफलदान् जगुरूचुः । राजमातंडः । क्रकचा मृत्युयोगाख्या दिनं दग्धं तथैव च । चंद्रे शुभे क्षयं यांति वृक्षा वजहता इव । अथ केचिदाचार्याः यामोत्तरं प्रहरोत्तरं मृत्युक्रकचदग्धादीन् शुभान् जगुः । स एवाह । उत्पाते यमघंटे च काणे च क्रकचे तथा। तिथौ दग्धे च काले च प्राग्यामात्परतः शुभमिति । अथान्य आचार्या मृत्युक्रकचदग्धादीन यात्रायामेव निंदितान् जगुः विवाहादौ तु न दोषः । लल्लः । वारक्षतिथियोगेषु यात्रामेव विवर्जयेत् । विवाहादीनि कुर्वीत गर्गादीनामिदं वचः । नियेष्विति शेषः । अन्यच्च । अयोगेषु च सर्वेषु वर्जयेद्धटिकाद्वयम् । उत्पातमृत्युकाणानां पंच षट् सप्त नाडिकाः ॥ ४१ ॥
पुनरप्यपवादं भुजंगप्रयातेनाहअयोगे सुयोगोऽपि चेत्स्यात्तदानीमयोगं निहत्यैष सिद्धि तनोति ॥ परे लग्नशुद्धया कुयोगादिनाशं दिना|त्तरं विष्टिपूर्व च शस्तम् ४२
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शुभाशुभप्रकरणम् ।
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अयोग इति । अयोगे क्रकचादौ सति चेत्सुयोगः सिद्धियोगोऽपि स्यात् । तदा एष सिद्धियोगः अयोगफलं निहत्य सिद्धिं तनोति निष्पादयति । मार्तंडः । अयोगः सिद्धियोगश्च द्वावेतौ भवतो यदि । अयोगो हन्यते तत्र सिद्धियोगः प्रवर्तते । परे आचार्याः लग्नशुद्धया कुयोगादिनाशमाहुः । यदाह स एव । यत्र लग्नं विना किंचित्क्रियते शुभसंज्ञकम् । तत्र तेषामयोगानां प्रभावाज्जायते फलम् । अथावश्यककृत्ये कालांतराभावे परिहारमाह । विष्टिपूर्वमिति । विष्टिर्भद्रा सा पूर्वादिर्यस्य विष्टचादिकं मध्याह्नानंतरं शस्तमाहुः । उक्तं च । विष्टिरंगारकश्चैव व्यतीपातः सवैधृतिः । प्रत्यरिर्जन्मनक्षत्रं मध्याह्नात्परतः शुभमिति ॥४२॥ अथ भद्रां शालिन्याह
शुक्ले पूर्वार्धेऽष्टमीपंचदश्योर्भद्वैकादश्यां चतुर्थ्यां परार्धे ॥ कृष्णsत्या स्यात्तृतीयादशम्योः पूर्वे भागे सप्तमीशंभुतिथ्योः ॥ ४३॥
शुक्ल इति ॥ शुक्ले शुक्लपक्षेऽष्टम्यां पूर्णिमायां च पूर्वार्धे भद्रा स्यात् । एकादश्यां चतुर्थ्यां चोत्तरार्धे भद्रा । कृष्णे पक्षे तृतीयायां दशम्यां च अंत्यार्धे उत्तरार्धे । सप्तम्यां शंभुतिथौ चतुर्दश्यां च पूर्वार्धे पूर्वभागे भद्रा स्यात् । भद्रास्वरूपं रत्नमालायाम् । उद्वद्धो
तरेत्यादि ॥ ४३ ॥
अथ चतुर्थ्यादितिथिषु भद्राया मुखपुच्छविभागं शार्दूलविक्रीडितेनाह
॥
पंचद्व्यद्रिकृताष्टरामरसभूयामादिघव्यः शरा विष्टेरास्यमसद्द्वजेंदुरसरामाद्रयश्विवाणान्धिषु यामेष्वत्यघटीत्रयं शुभकरं पुच्छं तथा वासरे विष्टिस्तिथ्यपरार्धजाशुभकरी रात्रौ च पूर्वार्धजा ॥ ४४ ॥
पंचद्रीति ॥ चतुर्थ्यादितिथीनां पंचादिप्रहरेषु आदिघव्यः शराः पंचसंख्या विष्टेर्भद्राया आस्यं मुखम् । यथा । चतुर्थ्याः पंचमप्रहरे आदिभूताः पंच घट्यो भद्रामुखम् । एवमष्टम्यां द्वितीयप्रहरे एकादश्यां सप्तमप्रहरे पूर्णिमायां चतुर्थप्रहरे तृतीयायामष्टमे सप्तम्यां तृतीये दशम्यां षष्ठे चतुर्दश्यां प्रथमे प्रहरे भद्रामुखं स्यात् तदसत् अशुभमित्यर्थः । अथ पुनश्चतुर्थ्यादितिथीनां क्रमेण गर्जेद्वित्यादिप्रहरेषु अत्यं अंते भवं घटीत्रयं पुच्छसंज्ञ तच्छुभकरम् । यथा । चतुर्थ्या अष्टमप्रहरस्यात्यघटीत्रयं भद्रापुच्छम् । एवमष्टम्यादिषु प्रथमादिप्रहरस्यांत्यघटीत्रयं पुच्छं ज्ञेयम् । तत्र भद्राकर्माणि । वसिष्ठः । वधबंधविषायस्त्रच्छेदनोच्चाटनादि यत् । तुरंगमहिषोष्ट्रादि कर्म विष्टयां तु सिद्धयति ॥ अंगविभागः कश्यपसंहितायाम् । मुखे पंच गले त्वेका वक्षस्येकादश स्मृताः । नाभौ चतस्त्रः षट् कव्यां तिस्रः पुच्छ्रे तु नाडिकाः ॥ कार्यहानिर्मुखे मृत्युर्गले वक्षसि निःस्वता । कव्यामुन्मत्तता
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मुहूचिंतामणौ नाभौ च्युतिः पुच्छे ध्रुवो जयः ॥ अथ विष्टिपरिहारमाह । तथेति ॥ .तिथ्यपरार्धजा ति - थ्यत्तरार्धभता विष्टिर्वासरे दिवसे यदि स्यात्तदा शुभकरी। तथा तेनैव प्रकारेण तिथिपूर्वार्धोत्था रात्रौ शुभकरी । लल्लः । दिवापरार्धजा विष्टिः पूर्वार्धात्था यदा निशि । तदा विष्टिः शुभायेति कमलासनभाषितम् ॥ नारदस्तु निषेधमाह । करणानि बवादीनि शुभसंज्ञानि षट् क्रमात् । क्रमायाताक्रमायाता विष्टिनष्टा तु मंगल इति ॥ ४४ ॥ अथ भद्रानिवासं तत्फलं चानुष्टुभाहकुंभकर्कछये मत्यै स्वर्गे ऽब्जेज्जात्रयेलिगे।
स्त्रीधनुर्जूकनकेऽधो भद्रा तत्रैव तत्फलम् ॥ ४५ ॥ कुंभकर्केति ॥ अब्जे चंद्रे कुंभद्वये कुंभमीनस्थे कर्कद्वये कर्कसिंहराशिस्थिते मनुप्यलोके भद्रा तिष्ठति । अथ मेषात्रये मेषषमिथुनस्थिते अलिगे वृश्चिकस्थे चंद्रे च स्वर्गलोके भद्रा तिष्ठति । कन्यातुलाधनुर्मकरराशिषु चंद्रे अधः पाताललोके भद्रा तिष्ठति । तत्रैव मर्त्यस्वर्गपातालेषु फलं स्वोक्तं शुभाशुभं भद्रा ददातीत्यपवादद्वारा प्रयोजनमुक्तं भवति । उक्तं च । मेषोक्षकोZमिथुने घटसिंहमीनकर्केषु चापमृगतौलिसुतासु चंद्रे । स्वर्मय॑नागनगरीः क्रमशः प्रयाति विष्टिः फलान्यपि ददाति हि तत्र देशे। उक्तं च भूपालवल्लभे । कर्ककुंभवये भूस्था कौर्येऽजत्रितये द्युगा । कन्याचापद्वये चंद्रे भद्रा पातालवासिनी ॥ ४५ ॥ अथ कालशुद्धौ निषेध्यवस्तूनि शार्दूलविक्रीडितेनाहवाप्यारामतडागकूपभवनारंभप्रतिष्ठे व्रतारंशोत्सर्गवधूप्रवेशनमहादानानि सोमाष्टके । गोदानाग्रयणप्रपाप्रथमकोपाकर्मवेदव्रतं नीलोद्वाहमथातिपन्नशिशुसंस्कारान्सुरस्थापनम् ॥ ४६॥ वाप्यारामेति ॥ वापी दीर्घिका आराम उपवनम् तडागः पुष्करिणी कूपः प्र. सिद्धः भवनं गृहम् एतेषामारंभप्रतिष्ठे । आरंभो निर्माणं प्रतिष्ठा उत्सर्गः तत्र गृहप्रतिष्ठा गृहप्रवेशो ज्ञेयः । व्रतानामनंतव्रतादीनामारंभो ग्रहणं उत्सर्ग उत्थापनम् । महादानानि तुलापुरुषादीनि सोमः सोमयागः अष्टका अष्टकाश्राद्धं गोदानं केशांतसंज्ञं कर्म आग्रयणं नवान्नेष्टिः । प्रपा जलशाला प्रथमकोपाकर्म प्रथमारभ्यमाणं श्रावणीकर्म वेदव्रतं महानाम्यादित्रयं महानाम्नीव्रतमुपनिषतं वेदव्रतं च नीलोद्वाहः काम्यवृषोत्सर्गः अतिपन्नशिशुसंस्काराः अतिपन्ना अतिक्रांता जातकर्मादयः शिशूनां संस्काराः देवस्थापनम् ॥ ४६ ॥
अथान्यानि शार्दूलविक्रीडितेनाह
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शुभाशुभप्रकरणम् । दीक्षामजिविवाह मुंडनमपूर्व देवतीर्थेक्षणं संन्यासाग्निपरिग्रहौ नृपतिसंदर्शाभिषेकौ गमम् ॥ चातुर्मास्य समावृती श्रवणयोर्वेधं परीक्षां त्यजेवृद्धत्वास्त शिशुत्व ईज्यसितयोयूनाधिमासे तथा ॥ ४७ ॥ दीक्षामीति ॥ दीक्षा मंत्रग्रहणादिका मौंजीविवाह प्रसिद्धौ मुंडनं चौलम् अपूर्वं देवेक्षणं तीर्थक्षणं च संन्यासः प्रसिद्धः अग्निपरिग्रहोऽग्निहोत्रम् अपूर्वं राजदर्शनं राजाभिषेकश्च गमं गमनमपूर्वमेव चातुर्मास्यं चातुर्मास्ययागः समावृतिमजीविसर्गः श्रवणयोर्वेधः कर्णवेध: परीक्षा तप्तमाषादिरूपा दिव्यमिति यावत् । एतानि कर्माणि बुधो न कुर्यात् । कदा ईज्यसितयोर्बृहस्पतिशुक्रयोर्वृद्धत्वे अस्ते च शिशुत्वे बाल्ये च तथा न्यूनाधिकमासे क्षयमासे अधिकमासे च न कुर्यात् । अत्र मूलवचनानि । शातातपः । अस्तं गते गुरौ शुक्रे बाले वृद्धे मलिम्लुचे । उद्यापनमुपारंभं व्रतानां नैव कारयेत् । ऋक्षोञ्चयः । वापीकूपतडागयागगमनं क्षौरं प्रतिष्ठा व्रतं विद्यामंदिर कर्णवेधन महादानं वनं सेवनम् | तीर्थस्नान विवाहदेवभवनं मंत्रादिदेवेक्षणं दूरेणैव जिजीविषुः परिहरेदस्तं गते भार्गवे । उपनयनं गोदानं परिनयनगृहप्रवेशगमनानि । अस्तमितेषु न कुर्यात्सुरगुरुभृगुपुत्र चंद्रेषु || अस्तमयादिफलमाह बादरायणः । गुरोरस्ते पतिं हन्याच्छुक्रास्ते चैव कन्यकाम् । चंद्रे नष्टे उभौ हन्यात्तस्मादस्तं विवर्जयेत् || बालभावे स्त्रियं हन्याद्वृद्धभावे नरं तथा । तस्माद्वाल्ये च वाच विवाहं नैव कारयेत् ॥ अथाधिमासे वर्ज्यानि गृह्यपरिशिष्टे । सोमयागादिकर्माणि नित्यान्यपि मलिम्लुचे । तथैवाग्रयणाधानचातुर्मास्यादिकान्यपि ॥ महालयाष्टका श्राद्धोपाकर्माद्यपि कर्मव्यत् । स्पष्टमासविशेषाख्यविहितं वर्जयेन्मले || गर्गबृहस्पती । अग्न्याधानं प्रतिष्ठां च यज्ञदानव्रतानि च । वेदव्रतवृषोत्सर्गचूडाकरणमेखलाः । मांगल्यमभिषेकं चमलमासे विवर्जयेत् । मरीचिः । गृहप्रवेशगोदानस्थानाश्रममहोत्सवम् । न कुर्यान्मलमासे तु संसर्पेऽहस्पतौ तथा ॥ वसिष्ठः । वापीकूपतडागादिप्रतिष्ठा यज्ञकर्म च । न कुर्यान्मलमासे तु संसर्पेऽहस्पतौ तथा ॥ यदा क्षयमासो भवति तदा क्षयमासस्य पूर्वोत्तरावधिमासौ भवतः । तत्र पूर्वः संसर्पो द्वितीयोऽहस्पतिः । एतानि गुरुशुक्रयोरस्तादावपि वर्ज्यानीत्याहुः । गार्ग्यः । बाले वा यदि वा वृद्धे शुक्रे वास्तंगते गुरौ । मलमास इवैतानि वर्जयेद्देवदर्शनम् ॥ अत्र देवदर्शनमपूर्वं विवक्षितम् । तदाह गर्गः । अपूर्वदेवतां दृष्ट्वा शुचः स्युर्नष्टभार्गवे । मलमासेऽप्यनावृत्ततीर्थयात्रां विवर्जयेत् ॥ अनावृत्ता अपूर्वतीर्थयात्रा । अत्र नियतकालानि सीमंतनामकरणादीनि गुर्वादेरस्तादिसत्वेऽपि स्वस्वकाल एव कार्याणि । गुरुः । मासप्रयुकार्येषु मूढत्वे गुरुशुक्रयोः । न दोषकृन्मले मासे गुर्वादित्यादिकं तथा ॥ अन्यत्रापि । सीमंतजातकादीनि प्राशनांतानि यानि वै । न दोषो मलमासस्य मौढ्यस्य गुरुशुक्रयोरिति ॥
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मुहूर्तचिंतामणी
वसिष्ठः । अतीतकालान्यखिलानि तानि कार्याणि सौम्यायनगे दिनेशे । सिते गुरौ चाप्यथ दृश्यमाने तदुक्तपंचांगदिनेऽप्यखंडे || अत एवातिपन्नशिशुसंस्कारानित्युक्तम् ॥ ४७ ॥ अथ सिंहमकरस्थगुर्वादिष्वतिदेशमाह
अस्ते वर्ण्य सिंहस्थजीवे वर्ज्यं केचिद्रक्रगे चातिचारे ॥ गुर्वादित्ये विश्वघनेsपि पक्षे प्रोचुस्तद्वद्दतरत्नादिभूषाम् ॥ ४८ ॥
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अस्ते वर्ज्यमिति । यदस्ते गुर्वादेरस्ते वर्ज्य निषिद्धमुक्तं तत् सिंहस्थे गुरौ मकरस्थे गुरौ वर्ज्यं निषिद्धम् । देवीपुराणे । सिंहसंस्थे गुरौ यत्नात्सर्वारंभान्विवर्जयेत् । प्रारब्धं न च सिध्येत महाभयकरं भवेत् ॥ पुत्रभ्रातृकलत्राणि हन्याच्छीघ्रं न संशयः । कारको व्रजते नाशं संतानं म्रियतेऽचिरात् ॥ देवारामतडागानि प्रपोद्यानगृहाणि च । विवाहयज्ञोपनय चूडादि च न सिध्यति ॥ यथा सिंहस्थितो जीवस्तथैव मकरस्थितः । अयमपि निषेधो नियतकालानां न भवति । उक्तं च शार्ङ्गये । सीमंतजातकादीनि प्राशनांतानि यानि वै । कर्तव्यानि न दोषोऽस्ति पंचाननगते गुरौ ॥ उपलक्षणमेतत् । संग्रहे वसिष्ठः । नीचराशिगतो जीवः प्रशस्तः सर्वकर्मसु । नीचे नीचांशकस्त्याज्यो यस्मादंशेषु नीचता || विशेषो मांडव्येनोक्तो देवीपुराणे । मकरस्थो यदा जीवो वर्जयेत्पंचमांशकम् । शेषेष्वपि च भागेषु विवाहः शोभनो मतः ॥ तोडरानंद: । अतिचारे सप्तदिनं वक्रे द्वादशमेव च । नीचस्थितेऽपि वागीशे मासमेकं विवर्जयेत् ॥ ज्योतिर्निबंधे । हरिनीचारिभागेऽपि व्रतोद्वाहादि मंगलम् । न निषिद्धं यदि स्वोच्चे स्वभे वा संस्थितो गुरुः ॥ मघां त्यक्त्वा यदा गच्छेत्फाल्गुनीं च वृहस्पतिः । पुत्रिणी धनिनी कन्या सौभाग्यं सुखमश्नुते । इति । क्वचिदपूर्वतीर्थयात्रायां मौढ्यादिदोषो नास्ति । गोदावर्यां गयायां च श्रीशैले ग्रहणद्वये । सुरासुराणां गुर्वीच मौढ्यदोषो न विद्यते ॥ वायुपुराणे त्रिस्थलीसेतौ । गयायां सर्वकालेषु पिंडं दद्याद्विधानतः । अधिमासे जन्मदिने ह्यस्ते च गुरुशुक्रयोः । न त्यक्तव्यं गया श्राद्धं सिंहस्थे च बृहस्पतौ ॥ अधिमासे सिंहगुरावस्ते च गुरुशुक्रयोः । तीर्थयात्रा न कर्तव्या गयां गोदावरीं विनेति ॥ अथ गुर्वाद्यस्ते यद्वर्ण्यं तद्वक्रगे गुरावतिचारगेऽपि गुरौ वर्ज्यम् । वात्स्यः । यात्रोद्वाहप्रतिष्ठां च गृहचूडाव्रतादिकम् । वर्जयेद्यनतश्चैव जीवे वक्रातिचारगे ॥ अस्यापवादो राजमार्तंडे । वक्रातिचारगे जीवे वर्जयेत्तदनंतरम् | व्रतोद्वाहादि चूडायामष्टाविंशति वास - रान् || दीपिकायाम् । त्रिकोणजायाधनलाभराशी वक्रातिचारेण गुरुः प्रयातः । यदा तदा प्राह शुभं विलनं विवाहपाणिग्रहणं वसिष्ठः ॥ अथ केचिद्गुरुसहिते आदित्ये एकराशिगतौ गुरुसूर्याविति यावत् । गुर्वादित्येऽपि सर्वं शुभकर्म वर्ज्यम् । शौनकः । एकराशिगतौ सूर्यव स्यातां यदा पुनः । व्रतबंधविवाहादि शुभं कर्माखिलं त्यजेत् ॥ अथ केचिद्विश्व
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शुभाशुभप्रकरणम् ।
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as पक्षे यस्मिन्पक्षे तिथिद्वयनाशः स त्रयोदशदिनः पक्षः सोऽतिनिद्यः । उक्तं च । पक्षस्य मध्ये द्वितिथी पतेतां तदा भवेद्रौरवकालयोगः । पक्षे विनष्टे सकलं विनष्टमित्याहुराचार्यवराः समस्ताः । तथा । त्रयोदशदिने पक्षे तदा संहरते जगत् । अपि वर्षसहस्त्रेण कालयोगः प्रकीर्तित इति ॥ तस्मिन् पक्षे शुभकर्म वर्ज्यमित्याहुः । चंडेश्वरः । त्रयोदशदिने पक्षे विवाहादि न कारयेत् । गर्गादिमुनयः प्राहुः कृते मृत्युस्तदा भवेत् ॥ उपनयनं परिणयनं वेश्मारंभादिपुण्यकर्माणि । यात्रां द्विक्षयपक्षे कुर्यान्न जिजीविषुः पुरुषः ॥ अथ तद्वत्तेनप्रकारेण दंतरत्नादिभूषां दंताहस्तिदंतास्तत्संबंधिनीं भूषां रत्नसंबंधिनीं भूषां च आदिशब्दात् सुवर्णमणिसंबंधिनीं च भूषां वर्ज्या प्रोचुः । पूर्वस्मिन्निषेधकाले इत्यर्थः । राजमार्तंडः । यात्रां चूडां विवाहं श्रुतिविवरविधिं शंखसद्मप्रवेशप्रासादोद्यानहर्म्य सुरनरभवनारंभविद्याविधाने । मौंजीबंधं प्रतिष्ठां मणिकनकरदाधारणं कुर्वते ये मृत्युः सिंहस्थितेऽज्ये गुरुदिनकरयोरेकराशिस्थयोश्चेति ॥ सिंहस्थगुरोरुपलक्षणत्वादुर्वस्तादावपि प्रथमकर्तव्यसुवर्णादिधारणनिषेध इत्यर्थः ॥ ४८ ॥
अथ सिंहस्थगुरोः प्रकारत्रयेण परिहारमिंद्रवज्जयाह
सिंहे गुरौ सिंहलवे विवाहो नेष्टोऽथ गोदोत्तरतश्च यावत् ॥ भागीरथीयाम्यतटं हि दोषो नान्यत्र देशे तपनेऽपि मेषे ॥ ४९ ॥ सिंहे गुराविति ॥ अत्र प्रथममंशभेदेन परिहारः सिंहस्थे गुरौ सत्यपि सिंहांशे सत्र्यंशत्रयोदशांशे १३, २० भ्योऽनंतरं सत्र्यंशमंशत्रयम् ३, २० पंचमो नवांशः सिंहांस्तत्र गुरौ सति विवाहो नेष्टः । सिंहराशौ तु सिंहांशे यदा भवति वाक्पतिः । सर्वदेशेष्वयं त्याज्यो दंपत्योर्निधनप्रद इति राजमार्तंडोक्तेः । अतोऽवशिष्टांशेषु विवाहादिशुभं भवतीत्यर्थः । सिंहेऽपि भगदैवत्ये गुरौ पुत्रवती भवेत् । अत्यंत सुभगा साध्वी धनधान्यसमृद्विदेत्यादि तत्रैवोक्तेः । अथ देशभेदेन द्वितीयपरिहार उच्यते । अथ गोदोत्तरतः गोदावरी नदी तस्या उत्तरतीरमारभ्य भागीरथीयाम्यतटं दक्षिणकूलं मर्यादीकृत्य गोदावरीगंगांतरालघर्ती यो देशस्तत्र सिंहस्थगुरुर्वज्य नान्यदेशे । लः । गोदावर्युत्तरतो यावद्भागीरथीतटं याम्यम् । तत्र विवाहो नेष्टः सिंहस्थे देवपतिपूज्ये ॥ अर्थाद्गोदावरीदक्षिणतटे भागीरथ्युत्तरदेशे च सिंहस्थ गुरुदोषो नास्ति । वसिष्ठः । भागीरथ्युत्तरे कूले गौतम्या दक्षिणे तथा । विवाहो व्रतबंधो वा सिंहस्थेज्ये न दुष्यतीति । अत्र विवाहव्रतबंधावेव न निषिद्धौ आभ्यामन्यानि शुभकर्माणि निषिद्धान्येव । अपवादस्य संकोचाश्रयत्वादुपलक्षणायोगात् । अथ तृतीयः परिहारः । तपने सूर्ये मेषराशौ विद्यमाने सति वा सिंहस्थगुरोदोषो नास्ति । ज्योतिर्निबंधे । मंगलानीह कुर्वीत सिंहस्थो वाक्पतिर्यदा । भानौ मेषगते सम्यगित्याहुः शौनकादय इति ॥ ४९ ॥
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मुहूर्तचिंतामणी
सिंहराशिगत गुरुनिषेधवाक्यानां प्रतिप्रसववाक्यानां च निर्गलितार्थमनुष्टुव्द्वयेनाहमघादिपंचपादेषु गुरुः सर्वत्र निंदितः ॥
गंगागोदांतरं हित्वा शेषांघिषु न दोषकृत् ॥ ५० ॥ मेषेsh सन्तोद्वाहौ गंगागोदांतरेऽपि च ॥ सर्वः सिंहगुरुर्वयैः कलिंगे गौडगुर्जरे ॥ ५१ ॥ मघादिपंचपादेष्वित्यादि । मेषेऽर्क इत्यादि च ॥ १० ॥ ११ ॥ अथ मकरस्थगुरोः प्रकारद्वयेन परिहार शालिन्याह
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रेवापूर्व गंडकीपश्चिमे च शोणस्योदग्दक्षिणे नीच ईज्यः ॥ वय नायं कौंकणे मागधे च गौडे सिंधौ वर्जनीयः शुभेषु ॥ ५२ ॥ रेवापूर्व इति ॥ रेवाया नर्मदायाः पूर्वदेशे गंडकीनद्याः पश्चिमे विभागे शोणनदस्योत्तरदक्षिणभागे नीच ईज्यो मकरस्थो गुरुर्न वर्ज्यः । लल: । नर्मदापूर्वभागे तु शोणस्योत्तरदक्षिणे । गंडक्याः पश्चिमे भागे मकरस्थो न दोषभाक् ॥ अन्यदेशेषु निषिद्धस्तत्र निषिद्धदेशानाह । अयमिति । अयं मकरस्थगुरुः कौंकणदशे गौडदशे सिंधुदेशे च शुभकृत्येषु वय निषिद्धः । उक्तं च । मागधे गौडदेशे च सिंधुदेशे च कौंकणे । व्रतं चूडां विवाहं च वर्जयेन्मकरे गुरौ || एभ्योऽन्यदेशेषु मंगलमर्थान्मध्यमम् ॥ १२ ॥
अथ लुप्तसंवत्सरदोषं सापवादं वंशस्थवृत्तेनाह
गोजांत्य कुंभेतरभेऽतिचारगो नो पूर्वराशि गुरुरेतिवक्रितः ॥ तदा विलुप्ताब्द इहातिनिंदितः शुभेषु रेवासुरनिम्नगांतरे ॥ ५३ ॥
गोजांत्येति ॥ गौर्वृषः अजो मेषः अंत्यो मीनः कुंभः प्रसिद्धः एभ्य इतरभे अन्यराशौ मिथुनादौ अतिचारगो गुरुर्महातिचारेण समागतः सन् पश्चात्कियद्भिर्दिनैर्वक्रितो यदा पूर्वराशिं नो एति भुक्तराशि नागच्छति तदा विलुप्ताब्दो लुप्तसंवत्सर उच्यते । सं लुप्तसंवत्सरः शुभकृत्ये अतिनिंदितो निषिद्धः । उक्तं च । अतिचारगतो जीवस्तं राशि नैति चेत्पुनः । लुप्तसंवत्सरो ज्ञेयो गर्हितः सर्वकर्मसु ॥ यदा तु गोजांत्यकुंभेषु पूर्वराशेः सकाशान्महातिचारेणयाति पूर्वराशि च नैति तदा न लुप्तसंवत्सरदोषः । गुरुः । मेषे षे झपे कुंभे यद्यतीचारगो गुरुः । न तत्र काललोपः स्यादित्याह भगवान्यमः || दशमासभोगानंतरमतिचारेऽपि लुप्ताब्ददोषो नास्ति । च्यवनः । मासान्दशैकादश वा प्रयुज्य राशेर्यदा राशिमुपैति जीवः । भुंक्ते न पूर्वं च पुनस्तथापि न लुप्तसंवत्सरमाहुरार्याः ॥ पूर्व राशिभेदेन परिहारमुक्त्वदानीं देशभेदेन परिहारमाह । लुप्तसंवत्सरो रेवा नर्मदा सुरनिम्नगा । भागीरथी
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शुभाशुभप्रकरणम् । तयोर्नद्योरंतरेऽतिनिषिद्धः । उक्तं च । लुप्ताब्ददोषोऽत्रिमतेन मध्ये सोमोद्भवार्या निक गाया इति । नारदेन समसप्तकदोषो विवाहे वर्जितः । समदृष्टिगुरोः शुक्रे तन्मासे तु युनतः । विवाहादि न कुर्वीत नर्मदातीर उत्तरे ॥ ५३ ॥ अथ वारप्रवृत्तिमुपजात्याहपादोनरेखापरपूर्वयोजनैः पलैर्युतोनास्तिथयो दिनार्धतः॥ ऊनाधिकास्तद्विवरोद्भवैः पलैरूवं तथाधो दिनपप्रवेशनम्॥५४॥ पादोनेति ॥ रेखा भूमध्यरेखा। पुरी राक्षसी देवकन्याथ कांचीत्यायुक्ता । उपलक्षणमेतत् । लंकात आरभ्य सुमेरुमस्तकदत्तसूत्राधोवर्तिदेशास्ते मध्यरेखाशब्देनोच्यते । यस्मिन् देशे वारप्रवृत्तिश्चिकीर्षिता स देशो रेखातः प्राक् पश्चिमे वा यावंति योजनानि भवंति तानि स्वचतुर्थीशोनानि कृत्वा तावद्भिः पलैस्तिथ्यः पंचदशघटिका युक्तोनाः कार्याः । यदा मध्यरेखातः प्रत्यग्योजनानि तदा युक्ताः । यदा तु प्राग्योजनानि तदोनाः कार्याः । अथ यद्दिने वारप्रवृत्तिरिष्टा तदिवसे यदिनाधम् । चरपलयुतहीननाडिकाः पंचचंद्रा इत्यादिप्रकारसिद्धम् । तस्मादिनार्धात्संस्कारविशिष्टाः पंचदश ऊनाधिकाश्चेद्भवंति तदा तद्विवरोद्भवैः पलैर्दिनार्धस्य संस्कारविशिष्टपंचदशानां च यद्विवरमंतरं तत्संबंधेनोत्थैरुत्पन्नैः पलैरूज़ तथाधो दिनपस्य वारस्य प्रवेशः । यदा संस्कारविशिष्टाः पंचदशदिनार्धतश्चेदूनाः स्युस्तदा सूर्योदयादूर्ध्व वारप्रवृत्तिः । यदा संस्कारविशिष्टाः पंचदशदिनार्धतोऽभ्यधिकास्तदा सूर्योदयात्प्राग्वारप्रत्तिरित्यर्थः । यथा वाराणसीरेखाभिधानात् कुरुक्षेत्रात् प्राक् त्रिषष्टियोजनानि ६३ पादेन चतुर्थीशेनोनानि ४७, १५ प्राग्योजनत्वादेतैः पलैरूनाः पंचदशघटिका जाताः १४, १३ दिनाध १६, ३० अस्मान्न्यूना इति विवरम् २, १७ तेनाभिटिकाभिः सूर्योदयादूर्ध्व वारप्रवृत्तिः । यदा दिनाधै १३, १५ अस्मादधिका इति विवरम् ०, ५८ एताभिर्घटीभिः सूर्योदयात्प्राग्वारप्रवृत्तिरित्यर्थः ॥ ५४॥ अथ वारप्रवृत्तिप्रयोजनपुरःसरं कालहोरामनुष्टुभाह
वारादेटिका विघ्नाः स्वाक्षहृच्छेषवर्जिताः ॥
सैकास्तष्टा नगैः कालहोरेशा दिनपात्क्रमात् ॥ ५५ ॥ वारादेरिति ॥ वारप्रवृत्तिप्रकारेण यस्मिन्क्षणे वारप्रवृत्तिर्जाता तत इष्टघट्यो द्विगुणाः कार्याः। ता द्विस्थाने स्थाप्याः । तत्र पंचभिर्भक्ते यल्लब्धं तत्त्याज्यम् । यच्छेषं तहि गुणघटीमध्ये वर्जितं कार्यम् । एवंविधा घट्यः सैका एकयुक्ताः कार्याः । सप्तभिस्तष्टा अवशिष्टाः कालहोरेशाः स्युः । ते दिनपात् वाराक्रमात् गणनीयाः । यथा रविवारे इष्टघटिकाः ६ द्विगुणाः १२ पृथगक्षा ५ प्तशेष २ वर्जिताः १० सैका ११ नगै ७ स्तष्टाः
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मुहूर्तचिंतामणी
शेषं ४ रविवारे क्रमाद्गणनया चतुर्थो बुधस्तस्य होरा इत्यादि । विवाहवृंदावने । उदयमारभ्य होरा उक्ताः । यथा । तत्कालार्कन्यूनलग्नांशपिंडो भक्तः पंचक्षोणिभिर्भुक्तहोराः । भास्वच्छुक्रज्ञेदुसौरेज्यभौमाः संख्यायेरन्वारतस्ते तदीशा इति । अनयोर्विषयविभागो वसिष्ठसंहितायाम् । वारप्रवृत्तिविज्ञानं क्षणवारार्थमेव हि । अखिलेप्वन्यकार्येषु दिनादिरुदयाद्भवेत् । क्षणवारः कालहोरारूपस्तदर्थं वारप्रवृत्तिः । अन्यकार्येषु दिक्शूलादिषु तिथिवारप्रयुक्तेषु नक्षत्रवारप्रयुक्तेषु च योगेषु सुयोगेषु च सूर्योदयादेव वारो ग्राह्यः ।। १५ ।।
अथ कालहोराप्रयोजनं शालिन्याह
वारे प्रोक्तं कालहोरासु तस्य धिष्ण्ये प्रोक्तं स्वामितिथ्यंशकेऽस्य ॥ कुर्याद्दिशूलादि चित्थं क्षणेषु नैवोल्लंघ्यः पारिघश्वापि दंडः ॥ ५६ ॥
वारे प्रोक्तमिति । यत्कर्म यस्मिन्वारे प्रोक्तं तद्दिनस्य सदोषत्वादत्यावश्यककृत्ये तस्य कालहोरायां कर्तव्यम् । नारदः । यस्य खेटस्य यत्कर्म वारे प्रोक्तं विधीयते । ग्रहस्य क्षणवारेऽपि तस्य तत्कर्म सर्वदा || अत्र केचित् । यस्य वारे कर्म प्रोक्तं तस्य बलिनो नवांशे सूर्यचंद्रो वा चेत्तिष्ठति तदा तत्कर्म कार्यमित्याहुः । उक्तं च । यस्य ग्रहदिने कर्म यत्किंचिदभिधीयते । यस्यांशसंस्थिते चंद्रे सूर्ये वा तद्विधीयत इति । अथ धिष्ण्ये नक्षत्रे यत्कर्म वस्त्रपरिधानादिकमुक्तं तदत्यावश्यकत्वे अस्य धिष्ण्यस्य स्वामिति - थ्यंशके स्वामिनो मुहूर्ते कुर्यात् । नारदः । यस्मिन्नृक्षे तु यत्कर्म निखिलं कथितं च यत् । तद्दैवत्ये तन्मुहूर्ते कार्य यात्रादिकं तथेति । मुहूर्तस्वामिनो विवाहप्रकरणे वक्ष्यते । क्षणेषु मुहूर्तेषु दिक्शूलाद्यं दिक्शूलं वारशूल नक्षत्रशूलं चित्यं विचारणीयम् । एवं पारिघो दंड: क्षणेषु मुहूर्तेषु नैवोछंध्यः । यत्कर्म कथितमृक्षे यस्मिंस्तत्कर्म तत्क्षणे कार्यम् । दिक्शूलादिकमखिलं पारिषदंडादि विज्ञेयमिति वसिष्ठोक्तेः ॥ ५६ ॥ अथ मन्वादीन्युगादींचं शार्दूलविक्रीडितेनाह
मन्वाद्यास्त्रितिथी मधौ तिथिरवी ऊर्जे शुचौ दितिथी ज्येष्ठेऽत्ये च तिथिस्त्विषे नव तपस्यश्वाः सहस्ये शिवा || भाद्रेऽग्निश्च सिते त्वमाष्टनभसः कृष्णे युगाद्याः सिते गोनी बाहुलरायोर्मदनदर्शी भाद्रमाघासिते ॥ ५७ ॥ इति मुहूर्तचिंतामणौ प्रथमं शुभाशुभप्रकरणं समाप्तम् || १ || मन्वाद्या इति ॥ सिते शुक्लपक्षे एता मन्वादयः । मधौ चैत्रे त्रितिथी तृतीया - पौर्णिमे ऊर्जे कार्तिके तिथिरवी पूर्णिमाद्वादश्यौ शुचौ आषाढे दितिथी दशमीपूर्णिमे ज्येष्ठे अंत्ये फाल्गुने च तिथि: उभयत्र पूर्णिमैव इषे आश्विने नवमी तपसि माघे
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नक्षत्रप्रकरणम् ।
२७ अश्वाः सप्तमी सहस्ये पौषे शिवा एकादशी भाद्रपदे अग्निस्तृतीया तु इति पुनः नभसः श्रावणस्य कृष्णपक्षे अमावास्या अष्टमी । अथ युगाद्याश्चत्वारः बाहुलराधयोः बाहुलः कार्तिकः राधो वैशाखस्तयोः शुक्लपक्षे गोऽनी नवमीतृतीये युगादी कार्तिक शुक्लनवमी कृतयुगादिः वैशाखशुक्लतृतीया त्रेतादिः भाद्रमाघासितमदनदौँ युगादी मदनस्त्रयोदशी दर्शोऽमावास्या भाद्रकृष्णत्रयोदशी कलियुगादिः माघकृष्णामावास्या द्वापरादिः । अत्र शुक्लादयो मासा ग्राह्याः । कार्तिक शुक्लनवमी चादिः कृतयुगस्य सा । त्रेतादिर्माधवे शुक्ला तृतीया पुण्यसंमिता ॥ कृष्णा पंचदशी माघे द्वापरादिरुदीरिता । कल्पादि स्यात्कृष्णपक्षे नभस्येव त्रयोदशीति नारदोक्तेः ॥ १७ ॥
इति श्रीदैवज्ञानंतसुतदैवज्ञरामविरचितायां वळतमुहूर्तचिंतामणिटीकायां प्रमिताक्षरायां शुभाशुभप्रकरणं समाप्तम् ॥ १ ॥
॥ अथ नक्षत्रप्रकरणम् ॥ अथ नक्षत्रप्रकरणं व्याख्यायते । तत्रादौ नक्षत्रस्वामिनः शार्दूलविक्रीडितेनाहनासत्यांतकवहिधातृशशभृद्रुद्रादितीज्योरगा ऋक्षेशाः पितरो भगोऽर्यमरवी त्वष्टा समीरः क्रमात् ॥ शक्राग्नी खलु मित्र इंद्रनिक्रतिक्षीराणि विश्वे विधि
गोविंदो वसुतोयपाजचरणाहित्यपूषाभिधाः ॥ १॥ नासत्येति ॥ एते नासत्यांतकादयः ऋक्षेशा नक्षत्रेशाः क्रमात्स्युः ॥ १ ॥ अथ ध्रुवनक्षत्राणि तत्कृत्यं चानुष्टुभाह
उत्तरात्रयरोहिण्यो भास्करश्च ध्रुवं स्थिरम् ॥ तत्र स्थिरं बीजगेहशांत्यारामादि सिद्धये ॥२॥ उत्तरात्रयेति ॥ उत्तरात्रयं रोहिणी चैतानि नक्षत्राणि रविवारश्च ध्रुवसंज्ञानि स्थिरसंज्ञानि चेति संज्ञाद्वयम् । एवमुत्तरत्रापि व्याख्येयम् । ध्रुवनक्षत्रेषु स्थिरादि कर्म कार्यम् । आदिग्रहणान्मृदुनक्षत्रोक्तं ग्राह्यम् । वसिष्ठः । मृदुबूंदे कथितान्यपि स्थिरछंदे तानि कार्याणीति ॥ २॥ अथ चरभानि तत्कृत्यं चानुष्टुभाहस्वात्यादित्ये श्रुते स्त्रीणि चंद्रश्चापि चरं चलम् ॥ तस्मिन्गजादिकारोहो वाटिकागमनादिकम् ॥ ३ ॥
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मुहूर्तचिंतामणी
स्वात्यादित्ये इति || आदिशब्दाधुनक्षत्रोक्तमपि ॥ २ ॥ अथोग्रनक्षत्राणि चानुष्टुभाह
२८
पूर्वात्रयं याम्यमधे उग्रं क्रूरं कुजस्तथा ॥
तस्मिन् घाताग्निशाव्यानि विषशस्त्रादि सिध्यति ॥ ४ ॥ पूर्वात्रयमिति ॥ आदिशब्दाद्दारुणनक्षत्रोक्तमपि ॥ ४ ॥ अथ मिश्राण्यनुष्टुभाह
विशाखाय सौम्यो मिश्रं साधारणं स्मृतम् ॥ तत्राग्निकार्य मिश्रं च वृषोत्सर्गादि सिध्यति ॥ ५ ॥ विशाखेति ॥ आदिग्रहणादु भोक्तमपि ॥ ९ ॥
अथ लघुनक्षत्राण्यनुष्टुभाह
हस्ताश्विपुष्याभिजितः क्षिप्रं लघु गुरुस्तथा ॥ तस्मिन्पण्यरतिज्ञानभूषा शिल्पकलादिकम् ॥ ६ ॥
हस्तेति ॥ शिल्पं वर्धकिकृत्यादि कला नृत्यादिकाश्चतुःषष्टिः आदिशब्दाच्चरभोतमपि ॥ ६ ॥
अथ मृदुनक्षत्राण्यनुष्टुभाह
मृगांत्यचित्रामित्रर्क्ष मृदुमैत्रं भृगुस्तथा ॥
तत्र गीतांबरक्रीडा मित्रकीय विभूषणम् ॥ ७ ॥
मृगांत्येति ॥ ७ ॥
अथ तीक्ष्णमान्यनुष्टुभाह
मूलेंद्राद्रीहिर्भ सौरिस्तीक्ष्णं दारुणसंज्ञकम् ॥ तत्राभिचारघातोग्रभेदाः पशुमादिकम् ॥ ८ ॥
सूलेति ॥ अभिचारः कर्मणां भयंकरकृत्यं मारणादि । पशुदमः पशुशिक्षा आदिशदाद्वंधनादिकं स्थिरं च ॥ ८ ॥
अथाधोमुखोर्ध्वमुखतिर्यङ्मुखनक्षत्राणीद्रवजयाह
मूलाहिभिश्रोग्रमधोमुखं भवेद्ध्वस्य मार्द्रेज्यहरित्रयं ध्रुवम् ॥ तिर्यखं मैत्रकरानिलादितिज्येष्ठाश्विभानीदृशकृत्यमेषु सत् ॥९॥ मूलाहीति ॥ मूलं अहिराश्लेषा मिश्रं कृत्तिकाविशाखे उग्रं पूर्वात्रयमत्राभरण्यः
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नक्षत्रप्रकरणम् ।
एतानि नव भानि अधोमुखानि ज्ञेयानि । आर्द्रा पुष्यः श्रवणत्रयं रोहिण्युत्तरात्रयं च नव भान्यूर्ध्वमुखानि । मैत्राणि चित्रारेवत्यनुराधाः हस्तस्वाती पुनर्वसुज्येष्ठा अश्विनी एतानि नव भानि तिर्यङ्मुखानि । एषु अधोमुखोर्ध्वमुखतिर्यङ्मुखेषु भेषु ईदृशं कृत्यं अधोमुखोर्ध्वमुखतिर्यमुखकृत्यं सत् भवति । गरुडपुराणे । भरणीकृत्तिकाश्लेषामघामूलविशाखिकाः । तिस्त्रः पर्वास्तथा चैव अधोवक्राः प्रकीर्तिताः ॥ एषु वापीतडागादिकपभूमितणानि च । देवागारस्य खननं निधानखननं तथा ॥ गणितं ज्योतिषारंभं खनीबिलप्रवेशनम् । कुर्यादधोगतान्येव कार्याणि वृषभध्वज ॥ रोहिण्याद्री तथा पुष्यो धनिष्ठा चोत्तरात्रयम् । वारुणं श्रवणं चैव नव चोर्ध्वमुखास्तथा ॥ एषु राज्याभिषेकं च पट्टबंधं च कारयेत् । उध्वमुखान्युच्छ्रितानि सर्वाण्येषु च कारयेत् । रेवती चाश्विनी चित्रा स्वाती हस्तः पुनर्वसुः । अनुराधा मृगो ज्येष्ठा एताः पार्श्वमुखाः स्मृताः । गजोष्ट्राश्वबलीवर्ददमनं माहिषस्य च ॥ बीजानां वपनं कुर्याद्गमनागमनादिकम् । चक्रयंत्ररथादीनां नौकादीनां प्रवाहणम् ॥ पार्श्वेषु यानि कार्याणि कुर्यादेषु च तान्यपि । इदं च नक्षत्रविशेषविहितानां कर्मणामवश्यकर्तव्यत्वे मुहूर्तालब्धौ सत्यां कर्मणोऽधोमुखाद्याकारं ज्ञात्वा तत्तन्नक्षत्रेषु तानि कर्माणि कार्याणि । यानि च सर्वथा नोक्तानि बिलप्रवेशादीनि तान्येष्वेव नक्षत्रेषु कार्याणीत्येतदर्थमुक्तम् ॥ ९॥ ___ अथ प्रवालादिधारणमुहूर्त वसंततिलकयाह
पौष्णध्रुवाश्विकरपंचकवासवेज्यादित्ये प्रवालरदशंखसुवर्णवस्त्रम् ॥ धार्य विरिक्तशनिचंद्रकुजेऽह्नि रक्तं
भौमे ध्रुवादितियुगे सुभगा न दध्यात् ॥ १० ॥ पौष्णध्रुवेति ॥ रेवत्यादिनक्षत्रेषु तथा रिक्तातिथिशनिचंद्रभौमवर्जितेऽह्नि दिवसे प्रवालं विद्रुमं शंखः शंखवलयादि वस्त्रं श्वेतम् एतानि धार्याणि । रक्तं मंजिष्ठादिरंगेन रंजितं वस्त्रं भौमवारेऽपि धार्यम् । अथ सुभगा सभर्तृका ध्रुवादितियुगे रोहिण्युत्तरात्रयेषु अदितियुगे पुनर्वसौ पुष्ये च प्रवालादिकं न दध्यात् । क्वचिच्छततारायां स्नानमपि निषिद्धम् । उक्तं च । रोहिणीगुरुपुनर्वसूत्तरे या बिभर्ति नववस्त्रभूषणम् । सा न योषिदवलंबते पति स्नानमाचरति वारुणेऽपि या इति ॥ १० ॥ अथ नवधा विभक्तस्य वस्त्रस्य दग्धादिदोषे शुभाशुभफलं शार्दूलविक्रीडितेनाह
वस्त्राणां नवभागकेषु च चतुष्कोणेऽमरा राक्षसा . मध्यत्र्यंशगता नरास्तु सदशे पाशे च मध्यांशयोः॥
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मुहूर्तचिंतामणी
दग्धे वा स्फुटितें बरे नवतरे पंकादिलिप्ते न सFish सुराशयोः शुभमसत्सर्वाशके प्रांततः ॥ ११ ॥ वस्त्राणामिति ॥ वस्त्राणां नव भागाः कार्याः । कोणचतुष्टये अमरा देवा: स्थाप्याः । राक्षसा मध्यगतांशत्रयगता ज्ञेयाः । नराः दशासहिते पाशे च पुनर्मध्ययोरंशयोज्ञेयाः । तत्र चेद्रक्षोंऽशे नवतरे नूतने वस्त्रे दैवाद्दग्धे अग्निस्टष्टे स्फुटिते पाषाणाद्याघातादिभिर्निहते पंकेन कर्दमेन आदिशब्दाद्गोमयादिभिर्लिप्ते उपहते सति तद्वस्त्रं न सत् शुभफलजनकं न भवतीत्यर्थः । नृसुराशयोः एवं वस्त्रदाहादिके सति शुभं कल्याणं स्यात् । अथ सर्वांशके राक्षसमनुष्यदेवांशकेषु प्रांततः प्रांतभागे असदनिष्टफलजनकम् । इदं सर्वं शय्यासनपादुकास्वपि ज्ञेयम् । श्रीपतिः । कज्जलकर्दमगोमयलिप्ते वाससि दग्धवति स्फुटिते च। चित्यमिदं नवधा विहितेऽस्मिन्निष्टमनिष्टफलं च सुधीभिः ॥ अत्र राक्षसांशे ध्वजच्छत्रादिसदृशी छेदाकृतिः शुभफला ज्ञेया । देवमनुष्यांशेऽपि काकोलूकसदृशी छेदाकृतिरशुभफलदा | कश्यपः । शंखवस्त्रांबुजच्छत्रध्वजतोरणसन्निभा । श्रीवत्स - सर्वतोभद्रनंद्यावर्तगृहोपमा || वर्धमानस्वस्तिके भमृगकूर्मझषाकृतिः । छेदाकृतिर्दैत्यभागेऽप्यायुरर्थप्रदा नृणाम् । खरोष्ट्रोलूक काकाहि जंबूकश्वकोपमा ॥ त्रिकोणसूर्याकृतयो देवभागे - ऽप्यशोभनाः । निंदितं वसनं दद्याद्दिजेभ्यः स्वर्णसंयुतम् । आशिषो वाचनं कृत्वा त्वन्यहस्त्रं च धारयेदिति ॥ ११ ॥
अत्र वचिद्दृष्टदिनेsपि वस्त्रपरिधानमनुष्टुभाह
विप्राज्ञया तथोद्वाहे राज्ञा प्रीत्यार्पितं च यत् ॥ निंद्येऽपि धिष्ण्ये वारादौ वस्त्रं धार्य जगुर्बुधाः ॥ १२ ॥ विप्राज्ञयेति ॥ धिष्ण्ये नक्षत्रे वारादौ वारतिथियोगादौ व्यतीपातभद्रादिदुष्टयोगेर्निद्येऽपि यद्वस्त्रं ब्राह्मणानुज्ञया तथोद्वाहे राज्ञा प्रीत्या संतोषेणार्पितं दत्तं तत् वस्त्रं धार्यमिति बुधा जगुः ॥ १२ ॥
अथ लतापादपारोपणराजदर्शनमद्यगोक्रयविक्रयमुहूर्तान् शार्दूलविक्रीडितेनाहराधामूलमृदुधुवर्क्षवरुणक्षिप्रैलतापादपा
रोपोऽथो नुपदर्शनं ध्रुवमृदुक्षिप्रश्रवोवासवैः ॥ तीक्ष्णग्रां पभेषु मद्यमुदितं क्षिप्रत्यवहृींद्रभा दित्येंद्रisपवासवेषु हि गवां शस्तः क्रय विक्रयः ॥ १३ ॥ Tarafa || राधा विशाखा एतदादिचतुर्दशनक्षत्रैर्लतानां वल्डीनां पादपानां चारोपो वापः कार्यः । अथ राजदर्शनं ध्रुवमृदुक्षिप्रश्रवोवासवैस्त्रयोदशभैः कार्यम् । अथ
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'नक्षत्रप्रकरणम् ।
मद्यं मद्यारंभस्तीक्ष्णोग्रांबुपभेषु नव नक्षत्रेषु उदितः कथितः । अथ गवां क्रयो मूल्येन परस्माद्रहणं । विक्रयो मूल्यग्रहणपूर्वकं दानम् । क्षिप्रांत्यवह्नींद्रभादित्येंद्रांबुपवासवेषु हि नव नक्षत्रेषु शस्तः प्रशस्तः । अत्र भीमपराक्रमेण पंचदश भान्यभिहितानि । हस्तेऽनुराधात्रितये सपौष्णे मृगे च पूर्वाश्विविशाखभेषु । पुष्ये धनिष्टाद्वितयेऽदितीशे गवां क्रयं विक्रयमामनंति ॥ १३ ॥ ___ अथ पशूनां रक्षामुहूर्त स्थितिनिवेशनिषेधमुहूर्त चंद्रवंशयाहलग्ने शुभे चाष्टमशुद्धिसंयुते रक्षा पशूनां निजयोनिभे चरे ॥ रिक्ताष्टमीदर्शकुजश्रवोध्रुवत्वाष्ट्रेषु यानं स्थितिवेशनं न सत् ॥१४॥
लग्ने शुभे इति ॥ शुभे शुभस्वामिके लग्ने अष्टमशुद्धिसंयुते शुभपापाक्रांताष्टमभावरहिते सति पशूनां रक्षा रक्षणं प्रवेशादिकं च सत् । तथा स्वीययोनिनक्षत्रे चरभे च सत्। यथाऽश्वानां योनिभं अश्विनीशततारके तत्र चतुष्पदानां रक्षा शस्ता । तीक्ष्णे पशूनां दमनं चरे स्यात्पशुपोषणमिति वचनात् । अथ रिक्ता ४,९,१४ ऽष्टमी < दर्शोऽमावास्या कुजो भौमः श्रवः श्रवणः ध्रुवाण्युत्तरात्रयरोहिण्यः त्वाष्ट्रं चित्रा एषु पशूनां यानं गृहाबहिनिःसारणं स्थितौ गोष्ठादौ वेशनं न सत् शुभं न । व्यवहारोच्चये । पूर्वात्रये धनिष्ठेद्रपौणे सौम्यविशाखयोः । आश्लेषायां मघाश्विन्यां यात्रासिद्धिश्चतुष्पदामिति ॥ १४ ॥ अथौषधसूच्योर्मुहूर्त मंदाक्रांतयाह
भैषज्यं सल्लघुमृदुचरे मूलभे मंगलग्ने शुक्रेडीज्ये विदि च दिवसे चापि तेषां रवेश्च ॥ शुद्धे रिःफानमृतिगृहे सत्तिथौ नो जनेर्भे
सूचीकर्माऽप्यदितिवसुभत्वाष्ट्रमित्राश्विपुष्ये ॥ १५ ॥ भैष्यज्यं सदिति ॥ भैषज्यं औषधं प्रारब्धं भक्षितं च सत् लघुमृदुचरनक्षत्रे मूले च व्यंगलग्ने द्विस्वभावराशिघु मिथुनकन्याधनुर्मीनेषु लग्नगतेषु सत्सु शुक्रेट्टीज्यबुधेषु द्विस्वभावलग्नस्थेषु सत्सु च पुनस्तेषां शुक्रेडीज्यबुधानां रवेश्च दिवसे वारे सत्तिथौ रिक्तामारहिततिथौ भैषज्यं सत् शुभं स्यात् । दीपिकायाम् । द्वयंगोदये गुरुबुधेदुसितेषु तेषां वारे रवेश्च सुविधौ सुतिथौ सुयोगे । भेषग्रपन्नगविशाखशिवेतरेषु जन्मक्षविष्टिरहितेषु कृतः शुभायेति । अथ रिःफानमृतिगृहे लग्नात् द्वादशसप्तमाष्टमगृहेषु शुद्धेषु शुभपापग्रहरहितेषु सत्सु औषधं तु वर्षफलप्रश्नादिना आयुर्निश्चये च सत् । द्यूनशत्रुनिधनव्ययशुद्धौ सद्गृहेषु नितरां बलवत्सु । आयुषश्च हितकारिणि योगे कीर्तिता नियतमौषधसेवेति श्रीपतिभट्टोक्तेः । 'अथ जनेभै जन्मनक्षत्रे नो भैषज्यं सत् । जन्मनक्षत्रगश्चंद्रः प्रशस्तः सर्वकर्मसु । सौरभेषज
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मुहूर्तचिंतामणी
वादाध्वकर्तनेषु विवर्जयोदिति वचनात् । अथ सूचीकर्म सूच्याः संबंधि कर्म घटनसविनादि । अदितिवसुभत्वाष्ट्रमित्राश्विपुष्ये नक्षत्रे सत् स्यात् । व्यवहारोज्च्चये । अदितिर्वासवं त्वाष्ट्रं मैत्रदववाजिनः । सूचीकर्म तनुत्राणमेभिरृक्षैः प्रशस्यत इति ॥ १५ ॥
३२
अथान्यदनुष्टुभाह
क्रय विक्रयो नेष्टो विक्रय ऋयोsपि न ॥ vorigerवनीवातश्रवश्चित्राः क्रये शुभाः ॥ १६ ॥
ऋयक्ष इति ॥ क्रय वक्ष्यमाणकयनक्षत्रे विक्रयो न कार्यः । तथा विक्रय नक्षत्रे ऋयोऽपि न कार्यः । दीपिकायाम् । यमाहिशक्रानिविशाखपूर्वा नेष्टाः क्रये विक्रयणेऽतिशस्ताः। पौष्णाश्विचित्रामृतविष्णुवाताः शस्ताः क्रये विक्रयणे निषिद्धा इति ॥ ननु यदा येन क्रयः कर्तव्यस्तदान्येन विक्रयः कर्तव्यः तत्र क्रयविक्रयनक्षत्राणां महाभेदादुभयविधमुहूर्तानुपपत्तिः । उच्यते । विक्रेत्रा यदा मुहूर्त विक्रयार्थं गृह्यते तदा वस्तु पृथक क्रियते तत्कर्म विक्रयशब्दवाच्यम् । यदा क्रयिणा क्रयार्थं मुहूर्तः प्रार्थ्यते तदा विक्रेत्रे मूल्यद्रव्यं दत्वा ष्टथकृतं विक्रेतृवस्तु ग्राह्यं तत्रयशब्दवाच्यमिति मत्वा यथाकथंचित्समाधेयम् । तत्र क्रयमुहूर्तः रेवती शततारा अश्विनी स्वाती श्रवणं चित्रा एतानि मानि क्रये शुभानि विक्रये निषिद्धानि च ॥ १६ ॥ अथ विक्रयविपण्योर्मुहूर्तं शार्दूलविक्रीडितेनाह
पूर्वाशकृशानुसार्पयमभे केंद्रद्विकोणे शुभैः पदत्र्यायेष्वशुभैर्विना घटतनुं सन्विक्रयः सत्तिथौ ॥ रिक्ताभौटान्विना च विपणिमित्रध्रुवक्षिप्रभैलग्नेचंद्रासते व्ययाष्टरहितैः पापैः शुभैर्व्यायखे ॥ १७ ॥
पूर्वाद्वीशेति ॥ द्वीशं विशाखा पूर्वादिनक्षत्रेषु केंद्रेषु प्रथमचतुर्थसप्तमदशमेषु द्वितीये कोणें नवपंचमे शुभैः सद्भिः षट्त्रयायेषु पापग्रहैः सद्भिः घटतनुं कुंभलनं विना त्यक्त्वा सत्तिथौ रिक्तामारहिततिथौ विक्रयः सन् शुभो ज्ञेयः । अथ विपणिः पण्यवीथिकागृहे स्थित्वा क्रयविक्रयाख्यं कर्म रिक्तातिथिभौमवारकुंभलग्नानि वर्जयित्वान्येषु तिथिवारलग्नेषु मित्राणि मृगरेवतीचित्रानुराधाः ध्रुवाणि रोहिण्युत्तरात्रयं क्षिप्राणि हस्ताश्विपुण्याः एतैर्भर्लग्ने चंद्रसिते मूर्ती चंद्रे सिते च सति व्ययाष्टरहितैः पापग्रहैः सद्भिः शुभैर्यायखे द्वितीयैकादशदशमेषु सद्भिर्विपणिः शुभा स्यात् ॥ १७ ॥
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नक्षत्रप्रकरणम् ।
अथाश्वगजमुहूर्तमिंद्रवज्रयाहक्षिप्रांत्यवस्विदुमरुज्जलेशादित्येष्वरिक्तारदिने प्रशस्तम् ॥ स्याद्वाजिकृत्यं त्वथ हस्तिकार्यं कुर्यान्मृदुक्षिप्रचरेषु विद्वान् ॥१८॥
क्षिप्रांत्यति ॥ क्षिप्रादिनक्षत्रेषु रिक्ताभौमव्यतिरिक्तदिने वाजिकृत्यमश्वानां क्रयविक्रयशिक्षास्थानाभरणादि कार्य प्रशस्तं स्यात् । श्रीपतिः । पुष्यश्रविष्ठाश्विनिसौम्यभेषु पौष्णानिलादित्यकराह्वयेषु । सवारुणःषु बुधैः स्मृतानि सर्वाणि कार्याणि तुरंगमाणाम् ॥ अश्वारोहणे चक्रम् ॥ अश्वाकारं लिखेच्चक्रं साभिजिद्भानि विन्यसेत् । स्कंधे तु सूर्यभात्पंच पृष्ठे च दश भानि च ॥ पुच्छे द्वे स्थापयेत्प्राज्ञश्चतुष्पादे चतुष्टयम् । उदरे विन्यसेत्पंच मुखे दे तुरगस्य च ॥ अर्थलाभो मुखे सम्यग्वाजी नश्यति चोदरे । चरणस्थे रणे भंगः पुच्छे पत्नी विनश्यति ॥ अर्थसिद्धिर्भवेत्टष्ठे स्कंधे कंधपतिर्भवेदिति । अथ विद्वान् ज्ञाता मृदुक्षिप्रचरनक्षत्रेषु रिक्तामाभौमवर्जितदिने च हस्तिकृत्यं गजानां कार्य क्रयविक्रयभूषादि कुर्यात् । वसिष्ठः । हस्तत्रये सौम्यहरित्रये च पौष्णद्वये पुष्यपुनर्वसौ च । मैत्रे च सर्वाण्यपि कुंजराणां कर्माणि शस्तान्यखिलानि यानीति ॥ १८ ॥ अथ भूषणघटनमुहूर्त शार्दूलविक्रीडितेनाह
स्याङ्गषाघटनं त्रिपुष्करचरक्षिप्रध्रुवे रत्नयुक् तत्तीक्ष्णोगविहीनभे रविकुजे मेषालिसिंहे तनौ ॥ तन्मुक्तासहितं चरध्रुवमृदुक्षिप्रे शुभे सत्तनौ
तीक्ष्णोग्राश्विमृगे द्विदैवदहने शस्त्रं शुभं घट्टितम् ॥ १९ ॥ स्याद्भषेति ॥ त्रिपुष्करदिनलक्षणं भद्रातिथी रविजेत्यादिना वक्ष्यति । एवंविधे त्रिपुष्करदिने चरक्षिप्रध्रुवनक्षत्रेषु भूषाघटनमाभरणघटनं शुभं स्यात् । वसिष्ठः । क्षिप्राचलचरऋक्षे रिक्तामावर्जितेषु दिवसेषु । निखिलेष्वपि वारेष्वपि त्रिपुष्करे भूषणं कार्यम् ॥ अथ तदूषणं रत्नयुतं माणिक्यादियुतं चेत्तदा तीक्ष्णोगविहीनभे तीक्ष्णानि मूलज्येष्ठा
श्लेषाख्यानि उग्राणि पूर्वात्रयमघाभरण्यः एतद्वयतिरिक्तेष्वष्टादशनक्षत्रेषु तथा रविभौमवारेऽपि कार्यम् । तथा मेषवृश्चिकसिंहलग्नेषु च । वसिष्ठः । स्थिरसाधारणचरभे लघुमैत्रेवर्ककुजवारे । तेषामेव विलग्ने माणिक्यमयभूषणं कार्यमिति । अथ चरध्रुवमृदुक्षिप्रसंज्ञकेषु नक्षत्रेषु तद्रूषाघटनं मुक्तासहितं शुभं भवति । मुक्ताग्रहणं रजतादेरुपलक्षणम् । अत्र चंद्रशुक्रयोवीरे कर्कषतुलालग्नेषु कार्यमित्यपि ज्ञेयम् । वसिष्ठः । क्षिप्रमृदुध्रुवचरभे शशिसितयोर्वासरेषु तल्लग्ने । मुक्ताफलरजतमयं भूषणमखिलं सवजकं कार्यम् । अथ तीक्ष्णानि मूलज्येष्ठाीश्लेषाः उग्राणि च पूर्वात्रयभरणीमघाः अश्विनीमृगौ द्विदैवं
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मुहूर्तचिंतामणौ विशाखा दहनः कृत्तिका एषु नक्षत्रेषु घट्टितं शस्त्रं शुभं स्यात् । अदितिर्वासवं त्वाष्ट्रमैत्रभैंदववाजिनः । सूचीकर्म तनुत्राणमेभिक्षैः प्रशस्यत इति ऋक्षोच्चयोक्तेः । अथ सुवर्णरूप्यादिपात्रे भोजनमुहूर्तमाह । वसिष्ठः । लघुमैत्रध्रुवचरभे सितेंदुबुधजीववारेषु । हेमरजतादिभाजनभोजनमारोग्यममृतयोगेषु ॥ १९ ॥ अथ मुद्रापातनमुहूर्त वस्त्रक्षालनमुहूर्तं च स्वग्धरयाहमुद्राणां पातनं सद्ध्वमृदुचरभक्षिप्रवींदुसौरे घस्रे पूर्णाजयाख्ये न च गुरुभृगुजास्ते विलग्ने शुभैः स्यात् ॥ वस्त्राणां क्षालनं सदसुहयदिनकृत्पंचकादित्यपुष्ये
नो रिक्तापर्वषष्ठीपितृदिनरविजज्ञेषु कार्य कदापि ॥२०॥ मुद्राणामिति ॥ ध्रुवमृदुचरक्षिप्रसंज्ञकैर्नक्षत्रैः कृत्वा राजमुद्रांकितसुवर्णरूप्यादिनिष्पादनं मुद्रापातनमित्युच्यते । टंकसालेति भाषया । वींदुसौरे घस्ने चंद्रशनैश्चरवर्जितवारे तथा पूर्णाजयाख्ये पूर्णाः पंचमीदशमीपूर्णिमाः जयास्तृतीयाष्टमीत्रयोदश्यः एतासु तिथिष्वित्यर्थः । सत् शुभं स्यात् । तथा गुरुशुक्रास्ते न शुभम् । विलग्ने शुभैः लग्ने शुभग्रहैः । सद्भिरित्यर्थः । उक्तं च । मृदुध्रुवक्षिप्रचरेषु भेषु योगे प्रशस्ते शनिचंद्रवज्ये । वारे तिथौ पूर्णजयाह्वये च मुद्राप्रतिष्ठा शुभदा नराणाम् ॥ गुर्वस्ते वा सितास्ते वा मुद्राणां घटनं क्वचित् । क्रूरग्रहांशलग्ने न कार्य भूतिमिच्छता ॥ अथ वसुर्धनिष्ठा हयोऽश्विनी दिनकृत् हस्तः तस्मात्पंचके हस्तचित्राखातीविशाखानुराधासु आदित्यं पुनर्वसुः पुष्यः एषु वस्त्राणां क्षालनं रजकाय धावनार्थ दानं सत् शुभं स्यात् । रिक्ता पर्वाणि पूर्वोक्तानि तिथिप्रकरणे षष्ठी पितृदिनं श्राद्धदिनं एतेषु रविजज्ञेषु शनिबुधवारेषु कदापि वस्त्रक्षालनं नो कार्यम्॥२०॥ अथ खड्गादिधारणं शय्याधुपभोगमुहूर्त च स्रग्धरयाहसंधार्याः कुंतवर्मेष्वसनशरकृपाणासिपुन्यो विरिक्ते शुक्रेज्यार्केहि मैत्रध्रुवलघुसहितादित्यशाऋद्विदैवे ॥ स्युर्लग्नेऽपि स्थिराख्ये शशिनि च शुभदृष्टे शुभैः केंद्रगैः स्या
ड्रोगः शय्यासनादेर्युवमृदुलघुहर्यंतकादित्य इष्टः ॥ २१ ॥ संधार्या इति ॥ विरिक्ते रिक्तावजिते शुक्रबृहस्पतिरविवारे तथा मैत्रध्रुवलघुसंज्ञकनक्षत्रसहितपुनर्वसुज्येष्ठाविशाखानक्षत्रेषु कुंतादयः संधार्याः । कुंतो भल्लः वर्म कवचम् इषवो बाणा अस्यंते अनेनेतीष्वसनं धनुः शरो. बाणः खगः असिपुत्री छुरिका सन्नाहोsपीति केचित् । तथा स्थिराख्ये वृषसिंहवृश्चिककुंभाख्ये लग्ने चंद्रे अपिशब्दात् लग्नेऽपि शुभग्रहदृष्टे शुभैः केंद्रगैः सद्भिः कुंतादिधारणं हितम् । कक्षोच्चये । पुष्ये चादितिचित्र
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नक्षत्रप्रकरणम् ।
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पद्मतनये शक्रोत्तरा रेवती वाजी हस्तविशाखमित्रसहिते भाना गुरौ भार्गवे । कुंभे कीटगृहे वृषे मृगपतौ चंद्रे शुभैर्वीक्षिते सन्नाहः शरखङ्गकुंतछुरिका धार्या नृपाणां हितेति ॥
दीपिकायाम् । मूलेंदुपूर्वात्रययाम्यपित्र्यशक्राश्विसार्पानलशूलिनश्च । शस्त्रादिसंधारणमेषु कुर्यात्तथौ विने च शुभे शुभाहे इति तदासन्नयुद्धादिविषयम् । अथ ध्रुवमृदुलघुनक्षत्रेषु हरौ श्रवणे अंतके भरण्यां आदित्ये पुनर्वसौ एषु शय्यासनादेः शय्या खट्टादिरूपा आसनं पीठमृगत्वगादि आदिशब्दात्पादुका तेषामुपभोग इष्टो हितः । दीपिकायाम् । मैत्रेदुपुष्ययमभादितिवाजिचित्राहस्तोत्तरात्रयहरीज्यविधातृभानि । एतेष्वतीव शयनासनपादुकानां संभोग कार्यमुदितं मुनिभिः शुभा इति ॥ २१ ॥ अथांधादिनक्षत्राणि शार्दूलविक्रीडितेनाह
अंधाक्षं वसुपुष्यधातृजलभ द्वीशार्यमांत्याभिधं मंदाक्षं रविविश्वमित्रजलपा श्लेषाश्विचांद्रं भवेत् ॥ मध्याक्षं शिवपित्रजैकचरणत्वा द्रविध्यंतकं स्वक्षं स्वात्यदितिश्रवोदहनभाहिर्बुन्यरक्षोभगम् ॥ २२ ॥
अंधाक्षमिति ॥ धाता रोहिणी विधिरभिजित् दहनभं कृत्तिका भगः पूर्वाफ - ल्गुनी । अन्यत् स्पष्टम् २२ ॥
अंधादिनक्षत्राणां फलमनुष्टुभाह
विनष्टार्थस्य लाभोंऽधे शीघ्रं मंदे प्रयत्नतः ॥
स्याहूरे श्रवणं मध्ये श्रुत्याप्ती न सुलोचने ॥ २३ ॥
विनष्टार्थस्येति || अंधनक्षत्रेषु विनष्टस्यापहृतस्यार्थस्य लाभः शीघ्रं भवति । मंदनक्षत्रेषु विनष्टार्थस्य प्रयत्नतो लाभो भवति । मध्ये मध्यनक्षत्रे विनष्टार्थस्य दूरं स्वनगरादतीव दूरदेशे श्रवणं त्वदीयद्रव्यममुकेन हृतं अमुकस्थले तिष्ठतीति लोकवार्ता भवति लब्धिस्तु नास्ति । सुलोचननक्षत्रेषु श्रुत्याप्ती न श्रवणमपि लब्धिरपि न भवतीत्यर्थः ॥ २३ ॥ अथ धनप्रयोगे निषिद्धनक्षत्राण्यनुष्टुभाह
तीक्ष्णमिश्रध्रुवोर्यद्रव्यं दत्तं निवेशितम् ॥
प्रयुक्तं च विनष्टं च विष्टयां पाते च नाप्यते ॥ २४ ॥
तीक्ष्णेति ॥ एतैस्तीक्ष्णादिनक्षत्रैर्यद्रव्यं सुवर्णादि दत्तं कालांतरं विना दत्तं न स्वसत्तापरित्यागेन निवेशितं स्वष्टसमीपे प्रत्ययार्थं स्थापितं प्रयुक्तं कालांतररीतिपुरःसरं कस्मै - चिद्दत्तं विनष्टं चौरादिना हृतं स्वयमेव वा क्वचित्त्यक्तं यद्द्रव्यं तद्द्रव्यं निश्चयेन कदापि
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मुहूर्तचिंतामणौ नाप्यते । तथा विष्टयां भद्रायां पाते व्यतीपाते महापाते वा हृतं द्रव्यं नाप्यते चकारात् ग्रहणेऽपि । वसिष्ठः । ध्रुवोयसाधारणदारुणः निक्षिप्तमर्थ त्वथ वा प्रनष्टम् । चौरैहृतं दत्तमुपप्लवे वा विष्टयां च पाते न च लभ्यते तदिति । अत्रेदमनुसंधेयम् । तीक्ष्णमिश्रादिपंचदशभेषु मध्ये रोहिण्यर्यमविश्वजलभद्दीशेषु दत्तनिवेशितप्रयुक्तद्रव्यस्यैवाऽप्राप्तिः । चौरापहृतस्य स्वतो गतस्य वा धनस्य लाभ एव । तेषां रोहिण्यादीनां मध्यलोचनभेषु पाठसामर्थ्यादिति भावः ॥ २४ ॥ अथ जलाशयखनननृत्यारंभयोर्मुहूर्त शार्दूलविक्रीडितेनाहमित्राववासवांबुपमघातोयांत्यपुष्येंदुभिः पापीनबलैस्तनौ सुरगुरौ ज्ञे वा भृगौ खे विधौ ॥ . आप्ये सर्वजलाशयस्य खननं व्यंभोमघैः सेंद्रभैस्तैर्नृत्यं हिबुके शुभैस्तनुगृहे ज्ञेऽब्जे ज्ञराशौ शुभम् ॥ २५ ॥ मित्रार्केति ॥ अनुराधादित्रयोदशनक्षत्रैः सद्भिः पापग्रह-नवलैबलरहितैः सद्भिः तनौ लग्ने सुरगुरौ सति बुधे वा सति खे दशमे भृगौ शुक्रे सति आप्ये जलराशौ विधौ सति सर्वतोयाशयानां वापीकूपतडागादीनां तोयाधाराणां खननं हितं स्यात् । आप्यांबुपांत्यपितृमित्रवसूत्तरार्ककेंद्रीज्यभेषु खननं सलिलाशयानामिति व्यवहारतत्त्वोक्तेः । श्रीपतिः । लग्ने जीवे ज्ञेऽथवा दुर्बलैश्च क्रूरैः शुक्रे वापि मेपूरणस्थे । आप्ये चंद्रे सर्वतोयाशयानामारंभाः स्युः सिद्धये निर्विकल्पमिति ॥ अथ नृत्यारंभः । तैः प्रागुक्तैनक्षत्रैव्य॑भोमधैः पूर्वापाढामघारहितैः सेंद्रभैज्येष्ठासहितैः मित्रार्कध्रुववासवांबुपांत्यपुष्येंदुज्येष्ठानक्षत्रैर्नृत्यारंभः शुभः स्यात् । शुभैहिबुके चतुर्थस्थाने लग्ने ज्ञे सति अब्जे चंद्रे ज्ञराशौ मिथुनकन्यास्थे सतीत्यर्थः ॥ २५ ॥
अथ सेवकस्य स्वामिसेवायां मुहूर्त शालिन्याहक्षिप्रे मैत्रे वित्सितार्केज्यवारे सौम्ये लग्ने कुजे वा खलाभे ॥ योनेमत्र्यां राशिपोश्चापि मैत्र्यां सेवा कार्या स्वामिनः सेवकेन॥२६॥
क्षिप्रइति ॥ क्षिप्राणि हस्ताभिजिदश्विपुष्याः मैत्राणि मृगरेवतीचित्रानुराधाः एतेषु नक्षत्रेषु बुधशुक्रसूर्यगुरुवारे सौम्ये शुभग्रहे लग्नगे सति अर्के भौमे वा खलाभे दशमे एकादशे च स्थिते सति सेवकेन स्वामिनः सेवा कार्या । तत्र स्वामिसेवकनक्षत्रयोन्योमैत्र्यां च पुनः राशिपोः सेव्यसेवकयो राशिस्वामिनोमॆत्र्यां प्रीतौ सत्यां सेवा कार्या अन्यथा न कार्या ॥ २६ ॥
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नक्षत्रप्रकरणम् । अथ द्रव्यप्रयोगं ऋणग्रहणमुहूर्त शार्दूलविक्रीडितेनाहस्वात्यादित्यमृदुद्विदैवगुरुभे कर्णत्रयाश्वे चरे लग्ने धर्मसुताष्टशुद्धिसहिते द्रव्यप्रयोगः शुभः॥ नारे ग्राह्यमृणं तु संक्रमदिने वृद्धौ करेऽर्केहि यत्तदंशेषु भवेदृणं न च बुधे देयं कदाचिद्धनम् ॥ २७ ॥ स्वात्यादित्येति ॥ स्वात्यायेकादश नक्षत्रेषु चरे मेषकर्कतुलामकराणामन्यतमे लग्ने धर्म नवमं सुतः पंचमं अष्टमं एतेषां शुद्धिः नवपंचमयोः पापग्रहराहित्यं अष्टमे तु शुभपापराहित्यमेवंरूपा शुद्धिस्तया सहिते लग्ने द्रव्यप्रयोगः ऋणदानं शुभं स्यात् । भीमपराक्रमे । मृदुपुष्याश्विनी चैव विशाखा श्रवणत्रयम् । पुनर्वसौ च शंसंति धनादिनिधिवर्तनम् ॥ वर्तनं ऋणादिरूपेण दानम् । मिश्रनक्षत्रत्वाद्विशाखायां निषेधे प्राप्ते ऋणदाने एव विधिः । हृते नष्टादौ निषिद्वैव। शुद्धेषु धर्मात्मजनैधनेषु चरे विलग्ने द्रविणप्रयोग इति । अथारे भौमवारे ऋणं न ग्राह्यम् | ऋणं भौमे न गृह्णीयान्न देयं बुधवासरे । ऋणच्छेदं कुजे कुर्यात्संचयं सोमनंदने ॥ अथ तु विशेषे संक्रमदिने संक्रांतिदिवसे वृद्धौ वृद्धियोगे करे हस्तनक्षत्रे अर्केऽह्नि रविवार इति यावत् । तत्रापि न ग्राह्यमित्येवं संबंधः । यद्यस्माद्धेतोः तहणं तद्वशेषु ऋणग्रहीतुः कुलेषु भवेत् तत्पुत्रपौत्रादिभिरपि परिहर्तुमशक्यमित्यर्थः । हस्तेऽर्कवारे संक्रांती यढणं स्यात्कुलेषु तत् । वृद्धियोगे तथा ज्ञेयमृणच्छेदं तु कारयेदिति ज्योतिःप्रकाशोक्तेः । बुधवारे ऋणं कदापि न देयम् ॥ २७ ॥ अथ हलप्रवाहमुहूर्त शार्दूलविक्रीडितेनाह
मूलद्वीशमघाचरध्रुवमृदुक्षिप्रैविनाकै शनि पापैीनबलैविधौ जललवे शुक्रे विधौ मांसले । लग्ने देवगुरौ हलप्रवहणं शस्तं न सिंहे घटे कर्काजैणधटे तनौ क्षयकरं रिक्तासु षष्ठयां तथा ॥ २८ ॥ मूलद्वीशेति ॥ एतैः मूलादिभिरेकोनविंशतिनक्षत्रैः विनार्कं शनि रविशनिवारी वर्जयित्वान्यवारेषु तत्र पापै नबलैर्निर्बलैः चंद्रे जलराशिनवांशके सति शके चंद्रे च मांसले पुष्टे सति उदिते इत्यर्थः । गुरौ लग्ने च सति तदा प्रथमं हलप्रवहणं शस्तं स्यात् । कश्यपः । गुरौ लग्नगते शुक्रे बलिन्याप्योदये विधौ । शस्ता कृषिक्रिया तत्र दुर्बलैः क्रूरखेचरैः ॥ अथ सिंहे घटे कुंभे कर्के अजे मेषे एणे मकरे धटे तुलायां तनौ लग्ने तथा रिकामु षष्ठयाम् तथाशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थस्तेनाष्टम्यामपि न शस्तम् यस्मात्संक्षयकरम् ॥२८॥
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मुहूर्तचिंतामणी
अथ बीजोप्तिमुहूर्त फणिचक्रं च शार्दूलविक्रीडितेनाहएतेषु श्रुतिवारुणादितिविशाखोडूनि भौमं विना बीजोतिर्गदिता शुभा त्वगुभतोऽष्टादुरामेंदवः ॥ रामेंद्रग्नियुगान्यसच्छुभकराण्युतौ हलेऽकज्झिताह्राद्रामाष्टनवाष्टभानि मुनिभिः प्रोक्तान्यसत्संति च ॥ २९ ॥ एतेष्विति ॥ पूर्वोक्तनक्षत्रेषु श्रुतिवारुणादितिविशाखोडूनि विना श्रवणादिवर्जितेषु मूलमघाचवमृदुक्षिप्रधनिष्ठास्वातीषु भौमं विना भौमवारव्यतिरिक्तवारेषु बोजोप्तिर्बीजवापनं शुभं ज्ञेयम् । नारदः । मृदुध्रुवाक्षिप्रभेषु पितृवायुवसूडुषु । समूलभेषु बीजोप्तिरत्युत्कृष्टफलप्रदा । रवौ रौद्राद्यपादस्थे भूमौ संजायते रजः । तस्माद्दिनत्रयं तत्र बीजवापं परित्यजेदिति राजमार्तंडे आर्द्राप्रथमदिनत्रयनिषेधः । अथ बीजोप्तौ फणिचक्रम् । अगुभतो न विद्यते गावो यस्येति अगुः राहुस्तस्य भं तदाक्रांतनक्षत्रं तस्मादादौ अष्टौ भानि असंति असमीचीनानि । ततस्त्रीणि शुभकराणि । तत एकमशुभम् । ततस्त्रीणि शुभक० तत एकम० ततस्त्रीणि शुभक० । तत एकम० । ततस्त्रीणि शुभक० । ततश्चत्वार्यशुभानि एवं बीजोत सप्तविंशतिनक्षत्राणां शुभाशुभत्वमुक्तम् । रत्नमालायाम् । मूर्ध्नि त्रीणि गले त्रयं च जठरे धिष्ण्यानि च द्वादशेत्यादि । लग्नशुद्धिमाह वसिष्ठः । भवरिपुसह जे पापैस्त्रिकोणकेंद्र स्थितैश्च शुभैः । कथिते शुभधिष्ण्येऽपि च शुभलग्ने बीजवापनं कार्यम् । अथ हलचक्रमुच्यते ॥ हले इति || हलचक्रे अर्कोज्झितात् भात् नक्षत्रात् क्रमेण त्रीणि असंति अशुभानि । ततोऽष्ट भानि संति शुभानि । ततो नव भानि असंति । ततोऽष्टौ भानि संति । यथा सूर्य आर्द्रायां भुक्तभं मृगः तत आरभ्य त्रीणि अशुभानि । ततः पुष्यतोऽष्टभानि शुभानि । ततो विशाखातो नव भान्यशुभानि । ततः शततारकातोऽष्टभानि शुभानि एवमष्टाविंशति भानि जातानि । तथा च वसिष्ठः । अर्कगतागतसंस्थे भत्रितयं नेष्टमुभयतस्त्विष्टम् । षोउशधिष्ण्यं नवकं शिष्टमनिष्टं च लांगले चक्रे ॥ कश्यपोऽपि । त्रिष्वष्टसु नवर्क्षेषु सप्तस्वर्कविभुक्तभात् । हानिर्बुद्धिः कर्तृनाशो लक्ष्मीप्राप्तिर्यथाक्रमादिति । एवं बहुमुनिसंवादे सति इनप्रोज्झितर्क्षात् त्रिवह्नित्री पुत्रीषुत्रिरामा ३,२,३,१,३, १, २, ३, ण्यशुभदशुभदानि क्रमाल्लांगलाख्य इति यदुक्तं गणेशदैवज्ञैर्मुहूर्ततच्चे तञ्चित्यम् । ऋषिवाक्यमूलाभावात् । ननु श्रीपतिवाक्यम् । अर्काक्रांतगतागतान्यनडुहां नाशाय भान्यग्रतो वृद्ध्यै भत्रितयं ततस्तु कृषिकृद्वाताय शूलत्रये । धिष्ण्यानां नवकं तदंतरगते स्यातां श्रियै पंचके यच्चान्यत्रितयं तदत्र गदितं चक्रे शुभे लांगले इति मूलं चेत् । न ह्ययं श्रीपतिवाक्ये शब्दार्थः किंतु मूलवा - क्याबोधेन स्वाज्ञानप्रकाशकः । वाक्यार्थस्तु । अर्काक्रांतगतानि त्रीणि भानि वृषनाशकराणि स्युः । ततस्त्रीणि वृद्ध्यै ततः पंच नक्षत्राण्यपास्य अग्रिमाणि नव भानि शूलत्रये त्रिकं त्रिक
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नक्षत्रप्रकरणम् ।
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कृषिकृद्धाताय स्थाप्यानि । नन्वत्र पंचनक्षत्रत्यागे को हेतुरित्यत आह । तदंतरगते पंच क इति । तच्छब्देन हलोर्ध्वदंडशूलोर्ध्वदंडावुच्येते । अर्काक्रांतगतागतान्यनडुहां नाशाय भान्यग्रतो वृद्ध्यै भत्रितयं अयमंतरस्य पूर्वावधिः मध्ये ततः पदोपादानात् । तुशब्दस्तु आनंतर्यद्योतनार्थः । तु अनंतरं शूलत्रये धिष्ण्यानां नवकं कृषिकृद्वातायेति अंतरस्योत्तरावधिः । तदंतरगते मध्ये विद्यमानानां धिष्ण्यानां पंचकं पंचकं च श्रियै स्थाप्ये नक्षत्रदशकमिति यावत् । यच्चान्यत्रितयं हलदंडोर्ध्वभागे शुभफलदं लेख्यम् । एवं च सति ऋषिवाक्यैः सहास्यैकार्थतैव संपद्यते । अनेन महेश्वरादयोऽपि प्रत्युक्ताः ॥ २९ ॥ अथ शिरामोचनविरेचनादिमुहूर्त शार्दूलविक्रीडितेनाह
त्वाष्ट्रान्मित्रकभाइयेंऽयुपलघुश्रोत्रे शिरामोक्षणं भौमार्केज्यदिने विरेकवमनाथं स्याद्बुधार्की विना ॥ मित्रक्षिप्रचरधुवे रविशुभाहे लग्नवर्गे विदो जीवस्यापि तनौ गुरौ निगदिता धर्मक्रिया तद्वले ॥ २० ॥ त्वाष्ट्रादिति ॥ त्वाष्ट्राये चित्रास्वात्यौ मित्रभाहूये अनुराधाज्येष्ठे कमाये रोहिणीमृगौ श्रोत्रं श्रवणः चित्रादिष्वेकादशसु नक्षत्रेषु भौमार्कगुरुवारे शिरामोक्षणं रुधिरवाहिनी नाडिका शिरा तस्याः सूक्ष्मशस्त्रघातेन शिरातो रक्तमोक्षणं कुर्यात् । अथ बुधार्कीविना बुधशनिवारौ त्यक्त्वाऽन्यवारेषु पूर्वोक्तनक्षत्रेषु च विरेकवमनाद्यम् । औषधेन सुखप्रवृत्तिर्विरेकः वमनं वांतं एतदाद्यं कुर्यात् । मित्रक्षिप्रचरघुवेषु त्रयोदश नक्षत्रेषु रविवारे शुभग्रहवारे च विदो बुधस्य लग्नवर्गे जीवस्यापि लग्नवर्गे यस्मिन् कस्मिंश्चिलनेऽपि गुरुबुधयोः पडुर्गे सति तनौ लग्ने गुरौ च सति कर्तुर्गुरुबले च सति धर्मक्रिया कोटिहोमरुद्रानुष्ठानादिरूपा निगदिता कथिता ॥ ३० ॥ अथ धान्यच्छेदनं वसंततिलकयाह
तीक्ष्णाजपादकरवह्निवसुश्रुतदुस्वातीमघोत्तरजलांतकतक्षपुष्ये ॥ मंदाररिक्तरहिते दिवसेऽतिशस्ता धान्यच्छिदा निगदिता स्थिरभे विलग्ने ॥ ३१ ॥ तीक्ष्णाजपादेति ॥ एतेष्वेकोनविंशतिनक्षत्रेषु तथा भौमशनिरिक्तावर्जितदिने स्थिर सति धान्यादीनां यवादीनां छिदा छेदनं निगदिता कथिता ॥ ३१ ॥ अथ कणमर्दनं सस्यरोपणं च वसंततिलकयाह
भाग्यार्यमश्रुतिमघेंद्र विधातृमूलमैत्रत्यभेषु कथितं कणमर्दनं सत् ॥
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मुहूर्तचिंतामणी
दीशाजपान्निर्ऋतिघातृशतार्यमक्षं सस्यस्य रोपणमिहार्किकुजौ विना सत् ॥ ३२ ॥
भाग्येति ॥ विधाता रोहिणी अंत्यं रेवती एषु नव भेषु कणानां चणकादीनां मर्दनं यष्टिघातादिना वितुषीकरणं सत्समीचीनं स्यात् । अथ विशाखादिषण्नक्षत्रैः आर्किकुजौ विना शनिभौमतोऽन्यवारेषु सस्यस्य धान्यस्य रोपणं सत् शुभम् ॥ ३२ ॥
अथ धान्यस्थितिं धान्यवृद्धिं च वसंततिलकयाहमिश्रोग्ररौद्रभुजगेंद्र विभिन्नभेषु ककजतौलिरहिते च तनौ शुभाहे ॥ धान्यस्थितिः शुभकरी गदिता ध्रुवेज्यदीगेंद्र दस्रचरभेषु च धान्यवृद्धिः ॥ ३३ ॥
मिश्रोग्रेति ॥ मिश्रोत्रादिविभिन्नेषु मिश्रादिदशनक्षत्रेभ्योऽन्येषु सप्तदशनक्षत्रेषु तथा कर्कमेषतुलारहिते लग्ने मकरस्थिरद्विस्वभावलग्नेषु शुभा हे चंद्रबुधगुरुशुक्रवारे धान्यानां स्थितिरेकत्र स्थले स्थापनं सा शुभकरी निगदिता अथ ध्रुवेज्यादित्रयोदशनक्षत्रेषु धान्यवृद्धिः । मह्यमेतावद्धान्यं देहि ततो मासद्वयानंतरं सपादं सार्धं वा दास्यामीत्येवंरूपा वृद्धिर्निगदिता ॥ ३३ ॥
अथ शांतिकपौष्टिकादिकं वसंततिलकयाहक्षिप्रधुवत्यचरमैत्र मघासु शस्तं
स्याच्छांतिकं च सह पौष्टिक मंगलाभ्याम् ॥ खेड विधौ सुखगते तनुगे गुरौ नो मौख्यादिदुष्टसमये शुभदं निमित्ते ॥ २४ ॥
क्षिप्रेति ॥ क्षिप्रादिनक्षत्रेषु पौष्टिक मंगलाभ्यां सह पौष्टिककर्मणा ग्रहशांत्या मंगलकर्मणा विनायकशांत्या सह शांतिकं दुष्टफलदमूलादिनक्षत्रोत्पन्न शांत्यादि शुभं स्यात् । लग्नात् खे दशमेऽर्के सति विधौ चंद्रे सुखगते चतुर्थे गुरौ लग्रस्थे सति तत् शांतिकं मौन्यादिदुष्टसमये गुरुशुक्रास्तादिदुष्टकाले नो शुभदम् । तथा निमित्ते केत्वाद्युत्पातदर्शने सति गुरुशुक्रास्तादावपि शुभदं स्यात् । उक्तं च । शांतिकर्माणि कुर्वीत रोगे नैमित्तिके तथा । गुरुभार्गवमौढ्येऽपि दोषस्तत्र न विद्यते ॥ ३४ ॥
अथ होमाहुतिशुद्धिमनुभाह
सूर्यभात्रित्रि चांद्रे सूर्यविच्छुक्रपंगवः ॥ चंद्रा रेज्यागुशिखिनो नेष्टा होमाहुतिः खले ॥ ३५ ॥
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नक्षत्रप्रकरणम् ।
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सूर्यादिति ॥ सूर्याक्रांतनक्षत्रात्रित्रिमे नक्षत्रत्रयमध्ये चांद्रे चंद्रनक्षत्रे दिननक्षत्रे सति क्रमात्सूर्यादिमुखे होमाहुतिः पतति । यथा सूर्याक्रांतनक्षत्रात् नक्षत्रत्रयमध्ये होमारंभे सूर्यमुखे होमाहुतिपातः । ततो नक्षत्रत्रयेषु बुधस्य ततः शुक्रस्य ततः पंगोः शनेः ततश्चंद्रस्य तत आरस्य भौमस्य तत ईज्यस्य गुरोः ततः अगोः राहोः ततः शिखिनः केतोः एवं सति यद्दिने खले पापग्रहमुखे होमाहुतिः पतति सा नेष्टा न शुभदा । अर्थाच्छुभग्रहमुखे शुभा सूर्यनक्षत्राचंद्रनक्षत्रपर्यंतं गणना ॥ ३५ ॥
अथ यद्दिने होमश्चिकीर्षितस्तद्दिने वह्निनिवासवशेन शुभाशुभफल मिंद्रवज्जयाहसैका तिथिर्वारयुता कृताप्ता शेषे गुणेऽभ्रे भुवि वह्निवासः ॥ सौख्यrय होमे शशियुग्मशेषे प्राणार्थनाशौ दिवि भूतले च ।। ३६ ।।
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सैकेति ॥ शुक्लादिगणनया वर्तमानतिथिगण्या एकयुता वर्तमानवारयुता चतुर्भक्ता यच्छेषं तच्चेद्रुणमितं त्रिमितं शून्यमितं च तदा भुवि भूमौ वन्हेर्वासो वसतिः । फलमाह । सौख्याय होमे । होमदिने भूमाव से सति सौख्यं भवति । अथ शशियुग्मशेषे एकमितशेषेऽग्निवासो दिवि स्वर्गे । तत्फलं कर्तुः प्राणनाशः । द्विमिते शेषेऽग्निवासो भूतले । तत्फलं कर्तुरर्थनाशः । उक्तं च । तिथिवारयुतिः सैका वेदभक्तावशेषकात् । निवासोऽग्नेव्यनि रूपे वित्तप्राणविनाशदः ॥ पाताले द्विकशेषेण धनसंचयनाशनः । गुणवेदावशेषेण भूमौ विपुलसौख्यदः ॥ संस्कारेषु विचारोऽस्य न कार्यो नापि वैष्णवे । नित्ये नैमित्तिके कार्य न चाब्दे मुनिभिः स्मृतः ॥ कैश्चित्खे सुप्तमपि होमे वर्ज्यमित्युक्तम् । तद्यथा । अर्कचंद्रादष्टमे ज्ञाच्चतुर्थे मंदः शुक्रादष्टमेऽगारक || राहुर्धर्मे जीवतः खेटसुते होमे नाशः पुत्रदाराधनानामिति ॥ ३६ ॥
अथ प्रतिवर्षोत्पन्ननवान्नभक्षणमनुष्टुभाह
नवान्नं स्याच्चरक्षिप्रमृदुभे सत्तनौ शुभम् ॥
विना नंदाविषघटी मधुपौषार्किभूमिजान् ॥ ३७ ॥
नवान्नमिति ॥ चरादिद्वादशभेषु सत्तनौ समीचीनलग्ने शुभग्रहैर्युते दृष्टे चेत्यर्थः । नंदातिथयः १, ६, ११ विषघटीर्विवाहप्रकरणोक्ताः मधुश्चैत्रः पौषः आर्किः शनिः भूमिजो भौमः एतान्विना वर्जयित्वा नवान्नभक्षणं शुभम् ॥ ३७ ॥
अथ नौकाघटनमनुष्टुभाह
याम्यत्रयविशाखंद्रसार्पपित्र्येशभिन्नभे ॥
भृग्वीज्यार्कदिने नौकाघटनं सत्तनौ शुभम् ॥ ३८ ॥
याम्यत्रयेति ॥ याम्यत्रयं भरणीकृत्तिका रोहिण्यः ईश आर्द्रा अन्यानि प्रसिद्धानि
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मुहूर्तचिंतामणौ एभ्यो भिन्ननक्षत्रेषु शुक्रगुरुरविवारेषु सत्तनौ शुभयुतदृष्टे लग्ने नौकाघटनं नौकानिर्माणं शु. भम् । नौकाचालननौकागमनमुहूर्तों दीपिकायाम् । शुभाहे विष्णुयुग्मेंदुभगमैत्राश्विपाणिषु । चालनं घटनस्थानान्नावः शुभतिथींदुषु ॥ अश्विकरेज्यसुधानिधिपूर्वा मित्रधनाच्युतभे शुभलग्ने । तारकयोगतिथींदुविशुद्धौ नौगमनं शुभदं शुभवारे ॥ ३८ ॥ अथ वीरसाधनाभिचारयोर्मुहूर्तमनुष्टुभाह
मूलार्द्राभरणीपित्र्यमृगे सौम्ये घटे तनौ ॥ सुखे शुक्रेऽष्टमे शुद्ध सिद्धिीराभिचारयोः ॥ ३९॥ मृलेति ॥ मूलादिनक्षत्रपंचके तथा घटे तनौ कुंभलग्ने सौम्ये बुधे सति तथा शुभे सुखे चतुथै अष्टमे शुद्धे ग्रहरहिते तादृशे लग्ने वीरस्य धनस्य अभिचारस्य कर्मणः सिद्धिनिष्पत्तिः ॥ ३९॥ अथ रोगनिर्मुक्तस्नानं वसंततिलकयाह
व्यंत्यादितिधुवमघानिलसार्पधिष्ण्ये रिक्ते तिथौ चरतनौ विकवींदुवारे ॥ स्नानं रुजा विरहितस्य जनस्य शस्तं
हीने विधौ खलखगैर्भवकेंद्रकोणे ॥ ४० ॥ व्यंत्येति ॥ विगतान्यंत्यादीनि रेवत्यादीनि नव धिष्ण्यानि येभ्यस्तेष्वष्टादशशिटनक्षत्रेषु तथा रिक्तासंज्ञासु तिथिषु चरलग्ने तथा शुक्रचंद्रवर्जितवारे तथा विधौ चंद्रे हीने निषिद्धस्थानस्थे । निषिद्धस्थानानि गोचरप्रकरणे । तथा पापग्रहैर्भवे एकादशे केंद्रे प्रथमचतुर्थसप्तमदशमे १,४,७,१० कोणे नवपंचमे स्थाने स्थितैः सद्भिः एवंविधे लग्ने रुजा विरहितस्य रोगनिर्मुक्तस्य जनस्य स्नानं आरोग्यस्नानं शस्तं शुभम् । नारदः । स्थिरेज्यादितिसापीत्यपितृवारुणभेषु च । न कुर्याद्रोगमुक्तस्तु स्नानं वारेऽब्जशुक्रयोरिति ॥ ४० ॥ अथ शिल्पविद्यामनुष्टुभाह
मृदुधुवक्षिप्रचरे जे गुरौ वा खलग्नगे॥ विधौ ज्ञजीववर्गस्थे शिल्पविद्या प्रशस्यते ॥ ४१ ।। मृदुधुवेति ॥ मृदुध्रुवादिनक्षत्रे ज्ञे बुधे दशमलग्ने वा सति अथवा गुरौ दशमे लग्ने वा सति । तथा विधौ चंद्रे बुधगुरुषर्गस्थे च सति शिल्पविद्या नानावर्णादिनिर्मितमादिकं तद्विद्यायाः प्रारंभः प्रशस्यते ॥ ११ ॥ अथ संधामनुष्टुभाह
सुरेज्यमित्रभाग्येषु चाष्टम्यां तैतिले हरौ॥
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नक्षत्रप्रकरणम् । शुक्रदृष्टे तनौ सौम्यवारे संधानमिष्यते ॥४२॥ सुरेज्येति ॥ पुष्यादिनक्षत्रेषु तथाऽष्टम्यां तिथौ हरौ द्वादश्यां च तिथौ तैतिलकरणे च तथा शुक्रदृष्टे युते च लग्ने तथा शुभग्रहाणां वारे संधानं संधिमैत्रीति यावत् इप्यते । तथा च कश्यपः । भाग्ये पुष्ये समैत्रे च लग्ने शुक्रेक्षिते युते । करणे तैतिलेऽष्टम्यां द्वादश्यां संधिरिष्यते ॥ ४२ ॥ अथ परीक्षामुहूर्त वसंततिलकयाह
त्यक्त्वाष्टाभूत १४शनिविष्टिकुजान् जनुर्भमासौ मृतौ रविविधू अपि भानि नाड्यः ॥ यंगे चरे तनुलवे शशिजीवतारा
शुद्धौ करादितिहरींद्रकपे परीक्षा ॥ ४३ ॥ त्यक्लेति ॥ भूतश्चतुर्दशी जनुर्भमासौ जन्मः जन्ममासश्च जन्मराशेरष्टमं सूर्य चंद्रं च नाड्यः भानि जन्मभकर्मभादिनक्षत्राणि नाडीनक्षत्राणि एतानि त्यक्त्वा यंगे द्विस्वभावे चरलग्ने वा तन्नवांशे च चंद्रशुद्धौ ताराशुद्धौ गुरुशुद्धौ च सत्यां करो हस्तः अदितिः पुनर्वसुः हरिः श्रवणः इंद्रो ज्येष्ठा कं जलं तत्स्वामी वरुणस्तस्य नक्षत्रं शततारका एषु भेषु परीक्षा कार्या अन्यत्स्पष्टम् । परीक्षानाम सुवर्णस्तेयादिपातकाभिशस्तस्य शुद्ध्यशुद्धिविचारपूर्वकं तप्तमाषादिरूपा दिव्यमिति यावत् । उक्तं च दीपिकायाम् । नो शुक्रास्तेऽष्टमा गुरुसहितरवौ जन्ममासेऽष्टमेंदौ विष्टौ मासे मलाख्ये कुजशनिदिवसे जन्मतारासु चाथ । नाडीनक्षत्रहीने सुरगुरुरजनीनाथताराविशुद्धौ प्रातः कार्या परीक्षा द्वितनुचरगृहांशोदये शस्तलग्ने इति । व्यवहारोच्चये । अष्टम्यां च चतुर्दश्यां प्रायश्चित्तपरीक्षणे । न परीक्षाधिवासश्च शनिभौमदिने भवेत् ॥ ज्येष्ठ श्रवणहस्तश्च तथा ज्ञेयः पुनर्वसुः । तद्वच्छतभिषा प्रोक्ता ह्यभियुक्तविचारणे इति । नाडीनक्षत्राणि दीपिकाकारवचनात् । जन्मक्षमाद्यं दशमं च कर्म संघातिकं षोडशभं च मानसम् । स्यात्पंचविंशं समुदायमष्टादशं त्रयोविंशतिभं विनाशकम् ॥ एवं षड़ो जनः सर्वो जातिदेशाभिषेकभैः ॥ नवभो नृपतिज्ञेयो नाडीताराः स्मृता अमूरिति । नृजातिनक्षत्राणि वराहसंहितायाम् । पूर्वात्रयं सानलमग्रजानां राज्ञां च पुष्येण सहोत्तरा च । सपौष्णमैत्रं पितृदैवतं च प्रजापतेर्भ च कृषीवलानाम् ॥ आदित्यहस्ताभिजिदश्विभानि वणिग्जनस्वाम्यमुपागतानि । मूलत्रिनेत्रानिलवारुणानि भान्यग्रजातेः प्रभविष्णुतायाः॥ सौम्येंद्रचित्रावसुदैवतानि सेवाजनस्वाम्यमुपागतानि । सार्प विशाखाश्रवणे भरण्याश्चांडालजातेरभिनिर्दिशंतीति ॥ देशो वाराणस्यादिकस्तन्नक्षत्रं शतपदचक्रोक्तम् । यथा वारणस्या नक्षत्रं रोहिणीति । अभिषेकभं यस्मिन्पुष्यादिके नक्षत्रे राजाभिषेको जातस्तदभिषेकक्षमिति राज्ञां नव भानि इतरेषां पडेव भानि ॥ ४३ ॥
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मुहूर्तचिंतामणी
अथ सामान्यतः शुभकार्येषु लग्नशुद्धिमनुष्टुभाहव्याष्टsोपचये लग्नगे शुभहरयुते ॥
चंद्रे त्रिषशायस्थे सर्वारंभः प्रसिद्ध्यति ॥ ४४ ॥
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व्ययेति ॥ व्ययो द्वादशमष्टमं एतत्स्थानद्वयं शुद्धं ग्रहरहितं यस्मिन्नेतादृशे स्वजन्मराशेर्जन्मलग्नाद्वा उपचयभवने त्रिषडेकादशदशमराशौ लमगते शुभैर्दृष्टे युते च तथा चंद्रे त्रिषट्दशायस्थे सति सर्वेषां शुभकार्याणामारंभः प्रसिद्ध्यति । तथा च वसिष्ठः । उपचयभे लग्नगते व्ययनैधनशुद्धिसंयुते लग्ने । उपचयगे शीतकरे मंगलकर्माणि कार्याणीति ॥ ४४ ॥
अथ नक्षत्रेषु ज्वरोत्पत्तौ सत्यां तन्निवृत्तौ दिनसंख्यां द्वितीयोपजातिकयोपेंद्रवज्रया चाहस्वातींद्रपूर्वाशिव साने मृतिज्वरेऽत्यमैत्रे स्थिरता भवेदुजः ॥ याम्यश्रवो वारुणतक्षभे शिवा११घस्राहिपक्षी १५ द्व्यधिपार्कवासवे ४९ मूलाग्निदात्रे नव पित्र्यभे नखा २० बुध्यार्यमेज्यादितिधातृभे नगाः ७ ॥ मोसोsorवैश्वेऽथ यमाहिमूलभे मिश्रेशपित्र्ये फणिदंशने मृतिः ४६
स्वातद्रेति ॥ मूलानीति ॥ स्वाती ज्येष्ठा पूर्वात्रयार्द्राश्लेषासु ज्वरे ज्वरो - त्पत्तौ सत्यां मृतिर्मरणं स्यात् । अथांत्यमैत्रे रेवत्यनुराधयोर्ज्वरोत्पत्तौ रुजो रोगस्य स्थिरता बहुकालेन रोगनिवृत्तिः स्यात् । तथा भरणी श्रवणशतताराः तक्षभं चित्रा एतेषु नक्षत्रेषु शिवा घस्त्राः एकादश दिवसाः रोगः । द्वयधिपं विशाखा अर्को हस्तः वासवं धनिनष्ठा ए त्रिषु भेषु पंचदश दिवसाः रोगः ॥ ४५ ॥ मूलं अग्निः कृत्तिका दास्त्रमश्विनी एषु नव दिवसा रोगः । पित्र्य मघायां नखा विंशतिदिवसाः । बुभ्यमं उत्तराभाद्रपदा अर्यमा उत्तराफल्गुनी पुष्यपुनर्वसुरोहिणीषु नगाः सप्त दिवसा रोगः । अब्जवैश्वे मृगोत्तराषाढयोः मासस्त्रिंशद्दिनानि रोगस्थैर्य ततो रोगनिवृत्तिः । अत्र शांतिर्वसिष्टोक्ता । ऋक्षेशरूपं कनकेन कृत्वा तल्लिंगमंत्रैश्च सुगंधपुष्पैः । वस्त्राक्षतैर्गुग्गुलधूपदीपनैवेद्यतांबूलफलैश्च सम्यक् ॥ पूजां च कृत्वामयनाशनाय द्विजाय दद्यादतुलं शिवाय । आमयो रोगः । अतुलमपरिमितद्रव्यम् ॥ अथानंतरं यमाहिमूलभे भरण्याश्लेषामूलेषु कृत्तिकाविशाखार्द्रामघासु च सप्तनक्षत्रेषु यस्य कस्यचित्फणिदंशने सर्पदंशने मृतिर्भवेत् । अत्र सर्पदंशे यस्य एतेषु गोचर - वशेन चंद्रबलं न भवति तस्यैव सर्पदंशेन मृतिः स्यात् । उक्तं च दीपिकाटीकाकृताऽच्युतभट्टेन । यद्यत्र चंद्रस्तस्यैव गोचरे चाशुभप्रदः । तदा नूनं भवेन्मृत्युः सुधासंसिक्तदेहिन इति ॥ ४६ ॥
अथ शीघ्रं रोगिमरणे विशिष्टयोगं द्वितीयोपजातिकयाहरौद्राहिशाऋांबुपयाम्यपूर्वाद्विदैववस्वग्निषु पापवारे ॥
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नक्षत्रप्रकरणम् ।
रिक्ता हरिस्कंद दिने च रोगे शीघ्रं भवेद्रोगिजनस्य मृत्युः ॥४७॥ रौद्राहीति ॥ रौद्रा दिनक्षत्रेषु पापवारे सति रिक्ताः प्रसिद्धाः हरिर्द्धादाशी स्कंददिनं षष्ठी एतासु तिथिषु एवंविधे विशिष्टयोगे यस्य रोगोत्पत्तिर्भवति तस्य रोगिजनस्य शीघ्रं मृत्युर्भवेत् ॥ १७ ॥
अथ तदाहमुहूर्त प्रेतदाहादिनिषेधं चंद्रवंशयाह
४५
क्षिप्राहिमूदुहरीशवायुभे प्रेतक्रिया स्याज्झषकुंभगे विधौ ॥ प्रेतस्य दाहं यमदिग्गमं त्यजेच्छय्यावितानं गृहगोपनादि च ॥ ४८ ॥
क्षिप्रेति ॥ क्षिप्रादिनक्षत्रेषु प्रेतक्रिया प्रेतानां मृतानां क्रिया उत्तमलोक प्रात्यर्थं श्राद्धादिक्रिया स्यात् । यदि दाहसमये कारणवशान्नारब्धा । अथ झषकुंभगे विधौ मीनकुंभस्थिते चंद्रे धनिष्ठोत्तरार्धादिपंचनक्षत्रे प्रेतस्य दाहो ज्वालनं त्यजेत् । च पुनः यमदिग्गमं दक्षिणदिशि गमनं यात्रां तथा शय्यायाः खद्याया वितानं वयनं तथा गृहगोपनं गृहाच्छादनं आदिशब्देन तृणकाष्टसंग्रहं च त्यजेत् । ब्रह्मपुराणे पंचके मरणमपि निषिद्धम् । कुंभमीनस्थिते चंद्रे मरणं यस्य जायते । न तस्योर्ध्वा गतिर्दृष्टा संततेर्न शुभं भवेदिति ॥ तेन पंचके मृतस्य पंचके दाहप्राप्तौ सत्यां तत्पुत्तलविधिं कृत्वा दाहः कार्यः । पश्चादाशौचनिवृत्त्यनंतरं शांतिकं कार्यम् । यदि पंचकप्रवृत्तेः प्रागेव मृतस्तस्य प्रतिबंधवशात्पंचके दाहप्राप्तौ पुत्तलविधिं कृत्वा दाहः कार्यः । आशौचनिवृत्त्यनंतरं शांतिर्न कार्या । एवं रेवत्यं - तमृतस्य रेवतीमपहाय दाहः कार्यो न पुत्तलविधिः । आशौचनिवृत्त्यनंतरं शांतिरेव कार्या मरणनिषेधदाहनिषेधप्रतिपादकवचनद्वयसद्भावादिति ॥ ४८ ॥
अथ काष्ठानां गोमयपिंडानां च संग्रहमुहूर्त शार्दूलविक्रीडितेनाहसूर्यर्क्षाद्रसभैरधःस्थलगतैः पाको रसैः संयुतः शीर्षे युग्ममितैः शवस्य दहनं मध्ये युगैः सर्पभीः ॥ प्रागाशादिषु वेदभैः स्वसुहृदां स्यात्संगमो रोगभी: काथादेः करणं सुखं च गदितं काष्ठादिसंस्थापने ।। ४९ ।। सूर्यर्क्षाद्रसभैरिति ॥ स्पष्टार्थम् ॥ ४९ ॥ अथ त्रिपुष्करयोगं सफलं वसंततिलकयाहभद्रातिथी रविजभूतनयार्कवारे द्वीशार्यमाजचरणादितिवह्निवैश्वे || पुष्करो भवति मृत्युविनाशवृडौ त्रैगुण्यदो द्विगुणकृसुतक्षचांद्रे ॥ ५० ॥
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मुहूर्तचिंतामणौ भद्रातिथिरिति ॥ भद्रासंज्ञकतिथिर्द्वितीया सप्तमी द्वादशी शनिभौमसूर्यवारे भवति तथा द्वीशं विशाखा अर्यमोत्तराफल्गुनी अजचरणः पूर्वाभाद्रपदा अदितिः पुनर्वसुः वह्निः कृत्तिका वैश्वमुत्तराषाढा एषु नक्षत्रेषु उक्ततिथिवारनक्षत्ररूपे विशिष्टयोगे सति त्रैपुष्करः । त्रिपुष्कर एव त्रैपुष्करः स्वार्थेऽण् । त्रिपुष्करसंज्ञको योगो भवति । कीदृशः मृत्युविनाशवृद्धौ त्रैगुण्यदः तद्दिने यदि कश्चिन्म्रियेत तद्दायादास्त्रयो म्रियेरन् । यदि किंचिद्वस्तु विनष्टं तदा तस्य तद्वस्तुत्रयनाशः। तथा किंचिद्वस्तु लब्धं तदा त्रिगुणस्तद्वस्तुलाभः । वसिष्ठः । रविरविजभौमवारे भद्रायां विषमपादमृक्षं चेत् । त्रैपुष्कराख्ययोगस्त्रिगुणफलो यमलभैदिगुणः ॥ विषमपादानि । यन्नक्षत्रस्यैकचरणः पूर्वराशौ चरणत्रयमपरराशौ भवति तानि विषमचरणानि द्वीशार्यमेत्यादीनि । अथ वसुर्धनिष्ठा तसं चित्रा चांद्रं मृगः एतानि भानि भद्रातिथयः रविशनिभौमवाराश्च । अत्रापि विशिष्टयोगे द्विपुष्करनामयोगो भवति । तत्फलं मृत्युविनाशवृद्धौ द्वैगुण्यकृद्भवति । तत्र शांतिमाह नारदः । दद्यात्तद्दोषनाशाय गोत्रयं मूल्यमेव वा । द्विपुष्करे द्वयं दद्यान्न दोषस्त्टक्षमात्रत इति । अत्र त्रिपुष्करे कश्यपेन रविस्थाने बृहस्पतिवारोऽप्युक्तः । भद्रातिथिः शनीज्यारवारे चेद्विषमांघ्रिभम् । त्रिपुष्करं त्रिगुणदं द्विगुणं व्यंघ्रिभं मृताविति । इदमेव दृष्ट्वा श्रीपतिनाप्युक्तम् । विषमचचरणं धिष्ण्यमित्यादि । अत्र कश्यपवाक्ये मृतावेव त्रिगुणफलतोक्ता । ग्रंथकता तु श्रीपतिवाक्यानुरोधान्मृत्युविनाशद्धावित्युक्तम् ॥ ५० ॥ अथ शवप्रतिकृतिदाहे निषिद्धकालं शार्दूलविक्रीडितेनाह
शुक्राराषुि दर्शभूतमदने नंदासु तीक्ष्णोग्रभे पौष्णे वारुणभे त्रिपुष्करदिने न्यूनाधिमासेऽयने ॥ याम्येऽब्दात्परतश्च पातपरिघे देवेज्यशुक्रास्तके
भद्रावैधृतयोः शवप्रतिकृतेर्दाहो न पक्षे सिते ॥ ५१ ॥ शुक्रारेति ॥ एवंविधे दिने शवस्य प्रतिकृतिः पर्णशरादिना सावयवत्वकल्पनं तस्य दाहो न कार्यः । कुतः द्विविधो हि प्रेतसंस्कारः । प्रत्यक्षशरीरस्यैकस्तत्प्रतिकृतेरन्यः । तस्य प्रत्यक्षशरीरसंस्कारे दिनविचाराभावः । प्रत्यक्षशवसंस्कारे दिनं नैव विशोधयेदिति । प्रतिकृतिसंस्कारे कालत्रयं आशौचमध्ये वर्षमध्ये वर्षानंतरं चेति । आशौचमध्ये क्रियते पुनः संस्कारकर्म चेत् । शोधनीयं दिनं तत्र यथासंभवमेव तु ॥ आशौचविनिवृत्तौ चेत्पुनः संस्क्रियते मृतः । संशोध्यैव दिनं ग्राह्यमूर्ध्वं संवत्सराद्यदीति गार्ग्यवचनाद्दिनशुद्धिरुच्यते । शुक्रारार्किदिने शुक्रभौमशनिवारे शवप्रतिळतेर्दाहो न कार्य इति प्रत्येकं संबंधः । दर्शोऽमावास्या भूतश्चतुर्दशी मदनस्त्रयोदशी नंदाः प्रतिपषष्ठयेकादश्यः आसु तिथिषु । तथा तीक्ष्णोग्रभे मूलार्द्राज्येष्ठाश्लेषास्तीक्ष्णानि पूर्वात्रयं मघा भरणी उग्राणि
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नक्षत्रप्रकरणम् ।
पौष्णं रेवती वारुणभं शततारा । पूर्वोक्ते त्रिपुष्करदिने न्यूनाधिमासे क्षयमासे अधिकमासे अयने याम्ये अब्दात्परतः अब्दमध्ये याम्यायनेऽपि कार्यः । नंदामदनभूतामापातवैधृतिविष्टिषु । शुक्रार्किभौमपरिधध्रुवमिश्रो मैत्रभैः ॥ कर्तुश्चंद्रेऽष्टवेदांत्ये जन्मप्रत्यरितारके । त्रिपादभे सिते पक्षेऽयने याम्येऽब्दतः परम् || शवप्रतिकृतेर्दाहः शुक्रेज्यास्ताधिमासके । नष्टो मध्यो द्विपान्मैत्रद्वीशादिति भगध्रुवे इति निबंधोक्तेः । दिनक्षयोऽपि वर्ज्यः । वर्जयेत्तु दिनक्षयमिति गार्योक्तेः । पातपरिघे पातो व्यतीपातो महापातश्च परिघच एतेषु दाहो न कार्यः । देवेज्यशुक्रास्तके दाहो न कार्यः । भद्रायां वैधृतौ च तथा सिते शुक्लपक्षे इति ॥ ११॥ अथ तेनैव छंदसा वर्ज्यातराण्याह
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जन्मप्रत्यरितारयोर्मृतिसुखांत्येऽजे च कर्तुर्न स न्मध्य मैत्रभगादितिध्रुवविशाखायंधिभे ज्ञेऽपि च ॥ श्रेष्ठोऽज्यविधोदिने श्रुतिकरस्वात्यश्विपुष्ये तथा Farशौचात्परतो विचार्यमखिलं मध्ये यथासंभवम् ॥ ५२॥ जन्मप्रत्यरितारयोरिति ॥ कर्तुर्जन्मप्रत्यरितारयोः जन्मतारा उत्पत्तिनक्षत्रं दशमैकोनविंशं चेति । प्रत्यरितारा जन्मभात्पंचमचतुर्दशत्रयोविंशं नक्षत्रम् । तथा कर्तुर्मृतिसुखांत्येऽब्जे अष्टमचतुर्थद्वादशस्थे चंद्रे सति दाहो न सन्न प्रशस्तः । अथ मध्यनक्षत्राणि मैत्रमनुराधा भगः पूर्वाफाल्गुनी अदितिः पुनर्वसुः ध्रुवाणि रोहिण्युत्तरात्रयं विशाखा द्वयंघ्रिभं मृगचित्राधनिष्टाः ज्ञे बुधेऽपि शवदाहो मध्यमः । अथोत्तमानि अर्केज्याभ्यां सहितो विधुः अर्कगुरुचंद्रवारे तथा श्रवणहस्तस्वात्यश्विनीपुष्येषु पंच नक्षत्रेषु शवप्रतिकृतेर्दाहः श्रेष्ठः। इदमखिलमाशौचात्परतोऽनंतरम् । मध्ये तु यथासंभवं किंचिगुणांगीकारेण विचार्यम् ॥ ९२ ॥
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अथ मूल नक्षत्र जातस्य विशेषमुपजातिकयाह
अभुक्तमूलं घटिकाचतुष्टयं ज्येष्ठांत्यमूलादिभवं हि नारदः ॥ वसिष्ठ एकद्विघटीमितं जगौ वृहस्पतिस्त्वेकघटीप्रमाणकम् ॥ ५३ ॥
अभुक्तमूलमिति ॥ नारदः । अभुक्तमूललक्षणं ज्येष्ठांत्यमूलादिभवं घटीचतुष्टयं जगौ । ज्येष्ठांत्यघटीचतुष्टयं मूलादिघटीचतुष्टयं चेत्यर्थः । नारदः । यो ज्येष्ठामूलयोरंतरालप्रहरजः शिशुः । अभुक्तमूलजः सार्पमघा नक्षत्रयोरपि ॥ अयमेव मुख्यः पक्षः कश्यपादिबहुमुनिसंवादात् । कश्यपः । ज्येष्ठांत्यमूलयोरंतरालयामोद्भवः शिशुः । अभुक्तमूलजः सोऽथ त्वाश्लेषापित्र्ययोरपि ॥ वसिष्ठोऽपि । भुजंगपौरंदरपौष्णभानां तदग्रमानां च यदंतरा - लम् । अभुक्तमूलं प्रहरप्रमाणं त्यजेत्सुतं तत्र भवां सुतां चेति । वसिष्ठ एकद्विघटीमितं जगौ
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४८
मुहूर्तचिंतामण
ज्येष्ठांते एकघटिका मूलाद्यघटिकाद्वयमित्यर्थः । इदं वसिष्ठेन केचिन्मतमुक्तम् । यतस्तद्वाक्ये केचित् अपरे इति पदोक्तेः । तद्वाक्यं च । ज्येष्ठांत्यपादघटिकामितमेव केचिन्मूलं ह्यभुक्तमपरे पुनरामनंति । मूलाद्यपादघटिकाद्वितयेन सार्धमष्टौ समाः परिहरेदिह जन्मभाजमिति । बृहस्पतिस्तु एकघटीप्रमाणकं जगौ । ज्येष्ठांत्यार्धघटिका मूलाद्या चार्धघटिकेत्यर्थः । गुरुः । ज्येष्ठांत्यघटिकार्धं च मूलादौ घटिकार्धकम् । तयोरंतर्गता नाडी ह्यभुक्तं मूलमुच्यत इति ॥ ५३ ॥
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अथान्य आचार्या उपजातिकयाहु:
अथोचुरन्ये प्रथमाष्टघट्यो मूलस्य शाक्रांतिमपंच नाड्यः ॥ जातं शिशुं तत्र परित्यजेद्वा मुखं पितास्याष्ट समा न पश्येत् ॥५४॥ अथोचुरन्य इति || आचार्याः प्रोचुः । मूलस्य प्रथमा अष्ट घटिकाः शाक्रस्य ज्येष्ठाया अंतिमाः पंच नाडिका एवमुभयोरंतराले त्रयोदश घटिका अभुक्तसंज्ञकाः प्रोचुः । उक्तं च । ज्येष्ठांत्या वटिका: पंच मूलाद्या वसुनाडिकाः । अभुक्तमिति तज्ज्ञेयं तत्र जातं शिशुं त्यजेदिति ॥ तत्फलमाह । तत्राभुक्तमूले जातं शिशुं बालं बालां वा पिता परित्यजेत् । त्यागाशक्तौ वा पितास्य बालस्याष्ट समा अष्टौ वर्षाणि मुखं न पश्येत् । नारदः । अभुक्तमूलजं पुत्रं पुत्रीमपि परित्यजेत् । अथवाब्दाष्टकं तातस्तन्मुखं न विलोकयेदिति । अत्र घटीनां न्यूनाधिक्यकथनं दोषस्याधिक्याल्पत्वकथनार्थं ज्ञेयम् ॥ १४ ॥
अथ मूलाश्लेषाजातस्य चरणवशेन फलमुपजातिकयाह
आधे पिता नाशमुपैति मूलपादे द्वितीये जननी तृतीये ॥ धनं चतुर्थोऽस्य शुभोsथ शांत्या सर्वत्र सत्स्यादहिभे विलोमम् ॥५५॥
आधे पितेति । मूलप्रथमचरणे जातस्य बालस्य पिता नाशं प्राप्नोति । द्वितीयचरणे जननी माता नाशं प्राप्नोति । सापत्नमातरि मातृशब्दो गौणः । तेन गौणमुख्ययोर्मुख्ये कार्यसंप्रत्यय इति जननीपदप्रयोगः । तृतीयचरणे धनं नश्यति । चतुर्थश्चरणो बालस्य शुभः । अत्र विशेषो नारदेनोक्तः । दिवा जातस्तु पितरं रात्रौ तु जननीं तथा । आत्मानं संध्ययोर्हति नास्ति गंडो निरामयः || वसिष्ठस्तु | मूलाद्यपादो यदि रात्रिभागे तदात्मनो नास्ति पितुर्विनाशम् । द्वितीयपादो दिनगो यदि स्यान्न मातुरल्पोऽपि तदास्ति दोषः ॥ अथानंतरं शांत्या मूलाश्लेषाशांत्या स्वनुष्ठितया सर्वत्र चरणचतुष्टयेऽपि सत् शुभमनिष्टफलनाशकं कल्याणं स्यात् । शास्त्रोक्तरीत्या खलु सूतकांते मासे तृतीयेऽप्यथ वत्सरांते इति कालत्रयं वसिष्ठोनोक्तम् । मातृगंडे तु विशेषः । मातृगंडे सुते जाते स्तकांते विचक्षणः । कुर्याच्छति तदृक्षे वा तद्दोषस्यापनुत्तये । शिष्टास्तु । सर्वत्रापि यन्नक्षत्रे जन्म तन्नक्षत्र एव शांतिरिति व्यवहरति । अथाहिभे विलोममिति आश्लेषायां मूलपादोक्तं फलं विलोमं वि
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नक्षत्रप्रकरणम् । परीतं ज्ञेयम् । मूलस्य प्रथमपादे पितृनाश इत्युक्तं स आश्लेषाचतुर्थपादोत्पन्नस्य । द्वितीयपादे मातृनाशः स आश्लेषातृतीयचरणे । तृतीयचरणे धननाश उक्तः स आश्लेषाद्वितीयचरणे । चतुर्थचरणे शुभमुक्तं तदाश्लेषाप्रथमचरणे ज्ञेयम् । अत्र बहुविचारोऽस्ति ग्रंथभूयस्त्वभयान लिख्यते । अथ कैश्चिन्मूलवृक्षादिविचार उक्तो जयार्णवे । मूलस्तंभस्त्वचा शाखा पत्रं पुष्पं फलं शिखा । मुनयोऽष्टौ दिशो रुद्राः सूर्याः पंचाब्धयोऽग्नयः मूले तु मूलनाशः स्यात्स्तंभे वंशविनाशनम् । त्वचि मातुर्भवेत्क्लेशः शाखायां मातुलस्य च । पत्रे राज्य विजानीयात्पुष्पे मंत्रिपदं स्मृतम् । फले च विपुला लक्ष्मीः शिखायामल्पजीवितम् । अस्य मूलपुरुषस्यांगेषु घटीन्यासस्तत्रैव । मूलस्य घटिकान्यासो मूर्ध्नि पंच नृपो भवेत् । मुखे सप्त मृतिः पित्रोः स्कंधे वेदा महाबलः । बाह्वोरष्टौ बली पाण्योस्तिस्त्रो हत्यान्वितो भवेत्। हृदि खेटा भूपमंत्री नाभौ द्वौ ब्रह्मविद्भवेत् । गुह्ये दशातिकामी स्याज्जानुनोः षण्महामतिः। पादयोः षण्मृतिस्तस्येत्युक्तवान्कमलासन इति । अथ मूलोद्भूतकन्यायाः फलार्थं मूलांगविभागस्तत्रैव । चतस्रो नाडिकाः शीर्षे कुर्वति पशुनाशनम् । मुखे षट् धनहानिः स्यास्कंठे पंच धनागमः । कौटिल्यं हृदये पंच बाव्होर्वित्तागमस्ततः । वेदाः पाण्योर्दयाधर्म वेदा गुह्येऽतिकामिनी । ज्येष्ठमातुलनाशश्च जंघयोर्युगनाडिकाः । ज्येष्ठभ्रातृविनाशश्च चतस्रो जानुयुग्मके । पादयोर्दश नाड्यश्च तत्र वैधव्यमादिशेत् । इति मूलप्रसूताया मुनिभिः फलमीरितम् ॥ अथाश्लेषाजातयोः पुत्रकन्ययोरंगविभागेन फलं तत्रैव । मूर्ति पंचसु राज्याप्तिर्मुखे सप्त पितृक्षयः । नेत्रे द्वे जननीनाशो ग्रीवायां स्त्रीषु लंपटः ॥ स्कंधे वेदा गुरौ भक्तिहस्तेऽष्टौ च बली भवेत् । हृद्येकादशभिश्चात्मघाती संजायते नरः॥ स्त्री वा नाभौ भ्रमः षडिगुदे नव तपोधन । पादे पंच धनं हंति सापादेतत्फलं क्रमात् । अथाश्लेषावृक्षोऽपि तत्रैवोक्तः । फलं पुष्पं दलं शाखा त्वग्लता स्कंध एव च । सार्पवल्यां दशाक्षांकखरविश्वार्कसागराः । नाडिकास्तद्भवे बाले फलं ज्ञेयं यथाक्रमम् । श्रीः श्रीराजभयं हानिर्मातृपित्रात्मसंक्षय इति । अयं विभागो नक्षत्रस्य षष्टिघटिकात्मको ज्ञेयः । न्यूनातिरिक्ते अनुपातः ॥ ५५॥
अथ मूलनिवासं सफलमिंद्रवज्रयाहस्वर्गे शुचि प्रोष्ठपदेषमाघे भूमौ नभःकार्तिकचैत्रपौषे ॥ मूलं ह्यधस्तात्तु तपस्यमार्गवैशाखशुक्रेष्वशुभं च तत्र ॥५६॥
स्वर्ग इति ॥ शुचिराषाढः प्रोष्ठपदो भाद्रपदः इष आश्विनः माघः प्रसिद्धः एषु मासेषु मूलं मूलनक्षत्रं स्वर्गेऽस्ति । श्रावणकार्तिकचैत्रपौषेषु भूमौ तिष्ठति । तपस्यः फाल्गुनः शुक्रो ज्येष्ठः फाल्गुनमार्गशीर्षवैशाखज्येष्ठेषु अधः पाताले मूलं तिष्ठति । तत्फलं च यदा मूलनक्षत्रं यस्मिन्मासे यत्र भवति तत्रैव स्वर्गमृत्युपातालेष्वेव प्रोक्तं शुभाशुभफलं
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मुहूर्तचिंतामणी
ददाति । तेन द्रव्याद्यभावे स्वर्गपातालस्थे मूले दोषाभावात् शांतेरनावश्यकत्वं ज्ञेयम् । यदा तु भूमावेव मूलं तदा शांतिरवश्यं विधेयेति शक्तेन । उक्तं च ज्योतिषार्णवे । भूमिष्ठं दोषबहुलं स्वल्पमन्यत्र संस्थितमिति ज्योतिर्निबंधे । मूलाश्विपित्र्यचरणे प्रथमे च नूनं पौष्णेंद्रयोश्व फणिनश्च तुरीयपादे । मातुः पितुः स्ववपुषोऽपि करोति नाशं जातो यदा निशि दिनेऽप्यथ संध्ययोर्वेति तत्रापि शांत्या शुभं भवतीति ज्ञेयम् || १६ ||
अथ मूलप्रसंगाद्दुष्टेषु गंडांतादिनिमित्तेषु जातस्यारिष्टं परिहारं च शार्दूलविक्रीडितेनाहising शूलपातपरिघव्याघातगंडावमे संक्रांतिव्यतिपात वैधृतिसिनीवालीकुहृदर्शके ॥ वज्रे कृष्णचतुर्दशीषु यमघंटे दग्धयोगे मृतौ
विष्टौ सोदर जनर्न पितृभे शस्ता शुभा शांतितः ॥ ५७ ॥ गंडांतेंद्र भेति ॥ एतेषु शिशोरुत्पत्तिर्नो शस्ता दुष्टफलदा । गंडातं तिथिनक्षत्रलग्रानां संधिः तल्लक्षणं ज्येष्ठापौष्णभेत्यादिना वक्ष्यति । इंद्रभं ज्येष्ठानक्षत्रं शूलयोगः पातो महापातः परिघव्याघातगंडयोगाः अवमस्तिथिक्षयः संक्रांतिः सूर्यसंक्रमणपुण्यकालः व्यतीपातवैधृती योगौ सिनीवाली दृष्टेंदुरमावास्या कुहूर्नष्ठेदुरमावस्या । सा दृष्टेंदुः सिनीवाली सा नष्टेंदुकला कुद्दूरित्यभिधानात् । दर्शचंद्रदर्शनरहितामावास्या एतद्वेदोऽग्रे प्रतिपादयिष्यते । वत्रे वज्रयोगे कृष्णपक्षचतुर्दश्याम् । यमघंटे मघाविशाखेत्युक्ते । दग्धयोगे सूर्येशपंचाग्निरसाष्टनंदा इत्युक्ते । मृतौ द्वीशात्तोयादित्युक्ते मृत्युयोगे विष्टौ भद्रायाम् । सोदरस्य भ्रातुर्भगिन्या वा नक्षत्रे पितृभे । माता च पिता च पितरौ तयोर्भे मातृ पितृभे च एषु निमित्तेषु सुतस्य सुताया वा जन्म चेत्स्यात्तदाऽनिष्टकृत्स्यादित्यर्थः । दुष्टनिमित्तस्योपलक्षणत्वात् त्रीतरजन्माप्यनिष्टम् सजातीयापत्यत्रयप्रसवानंतरं विजातीयापत्यप्रसवस्त्रीतरः । यथा पुत्रत्रयप्रसवानंतरं कन्याजन्म कन्यात्रयप्रसवानंतरं पुत्रजन्म सा जनि: शांतितः वसिष्ठादिप्रोक्तशांत्या स्वनुष्ठितया शुभा परिणामसुखदायिनीत्यर्थः ॥ १७ ॥
अथ शांतयो लिख्यंते । तत्र प्रथमं मूलशांतिरुच्यते । शौनक उवाच । अथातः संप्रवक्ष्यामि मूलजातहिताय च । मातापित्रोर्धनस्यापि कुले शांतिं हिताय च ॥ त्यागो वा मूलजातस्य स्यादष्टाब्दात्प्रदर्शनम् । अभुक्तमूलजातानां परित्यागो विधीयते ॥ अदर्शनाद्वापि पितुः स तु तिष्ठेत्समाष्टकम् । एवं च दुहितुर्ज्ञेयं मूलजातफलं बुधैः ॥ मुख्यकालं प्रवक्ष्यामि शांतिहोमस्य यत्नतः । जातस्य द्वादशाहे तु जन्म वा शुभे दिने ॥ समाष्टके वा मतिमान्कुर्याद्वै शांतिमादरात् । वसिष्ठः । सुसमे पुण्यदेशे तु मंडपं कारयेद्बुधः । कुंडं च तद्बहिः कुर्याद्ब्रहयज्ञोक्तमार्गतः ॥ पंचामृतं पंचगव्यं पंचत्वक् पल्लवानि च । उदुंबरवटाश्वत्थष्ठक्षात्रत्वक् सपल्लवाः ॥ शतौषधीमूलशंखनवरत्नानि मृत्तिकाः । कुष्ठं मांसी हरिद्रे द्वे
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नक्षत्रप्रकरणम् । मुराशैलेयचंदनम् ॥ वचा चंपकमुस्ता च सर्वोषध्यो दशैव हि । गजाश्वरथ्यावल्मीकसंगरस्थानसंभवाः ॥ हृदगोराजनगरद्वारतश्चाष्टमृत्तिकाः । शतौषधीमूलानि च अश्मरी १ सहदेवी २ अपराजिता ३ मुंडा ४ उशीर ५ वाला ६ अधःपुष्पी ७ शंखपुष्पी ८ ज्येष्ठीमधु ९ कोरकः १० चक्रांकिता ११ विष्णुक्रांता १२ शिवक्रांता १३ मयूरशिखा १४ काकजंघा १५ ,गराज १६ कुमारी १७ यह १८ कर्णिकार १९ अपामार्ग २० बिल्व २१ षण्मूला २२ अंबुज २३ उत्तरा २४ पुत्रजीव २५ दूर्वा २६ काश २७ कुश २८ साल २९ ताल ३० चक्रमर्द ३१ सिंही ३२ व्याघ्री ३३ अर्क ३४ प्लक्ष ३५ पलाश ३६ पिप्पल ३७ वट ३८ उदुंबर ३९ तुलसी ४० उत्पल ४१ शतपत्र ४२ अतसी ४३ सारिवा ४४ कदंब ४५ बकुल ४६ शमी ४७ राहिक ४८ निर्गुडी ४९ मुंडी ५० दंडी ५१ ब्राह्मी ५२ अशोक ५३ सूर्यभक्ता ५४ रुद्रजटा ५५ कदली ५६ बीजपूरक ५७ दमनक ५८ मुसली ५९ पुनर्नवा ६० आम्र ६१ पाटल ६२ श्रीपर्णी ६३ करवीर ६४ चंपक ६५ गुडूची ६६ देवदारु ६७ अगरु ६८ चंदन ६९ कुटज ७० शिग्रु ७१ हरिद्रा ७२ जटामांसी ७३ वचा ७४ कुष्ठ ७५ तज ७६ दारुहरिद्रा ७७ बंधुजीव ७८ सिंधुवार ७९ सटी ८० अश्वगंधा ८१ मुस्ता ८२ कुरंटक ८३ पनस ८४ जीवक ८५ जाती ८६ मालती ८७ मधुक << खदिर ८९ सप्तच्छद ९० शिरीष ९१ काकमाची ९२ शतावरी ९३ केतकी ९४ जंबु ९५ शाखा ९६ वेतस ९७ आमलक ९८ सरल ९९ गिरिकर्णी १०० इति तिलमाषयवव्रीहिगोधूमानि प्रियंगवः । चणकैः सहिताः सप्त सद्बीजानि च सर्वदा ॥ वज्रमौक्तिकवैदूर्यपुष्परागेंद्रनीलकम् । पंचरत्नमिदं प्रोक्तं मंत्रैः कुंभेषु निक्षिपेत् ॥ सुवर्णेन प्रमाणेन तदर्धार्धेन वा पुनः । निक्रतिप्रतिमां कुर्याद्वित्तशाव्यविवर्जितः ॥ अत्र विशेषः शौनकेन । पलमानेन वार्धन पादेनाथ स्वशक्तितः । नक्षत्रदेवतारूपं कारयित्वा विचक्षणः ॥ यद्वा मूल्यं सुवर्णस्य स्थापयित्वा प्रपूजयेत् । सुवर्ण सर्वदैवत्यं सर्वदेवात्मकोऽनलः ॥ सर्वदेवात्मको विप्रः सर्वदेवमयो हरिरिति । वस्त्राणि षोडशाष्टौ च शुक्लसूक्ष्माण्यतंद्रितः । ब्राह्मणान्वरयेत्पश्चात्स्वस्तिवाचनपूर्वकम् ॥ श्रोत्रियांश्चतुरो वाऽष्टौ द्वादश त्वथ पोडश । प्रधानाचार्यमेतेषां श्रेष्ठं तत्प्रतिमार्चने ॥ ईशानादिचतुष्कोणेष्वव्रणान्जलपूरितान् । पूर्वोक्तद्रव्यसंयुक्तांस्थापयेद्रक्तवर्णकान् । विप्रान्टथक्प्टथग्वापि मधुपर्कादिनार्चयेत् । द्वारेषु जापकानष्टौ द्वौ द्वौ च वरयेत्पुनः ॥ अब्लिगैर्वारुणमैत्रैः शुक्लपुष्पाक्षतादिभिः । ततत्कुंभे जलं स्पृष्ट्वा कुशकू.पेदिति ॥ रुद्रसूक्तं च भद्राग्नेरानोभद्रा इति क्रमात् । पुरुषसूक्तं च तन्मत्रैर्देवान् ध्यात्वा प्रयत्नतः ॥ गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम् । पंचगव्यमिदं कुंभे क्षिपेद्गजमदान्वितम् ॥ रजतं कांचनं तानं विद्रुमं तीर्थवारि च । निक्षिपेद्धेममूल्यं च दशाष्टयवनिर्मितम् ॥ देवदारुश्च शैलेयं पद्मं नीलोत्पलं तथा । वचा लोभ्रं प्रियंगु
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मुहूर्तचिंतामणौ च शतच्छिद्रे घटे क्षिपेत् ॥ वंशपात्रोपरि न्यस्तं शतच्छिद्रे घटे स्थितम् । ततश्च निर्ऋति देवमर्चयेत्पश्चिमामुखम् ॥ मोषुणस्त्विति मंत्रेण शुक्लवस्त्राक्षतादिभिः । मूलरूपं विधातव्यं श्यामं कुणपवाहनम् ॥ खड्गखेटधरं चोग्रं द्विभुजं च काननम् । स्थापयेत्तं ग्रहांश्चैव वस्त्रगंधादिभिर्यजेत् ॥ चरुं च अपयेत्तत्र नैर्ऋतं दुष्कृतापहम् ॥ तत्र चत्वारः कुंभाश्चतुर्दिक्षु स्थाप्याः । एकः कुंभो रुद्रस्थापनार्थमन्यः स्थाप्यः । एकः शतच्छिद्रः कुंभः तस्मिन्कुंभे देवदारुशैलेयमित्याद्यौषधानि तथा सुवर्णमूल्यं अष्टादशयवपरिमितं निक्षिप्य तदुपरि वंशादिपात्रं निधाय तदुपरि वस्त्रं निधाय तत्र निर्ऋतिप्रतिमां इंद्रप्रतिमाजलप्रतिमासहितां स्थापयेत् । ततः षोडशोपचारैःपंचोपचारैर्वा पूजयेत् । उक्तं च शौनकेन । पुण्यभिमंत्रितैस्तोयैः प्रोक्षितायां क्षितौ ततः। तत्रोदकुंभं सुश्चक्ष्णं रक्तं व्रणविवर्जितम् ॥ अकृष्णमूलं निर्णिक्तं पूरयेन्निर्मलांभसा । आकलशेष्वित्यनया कलशस्थापनं शुभम् ॥ इमं म इति मंत्रेण पूरयेत्तीर्थवारिणा । कुंभं च वस्त्रगंधाद्यैस्तत्तन्मत्रैः प्रपूजयेत् ॥ याः फलिनीरित्यनया क्षिपेद्रनौषधादिकम् । वस्त्रावगुंठितं कुर्यात्पूरयेत्तीर्थवारिणा ॥ कूर्चहेमसमायुक्तं चूतपल्लवसंयुतम् । स्वस्तिकोपरि विन्यस्य क्षीरद्रुमसपल्लवैः ॥ द्रोणवीहीश्च निक्षिप्य ईशाने च निधापयेत् । पंचरत्नानि निक्षिप्य सर्वोषधिसमन्वितम् । अचितं गंधपुष्पाद्यैः श्रीरुद्रं तत्र संजपेत् । तथाप्रतिरथं सूक्तं शतरुद्रानुवाककम् ॥ रक्षामंत्रं तथा पुण्यं रक्षोघ्नं च स्टशन् जपेत् । त्रियंबकं जपेत्सम्यगष्टोत्तरसहस्रकम् ॥ एकवारं तथा जापी पावमानीः स्टशन् जपेत् । जपस्य पंच कुंभाश्च द्वयं वा तदलाभतः ॥ श्रीरुद्रस्यैककुंभं च सर्वसूक्तानि तत्र तु । तथान्यं पंचमं कुंभ पूर्वोक्तलक्षणैर्युतम् ॥ चतुःप्रस्त्रवणं कुर्यात्पंचवक्रं च तद्भवेत् । वस्त्रावगुंठितं कुर्यात्पूरयेत्तीर्थवारिणा ॥ पंचरत्नसमायुक्तमाम्रपल्लवसंयुतम् । एतस्मिन्नपि पंचरत्नसप्तमृत्तिकाशतमूलदेवदारुप्रभृत्यौषधहेममूलानि क्षिपेत् । तत्र शतमूलालाभे । विष्णुकांता सहदेवी तुलसी च शतावरी । मूलानीमानि गृह्णीयाच्छतालाभे विशेषतः ॥ तस्योपरि न्यसेत्पात्रं स्वर्णं वा रौप्यमृन्मयम् । शुद्धवस्त्रेण संछाद्य शतमूलानि निक्षिपेत् ॥ कुंभोपरि न्यसेद्विद्वान्मूलनक्षत्रदैवतम्। अधिप्रत्यधिदेवौ च दक्षिणोत्तरदेशयोः ॥ अधिदेवं यजेदादौ ज्येष्ठानक्षत्रदैवतम् । एवं प्रत्यधिदेवं च पूर्वाषाढङ्ख्दैवतम् ॥ स्वलिंगोक्तैश्च मंत्रैश्च प्रधानादीन्प्रपूजयेत् । पंचामृतेन संस्नाप्य आवाह्याथ समर्चयेत् ॥ उपचारैः षोडशभिर्यद्वा पंचोपचारकैः । रक्तचंदनगंधाद्यैः पुष्पैः कृष्णसितादिभिः ॥ मेषशृंगादिधूपैश्च घृतदीपैस्तथैव च । सुरापोलिकमांसाचैनवेद्यैर्भोजनादिभिः ॥ मत्स्यमांससुरादीनि ब्राह्मणानां विवर्जयेत् । सुरास्थाने प्रदातव्यं क्षीरं सैंधवमिश्रितम् ॥ पायसं लवणोपेतं मांसस्थाने प्रकल्पयेत । उक्तगंधाद्यलाभे तु यथालाभं समर्पयेत् ॥ पुष्पांतं तु समभ्यर्च्य होमं कुर्याद्यथोदितम् । निर्वापप्रोक्षणादीनि चरोः कुर्याद्यथाविधि ॥ हविर्गृहीत्वा विधिना नैर्ऋतेर्वक्रमाहुनेत् । अत्र वसिष्ठेन विशेषोऽभिहितः ।
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नक्षत्रप्रकरणम् ।
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मूलं प्रजामिति मंत्रद्वयस्य कण्व ऋषिः निर्ऋतिर्देवता अनुष्टुप् छंदः मूलाय स्वाहा प्रजापतये स्वाहेत्युपहोममंत्रौ । पलाशसमिदाज्येन चरुणाऽष्टसहस्रकम् । अथवाष्टोत्तरशतं प्रत्येकं जुहुयात्ततः ॥ मूलं प्रजामित्यष्टाभिर्वाक्यैर्मत्रद्वयेन च । सावित्र सौम्य नैर्ऋत्य मंत्रैरश्वत्थसंभवैः ॥ समिद्भिश्च तिलव्रीहीन हुत्वा व्याहृतिभिस्ततः । मूलंप्रजामित्यष्टौ च वाक्यान्याचार्यको जपेत् ॥ अष्टोत्तरसहस्त्रं वा शतं वा नियतात्मवान् । अयं होमप्रकारस्तु शाखांतरविषयो ध्येयः । मोषुणः परापरेति यत्ते देवेति वा पुनः । पायसं घृतसंमिश्रं हुनेदष्टोत्तरं शतम् ॥ समिदाज्यचरून् पश्चाच्छक्तितः संख्यया हुनेत् । अधिदैवतयोश्चैव जुहुयात्स्वस्वमंत्रकैः ॥ नक्षत्र देवताभ्यश्च पायसेन तु होमयेत् । कृणुष्वेति पंचदशभिर्जुहुयात्कृसरं ततः ॥ गायत्र्या जातवेदसे त्रियंबकमिति क्रमात् । सीरा युंजंति तामग्निं वास्तोष्पत्यग्निमेव च ॥ क्षेत्रस्य पतिना गृणानाग्निदूतं तथैव च । श्रीसूक्तेन तथा विद्वान्समिदाज्यचरून क्रमात् ॥ अष्टोत्तरशतैर्वाथ अष्टाविंशतिभिः क्रमात् । अष्टाष्टसंख्ययावापि जुहुयाच्छक्तितो बुधः ॥ त्वं नः सोमेन पायसं जुहुयात्तु त्रयोदश । चतुर्गृहीतमाज्यं च याते रुद्रेति मंत्रतः ॥ स्रुवेण जुहुयादाज्यं महाव्याहृतिभिः क्रमात् । हुत्वास्विष्टकृतं पश्चात्प्रायश्चित्ताहुतीहुनेत् ॥ आचार्यो यजमानो वा अग्नौ पूर्णाहुति हुनेत् । होमशेषं समाप्याथ वह्निमारोपयेत्ततः ॥ कुंभाभिमंत्रणं कुर्याद्दक्षिणेनाभिमर्शयेत् । मृत्युप्रशमनार्थाय जपेच्च त्र्यंबकं शतम् ॥ रुद्रकुंभोक्तमार्गेण रुद्रमंत्रं स्ष्टशन् जपेत् । धूपं दीपं च नैवेद्यं कुंभयुग्मे निवेदयेत् ॥ प्रसादयेत्ततो देवमभिषेकार्थमादरात् । भद्रासनोपविष्टस्य यजमानस्य ऋत्विजः ॥ दारपुत्रसमेतस्य कुर्युः सर्वेऽभिषेचनम् । अक्षीभ्यामिति सूक्तेन पावमानीभिरेव च । आपोहिष्ठेति नवभिरापइद्वाद्वयेन च ॥ सहस्राक्षतृचेनापि देवस्य त्वेति मंत्रकैः । शिवसंकल्पमंत्रेण वक्ष्यमाणै - श्च मंत्रकैः ॥ योऽसौ वज्रधरो देवो महेंद्रो गजवाहनः । मूलजातशिशोर्दोषं मातापित्रोर्व्यपोहतु ॥ योऽसौ शक्तिधरो देवो हुतभुमेषवाहनः । सप्तजिह्नश्च देवोऽग्निर्मूलदोषं व्यपोहतु || योऽसौ दंडधरो देवो धर्मो महिषवाहनः । मूलजातशिशोर्दोषं व्यपोहतु यमो मम || योऽसौ खड्गधरो देवो निर्ऋती राक्षसाधिपः । प्रशामयतु मूलोत्थं दोषं गंडांतसंभवम् ॥ योऽसौ पाशधरो देवो वरुणश्च जलेश्वरः । नक्रवाहः प्रचेताह्नो मूलोत्थावं व्यपोहतु ॥ योऽसौ देवो जगत्प्राणो मारुतो मृगवाहनः । प्रशामयतु मूलोत्थं दोषं बालस्य शांतिदः ॥ योऽसौ निधिपतिर्देवः खड्गभृन्नरवाहनः । मातापित्रोः शिशोश्चैव मूलदोषं व्यपोहतु ॥ योऽसौ पशुपतिर्देवः पिनाकी वृषवाहनः । आश्लेषामूलगंडांतदोषमाशु व्यपोहतु ॥ विघ्नेशः क्षेत्रपो दुर्गा लोकपाला नवग्रहाः । सर्वदोषप्रशमनं सर्वे कुर्वंतु शांतिदाः ॥ तच्छंयोरभिषेकं तु सर्वदोषोपशांतिदम्। सर्वकामप्रदं दिव्यं मंगलानां च मंगलम् ॥ वस्त्रांतरितकुंभाभ्यां पश्चात्तु स्नापयेद्बुधः । ततः शुक्लांबरधरः शुक्लमाल्यानुलेपनः । यजमानो दक्षिणाभिस्तो
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मुहूर्तचिंतामणौ षयेहत्विगादिकान् । धेनुं पयस्विनी दद्यादाचार्याय सवत्सकाम् ॥ निर्ऋतिप्रतिमां कुंभं वस्त्रं हेमं च दापयेत् । ग्रहार्थवस्त्रप्रतिमास्तस्मै दद्यात्प्रयत्नतः ॥ श्रीरुद्रजापिने देयः कृष्णोऽनडान्प्रयत्नतः । तत्कुंभवस्त्रप्रतिमास्तस्मैदद्यात्प्रयत्नतः ॥ उक्तालाभे ततो दद्यादाचार्यब्रह्मऋत्विजाम् । तत्तन्मूल्यं प्रदातव्यं शक्त्या वाथ प्रदापयेत् ॥ दद्यादन्नं पायसादि ब्राह्मणान् भोजयेच्छतम् । अलाभे सति पंचाशदशकं तदलाभतः ॥ सर्वशांतेश्च पठनमाशिषां ग्रहणं तथा । गृही क्षमापयेद्विद्वान्निर्ऋतिः प्रीयतामिति ॥ इति शौनकीये मूलशांतिः ॥ अथाश्लेषाशांतिरप्येवमेव कार्या । तत्र विभवे पूर्वोक्तवत्पंचकुंभाः स्थाप्याः। असंभवे कुंभद्वयम् । एकत्र रुद्रस्थापनं द्वितीये आश्लेषाप्रतिमास्थापनम् । अभिमंत्रादिपूर्ववत् । तत्राश्लेषाप्रतिमा सर्पाकारा अधिदैवतबृहस्पतिप्रतिमा प्रत्यधिदैवतपितृप्रतिमा स्थाप्या पूज्या च । नमो अस्तु सर्पेभ्य इति पूजामंत्र इतीरितः सौ रक्तस्त्रिनेत्रश्च द्विभुजः पीतवस्त्रकः । फणकाधिधरस्तीक्ष्णो दिव्याभरणभूषितः । एवं ध्यात्वा ततोऽभ्यर्च्य होमकर्म समारभेत् । अभिषेके विशेषः । आश्लेषाऋक्षजातस्य मातापित्रोधनस्य च । भातृज्ञातिकुलस्थानां दोषं सर्व व्यपोहतु ॥ पितरः सर्वभूतानां रक्षतु पितरः सदा । सार्पनक्षत्रजातस्य वित्तं च ज्ञातिबांधवान् ॥ साधीश नमस्तुभ्यं नागानां च गणाधिप । गृहाणायं मया दत्तं सर्वारिष्टप्रशांतये ॥ इत्यय॑मंत्रः । मूलनक्षत्रवत्कुर्यात्सपैगंडे स्वनामतः । एतच्च मूलाश्लेषाशांतिकद्वयं विवाहे उपस्थिते श्वशुरस्य श्वश्र्वाश्च सत्वे मूलाश्लेषोत्पन्नयोरपि वधूवरयोस्तत्तदरिष्टनिवृत्त्यर्थं विधेयम् । उपलक्षणत्वाच्च ज्येष्ठाविशाखोत्पन्नाया वध्वा वरस्य ज्येष्ठबंधुकष्टशांतये च नारदः । मूलजा श्वशुरं हंति व्यालजा च तदंगनाम् । ऐंद्री पत्यग्रज हंति देवरं तु द्विदैवजा ॥ शांतिर्वा पुष्कला चेत्स्यात्तर्हि दोषो न कश्चनेति ॥ इत्याश्लेषाशांतिः ॥ अथ गंडांतशांतिः । गंडशांति प्रवक्ष्यामि सोममंत्रेण भक्तिमान् । कांस्यपात्रं प्रकुर्वीत पलैः षोडशभिनवम् ॥ अष्टाभिश्च चतुर्भिर्वा द्वाभ्यां वा शोभनं तथा। तन्मध्ये पायसं शंखे नवनीतेन पूरिते ॥ राजतं चंद्रमभ्यचैत्सितपुष्पसहस्त्रकैः। दैवज्ञः शुक्लवासास्तु शुक्लमाल्यांबरार्चितः ॥ सोमोऽहमिति संचिंत्य पूजां कुर्यादतंद्रितः । दद्यादै दक्षिणामिष्टां गंडदोषप्रशांतये ॥ शुक्लं वागीश्वरं चैव ताम्रपात्रसमन्वितम् । गंडदोपोपशांत्यर्थं दद्याद्वेदविदे शुचिः ॥ अत्रापि पूर्ववत्प्रतिमाकलशहोमाभिषेकादिकं कार्यम् । तिथिगंडे त्वनड्डाहं नाक्षत्रे धेनुरुच्यते ॥ कांचनं लग्नगंडे तु गंडदोषो विनश्यति । आद्यभागे पितुगडे त्रयाणामभिषेचनम् ॥ इतरत्र शिशोर्मातुरभिषेकं च कारयेत् । अन्यच्च । उत्तरातिष्यचित्रासु पूर्वाषाढोद्भवस्य च । कुर्याच्छांति प्रयत्नेन नक्षत्राकारजां बुधः ॥ चित्राद्यधै पुष्यमध्यद्विपादे पूर्वाषाढाधिष्ण्यपादे तृतीये । जातः पुत्रश्चोत्तराचे विघाती मातापित्रोद्घतुरप्यात्मनश्च ॥ द्विमासश्चोत्तरादोषः पुष्यश्चैव त्रिमासकः । पूर्वाषाढाष्टमे मासि
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नक्षत्रप्रकरणम् । चित्रा पाण्मासिकं फलम् ॥ नवमासं तथाश्लेषा मूले चाष्टौ समाः स्मृताः । ज्येष्ठा मासे पंचदशे पुत्रदर्शनवर्जनम् ॥ उत्तरे तिलपात्रं स्यात्तिष्ये गोदानमिष्यते। अजा चित्रासुवैदेया पूर्वाषाढासु कांचनम् ॥ यवांश्च व्रीहिमाषांश्च तिलमुद्गांश्च दापयेत् । यथावित्तानुसारेण कुर्याब्राह्मणभोजनम् ॥ पितुरायुष्यवृद्धयर्थं शांतिरत्र विधीयते । इति गंडांतादिशांतिः ॥ अथ ज्येष्ठाशांतिः । भरद्वाजः । ज्येष्ठादौ मातृजननी मातामहं द्वितीयके । तृतीये मातुलं हंति चतुर्थे जननीं तथा ॥ आत्मानं पंचमे हंति षष्ठे गोत्रक्षयो भवेत् । सप्तमे कुलनाशः स्यादष्टमे ज्येष्ठसोदरः ॥ नवमे श्वशुरं हंति सर्वस्वं दशमे तथेति प्रत्येकं घटिकापटूस्य फलमुक्तम् । अत्रापि मूलशांतिवत्सर्वं कार्यम् । तत्र विशेषः। घटिकैका च मैत्रांते ज्येष्ठादौ घटिकाद्वयम् । तयोः संधिरितिज्ञेयं शिशुगंडांतमीरितम् । ज्येष्ठांत्यपादस्तु पितुः स्वस्य चाभिविनाशकः । ज्येष्ठः कन्यका जाता हंति शीघ्रं धवाग्रजम् ॥ शांतिं तस्य प्रवक्ष्यामि गंडदोषप्रशांतये । तत्र चतुर्दिक्षु कुंभचतुष्टयं संस्थाप्य तन्मध्ये शतच्छिद्रं पंचमं कुंभं संस्थाप्य पूर्ववत्पूजादि विधाय तत्र वजांकुशधरं देवमैरावतगजान्वितम् । कुर्याच्छचीपति रम्यं देवेद्रं सुरनायकम् ॥ शालितंडुलसंपूर्णकुंभस्योपरि पूजयेत् । इंद्रायेंदो मरुत्वत इति मंत्रेण वाग्यतः॥ पूजयेद्विधिना सम्यग्लोकपालगणान्वितम् । रक्तवस्त्रद्वयोपेतं देवराजं शचीपतिम् ॥ पूजयेद्वारुणैर्मत्रैः कुंभान्धीमान्प्रयत्नतः । त्वंनो अग्ने जपेदादौ सत्वन्नोऽपि द्वितीयकम् ॥ समुद्रज्येष्ठा इतिचेमं मे गंगे चतुर्थकम् । पूजयेद्वस्त्रगंधाद्यैश्चतुरः कलशानपि ॥ जपं कुर्युः प्रयत्नेन मंत्रैरेभिर्द्विजोत्तमाः । आनोभद्रा जपं चादौ भद्राअग्ने द्वितीयकम् ॥ इंद्रसूक्तं रुद्रजाप्यं जपेन्मृत्युंजयं ततः । इंद्र संपूज्य देवेशं वरुणं कुंभसंस्थितम् ॥ सुसंकल्पविधानेन होमकर्म ततश्चरेत् । समिद्भिर्ब्रह्मवृक्षस्य शतमष्टोत्तरं शतम् ॥ सर्पिषा चरुणा चैव मूलमंत्रेण वाग्यतः । हुनेज्जाप्यं च तेनैव यत इंद्रभयेति च ॥ तिलान्व्याहृतिभिर्तुत्वा शतमष्टोत्तरं पृथक् । ततोऽभिषेकः। ततो रूपं रूपमिति मंत्रेण तच्चक्षुरिति मंत्रेण आज्यावलोकनम् । पुनर्देवतापूजनं कृत्वा । नमोऽस्तु सुरनाथाय नमस्तुभ्यं शचीपते । गृहाणायं मया दत्तं गंडदोषप्रशांतये ॥ अष्टोत्तरशतं संख्यां कुर्याद्राह्मणभोजनम् । अन्यत्सर्वं तु पूर्ववत् ॥ इति ज्येष्ठाशांतिः ॥ दिनक्षये व्यतीपाते व्याघाते विष्टिवैधृतौ । शूले गंडे च परिघे वजे च यमघंटके ॥ कालदंडे मृत्युयोगे दग्धयोगसमन्विते । तस्मिन्गंडदिने प्राप्ते प्रसूतिर्यदि जायते ॥ अतिदोषकरी प्रोक्ता तत्र पापयुते सति । विचार्य तत्र दैवज्ञः शांतिं कुर्याद्यथाविधि ॥ यजनं देवतानां च ग्रहाणां चैव पूजनम् । दीपं शिवालये भक्त्या गोघृतेन प्रदापयेत् ॥ अभिषेकं शंकराय अश्वत्थस्य प्रदक्षिणाम् । अभीष्टफलसिद्ध्यर्थ कुर्याद्राह्मणभोजनम् ॥ गाणपत्यं पुरुषसूक्तं सौरं मूत्युंजयं शुभम् । शांतिजाप्यं ततश्चैव कृत्वा मृत्युंजयी भवेत् ॥ इत्युत्तरगायें दुष्टयोगशांतिः॥ कुमारजन्मकाले तु व्यतीपातश्च वैधृतिः । संक्रांतिश्च रवेस्तत्र जातो दारिद्र्यका
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मुहूर्तचिंतामणौ रकः ॥ नवग्रहमखं कुर्यात्तस्य दोषस्य शांतये । प्रथमं गोमुखाज्जन्म ततः शांति समाचरेत् ॥ गृहस्य पूर्वदिग्भागे गोमयेनानुलिप्य च । अलंकृते सुदेशे तु व्रीहिराशिं प्रकल्पयेत् ॥ पंचद्रोणमितं धान्यं तदर्धे तंडुलेन च । तदधै तु तिलैः कुर्यादन्योन्योपरि कल्पयेत् ॥ द्रव्यत्रितयराशौ तु अष्टपत्रं लिखेद्बुधः । पुण्याहं वाचयित्वा तु आचार्य वरयेत्पुरा ॥ राशौ प्रतिष्ठितं कुंभमव्रणं सुमनोहरम् । तीर्थोदकेन संभृत्य समृदौषधिपल्लवम् ॥ पंचगव्यं पंचरत्नं वस्त्रयुग्मेन वेष्टयेत् । तस्योपरि न्यसेत्पात्रं सूक्ष्मवस्त्रेण संयुतम् ॥ प्रतिमा स्थापयेत्पश्चादधिप्रत्यधिदेवताम् । चंद्रादित्याकृती पार्श्वे मध्ये वैधृतिमर्चयेत् ॥ एवमेव व्यतीपातशांती संक्रमणस्य च । भानोरुत्तरतो रुद्रमग्निं दक्षिणतो यजेत् ॥ निष्कमात्रेण चार्धन पादेनापि स्वशक्तितः । प्रतिमाः कारयेद्धीमांस्तत्तल्लक्षणलक्षिताः ॥ प्रतिमापूजनार्थाय वस्त्रयुग्मं निवेदयेत् । अधिदेवं भवेत्सूर्यश्चंद्रः प्रत्यधिदैवतम् ॥ तत्तद्व्याहृतिपूर्वेण तत्तन्मंत्रेण पूजयेत् । त्रियंबकेन मंत्रेण रुंद्रपूजां समाचरेत् ॥ उत्सूर्य इति मंत्रेण सूर्यपूजां समाचरेत् । आप्यायस्वेति मंत्रेण सोमपूजां समाचरेत् । तत्राष्टोत्तरसहस्रं अष्टोत्तरशतं वा अष्टाविंशतिसंख्याजपं सर्वसौरजपं च आनोभद्रा भद्राअग्नेरिति सूक्ते पुरुषसूक्तं त्रियंबकं एतान्मंत्रान् कुंभान् स्टष्ट्वा चतुर्दिक्षु जपेयुः । त्रियंबकेन मंत्रेण समिदाज्यचरून् हुनेत् । अष्टोत्तरसहस्रं अष्टोत्तरशतं अष्टाविंशतिर्वा । मृत्युंजयेन मंत्रेण तिलहोमं समाचरेत् । ततः समुद्रज्येष्ठा इति सूक्तेन आपोहिष्ठेति तृचेन च अक्षीभ्यामिति सूक्तेन पावमानीभिः त्रियंबकेन उत्सूर्यति आप्यायस्वेति वैदिकमंत्रैः सुरास्त्वामभिषिचंत्वित्यादिकैः पौराणमंत्रश्चाभिषेकं कुर्यात् । तत आज्यावेक्षणम् । अन्यदक्षिणादानादिकं पूर्ववत् । इत्युत्तरगायें व्यतीपातवैधृतिसंक्रांतिशांतिः ॥ अथ कुहूसिनीवालीदर्शशांतिः । तत्र यस्याः कस्याश्चिदमावास्यायाः अष्टौ भागान्कृत्वा प्रथमविभागे चंद्रदर्शनमस्ति नवेति विचार्यम् । यदा चंद्रदर्शनं तदा सिनीवाली यदा चंद्रादर्शनं तदा दर्शः । सकलचंद्रक्षयस्तदा कुहूरित्यर्थः । तदुक्तं छंदोगपरिशिष्टे । इंदुक्षयकालः श्राद्धकाल इति प्रस्तुत्येंदुक्षयकालपरिगणनमुक्तम् अष्टमेंऽशे चतुर्दश्याः क्षीणो भवति चंद्रमाः । अमावास्याष्टमे भागे पुनः किल भवेदणुः । अत्रेदुराये प्रहरे च तिष्ठेत् चतुर्थभागो न कलावशिष्टः । तदंत एव क्षयमेति कृत्स्न एवं हि ज्योतिश्चक्रविदो वदंतीति । एतत्कारिकाव्याख्यानं तद्भाष्यकारेण कृतम् । प्रहरनवकात्मकश्चंद्रक्षयकाल इति । तत्रामायाः सप्तमाष्टमप्रहरौ कृत्स्नः क्षयकालः । चतुर्दशीशेषयामदर्शादियामौ च चंद्रसूक्षमताकाल इति । तत्रायमत्र विषयविवेकः । यस्याममावास्यायां प्रथमप्रहरे शास्त्रात्प्रत्यक्षतो वा चंद्रदर्शनं स्यात्सा सिनीवाली सर्वदा सिद्धा । तत्रोत्पन्नस्य सिनीवालीशांतिविधेया। अथ तस्यामेवामावास्यायां यदा नष्टंदुकलात्वं स च कृत्स्नक्षयकालोऽमावास्यायां अंतिम
१ प्रधानप्रतिमां यजेत् ।
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नक्षत्रप्रकरणम् ।
क्षण एव । तस्य च संक्रांतिसमयवदतिसूक्ष्मत्वेन दुर्ज्ञेयत्वात् । अमावास्यायाः सप्तमाष्टमप्रहरयोः कृत्स्नक्षयकालस्य भाष्यकारेण परिभाषितत्वात् सप्तमाष्टमप्रहरात्मकः कालः कुहूशब्दवाच्यस्तत्रोत्पन्नस्य कुहूशांतिः । पुनस्तस्यामेवामावास्यायां प्रथमप्रहरानंतरं सप्तमप्रहरादर्वाक् प्रहर पंचकात्मकः कालो दर्शशब्दवाच्य इति । तत्रोत्पन्नस्य दर्शशांतिर्विधेयेति । एवमेकस्यामेवामावास्यायां कालभेदेन त्रयं संभवति । यदा त्वमावास्यायां चंद्रदर्शनाभावस्तदा द्वयमेव दर्शत्वकुहूत्वरूपं संभवतीति अत्र केचिच्चतुर्दशीशेषे चंद्रदर्शने सति परदिने यामावास्या सा सिनीवाली इत्याहुस्तन्न चंद्रो यस्यामिति अन्यपदार्थस्य अमावास्यारूपस्यैव सामानाधिकरण्येन ग्रहणात् । किंच । सिनीशब्देन श्वेता चंद्रकला । वर्णवाचिनः सितशब्दाद्वर्णादनुदात्तात्तोपधात्तो न इति ङीपूनकारौ । सिनी तां वलते प्राप्नोतीति सिनीवालीति व्युत्पत्तिश्च चतुर्दश्युदितचंद्राश्रयायाममावास्यायां न युज्यते इति च तस्माद्दृष्टेदुः सिनीवाली त्यमावास्यैवाभिधीयत इत्येव ज्यायः । अथ गोलगणितविदोऽन्यथा समादधुः । तत्र स्याद्दृष्टदुः सिनीवालीत्यादौ उदयास्ताधिकारोक्तरीत्या दृक्कर्मद्वयसंस्कृतस्य दर्शनयोग्यत्वे सति प्राक् क्षितिजक्रांतिवृत्तसंबंधवत्त्वं ग्रहादेर्दर्शनशब्दवाच्यं मेघाद्यावरणे तु शास्त्रीयदर्शने दृशिर्वर्तते । आत्मा द्रष्टव्य इत्यादिवत् तथैव दर्शनायो - ग्यत्वे सति प्राक् क्षितिजसंबंधवत्त्वमदर्शनशब्दवाच्यमित्यदर्शनलक्षणम् । अतचंद्रदर्शनलक्षणवत्यमावास्या सिनीवालीनाम चंद्रादर्शनलक्षणवत्यमावास्या कुहूर्नाम लक्षणद्वयानाक्रांताऽमावास्या दर्शशब्दवाच्येति । अयमाशयः । यदामावास्या सूर्योदयात्प्राक् घटिकात्रय - वती तदा दृक्कर्मसंस्कारवशेन चंद्रस्य दृश्यत्वमागतं चेत्तदा सा संपूर्णाऽमावास्या सिनी - वालीनाम तादृश्याममायां द्वितीय सूर्योदयावधिकायामुत्पन्नस्यारिष्टशांतये सिनीवालीशांतिस्तत्फलं चादेश्यम् । अथ तिथिवृद्धौ वा तस्या अमावास्याया द्वितीयसूर्योदयानंतरमवशिष्टामावास्याघटीषूत्पन्नस्य कुहूशांतिरेव । चंद्रादर्शनलक्षणसत्त्वात् । यदि सैवामावास्या सूर्योदयात्प्राक् घटिकात्रयं चतुष्टयं वा प्रतिपत्संबद्धा तदा सिनीवाल्येव । अथ तादृश्यां न्यूनायामधिकायां वाऽमावास्यायां तु दृक्कर्मसंस्कारवशेन चंद्रस्यादृश्यत्वमागतं सामावास्या संपूर्णा कुर्नाम | चंद्रादर्शनलक्षणसच्चात् । तत्रापि कुद्दूशांतिरादेश्या । यदा तु सूर्योदयानंतरं कियतीषु द्वित्रिघटीषु अतिक्रांतासु अमावास्याप्रवृत्तिः पूर्वं चतुर्दश्येवास्थिता तस्यामुषसि दृक्कर्मवशतश्चंद्रो दृष्टो मा वादर्शि । तथाप्यमावास्यायां चंद्रादर्शनलक्षणानाक्रांतत्वात्सा संपूर्णामावास्या दर्शो नाम तत्र दर्शजननशांतिर्विधेयेति । एवममावास्याभेदेन सिनीवाली कुहूदर्शरूपपक्षत्रयं सावकाशमिति गोलज्ञानां मतम् । अथ प्रकारांतरेण सिनीवाली सर्व वादिसिद्धा सैव कुहूस्तु पारिभाषिकी । यदाह वसिष्ठः । नक्षत्रे यस्य दर्शातो विषनाड्या भवेद्यदि । कुहूयोग इति ख्यातो व्याधिमृत्युभयादिकृत् । अयमर्थः । तस्मिन्नक्षत्रे या विषनाड्य उक्ता
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मुहूर्तचिंतामणी
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स्तस्मिन्काले यदि दर्शस्य चरमघटिका भवेत्तन्नक्षत्रं च यस्य पुरुषस्य जन्मनक्षत्रं जन्मकाले कालांतरे वा स्यात्तस्य पुंसो व्याधि मृत्युकृत्कुहूयोगो ज्ञेयः । तत्र कुहूजननफलं शांतिश्च स्यात् । कालांतरेऽपि कुहूयोगसंभवे शांतिर्विधेया । अतएव जगन्मोहने । यस्य जन्मर्क्षगचंद्रो विषनाड्यां कुहूर्भवेत् । अभिचारेण किं तस्य स्वयमेव मरिष्यतीति । अतो विषघटिकातः पूर्वकालो दर्शशब्दवाच्य इति । एवं प्रकारत्रयेण सिनीवालीकुहूदर्शानां भेद उपपादितस्तत्र यथासंप्रदायं व्यवस्थेत्यलमतिप्रसंगेन । अथ शांतिप्रकारः । सिनीवाल्यां प्रसूता स्याद्यस्य भार्या पशुस्तथा । गवाश्वमहिषी चैव शक्रस्यापि श्रियं हरेत् ॥ ये वसंति द्विजाश्चान्ये स्वप्रसादोपजीविनः । वर्जयेत्तानशेषांस्तु पशुपक्षिमृगादिकान् ॥ द्विजाः पक्षिणः । कुहूप्रसूतिरत्यर्थं सर्वदोषकरी मता । यस्य प्रसूतिरेतेषां तस्यायुर्धननाशिनी ॥ नारीं विना च शेषाणां परित्यागो विधीयते । परित्यागात्तत्र शांतिं कुर्यात्या विचक्षणः ॥ प्रतिमां कारयेच्छं भोश्रतुर्भुजसमन्विताम् । त्रिशूलखङ्गवरदाभयहस्तां यथाक्रमात् ॥ श्वेतवर्णां श्वेतपुष्पां श्वेतांवरवृषस्थिताम् । त्रैयंबकेन मंत्रेण पूजां कुर्याद्यथाविधि ॥ इंद्रश्चतुर्भुजो वज्रांकुशचापससायकः । रक्तवर्णो गजारूढो यत इंद्रेति मंत्रतः ॥ पितरः कृष्णवर्णाश्च चतुर्हस्ता विमानगाः । यष्टचक्षसूत्रकमंडल्वभयानां च धारिणः ॥ ये सत्या इति मंत्रेण पूजां कुर्यादनंतरम् । कलशस्थापन पूजादिपूर्ववत् । समिदाज्यचरोहमं तिलमाषैश्च सर्षपैः । अश्वत्थष्ठक्षपालाशसभिद्भिः खादिरैः शुभैः॥ अष्टोत्तरशतं मुख्यं प्रत्येकं जुहुयाद्बुधः । त्रैयंबकेन मंत्रेण तिलान्व्याहृतिभिर्हुनेत् ॥ शं करस्याभिषेकं च कुर्यादाज्यावलोकनम् । अन्यत्सर्वमभिषेकादिपूर्ववत् ॥ इति सिनीवालीकुहूशांतिः ॥ अथ दर्शशांतिः ॥ अथातो दर्शजातानां मातापित्रोर्दरिद्रता । तद्दोषपरिहाराय शांतिं वक्ष्यामि नारद । तत्र संकल्पं विधाय पुण्याहं वाचयित्वा सर्वतोभद्रमंडलं लिखित्वा तन्मध्ये कलशं संस्थाप्य। तन्मध्ये निक्षिपेद्द्रव्यं दधिक्षीरघृतादिकम् । न्यग्रोधोदुंबरोश्वत्थाः सता बिकास्तथा । एतेषां वृक्षमूलानां त्वगादीन पल्लवांस्तथा । पंचरत्नानि निक्षिप्य वस्त्रयुग्मेन वेष्टयेत् ॥ तत्र सर्वे समुद्रा इति । आपोहिष्ठा तृचेनेति कयानचित्र इत्यृचा । यत्किंचेदमृचा चैव समुद्रज्येष्ठा इत्यृचा || अभिमंत्र्योदकुंभं तमः पूर्वे निधापयेत् ॥ दर्शस्य देवता याश्च सोमसूर्यस्वरूपकाः । प्रतिमां स्वर्णजां नित्यं राजतीं ताम्रजां तथा ॥ आप्यायस्वेति मंत्रेण सवितापश्चात्तमेव च । उपचारैः समाराध्य ततो होमं समाचरेत् || समिधश्च चरुद्रव्यं क्रमेण जुहुयाद्गृही । हुनेत्सवितृमंत्रेण सोमोधेनुं च मंत्रतः ॥ अष्टोत्तरशतं वापि अष्टाविंशतिसंख्यया । अभिषेकादिपूर्ववत् । हिरण्यं रजतं चैव कृष्णा धेनु दक्षिणा । ब्राह्मणान् भोजयेत्तत्र कारयेत्स्वस्तिवाचनम् || इति दर्शशांतिः ॥ कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां प्रसूतेः षड्विधं फलम् । चतुर्दशीं च षड्भागां कुर्यादादौ शुभं स्मृतम् ॥ द्वितीये पितरं हंति तृतीये मातरं तथा । चतुर्थे मातुलं हंति पंचमे वंशनाशनम् ॥ षष्ठे तु ध
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नक्षत्रप्रकरणम् ।
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नहानिः स्यादात्मनो वंशनाशनम् । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन शांतिं कुर्याद्विधानतः ॥ प्रतिमां कारयेच्छंभोः कर्षमात्रसुवर्णतः । तदर्द्धार्धेन वा कुर्यात्सर्वलक्षणसंयुताम् ॥ वृषभे च समासीनं वरदाभयपाणिकम् । शुद्धस्फटिकसंकाशं श्वेतमाल्यांवरान्वितम् ॥ त्र्यंबकेन मंत्रेण पूजां कुर्याद्विधानतः । तत्र मूलशांतिवत् कलशस्थापनादि कृत्वा तत्र शंभुपूजां विधाय तत्र । अवाह्य वारुणैर्मत्रैरनेन च विधानतः । इमे वरुणेत्यनया तत्त्वायामीत्यृचा तथा ॥ त्वं नो अग्ने इत्यनया सत्वं न इति मंत्रतः । आग्नेयं कुंभमारभ्य पूजां कुर्याद्यथाक्रमम् ॥ आनोभद्राश्च सूक्तेन भद्राश्व सूक्तकम् । जप्त्वा पुरुषसूक्तं च कद्रुद्रं तु क्रमाज्जपेत् ॥ ईश्वरस्याभिषेकं च ग्रहपूजां च कारयेत् । समिदाज्यचरूंश्चैव तिलमाषांश्च सर्षपान् ॥ अश्वत्थष्ठक्षपालाशसमिद्भिः खादिरैः शुभैः । अष्टोत्तरसहस्त्रं वा अष्टोत्तरशतं तु वा ॥ अष्टाविंशतिभिर्वापि होमं कुर्यात्ष्टथक् ष्टथक् । त्रैयंबकेन मंत्रेण तिलान् व्याहृतिभिः क्रमात् ॥ ग्रहा एवं च होतव्याश्चास्मदुक्तविधानतः । अन्यत्सर्वमाज्यावलोकनादि पूर्ववत् । इति कृष्णचतुर्दशीजननशांतिः ॥ एकस्मिन्नेव नक्षत्रे भ्रात्रोर्वा पितृपुत्रयोः । प्रसूतिश्च तयोर्मृत्युर्भवेदेकस्य निश्चयात् ॥ तत्र शांतिं प्रवक्ष्यामि सर्वाचार्यमतेन तु । अग्नेरी शानभागे तु नक्षत्रप्रतिमां ततः ॥ तन्नक्षत्रोक्तमंत्रेण चार्चयेत्कलशोपरि । रक्तवस्त्रेण संछाद्य वस्त्रयुग्मेन वेष्टयेत् ॥ स्वस्वशाखोक्तमार्गेण कुर्यादभिमुखं ततः । अनेनैव तु मंत्रेण हुनेदष्टोत्तरं शतम् ॥ प्रत्येकं समिदन्नाद्यैः प्रायश्चित्तांतमेव च । अभिषेकं ततः कुर्यादाचार्यः पितृषुत्रयोः ॥ वस्त्रालंकारगोदानैराचार्यं पूजयेत्ततः । ऋत्विग्भ्यो दक्षिणां दद्यान्मापत्रयसुवर्णकम् || देवताप्रतिमादानं धान्यवस्त्रादिभिः सह । यानशय्यासनादींश्च दद्यात्तद्दोषशांतये ॥ भोजयेद्ब्राह्मणान् सर्वान् वित्तशाव्यविवर्जितः ॥ इत्येकनक्षत्रशांतिः ॥ अत्रैकस्मिन्नेव नक्षत्रे भ्रात्रोर्वा पितृपुत्रयोरित्यत्र भ्राता च भ्राता च भ्रातराविति भ्रातृपुत्रौ स्वसृदुहितृभ्यामिति एकशेषे सोदरयोर्भ्रातृभगिन्योरेव निषेधः स्यान्न तु पुत्रभ्रात्रोः । एवं पितृपुत्रयोरित्यत्रापि पिता च पुत्रश्चेति द्वंद्वे पितापुत्रयो रेकनक्षत्रजनननिषेधः स्यान्नतु मातृपुत्रयोः । न च माता च पिता च पितरौ । पिता मात्रेत्येकशेषे तथा पुत्रश्च दुहिता च पुत्रौ पितरौ च पुत्रौ चेति पितृपुत्राणामिति बहुवचनं स्यात् । तथापि वचनांतरानुरोधात् इष्टविषयोऽपि संगृहीतो भविष्यति । यदाह वसिष्ठः । पित्रोस्तु जन्मनक्षत्रे जातस्तु पितृमातृहा । जन्मर्क्षेशे च तने जातः सद्यो मृतिप्रदः || देवकीर्तिः । यद्येकस्मिन् धिष्ण्ये जायंते दुहितरोऽथवा पुत्राः । पित्रोरंतकराः स्युर्यद्यपरे प्रीतिरतुला स्यात् || अपरे अन्यनक्षत्रे । गर्गः । यस्यैव जन्मनक्षत्रे जायेाता सुतोऽपि वा । सजातीयः सजात्या वा सोऽस्य प्राणान्प्रसाधयेदिति अथ मूलस्योपलक्षणत्वेन सर्वशांतिशेषभूतो गोमुखप्रसवोऽभिधीयते । गर्गः । प्रणिपत्यरविं वक्ष्ये प्रायश्चित्तमनुस्मरन् । सर्वारिष्टविनाशाय यदुक्तं ज्योतिषार्णवे ॥ पित्ररिष्टे सुतारिष्टे
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मुहूर्तचिंतामणौ मात्ररिष्टे तथैव च । पौष्णाश्विन्योर्गुरौ सार्पमघाचित्रेद्रमूलभे ॥ एषु क्षेषु जातस्य कुर्याद्रोजननं तथा । जन्मः वा त्रिजन्मः शुभवारे शुभे दिने ॥ कृत्वाभ्यंगादिकं सर्वं गृहा. लंकारपूर्वकम् । गोमयेनोपलिप्याथ यथावित्तानुसारतः ॥ नवशूर्प तु तन्मध्ये रक्तवस्त्रं प्रसारयेत् । स्थापयित्वा शिशुं तत्र पुनः सूत्रेण वेष्टयेत् ॥ प्राङ्मुखस्तमवाक्पादं तिलदर्भगतं शिशुम् । गोमुखं दर्शयित्वा तु पुनर्जातं तु गोमुखात् ॥ विष्णुर्योनीति सूक्तेन गव्येन स्नापयेच्छिशुम् । गवामंगेषु मंत्रेण गवामंगेषु संस्टशेत् ॥ विष्णोः श्रेष्ठेन मंत्रेण गोप्रसूतं तु बालकम् । आचार्यस्तु समादाय पश्चान्मात्रे ददात्तदा ॥ माता जघन्यभागस्था शिशु. मानीय तन्मुखात् । ततः पित्रे तदा दद्यात्ततो मात्रे प्रदापयेत् ॥ वस्त्रे संस्थाप्य तु पिता पुत्रस्य मुखमीक्षयेत् । गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम् ॥ आपोहिष्ठादिभिर्मत्ररभिषिचेत्ततः शिशुम् । मूर्ध्नि चाघ्राय तं पुत्रं तन्मंत्रेण तदा पिता ॥ अंगादंगात्संभवसि हृदयादधिजायसे । आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम् ॥ मूर्धनि त्रिरवघ्राय तं शिशुं स्थापयेत्ततः । पुण्याहं वाचयेत्पश्चाब्राह्मणैवेदपारगैः ॥ दरिद्रायाथ विप्राय तां गां चाभ्यर्च्य दापयेत् । गोवस्त्रस्वर्णधान्यादि दद्यादर्कादितः क्रमात् ॥ यथाशक्ति धनं दद्याब्राह्मणेभ्यस्तथा पिता । ततो होमं प्रकुर्वीत स्वस्वशाखोक्तमार्गतः ॥ उल्लेखनादिकं कृत्वा चाज्यभागांतमाचरेत् । होमस्येशानदिग्भागे धान्योपरि शुभं घटम् ॥ सपंचगव्यं संस्थाप्य तिलांस्तत्र विनिक्षिपेत् । क्षीरद्रुमकषायांश्च पंचरत्नानि निक्षिपेत् ॥ वस्त्रयुग्मेन संछाद्य क्षीरादिभिरथार्चयेत् । विष्णुं वरुणमभ्यर्च्य प्रतिमां च विधानतः ॥ आपोहिष्ठेति तिसभिरप्सुमे सोम इत्यथ । तद्विष्णोः परमं पदमक्षीभ्यामिति सूक्ततः ॥ ऋम्भिराभिः प्रत्यूचं च अष्टाविंशतिसंख्यया । अशक्तौ चाष्टसंख्यं वा दधिमध्वाज्यसंयुतम् ॥ आदित्यादिग्रहाणां च होमं कुर्यात्समंत्रकम् । इति गोमुखप्रसवशांतिः ॥ अथ प्रसंगात्रीतरशांतिः ॥ सुतत्रये सुता चेत्स्यात्तत्रये वा सुतो यदि । मातापित्रोः कुलस्यापि तदारिष्टं महद्भवेत् ॥ ज्येष्ठनाशो धने हानिर्दुःखं वा सुमहद्भवेत् । तत्र शांति प्रकुर्वीत वित्तशाव्यविवर्जितः ॥ जातस्यैकादशे वापि द्वादशाहे शुभे दिने । आचार्यमृत्विजो वृत्वा ग्रहयज्ञपुरःसरम् ॥ सह वा ग्रहयज्ञः स्याद्यथा वित्तानुसारतः । ब्रह्मविष्णुमहेशेंद्रप्रतिमाः स्वर्णतः कृताः ॥ पूजयेद्धान्य-. राशिस्थकलशोपरि शक्तितः । पंचमे कलशे रुद्रं प्रजपेद्रुद्रसंख्यया ॥ रुद्रसूक्तानि चत्वारि शांतिसूक्तानि सर्वशः । द्विज एको जपेद्धोमकाले शुचिः समाहितः ॥ आचार्यों जुहुयादत्र समिदाज्यतिलांश्चरुम् । अष्टोत्तसहस्रं वा शतं वा विंशतिं तु वा ॥ देवताभ्यश्चतुर्वक्रादिभ्यो ग्रहपुरःसरम् । ब्रह्मादिमंत्ररिंद्रस्य यत इंद्रभयामहे ॥ ततः स्विष्टकतं हुत्वा बलि पूर्णाहुति ततः । अभिषेकं कुटुंबस्य कृत्वाचार्य प्रपूजयेत् ॥ हिरण्यं धेनुरेका च ऋत्विग्भ्यो दक्षिणा ततः । प्रतिमा गुरवे देया उपस्करसमन्विता ॥ कांस्याज्यवीक्षणं कृत्वा
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नक्षत्रप्रकरणम् । शांतिपाठं च कारयेत् । ब्राह्मणान्भोजयेच्छक्त्या दीनानाथांश्च तर्पयेत् ॥ एवं शांतिवि. धानेन सर्वारिष्टं प्रलीयते ॥ इति त्रीतरशांतिः ॥ अथ चंद्रसूर्यग्रहणसमयजननशांतिः ॥ ग्रहणे चंद्रसूर्यस्य प्रसूतिर्यदि जायते । व्याधिपीडा तदा स्त्रीणामादौ तु ऋतुदर्शनात् ॥ शांतीस्तेषां प्रवक्ष्यामि नराणां हितकाम्यया । यस्मिनृक्षे विशेषेण ग्रहणं संप्रजायते ॥ तहक्षाधिपते रूपं सुवर्णन प्रकल्पयेत् । यथाशत्त्यनुसारेण वित्तशाव्यं न कारयेत् ॥ सूर्यग्रहे सूर्यरूपं सुवर्णेन स्वशक्तितः । चांद्रं चंद्रग्रहे धीमान् रजतेन विशेषतः ॥ राहुरूपं प्रकुवीत नागेनैव विचक्षणः । नागेन सीसकेन । शुचौ देशे प्रयत्नेन गोमयेन प्रलेपयेत् । तस्योपरि न्यसद्धीमानन्नं वस्त्रं सुशोभनम् ॥ त्रयाणां चैव रूपाणां स्थापनं तत्र कारयेत् । रक्ताक्षतं रक्तगंधं रक्तपुष्पांबराणि च ॥ सूर्यग्रहे प्रदातव्यं सूर्यप्रीतिकरं च यत् । श्वेतवस्त्रं श्वेतमाल्यं श्वेतगंधाक्षतादिकम् ॥ चंद्रग्रहे प्रदातव्यं चंद्रप्रीतिकरं च यत् । राहवे चैव दातव्यं कृष्णपुष्पांबरादि च ॥ दद्यान्नक्षत्रनाथाय श्वेतगंधानुलेपनम् । सूर्य संपूजयेद्धीमानाकृष्णेनेति मंत्रतः ॥ चंद्रग्रहे तथा सम्यगाप्यायस्वेति मंत्रतः । स्वर्भानोरिति मंत्रेण राहुं यत्नेन पूजयेत् ॥ एवं संपूजयेद्धीमान्समिद्भिश्चार्कसंभवैः । चंद्रग्रहे च पालाशैः समिद्भिर्जुहुयानरः ।। दूर्वाभिर्जुहुयाद्धीमान् राहोः संप्रीणनाय च । समिद्भिर्बझवृक्षोत्थैर्भेशाय जुहुयाद्वधः ॥ भेशाय नक्षत्राधिपतये । आज्येन चरुणा चैव तिलैश्च जहयात्ततः । पंचगव्यैः पंचरत्नैः पंचत्वपंचपल्लवैः ॥ जलेरोषधिकल्कैश्च सहितैः कलशोदकैः । ओषधिकल्कैः सर्वौषधिकल्कैः । अभिषेकं प्रकुर्वीत यजमाने प्रयत्नतः । मंत्रैर्वारुणदेवत्यैरापोहिष्ठादिभिः सह ॥ इममे गंगे परतस्तत्वायामीति मंत्रकैः । अभिषेके निटत्ते तु यजमानः समाहितः ॥ आचार्य पूजयेत्पश्चात्सुशांतो विजितेंद्रियः । ततो दद्यात्प्रयत्नेन भक्त्या प्रतिकृतित्रयम् ॥ गां चैव दक्षिणां दद्याद्यजमानः समाहितः । अनेन विधिना शांतिं कृत्वा सम्यग्विशेषतः ॥ अकालमृत्युं शोकं च व्याधिपीडां च नाप्नुयात् । सौख्यं सौमनसं नित्यं सौभाग्यं लभते नरः ॥ इत्थं ग्रहणजातानां सर्वारिष्टविनाशनम् । कथितं भार्गवेनेदं शौनकाय महात्मने ॥ इति शौनकोक्ता ग्रहणजननशांतिः ॥ अथ ज्वराद्युत्पत्तिकालीननक्षत्रशांतिः ॥ तत्र साधारणो विधिः । यस्मिन्नक्षत्रे ज्वरादिपीडा भवति तन्नक्षत्राधिदेवताप्रतिमां सुवर्णेन कारयित्वा अमुकनक्षत्रसंभूतव्याधिशांत्यर्थ नक्षत्रशांतिं करिष्य इति संकल्प्य शुचिप्रदेशे गोमयेनोपलिप्ते तंदुलैश्चतुरस्त्रं मंडलं निर्माय तन्मध्ये तत्तद्देवतावर्णवस्त्रद्वयवेष्टितग्रंथिं चंदनादिचर्चित कलशं धान्यस्योपरि विन्यस्य तत्र सर्वोषधीः पंचरत्नानि पंचसव्यानि सप्त मृत्तिकाः पंच पल्लवान्स्वस्वमंत्रेण निक्षिप्य सर्वे समुद्रा इति तत्र तीर्थान्यावाह्य तत्त्वायामीति वरुणमावाह्य संपूज्य स्वस्वगृह्योक्तविधिनाग्निं प्रतिष्ठाप्य आज्यभागांते तत्तन्नक्षत्राधिदेवतामंत्रेण तन्नक्षत्रपूर्वोत्तरनक्षत्रदेवतामंत्रेण तत्तव्येण च होमं
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मुहूर्तचिंतामणी
कृत्वा तेन वरुणकलशेन यजमानाभिषेके विहिते ताः प्रतिमा रोगीब्राह्मणाय दद्यात् । असौ साधारणो विधिः । उक्तं च । यस्मिन्नृक्षे भवेत्पीडा तन्नक्षत्रस्य देवताम् । सुवर्णनिर्भितां कृत्वा पूजयेत्प्रयतः शुचिः ॥ गोमयेनानुलिप्ते वै मंडलं शुभलक्षणम् । कीर्तितं चतुरस्त्रं च तंदुलैश्च कृताकृतैः ॥ कृत्वा तु स्थंडिलं तत्र यत्नतः कृष्णया मृदा । मृत्पार्श्वे च सुधीः कुर्यात्तंदुलानां महाचयम् ॥ तत्र प्रमाणं खारी वा द्रोणा वा दश शक्तितः । अभावे पंच वा द्रोणा द्रोणा वा तदभावतः । ईशानकोणदेशे तु कलशं स्थापयेत्सुधीः ॥ निधाय द्रविणं तत्र कलशे शक्त्यपेक्षया । पीठं तु पूर्वतः स्थाप्यं नव्यवस्त्रेण संयुतम् ॥ स्वस्तिकं तंदुलानां च शुभानां तत्र संलिखेत् । तन्मध्ये देवतास्तिस्रो नक्षत्रत्रितयस्य वै ॥ यस्मिन्नृक्षे भवेद्रोगस्तस्य पूर्वापरे सुधीः । उडूनि पूजयेद्यत्नादधिप्रत्यधिदैवते ॥ देवता यस्य ऋक्षस्य मंत्रस्तल्लिंग एव च । इत्थं च तस्य यत्प्रोक्तं प्रभवं प्रकृतं तथा ॥ तत्सर्वं विदुषानीय होमं तत्र प्रकल्पयेत् । स्वगृह्येोक्तविधानेन कुर्यादग्निमुखं सुधीः ॥ कलशं जलपूर्णं च वस्त्रयुग्मेन वेष्टितम् । निधाय चौषधीस्तत्र पंचपल्लवसंयुताः ॥ सप्तस्थानमृदः कुंभे आलवालं प्रकल्पयेत् । इमंमे वरुण इत्येवं जलं मंत्रेण वा पुनः ॥ सर्वे समुद्राः सरित इति मंत्रं च संस्मरेत् । यच्चिद्धिते विशेोयथेत्यादिसूक्तं जपेत्पुनः । आवाहयेद्धटे देवं वरुणं पयसां पतिम् । एवं नक्षत्रशांत्यर्थं विदध्यात्पूर्वपीठिकाम् || सामान्योऽयं विधिः प्रोक्तो नक्षत्राणां प्रपूजने । सर्वैषधीनां दुष्प्राप्तौ भवेदेका शतावरी ॥ सर्वेषामपि गंधानामभावे चंदनं मतम् । शतपत्रं सुमनसां धूपाभावे च गुग्गुलुः || नैवेद्यानामभावे तु पायसं सघृतं स्मृतम् । मंत्राणामप्यभावे तु गायत्रीमंत्र उत्तमः ॥ होमद्रव्यस्य दुष्प्राप्तौ तिलाः प्रोक्ता मनीषिभिः । अष्टोतरसहस्त्रं च तथा शतमुदाहृतमिति । अथ नक्षत्र देवताध्यानानि । देवते अश्विनौ तत्र द्विभुजौ शुक्लवर्णौ । सुधाकलशसंयुक्तौ कमंडलुधरौ शुभौ ॥ १ ॥ यमस्तु देवता तत्र कृष्णवर्णो द्विबाहुकः । लुलायवाहनः श्रीमान्पाशदंडधरः प्रभुः || २ || अग्निस्तु देवता तत्र रक्तवर्णोऽजवाहनः । चतुर्भुजो घृतामत्रस्नुवस्तुग्वरदाभयः ॥ २ ॥ रक्तवर्णचतुर्बाहुर्हसारूढश्चतुर्मुखः । पद्माक्षसूत्रवरदाभयहस्तो निरामयः ॥ ४ ॥ सोमो हि देवता तस्य श्वेतवर्णः शुभाकृतिः । दशाश्वरथमारूढः श्वेताश्वोऽपि निगद्यते ॥ ९ ॥ रुद्रो हि देवता यस्य वृषारूढश्चतुर्भुजः । त्रिशूलखदावरदाभयहस्तश्च कीर्तितः ॥ ६ ॥ चतुर्भुजा दितिः पीता साक्षसूत्रकमंडलुः । वरदाभयहस्ता सा कार्या स्वर्णमयी शुभा ७ ॥ चतुर्भुजः पीतवर्णो देवतास्य बृहस्पतिः । दंडाक्षसूत्रपाणिस्तु साभयः सकमंडलुः || ८ || सर्पस्तु देवता तत्र महामंडलरूपधृक् । सुविस्तृतशिरचंडो मर्कपिंगललोचनः ॥ ९ ॥ पितरो देवतास्तत्र कृष्णवर्णाश्चतुर्भुजाः । भद्राक्षसूत्राभयदाः कमंडलुधराः शुभाः ॥ १० ॥ पूर्वाफाल्गुनिकायां च भगो देवः प्रकीर्तितः । रक्तवर्णोऽबुजासीनो द्विभुजो भवपद्मकः ॥ ११ ॥ अर्यमा
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नक्षत्रप्रकरणम् ।
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देवता पद्ममध्यस्थः पद्मवर्णकः । पद्माभयकरः श्रीमान्त्स्वर्णमूर्तिर्महाद्युतिः ॥ १२ ॥ सविता देवता तस्य सप्ताश्वरथवाहनः । द्विभुजो रक्तवर्णः स्यात्पद्मासनसमाश्रयः ॥ १३ ॥ त्वष्टा पद्मस्थितश्चित्रवर्णः स्यात्सचतुर्भुजः । पद्माक्षसूत्रवलयः पद्माभयकरः प्रभुः ॥ १४ ॥ वायुश्च देवता तत्र मृगारूढश्च मोचकः । अजाचर्मधरः श्रीमान्द्विभुजः परिकीर्तितः ॥ १५ ॥ इंद्राग्नी देवता तत्र गजाजावाहनावुभौ । चतुर्बाहू रक्तवर्णौ निजशस्त्रधरौ तथा ॥ १६॥ चापांकुशाभयैर्युक्तौ तथा समविराजितौ । पद्मासनो रक्तवर्णो मित्रस्तस्यानुदेवता । पद्माभयकरः श्रीमान्द्विभुजः परिकीर्तितः ॥ १७ ॥ शक्र ऐरावतारूढो दिव्यसिंहासनो विभुः । श्वेतवर्णो वज्ज्रधरोऽभयपाणिर्महाभुजः ॥ १८ ॥ निर्ऋतिर्देवता तत्र प्रेतारूढश्च मोचकः । खड्गखेटकधारी च द्विभुजः परिकीर्तितः ॥ १९ ॥ जलं तु देवता तस्य शुक्लवर्णा शुभाकृतिः । वरुणोऽस्य जलस्यापि स्वामी पूज्यतमो मतः ॥ २० ॥ मकरे वाहने विष्टो भवेत्पद्मकरो ध्रुवम् । विश्वे देवा देवताश्च श्वेतवर्णाश्चतुर्भुजाः । वरदाभयहस्ताश्च साक्षसूत्रांबुभाजनाः ॥ २१ ॥ विष्णुस्तु कृष्णवर्णः स्यात्पन्नगाशनवाहनः । शंखचक्रगदापाणिः पीतवासाश्चतुर्भुजः ॥ २२ ॥ वसवो देवतास्तत्र श्वेतवर्णाश्चतुर्भुजाः । वरदाभयहस्ताच साक्षमूत्रांबुजासनाः ॥ २३ ॥ वरुणो देवता तत्र मकरोपरि संस्थितः । यष्टिपाशधरः श्रीमान् गदापद्मधरस्तथा ॥ २४ ॥ अजैकचरणो रुद्रो देवताऽस्य प्रकीर्तिता । खङ्गचर्मधरो वाग्मी भुजद्वयसमावृतः ॥ २५ ॥ अहिर्बुध्याभिधो रुद्रो देवताऽस्य प्रकीर्तिता । श्वेतश्चतुष्करः पद्मवरदाभयपाशभृत् ॥ २६ ॥ पूषा तु देवता तत्र पद्मवर्णोऽबुजासनः । द्विभुजः पद्मपाणिस्यात्पयोगर्भप्रियो विभुः ॥ २७ ॥ इति नक्षत्रदेवताध्यानम् । अथोपयुक्तत्वान्नारदीयोक्ता काकमैथुनदर्शनशांतिः ॥ दिवा वा यदि वा रात्रौ यः पश्येत्काकमैथुनम् । स नरो मृत्युमाप्नोति ह्यथवा स्थाननाशनम् ॥ काकघातव्रतं यद्वा विदधीताऽथ वत्सरम् । पितॄन्देवान् द्विजान् भक्त्या प्रत्यहं वाऽभिवादयेत् ॥ जितेंद्रियो जितक्रोधः सत्यधर्मपरायणः । तद्दोषशमनार्थाय शांतिकर्म समारभेत् ॥ गृहस्येशानदिग्भागे होमस्थानं प्रकल्पयेत् । गृह्येोक्तविधिना तत्र प्रतिष्ठाप्य हुताशनम् ॥ प्रतिमंत्रं त्र्यंबकेन अथ मृत्युंजयेन च । व्याहृत्याभिहितिलैर्जयाद्यंतं प्रकल्पयेत् ॥ पूर्णाहुतिं च जुहुयात्कर्ता शुचिरलंकृतः । स्वर्णशृंगां रौप्यखुरां कृष्णां धेनुं पयस्विनीम् ॥ वस्त्रालंकारसंयुक्तां निष्कद्वादशसंयुताम् । तदर्धेन तदर्धेन दद्यादक्षिणया युताम् ॥ यथावित्तानुसारेण न्यूनाधिकत्वकल्पना । आचार्याय श्रोत्रियाय तां गां दद्यात्कुटुंबिने ॥ यस्मात्त्वं पृथिवी सर्वा धेनो वै कृष्णसन्निभे । सर्वमृत्युहरा नित्यमतः शांतिं प्रयच्छ मे ॥ ब्राह्मणेभ्यो विशिष्टेभ्यो यथाशक्त्या च दक्षिणाम् । ब्राह्मणान् भोजयेत्पश्चाच्छतिवाचनपूर्वकम् ॥ एवं यः कुरुते सम्यक्तस्माद्दोषात्प्रमुच्यते ॥ इति काकमैथुनदर्शनशांतिः ॥ तत्रैव कपोतादिशांतिः । आरोहयेगृहं यस्य कपोतो वा प्रवेशयेत् ।
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मुहूर्तचिंतामणौ स्थानहानिर्भवेत्तस्य यद्वानर्थपरंपरा ॥ दोषाय धनिनां गेहे दरिद्राणां शिवाय च । तस्य शांतिश्च कर्तव्या जपहोमविधानतः ॥ ब्राह्मणान् वरयेत्तत्र स्वस्तिवाचनपूर्वकम् । षोडश द्वादशाष्टौ वा श्रौतस्मार्तक्रियापरान् ॥ देवाः कपोत इत्यादि ऋचाभिः पंचभिर्जपम् । लक्ष कृत्वा प्रयत्नेन स्वगृह्योक्तविधानतः ॥ ईशान्यां स्थापयेद्वहिं मुखांतेऽष्टोत्तरं शतम् । प्रत्येक समिदाज्यान्नैः प्रतिप्रणवपूर्वकम् । यत इंद्रभयामहे स्वस्तिदेति त्रियंबकैः ॥ त्रिभित्रैश्च जुहुयातिलान्व्याहृतिभिस्ततः । जयाहुतीस्ततो हुत्वा कुर्यात्पूर्णाहुतिं स्वयम् ॥ विप्रेभ्यो दक्षिणां दद्याद्दयौः शांतिं च ततो जपेत् । ब्राह्मणान् भोजयेत्पश्चात्स्वयं भुंजीत बंधुभिः ॥ एवं यः कुरुते सम्यक्तस्माद्दोषात्प्रमुच्यते । पिंगलायाः स्वरेऽप्येवं मधुवल्मीकयोरपि । संपूर्णमंदिरे हानिः शून्यसद्मनि मंगलम् ॥ प्राकारे च पुरद्वारे देवागारे च वीथिषु । ग्रीमस्य तत्फलं चैव गुरुकल्पनया ततः ॥ शांतिकर्माऽखिलं कार्य पूर्वोक्तेन क्रमेण तु । इति कपोतपिंगलामधुवल्मीकादिशांतिः ॥ अथ पल्लयाः पतने सरठस्यवाऽऽरोहणे फलं शांतिश्च । पादयोर्जघने पाण्योगुदे गुह्ये च जंघयोः । पल्लयाः पाते तथाऽऽरोहे सरठस्य फलं न सत् ॥ अन्यत्र शुभदं पश्चात्सचैल स्नानमाचरेत् । दत्वा शिवालये दीपं मुखमाज्ये विलोकयेत् ॥ पल्लीसरठयो रूपं सुवर्णेन विनिर्मितम् । तदर्धाप्रमाणेन वित्तशाव्यविवजितः ॥ वस्त्रयुग्मेन संवेष्टय श्रोत्रियाय निवेदयेत् । इति पल्लीसरठयोः शांतिः ॥ ५७ ॥ अथ नक्षत्रप्रसंगादेवाऽश्विन्यादीनां भानां तारका उपजातिकयाऽऽहत्रि ३ व्यं ३ ग ६ पंचा ५ नि ३ कु १ वेद ४ वहयः ३ शरे ५ षु ५ नेत्रा २ श्चि २ शरें ५ दु १ भू १ कृताः ४॥ वेदा ४ ग्नि ३ रुद्रा ११ वि २ यमा २ ग्नि ३ वह्नयो ३.
ऽब्धयः ४ शतं १०० दि २ दि २ रदा ३२ भतारकाः ॥ ५८ ॥ त्रिव्यंगेति ॥ तथाच श्रीपतिः । वह्नित्रिऋत्विषुगुणेंदुकताग्निभूतबाणाश्विनेत्रशरभूकुयुगाब्धिरामाः । रुद्राब्धिरामगुणवेदशतद्वियुग्मदंता बुधैर्निगदिताः क्रमशो भतारा इति । नन्वत्र संमतिवाक्ये सप्तविंशति भानि प्रतीयंते मूलेप्वष्टाविंशतिरिति विरोधः । उच्यते । उत्तरार्धे रुद्राब्धीत्यत्राब्धयश्चतस्वस्ताराः पूर्वाषाढोत्तराषाढयोर्जेयाः द्वे पूर्वाषाढाया हे उत्तराषाढाया इति नारदेनापि तथैवाऽभिधानात् । तत्राऽश्विन्यास्तितस्ताराः एवं भरण्यादीनां साभिजितं तारासंख्या ज्ञेया। तारामानोक्तिप्रयोजनमाह वराहः । नक्षत्रजमुद्दाहे फलमब्दैस्तारकामितैः सदसत् । दिवसैवरस्य नाशो व्याधेरन्यस्य वा वाच्य इति ॥१८॥
अथाऽश्विन्यादीनामाकृतिमुपजातिकरथोडताभ्यामाहअश्व्यादिरूपं तुरगास्ययोनिक्षुरोऽन एणास्यमणी गृहं च ॥ पृषत्कचके भवनं च मंचः शय्याकरो मौक्तिकविद्रुमं च ॥ १९ ॥
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नक्षत्रप्रकरणम् । तोरणं बलिनिरं च कुंडलं सिंहपुच्छगजदंतमंचकाः॥ व्यनि च त्रिचरणाभमर्दलौ वृत्तमंचयमलाभमर्दलाः ॥६०॥
अश्व्यादिरूपमिति। तोरणं बलिनिभमिति च ॥ अश्विन्यादिनक्षत्राणां रूपमाळतिरुच्यते । तत्राश्विन्यास्तुरगास्यं अश्वमुखसदृशं रूपम् । भरण्या योनिर्भगसदृशम् । कृत्तिकाया नापितारसदृशम् । रोहिण्या अनः शकटसदृशम् । मृगस्य एणास्य हरिणमुखसदृशम् । आर्द्राया मणिसदृशम् । पुनर्वसोर्गृहसदृशम् । पुष्यस्य एषत्को बाणस्तत्सदृशम् । आश्लेषायाश्चक्राकारम् । मघाया भवनं गृहसदृशम् । पूर्वाफाल्गुन्याः मंचः खटाकारम् । उत्तराफाल्गुन्याः शय्याकारम् । हस्तस्य हस्ताकारम् । चित्राया मौक्तिकाकारम् । खात्या विद्रुमं प्रवालसदृशम् ॥ ५९॥ विशाखायास्तोरणाकारम् । अनुराधाया बलिनिभं भक्तपुंजाकारम् । ज्येष्ठायाः कुंडलाकृति । मूलस्य सिंहपुच्छाकारम् । पूर्वाषाढाया गजदंतसदृशम् । उत्तराषाढाया मंचकसदृशम् । अभिजितस्त्रिकोणाकारम् । श्रवणस्य त्रिचरणसदृशम् । धनिष्ठाया मर्दलसदृशम् । शतताराया वृत्तं वर्तुलम् । पूर्वाभाद्रपदाया मंचकसदृशम् । उत्तराभाद्रपदाया यमलाभम् । रेवत्या मर्दलः मृदंगाकारं स्वरूपमित्यर्थः ६०
अथ जलाशयारामदेवप्रतिष्ठामुहूर्त सामान्यतो लग्नशुद्धिं देवताविशेषेण लग्नशुद्धिं नक्षत्रविशेषं चोपजातिकात्रयेणाऽऽह
जलाशयारामसुरप्रतिष्ठा सौम्यायने जीवशशांकशुक्रे ॥ दृश्ये मृदुक्षिप्रचरध्रुवे स्यात्पक्षे सिते स्वःतिथिक्षणे वा ॥ ६१ ॥ रिक्तारवर्जे दिवसेतिशस्ता शशांकपापैस्त्रिभवांगसंस्थैः॥ व्यंत्याष्टगैः सत्खचरैर्मृगेंद्रे सूर्यो घटे को युवतौ च विष्णुः ॥१२॥ शिवो न्युग्मे द्वितनौ च देव्यः क्षुद्राश्चरे सर्व इमे स्थिरः ॥ पुष्ये ग्रहा विघ्नपयक्षसर्पभूतादयोऽत्ये श्रवणे जिनश्च ॥ ६३ ॥ इति मुहूर्तचिंतामणौ द्वितीयं नक्षत्रप्रकरणं समाप्तम् ॥२॥
जलाशयेति । रिक्तारेति । शिवो नृयुग्मेति च ॥ जलाशयाः वापीकूपतडागादयः तेषां प्रतिष्ठा उत्सर्गः आराम उपवनं तस्याऽप्युत्सर्गः सुरा देवा विष्ण्वादयः तेषां प्रतिष्ठापनम् । सौम्यायने उत्तरायणे तथा जीवशशांकशुक्रे दृश्ये उदिते सति तथा मृदुध्रुवक्षिप्रचरनक्षत्रे तथा सिते शुक्ले पक्षे तथा स्वःतिथिक्षणे वा यस्य देवस्य प्रतिष्ठा कतुमिष्टा तस्य तत्स्वामिके नक्षत्रे तिथौ वा क्षणे मुहूर्ते वा ॥ ६१ ॥ तथा रिक्तारवर्जे दिवसे रिक्तातिथिभौमवारव्यतिरिक्ततिथिवारेषु एवंविधे दिने प्रतिष्ठा जलाशयारामदेवानां क्रमेण कर्माहत्वोपभोग्यत्वपूजायोग्यत्वरूपा अतिशस्ता स्यात् । तथा च गार्ग्यः । देवतारा
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मुहूर्तचिंतामणौ
मवाप्यादिप्रतिष्ठामुत्तरायणे । माघादिपंच मासेषु कृष्णेऽप्यापंचमीदिनम् ॥ दक्षिणे त्वय कुर्वन्न तत्फलमवाप्नुयात् । यदा तु दक्षिणायन एव जलस्थितिसंभवस्तदा न कालनियमः । न कालनियमस्तत्र कारणमिति भविष्यपुराणोक्तेः । अथ क्रूरप्रकृतीनां दक्षिणायनेऽपि स्थापनं कार्यमित्युक्तं वैखानससंहितायाम् । मातृभैरववाराहनरसिंहत्रिविक्रमाः । महिषासुरहंत्री च स्थाप्या वै दक्षिणायने || नारदः । विचैत्रेष्वेव मासेषु माघादिषु च पंचसु । यद्दिनं यस्य देवस्य तद्दिने तस्य संस्थितिम् ॥ अथ लग्नशुद्धिः । शशांकपापैः चंद्रसूर्यभौ - मशनिराहुकेतुभिः त्रिभवांगसंस्थैः तृतीयषष्ठैकादशस्थानस्थितैरुपलक्षिते लग्ने तथा सत्खचरैः शुक्रबुधगुरुभिः व्यंत्याष्टगैः द्वादशाष्टमव्यतिरिक्ताखिलस्थानस्थैः सद्भिः देवादिप्रतिष्ठा अतिशस्ता । अथ सूर्यो मृगेंद्रे सिंहल स्थाप्यः । तथा को ब्रह्मा घटे कुंभे विष्णुर्युवती कन्यायाम् || ६२ ॥ शिवो महादेवो नृयुग्मे मिथुने । च पुनर्देव्यो दुर्गादयो द्वितनौ द्विस्वभावराशौ मिथुन कन्याधनुर्मीनलनेषु क्षुद्रा देव्यश्वतुःषष्टियोगिनीप्रभृतयश्चरलने मेषकर्कतुला मकरेषु सर्वे इमे उक्ता अनुक्ताश्च स्थिर वृषसिंहवृश्चिककुंभेषु । अथ पुष्ये ग्रहा इति । ग्रहाचंद्रादयोऽष्टौ पुष्यनक्षत्रे स्थाप्याः । उपलक्षणमेतत् । सूर्यस्य हस्तनक्षत्रे स्थापनम् । इंद्रब्रह्मणोः पुष्यश्रवणाभिजित्सु । कुबेरस्कंदयोरनूराधायाम् । दुर्गादीनां मूले सप्तर्षीणां स्वाधिष्ठितनक्षत्रे लक्ष्मीव्यास वाल्मीक्यगस्त्यानामपि सप्तर्ण्यधिष्ठितनक्षत्रे स्थापनम् । तदुक्तं रत्नमालायाम् । पुष्यश्रुत्यभिजित्सु चेश्वरकयोर्वित्ताधिपस्कंदयोर्मैत्रे तिग्मरुचेः करे निर्ऋति दुर्गादिकानां शुभम् । सप्तर्षयो यत्र वसंति धिष्ण्ये कार्या प्रतिष्ठा खलु तत्र तेषाम् | श्रीव्यासवाल्मीकिघटोद्भवानां तथा स्मृता वाक्पति ग्रहणामिति अथ विघ्नपो गणेशः यक्षो देवयोनिः सर्पा वासुक्यादयः भूतो देवयोनिः । विद्याधराप्सरोयक्षरक्षोगंधर्वकि न्नराः । पिशाचो गुह्यकः सिद्धो भूतोऽभी देवयोनय इत्यमरः ॥ आदिशब्देन राक्षसासुरप्रमथसरस्वतीप्रभृतयोंऽत्ये रेवत्यां स्थाप्याः । तथा श्रवणे जिनो बुद्ध स्थाप्यः । उपलक्षणं चैतत् । इंद्रकुबेरवर्जितानां लोकपालानां धनिष्ठायां स्थापनम् । इतोऽवशिष्टानां देवानां त्र्युत्तरारोहिणीषु स्थापनं स्यादित्यर्थः । तथा च श्रीपतिः । गणपरिवृढरक्षोयक्षभूतासुराणां प्रमथफणिसरस्वत्यादिकानां च पौष्णे । श्रवसि सुगतनाम्नो वासवे लोकपानां निगदितमखिलानां स्थापनं हि स्थिरेषु || ६३ ॥ इति श्रीदैवज्ञानंतसुतदैवज्ञरामविरचितायां स्वकृतमुहूर्तचिंतामणिटीकायां प्रमिताक्षरायां नक्षत्रप्रकरणं समाप्तम् ॥ २ ॥
६ ६
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संक्रांतिप्रकरणम् ।
॥ अथ संक्रांतिप्रकरणम् ॥
अथ संक्रांतिप्रकरणं व्याख्यायते । तत्र प्राग्राशितोऽपरराशौ संक्रमणं नाम गमनं संक्रांतिस्तस्याः नक्षत्रविशेषवशेन वारवशेन च संज्ञां फलं च सार्धवसंततिलकयाहघोरार्क संक्रमणमुग्रवौ हि शूद्रान् ध्वांक्षी विशो लघुविधौ च चरक्षभौमे ॥ चौरान्महोदरयुता नृपतीन् ज्ञमैत्रे मंदाकिनी स्थिरगुरौ सुखयेच्च मंदा ॥ १॥ विप्रांश्च मिश्रभभृगौ तु पशूंच मिश्रा तीक्ष्णार्कजेंऽत्यजसुखा खलु राक्षसी च ॥ घोरार्केति । विप्रांश्चेति । अर्कसंक्रमणमर्कसंक्रांतिः उग्ररवौ उग्रनक्षत्रेषु रविवारे चेत्स्यात्तदा घोरेति संज्ञा । सा शूद्रान् सुखयेत् सुखमुत्पादयेत् । उग्ररवाविति उग्रैः सहितो रविः उग्ररविः तस्मिन्नुग्ररवाविति मध्यमपदलोपी तत्पुरुषः । ततः सप्तम्येकवच - नम् । अथवा समाहारद्वंद्वे अनित्यमागमशासनमिति नुमभावः । एवं लघुविधावित्यादिष्वपि समाधेयम् । अथ लघुनक्षत्रेषु विधौ सोमवारे सूर्यसंक्रांतिर्ध्वाक्षीनाम्नी विशो वैश्यान् सुखयेत् । चरक्षभौमे चरनक्षत्रे भौमवारे वा सूर्यसंक्रमणं चेन्महोदरयुता महोदरीसंज्ञका चौरान्सुखयेत् । ज्ञमैत्रे बुधवारे मैत्रसंज्ञनक्षत्रेषु वाऽर्कसंक्रांतिमैदाकिनीनाम्नी नृपतीन् राज्ञः सुखयेत् । स्थिरगुरौ स्थिरनक्षत्रेषु गुरुवारे चार्कसंक्रांतिर्मंदानाम्नी विप्रान् ब्राह्मणान् सुखयेत् ॥ १ ॥ मिश्रभभृगौ मिश्रनक्षत्रयोर्भूगुवारे वाऽर्कसंक्रांतिर्मिश्रानाम्नी पशून सुखयेत् । तीक्ष्णार्कजे तीक्ष्णसंज्ञक नक्षत्रेषु अर्कजे शनिवारेऽवार्कसंक्रांती राक्षसीनाम्नी अंत्यजसुखा अंत्यजान् चांडालान् सुखयतीत्यंत्यज सुखा स्यात् ॥
अथ दिनरात्रिविभागेन संक्रांत्यशुभफलमुत्तरायणदक्षिणायनसंज्ञां च सार्धवसंततिलक
याह
६७
त्र्यंशे दिनस्य नृपतीन् प्रथमे निर्हति
मध्ये द्विजानपि विशोऽपरके च शूद्रान् ॥ २ ॥ अस्तेऽनिशाप्रहरकेषु पिशाचकादीनक्तंचरानपि नटान्पशुपालकांश्च ॥ सूर्योदये सकललिंगिजनं च सौम्य - याम्यायनं मकरकर्कटयोर्निरुक्तम् ॥ २ ॥
त्र्यंशे इति । अस्त इति । अत्रार्कसंक्रमणमित्यनुवर्तते । दिनमाने त्रिभिर्भक्ते
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मुहूर्तचिंतामणी
त्र्यंशो भवति तत्र दिनस्य प्रथमे त्र्यंशेऽर्कसंक्रमणं नृपतीन् हंति । मध्ये द्वितीयत्र्यंशे द्विजान् ब्राह्मणान् हंति । अपरे तृतीये त्र्यशे वैश्यान् हंतीत्येवं सर्वत्र व्याख्येयम् । अस्ते सूर्यास्तमयेऽर्कसंक्रमणं शूद्रान् हंति ॥ २ ॥ अथ रात्रिसंक्रांतिफलम् । रात्रिप्रथमप्रहरे पिशाचकान् आदिशब्देन भूतान् । द्वितीयप्रहरे नक्तंचरान् राक्षसान् । तृतीयप्रहरे नटान् नर्तकान् । चतुर्थप्रहरे पशुपालकान् आभीरान् । सूर्योदयसमकालेऽर्कसंक्रमणं सकललिंगिजनं पाखंड्यादिकं हंतीत्यर्थः । पाखंडाः सर्वलिंगिन इत्यभिधानात् । क्रूरसौम्यवारपरत्वेन फलमाह । वसिष्ठः । रविरविजभौमवारे संक्रांतौ दिनकरस्य तन्मासे । पित्तकफानिलजामयनरपतिकलहस्त्वदृष्टिश्च ॥ बुधगुरुसितचंद्राहे सति संक्रांतावनामयं नृणाम् । क्षितिपतिनिकरक्षेमं सस्यविवृद्धिर्विधर्मिणां पीडा || जन्मनक्षत्रे संक्रांतिफलं दीपिकायाम् । यस्य जन्मर्क्षमासाद्ये रविसंक्रमणं भवेत् । तन्मासाभ्यंतरे तस्य रोगक्लेशधनक्षयाः ॥ तत्र शांतिकमपि तत्रैव । तगरसरोरुहपत्रै रजनीसिद्धार्थलो संयुक्तैः । स्नानं जन्मन्यृक्षे रविसंक्रांतौ नृणां शुभदम् । अन्यच्च वसिष्ठः । अजकन्याझपकर्किणि संक्रांतौ यदि भवेद्वर्षम् । अतुलं क्षेम सुभिक्षं नृपसज्जनगोकुलक्षेमम् ॥ घटचापसिंहमिथुने संक्रांतौ यदि भवेद्वर्षम् । आमयडामरभूभृद्युद्धमनर्घे त्वदृष्टिश्च ॥ वृषवृश्चिकतुलमकरे वृष्टिः स्यात्सां क्रमे समये । विस्फोटामयतस्करपीडा वृष्टिः कृशानुभयम् ॥ अथ सौम्ययाम्यायनमिति । मकरकर्कटयोः संक्रांतिश्चेत्तदा क्रमेण सौम्ययाम्यायनं निरुक्तम् । मकरे उत्तरायणं कर्के याम्यायनं स्यात् ॥ ३ ॥ अथावशिष्टसंक्रांतिषु षडशीत्यादिसंज्ञा अनुष्टुभाह
षडशीत्याननं चापट्युक्वन्याझषे भवेत् ॥
तुलाजी विषुवं विष्णुपदं सिंहालिगोघटे ॥ ४ ॥
षडशीत्याननमिति । धनुर्मिथुन कन्यामीनेषु अर्कसंक्रमणं षडशीतिमुखसंज्ञं स्यात् । तुलामेषयोः संक्रांतिर्विषुवसंज्ञा । वृषसिंहहृश्चिककुंभेष्वर्क संक्रांतिर्विष्णुपदसंज्ञिका ॥ ४ ॥
संक्रांतौ गौणमुख्यकालं उपजात्याह
संक्रांतिकालादुभयत्र नाडिकाः
पुण्या मताः षोडश षोडशोष्णगोः ॥ निशीथतोsaiगपरत्र संक्रमे पूर्वापराहांतिम पुण्यभागयोः ॥ ५ ॥
संक्रांति कालादिति ॥ गणितमार्गेण य उष्णगोः सूर्यस्य संक्रांतिकाल आगतः तत उभयत्र पूर्वतः परतश्च षोडश षोडश नाडिका घटिकाः पुण्यसंपादकत्वात् पुण्या
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संक्रांतिप्रकरणम् ।
मताः । ब्रह्मसिद्धांते । संक्रांतेः प्राक् परस्ताच्च सार्धाः षोडश नाडिकाः । त्रयस्त्रिंशत्संक्रमस्य पुण्याः सर्वस्य नाडिकाः ॥ अनेन संक्रांतेः पुण्यकालस्तु षोडशोभयतः कला इतिस्मृतिवाक्ये पूर्वतः परतश्च अष्टौ अष्टौ घटिका इत्येवं षोडशेति व्याख्यातं तदपाकृतं भवति । सूर्यसिद्धांतेऽपि । अर्कमानकलाः षष्ट्या गुणिता भुक्तिभाजिताः । तदर्धनाड्यः संक्रांतेरर्वाक् पुण्यं तथापरे इति । अथ निशीथत इति । निशीथतोऽर्धरात्रात् अर्वाक् पूर्वं परत्र पश्चाच्च संक्रांतिकाले सति पूर्वापराहांतिमपूर्वभागयोः पूर्वापरयोरोः क्रमेणांतिमपूर्वभागयोरुभयत्र षोडश षोडश घटिकाः पुण्या इति पूर्वेण संबंध: । अयमर्थः । यद्यर्धरात्रात् प्राक् संक्रांतिस्तदा पूर्वदिनस्य उत्तरार्धं पुण्यम् । यद्यर्धरात्रादुपरि संक्रांतिस्तदोत्तरदिनस्य पूर्वार्धमेव पुण्यमित्यर्थः ॥ ५ ॥
अथार्धरात्रसंक्रमणे मकरकर्कटयोश्च विशेषमुपजातिकयाह
पूर्णे निशीथे यदि संक्रमः स्याद्दिनद्वयं पुण्यमथोदयास्तात् ॥ पूर्व परस्ताद्यदि याम्यसौम्यायने दिने पूर्णवरे तु पुण्ये ॥ ६ ॥
६९
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पूर्णे इति ॥ पूर्णे निशीथे अर्धरात्रे यदि संक्रमः स्यात्तदा दिनद्वयं पूर्वदिनं परदिनं च पुण्यमुक्तम् । उक्तं च । यद्यर्धरात्र एव स्यात्संपूर्णे संक्रमो रवेः । तदा दिनद्वयं पुण्यं स्नानदानादिकर्मसु ॥ अथेति । अथानंतरमुदयास्तात्सूर्योदयात्सूर्यास्ताच्च पूर्वं परस्ताच्च यदि याम्यसौम्यायने कर्कमकरसंक्रांती भवतः तदा पूर्वपरे दिने पुण्ये स्याताम् । अयमर्थः सूर्योदयात्पूर्वं कर्कसंक्रमणं स्यात्तदा पूर्वदिन एव पुण्यकालो नोत्तरदिने । तथा यदि सूर्यास्तानंतरं मकरसंक्रांतिः स्यात्तदोत्तरदिन एव पुण्यकालो न पूर्वदिने । गार्ग्यः । यदास्तमनवेलायां मकरं याति भास्करः । प्रदोषे चार्धरात्रे वा स्नानं दानं परेऽहनि | अर्धरात्रे तदूर्ध्वं वा संक्रांतौ दक्षिणायने । पूर्वमेव दिनं ग्राह्यं यावन्नोदयते रविरिति । वा इवार्थे । प्रदोषलक्षणं स्कांदे । त्रिमुहूर्तः प्रदोषः स्याद्रवावस्तं गते सतीति ॥ ६ ॥
अथोदयास्तादिति वचनस्यापवादमिंद्रवज्जयाह
संध्या त्रिनाडीप्रमितार्कबिंबादर्धोदितास्तादध ऊर्ध्वमत्र ॥ चेद्याम्यसौम्ये अयने क्रमात्स्तः पुण्यौ तदानीं परपूर्वत्रौ ॥ ७ ॥ संध्यानीति ॥ अर्कमंडलादर्धोदितादर्धास्ताच्चाध ऊर्ध्वं क्रमात्रिभिर्नाडीभिर्मिता संध्या संध्याकालः स्यात् । अर्धोदितार्कबिंबात् पूर्वं त्रिनाडीमिता प्रातःसंध्या तथार्धास्ताद - बिबादुपरि त्रिनाडीमिता सायंसंध्येत्यर्थः । तत्प्रयोजनमाह । अत्रेति । अत्र प्रातः संध्यायां सायंसंध्यायां च क्रमाच्चेद्याम्यसौम्ये अयने दक्षिणोत्तरायणे स्तस्तदानीं परपूर्वी घस्त्र दिवस पुण्यौ । यदि प्रातः संध्यायां दक्षिणायनप्रवृत्तिस्तदा सूर्योदयानंतरं संपूर्ण महः
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मुहूर्तचिंतामणी
पुण्यम् । तथा यदि सायंसंध्यायां उत्तरायणप्रवृत्तिस्तदा सूर्यास्तात्पूर्वं संपूर्णमहः पुण्यं स्यादित्यर्थः । तदाह नारदः । सूर्यस्योदयसंध्यायां यदि याम्यायनं भवेत् । तदोदयादहः पुण्यं पूर्वाहः परतो यदि ॥ सूर्यास्तमनसंध्यायां यदि सौम्यायनं भवेत् । तदहः पुण्यकालः स्यात्परतश्चोत्तरेऽहनीति || उदयसंध्यास्तसंध्ययोर्लक्षणं तत्रैव । अर्धार्कास्तमनात्संध्या घटिकात्रयसंमिता । तथैवार्धोदयात्प्रातर्घटिकात्रयसंमितेति । एवं सत्यर्कबिंबस्यार्धास्तादर्धोदयाद्वा क्रमात् पश्चात्प्राक् त्रिघटीमितास्तसंध्योदयसंध्या चोच्यते । तत्रास्तसंध्यायां यदि मकरसंक्रमः स्यात्तदा तद्दिन एव पुण्यकालो नोत्तरदिने । यद्यस्तसंध्यामतिक्रम्य मकरसंक्रांतिस्तदोत्तरदिन एव पुण्यकालो न पूर्वदिने । एवं यद्युदयसंध्यायां कर्कसंक्रांतिस्तदा सूर्योदयानंतरमेव पुण्यकालो न प्राग्दिने । यद्युदयसंध्यातः प्राक् कर्कसंक्रमस्तदा प्राग्दिनएव पुण्यकालो नोत्तरदिने । इति निष्कृष्टोऽर्थः । अथ रात्रौ स्नानं न कुर्वीत दानं चैव विशेषत इति रात्रौ स्नानदानादिनिषेधेऽपि । नैमित्तिकं तु कुर्वीत स्नानं दानं च रात्रिष्विति सुमंतुवाक्यशेषात् । सुतजनने संक्रातावुपरागे सूर्यचंद्रयोर्नित्यम् । रात्रावपि कर्तव्यं स्नानं दानं विशेषतो नॄणामिति वसिष्ठवचनात् । राहुदर्शनसंक्रांतिविवाहात्ययवृद्धिषु । स्नानदा - नादिकं कार्यं निशि काम्यव्रतेषु चेति ॥ रात्रौ संक्रमणे रात्रौ स्नानं प्राप्तम् । तत्र कर्कमकरसंक्रांतौ स्नानदानादौ देशप्रसिद्ध शिष्टाचारेण व्यवस्थावगंतव्या । तत्र गौर्जरास्तु ग्रहणवदयन इति स्वीयसूत्रं स्नानं दानं ग्रहणवत्सौम्ययाम्यायनद्वय इति कश्यपसंहितोक्तं चानुसृत्य रात्रायवनसंभवे सति रात्रावेव स्नानादिकं कुर्वति । दाक्षिणात्यास्तु । कार्मुकं तु परित्यज्य झषं याति दिवाकर इत्यादि भविष्योत्तरादिवाक्यमंगीकृत्य दिवस एव स्नानादिकं कुर्वंति । तत्रापि नारदोक्तः संध्याकालसंक्रमे विशेषो ध्येय इत्यलम् ॥ ७ ॥
अथ पूर्वपराः षोडश घटिकाः पुण्या इति पूर्वं सामान्येनोक्तमिदानीं विष्णुपदादिविशेषमनुष्टुभाह
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याम्यायने विष्णुपदे चाद्या मध्यास्तुलाजयोः ॥ षडशीत्यानने सौम्ये परा नाड्योऽतिपुण्यदाः ॥ ८ ॥
याम्यायन इति ॥ कर्कसंक्रांती विष्णुपदे वृषसिंहवृश्चिककुंभसंक्रांतिषु संक्रांतिकालाद्याः प्रथमाः षोडश घटिका अतिपुण्यदाः स्नानदानादावनंतपुण्यदा ज्ञेयाः । अग्रि - मास्तु न तथा । तुलाजयोस्तुलामेषयोर्मध्या उभयतः षोडश घटिकाः संक्रांतिकालात्प्रागष्टौ परतश्चाष्टाविति दीपिकाकारेण व्याख्यातम् । यदुक्तं गुरुणा । वर्तमाने तुलाशेषे नाड्यस्तूभयतो दशेति तत् मध्यतृतीयांशाभिप्रायेणेति ज्ञेयम् । तथा षडशीत्यानने मिथुनकन्याधनुनसंक्रांतिषु सौम्येऽयने मकरसंक्रांतौ च संक्रांतिकालात्परा अग्रिमाः षोडश घटिका
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* संक्रांतिप्रकरणम् । अतिपुण्याः प्रथमास्तु न तथा । एवं निर्णीते पुण्यकाले स्नानाद्यवश्यं विधेयम् । तत्र स्नानाद्यकुवेतः प्रत्यवायमाह वसिष्ठः । विषुवत्ययने ग्रहणे संक्रांतौ पुण्यदिवसे वा । पितृतृप्ति न करोति हि दत्वा शापं व्रजति तस्य पिता ॥ आगतगतसमयेऽपि च करोति यदानजपहोमाद्यम् । उपरवापितबीजं यद्वत्तद्वच्च निष्फलं भवतीति संक्रांतिषु स्नानदानादेरनंतं फलं स्यात् । षडशीत्यां तु यद्दानं यद्दानं विषुवद्वये । दृश्यते सागरस्यांतस्तस्यांतो नैव दृश्यत इति भरद्वाजोक्तेः । अयने कोटिपुण्यं च सहस्रं विषुवे फलम् । षडशीत्यां सहस्रं तु फलं विष्णुपदेषु चेति वसिष्ठोक्तेश्च । अयं च निर्णयश्चंद्रादीनामपि संक्रमे ज्ञेयः । तत्र हेमाद्यादौ कालनिर्णयकारादिभिः याः पुण्यकालघटिका उपनिबद्धास्ताः स्थूलास्तेन षष्टिघ्नबिंबं ग्रहमु. क्तिभक्तमित्यादिप्रकारेण ग्रहमध्यमभुक्तिमध्यमविंबानीताः सूक्ष्मा घटिका लिख्यते । स्फुटगतिस्फुटबिंबैश्चेत् साध्यंते ता अतिसूक्ष्मास्तासामनियतत्वात् श्लोके अनुपनिबंधः । मध्यमास्तु यथा । नाड्यो रामगुणा ३३ रवेरथ विधोः षड् दोः पलैर्युग्द्वयं २, २६ भौमस्याब्धिपलैर्युता नव ९, ४ विदो युक्ताः पलैः खाश्विभिः । षण्नाड्यो ६, २० ऽष्टगजा ८८ गुरोरथ भूगोनंदाः पलेरष्टभिः ९,६ पुण्याः स्युः खनृपाः १६० शनेरुभयतो राश्यूक्षयोः संक्रम इति ॥ ८ ॥
निरयनांशसंक्रांतिमभिधायेदानी सायनांशसंक्रांति सपुण्यकालामुपजात्याहतथायनांशाः खरसाहताश्च स्पष्टार्कगत्या विहृता दिनायैः ॥ मेषादितः प्राक् चलसंक्रमाः स्युर्दाने जपादौ बहुपुण्यदास्ते ॥९॥
तथेति ॥ यथा राशिसंक्रमा बहुपुण्यदास्तथा चलसंक्रमा अपीति व्यवहितस्तथाशब्दः । अयनांशाः षष्टया गुण्याः स्पष्टसूर्यगत्या विहृता लब्धैर्दिनाद्यैः दिनघटीपलैः कृत्वा मेषादिद्वादशसंक्रांतिकालात्प्राक् चलसंक्रमाः स्युस्ते चलसंक्रमा दाने जपादौ जपश्राडहोमादौ बहुपुण्यदा भवंति । पुलस्त्यः । अयनांशसंस्कृतो भानुर्गोले चरति सर्वदा । अमुख्या राशिसंक्रांतिस्तुल्यः कालविधिस्तयोः ॥ स्नानदानजपश्राद्धव्रतहोमादिकर्मभिः । सुकृतं चलसंक्रांतावक्षयं पुरुषोऽश्नुत इति । जाबालिरपि । संक्रांतिषु यथा कालस्तदीयेऽप्ययने तथा । अयने विंशतिः पूर्वा मकरे विंशतिः परेति । अत्र चलसंक्रमाख्ये मकरायणे पूर्वा विंशतिर्घटिकाः पुण्याः । मकरसंक्रातौ तु परा विंशतिर्घटिकाः पुण्यकालः । मकरव्यतिरिक्तैकादशचलसंक्रांतिषु तत्तत्संक्रमवत्पुण्यकालो ज्ञेयः । अयनांशानयनादिविचारः सिद्धांतादवगंतव्यः । ईश्वरेच्छालोकादृष्टवशात्तत्तद्राश्यादिविभागस्य सूर्यतेजःसंपर्कश्चलसंक्रमः । मंडल मध्यसंपर्कश्च राशिसंक्रम इति विषयविवेकः । तत्र निरयनगणनयैव सकलव्य
१ चलसंक्रमे।
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मुहूर्तचिंतामणी
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वहारः साध्यः । सायनगणना तु नियतविषयैव । अयनांशाः प्रदातव्या लग्ने क्रांतौ गमे । वित्रिभे सत्रिभे पाते तथा दृक्कर्मपातयोरीति । एवं द्वयोरपि मानयोरसंकीर्णो हार इति सर्वमनाकुलम् । पुण्यकालस्तु उभयविधसंक्रमेऽपि ज्ञेयः । पूर्वलिखितवाक् स्वरसात् ॥ ९ ॥
अथसंक्रांत्युपयोगित्वाज्जघन्यबृहत्समनक्षत्राण्युपजात्याह
समं मृदुक्षिप्रवसुश्रवोऽग्निमघात्रिपूर्वास्त्रपभं बृहत्स्यात् ॥ ध्रुवद्विदैवादितिभं जघन्यं सापवुपार्द्रानिलशाक्रयाम्यम् ॥ १०
सममिति ॥ मृदुक्षिप्रवसुश्रवोनिमा त्रिपूर्वास्त्रपभं समम् । अस्त्रपभं मूलं एतानि पंचदश भानि समसंज्ञानि ज्ञेयानि । ध्रुवद्विदैवादितिभं बृहत्स्यात् । ध्रुवादिषड्भानि बृहत्सं ' ज्ञकानि । सापबुपार्द्रानिलशाक्रयाम्यं जघन्यं स्यात् । आश्लेषादिषड्भानि जघन्यसंज्ञानि ॥ १० ॥
अथ संज्ञाप्रयोजनमुपेंद्रवज्जयाह
जघन्यभे संक्रमणे मुहूर्ताः शरेंदवो बाणकृता बृहत्सु ॥ खरामसंख्याः समभे महर्घसमर्धसाम्यं विधुदर्शनेऽपि ॥ ११ ॥
जघन्य इति ॥ जघन्यनक्षत्रेऽर्कसंक्रमणे पंचदश मुहूर्ता ज्ञेयाः । बृहन्नक्षत्रे - ऽर्कसंक्रमणे बाणकृताः पंचचत्वारिंशन्मुहूर्ता ज्ञेयाः । समनक्षत्रेऽर्कसंक्रमणे खरामसंख्यास्त्रिंशन्मुहूर्ता ज्ञेयाः । उक्तं च नारदेन । तासां प्रमाणं घटिकास्त्रिंशन्नवतिषष्टय इति । फलमाह । महर्घसमर्घसाम्यमिति पंचदशमुहूर्तायां संक्रांतौ सर्वमन्नं महर्षं दुष्प्रापं भवति । पंचचत्वारिंशन्मुहूर्तायां संक्रांतौ समर्थ त्रिंशन्मुहूर्तायां संक्रांतौ समं यथास्थितं भवति । विधुदर्शनेऽपीति । चंद्रदर्शनेऽप्येवमेव फलं वाच्यम् । अयमर्थः । जघन्यभे चंद्रदर्शने महम् । बृहन्नक्षत्रे चंद्रदर्शने समर्धम् । समभे चंद्रदर्शने साम्यम् ॥ ११ ॥ अथ प्रसंगात्कर्क संक्रांतावब्दविशोपकाननुष्टुभाह
अर्कादिवारे संक्रांत कर्कस्याब्दविशोपकाः ॥
दिशो नखा गजाः सूर्या धृत्योऽष्टादश सायकाः ।। १२ ।। अदीति ॥ कर्कसंक्रांतौ अर्कादिवारे सति एतेऽब्दविशोपका ज्ञेग्नाः । यथ रविवारे कर्कसंक्रांतौ दश विशोपकाः । एवं सोमे विंशतिः भौमेऽष्टौ ज्ञे द्वादश गुरौ धृत्यो sष्टादश शुक्रेऽष्टादश शनौ पंचेत्यर्थः ॥ १२॥
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नाद्य
नक
संक्रांतिप्रकरणम् । अति अथ कीदृशस्य रवेः संक्रमो जातस्तत्फलमिंद्रवजयाह
तैतिले नागचतुष्पदे रविः सुप्तो निविष्टस्तु गरादिपंचके ।। स्तुघ्न ऊर्ध्वः शकुनी सकौलवेऽनिष्टः समः श्रेष्ठ इहार्घवर्षणे॥१३॥ स्यात्तैतिल इति ॥ रविस्तैतिले करणे नागकरणे चतुष्पदे च करणे सुप्तः संक्रतः स्यात् । गरादिपंचके गरे वणिजे भद्रायां बवे बालवे च निविष्टः संक्रमितः स्यात् । स्तुघ्ने सकौलवे शकुनौ च ऊर्ध्वः ऊर्ध्वस्थितः संक्रमितः स्यात् । इह करणाधिकरणकक्रांतो रविः अर्घवर्षणे अर्धे मूल्ये वर्षणे दृष्टौ उपलक्षणत्वादन्नेऽपि क्रमादनिष्टः समः श्रेष्ठः स्यात् । अयमर्थः । सुप्तरविसंक्रमा अर्धवर्षणधान्येष्वनिष्टाः महर्घवृष्टयभावधान्यापावकारकाः । एवं निविष्टः समः तथोर्ध्वः श्रेष्ठः । उक्तं च श्रीपतिना । धान्यावृष्टिषु भवेत्क्रमशस्त्वनिष्टमध्येष्टतेति ॥ १३ ॥
अथ रविसंक्रांतेः करणपरत्वेन वाहनवस्त्रायुधभक्ष्यलेपनजातिपुष्पाणि सफलानि शार्दूलविक्रीडितत्रयेणोपजातिकया चाह
सिंहव्याघ्रवराहरासभगजा वाह द्विषद्धोटकाः श्वाजो गौश्चरणायुधश्च बवतो वाहा रवेः संक्रमे ॥ वस्त्रं श्वेतसुपीतहारितकपांडारक्तकालासितं चित्रंकंबलदिग्घनाभमथ शस्त्रं स्याशंडी गदा ॥ १४ ॥ खड्गो दंडशरासतोमरमथो कुंतश्च पाशोंऽकुशो- . ऽस्त्रं बाणस्त्वथ भक्ष्यमनपरमान्नं भैक्षपकान्नकम् ॥ दुग्धं दध्यपि चित्रितान्नगुडमध्वाज्यं तथा शर्कराऽथोलेपो मृगनाभिकुंकुममथो पाटीरमृद्रोचनम् ॥ १५ ॥ यावश्चोतुमदो निशांजनमथो कालागुरुश्चंद्रको जातिर्दैवतभूतसर्पविहगाः पश्वेणविप्रास्ततः ॥ क्षत्री वैश्यकशूद्रसंकरभवाः पुष्पं च पुन्नागकं
जाती बाकुलकैतकानि च तथा बिल्वार्कदूर्वांबुजम् ॥ १६ ॥ स्यान्मल्लिका पाटलिका जपा च संक्रांतिवस्त्राशनवाहनादेः॥ नाशश्च तद्वृत्त्युपजीविनां च स्थिस्तोपविष्टस्वपतां च नाशः ॥१७॥
सिंहेति । खग इति । यावश्चेति । स्यान्मल्लिकेति च ॥ बवतो बवमारभ्यैकादशकरणेषु क्रमेण वाहनादीनि स्युः। वाहनानि सिंहादीनि । रासभो गर्दभः वाह. द्विषन्महिषः । लुलायो महिषो वाहद्विषत्कासरसैरिभा इत्यमरः । अजो मेषः । चरणायुधः
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मुहूर्तचिंतामणौ . कुक्कुटः । नारदेन तु विशेष उक्तः। खशबाल्हीकवंगेषु संक्रांतेर्धिष्ण्यवाहनम् । अन्यदेशेषु तिथ्यर्धवाहनाः स्युर्बवादय इति ॥ अश्विन्यां यदा संक्रांतिस्तदाश्विन्याः योऽश्वस्तद्वाहं न स्यात् । खशादिदेशेषु एवं सर्वनक्षत्रेषु । अथ वस्त्रं श्वेतादि हारितकं नीलवर्ण पांड आरक्तं अरुणवर्णम् । कालं श्यामलम् । असितं श्वेतवर्णरहितम् । कज्जलवर्णमित्यर्थः । दिक् वस्त्राभावः । घनाभं मेघवर्णम् । अथ शस्त्रम् । भृशुंड्यादीनि आयुधानि प्रसिद्धानि । अथ भक्ष्यम् । अन्नं भक्तः परमान्नं पायसम् । भैक्ष्यं भिक्षासमूहः पक्वान्नमपूपादि चित्रितान्नं हरिद्रादिरंजितम् । अथ लेपो विलेपनं मृगनाभिः कस्तूरी कुंकुम केशरं पाटीरं चंदनं मृत् प्रसिद्धा रोचनं गोरोचनमिति ॥ १४ ॥ १५ ॥ यावोऽलक्तकः ओतुमदो मार्जारधर्मः भाषया जवादिरिति । निशा हरिद्रा अंजनं कज्जलम् कालागुरुरगुरुविशेषः। चंद्रकः कर्पूरः । अथ जातिः । संकरभवा अनुलोमजाः प्रतिलोमजाश्च । अथ पुष्पम् । पुन्नागकं नागकेसरपुष्पं मल्लिका वेलिः जपा ओंड्रपुष्पं जासवनम् । शेषाणि प्रसिद्धानि सर्वत्र । क्वचिद्वयोऽप्युक्तम् । शिशुः कुमारश्च गतालका युवा प्रौढा प्रगल्भा च ततश्च वृद्धा । वंध्यातिवंध्या च सुतार्थिनी च प्रव्राजिका चेति बवादिकानामिति ॥ तथा क्वचिद्भोजनपात्रमप्युक्तम् । सुवर्णरौप्यताम्राणि लोह सीसं त्रपुस्तथा । कांस्यपाषाणकाष्ठं च मृत्पात्रं वेणुपात्रकमिति । एवं संक्रमकाले यानि वस्त्राशनवाहनादीन्यभिहितानि आदिशब्देनायुधलेपनजातिपुष्पाणि तेषां नाशो भवेत् । च पुनस्तद्वृत्त्युपजीविनां वस्त्रादिवृत्त्युपजीविनां नाशो भवेत् । स्थितोपविष्टस्वपतां च स्यात्तैतिले इत्यादिना सुप्तत्वादीन्युक्तानि तद्गुणविशिष्टानां नाशः स्यादित्यर्थः ॥ १६ ॥ १७॥ ___ अथ संक्रांतिवशेन प्रतिमनुष्यं शुभाशुभमुपजात्याहसंक्रांतिधिष्ण्याधरधिष्ण्यतस्त्रिभे स्वभे निरुक्तं गमनं ततोंगभे ॥ सुखं त्रिभे पीडनमंगभेंऽशुकं त्रिभेऽर्थहानी रसभे धनागमः ॥१८॥
संक्रांतीति ॥ संक्रांतिर्यस्मिन्नक्षत्रे स्यात्ततोऽधरधिष्ण्यं पूर्वनक्षत्रं तस्मात्स्वजन्मनक्षत्रं गण्यं तच्चत्प्रथमत्रिभे भवति तदा गमनं यात्रा स्यात् । ततः प्रथमत्रिकानंतरं अंगभे षण्नक्षत्रेषु यदि स्वभं तदा सुखं स्यात् । ततस्त्रिभे स्वभे पीडनं शरीरपीडा । पुनरंगभे स्वभेंऽशुकं वस्त्रादिप्राप्तिः। ततस्त्रिभे स्वभेऽर्थहानिः ततो रसभे स्वभे धनागमो धनप्राप्तिः स्यादित्यर्थः । अशुभफलदायां संक्रांतौ दानमाह नारदः । तिलोपरि लिखेच्चक्रं त्रित्रिशूलं त्रिकोणकम् । तत्र हेम विनिक्षिप्य दद्याद्दोषापनुत्तय इति ॥ १८ ॥
अथ कार्यविशेषे ग्रहविशेषबलं सामान्यतो ग्रहबलं चोपजात्याह- . नृपेक्षणं सर्वकृतिश्च संगरः शास्त्रं विवाहो गमदीक्षणं रवे ॥ वीर्येऽथ ताराबलतो विधुर्विधोर्बलाद्रविस्तद्वलतः शुभाः परे ॥१९॥
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संक्रांतिप्रकरणम् ।
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नृपेक्षणमिति ॥ खेरिति ल्यब्लोपे पंचमी | रविवारमारभ्य एतानि कार्याणि । यथा रवेः अर्कस्य बले वारे वा नृपेक्षणं राजदर्शनं विधेयम् । एवं चंद्रादावपि व्याख्येयम् । चंद्रे सर्वकृतिः सर्वकृत्यानि भौमे संगरो युद्धम् बुधे शास्त्रमध्येयमध्याप्यं वा गुरौ विवाहः शुक्रे गमनम् शनौ दीक्षणं यागादिदीक्षाविधेयेत्यर्थः । अथेति । ताराबलतो विधुः शुभो ज्ञेयः । यदा चंद्रसंक्रमणं स्यात्तदा ताराबलं चेत्तदा सपादादिनद्वयं चंद्रोऽशुभोऽपि शुभः तारादौष्ट्ये शुभोऽप्यशुभः । एवं विधोर्बलाद्रविः संक्रमणेऽशुभोऽपि मासपर्यंतं शुभः । शुभस्तु सुतरां समीचीन एव । चंद्रदौष्टये शुभोऽप्यशुभ इत्यर्थः । परे भौमादयः संक्रांति - चिकीर्षवस्तद्वलतः सूर्यबलादशुभा अपि शुभा ज्ञेयाः । रविदौष्ट्ये तु शुभा अप्यशुभाः १९ अथाधिमा सक्षयमा सयोर्लक्षणमुपजात्याह
स्पष्टार्कसंक्रांतिविहीन उक्तो मासोऽधिमासः क्षयमासकस्तु ॥ द्विसंक्रमस्तत्र विभागयोस्तस्तिथेर्हि मासौ प्रथमात्यसंज्ञौ ॥ २० ॥ इति मुहूर्तचिंतामणी तृतीयं संक्रांतिप्रकरणं समाप्तम् ॥ ३ ॥
स्पष्टार्केति ॥ शुक्लप्रतिपदादिदर्शातश्रांद्रो मासः स चेत् स्पष्टसूर्य संक्रांत्या विहीनो रहितो भवेत्तदाधिमास उक्तः । चांद्रो मासो ह्यसंक्रांतो मलमासः प्रकीर्तित इति ब्रह्मसि - द्धांतोक्तेः । तुर्विशेषे । कदाचित्स चांद्रो मासो द्विसंक्रमः द्वौ संक्रमौ यस्मिन्नसौ द्विसंक्रमः स्पष्ट सूर्य संक्रांतिद्वययुतस्तदा क्षयमाससंज्ञक उक्तः । आद्यंतदर्शयोर्मध्ये भानोरेव तयोर्यदा । संक्रांतिद्वितयं चेत्स्यात्क्षयमासः स उच्यत इति वसिष्ठोक्तेः । तत्र क्षयमासे जातानां वर्धापने मृतानां श्राद्धे च तिथेर्विभागयोः पूर्वोत्तरदलयोः संबंधेन प्रथमात्यसंज्ञौ मासौ स्तः स्याताम् । तिथिपूर्वार्धजातानां मृतानां च पूर्वमासे वर्धापनं श्राद्धं च विधेयम् । तिथ्युत्तरार्धे जातानां मृतानां चोत्तरमासे वर्धापनं श्राद्धं च विधेयम् । तिथ्यर्धे प्रथमे पूर्वोऽपरस्मिन्नपरस्तथा । मासाविति बुधैश्चित्यौ क्षयमासस्य मध्यगाविति ॥ मासादिलक्षणभेदविचारस्तु ग्रंथगौरवभयान्न लिखितः ॥ २० ॥
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अथ ग्रंथांतरसंग्रहः । योगिनीस्थितकाष्ठातः संक्रांतेरागमो मतः । चंद्रस्थदिशि दृष्टिः स्यागमनं वारदिक्स्मृतमिति क्वचित् । रवौ संक्रमणे पूर्वे मुखं जीवे तु उत्तरे । प्रत्यङ्मुखं शनौ सोमे शेषे दक्षिणतो मुखमिति । बवे पूर्वमुखं प्रोक्तं बालवे यमदिङ्मुखम् । कौलवे पश्चिममुखं तैतिले चोत्तरे मुखम् || गरे वायव्यदिग्वक्रं वणिज्याग्नेयदिङ्मुखम् । भद्रायामीशदिग्वक्रं शकुद नैर्ऋतौ मुखम् ॥ चतुष्पदि च पाताले नागे चोर्ध्वमुखं भवेत् । किंस्तुघ्ने सवैदिग्वक्रं संक्रांतिमुखलक्षणम् ॥ अथ दृष्टिः । चंद्रे गुरौ दृक्कथिता कृशानौ सूर्ये सिते नैऋतिकोणगा दृक् । धात्रीसुते दृक् पवने निरुक्ता बुधे शनौ रुद्रदिशीक्षणं भवेत् । अथ
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मुहूर्तचिंतामणौ गमनम् । मंदे चंद्रे गमः सौम्ये बुधे भौमे च वारुणे । रवौ शुक्रे गमो याम्ये गुरौ प्राग्गमनं स्मृतमिति ॥ इति श्रीदैवज्ञानंतसुतदैवज्ञरामविरचित प्रमिताक्षरायां संक्रांतिप्रकरणं समाप्तम् ॥ ३ ॥
॥ अथ गोचरप्रकरणम् ॥ अथ गोचरप्रकरणं व्याख्यायते ॥ तत्र जन्मराशेः सकाशात् ग्रहाणां चारवशेन यच्छुभाशुभफलं तद्गोचरफलमित्युच्यते । तत्र रविचंद्रयोर्गोचरफलमुपजातिकयाह
सूर्यो रसांत्ये खयुगेऽग्निनंदे शिवाक्षयोभमशनी तमश्च ॥ रसांकयोर्लाभशरे गुणांत्ये चंद्रोंऽबराब्धौ गुणनंदयोश्च ॥ १॥
सूर्य इति ॥ रसांत्य इत्यादौ समाहारद्वंद्वः । शिवाक्षयोरित्यादावितरेतरयोगः । अंबराब्धावित्यादावनित्यमागमशासनमिति नुमभावो ध्येयः । एवं सर्वत्र । स्वजन्मराशेरिति पंचमश्लोकस्थमत्राध्याहार्यम् । ततः सूर्यः क्रमात् रसांत्ये शुभो विद्धश्च स्यात् । सूर्यो जन्मराशेः सकाशात् षष्ठस्थाने शुभः यदि तत एव जन्मराशेादशस्थानस्था अन्ये ग्रहाः स्युस्तदा विद्धः सूर्यः शुभोऽप्यशुभफलदाता । अत्र शनेः सूर्यपुत्रत्वात्तवेधोऽनांगीकृतः । यतः पितुर्जनकस्य सुतसंबंधिनं वेधं नाहुः । सुतस्यापि पितृसंबंधिनं वेधं नाहुः । तथा खयुगे जन्मराशेदेशमे सूर्यः शुभश्चेच्चतुर्थस्थाने शनिवर्जिता अन्ये ग्रहाः स्युस्तदा विद्ध इत्येवं श्लोकत्रयं सम्यग्व्याख्येयम् । तथानिनंदे तृतीयनवमयोः शिवाक्षयोरेकादशपंचमयोः क्रमाच्छुभो विद्वश्च ज्ञेयः । भौमेति । भौमशनी तमोऽगुश्च त्रयोऽपि जन्मराशितः रसांकयोः लाभशरे गुणांत्ये क्रमाच्छुभा विद्धाश्चेत्यर्थः परंतु शनेः सूर्यवेधो नास्तीत्यक्तं प्राक् चंद्रोंऽबराब्धौ इत्यग्रे ॥१॥
अथ बुधगुरुशुक्राणां गोचरफलमुपजातिकेंद्रवजाभ्यामुपजातिकापूर्वार्धेन चाहलाभाष्टमे चायशरे रसांत्ये नगदये ज्ञो द्विशरेऽब्धिरामे ॥ रसांकयो गविधौ खनागे लाभव्यये देवगुरुः शराब्धौ ॥२॥ व्यत्ये नवांशेऽद्रिगुणे शिवाही शक्रः कुनागे द्विनगेऽग्निरूपे ॥ वेदांबरे पंचनिधौ गजेषौ नंदेशयोर्भानुरसे शिवाग्नौ ॥३॥ क्रमाच्छुभो विद्ध इति ग्रहः स्यापितुः सुतस्यात्र न वेधमाहुः ॥
चंद्र इति । लाभाष्टमे इति । व्यंत्य इति । क्रमादिति च ॥ जन्मभात् अंबराब्धौ गुणनंदयोः लाभाष्टमे आद्यशरे रसांत्ये नगद्वये चंद्रः क्रमाच्छुभो विद्धश्च ज्ञेयः । चंद्रस्य बुधवेधो नास्ति । अथ ज्ञ इति जन्मभात् द्विशरे अब्धिरा रसांकयोः नागविधौ खनागे लाभव्यये ज्ञो बुधः क्रमाच्छुभो विद्धश्च ज्ञेयः । अत्र चंद्रवेधो
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गोचरप्रकरणम् ।
७७ नास्ति । अथ देवगुरुरिति जन्मभात् शराब्धौ व्यत्ये नवांशे अद्रिगुणे शिवाही देवगुरुबृहस्पतिः क्रमाच्छुभो विद्रश्च ज्ञेयः । अथ शुक्र इति जन्मराशेः सकाशात् कुनागे द्विनगे अग्निरूपे वेदांबरे पंचनिधौ गजेषौ नंदेशयोः भानुरसे शिवानौ शुक्रः क्रमाच्छुभो विद्धश्च ज्ञेयः । अत्रेदं तात्पर्यम् । सूर्यो रसांत्ये इत्यादिप्राक्पठितस्थानेषु विद्यमानः स स ग्रहः शुभदः तदनंतरपठितस्थानेषु स्थितोऽशुभफलदाता । अर्थादेवानुक्तस्थानेषु न शुभो नाप्यशुभ इति ॥ २॥ ३ ॥ अथ वामवेधं शुक्लपक्षे चंद्रबलं चोपजात्युत्तरार्धेनाहदुष्टोऽपि खेटो विपरीतवेधाच्छुभो द्विकोणे शुभदः सितेऽब्जः ४
दुष्टोऽपीति ॥ दुष्टोऽपि वजन्मराशेः सकाशादनंतरपठितविरुद्वस्थानस्थितोऽपि विपरीतवेधाद्वामवेधाच्छुभः । यथा सूर्यों द्वादशेऽनिष्ट इत्युक्तं प्राक् स यदि शनिवर्जितैर्ग्रहः षष्ठस्थानस्थितैर्विद्धः सन् शुभफलदाता एवमुत्तरस्थानस्थितो यःकश्चिद्ग्रहः प्राक्पठितस्थानस्थितैर्ग्रहैविद्धः शुभ इति सर्वत्र व्याख्येयम् । अयमेव वामवेध इत्युच्यते । कश्यपः । अपविद्धो ग्रहः किंचिन्न ददाति शुभं फलम् । वामवेधविधानेन त्वशुभोऽपि शुभप्रदः । द्विकोणे इति । सितो शुक्लपक्षे अब्जश्चंद्रो द्वितीयनवपंचमेषु स्थितः शुभदः । अत्रापि क्रमेण षष्ठाष्टमचतुर्थस्थानस्थितैर्बुधवर्जितैर्घहैर्यदि न विद्धस्तदा शुभ इति ध्येयम् ॥ नारदः । शुक्लपक्षे शुभश्चंद्रो द्वितीयनवपंचमे । रिपुमृत्यंबुसंस्थैश्च न विहो गगनेचरैरिति ॥ ४ ॥
अथ द्विविधमतमुपजात्याहस्वजन्मराशेरिह वेधमाहुरन्ये ग्रहाधिष्ठितराशितः सः॥ हिमाद्रिविंध्यांतर एव वेधो न सर्वदेशेष्विति काश्यपोक्तिः॥६॥
स्वजन्मराशेरिति ॥ इह द्विविधवेधविधौ अन्ये नारदादयः स्वजन्मराशेः सकाशात् द्विविधमपि वेधमाहुः तथाचोभयत्रापि नारदेन जन्मत इत्युक्तम् । अन्ये कश्यपादयः स पुनर्द्विविधो ग्रहाधिष्ठितराशितः ग्रहो यस्मिन् राशौ तिष्ठति तत एव क्रमाद्वेधो वामवेधश्च भवति । यथा सूर्यो जन्मराशेः षष्ठस्थितः शुभः स सूर्यः स्वाक्रांतराशेर्दादशस्थानस्थितैः शनिवर्जितैहैन विद्धः तथा सूर्यो द्वादशस्थानस्थितोऽनिष्टः स सूर्यः स्वाक्रांतराशेः षष्ठस्थानस्थितैः शनिवर्जितैर्ग्रहैविद्धश्चेत्तदा शुभफलद इत्यर्थः । द्विविधवेधस्यैव विषयकल्पनोच्यते । हिमाद्रीति । हिमाचलविंध्याचलयोर्मध्यवर्तिन्येव देशे स वेधो ज्ञेयः न सर्वदेशेष्विति काश्यपोक्तिः काश्यपवचनम् । यदाह । ज्ञातव्यं जन्मराशेस्तु निखिलं यद्बलाबलम् । हिमाद्रिविंध्ययोर्मध्ये वेधजं तद्ग्रहालयम् । अपरे तु । सूर्यों रसांत्य इति क्रामिकवेधो जन्मराशेरेव ज्ञेयः। विपरीतवेधस्तु ग्रहाधिष्ठितराशित एवेति वदंति। गुरुः। जन्मतः क्रमवेधः स्याद्वामे
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७.
मुहूर्तचिंतामणौ वेधो ग्रहालयादिति । इदमपि हिमाद्रिविध्यांतरविषयमेवेत्यन्ये । एतज्ज्ञानं दुर्घटमित्याह नारदः । अज्ञात्वा द्विविधं वेधं यो ग्रहज्ञो बलं वदेत् । स मृषावचनाभाषी हास्यं याति जने सदेति ॥ एवं गोचरदौष्टये यात्रादि न कार्यम् । तत्र शांतिमाह नारदः । ग्रहेषु विषमस्थेषु शांतिं यत्नात्समाचरेदिति । सौम्येक्षितोऽनिष्टफलः शुभदः पापवीक्षितः। निष्फलौ तौ ग्रही वेन शत्रुणा चावलोकितः ॥ नीचराशिगतः स्वस्य शत्रुक्षेत्रगतोऽपि वा । शुभाशुभफलं नैव दद्यादस्तं गतोऽपि वेति । एतादृशस्थले दुष्टत्वाभावादेव शांत्यभाव इति फलितोऽर्थः ॥ ५॥
अथ गोचरप्रस्तावात् ग्रहणीयनक्षत्रफलं ग्रहणीयराहुगोचरफलं ग्रहणाशुभप्रतीकारं दुष्टग्रहणदर्शननिषेधं च शार्दूलविक्रीडितेनाह
जन्म: निधनं ग्रहे जनिभतो घातः क्षतिः श्रीर्व्यथा चिंता सौख्यकलत्रदौस्थ्यमृतय स्युर्माननाशः सुखम् ॥ लामोपाय इति क्रमात्तदशुभध्वस्त्यै जपः स्वर्णगोदानं शांतिरथो ग्रहं त्वशुभदं नो वीक्ष्यमाहुः परे ॥६॥
जन्म:ति ॥ यस्य जन्मनक्षत्रे ग्रहे ग्रहणे सति निधनं मरणं स्यात् । वसिष्ठः । यस्यैव जन्मनक्षत्रे ग्रस्येते शशिभास्करौ । तस्य व्याधिभयं घोरं जन्मराशौ धनक्षय इति। विशेषो भार्गवीये । यस्य राज्यस्य नक्षत्रे स्वर्भानुरुपरज्यते । राज्यभंगं सुहृन्नाशं मरणं चात्र निर्दिशेदिति । राज्यनक्षत्रे राज्याभिषेकनक्षत्रे । अथ राशिफलम् । जनिभत इति जन्मराशेरारभ्य ग्रहणे सति क्रमेण घातादिकं फलं भवति । यथा जन्मराशौ ग्रहणे सति घातः शरीरपीडा । द्वितीयराशौ क्षतिद्रव्यनाशः तृतीयराशौ श्रीलक्ष्मीप्राप्तिः चतुर्थराशौ व्यथा शरीरपीडा पंचमराशौ चिंता पुत्रादीनाम् । षष्ठराशौ सौख्यम् । सप्तमराशौ कलत्रदौस्थ्यं स्त्रीकष्टम् । अष्टमराशौ मृतिर्मरणम् । नवमराशौ माननाशः । दशमराशौ सुखम् एकादशराशौ लाभः प्राप्तिः । द्वादशराशौ अपायो नाशः आत्मन इति केचिम् । द्रव्यस्येत्यपरे । इदं षण्मासपर्यंतमिति ज्ञेयम् । तदनंतरं ग्रहणांतरसंभावनयोक्तं दैवज्ञमनोहरे । घातं हानिमथ श्रियं जननभादस्ति च चिंता क्रमात्सौख्यं दारवियोजनं च कुरुते व्याधिं च मानक्षयम् । सिद्धिं लाभमपायमर्कशशिनोः षण्मासमध्ये ग्रह इति । अथाशुभसूचकग्रहणप्रतीकारमाह । तदशुभेति । तस्य ग्रहणाशुभस्य ध्वस्त्यै नाशाय जपः स्वर्णगोदानं जपो गायत्र्यादिमंत्राणां स्वर्ण सुवर्ण गौधेनुभूमिर्वा उपलक्षणत्वादन्येषां रूप्यादीनां यथाशक्त्या दानं कार्यमिति शेषः । तद्दौस्थ्यप्रणुदुक्तवज्जपविधिस्वर्णादिदानं भवेदित्युक्तेः । दानं ज्योतिर्निबंधे । सुवर्णनिर्मितं नागं सतिलं ताम्रभाजनम् । सदक्षिणं सवस्त्रं च श्रोत्रियाय निवेदयेत् । मंत्रश्च । तमोमय महाभीम सोमसूर्यविमर्दन । हेमनागप्रदानेन मम शांतिप्रदो भवेति । स्कांदे ।
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गोचरप्रकरणम् ।
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गोदानं भूमिदानं च स्वर्णदानं विशेषतः । ग्रहणे क्लेशनाशाय दैवज्ञाय निवेदयेदिति । किंचात्र देशविशेषः पात्रविशेषो द्रव्यविशेषश्च नापेक्षित इत्याह व्यासः । सर्वं गंगासमं तोयं सर्वे ब्रह्मसमा द्विजाः । सर्वं भूमिसमं दानं ग्रहणे चंद्रसूर्ययोरिति । अन्यच्च । ग्रस्यमाने भवेत्स्नानं ग्रस्ते होमो विधीयते । मुच्यमाने भवेद्दानं मुक्ते स्नानं विधीयत इति । तस्मिन्काले जपादिकमपि विधेयम् । सूर्यैदुग्रहणं यावत्तावत्कुर्याज्जपादिकमिति शिवरहस्योक्तेः । आदिशब्दाद्देवार्चनादि कार्यम् । अथ स्थानविशेषेण ग्रहणमरिष्टजनकमित्युक्तम् । तद्दृष्टमुतादृष्टमपीति संशये निर्णयमाह । अथो इति तुर्विशेषे परे आचार्याः । अशुभदं ग्रहणं तु नो वीक्ष्यं न द्रष्टव्यमित्याहुः । उक्तं च । जन्मसप्ताष्टरिः फांकदशमस्थे निशाकरे । प्रदो राहुर्जन्म निधने तथा । जन्म जन्मनक्षत्रं निधनं वधतारा सप्तमी । अत्र दृष्ट इति पदश्रवणाद्दर्शनं चाक्षुषं विवक्षितमिति तेषामाशयश्चाक्षुषज्ञान एव । दृशेर्मुख्यत्वमिति परेषां मतम् तदसत् । अदृश्यरूपाः कालस्य मूर्तयो भगणाश्रिताः । शीघ्रमंदोच्च पाताख्या ग्रहाणां गतिहेतव इति सूर्यसिद्धांते पातानामदृश्यतोक्ता । पातो राहु पर्या - यः। दक्षिणोत्तरयोरेवं पातो राहुश्च रंहसा । विक्षिपत्येष विक्षेपश्चंद्रादीनामपक्रमादिति सूर्यसिद्धांतोक्तेः । अतः पातानामदृश्यत्वात् राहोर्दर्शनमेवानुपन्नम् । ननु ग्रहणे चंद्रसूर्ययोश्छादको राहुर्दृश्यत एव । अत एव राहुग्रस्ते निशाकरे इत्यादिपुराणोक्तिरपीति चेन्न । भानोभ महीछाया तत्तुल्येऽर्कसमेऽपि वा । शशांकपाते ग्रहणं कियद्भागाधिकोनक इत्युपक्रम्य छादको भास्करस्येंदुरस्थो घनवद्भवेत् । भूछायां प्राङ्मुखचंद्रो विशत्यस्य भवेदसौ । अस भूछाया अस्य चंद्रस्य छादका भवेदित्यर्थः । सूर्यसिद्धांते छाद्यछादकभावोऽभिहितः स्पष्ट एव । पुराणविरोधपरिहारस्तु भास्करेणैव राहुः कुभामंडलगः शशांकमित्यादिनोक्तः । वराहेणापि तस्मिन्काले सान्निध्यमस्यते नोपचर्यते राहुरित्युक्तस्तस्माद्राहोदर्शनं नास्त्येव । त्वन्मते दर्शनं चाक्षुषमेव विवक्षितम् । एवं च राहोर्दर्शनं राहुदर्शनमिति तत्पुरुषोऽनुपपन्नः । तस्माद्दर्शनशब्देनोपरागो लक्ष्यते । राहुदर्शनं राहूपरागस्तस्मिन् राहुदर्शने इति । अयमर्थः । राहुर्नाम पातस्तत्संबंधेन दर्शनमुपराग इति । न च राहुरेव लक्षणयोपरागपरस्तस्य दर्शनमिति पूर्वपक्षाभिमतार्थसिद्धिरिति वाच्यम् । लक्षणा तु अर्थातरासंभवे सति वक्तव्या । अत्यंतादर्शने राहोस्तथा चात्यंतदर्शने । प्रजापीडा विनिर्देश्या व्याधिदुर्भिक्षे कारकैरिति वि ष्णुधर्मोत्तरादिवाक्येषु पदांतरासन्निधानाद्राहुशब्देनोपरागो लक्ष्यते । इह च राहोः पाता - ख्यं ग्रहगतिरूपमर्थांतरमस्तीत्यतो राहुदर्शनग्रहपातयोः समानार्थकतास्तीत्येवं सिद्धमिति प्रागुक्तानां सर्ववचसां ग्रहणे स्नायादित्येकवाक्यार्थः फलितो भवति । केचित्तु दर्शनादर्शनविषयकयोस्तु विध्योस्तुल्यबलत्वात्सकृद्दृष्ट्वा स्नायादिति वदति तदसत् । जन्मसप्ताष्टरिः फां
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१ तस्करैरित्यपि पाठः ।
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मुहूर्तचिंतामणौ
केत्यादिना सामान्यतो निषिद्धस्य उपरक्तदर्शनस्य ॥ नेक्षेतोद्यंतमादित्यं नास्तं यांतं कदाचन। नोपरक्तं न वारिस्थं न मध्यं नभसो गतमिति मनूक्तोपरक्तदर्शनस्य पुनर्निषेधानुपपत्तेः । प्रागुतदिशा राहुदर्शनपदस्य राहूपरागलक्षकत्वेन तुल्यबलत्वाभावात् । तस्मादुपरक्तयोः सूर्याचंद्रमसोर्यस्य कस्यापि दर्शननिषेधसत्वात् ग्रहणे च स्नानदानाद्युक्तेस्तज्ज्ञानं च ज्योतिःशास्त्रैकदेशगणितग्रंथेभ्यो बुध्वा तस्मिन्काले दानादि विधेयमिति सिद्धांतः । अत एव मेघाद्याटतेऽप्युपरागे स्नानादिविधेयमेव । रात्रौ सूर्योपरागे दिवा चंद्रोपरागे च स्नानादिकं तु वचनान्न भवति । तदुक्तं निगमे । सूर्यग्रहो यदा रात्री दिवा चंद्रग्रहो यदि । तत्र स्नानं न कुर्वीत दद्यादानं न च क्वचिदिति । तादृशे ग्रहणे दुष्टेऽपि दोषो नास्तीत्यपि सूचितम् । जाबालिवचनं तु । संक्रांतेः पुण्यकालस्तु षोडशोभयतः कलाः । चंद्रसूर्योपरागे तु यावद्दर्शनगोचर इति । ग्रस्तस्यास्तमनपर्यंतं दर्शनगोचरत्वात्तावान् कालः पुण्यकालो भवतीति व्याचख्युः । तदुक्तं विश्वरूपनिबंधे । दिवाचंद्रग्रहो रात्रौ सूर्यपर्व न पुण्यदम् । संधिस्थं पुण्यवज्ज्ञेयं यावद्दर्शनगोचर इति । अन्ये तु । सूर्यस्यादर्शनं रात्रिर्दिनं तदर्शनात्मकम् । भुजपत्तादुपरि च स्थितोऽर्को दर्शनं स्मृतमिति वसिष्ठसिद्धांतवचनान्मेघाटतेऽनाटते चोपरागे गणितागतस्थितिघटिकाः पुण्यकाल इत्याहुः । यत्राकाशो भूम्या सह संलग्न इव दृश्यते स प्रदेशो भुजशब्दवाच्यः । अर्क इत्युपलक्षणं चंद्रादिग्रहनक्षत्राणाम् । विष्णुधर्मोत्तरे । अहोरात्रं न भोक्तव्यं चंद्रसूर्यग्रहो यदा । मुक्तिं दृष्ट्वा तु भोक्तव्यं स्नानं कृत्वा ततः परमिति । ग्रस्तास्ते गुरुः । ग्रस्तावेवास्तमानं तु रविंदू प्राप्नुतो यदि । तयोः परेधुरुदये स्नात्वाभ्यवहरेन्नरः । इत्यनयोर्वाक्ययोर्दर्शनोदयशब्दौ भुजहत्तोपरि स्थितत्वोपलक्षको । अन्यथा मेघाद्यावरणेन परदिवसेऽपि दर्शनाभावे उपवासः प्रसज्येत । तथा यत्र स्पर्शकाले ग्रहणं दृष्ट्वा स्नानं विहितं तत्रांतरे मेघावरणाद्रविचंद्रयोदर्शनाभावो दिवसद्वयं त्रयं वा स्यात्तत्राप्युपवासप्रसंगः स्यात् नच शिष्टास्तथाचरंति । तस्मादृशिदर्शनार्थ एव तस्माच्छास्त्रीयग्रहणज्ञाने सति मेघानावतेऽपि ग्रहणमदृष्ट्वैव चक्षुष्मतांधेन गंतुमशक्तेन च वृद्धादिना स्नानादिकं विधेयमित्यरिष्टजनकत्वाभावेऽपि ग्रहणदर्शननिषेधः किं पुनरयमिति तात्पर्यार्थः । अत एव भागवते कुरुक्षेत्रे स्नानाथै मिलितानां पांडवीयलोकानां मध्ये धृतराष्ट्रोऽपि परिगणित इति शिष्टाचारोऽप्येव मेवास्ति । एवं च सत्यरिष्टजनकत्वाभावेऽपि ग्रहणदर्शननिषेधः किं पुनररिष्टजनकत्वे । तस्माजन्मसप्तांकेति पद्यं निर्मूलत्वादुपेक्ष्यम् । किं च प्रत्यक्षोपलब्धवसिष्ठमत्स्यपुराणादिवाक्ये दर्शनपदाभावाच्च । अत एव मूले परे इति पदं प्रयुक्तं । शांतिस्तु दर्शनाभावेऽपि विधेया। यतोऽरिष्टयोगानां स्वरूपसतामेवारिष्टजनकत्वात् । अथ ग्रहणशांतिः । येषां तु विषमस्थाने राहुश्चंद्रमुपक्रमेत् । कर्मक्षयपरिक्लेशान प्राप्नुवंति च ते जनाः ॥ पितृपक्षविनाशाय सूर्यस्थाने भवेद्ग्रहः । होरायां गृह्यते यस्य नक्षत्रे वा निशाकरः ॥ प्राणसंदेहमानोति अ
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गोचरप्रकरणम् ।
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थवा रणमृच्छति । यस्य त्रिजन्मनक्षत्रे ग्रहणे शशिभास्करे । तज्जातानां भवेत्पीडा ये नराः शांतिवर्जिताः ॥ संक्रम इनस्य येषां जन्म त्रितयेऽथवा ग्रहणम् । बहुरोगमृत्युजननो - क्तदानाहुतयो जपाश्च कर्तव्याः ॥ तस्माद्दानं च होमं च देवार्चनजपौ तथा । उपरागाभिषेकं च कुर्याच्छांतिर्भविष्यति ॥ नक्षत्रदानं यथा । रूपं विधाय भुजगस्य तु कांचनेन पिष्टेन वा हिमकरे दिवसाधिपे च । ग्रस्ते त्रिजन्मदिवसे तमसा प्रदद्याद्विप्राय वेदविदुषे सुपरीक्षिताय ॥ यस्य राशिं समासाद्य भवेद्ग्रहणसंभवः । तत्र स्नानं प्रवक्ष्यामि मंत्रौषधिसमन्वितम् ॥ चंद्रोपरागं संप्राप्य कुर्याद्राह्मणवाचनम् । संपूज्य चतुरो विप्रान शुक्लमाल्यानुलेपनैः ॥ पूर्वमेवोपरागस्य समानीयौषधादिकम् । स्थापयेच्चतुरः कुंभानग्रतः सागरानिव ॥ गजाश्वरथ्यावल्मीकसंगमाहूदगोकुलात् । राजद्वारप्रवेशाच्च मृदमानीय निक्षिपेत् ॥ पंचगव्यं च कुंभेषु शुद्धमुक्ताफलानि च । रोचनं पद्मकं शंखं पंचरत्नसमन्वितम् ॥ स्फटिकं चंदनं श्वेतं तीर्थवारि च पल्लवान् । गजदंतं कुंकुमं च सर्षपोशीरगुग्गुलून् ॥ तत्सर्वं निक्षिपेत्पूर्वं कुंभेष्वावाहयेत्सुरान् । सर्वे समुद्राः सरितस्तीर्थानि जलदा नदाः ॥ आयांतु मम शांत्यर्थं दुरितक्षयकारकाः । तिलहोमं व्याहृतिभिः सहस्त्रं चाष्टसंयुतम् ॥ एवं कृत्वा प्रयत्नेन स्नानकर्म समारभेत् । आमंत्र्य नवभिमंत्रः कुंभान्संकल्पपूर्वकम् ॥ योऽसौ वज्रधरो देवो ह्यादित्यानां प्रभुर्मतः । सहस्त्रनयनः शक्रो ग्रहपीडां व्यपोहतु ॥ मुखं यः सर्वदेवानां सप्तार्चिरमितद्युतिः । चंद्रोपरागसंभूतामग्निः पीडां व्यपोहतु || यः कर्मसाक्षी लोकानां धर्मो महिषवाहनः ॥ यमश्चंद्रोपरागोत्थां ग्रहपीडां व्यपोहतु || निर्ऋतिः कौणपो देवः प्रलयानलसन्निभः । खड्गव्यग्रोऽतिभीमश्च रक्षः पीडां व्यपोहतु || नागपाशधरो देवः सदा मकरवाहनः । सजलाधिपतिश्चंद्रग्रहपीडां व्यपोहतु || प्राणरूपो हि लोकानां सदा कृष्णमृगप्रियः । वायुचंद्रोपरागोत्थां ग्रहपीडां व्यपोहतु ॥ योऽसौ निधिपतिर्देवः खड्गशूलगदाधरः । चंद्रोपरागकलुषं वनक्षेत्रे व्यपोहतु ॥ योऽसाविंदुयुतो देवो भवानीपतिरीश्वरः । चंद्रोपरागजां पीडां स नाशयतु शंकरः ॥ त्रैलोक्ये यानि भूतानि स्थावराणि चराणि च । ब्रह्मविष्ण्वर्कयुक्तानि तानि पापं दहंतु मे ॥ * च ततो मैत्रान्विलिख्य कान्वितान् । वस्त्रे पहेऽथवा भूर्जे पंचरत्नसमन्वितान् ॥ यजमानस्य शिरसि निदध्युस्ते द्विजोत्तमाः । ततोऽतिवाहयेद्वेलामुपरागानुमानिनीम् ॥ प्राङ्मुखं पूजयित्वा ते नत्वा चाभीष्टदेवते । चंद्रग्रहे विनिवृत्ते कृतशौचात्ममंगलः ॥ कृतस्नानश्च तत्सर्वं ब्राह्मणाय निवेदयेत् । अनेन विधिना यस्तु ग्रहस्त्रानं समाचरेत् ॥ न तस्य ग्रहपीडा स्यान्न च बंधुधनक्षयः । सूर्यग्रहे सूर्यनाम सदा मंत्रेषु कीर्तयेत् ॥ य इदं शृणुयान्नित्यं श्रावयेद्वापि वा नरः । सर्वपापविनिर्मुक्तः सर्वत्र सुखवान् भवेदिति ॥ इति मत्स्यपुराणोक्ता ग्रहणशांतिः ॥ अथौषधीभिर्ग्रहणशांतिः ॥ रोचनं पद्मकं शंखं कुंकुमं रक्तचंदनम् । शुक्तिस्फटिकतीर्थंबुसितसर्षपगुग्गुलुन् || मधुकं देवदारुं च
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मुहूर्तचिंतामणौ विष्णुक्रांतां शतावरीम् । एलां च सहदेवी च निशाद्वितयमेव च ॥ दूर्वांकुरोशीरशमीशिलाजित्सर्वार्थसर्वौषधिपंचमृद्भिः । स्नानं विदध्याद्रहणे रवींद्वोः पीडाकरं शांतिवहं च यस्येति॥६॥ अथ चंद्रबले विशेषमनुष्टुप्छंदसाहपापांतः पापयुग्छूने पापाचंद्रः शुभोऽप्यसन् ॥
शुभाशे वाधिमित्रांशे गुरुदृष्टोऽशुभोऽपि सन् ॥७॥ पापांत इति ॥ शुभफलदोऽपि चंद्रः पापांतः पापद्वयमध्यवर्ती पापयुक् पापग्रहयुक्तः पापात् छूने सप्तमे वर्तमानस्तदा शुभोऽपि असन् अशुभ एव । यदा त्वशुभोऽपि चंद्रः शुभांशे शुभग्रहनवांशे अथवाधिमित्रनवांशे तथा गुरुणा दृष्टः सन् शुभफलदाता भवेत् ॥७॥ अन्यदप्यनुष्टुभाहसितासितादौ सदुष्टे चंद्रे पक्षौ शुभावुभौ ॥
व्यत्यासे चाशुभौ प्रोक्तो संकटेऽजवलं त्विदम् ॥ ८॥ सितेति ॥ शुक्लपक्षादौ प्रतिपदि समीचीनचंद्रे सति संपूर्णः शुक्लः शुभः। असितादौ कृष्णपक्षप्रतिपदि दुष्टे चंद्रे सति संपूर्णः कृष्णः शुभः । व्यत्यासे च पूर्वोक्तादर्थाद्वैपरीत्ये द्वावपि पक्षावनिष्टौ । यदाशुक्लप्रतिपदि चंद्रो दुष्टश्चेत्तदा सकलपक्षोऽनिष्टः । कृष्णप्रतिपदि चंद्रः शुभश्चेत्तदा संपूर्णः कृष्णपक्षोऽनिष्टः । इदमेतावत् अब्जबलं चंद्रबलं संकटे विवाहयात्रादौ अवश्यकर्तव्ये तात्कालिकचंद्रबलाभावे च ग्राह्यम् नान्यथेत्यर्थः ॥८॥ ___ अथ ग्रहदौष्टयपरिहारपूर्वकं तुष्टिसंपादनार्थ नवरत्नसमुदायधारणं शालिन्याहवज्रं शुक्रेऽब्जे सुमुक्ताप्रवालं भौमेऽगौ गोमेदमामे सुनीलम् ॥ केतौ वैदूर्य गुरौ पुष्पकं ज्ञे पाचिः प्राङ्माणिक्यमर्के तु मध्ये ॥९॥
वज्रमिति ॥ अत्र सुवर्णमुद्रिकायां नवधा भक्तायां प्रागादिक्रमेण नवरत्नानि निधेयानि । तत्र प्रागिति पंचम्यंतमव्ययम् । पंचमी चेयं ल्यब्लोपे । तेन प्रागादिदिक्त इत्ययमर्थो जातः । तत्र शुक्रप्रीतये पूर्वस्यां दिशि वजं श्वेतहीरकं निधेयम् । एवं चंद्रप्रीतये सुमुक्ता शोभनमुक्ताफलमाग्नेय्याम् । भौमप्रीत्यर्थ दक्षिणस्यां प्रवालम् । अगौ राहौ नैर्ऋत्यां गोमेदम् । आर्को शनी पश्चिमायां शोभनं नीलम् । केतौ वायव्यां वैदूर्यम् । गुरौ उत्तरस्यां पुष्पकं पुष्पराजम् । बुधे ईशान्यां पाचिः । मध्ये मध्यमकोष्ठे अर्कप्रीत्यै माणिक्यं निधेयम् ॥ ९॥ __ अथ सति सामर्थ्य नवरत्नसमुदायधारणमुक्तं इदानीमसति सामर्थ्य यद्गृहकृतदौष्टयं तबहरत्नधारणमिंद्रवज्रयाहमाणिक्यमुक्ताफलविद्रुमाणि गारुत्मकं पुष्पकवज्रनीलम् ॥
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गोचरप्रकरणम् । गोमेदवैदूर्यकमर्कतः स्यू रत्नान्यथो ज्ञस्य मुदे सुवर्णम् ॥ १० ॥
माणिक्योति ॥ सूर्यप्रीत्यर्थ माणिक्यं धार्यम् । एवं चंद्रस्य मुक्ताफलम् । भौमस्य विद्रुमं प्रवालम् । बुधस्य गारुत्मकं गरुडः पाचिः । गुरोः पुष्पकं पुष्पराजः । शुक्रस्य वजं हीरकः । शने!लं लहसुणिया । राहोर्गोमेदम् । केतोर्वेदूर्यमित्येवमर्कतोऽर्कादीनां ग्रहाणां रत्नानि धार्याणि स्युः । तत्र यगृहकृतदौष्टयं तस्य ग्रहस्य तुष्टयै तद्रत्नमेव धार्यमित्यर्थः । अथो ज्ञस्य मुदे सुवर्णमित्यग्रिमश्लोकेन संबंधः ॥ १० ॥
अथ महामूल्यरत्नधारणस्यासामर्थेऽल्पमूल्यानि रत्नानि ताराबलं च शालिन्याहधार्य लाजावर्तकं राहुकेत्वो रौप्यं शुक्रंदोश्च मुक्ता गुरोस्तु॥ लोहं मंदस्यारभान्वोः प्रवालं ताराजन्मात्रिरावृत्तितः स्यात् ११
धार्यमिति ॥ अथो ज्ञस्य बुधस्य मुदे संतोषार्थ सुवर्ण यथाशक्ति धार्यम् । राहुकेत्वोस्तुष्टचै लाजावर्तकं मणिविशेषो धार्यः । शुक्रेद्वोस्तुष्टचै रूप्यम् । गुरोस्तुष्टचै मुक्ताफलम् । शनेस्तुष्टयै लोहम् ।आरभान्वोस्तुष्टयै प्रवालं धार्यम् । तारेति । यद्दिने ताराबलं चिकीपितं तद्दिने या तारा सा जन्मनक्षत्रात् त्रिरावृत्तितः पुनःपुनरावृत्तित्रयेण गणनीया स्यात् । त्रिरिति सुजतमव्ययम् । जन्मनक्षत्रादिननक्षत्रे गणिते नवभिर्भक्ते तिस्त्र आवृत्तयो भवंति । अवशिष्टतारायाः शुभमशुभं च व्याख्यातमिति फलितोऽर्थः ॥ ११ ॥ अथ शेषक्रमेण सकलास्तारासंज्ञा अनुष्टुभाह
जन्माख्यसंपद्विपदः क्षेमप्रत्यरिसाधकाः ॥
वधमैत्रातिमैत्राः स्युस्तारा नामसक्फलाः ॥ १२ ॥ जन्माख्योति ॥ स्पष्टोऽर्थः ॥ १२ ॥ अथा वश्यकृत्ये दुष्टताराणां प्रकारद्वयेन परिहारं शार्दूलविक्रीडितेनाह
मृत्यौ स्वर्णतिलान्विपद्यपि गुडं शाकं त्रिजन्मस्वथो दद्यात्प्रत्यरितारकासु लवणं सर्वो विपत्प्रत्यरिः॥ मृत्युश्चादिमपर्यये न शुभदोऽथैषां द्वितीयेंऽशकानादिप्रांत्यतृतीयका अथ शुभाः सर्वे तृतीये स्मृताः ॥ १३ ॥ मृत्यौ स्वर्णतिलानिति ॥ मृत्यौ वधतारायां स्वर्णतिलान् यथाशक्ति ब्राह्मणाय दद्यात् । विपदि विपत्तारायां गुडमिक्षुविकारं दद्यात् । त्रिजन्मसु तिसृषु जन्मतारासु शाकं वृताकादि दद्यात् । अथो प्रत्यरितारकासु पंचमतारायां लवणं दद्यात् । नारदः । जन्मत्रिपंचसप्ताख्या तारानिष्टफला स्मृता । शाकं गुडं च लवणं सतिलान् कांचनं क्रमाम् ॥ अनिष्टपरिहाराय दद्यादानं द्विजातय इति । अथ द्वितीयः परिहारः । तत्रादिमपर्यये प्र
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मुहूर्तचिंतामणौ
थमावृत्तौ विपत्प्रत्यरिर्मृत्युश्च तृतीयपंचमीसप्तम्यस्ताराः सर्वा अपि सामान्यतः षष्टिघटिकात्मिका न शुभदाः स्युः । अथ द्वितीये पर्यये द्वितीयावृत्तौ विपत्प्रत्यरिमृत्यूनां आदिप्रांत्यतृतीयका अंशा न शुभदाः । विपत्तारायामाद्यांशः प्रथमचरणो निषिद्धः । प्रत्यरिता - रायां प्रांत्योंऽशश्चतुर्थचरणस्त्याज्यः । मृत्युतारायां तृतीयोंऽशस्तृतीयचरणस्त्याज्य इति । अथ तृतीयावृत्तौ विपत्प्रत्यरिर्मृत्युश्चैते सर्वे षष्टिघटिकात्मिका अपि शुभाः । उक्तं च दीपिकायाम् । पर्याये प्रथमे वर्ज्या विपत्प्रत्यरिनैधना इति ॥ १३ ॥
अथ चंद्रावस्था गणनोपायमनुष्टुभाह
षष्टिनं गतभं भुक्तघटीयुक्तं युगा४हतम् ॥ शराधिहल्लब्धतोऽर्कशेषेऽवस्थाः क्रियाद्विधोः ॥ १४ ॥ षष्टिनमिति ।। अश्विनीमारभ्य गतभानि षष्ट्या गुण्यानि । वर्तमाननक्षत्र भुक्तघटीयुतानि तानि पुनर्युगैश्चतुर्भिराहतानि शराब्धि ४९ हृत् पंचचत्वारिंशता भाज्यानि यल्लब्धमागतं गतावस्थास्ताः शेषं वर्तमानावस्थायाः । तत्र लब्धांकस्यापि द्वादशाधिक्ये द्वादशभिर्भागशेषं प्रवासाद्यवस्थाचंद्रस्य गताः स्युः । ता अवस्था मेषराशेः पुंसः प्रवासादिसंज्ञाः । वृष राशेर्नष्टादिसंज्ञाः । एवं मिथुनादिदशराशिषु मृतादिसंज्ञा ह्यवस्थाः क्रमेण भवंती - त्यर्थः ॥ १४ ॥
अथ द्वादशावस्थानामानि सफलान्याह -
प्रवासनाशौ मरणं जयश्च हास्यारतिः क्रीडितसुप्तभक्ताः ॥ ज्वराख्यकंपस्थिरता अवस्था मेषात्क्रमान्नामसदृक्फलाः स्युः ॥ १५ ॥ प्रवासनाशाविति ॥ स्पष्टार्थम् ॥ १५ ॥
अथ ग्रहाणां वैकृतपरिहारार्थं सौषधजलस्त्रानं दक्षिणाश्र शार्दूलविक्रीडितेनाहलाजाकुष्ठबलाप्रियंगुघन सिद्धार्थेनिशादारुभिः
पुंखा लोधयुतैर्जलैर्निगदितं स्नानं ग्रहोत्थाघहृत् ॥ धेनुः कंब्वरुणो वृषश्च कनकं पीतांबरं घोटकः श्वेतो गौरसितामहासिरज इत्येता रवेर्दक्षिणाः ॥ १६ ॥ लाजाकुष्ठेति ॥ लाजा भ्रष्टशालय इति केचित् । वस्तुतस्तु औषधीसाहचर्यालाशब्देन लज्जावती गृह्यते । कुष्ठं प्रसिद्धम् । बला वरिया प्रियंगुः फैलिनी घनो मुस्तः सिद्धार्थाः सर्षपाः निशा हरिद्रा दारुः देवदारुः पुंखा शरपुंखा लोध्रं प्रसिद्धं एतैरोषधैर्युतैर्जलैः स्नानं ग्रहोत्थाघहृत् दुष्टग्रहसूचितारिष्टनाशकं स्यात् । सप्रियंगुरजनीद्वयमांसीकुष्ठलाजति
१ राळे.
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संस्कारप्रकरणम् । लसर्पपखंडैः । वारिभिः सहवचैः सह लोधेः स्नानमत्ति निखिलग्रहपीडामित्युक्तेः । अथ रवेः रविमारभ्य दक्षिणा उच्यते । सूर्याय धेनुः चंद्राय कंबुः शंखः । शंखः स्यात्कंबुरस्त्रियामित्यमरः । भौमायारुणो वृषः । बुधाय सुवर्णम् । गुरवे पीतांबरं तच्च यथाविभवं कार्पासं कोशजं वा । शुक्राय श्वेतो घोटकः । शनेः श्यामवर्णा गौः । राहवे महासिर्महामूल्यः खङ्गः । केतवे छागो मेषः । एताः दक्षिणाः ॥ १६ ॥ ___ अथ ग्रहाः गंतव्यराशेः प्राक् कियद्भिर्दिनैः फलं दद्युरित्येतदुपजात्याहसूर्यारसौम्यास्फुजितोक्षनागसप्ताद्रिघनान् विधुराग्निनाडीः॥ तमो यमेज्यास्त्रिरसाश्विमासान् गंतव्यराशेः फलदाः पुरस्तात् १७
सूर्यारेति ॥ सूर्यादयो ग्रहाः जिगमिषितराशेः पुरस्तात्पूर्व तत्तत्संख्यघटीदिवसमासान् शुभाशुभफलदाः स्युः । यथा सूर्यों गंतव्यराशेः प्राक् पंच दिनानि फलप्रदः भौमोऽष्ट दिवसान बुधः सप्त दिवसान् शुक्रोऽपि सप्त दिवसान चंद्राऽग्रिनाडी डीत्रयं राहुगैतव्यराशेः पूर्वं त्रिमासान शनिः षण्मासान् गुरुर्मासद्वयम् पूर्वं फलद इत्यर्थः ॥ १७ ॥ __ अथावश्यकृत्ये दुष्टे तिथ्यादौ दानं शालिन्याहदुष्टे योगे हेम चंद्रे च शंख धान्यं तिथ्यर्धे तिथौ तंडुलांश्च ॥ वारे रत्नं भे च गां हेम नाड्यां दद्यात्सिधूत्थं च तारासु राजा १८
दुष्टे योग इति ॥ राजा दुष्ट व्यतीपातादियोगे तथा नाड्यां घटिकायां दुर्मुहूर्तादिदुष्टायां सुवर्ण यथाशक्ति दद्यात् । एवं सर्वत्र शेषं स्पष्टम् ॥ १८ ॥ अथ वसंततिलकयान्यदाह
राश्यादिगौ रविकुजौ फलदौ सितेज्यौ मध्ये सदा शशिसुतश्वरमेऽजमंदो॥ अध्वान्नवह्निभयसन्मतिवस्त्रसौख्यदुःखानि मासि जनिभे रविवासरादौ ॥ १९ ॥
इति चतुर्थं गोचरप्रकरणं समाप्तम् ॥ राश्यादीति ॥ पूर्वार्धं स्पष्टम् । अध्वान्नेति । यस्मिन्मासे स्वजन्मनक्षत्रप्रवेशे सूर्यादिवाराश्चेत्स्युस्तस्मिन्मासेऽध्वादीनि फलानि वाच्यानि । यत्र मासि रविवारे जन्मनक्षत्रे सति अध्वा मार्गों भवति एवं चंद्रवारे अन्नं भक्ष्यप्राप्तिरित्यादि ॥ १९॥ इति श्रीदैवज्ञानंतसुतदैव० प्रमिताक्षरायां चतुर्थ गोचरप्रकरणं समाप्तम् ॥
अथ संस्कारप्रकरणं व्याख्यायते ॥ तत्र संस्क्रियतेऽनेन श्रौतस्मातेन वा कर्मणा पुरुष इति संस्कारः । स्वीयस्वीयजातौ सामान्यविशेषविहितवैदिकस्मार्तकर्मानुष्ठानद्वारा दृष्टवि
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मुहूर्तचिंतामणौ शेषाधायक इति यावत् । लक्षणया तदर्थोक्तदिनशुद्धयादि संस्कारशब्देनोच्यते । तस्य प्रकरणमुपक्रमः। ते च संस्कारा गर्भाधानादयोऽष्टचत्वारिंशत् । तत्र गर्भाधानं प्रथमसंस्कारः । स च रजस्वलारूयधीनः । ततो रजोदर्शनाच्छुभाशुभफलमुक्तं वसिष्ठेन । प्रथमरजोदर्शनतः शुभाशुभं भवति सर्वलोकानामिति । तत्र शुभसूचकरजोदर्शनमनुष्टुभाह- .
अथ संस्कारप्रकरणं प्रारभ्यते ॥ आद्यं रजः शुभं माघमार्गराधेषफाल्गुने ॥
ज्येष्ठश्रावणयोः शुक्ले सहारे सत्तनौ दिवा ॥१॥ आद्यमिति ॥ राधो वैशाखः । इष आश्विनः । अन्ये प्रसिद्धाः । एषु मासेषु आद्यं रजः प्रथमोद्भवं रजोदर्शनं स्त्रीधर्मः शुभं भविष्यच्छुभसूचकम् । तथा शुक्ले शुक्लपक्षे कृष्णपक्षे तु दशमीपर्यंतं मध्यमं ज्ञेयम् । कृष्णपक्षस्य दशमी मध्यमं फलमादिशेदिति । यावदिति शेषः। सहारे सतां चंद्रबुधगुरुशुक्राणां वारे सत्तनौ समीचीनलग्ने शुभस्वामिकलग्ने दिवा दिवसे आद्यं रजोदर्शनं शुभमित्यर्थः । अत्राशुभफलापवादमाह वसिष्ठः । अशुभमपि समस्तं चार्तवं संप्रभूतं सुरगुरुसितयुक्ते वीक्षिते वाथ लग्ने । तिमिरामिव कठोरज्योतिरुत्पत्तिकाले क्षयमथ समुपैति प्राप्नुयादीप्सितानि ॥ कठोरज्योतिः सूर्यः ॥ १॥ अथात्र शुभमध्याशुभनक्षत्राण्यनुष्टुभाह
श्रुतित्रयमृदुक्षिप्रध्रुवस्वातौ सितांबरे॥
मध्यं च मूलादितिभे पितृमिश्रे परेष्वसत् ॥२॥ श्रुतित्रयेति ॥ श्रवणत्रयमृदुक्षिप्रध्रुवस्वातीनक्षत्रेषु सितांबरे श्वेतवस्त्रे चाद्यं रजः शुभमिति पूर्वेण संबंधः । मूले दितिभं पुनर्वसुः पितरो मघा मिश्रे कृत्तिकाविशाखे एतेषु नक्षत्रेषु मध्यमम् । परेषु भरणीज्येष्ठाश्लेषापूर्वात्रयेषु असत् अनिष्टम् । अत्र विशाखामूलयोर्मध्यमत्वाभिधानं वसिष्ठवाक्ये दुष्टफलश्रवणात् । द्विदैवमं पुष्पवती प्रमत्ता कृत्यैव मोघामयवैरिसंघा । मूले प्रकामाधिकहीनसत्वा स्यात्सर्वभक्षोद्धतदोषचित्तेति ॥ २ ॥
अथ निंद्यरजोदर्शनं शालिन्याहभद्रा निद्रा संक्रमे दर्शरिक्ता संध्याषष्ठी द्वादशीवैधृतेषु॥ रोगेऽष्टम्यां चंद्रसूर्योपरागे पाते चाचं नो रजोदर्शनं सत् ॥ ३॥
भद्रेति ॥ भद्रा प्रसिद्धा । निद्रा निद्रावस्थायाम् । संध्या प्रातमध्याह्नसायंसंध्या। उपरागे ग्रहणे । पाते व्यतीपाते महापाते च शेषं स्पष्टम् । आद्यं रजोदर्शनं नो सत् अनिष्टफलमित्यर्थः ॥३॥
अथ रजस्वलास्नानमुहूर्त वसंततिलकयाह
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संस्कारप्रकरणम् ।
हस्तानिलाश्विमृगमैत्रव सुध्रुवाख्यैः शान्वितैः शुभतिथौ शुभवासरे च ।। स्नायादथातववती मृगपांष्णवायु
हस्ताश्विधातृभिररं लभते च गर्भम् ॥ ४ ॥
हस्तानिलेति ॥ एषु एकादश नक्षत्रेषु शुभतिथौ रिक्तामारहिततिथौ शुभवारे चंद्रबुधगुरुशुक्रवारे । आर्तववती ऋतुमती स्त्री स्त्रायात् । अथ विशेषमाह । मृगेति । मृगरेवतीस्वातीहस्ताश्विनीरोहिणीनक्षत्रैः स्नाता ऋतुमती अरं शीघ्रं गर्भं लभते । लघुक्षिप्रमरं द्रुतमित्यमरोक्तेः। दाक्षिणात्यास्तु चतुर्थदिवस एव स्नानं कुर्वेति । अन्ये विहितदिने कुर्वति तत्र देशाचारतो व्यवस्थेति ॥ ४ ॥
अथ गर्भाधानं शार्दूलविक्रीडितशालिनीभ्यामाह
गंडांतं त्रिविधं त्यजेन्निधनजन्मर्क्षे च मूलांतकं दात्रं पौष्णमघोपरागदिवसान् पातं तथा वैधृतिम् । पित्रोः श्रादिनं दिवा च परिघाद्यार्धं स्वपत्नीगमे भान्युत्पातहतानि मृत्युभवनं जन्मर्क्षतः पापभम् ॥ ५ ॥ गंडांतमिति ॥ अत्र स्वपत्नीगमे गर्भाधाने एतान् दोषांस्त्यजेदिति संबंधः । एतान्कान्कान् त्रिविधं तिथिनक्षत्रलग्नानां गंडांतं । श्रीपतिः । नक्षत्रतिथिलग्नानां गंडांतं त्रिविधं स्मृतम् । नवपंचचतुर्थानां द्व्येकार्धघटिकामितमिति । निधनजन्मर्क्षे निधनतारां जन्मतारां च मूलं अंतकं भरणीं दास्त्रमश्विनीं पौष्णं रेवतीं मघां उपरागदिवसं ग्रहणदिनं पातं व्यतीपातं महापातं च वैधृतिं पित्रोः मातापित्रोः श्राद्धदिनं दिवा दिवसे परिघयोगस्याद्यार्धं उत्पातहतानि दिव्यभौमांतरिक्षैस्त्रिविधोत्पातैर्हतानि दूषितानि भानि जन्मर्क्षतः जन्मराशेर्जन्मलग्नाद्वा मृत्युभवनमष्टमलनं पापयुतं भं नक्षत्रं लग्नं वा ५ ॥
भद्रा षष्ठी परिक्ताश्च संध्या भौमार्कार्की नाद्यरात्रीश्चतस्रः ॥ गर्भाधानं syriah मैत्रब्रह्मस्वातीविष्णुवस्वंबुपे सत् ॥ ६ ॥
८७
भद्रा षष्ठीति ॥ पर्वाणि विष्णुपुराणे । चतुर्दश्यष्टमी चैव अमावास्या च पूर्णिमा । पर्वाण्येतानि राजेंद्र रविसंक्रांतिरेव चेति । स्कांदे तु । कृष्णाष्टमीचतुर्दश्यौ पूर्णिमा दर्शसंक्रम इति । संध्याद्वयं भौमसूर्यशनिवारान् आद्यरात्रीः रजोदर्शनमारभ्य दिनचतुष्टयं त्यजेत् । कालविधाने । षष्ठयष्टमीं पंचदशीं चतुर्थी चतुर्दशीमप्युभयत्र हित्वा । शेषाः शुभाः स्युस्तिथयो निषेके वाराः शशांकार्यसितेंदुजानामिति । गर्भाधानमिति । त्र्युत्तराः इंदुर्मृगः अर्को हस्तः मैत्रमनुराधा रोहिणी स्वाती श्रवणधनिष्ठाशततारकासु गर्भाधानं सत् शुभम् । गुरुः ।
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मुहूर्तचिंतामणी
हरिहस्तानुराधाश्च स्वाती वारुणवासवम् । उत्तरात्रितयं सौम्यं रोहिणी च शुभाः स्मृताः ॥ आधा मूलसापत्यमशुभं सममन्यभमिति ॥ ६ ॥ अथ गर्भाधाने लग्नमिंद्रवज्जयाह
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केंद्रत्रिकोणेषु शुभैश्च पापैख्यायारिगैः पुंग्रहदृष्टलग्ने ॥ ओजांशs जेsपि चयुग्मरात्रौ चित्रादितीज्याविषु मध्यमं स्यात् ७ केंद्रेति ॥ शुभैः केंद्रत्रिकोणेषु सद्भिः पापग्रहैरुयायारिगैः सद्भिः पुंग्रहैः रविभौमगुटेलने सति तथाऽब्जे चंद्रे ओजांशगे विषमराशीनां नवांशगे सति अपिशब्दाछनेऽपि विषमांशगे युग्मरात्रौ समरात्रौ गर्भाधानं कार्यम् । मध्यमभान्याह । चित्रादितीज्याश्विषु तद्गर्भाधानं मध्यमं स्यात् । गुरुः । चित्रादित्ये तथातिष्यतुरगौ चेति मध्यमाः । शेषाण्यृक्षाणि दुष्टानि स्युर्निषेकाख्यकर्मणीति । एवं गर्भाधानं विधाय पुंसा किं कार्यमित्याह । विष्णुः । निद्रासमयमासाद्य तांबूलं वदनात्त्यजेत् । पर्यकात्प्रमदां भालात्पुंडूं पुष्पाणि मस्तकात् ॥ इति गर्भाधानम् ॥ ७ ॥ .
अथ सीमंतोन्नयनं शार्दूलविक्रीडितेनाह
जीवाकरदिने मृगेज्य निर्ऋतिश्रोत्रादितिव्रनभै रिक्तामार्करसाष्टवर्ण्यतिथिभिर्मासाधिपे पीवरे ॥ सीमंतोऽष्टमषष्ठमासि शुभदैः केंद्र त्रिकोणे खलैभारित्रिषु वा ध्रुवत्यसदहे लग्ने च पुंभांशके ॥ ८ ॥
जीवार्केति ॥ गुरुरविभौमवारे निऋतिर्मूलं ब्रनभं हस्तः एतैर्नक्षत्रैः रिक्ता ४, ९, १४ अमा ३० अर्को १२ रसाः ६ अष्ट अष्टमी आभिर्वर्ण्यतिथिभिः उपलक्षिते दिने मासाधिपे पीवरे पुष्टे सतीत्यर्थः । एतादृशसमये अष्टमषष्ठमासि अष्टममासे षष्ठमासे वा सीमंतः सीमंतकर्माख्यो गर्भसंस्कारः कार्यः । तत्र शुभग्रहैः केंद्र त्रिकोणे सद्भिः खलैः पापैः लाभारित्रिषु सद्भिः पुंभांशके लग्ने पुरुषराशौ विषमराशौ लग्ने नवांशे च विषमराशौ सति तदा सीमंतः शुभः । अत्र विशेषमाह कश्यपः । चंद्रोऽपि शुभदो ज्ञेयस्त्यक्त्वा षष्ठाष्टमव्ययान् । सीमंतलग्नादेकोऽपि क्रूरः पंचाष्टरिःफगः ॥ हंति सीमंतिनीं सोऽपि तद्गर्भं वा न संशयः । न नैधने तयोर्लने नैधने शुद्धिसंयुते ॥ तयोः स्त्रीपुंसयोः । अस्यापवादः । लग्नादष्टमराशीशः केंद्रगः शुभवीक्षितः । यद्यप्यष्टमभस्योक्तं दोषमाशु व्यपोहति । गर्गः । सीमंतोन्नयनं कार्यं शुभांशे शुभलगे । कुलीररकन्याश्च वर्ज्याः शेषाश्च शोभना इति । अत्र ग्रहबले सति कुलीरमिथुनकन्या अपि ग्राह्या इति ज्ञेयम् । अतएव मूले 'लग्नविचारो न कृतः । कारिकायाम् । पुन्नक्षत्राणि चैतानि तिप्यो हस्तः पुनर्वसुः । अभिजित्प्रोष्ठपाञ्चैव
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संस्कारप्रकरणम् । अनुराधाश्वियुक् तथा । ऋक्षस्य मध्यमे पादे द्वये सीमंत इष्यते इत्युक्तम् । अथ मतांतरं वा ध्रुवांत्यसदहे ध्रुवाणि रोहिण्युत्तरात्रयम् अंत्यं रेवती एषु तथा सतां शुभग्रहाणां चंद्रज्ञगुरुशुक्राणां वारे वा कार्यम् । गुरुः । रोहिण्येंदवमादित्यं पुष्यहस्तोत्तरात्रयम् । पौष्णं वैष्णवभं चैव सीमंतादिषु संमतमिति ॥ श्रीधरः । सौम्यानां वारवर्गाः स्युः सीमंतादिषु शोभना इति । जन्मभं सीमंते निषिहमाह वसिष्ठः । बालान्नभुक्तौ व्रतबंधने च राजाभिषेके खलु जन्मधिष्ण्यम् । शुभं त्वनिष्टं सततं विवाहसीमंतयात्रादिषु मंगलेषु । गुरुः । मासप्रयुक्तकायेषु मूढत्वं गुरुशुक्रयोः । न दोषकन्मलो मासो गुर्वादित्यादिकं तथा ॥ यद्यपि पुंसवनस्य प्रथमकर्तव्यत्वात्तस्य पूर्व निरूपणमावश्यकं तथापि क्वचित् सीमंतेन सहैव विधानात् बहुषु देशेषु तथैवाचारदर्शनात् सीमंतमुहूर्त एव प्रथममुक्तः । नृसिंहः । सीमंतोन्नयनस्योक्ततिथिवारभराशिषु । पुंसवं कारयेद्विद्वान्सहैवैकदिनेऽथवेति ॥ ८ ॥ अथ मासेश्वरान् स्त्रीणां चंद्रबलं च वसंततिलकयाह
मासेश्वराः सितकुजेज्यरवींदुसौरिचंद्रात्मजास्तनुपचंद्रदिवाकराः स्युः॥ स्त्रीणां विधोबलमुशंति विवाहगर्भ
संस्कारयोरितरकर्मसु भर्तुरेव ॥ ९॥ मासेश्वरा इति ॥ अष्टममासतनुपः आधानलग्नाधिपः स्त्रीणामिति विवाहे गर्भसंस्कारे गर्भाधानपुंसवनसीमंतादिरूपे स्त्रीणामपि चंद्रबलं ग्राह्यम् । इतरकर्मसु वस्त्रालंकारादिधारणादिषु भर्तुरेव चंद्रबलं ग्राह्यम् । यदा भर्ता मृतस्तदा पुनः स्त्रीणामेव । राजमार्तडः । विवाहकार्य कुसुमप्रतिष्ठागर्भप्रतिष्ठावनिताविशुद्धौ । अन्यानि कार्याणि धवस्य शुद्धौ पत्यौ विहीने प्रमदात्मशुद्धया ॥९॥
अथ येषां पृथगेव पुंसवनमित्याचारस्तदर्थं पुंसवनमुहूर्त विष्णुपूजामुहूर्तं चंद्रवज्रयाहपूर्वोदितः पुंसवनं विधेयं मासे तृतीये त्वथ विष्णुपूजा ॥ मासेऽष्टमे विष्णुविधातृजीवैर्लग्ने शुभे मृत्युगृहे च शुद्धे ॥ १० ॥
पूर्वोदितैरिति ॥ पूर्वोदितैः सीमंतकर्मण्युदितस्तिथ्यादिभिरुपलक्षिते तृतीये मासि पंसवनाख्यं कर्म विधेयम् । पुमान् सूयतेऽनेन कर्मणेति पुंसवनं कर्मणा पुंस्त्वहेतुना । अथेति । सीमंतानंतरमष्टमे मासि विष्णुविधातृजीवैः श्रवणरोहिणीपुष्यैरुपलक्षितदिने तथा लग्ने शुभे शुभखामिके शुभयुते दृष्टे वा मृत्युगृहे अष्टमस्थाने शुद्धे सर्वग्रहरहिते च सति विष्णुपूजा कार्या ॥ १० ॥
अथ जातकर्मनामकरणयोर्मुहूर्तमुपजात्याह
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' मुहूर्तचिंतामणौ तज्जातकर्मादि शिशोविधेयं पर्वाख्यरिक्तोनतिथौ शुभेऽह्नि ॥ एकादशे द्वादशकेऽपि घस्ने मृदुध्रुवक्षिप्रचरोदुषु स्यात् ॥ ११ ॥
तज्जातकर्मादीति ॥ जातकर्म यद्यपि जन्मनोऽनंतरमेव विहितं तथापि संक्रांतिव्यतीपातादिदष्टदिवसतया पित्राद्यसन्निधाने च तन्न कृतं तदा मुहूर्तविचारेण कार्यम् । गर्गः । व्यतीपाते च संक्रांतौ ग्रहणे वैधृतावपि । श्राद्धं विना शुभं कर्म प्राप्तकालेऽपि नाचरेदिति ॥ अत एव कालविकल्प उक्तो नारदेन । तस्मिन् जन्ममुहूर्ते तु सूतकांते तथा शिशोः । जातकर्म च कर्तव्यं पितृपूजनपूर्वकमिति ॥ अत एव जातकर्मादीनि शिशोर्जातकर्म आदिशब्दान्नामकर्मोच्यते । पर्वाणि चतुर्दश्यष्टमीकृष्णेत्यादिपूर्वोक्तानि तैः रिक्ताभिश्च उनतिथौ वर्जिततिथौ शुभेऽह्नि शुभवारे तथा एकादशे द्वादशे वा घस्ने दिवसे तथा मृदुध्रुवक्षिप्रचरनक्षत्रेषु तदतिक्रांतं जातकर्मादि विधेयं कर्तव्यं स्यात् । तच्च श्रवणानंतरं सचैल स्नान कृत्वा कार्यम् । वसिष्ठः । श्रुत्वा जातं पिता पुत्रं सचैलं स्नानमाचरेत् । उत्तराभिमुखो भूत्वा नद्यां वा देवखातके ॥ तच्च शीतोदकेन । कुर्यान्नैमित्तिक स्नानं शीताभिः काम्यमेव चेति । रात्रावपि कार्यम् । वसिष्ठः । पुत्रजन्मनि यज्ञे च तथा संक्रमणे रवेः । राहोश्च दर्शने स्नानं प्रशस्तं नान्यथा निशीति ॥ सूतके तु समुत्पन्ने पुत्रजन्म यदा भवेत् । कर्तुस्ताकालिकी शुद्धिः पूर्वाशौचेन शुद्ध्यति ॥ रात्रौ जलाशये गमनाशक्तो सांख्यायनः । दिवा यदाहृतं तोयं कृत्वा स्वर्णयुतं तु तत् । रात्रिस्नाने तु संप्राप्ते स्नायादनलसन्निधाविति ॥ जातकर्मप्रयोजनमाह गुरुः । जातकर्मक्रियां कुर्यात्पुत्रायुःश्रीविऋद्धये । ग्रहदोषविनाशाय सूतकाशुभविच्छिदे ॥ कुमारग्रहनाशाय पुंसां सत्वविवृद्धय इति ॥ वसिष्ठः । एकादशेऽह्नि विप्राणां क्षत्रियाणां त्रयोदशे। वैश्यानां षोडशे नाम मासांते शूद्रजन्मन इति । वसिष्ठेन मासनामान्युक्तानि । चैत्रादिमासनामानि वैकुंठोऽथ जनार्दनः । उपेंद्रो यज्ञपुरुषो वासुदेवस्त्रिविक्रमः॥ योगीशः पुंडरीकाक्षः कृष्णोऽनंतो ऽच्युतस्तथा । चक्रधारीति चैतानि क्रमादाहुर्मनीषिण इति ॥ ११॥ अथ सूतिकास्नानमुहूर्तं वसंततिलकयाह
पौष्णधुवेंदुकरवातहयेषु सूतीस्नानं समित्रभरवीज्यकुजेषु शस्तम् ॥ ना त्रयश्रुतिमघांतकमिश्रमूल
त्वाष्ट्रे ज्ञसौरिवसुषविरिक्ततिथ्याम् ॥ १२ ॥ पौष्णेति ॥ हयोऽश्विनी एषु रेवत्यादिनक्षत्रेषु समित्रभरवीज्यकुजेषु अनुराधानक्षत्रसूर्यगुरुभौमवारसहितेषु सूत्याः प्रसूतायाः स्त्रियाः स्नानं शस्तम् । आात्रयश्रवणमघाभरणीमिश्रमूलचित्रासु न शस्तम् । बुधवारे शनिवारे वसुरष्टमी पट् षष्ठी रविादशी
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संस्कारप्रकरणम् ।
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रिक्ताश्चासु तिथिषु च न शस्तम् । स्तन्यपानमुहूर्तं दैवज्ञवल्लभे । रिक्तां भौमं परित्यज्य विष्टि पातं सवैधृतिम् । मृदुध्रुवक्षिप्रभेषु स्तनपानं हितं शिशोरिति ॥ १२ ॥ अथ प्रसंगात्प्रथमादिमासोत्पन्नदंतफलं शार्दूलविक्रीडितेनाह
मासे चेत्प्रथमे भवेत्सदशनो बालो विनश्येत्स्वयं हन्यात्सकमतोऽनुजात भगिनीमात्रग्रजान् यादिके ॥ tarai लभते हि भोगमतुलं तातात्मुखं पुष्टतां लक्ष्मी सौख्यमथो जनौ सदशनो वोर्ध्वं स्वपित्रादिहा ॥ १३ ॥ मासे चेदिति ॥ बालश्वेज्जन्मानंतरं प्रथमे मासे सदशनो दंतयुक्तो भवेत् । तदा स्वयं बालो नश्येत् । ततो द्व्यादिके द्वितीयादिमासे अनुजातभगिनीमात्रग्रजान् क्रमाद्धंति । द्वितीये मासि यदि दंतोत्पत्तिस्तदाऽनुजातं कनिष्ठभ्रातरं हंति । एवं तृतीये भगिनीं चतुर्थे मातरं पंचमे ज्येष्ठभ्रातरं षष्ठादिमासेषु अतुलं भोगं लभते सप्तमे तातात् पितुः सुखम् अष्टमे पुष्टताम् नवमे लक्ष्मीम् दशमे सौख्यम् अग्रेऽपि सुखाधिक्यमेव । अथो इति । अथो नौ जन्मकाल एव सदशनः दंतयुक्तः स्वपित्रादिहा स्वमात्मानं पितरं च आदिशब्दामातरमपि नाशयतीति स्वपित्रादिहा । वोर्ध्वमिति । वा अथवा ऊर्ध्वं ऊर्ध्वपंक्तौ जन्मानंतरमविहिते निषिद्धेऽपि वा काले सदनशनश्चेत्स्यात् तदापि स्वपित्रादिहा आत्मपितृमातृनाशक इति । उक्तं च विष्णुधर्मोत्तरे । उपरि प्रथमं यस्य जायंते च शिशोर्द्विजाः । तैर्वा सह च यस्य स्याज्जन्म भार्गवसत्तम ॥ मातरं पितरं चाथ स्वदेहात्मानमेव चेति । तत्रैव शांतिरपि । गजष्टष्ठगतं बालं नौस्थं वा स्नापयेद्विजः । तदभावे तु धर्मज्ञ कांचने तु वरासने ॥ सर्वौषधैः सर्वगंधैर्बीजैः पुष्पैः फलैस्तथा । पंचगव्येन रत्नैश्च मृत्तिकाभिश्च भार्गव ॥ स्थालीपाकेन धातारं पूजयेत्तदनंतरम् । सप्ताहं चात्र कर्तव्यं तथा ब्राह्मणभोजनम् ॥ अष्टमेऽहनि विप्राणां तथा देया च दक्षिणा | कांचनं रजतं गाव भुवं वासनमेव चेति ॥ १३ ॥ अथ दोलाचक्रमनुष्टुभाह
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दोलारोहेऽर्कभात्पंच शरपंचेषु सप्तभैः ॥
teri मरणं कायं व्याधिः सौख्यं क्रमाच्छिशोः ॥ १४ ॥ दोलेति ॥ तत्र बालस्य दोलायां रोहे दोलायां स्थापने अर्कभात् सूर्याक्रांतनक्षत्रात् पंच नक्षत्रैर्नैरुज्यं नीरोगता । तदग्रिमपंचनक्षत्रैर्मरणम् । तदग्रिमपंचनक्षत्रैर्देहे कार्यं कृशत्वं स्यात् । तदग्रिमैरिषुभिः पंचनक्षत्रैर्व्याधिः रोगः । ततः सप्त नक्षत्रैः सौख्यम् । शिशोरेवेदं फलं संस्कार्यत्वात् । उक्तं च । सूर्यभाच्चंद्रभं यावत् पंचपंच चतुर्दिशम् । मध्ये प् देयानि दोलिकाचक्र उत्तमे || पूर्वभागे निरोगत्वं दक्षिणे मरणं ध्रुवम् । पश्चिमे तु कृशो बाल उत्तरे व्याधिसंभवः । शेषेषु सप्त धिष्ण्येषु बालकः शयने सुखी ॥ १४ ॥
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मुहूर्तचिंतामणी
अथ दोलारोहणमुहूर्तं वसंततिलकापूर्वार्धेनोत्तरार्धेन निष्क्रमणमुहूर्तं चाहदंतार्कभूपधृतिदियितवासरे स्था द्वारे शुभे मृदुलघुभैः शिशूनाम् ॥ दोलाधिरूढरथ निष्क्रमणं चतुर्थमासे गमोक्तसमयेऽर्कमितेऽह्नि वा स्यात् ॥ १५ ॥
तार्केति ॥ दंता द्वात्रिंशत् अर्का द्वादश भूपाः षोडश धृतयोऽष्टादश दिशो दश एतन्मितदिवसे तथा शुभवारे मृदुलधुधुवनक्षत्रैरुपलक्षिते बालानां दोलाधिरूढिः दोलायामधिरूढिरारोहः स्यात् अथ चतुर्थमासे गमोक्तसमये यात्राप्रकरणोक्तसमीचीनकाले शिशूनां निष्क्रमणाख्यसंस्कारपूर्वकं गृहाद्बहिर्गमनं स्यात् । वा अथवा अर्कमितेऽह्नि द्वादशदवसे कुर्यात् । गृहान्निष्क्रमणं सूनोश्चतुर्थे मासि कारयेत् । यात्रोक्ते समये मासि तृतीये द्वादशेऽह्नि वेति गुरुवचनात् ॥ १९ ॥
अथ जलपूजामुहूर्तं भुजंगप्रयातेनाह
कवी ज्यास्त चैत्राधिमासे न पौषे जलं पूजयेत्सूतिकामासपूत || वुर्वेदीज्यवारे विरिक्ते तिथौ हि श्रुतीज्या दितींद्वर्क नैऋत्य मैत्रैः ॥ १६ ॥
कवी ज्यास्तेति ॥ शुक्रगुवरिस्ते चैत्रे अधिमासे पौषे माससमाप्तौ सूतिका प्रसूता स्त्री जलं न पूजयेत् । एतव्यतिरिक्तकाले तथा बुधचंद्रगुरुवारे रिक्तावर्जिततिथौ - श्चितं श्रवणपुष्यपुनर्वसुमृगहस्तमूलानुराधा एभिर्नक्षत्रैः सहिते दिने जलं पूजयेत् । अथ क्वचिद्दुग्धपानमुहूर्तः । एकत्रिंशे वासरे वा द्वितीये जन्म वा शुद्धलग्नेऽनुकूले । शंखे क्षीरं सन्निदध्याच्छिशूनां व धात्री पूज्यपूजां विधाय ॥ १६ ॥
अथान्नप्राशनं स्वग्धरयाह
रिक्तानंदाष्टदर्श हरिदिवसमथो सौरिभौमार्कवारान् लग्नं जन्मर्क्षलग्नाष्टमगृहलवगं मीनमेषालिकं च ॥ हित्वा षष्ठात्समे मास्यथ हि मृगदृशां पंचमादोजमा से नक्षत्रैः स्यात्स्थिराख्यैः समृदुलघुचरैर्वालकान्नाशनं सत् १७ रिक्तानंदेति ॥ अथो निष्क्रमणानंतरमेवंविधे काले बालकानामन्नप्राशनं सत् शुभं स्यात् । तत्रैते वर्ज्याः । रिक्तानंदाष्टदर्शाः ४, ९, १४, १, ६, ११, ८, ३० हरिदिवसं द्वादशी एतास्तिथीर्हित्वा उपलक्षणत्वात्तिथिक्षयं च हित्वा शनिभौमरविवारांश्च हित्वा जन्मर्क्षलग्नाष्टमगृहलवगं लग्नं च हित्वा जन्मराशिजन्मलग्ने ताभ्यामष्टमगृहं अष्टमलवोऽष्टमनवांशस्तौ गच्छति प्राप्नोत्येवंविधं लग्नं त्यजेदित्यर्थः । जन्मराशिविलग्नाभ्यां नैधनेंऽशे च वर्ज -
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संस्कारप्रकरणम् ।
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येदिति कश्यपोक्तेः । तथा मीनमेषालिकं च । अलिरृश्चिकः एतानि लग्नानि हित्वा । गोश्वकुंभतुलाकन्यासिंहकर्कनृयुग्मृगाः । शुभदा राशयश्चैते न मेषझषवृश्चिका इति कश्यपोक्तेः षष्ठादिति षष्ठमासमारभ्य सममासे षष्ठाष्टमदशमद्वादशमासेषु बालानामन्नप्राशनं कार्यम् । पुंबालविषयमेतत् । अथानंतरं हि निश्चयेन मृगदृशां कन्यानां पंचमादोजमा से पंचमसप्तमनवमैकादशेषु अन्नप्राशनं सत् । तथा च वसिष्ठः । युग्मेषु मासेषु च षष्ठमासात्संवत्सरे वा नियतं शिशूनाम् । अयुग्ममासेषु च कन्यकानां नवान्नप्राशनमिष्टमेतदिति । अत्रानेककालाभिधानेऽपि स्वगृह्योक्तकालो मुख्यस्तत्र शुक्रास्तादिविचारो नास्ति । इतरेषु गौणकालेषु शुक्रास्तविचार आवश्यक एवेति नक्षत्रैरिति मृदुलघुचरसहितैः स्थिरनक्षत्रैः कुर्यात् ॥ १७॥ लग्नबलं वसंततिलकयाह
केंद्रत्रिकोणसहजेषु शुभैः खशुद्धे लग्ने त्रिलाभरिपुगैश्च वदंति पापैः ॥ लग्नाष्टषष्ठरहितं शशिनं प्रशस्तं मैत्रां पानिलजनुर्भ मसच केचित् ॥ १८ ॥
केंद्रत्रिकोण इति ॥ लग्ने खशुद्धे दशमे शुद्धिसहिते सर्वग्रहरहिते दशमे इत्यर्थः । केंद्रत्रिकोणसहजेषु शुभैः सद्भिः त्रिलाभरिपुगैः पापैरसद्भिः लग्नाष्टषष्ठस्थानरहितं चंद्रं च अन्नप्राशने प्रशस्तं वदंति । नारदः । दशमे शुद्धिसंयुक्ते शुभलमे शुभांशके । शुक्लपक्षे च पूर्वाह्णे सौम्ययुक्तनिरीक्षिते ॥ त्रिषष्टलाभगैः पापैः केंद्रधीधर्मगैः शुभैः । व्यंत्यारिनिधनस्थेन चंद्रेण प्राशनं शुभम् || विशेषमाह गुरुः । शुक्रारज्ञाः क्रमाद्याताः सप्तमाष्टमधर्मगाः । भोज्यभोक्तुर्नवत्वे तु सर्वदा मरणप्रदा इति । भोज्यमन्नं गोधूमादि तस्य नवत्वेन भक्षणीयत्वे सति भोक्तुरन्नप्राशनकर्तुर्बालस्य नवत्वे सति वा शुक्रः सप्तमः भौमोऽष्टमः बुधो नवमः एते ग्रहाः मरणप्रदा इत्यर्थः । मैत्रेति । अनुराधाशततारका स्वातीजन्मनक्षत्राणि केचित् असद्वदंति । श्रीपतिना अनुक्तत्वादिति भावः । जन्मनक्षत्रनिषेधो गुरुणोक्तः । जन्मर्क्षे कर्मनक्षत्रे आधानर्क्षे च वर्जयेत् । कर्णवेधं तथा मानं क्षुरकर्मान्नभोजनमिति ॥ तत्रान्नस्य भोजनमन्नभोजनमिति व्युत्पत्त्या वार्षिकनवान्न भोजनविषयमेतत् न पुन - बलान्नप्राशनपरम् । तत्र नारदेनातिप्राशस्त्याभिधानात् । तथा च नारदः । पटबंधनचौलान्नप्राशने चोपनायने । शुभदं जन्मनक्षत्रमशुभं त्वन्यकर्मणीति ॥ १८
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अथ ग्रहाणां स्थानवशात्फलान्यनुष्टुब्द्वयेनाह
क्षीणेंदुपूर्णचंद्रे ज्यज्ञभौमार्कार्कि भार्गवः ॥ त्रिकोणव्यय केंद्राष्टस्थितैरुक्तं फलं ग्रहैः ।। १९ ॥
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मुहूर्तचिंतामणौ शिक्षाशी यज्ञकृद्दीर्घजीवी ज्ञानी च पित्तरुक् ॥ - कुष्ठी चान्नक्लेशवातव्याधिमान् भोगभागिति ॥२०॥ क्षीणेंद्विति । भिक्षाशीति ॥ त्रिकोणे ९, ५ व्ययं १२ केंद्राणि दशमरहितानि १, ४, ७ अष्टौ ८ एषु स्थितैः क्षीणेद्वादिभिः अष्टभिभिक्षाशीत्यादिकं फलं यथासंख्येनोक्तं मुनिभिरिति शेषः । यथा एषु स्थानेषु स्थितः क्षीणचंद्रश्चेत्तदान्नप्राशनकृत् बालो भिक्षाशी दरिद्रः स्यात् । पूर्णचंद्रश्चेत्तदा ज्योतिष्टोमादियज्ञकृत गुरुश्चेदीर्घजीवी बुधश्चेत् ज्ञानी भौमश्चेत् पित्तरुक् पित्तकता रुगस्यासौ पित्तरुक् अर्कश्चेत्कुष्ठी आर्किः शनिश्चेदन्नाभावसंबंधी क्लेशोऽन्नक्लेशः वातप्रधानो व्याधिर्वातव्याधिः एतौ विद्यते यस्य सोऽन्नक्लेशवातव्याधिमान् स्यात् राहुकेत्वोरप्येतदेव फलम् । शुक्रश्चेद्भोगभाक् स्यात् । क्षीणचंद्रपूर्णचंद्रयोर्लक्षणमाह वसिष्ठः । संपूर्णेदूभयाष्टम्योर्मध्येदुः पूर्णसंज्ञकः । विनष्टंदूभयाष्टम्योमध्येऽसौ क्षीणसंज्ञक इति ॥ १९ ॥ २० ॥ अथभूम्युपवेशनं वसंततिलकयाह
पृथ्वीं वराहमभिपूज्य कुजे विशुद्धे रिक्ते तिथौ व्रजति पंचममासि बालम् ॥ बध्वा शुभेऽह्नि कठिसूत्रमथ ध्रुवेंदु
ज्येष्ठःमैत्रलघुभैरुपवेशयेत्कौ ॥ २१ ॥ पृथ्वीमिति ॥ कुजे विशुद्धे भौमबले सति रिक्तावर्जिते तिथौ पंचममासि व्रजति लग्ने सति शुभेऽह्नि शुभग्रहवारे तथा ध्रुवमृगे ज्येष्ठानुराधालघुनक्षत्रैरुपलक्षिते काले कटिसूत्रं पट्टसूत्रादिनिर्मितं कटिस्थले बध्वा को पृथिव्यां बालमुपवेशयत् मंत्रपाठपुरःसरं उपवेशनाख्यं संस्कारं कुर्यात् । मंत्राश्च पद्मपुराणे । रक्षेनं वसुधे देवि सदा सर्वगतं शुभे । आयुःप्रमाणसकलं निक्षिपख हरिप्रिये ॥ अचिरादायुषस्तस्य ये केचित्परिपंथिनः । जीवितारोग्यवित्तेषु निर्दहस्वाचिरेण तान् ॥ धारिण्यशेषभूतानां मातस्त्वमधिका ह्यसि । कुमारं पाहि मातस्त्वं ब्रह्मा तदनुमन्यताम् ॥ तस्योपवेशनं कृत्वा भूमौ ब्राह्मणभोजनम् । ततः कृत्वा ततः कुर्यादुत्सवं पूवहिज इति । उत्सवो नीराजनादिः इदं कन्यापुत्रयोः साधारणम् । विशेषाभावात् ॥ इति भूम्युपवेशनम् ॥ २१ ॥
अथ जीविकापरीक्षा भूम्युपवेशनकाल एव शालिन्याहतस्मिन्काले स्थापयेत्तत्पुरस्ताद्वस्त्रं शस्त्रं पुस्तकं लेखनी च ॥ स्वर्ण रौप्यं यच्च गृह्णाति बालस्तैराजीवैस्तस्य वृत्तिःप्रदिष्टा ॥२२॥
तस्मिन्काल इति ॥ स्पष्टार्थम् आजीवैर्जीविकाभिः । आजीवो जीविका वार्ता इत्यभिधानात् ॥ २२ ॥
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संस्कारप्रकरणम् । अथ शिशोस्तांबूलभक्षणमुहूर्त स्रग्धरयाहवारे भौमाकिहीने ध्रुवमृदुलघुभविष्णुमूलादितींद्रस्वातीवस्वभ्युपेतैमिथुनमृगसुताकुंभगोमीनलग्ने ॥ सोम्यैः केंद्रत्रिकोणैरशुभगगनगैः शत्रुलाभत्रिसंस्थैस्तांबूलं सार्धमासद्वयमितसमये प्रोक्तमन्नाशने वा ॥ २३ ॥ वारे भौमाकिहीने इति ॥ भौमशनिवर्जिते वारे श्रवणमूलपुनर्वसुज्येष्ठास्वातीधनिष्ठासहितैः ध्रुवमृदुलघुनक्षत्रैरुपलक्षिते काले मिथुनमकरकन्याकुंभवृषमीनानामन्यतमे लग्ने सौम्यग्रहैः केंद्रत्रिकोणगतैः अशुभगगनगैः पापग्रहैः षष्ठैकादशतृतीयगैः सार्धमासद्वये समये बालकस्य तांबूलदानं प्रोक्तम् । वा अथवा अन्नाशने अन्नप्राशनसमये प्रोक्तम् ॥ २३ ॥ अथ कर्णवेधमुहूर्त स्रग्धरयाहहित्वैतांश्चैत्रपोषावमहरिशयनं जन्ममासं च रिक्तां युग्माब्दं जन्मतारामृतुमुनिवसुभिः संमिते मास्यथो वा ॥ जन्माहात्सूर्यभूपैः परिमितदिवसे ज्ञेज्यशुक्रंदुवारेऽथो
जाब्दे विष्णुयुग्मादितिमृदुलघुभैः कर्णवेधः प्रशस्तः ॥ २४ ॥ हित्वैतानिति ॥ एतान् पदार्थान् हित्वा कर्णवेधः प्रशस्त इत्यन्वयः । हरिशयनं आषाढशुक्लैकादशीमारभ्य कार्तिकशुद्धैकादशीपर्यंतम् । जन्ममासं यस्मिन् चांद्रमासे चैत्रादौ जन्म स जन्ममासः । केचित् । आरभ्य जन्मदिवसं यावत्रिंशद्दिनं भवेत् । जन्ममासः स विज्ञेयो वर्जितः सर्वकर्मसु इति लक्षणलक्षितं वर्जयंति । रिक्ताम् ४, ९, १४ युग्माब्दं समवर्ष द्वितीयचतुर्थादिकम् । जन्मतारां प्रथमदशमैकोनविंशात्मिकां च हित्वा । ऋत्विति ऋतुमुनिवसुभिः संमिते मासि षष्ठसप्तमाष्टममासेषु अथो वा जन्माहात्सूर्यैः द्वादशभिः भूपैः षोडशभिः परिगणिते दिवसे सौरसावने बुधगुरुशुक्रचंद्रवारे ओजाब्दे विषमवर्षे विष्णुयुग्मं श्रवणधनिष्ठे पुनर्वसुम॒नि मृगरेवतीचित्रानुराधाः लघूनि हस्ताश्विपुष्याभिजित एतैर्नक्षत्रैः कर्णवेधः प्रशस्तः ॥ २४ ॥
अथ कर्णवेधे लग्नशुद्धि प्रहर्षिण्याहसंशुद्ध मृतिभवने त्रिकोणकेंद्रन्यायस्थैः शुभखचरैः कवीज्यलग्ने । पापाख्यैररिसहजायगेहसंस्थैर्लमस्थे त्रिदशगुरौ शुभावहः स्यात् २५
संशुद्ध इति ॥ मृतिभवनेऽष्टमस्थाने संशुद्धे सर्वग्रहरहिते सति शुभग्रहैः त्रिकोणकेंद्रत्र्याय ९, ५, १, ४, ७, १०, ३, ११ स्थैः सद्भिः कवीज्यलग्ने शुक्रगुर्वोर्लग्ने वृषतु
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मुहूर्तचिंतामणौ लाधनुर्मीनाख्ये पापाख्यैर्ग्रहैः तृतीयषष्ठैकादशस्थानस्थैः गुरौ लग्नस्थे सति कर्णवेधः शुभावहः शुभजनकः स्यात् । अथाब्दपूर्तिमूहूर्तः प्रसंगात् विधिरत्ने । अब्देन सौरेण शिशोः समांते बालं सुसंस्नाप्य च जन्मधिष्ण्ये । कृत्वायुषो वृद्धिकरं च कर्म तं धारयेद्वस्त्रसुवर्णसूत्रम् ॥ अत्र खंडनक्षत्रे निर्णयमाह । वृद्धगर्गः । उदयव्यापि जन्मक्षं तस्माद्वाह्यं तु जन्मतः । संगवव्यापि खंडः तत्र जन्मकरं शुभम् ॥ दाक्षिणात्यास्तु जन्ममासीयजन्मतिथावन्दपूर्ति कुर्वतीति ॥२५॥ अथ चूडाकर्ममुहूर्त विवक्षुस्तन्निषेधकं प्रसंगतोऽन्यकनिषेधकं च कालं स्रग्धरयाहगीर्वाणांबुप्रतिष्ठापरिणयदहनाधानगेहप्रवेशाचौलं राजाभिषेको व्रतमपि शुभदं नैव याम्यायने स्यात् ॥ नो वा बाल्यास्तवार्धे सुरगुरुसितयोर्नैव केतूदये स्यात्पक्षं वार्धं च केचिज्जहति तमपरे यावदीक्षां तदुग्रे ॥ २६ ॥ गीर्वाणेति ॥ गीर्वाणाः देवाः अंबु जलं जलाशयः तयोः प्रतिष्ठा उत्सर्गः परिणयो विवाहः दहनाधानमन्याधानम् । गेहप्रवेशो गृहप्रवेशः चौलराजाभिषेकौ प्रसिद्धौ व्रतमुपनयनं इदं सर्व याम्यायने दक्षिणायने शुभदं न स्यात् । तथा गुरुशुक्रयो ल्ये अस्ते वार्धक्ये च पूर्वोक्तं न शुभदं स्यात् । अथ केतूदये धूमकेतोरुदयेऽपि पूर्वोक्तं न शुभं स्यात् । चंडेश्वरः । केतोरस्तदिनादूर्ध्व सप्ताहं मंगलं त्यजेत् । यावत्केतूदयस्तावदशुद्धः समयो हि सः ॥ अत्र केचित्केतदये जाते सति पक्षं पंचदश दिनानि जहति वर्जयंति । वराहः। दृष्टः षोडशवासरान्न शुभदः कैश्चित्प्रदिष्टः शिखीति । केचित्तु पक्षांतरे अर्ध पक्षाध सप्त दिनानि केतूदयानंतरं जहति इदमपि तत्रैव । केतूदये सप्तदिनानि चोर्ध्वं विहाय यात्रादिषु गर्हितानि । दिनानि शेषाणि शुभानि नूनं वदंति रैभ्यप्रमुखा मुनींद्राः ॥ तमिति । अपरे आचार्याः तं केतुं यावदीक्षां यावद्दर्शनं यजहति तदुग्रे केतौ द्वित्रिचूडे तामसकीलकादावतिदुष्टफलं द्रष्टव्यम् । तेषां लक्षणमाह गर्गः । त्रिशिखाश्च त्रिताराश्च रक्तलोहितरश्मयः । प्रायशस्तूत्तरामाशां सेवंते नित्यमेव हीति । यत्तु यावदर्शनं केतूदये निषिद्धमित्युक्तं तदुग्रे ब्रह्मपुत्राख्ये केतौ ज्ञेयम् । ज्योतिर्निबंधे । केतोरस्तदिनादूर्ध्वं सप्त रात्राणि वर्जयेत् । ब्रह्मपुत्रोद्गमे वयं व्रतयात्रा च मंगलम् ॥ तल्लक्षणमाह वराहः । ब्रह्मसुत एक एव त्रिशिखो वर्गस्त्रिभिर्युगांत करः । अनियतदिक्संप्रभवो विज्ञेयो ब्रह्मदंडाख्य इति ॥ २६ ॥ अथ शुक्रगुर्वो ल्यवार्धक्ययोर्दिनसंख्यामनुष्टुभाह
पुरः पश्चाट्टगोर्खाल्यं त्रिदशाहं च वार्धकम् ॥ पक्षं पंचदिनं ते द्वे गुरोः पक्षमुदाहृते ॥ २७ ॥
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संस्कारप्रकरणम् ।
९७ पुरः पश्चादिति ॥ भृगोः शुक्रस्य पुरः पूर्वस्यां दिश्युदितस्य पश्चिमदिश्युदितस्य च यथासंख्यं त्रिदशाहं बालत्वं स्यात् । पूर्वस्यां त्रिदिनं पश्चाद्दशदिनमित्यर्थः । च पुनः भृगोर्वार्धकं पूर्वस्यामस्ते पक्षं पंचदश दिनानि पश्चादस्ते पंच दिनानि। गुरोस्ते द्वे बाल्यवार्धके पक्षं पंचदश दिनानि उदाहृते कथिते ॥ २७॥ . अथापरमतेन बाल्यवार्धकं चानुष्टुभाहते दशाहं द्वयोः प्रोक्ते कैश्चित्सप्तदिनं परैः॥
व्यहं त्वात्ययिकेऽप्यन्यैरर्धाहं च व्यहं विधोः ॥२८॥ ते दशाहमिति ॥ दिडियमं त्यत्का द्वयोर्गुरुशुक्रयोः ते बाल्यवार्धके दशाहं दशदिनं प्रोक्त कैश्चित् । अपरैस्तु सप्तदिनं बाल्यवार्धके प्रोक्त अन्यैरूयहं त्रिदिवसं ते बाल्यवार्धके प्रोक्ते परंतु आत्ययिके कार्यस्यावश्यंभावोऽत्ययः स प्रयोजनमस्येति आत्ययिक तस्मिन् लग्नांतराभावे सति अतिकालस्य बटोः अवश्यदेयायाः कन्याया वा यथासंभवं दश सप्त त्रिदिनानि वया॑नि नान्यथेत्यर्थः । अथ देशभेदेन वा व्यवस्था । गर्गः । शुक्रो गुरुः प्राक् परतश्च बालो विध्ये दशावतिषु सप्तरात्रम् । वंगेषु हूणेषु च षट् च पंच शेषे तु देशे त्रिदिनं वदंति । चंद्रस्य विशेषमाह । अर्धाहमिति । विधोस्ते बाल्यवार्धके क्रमेणार्धाहं त्र्यहं च भवतः । बाल्यमर्धदिनं वार्धकं त्रिदिनं चंद्रस्येत्यर्थः । उक्तं च वसिष्ठेन । वृद्धत्वमिंदोस्त्रिदिनं दिनाधू बालत्वमस्तत्वमहईयं च । येनोक्तमेकं दिवसं शिशुत्वमित्येतदिंदोस्तदयुक्तमेवेति । कश्यपेन बालोऽपीदुः शुभ एवोक्तः। वृद्धचंद्रः स्त्रियं हंति पति हत्यस्तमागतः। यतस्त्वमृतरश्मित्वाद्वालोऽपि शुभदः शशीति । अत एव संपूर्णायामपि शुक्लप्रतिपदि द्वितीयादिने द्वितीयायां प्रातर्यज्ञोपवीतादिकं शिष्टाः कुवैति ॥ २८ ॥ अथ चौलमुहूर्त स्त्रग्धरारथोद्धताभ्यामाह
चूडावर्षात्तृतीयात्प्रभवति विषमेऽष्टार्करिक्ताद्यषष्ठीपर्वोनाहे विचैत्रोदगयनसमये जेंदुशुक्रेज्यकानाम् ॥ वारे लग्नाशयोश्चास्वभनिधनतनौ नैधने शुद्धियुक्ते
शाक्रोपेतैर्विमैत्रैर्मृदुचरलघुभैरायषत्रिस्थपापैः ॥२९॥ क्षीणचंद्रकुजसौरिभास्करैर्मृत्युशस्त्रमृतिपंगुताज्वराः॥ स्युः क्रमेण बुधजीवभार्गवैः केंद्रगैश्च शुभमिष्टतारया ॥३०॥
चूडावर्षादिति । क्षीणचंद्रेति ॥ तृतीयाद्वर्षादिति ल्यब्लोपे पंचमी । तेन गर्भाधानकालाजन्मकालाहा तृतीये वर्षे पंचमे वा चूडाकरणं प्रभवति कृतं शुभोदकं भवतीत्यर्थः। तृतीयेऽब्दे शिशोर्गर्भाजन्मतो वा विशेषतः । पंचमे सप्तमे वापि स्त्रियाः पुंसोऽपि वा सममिति । मनुना प्रथमे वर्षेऽप्युक्तम् । चूडाकर्म द्विजातीनां सर्वेषामेव धर्मतः । प्रथमेऽब्दे
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मुहूर्तचिंतामणी
तृतीये वा कर्तव्यं श्रुतिचोदनादिति । अत्र बहुकालोक्तौ यथागृह्यं व्यवस्था । स्वगृह्ये विशेषकालानुक्तौ तु समबलत्वात्सर्वेषां विकल्पः । अष्टमी अर्को द्वादशी रिक्ताः आद्या प्रतिपत् षष्ठी पर्वाणि पूर्वोक्तानि चतुर्दश्यष्टमीत्यादीनि एतैरूने रहितेऽह्नि गुरुणा गलग्रहोऽपि निषिद्धः । विद्यारंभव्रतोद्देशक्षौरं चैव विशेषतः । गलग्रहे न कर्तव्यं यदीच्छेत्पुत्रजीवितमिति । विचैत्र इति चैत्ररहिते उत्तरायणे चूडा स्यात् । शुभाशुभप्रकरणोक्तो जन्ममासनिषेधोऽत्रापि ध्येयः । तथा ज्ञेदुशुक्रेज्यकानां वारे लग्नांशयोश्चेति । सौम्यग्रहाणां वारे सौम्यग्रहाणां लग्ने तेषामेव नवांशे चूडा स्यात् । पापग्रहाणां वारेऽपि विप्राणां तु शुभो रविः । क्षत्रियाणां तु भूसूनुर्विट्शूद्राणां शनिः शुभ इति प्रयोगपारिजातोक्तेः । तथा स्वभनिधनतनौ भं लग्नं राशिश्व स्वस्य मे स्वभे स्वभाभ्यां निधनं अष्टमं लनं तन्न विद्यते यस्मिंस्तनौ स्वजन्मलग्नजन्मराशिभ्यामष्टमलनरहिते लग्ने चूडा स्यात् । तथा नैधने अष्टमस्थाने शुद्धियुक्ते शुक्रव्यतिरिक्तसर्वग्रहरहिते लग्ने चूडा स्यात् । अष्टमस्था ग्रहाः सर्वे नेष्टाः शुक्रविवर्जिताः । शुक्रस्तु निधने चौले सर्वसंपत्करः शिशोरिति पराशरोक्तेः । ज्येष्ठायुक्तैरनूराधारहितैर्मृदुचरलघुभैर्द्वादशनक्षत्रैरुपलक्षिते काले चूडा स्यात् । अथ लग्नबलम् एकादशषष्ठतृतीयस्थानस्थैः पापग्रहैरसद्भिः तथा क्षीणचंद्रभौमशनिसूर्यैः केद्रगतैः क्रमेण यथासंख्यं मृत्युः शस्त्रान्मृतिः पंगुता खंजत्वम् ज्वरः एतानि फलानि स्युः बुधजीवभार्गवैस्तु केंद्रस्थैः शुभं कल्याणं स्यात् । वसिष्ठेन लग्नादिविषये विशेष उक्तः । मेषे दुःखी मृगेंद्रे च वृश्चिके व्यसनं भवेत् । राजा बौधे च धनुषि शुभयुक्ते न दुष्यति ॥ विषशस्त्र जलैर्घोरैः पीड्यते मरणान्वितः । क्षौरे मृत्युर्घटे लग्ने शुभयुक्तेऽपि सक्षतः || जामित्रे भास्करे क्षौरे मृत्युः स्याद्भूमिजे तथा । शुक्रे सौख्यविनाशः स्यान्मंदभाग्यं शनैश्वरे इति । नक्षत्रेषु विशेषमाह गुरुः । हस्ताश्विविष्णुपौष्णानि श्रविष्ठादित्यपुष्यभम् । सौम्यचित्रे तथा क्षौरे उत्तमा नव तारकाः । त्रीण्युत्तराणि वायव्यं रोहिणी वारुणं तथा ॥ क्षौरे षण्मध्यमाः प्रोक्ताः शेषा द्वादश गर्हिता इति । क्षौरादिषु जन्मलग्नं शुभमाह भृगुः । कृषिः प्रयाणं क्षौरं च विवाहः प्राशनं तथा । शिशोर्वस्त्रं च पानं च जन्मराशौ शुभं भवेत् || जन्मलग्ने शुभं क्षौरं मध्ये वर्ज्यं व्ययेऽष्टम इति । गर्गस्तु । आत्मराश्युदये षष्ठे द्वादशे निधने तथा । शत्रुक्षेत्रे च नीचे च क्षौरं नैव प्रशस्यते || जन्मलग्नं सति संभवे वर्ज्यमित्यनयोर्व्यवस्था । च पुनरिष्टतारया गोचरप्रकरणोक्तया शुभफलदया तारया चूडा स्यात् । केशवमानर्तपुरं पाटलिपुत्रं पुरीमहिच्छत्रम् । दितिमदितिं च स्मरतां क्षौरविधौ भवति कल्याणमिति ॥ २९ ॥ ३० ॥ अथ सगर्भायां संस्कार्यमातरि विशेषमनुष्टुभाह
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पंचमासाधिके मातुर्गर्भे चौलं शिशोर्न सत् ॥ पंचवर्षाधिकस्येष्टं गर्भिण्यामपि मातरि ॥ ३१ ॥
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संस्कारप्रकरणम् । पंचमासाधिक इति ॥ संस्कार्यमातुर्गर्भे पंचमासेभ्योऽधिके सति चौलं शुभं न स्यात् पंचमासेभ्यः पूर्व चौलं शुभमित्यर्थः । गर्भ मातुः कुमारस्य न कुर्याच्चौलकर्म च । पंचमासादधः कुर्यादत ऊर्वं न कारयेदिति वसिष्ठोक्तेः । अस्यापवादमाह । पंचवर्षाधिकस्येति । उल्लंघितपंचवर्षस्य शिशोर्मातरि गर्भिण्यामपि सत्यां पंचमासादूर्ध्वमपि चौलमिष्टम् । नारदः । सूनोर्मातरि गर्भिण्यां चूडाकर्म न कारयेत् । पंचमाब्दात्प्रागथोवं गर्भिण्यामपि कारयेत् ।। सहोपनीत्या कुर्याच्चेत्तदा दोषो न विद्यत इति । अत्र तु पंचवर्षाणां न्यूनाधिकभावो नापेक्षितः सर्वापवादकत्वात् ॥ ३१॥ ___ अथ चौले ताराबलमावश्यकमित्युक्तं तत्र दुष्टतारापवादं शालिन्याहतारादौष्टयेऽब्जे त्रिकोणोचगे वा क्षौरं सत्स्यात्सौम्यमित्रस्ववर्गे ॥ सौम्ये भेऽब्जे शोभने दुष्टतारा शस्ता ज्ञेया क्षौरयात्रादिकृत्ये ३२ __ तारादौष्टये इति ॥ दुष्टतारायामपि सत्यां अब्जे चंद्रे त्रिकोणोच्चगे त्रिकोणगे उच्चगे वा सति क्षौरं सत् शुभं स्यात् । वा अथवा सौम्यमित्रस्ववर्गे सौम्यानां बुधगुरुशुक्राणां षड्वर्गे चंद्रे सति अथवा स्वस्यैव षड्दर्गे सति क्षौरं सत्स्यात् । सौम्य इति । सौम्ये भे शुभग्रहराशौ चंद्रे सति स्वस्य गोचरेण शोभने सति दुष्टतारापि क्षौरयात्रादिकृत्ये शोभना समीचीना ज्ञेया ॥ ३२ ॥ अथ विशेषमनुष्टुभाहऋतुमत्याः सूतिकायाः सूनोश्चौलादि नाचरेत् ॥
ज्येष्ठापत्यस्य न ज्येष्ठे कैश्चिन्मार्गेऽपि नेष्यते ॥ ३३ ॥ ऋतुमत्या इति ॥ ऋतुमत्या रजस्वलायाः तथा सूतिकाया जातापत्यायाश्च सूनोचौलोपनयनविवाहादिकृत्यं बालस्य बालिकायाश्च वा नाचरेन कुर्यात् । उक्तं च प्रचेतसा । यस्य मांगलिकं कृत्यं तस्य माता रजस्वला । तदा स मृत्युमाप्नोति पंचमं दिवसं विनेति । विवाहोत्सवकार्येषु माता चैव रजस्वला । वैधव्यं जायते तत्र नृनार्योः पाणिपीडन इति । ज्येष्ठापत्यस्याद्यगर्भसुतस्य कन्याया वा शुभकृत्यं चौलादिकं ज्येष्ठे मासि न भवति । कैश्चिदिति मार्गशीर्षेऽपि कैश्चिदाचार्येराद्यगर्भसुतकन्ययोर्मंगलकृत्यं नेष्यते । भरद्वाजः । मार्गशीर्षे तथा ज्येष्ठे क्षौरं परिणयं व्रतम् । आद्यगर्भदुहितोश्च यत्नेन परिवर्जयेदिति॥३३॥ अथ सामान्यतः क्षौरमुहूर्त तन्निषिद्धं कालं च शार्दूलविक्रीडितेनाहदंतक्षौरनखक्रियात्र विहिता चौलोदिते वारों पातंग्याररवीन्विहाय नवमं घस्रं च संध्यां तथा ॥ रिक्त पर्व निशां निरासनरणग्रामप्रयाणोद्यतस्नाताभ्यक्तकृताशनैहि पुनः कार्या हितप्रेप्मुभिः ॥ ३४॥
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मुहूर्तचिंतामण
दंतक्षौरेति ॥ चौलोदिते वारे नक्षत्रे दंतक्रिया घर्षणादिका क्षौरक्रिया नखक्रिया विहिता उक्ता । निषिद्धकालमाह । पातंगीति | पतंगस्य सूर्यस्यापत्यं पातंगिः शनिः भौमरवी तेषां वारान् त्यक्त्वा नवमं घस्त्रं यद्दिने क्षौरं कृतं ततो नवमदिने पुनः क्षौरं न कार्यम् । तथा संध्यां प्रातःसायंकालौ विहाय तथा रिक्ताम् पर्वाणि पूर्वोक्तानि निशां रात्रिं च विहाय । अथाधिकारिणो निरूप्यते । हितप्रेप्सुभिः स्वाभमिच्छद्भिः एतादृशैर्हि निश्चयेन क्षौरक्रिया न कार्या । कैर्निरासनैः आसनरहितैः रणः संग्रामः ग्रामप्रयाणमर्थयात्रा एतदर्थमुद्यतैः कृतोद्योगैः स्नातैः कृतस्नानैः अभ्यक्तैः कृततैलाभ्यंगैः कृताशनैः कृतभोजनैः सुवर्णाद्यलंकारभूषितैरित्यपि ध्येयम् ॥ ३४ ॥
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अथ मंजुभाषिण्याविशेषमाहऋतुपाणिपीडमृतिबंधमोक्षणे क्षुरकर्म च द्विजनृपाज्ञया चरेत् ॥ शववाहतीर्थगमसिंधुमज्जनक्षुरमाचरेन्न खलु गर्भिणीपतिः ॥ ३५ ॥
ऋतुपाणिपीडेति ॥ क्रतौ यज्ञे तथा पाणिपीडो विवाहस्तत्र श्मश्रुकर्मादौ मृतौं मातापित्रोर्मरणे बंधमोक्षणे कारागृहे बद्धस्य मोक्षणे द्विजाज्ञया ब्राह्मणाज्ञया राजाज्ञया च दुष्टेऽपि वारनक्षत्रादौ क्षौरं चरेत् कुर्यात् । अन्यच्च । गंगायां भास्करक्षेत्रे मातापित्रोर्मृतेऽहनि । आधाने सोमपाने च षट्सु क्षौरं विधीयते ॥ अन्यच्च | राजकार्यनियुक्तानां नटानां रूपजीविनाम् । श्मश्रुरोमनखच्छेदे नास्ति कालविशोधनमिति । अथ शवेति गर्भिणी गर्भवती तस्याः भर्ता शववाहं मृतकवहनम् तीर्थगमं तीर्थयात्राम् उपलक्षणत्वाद्विदेशगमनमपि सिंधुमज्जनं समुद्रस्नानम् क्षुरं क्षुरकर्म एतानि कर्माणि नाचरेत् न कुर्यात् । उक्तं च । सिंधुस्नानं द्रुमच्छेदं वपनं प्रेतवाहनम् । विदेशगमनं चैव न कुर्याद्गर्भिणीपतिः ॥ राजा योगी पुरंध्री च मातापित्रोस्तु जीवतोः । मुंडनं सर्वतीर्थेषु न कुर्याद्गर्भिणीपतिः । नारदः । वपनं मैथुनं तीर्थं वर्जयेद्गर्भिणीपतिः । श्राद्धं च सप्तमान्मासादूर्ध्वं नान्यत्र वेदवित् ॥ ३५ ॥ अथ राज्ञां क्षौरे विशेषं सर्वथा वर्ज्यनक्षत्राणि च भुजंगप्रयातेनाहनृपाणां हितं क्षौरभे श्मश्रुकर्म दिने पंचमे पंचमेऽस्योदये वा ॥ षडग्निस्त्रिमैत्रोऽष्टकः पंचपित्र्यो
न्दतोऽब्ध्यर्यमा क्षौरकृन्मृत्युमेति ॥ २६ ॥
नृपाणामिति ॥ नृपाणां पंचमे पंचमे दिने क्षौरनक्षत्रे श्मश्रुकर्म हितं स्यात् । पंचमे दिने यदि क्षौरनक्षत्राभावस्तदर्थमाह । अस्योदये वेति अथवाऽस्य क्षौरभस्य उदये श्मश्रुकर्म कार्यम् उदयशब्देन तन्नक्षत्रस्य स्वामिनो मुहूर्तः । तथा च गर्गः । क्षौरकर्ममहीशानां पंचमे पंचमेऽहनि । कर्तव्यं क्षौरनक्षत्रे ऽप्यथवा तन्मुहूर्त के इति । उत्पलेन तु वाराहप -
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संस्कारप्रकरणम् ।
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द्यव्याख्यानावसरे अस्य उदये अस्य क्षौरभस्य उदये लग्ने इति व्याख्यातम् । तथा मेषलग्नं त्रिंशद्भागात्मकं तत्राद्यास्त्रयोदश भागा विंशतिकलाधिका यावता कालेन मेषलग्ने उदयं यांति तावदश्विनीनक्षत्रमुदयं यातीति तदनंतरं तावंत एवांशा यावता कालेनोदयं यांति तावदूरयुदय इत्यनेन न्यायेन सर्वेषां नक्षत्राणामुदया ज्ञेयाः । भ्रातरस्तु एवं व्याकुर्वते । यस्मिन् काले अश्विन्या उदयक्षितिजसंबंध: संपद्यते तं समयमारभ्ययावद्भरण्या उदयक्षितिजसंबंधस्तदंतरे यावान्कालः सोऽश्विन्या उदय उच्यते । एवं सत्युदयलनद्वयांशांतरालात् गणितमार्गेण यावानिष्टकाल आगच्छेत् स एव तन्नक्षत्रोदय इति निष्कृष्टोऽर्थः । षडनिरिति अग्निः कृत्तिका क्षौरावृत्या षड्रारं कृत्तिका यस्य सः एवं त्रीणि मैत्राण्यनूराधा यस्य अष्टौ का रोहिण्यो यस्य पंच पित्र्याणि मघा यस्य अब्धयश्चत्वारोऽर्यमण उत्तराफल्गुन्यो यस्य स एतादृशः क्षौरदब्दतो वर्षानंतरं मृत्युं मरणमेति प्राप्नोति । वसिष्ठः । अष्टाब्जऋक्षः पितृपंचकश्च षड्वह्निधिष्ण्यश्चतुरर्यमर्क्षः । त्रिमैत्रभः पद्मजसन्निभोऽपि क्षौरी नरोऽब्दान्निधनं गतः सः । इति क्षौरम् ॥ ३६॥
अथ प्राप्तकालत्वादक्षरारंभमुहूर्त पंचचामरच्छंदसाह - गणेशविष्णुवाग्रमाः प्रपूज्य पंचमादके तिथौ शिवार्कदिग्द्वषट्शरत्रिके रखावुदक् ॥ लघुश्रवोनिलांत्यभादितीशतक्षमित्रभे
चरोनसत्तनौ शिशोर्लिपिग्रहः सतां दिने ॥ ३७ ॥ गणेशेति ॥ गणेशविष्णू प्रसिद्धौ वाक् सरस्वती रमा लक्ष्मीः एता देवताः प्रपूज्य पंचमे वर्षे सति शिव एकादशी द्वादशी दशमी द्वितीया षष्ठी पंचमी तृतीया आसामन्य - तमतिथौ वावुदक् उत्तरायणगते सति तथा लघुनक्षत्राणि हस्ताश्विपुष्याः श्रवणस्वातिरेव - ती पुनर्वसुः ईश आर्द्रा तक्षा चित्राः मित्रमनुराधा एषामन्यतमनक्षत्रे सति तथा सतां सोमज्ञगुरुशुक्राणां दिने दिवसे तथा चरराशयो मेषकर्कतुलामंकरास्तद्रहित शुभस्वामिके वृषमिथुनकन्याधनुर्मीनानामन्यतमे लग्ने सति शिशोलिंपिग्रहो नूतनाक्षरालेखनप्रारंभः कार्यः ३७ अथ विद्यारंभमुहूर्त पंचचामरेणाह
मृगात्कराच्छ्रत्रयेऽश्विमूलपूर्विकात्रये गुरुarshitaवित्सितेऽह्नि षट्शरत्रिके ॥ शिवार्करिके तिथौ ध्रुवत्यमित्रभे परैः शुभैरधीतिरुत्तमा त्रिकोणकेंद्रगैः स्मृता ॥ ३८ ॥
मृगादिति ॥ मृगात्रये मृगार्द्रापुनर्वसुषु हस्तात्रये हस्तचित्रास्वातीषु श्रुतेः श्रवणात्रये श्रवणधनिष्ठाशतमेषु अश्विन्यां मूले पूर्वात्रये गुरुद्वये पुष्याश्लेषयोः तथा सूर्यगु
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१०२
मुहूर्तचिंतामणी
रुशुक्राणां दिने तथा षष्ठीपंचम्यादितिथिषु शुभैः केंद्र त्रिकोणगैः सद्भिः अधीतिः शुभा स्मृता अधोतिरध्ययनम् । परैः ध्रुवांत्यमित्रमे अधीतिः शुभा प्रोक्ता । इदं वचनं धनुर्विद्याविषयमिति दीपिकोक्तेः विद्यारंभे श्रवणत्रयोपादानं महेश्वरादिमतात् । वसिष्ठादिभिः श्रवणस्य केवलस्योक्तत्वात् । इति विद्यारंभः ॥ ३८ ॥
अथ व्रतबंध इति विंशतिपद्यैः प्रोच्यते इति शेषः । तस्य त्रिविधोऽपि कालो नित्यः काम्यो गौणश्च क्रमेण तं शार्दूलविक्रीडितेनाह
विप्राणां व्रतबंधनं निगदितं गर्भाज्जनेर्वाष्टमे
वर्षे वाप्यथ पंचमे क्षितिभुजां षष्ठे तथैकादशे ॥ वैश्यानां पुनरष्टमेऽप्यथ पुनः स्याद्वादशे वत्सरे arosa द्विगुणे गते निगदिते गौणं तदाहुर्बुधाः ॥ ३९ ॥
}
विप्राणामिति ॥ गर्भदिनमारभ्याष्टमे सौरे वर्षेऽथवा जनेरुत्पत्तिदिनात्सौरवर्षेऽष्टमे सति विप्राणां व्रतबंधनं नित्यं गदितम् । अथ काम्यम् । विप्राणामेव गर्भाज्जनेर्वा पंचमे वर्षे कार्यम् । एवं क्षितिभुजां क्षत्रियाणां गर्भाजनेर्वा षष्ठे वर्षे काम्यम् । गर्भाज्जनेर्वा एकादशे सौरवर्षे नित्यं वैश्यानां पुनस्तथैवाष्टमे काम्यम् । तथैव गर्भाज्जनेर्वा द्वादशे नित्यम् । नारदः । आधानादष्टमे वर्षे गर्भतो वाग्रजन्मनाम् । राज्ञामेकादशे मौंजीबंधनं द्वादशे विशामिति । अत्र फलाश्रवणान्नित्यमित्यवसीयते । मनुः । ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं विप्रस्य पंचमे । राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे वैश्यस्यार्थार्थिनोऽष्टमे ॥ अत्र फलश्रवणात्काम्यता पैठीनसिना गर्भपंचमे व्रतबंधनमुक्तम् । गर्भपंचमेऽब्दे ब्राह्मणमुपनयेदिति गर्भषष्ठेऽष्टमे च क्षत्रियविशोर्ज्ञेयं गर्भादिसंख्यावर्षाणामिति स्मृतेश्च । आपस्तंबसूत्रे गर्भाष्टमेषु ब्राह्मणमुपनयेद्गर्भेकादशेषु राजन्यं गर्भद्वादशेषु वैश्यमिति बहुत्वान्यथानुपपत्त्या गर्भषष्टसप्तमाष्टमेष्विति नृत्तिकृद्व्याख्यानात्रयाणामपि नित्यकालता । एवं गर्भेकादशेष्वित्यादावपि व्याख्येयम् । एतच्च तच्छाखाध्यायिविषयं ज्ञेयम् । अथ गौणकाल उच्यते निगदिते प्रोक्ते गर्भाज्जनेर्वाष्टमे इत्यादिके काले तस्मिन् द्विगुणे गते सति तद्रतबंधनं गौणमाहुः । यथा ब्राह्मणस्य षोडशवर्षपर्यंतम् क्षत्रियस्य द्वाविंशतिवर्षपर्यंतम् वैश्यस्य चतुर्विंशतिवर्षपर्यंतं गौणमित्यर्थः । मनुः । आषोडशाद्ब्राह्मणस्य सावित्री नाभिवर्तते । आद्वाविंशाद्ब्रह्मबंधोराचतुर्विंशतेर्विंशः ॥ अत ऊर्ध्व त्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः । सावित्रीपतिता व्रात्या भवत्यपि च गर्हिता इति । केशवः। स्वस्वमौंजी मुख्यकाला च्छ्रेष्ठमध्याधमाः समाः । तिस्रः केशवदैवज्ञैः प्रोक्ता मौंजीनिबंधन इति ॥ ३९ ॥
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संस्कारप्रकरणम् । अथ व्रतबंधे नक्षत्रादिकं वसंततिलकयाह
क्षिप्रववाहिचरमूलमृदुत्रिपूर्वारौद्रेऽर्कविद्गसितेंदुदिने व्रतं सत् ॥ वित्रीषुरुद्ररविदिक्प्रमिते तिथौ च
कृष्णादिमत्रिलवकेऽपि न चापराह्ने ॥ ४० ॥ क्षिप्रेति ॥ गीर्वाणांबुप्रतिष्ठेत्यादिना दक्षिणायननिषेधादुत्तरायणमासषट्कं प्रशस्तमिति मासानामुक्तत्वान्नक्षत्रादिकमेवोक्तम् । तत्र काश्यपः । ऋतौ वसंते विप्राणां ग्रीष्मे राज्ञां शरद्यथ । विशां मुख्यं च सर्वेषां द्विजानां चोपनायनम् ॥ साधारणं च मासेषु माघादिषु च पंचसु । क्षिप्रेति क्षिप्राणि हस्ताश्विपुष्याः ध्रुवाणि रोहिण्युत्तरात्रयम् । अहिराश्लेषा चराणि श्रवणधनिष्ठाशततारापुनर्वसुस्वात्यः मूलम् मृदूनि मृगरेवतीचित्रानुराधाः तिस्त्रः पूर्वारौद्रमाद्रो एषु द्वाविंशतिभेषु व्रतबंधनं सत् । उक्तं च । प्राजापत्यादिषडक्षे भगआदिषु पंचसु । मूलादिदशके चैव समैत्रे व्रतबंधनमिति ॥ अर्थाद्भरणीकृत्तिकामघाविशाखाज्येष्ठासु न कार्यमित्यर्थः । एतानि सर्वशाखानक्षत्रमेलकाभिप्रायेणोक्तानि क्वचित् ज्येष्ठाशततारापि गृहीता श्रीपतिनिबंधे । अश्विनीमृगचित्रासु हस्ते स्वात्यां च शक्रभे । पुष्ये च पूर्वाफल्गुन्यां श्रवणे पौष्णभे तथा ॥ वासवे शततारासु व्रतबंधः प्रशस्यते । भुजबलराजमार्तडयोरपि । हस्तत्रये दैत्यरिपुत्रये च शाकेंदुपुप्याश्विनिरेवतीप्विति । हस्ते शक्राश्विचित्रादितिवसुवरुणोपेंद्रपुष्येदुपौष्णस्वातीष्वव्याहतासु स्मृतमुपनयनं भार्गवाद्यैर्मुनींद्वैरिति च । अर्केति सूर्यबुधगुरुशुक्रचंद्रदिवसेषु व्रतं सत् अर्थात् भौमशनी निषिद्धौ । नारदः । आचार्यसौम्यकाव्यानां वाराः शस्ताः शशीनयोः । वारौ तौ मध्यफलदावितरौ निंदितौ व्रते ॥ तत्राप्यस्तंगतबुधस्य वारो वर्व्यः । अस्तंगतस्य सौम्यस्य वारो वज्यों द्विजन्मन इति नारदोक्तेः । द्वित्रीष्विति द्वितीयातृतीयापंचम्येएकादशीद्वादशीदशमीसंज्ञासु तिथिषु च व्रतं सत्स्यात् नारदेन सप्तमीत्रयोदश्योः प्राशस्त्यमुक्तं तद्वसंताभिप्रायेणेति ज्ञेयम् । उक्तं च तेनैव । विनर्तुना वसंतेन कृष्णपक्षे गलग्रहे । अपराह्ने चोपनीतः पुनः संस्कारमर्हतीति । कृष्णादिमेति विहितमासानां कृष्णपक्षस्यादिमत्रिलवके पंचमीपर्यंत व्रतं सत् त्यक्त्वा चतुर्थीमपि कृष्णपक्षे त्वाद्ये त्रिभागे शुभदं व्रतं सदिति वसिष्ठोक्तेः । न चेति त्रिधाविभक्तदिनस्य त्रयो विभागाः क्रमेण पूर्वाह्नमध्याह्नापराह्नसंज्ञका भवंति तत्रापराह्नभागे व्रतं न सत् । अपराह्ने चोपनीतः पुनः संस्कारमर्हतीति नारदोक्तेः । त्रिधा विभज्य दिवसं तत्रादौ कर्म दैविकम् । द्वितीये मानुषं कार्य तृतीयेऽशे तु पैतृकमिति नारदोक्तेः ॥ ४० ॥
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मुहूर्तचिंतामणौ अथ व्रतबंधे सामान्यतो लग्नभंगयोगं प्रमाणिकयाहकवीज्यचंद्रलग्नपा रिपो मृतौ व्रतेऽधमाः॥ व्ययेऽब्जभार्गवी तथा तनौ मृतौ सुते खलाः॥४१॥ कवीज्येति ॥ रिपौ षष्ठे मृतावष्टमस्थाने चेच्छुक्रगुरुचंद्रलग्नस्वामिनो भवंति तदा अधमा मरणकारकाः। अब्जभार्गवौ चंद्रशुक्रौ व्यये अधमौ खलाः पापग्रहाः लग्नाष्टमपंचमस्थानेषु स्थिताः अधमाः ॥ ११ ॥ अथ सामान्यतो लग्नमनुष्टुभाहव्रतबंधेऽष्टषड्रिाफवर्जिताः शोभनाः शुभाः॥ विषडाये खलाः पूर्णो गोकर्कस्थो विधुस्तनौ ॥४२॥ व्रतबंध इति ॥ शुभग्रहाः अष्टमषष्ठद्वादशस्थानस्थिताश्चेत्स्युर्न शोभनाः अन्यस्थाने व्रतबंधे शोभनाः । खलाः पापाः तृतीयषष्ठैकादशस्थानेषु शोभनाः स्युः गोकर्केति पूर्णः शुक्लपक्षीयो विधुः वृषभस्थः कर्कस्थश्च तनौ यदि भवेत्तदा सन् शोभनः नान्यथा । गुरुः । चंद्रे लग्नेऽभिशस्तः स्यात्क्षयरोगी सितेतरे । शुक्लपक्षे भवेद्यज्वा खभे तुंगे विशेषत इति । कश्यपस्तूच्चस्थं चंद्रं सदैव न्यषेधत् । वर्धमानोऽपि वा पूर्णश्चंद्रो यदि विलग्नगः । निःस्वं करोति वतिनं लग्नगः क्षयरोगिणमिति । उच्चस्थसंबंधिनोः पक्षयोर्देशाचारतो व्यवस्था खगृहगस्तूत्तमो मतद्वये ॥ ४२ ॥ अथ वर्णेशशाखेशान् शालिन्याह
विप्राधीशौ भार्गवेज्यो कुजार्की राजन्यानामोषधीशो विशां च ॥ शूद्राणां ज्ञश्चांत्यजानां शनिः स्या
च्छाखेशाः स्युर्जीवशुक्रारसौम्याः॥४३॥ विमाधीशाविति ॥ शुक्रबृहस्पती ब्राह्मणाधीशौ भौमसूर्यौ क्षत्रियाणां स्वामिनी ओषधीशश्चंद्रो वैश्यानां स्वामी बुधः शूद्राणां स्वामी शनिरंत्यजानां चांडालानां स्वामी ऋग्वेदोऽथयजुर्वेदः सामवेदो ह्यथर्वण इति वेदक्रमाज्जीवशुक्रारसौम्याः शाखेशाः स्युः ऋग्वेदस्य गुरुः यजुषः शुक्रः सानो भौमः अथर्वणो बुधः स्वामी ॥ ४३॥ वर्णेशशाखेशयोः प्रयोजनं वसंततिलकयाह
शाखेशवारतनुवीर्यमतीव शस्तं शाखेशसूर्यशशिजीवबले व्रतं सत् ॥ जीवे भृगौ रिपुगृहे विजिते च नीचे स्यावेदशास्त्रविधिना रहितो व्रतेन ॥४४॥
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संस्कारप्रकरणम् ।
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शाखेशेति ॥ यः स्वशाखाधिपस्तस्य वारस्तनुर्लग्नं च वीर्यं बलं गोचरप्रकारेण स्वगृहाद्यवस्थितत्वेन वा बलवत्वं च व्रतबंधेऽतीव शस्तम् । यथा गुरुः ऋग्वेदिनामीशोऽतो गुरुवारे गुरुलने धनुर्मीनाख्ये गुरुबले च सति उपनयनमतीव शुभम् । एवं सर्वत्र विज्ञेयम् । नारदः । शाखाधिपतिवारश्च शाखाधिपवलं शिशोः । शाखाधिपतिलनं च त्रितयं दुर्लभं व्रते ॥ शाखेति शाखा वेदस्तस्येशः स्वामी तुल्यन्यायत्वाद्वर्णेशोऽपि ग्राह्यः । सूर्यशशिजीवाः प्रसिद्धाः एषां बले सति व्रतं सत्स्यात् अन्यथा नेत्यर्थः । जीवे इति जीवे भृगौ चकाराच्छाखेशे वर्णेशे वा विजिते युद्धे पराजिते नीचराशिस्थे च सति व्रतेनानुष्ठितेन सता वेदशास्त्रविधिना वेदो वेदाध्ययनं शास्त्रं शास्त्राध्ययनं विधिर्नित्यनैमित्तिकश्रौतस्मार्तकर्मानुष्ठानाख्यस्तेषां समाहारद्वंद्वस्तेन रहितो व्रती स्यात् । वसिष्ठः । शाखशगुरुशुक्राणां मौये बाल्ये च वार्धके। नैवोपनयनं कार्यं वर्णेशे दुर्बले सतीति । तेन भौमबुधयोरस्ते सामगाथर्वणशाखिनोरुपनयनादि न भवतीति तत्त्वम् । तत्र नीचाद्यवस्थितत्वेऽपि शाखेशादेः परिहारसाह वसिष्ठः । शत्रुनीचाधिशत्रुस्थे स्वांशे वा स्वोच्च भागगे । शाखेशे वा गुरौ शुक्रे न नीचफलमश्रुत इति । शुक्रस्य शत्रुराशिस्थत्वं वृषभस्थेऽर्के कदाचित्संभवति नीचगत्वं शरदि वैश्यमुपनयेदिति वैश्योपनयने संभवतीति ध्येयम् ॥ ४४ ॥
अथ जन्ममासादेः प्रतिप्रसवमाह
जन्मर्क्षमा सलग्नादौ व्रते विद्याधिको व्रती ॥ आद्यगर्भेऽपि विप्राणां क्षत्रादीनामनादिमे ॥ ४५ ॥
जन्मक्षैति ॥ जन्मनक्षत्रे जन्ममासे जन्मलग्ने आदिशब्देन जन्मतिथौ विप्राणां ब्राह्मणानां आद्यगर्भेऽपि अपिशब्दात् द्वितीयगर्भादावपि व्रती बालो व्रते यज्ञोपवीते विद्याधिकः स्यात् । क्षत्रादीनां क्षत्रियवैश्यानां पुनरनादिमे द्वितीयगर्भादिबालके सति जन्मक्षमासनादौ विद्याधिको व्रती स्यात् । आद्यगर्भे तु तेषां सर्वथा निषेध एव । शौनकः 1 जन्मोदये जन्मसु तारकासु मासे तथा जन्मतिथौ च राशौ । ब्रतेन विप्रोऽल्पपरिश्रुतोऽपि प्रज्ञाविशेषैः प्रथितः ष्टथिव्याम् || गर्भाष्टमे गर्गपराशराद्यैः फलं यदुक्तं व्रतबंधने । ततोऽधिकं जन्मसु तारकासु मासेऽथवा जन्मनि वाडवानाम् ॥ वाडवानां विप्राणां द्विजात्यग्रजन्मभूदेववाडवा इत्यभिधानात् । प्रथमदशमैकोनविंशनक्षत्राणां ग्रहणार्थं जन्मसु तारकास्वित्युक्तम् जन्ममासनिषेधस्तु आद्यगर्भविषयः क्षत्रियवैश्ययोः विप्राणां तु वाडवानामिति विशेषोक्तेराद्यगर्भानाद्यगर्भसाधारणजन्ममासे उपनयनम् अतो जन्ममासादौ शस्तमिति ज्ञेयम् ॥ ४५ ॥
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अथ गुरुबलमनुष्टुभाह
मुहूर्तचिंतामण
बटुकन्याजन्मराशेत्रिकोणायद्विसप्तगः ॥
श्रेष्ठो गुरुः खषयाथे पूजयान्यत्र निंदितः ॥ ४६ ॥
बटुकन्येति ॥ बटुरुपनयनाधिकारी तथा कन्या स्त्रीजात्यपत्यं तज्जन्मराशेर्नवमपंमैकादशद्वितीय सप्तमस्थानस्थितो गुरुः श्रेष्ठ उत्तमः दशषट्तृतीयप्रथमस्थानस्थितो गुरुः पूजया पूजाविधानेनानुष्ठितेन श्रेष्ठः अन्यत्र चतुर्थाष्टमद्वादशस्थानस्थो निंद्यो निषिद्ध - त्यर्थः । नारदः । बालस्य बलहीनोऽपि शांत्या जीवो बलप्रदः । यथोक्तवत्सरे कार्यमनुक्तेनोपनायनम् ॥ वसिष्ठः । उक्तेऽपि वर्षे न गुरुर्बली चेच्छांत्या प्रशस्तं व्रतबंधकर्म । अनुवर्षे सुबलप्रदोऽपि नैवैतयोरब्दबलं गरीय इति । गर्गः । व्रतबंधे विवाहे च प्रतिष्ठायां विशेषतः । गोचरेणैव कर्तव्यं वेधादिकमकारणमिति । वेधस्तु । व्यये पक्षैस्त्रि शैलैः खगे नंदैः सुखे शरैः। रंध्रे रुद्रैर्ग्रहैर्विद्धो गुरुः शुद्धोऽशुभोऽन्यथा ॥ प्राच्यास्तु गोचरबलाभावेऽष्टकवर्गबलमाहुः । राजमार्तंडः । अष्टवर्गविशुद्धेषु गुरुशीतांशुभानुषु । व्रतोद्वाहौ तु कर्तव्यौ गोचरेण कदाचनेति । अन्यच्च । अष्टवर्गेण ये शुद्धास्ते शुद्धाः सर्वकर्मसु । सूक्ष्माष्टवर्गसंशुद्धिस्थूला शुद्धिस्तु गोचरे । तत्र गुरोरष्टवर्गो बृहज्जातके । दिक्स्वाद्याष्टमदायबंधुषु कुजात्स्वात्सत्रिकेष्वंगिराः सूर्यात्सत्रिनवषुधस्विनवदिग्लाभारिगो भार्गवात् । जायायार्थनवात्मजेषु हिमगोर्मंदात्रिषड्धीव्यये दिग्वषिट्स्वसुखाय पूर्वनवगो ज्ञात्सस्मरेषूदयात् ॥ वराहः । पूजाभिलाषं प्रति निस्टहेऽपि कुर्याद्धरौ शुद्धिविवर्जितेऽपि । वरस्या शुभदं विवाहं वदंति गर्गच्यवनादिमुख्याः ॥ अत्र चतुर्थाष्टमद्वादशस्थानस्थितत्वेन गुरोर्द्विगुणत्रिगुणादिकां पूजां विधाय विवाहव्रतबंधादिशुभमिति संप्रदायविदः ॥ ४६ ॥
अथ गुरुदौष्टचापवादमनुष्टुभाह
स्वोचे स्वभे स्वमैत्रे वा स्वांशे वर्गोत्तमे गुरुः ॥ रिफाष्टतुर्योsपीष्टो नीचारिस्थः शुभोऽप्यसन् ॥ ४७ ॥
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स्वोच्च इति ॥ गुरुचतुर्थादिनिंद्यस्थानस्थितोऽपि स्वोच्चे कर्के स्वभे धनुर्मीने स्वमैत्रे मेषसिंहनृश्चिके स्वांशे धनुर्मीननवांशे वर्गोत्तमे नवांशे । यथा वृषराशौ वृषनवांशे गुरुर्वर्गोत्तम इति वर्गोत्तमलक्षणम् । वर्गोत्तमा नवांशाश्चरादिषु प्रथममध्यांता इति । एषु स्थितो गुरुरिष्टः शुभफलदाता । अन्येषु एतादृशो गुरुरतीव शुभः । भुजबलः । वर्गोत्तमे स्वभ वने भवनेऽथ मैत्रे मित्रांशके स्वभवनोञ्चनवांशके वा । जन्माष्टरिः फरिपुखत्रिचतुर्थोऽपि जीवः सुखार्थसुतवृद्धिकरो विवाहे ॥ नीचेति । नीचं मकरः अरिस्थः मिथुनकन्धातुलावृषराशिस्थः शुभोऽप्यसन् अनिष्टफलदातेत्यर्थः । उक्तं च । उच्चस्थः स्वगृहे सुहृद्भवनगो वाच -
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संस्कारप्रकरणम् |
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स्पतिर्नित्यशः पूर्णायुर्विविधार्थसौख्यजनको जन्माष्टमस्थोऽपि चेत् । नीचस्थोऽरिगृहे दिवा - करकरच्छायानुगामी सदापीष्टोऽनिष्टफलं ददाति नियतं वैधव्यदुःखास्पदम् || अत्राष्टमस्थोऽपि चेदित्यपिशब्देन चाष्टमं लक्षगुणं प्रपूजयेदिति विधानात् पूजामनीहमानेऽप्युपनयनादि शुभं स्यात् द्वादशचतुर्थस्थानस्थस्य तु द्विगुणपूजामिच्छतः तथातृतीयादिस्थानस्थस्य पूजामात्रापेक्षस्य गुरोः शुभफलदातृतास्तीति किंवक्तव्यमिति कैमुतिकन्यायसूचनार्थोऽपिशब्दः । नचाष्टमं लक्षगुणं पूजयेदिति शत्रुगृहस्थितगुर्वभिप्रायम् । अस्यापवादो रत्नकोशे । गोचराष्टकवर्गाभ्यां यस्य शुद्धिर्न लभ्यते । तस्योपनयनं कार्यं चैत्रे मीनगते रौ ॥ हरौ सिंहांशगे जीवे नीचर्क्षे नीचभागगे । मौंजीबंधः शुभः प्रोक्तत्रे मीनगते रखौ ॥ पाठांतरम् । जन्मभादष्टगे सिंहे नीचे वा शत्रुगे गुराविति । अर्थाच्चै मेगोsर्को निषिद्धः । तथाचोक्तम् । सौम्यायने व्रतं कार्य चैत्रे मासि विशेषतः । झषों न निंद्यो यदि फाल्गुने स्यादजस्तु वैशाखगतो न निंद्यः । मध्वाश्रितौ द्वावपि वर्जनीयावित्यादिवाचामियमेव युक्तिरिति इदं गणेशदैवज्ञैरभ्यधायि तन्निर्मूलमिव प्रतिभाति मूलवाक्याभावात् ॥ ४७ ॥ अथ व्रतबंधे वर्ज्याननुष्टुभाह
कृष्णे प्रदोषेऽनध्याये शनौ निश्यपराहके ॥ प्राकसंध्यागर्जिते नेष्टो व्रतबंधो गलग्रहे ॥ ४८ ॥
कृष्णेति । एषु व्रतबंधो नेष्टः कृष्णे प्रथमत्रिभागरहितकृष्णपक्षे प्रदोषे यस्मिन्दिने संध्याकाले प्रदोषो भवेत्तद्दिवसे प्रदोषलक्षणमर्कतर्केत्याद्यग्रे वक्ष्यति । अनध्याये वक्ष्यमाणे निशीति अंगवंगकलिंगेषु सौराष्ट्रमगधेषु च । तीर्थयात्रां विना गच्छन् पुनः संस्कारमर्हती पुनः संस्कारप्राप्तौ निमित्तानंतरमेव नैमित्तिकमिति न्यायेन यदि रात्रिसद्भावस्तदोपनयनं माभूदिति रात्रिदोक्तिः । तथा प्राकसंध्या प्रातः संध्या तस्यां गर्जिते मेघशब्दे । वसिष्ठः । व्रते हि पूर्वसंध्यायां वारिदो यदि गर्जति । तद्दिनं स्यादनध्यायो व्रतं तत्र विवर्जयेदिति । अपरार्कः 1 क्षीणे चंद्रेऽष्टमे शुक्रे निरंशे चैव भास्करे । कर्तव्यं नोपनयनं नानध्याये गलग्रहे ॥ राशेः प्रथमभागस्थो निरंशः सूर्य उच्यते । तथा गलग्रहे । गलग्रहानाह गुरुः । त्रयोदश्यादि चत्वारि सप्तम्यादि दिनत्रयम् । चतुर्थी चैकतः प्रोक्ता अष्टावेते गलग्रहाः ॥ दैवज्ञमनोहरे । प्रदोषे निश्यनध्याये मंदे कृष्णे गलग्रहे । मधुं विनोपनीतस्तु पुनः संस्कारमर्हतीति । गलग्रहे प्रदोषे च स्वल्पायुरुपजायत इति च ॥ ४८ ॥
अथांशफलमनुष्टुभाह
'क्रूरो जडो भवेत्पापः पटुः षङ्कर्मकृदुः ॥
यज्ञार्थभा तथा मूर्खो ख्याद्यंशे तनौ क्रमात् ॥ ४९ ॥
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मुहूर्तचिंतामणौ क्रूरो जड इति ॥ षट् कर्माणि यजनं याजनं चैव तथा दानप्रतिग्रहौ । अध्यापनं चाध्ययनं षट्कर्मा धर्मभाग्विज इति । अन्यत् स्पष्टम् ॥ ४९॥
अथ चंद्रनवांशफलं स्वनवांशे सापवादं तो जौ लगुरू वद मोटनकमिति लक्षणलक्षितेन मोटनकच्छंदसाहविद्यानिरतः शुभराशिलवे पापांशगते हि दरिद्रतरः॥
चंद्रे स्वलवे बहुदुःखयुतः कर्णादितिभे धनवान्स्वलवे ॥५०॥ विद्यानिरत इति ॥ यस्मिन् कस्मिन् राशौ चंद्रो यदि शुभग्रहराशिनवांशे स्यात्तदा व्रती विद्यानिरतो भवेत् । यदि पापग्रहराशिनवांशे चंद्रस्तदा दरिद्रतरः धनररहितः । यदि स्वलवे ककौशे स्यात् तदा बहुदुःखसहितो भवेत् । अथ स्वांशगतचंद्रस्यापवादमाह। कर्णेति । कणे श्रवणे अदितौ पुनर्वसौ नक्षत्रे उपनयने खांशे चंद्रः स्यात्तदा धनवान् भवेत् । नारदः । श्रवणादितिनक्षत्रे कर्काशस्थे निशाकरे । तदा व्रती वेदशास्त्रधनधान्यसमृद्धिमानिति ॥ ५० ॥ केंद्रस्थानां फलमनुष्टुभाह
राजसेवी वैश्यवृत्तिः शास्त्रवृत्तिश्च पाठकः॥
प्राज्ञोऽर्थवान् म्लेच्छसेवी केंद्रे सूर्यादिखेचरैः ॥५१॥ राजसेवीति ॥ केंद्रे सूर्यादिखेचरैः प्रत्येकं सहिते क्रमादिदं फलं ज्ञेयम् । अन्यस्पष्टम् । अत्र लग्नस्थं चंद्रं केंद्रस्थं शनि च विना सर्वे ग्रहाः शुभा इत्यवगम्यते मुनिभिस्तु केंद्रपापा निषिद्धा इत्युक्तम् । यदाह नारदः । स्फूर्जितं केंद्रगे भानौ वतिनो वंशनाशनम् । कूजितं केंद्रगे भौमे शिष्याचार्यविनाशनम् ॥ करोति रुदितं केंद्रसंस्थे मंदे महागदम् । लग्नकेंद्रगते राहौ रंधं मातृविनाशनम् ॥ उपकेंद्रगते केतौ व्रतिवित्तविनाशनमिति । अत्र स्वगृहोच्चाद्यवस्थिताः पापाः केंद्रस्थाः शुभफलदातारः अन्यथा नेति विरुद्धार्थवचनयोविषयविवेकः ॥ ५१॥ अथान्यदाह
शुक्रे जीवे तथा चंद्रे सूर्यौमार्किसंयुते ॥
निर्गुणः क्रूरचेष्टः स्यान्निघृणः सद्युते पटुः ॥१२॥ शुक्रेति ॥ शुक्रे जीवे चंद्रे प्रत्येकं सूर्यसंयुते व्रती निर्गुणः स्यात् । भौमसंयुते क्रूरचेष्टः क्रूरा हिंसनशीला चेष्टा यस्य तादृशः स्यात् । तथा शनिसंयुते निघृणो निर्लजो निर्दयो वा स्यात् । तथा तस्मिन्नेव जीवे शुक्रे चंद्रे वा प्रत्येकं सद्भिर्युते बटुः सर्वषिद्यानिपुणः स्यात् ॥५२॥
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संस्कारप्रकरणम् ।
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अथान्यत्प्रमाणिकयाह
विधौ सितांशगे सिते त्रिकोणगे तनौ गुरौ ॥
समस्तवेदविती यमांशगेऽतिनिघृणः ॥ ५३॥ विधौ सितांशगेति ॥ चंद्रे शुक्रांशगे शुक्रे त्रिकोणगे गुरौ तनौ लग्ने च सति व्रती बटुः समस्तांश्चतुरो वेदान्वेत्तीति समस्तवेदवित्स्यात् । एवं यमांशगे शनिनवांशसंस्थिते चंद्रे सति लग्ने गुरौ च सति सिते त्रिकोणगे सति अतिनिघृणः कृतघ्नः स्यात् । महेश्वरः । जीवे लग्नमधिष्ठिते भृगुसुते धर्मात्मजस्थे विधौ शुक्रांशेऽखिलवेदविद्रविसुतस्यांशे कृतघ्नोऽधम इति । नारदः । लग्नं सर्वगुणोपेतं लभ्यतेऽन्यदिने न सत् । दोषाल्पत्वं गुणाधिक्यं बहुसंमतमिष्यते ॥ दोषदुष्टो हि कालो यः स ग्रहीतुं न शक्यते । दोषा वेधादयो महादोषा इत्यर्थः ॥ ५३ ॥ अथानध्यायान् जघनचपलार्ययाह
शुचिशुक्रपौषतपसां दिगविरुद्रार्कसंख्यसिततिथयः॥ भूतादित्रितयाष्टमिसंक्रमणं च व्रतेष्वनध्यायाः॥५४॥ शुचिशुक्रेति ॥ अनध्यायाः आषाढशुक्लदशमी ज्येष्ठशुक्लद्वितीया पौषशुक्लैकादशी माघशुद्धद्वादशी एते अनध्यायाः भूतश्चतुर्दशी तदादि त्रितयं चतुर्दशीपूर्णिमाप्रतिपदः कृष्णपक्षे अमावास्या तन्मध्ये अष्टमी च तयोः समाहारः तथा संक्रमणं सूर्यस्य निरयनं संक्रातिदिनम् । चकारान्मन्वाद्यास्त्रितिथी मधावित्यादिनोक्ताः । तत्राषाढशुक्लदशमी पौषशुद्धैकादशी च मन्वादी ज्येष्ठ शुक्लद्वितीया माघशुद्दद्वादशी च सोपपदे यद्यपि चैत्रशुद्धतृतीया मन्वादिः वैशाखशुद्धतृतीया युगादिस्तथापि ते उभे तृतीये नानध्यायौ तथैव फाल्गुनकृष्णद्वितीया चातुर्मास्यद्वितीयापि नानध्यायः तासां प्राशस्त्याभिधानात् । तथाच वसिष्ठः । या चैत्रवैशाखसिता तृतीया माघस्य सप्तम्यथ फाल्गुनस्य । कृष्णे द्वितीयोपनये प्रशस्ता प्रोक्ता भरद्वाजवसिष्ठमुख्यैरिति । अन्यासां युगादिमन्वादीनां व्रतबंधे अप्रसंगादेव अग्रहणम् । केचिदाचार्याः या चैत्रवैशाखेति वचनं लिखित्वापि स्वेच्छया नांगीकुर्वति तत्र शपथमात्रमेव प्रमाणं न पश्याम इत्यलं तन्मते तृतीये अनध्यायत्वेन ज्ञेये व्रतेष्विति पदमावश्यकत्वद्योतनार्थम् । गौतमः । पक्षद्वये चतुर्दश्यामष्टमीद्वितये तथा । पक्षादावपि पक्षांते ब्रह्म नाधीयते नरैः । फलं च । अष्टमी हंत्युपाध्यायं शिष्यं हंति चतुर्दशी । अमावास्योभयं हंति प्रतिपत्पाठनाशिनी । मनुः । चातुर्मास्यद्वितीयासु मन्वादिषु युगादिषु । अष्टकासु च संक्रांती शयने बोधने हरेः ॥ अनध्यायं प्रकुर्वीत तथा सोपपदासु चेति । चातुर्मास्यद्वितीया गर्गेणोक्ताः । आषाढफाल्गुनोर्जेषु या द्वितीया विधुक्षये। चातुर्मास्यद्वितीयास्ताः प्रवदंति म
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मुहूर्तचिंतामणी
हर्षयः ॥ मन्वादयो युगादयश्च पूर्वमुक्ताः । सिता ज्येष्ठे द्वितीया व आश्विने दशमी सिता चतुर्थी द्वादशी माघे एताः सोपपदाः स्मृताः ॥ नैमित्तिका अनध्यायास्तु स्मृत्यर्थसारे । निर्घातभूकंपोल्कानिपतनादिसर्वाद्भुतेष्वकालिकानध्यायाः । अग्न्युत्पाते वाऽकालदृष्टौ वा आर्द्रादिज्येष्ठांतात्कालादन्यत्राकालदृष्टिः सायंसंध्यागर्जने उदयांतोऽनध्यायः । अर्धरात्रादूर्ध्वं गर्जने अर्धरात्रे वाऽऽकालिकोऽनध्यायः । प्रातः संध्यागर्जने त्वहोरात्रामिति । कालं मर्यादी - कृत्येत्याकालम् । आकाले भव आकालिकः यस्मिन्काले निमित्तमुत्पन्नं तदारभ्य द्वितीयदिने तत्कालपर्यंतमित्यर्थः । स्मृतिरत्नावल्याम् । अनूराधार्क्षमारभ्य षोडशर्क्षेषु भास्करः । यावन्चरति वै तावदकालं मनुयो विदुरिति । कालदृष्टौ तु तत्कालमकाले तु त्रिरात्रकम् । अतिमात्राथवा दृष्टिर्नाधीयीत दिनत्रयम् । आपस्तंबः । उल्कायामग्न्युत्पाते च सर्वासां विधानामाकालिकमिति । मनुः । चौरैरुपलुते ग्रामे संग्रामे चाग्निकारिते। आकालिकमनध्यायं विद्यात्सर्वाद्भुतेषु चेति । अद्भुतेषु रुधिरादिवृष्टिषु । वसिष्ठः । उपलरुधिरप्रपाते त्र्यहमिति । स्मृत्यंतरे । विद्युद्गर्जितसृष्टीनां सन्निपातो यदा भवेत् । कालदृष्ट तु तत्कालमकाले तु त्रिरात्रकमित्यादि । नैमित्तिका अनध्याया यदा मेखलाबंधात्प्रागुत्पन्नास्तदा व्रतबंधो न कार्य एव । यदा तु मेखलाबंधादनंतरं ब्रह्मौदनपाकात् प्रागुत्पन्नास्तदा जातो न निवर्तते ५४ अथ प्रदोषलक्षणमनुष्टुभाह
अर्कतर्कनितिथिषु प्रदोषः स्यात्तदग्रिमैः ॥
राज्यर्धसार्धप्रहरयाममध्यस्थितैः क्रमात् ॥ ५५ ॥
अर्केति ॥ तदग्रिमैस्तिथिभिरर्कादितिथिषु प्रदोषः स्यात् । यथा द्वादश्यामर्धरात्रात्प्राक् त्रयोदशीप्रवृत्तौ प्रदोषः । षष्ठयां चार्धप्रहरमध्ये सप्तमीप्रवृत्तिस्तदा प्रदोषः । तथा तृतीयायां प्रहरमध्ये चतुर्थीप्रवेशे प्रदोषः । अत्र द्वितीयप्रहरस्य चरमघटिकातृतीयप्रहरस्याद्याघटिकेत्येवं घटिकाइयमितः कालो रात्र्यर्धशब्दवाच्यः । तेन समांशवाचित्वाभावादर्घं नपुंसकमिति एकदेशिसमासाभावः ॥ १५ ॥
अथव्रतबंधानंतरं सायंकाले बहुचां ब्रह्मौदनाख्यः संस्कारोऽभिहितस्तत्रार्यया विशे
षमाह
प्रारब्रह्मौदनपाकाद्वतबंधानंतरं यदि चेत् ॥
उत्पातानध्ययनोत्पत्तावपि शांतिपूर्वकं तत्स्यात् ॥ ५६ ॥
प्राब्रह्मौदनेति ॥ स्पष्टार्थम् । उक्तं च नृसिंहप्रसादे । ब्रह्मौदनविधेः पूर्व प्रदोषे गर्जितं भवेत् । तदा विघ्नकरं ज्ञेयं बटोरध्ययनस्य तत् ॥ तस्य शांतिप्रकारं तु वक्ष्ये शास्त्रानुसारतः । स्वस्तिवाचनपूर्वं तु हवनं कारयेद्बुधः ॥ प्रधानं पायसं साज्यं द्रव्यं शांतियजौं
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संस्कारप्रकरणम् ।
१११ भवेत् । सूक्तं बृहस्पतेर्विद्वान्पठेद्विद्यासमृद्धये ॥ गायत्री युंजतो मंत्रः प्रायश्चित्तं तु सर्पिषा। धेनुं सवत्सकां दद्यादाचार्याय पयस्विनीम् ॥ शिलां होमविधेः पश्चात् स्थापयेत्तत्र संसदि । ब्राह्मणान् भोजयेत्पश्चात्ततो ब्रह्मौदनं चरेदिति ॥ ५६ ॥ अथ वेदविशेषेण नक्षत्राणि वसंततिलकयाह
वेदक्रमाच्छशिशिवाहिकरत्रिमूलपूर्वासु पौष्णकरमैत्रमृगादितीज्ये॥ धौवेषु चाश्विवसुपुष्यकरोत्तरेश
कर्णे मृगांत्यलघुमैत्रधनादितौ सत् ॥ ५७॥ वेदेति ॥ मृगाश्लेषााहस्तचित्रास्वातीमूलपूर्वात्रयेषु ऋग्वेदाध्यायिनां रेवतीहस्तानुराधामृगपुनर्वसुपुष्यरोहिण्युत्तरात्रयेषु यजुर्वेदाध्यायिनां अश्विनीधनिष्ठापुष्यहस्तोत्तरात्रया
श्रवणेषु सामवेदाध्यायिनां मृगरेवतीपुष्याश्विनीहस्तानुराधाधनिष्ठापुनर्वसुषु अथर्ववेदाध्यायिनां पूर्वश्लोकानुसत्ततत्पदपरामृष्टमुपनयनं सत् शुभमित्यर्थः । उक्तं च । मूले हस्तत्रये सार्पशैवे पूर्वात्रये तथा । ऋग्वेदाध्यायिनां कार्य मेखलाबंधनं बुधैः ॥ पुष्ये पुनर्वसौ पौष्णे हस्ते मैत्रे शशांकभे । ध्रौवेषु च प्रशस्तं स्याद्यजुषां मौजिबंधनम् ॥ पुष्यवासवहस्ताश्विशिवकर्णोत्तरात्रयम् । प्रशस्तं मेखलाबंधे बटूनां सामगायिनाम् ॥ मृगमैत्राश्विनीहस्तरेवत्यदितिवासवम् । अथर्वपाठिनां शस्तो भगणोऽयं व्रतार्पणे ॥ १७ ॥ अथान्यं विशेषमनुष्टुभाह
नांदीश्राद्धोत्तरं मातुः पुष्पे लग्नांतरे न हि ॥
शांत्या चौलं व्रतं पाणिग्रहः कार्योऽन्यथा न सत् ॥ ५८॥ नांदीश्राद्धेति ॥ नांदीश्राद्धं वृद्धिश्राद्धं तत्कृत्यानंतरं यदि संस्कार्यमातुः पुष्पे रजोदर्शने जाते सति लग्नांतरे चासति तदावश्यकर्तव्यत्वे धर्मशास्त्रोक्तां शांतिं विधाय चौलं यज्ञोपवीतं विवाहश्च कार्यः । अन्यथा समीचीनलग्नांतरसत्वे सति चौलादि न सत् दुष्टफलदमित्यर्थः । मेधातिथिः । चौले च व्रतबंधे च विवाहे यज्ञकर्मणि । पत्नी रजस्वला यस्य प्रायस्तस्य न शोभनम् । स्मृत्यंतरे । प्राप्तमभ्युदयं श्राद्धं पुत्रसंस्कारकर्मणि । पत्नी रजस्वला जाता न कुर्यात्तत्पिता तदेति । तत्पितेति नांदीश्राद्धकर्तुरुपलक्षणम् । अतो ज्येष्ठभ्रात्रादिना करिष्यमाणनांदीश्राद्धात्प्राक् तत्पत्नी रजस्वला चेत्तदा नांदीश्राद्धनिषेधान्मगलं न कार्यमेव । संस्कार्यमातरि रजस्वलायां तु सन्निहितलग्नांतरासंभवे शांतिं कृत्वा तदानीमेव तन्मंगलं कार्यम् । आरब्धत्वान्न स्मृत्युक्तदोषः । अपशकुननिरासाथ शांतिः कार्या । उक्तं च । वधूवरान्यतरस्य जननी चेदरजस्वला । संपूर्णे तु बले प्राप्ते कुर्यात्तत्पा
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मुहूर्तचिंतामणौ णिपीडनमिति बले ग्रहबले च । वाक्यसारे। अलाभे सुमुहूर्तस्य रजोदोषे ह्युपस्थिते । श्रियं संपूज्य विधिवत्ततो मंगलमाचरेत् ॥ हैमी माषमितां पद्मां श्रीसूक्तविधिनार्चयेत् । प्रत्यूचं पायसं हुत्वाभिषिच्य हितमाचरेत् । यदा तु कृतेऽपि मंगले मंडपोद्वासनात्प्राक् मातरि रजस्वलायां शांत्यादिकं कार्यमेव मंगलस्यासमाप्तत्वात् । यदा तु ज्येष्ठभ्रात्रादिना कृतानांदीश्राद्धात् परं तत्पत्नी रजस्वला चेत्तदा न कोऽपि दोषः । अन्योऽपि विशेषस्तत्रैव । उपवासेन शुद्ध्यंति नार्यः सद्यो रजस्वलाः। एकाकिन्यो विवाहादौ देशभंगेषु चापदीति ५८ अथ रिकाबंधनमुहूर्तमनुष्टुभाह
विचैत्रव्रतमासादौ विभौमास्ते विभूमिजे ॥
रिकाबंधनं शस्तं नृपाणां प्राग्विवाहतः ॥ ५९॥ विचैत्रेति ॥ चैत्रवर्जितेषूपनयनमासेषु माघफाल्गुनवैशाखज्येष्ठेष्वित्यर्थः । आदिशब्देन व्रतबंधोक्ततिथिनक्षत्रजन्मलग्नादीनां ग्रहणं कीदृशे व्रतमासादौ विभौमास्ते भौमास्तरहिते गुरुशुक्रास्तादिवर्जनं सामान्यनिषेधादेव सिद्धम् । तथा विभूमिजे भौमवाररहिते सूर्यादिवारे नृपाणां क्षत्रियाणां विवाहतः पूर्व छूरिकाया अल्पशस्त्रविशेषस्य बंधनं कट्यामिति शेषः । तच्छस्तं हितम् । विवाहात्प्रागित्युक्तेरवधिनिश्चयात्समावर्तनानंतरं कार्यम् । अन्यथोपनयनानंतरं कार्यमित्येव ब्रूयात् ॥ ५९॥ अथकेशांतसमावर्तनमुहूर्तावनुष्टुभाह
केशातं षोडशे वर्षे चौलोक्तदिवसे शुभम् ॥
व्रतोक्तदिवसादौ हि समावर्तनमिष्यते ॥६०॥ केशांतमिति ॥ पोडशे वर्षे चौलोक्तदिवसे चूडावपैत्यादिना कथितशुभमुहूर्ते गोदानापरपर्यायं केशांतसंज्ञं कर्म शुभं स्यात् । गावः केशा दीयंते खड्यंते यस्मिस्तद्गोदानम् । गोदानं षोडशे वर्षे इत्येतद्राह्मणविषयम् । क्षत्रियविशोः द्वाविंशे चतुर्विशे च विधानात् । तथाच मनुः । केशांतं षोडशे वर्षे ब्राह्मणस्य विधीयते । राजन्यबंधो विशे वैश्यस्य व्यधिके तत इति । आश्वलायनः । प्रथमं स्यान्महानाम्नी द्वितीयं च महाव्रतम् । तृतीयं स्यादुपनिषद्गोदानाख्यं ततः परम् ॥ अत्र जाताधिकारागोदानं जन्माद्यब्दे तु षोडशे इति वृत्तिकारवचनात् त्रयोदशादिषु महानाम्न्यादीनि भवंति । त्रयोदशे महानाम्नी चतुर्दशे महाव्रतं पंचदशे उपनिषतं षोडशे गोदानमिति । एवंक्षत्रियविशोरपि उक्तगोदानकालाप्राग्वर्षचतुष्टयक्रमेण महानाम्यादीनि भवंति । व्रतोक्तेति । हि निश्चयेन यज्ञोपवीतोक्तदिवसे आदिशब्देन वारनक्षत्रतिथिलग्नांशकेषु समावर्तनकर्मेष्यते । अत्र कश्यपेन चैत्रो वर्जितः । चैत्रमासविवर्जेषु माघादिषु च पंचसु । एतच्च गोदानानंतरं विवाहात्प्राक् कार्यम् ।
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विवाहप्रकरणम्। कुर्यात्समावर्तनकर्मपश्चाद्गोदानतः पाणिनिपीडनात् प्रागिति वसिष्ठोक्तेः । क्वचित् द्वितीयवर्षे तन्निषेध उक्तः । वधूप्रवेशं व्रतमोक्षणं च पुंसां पुनरपरिग्रहं च । नाब्दे द्वितीये विदधीत धीमान वदंति गर्गात्रिवसिष्ठमुख्या इति तन्निर्मूलत्वादुपेक्ष्यम् । परिकरोऽलंकार उत्सर्गापवादरूपः शेषं स्पष्टम् ॥ ६ ॥ इति श्रीदैवज्ञानंतसुत प्रमिताक्षरायां पंचमं संस्कारप्रकरणं समाप्तम् ॥ ५ ॥
॥ अथ विवाहप्रकरणं व्याख्यायते ॥ तत्रानाश्रमी न तिष्ठेतेत्यादिवचनात्समावर्तनानंतरं सर्वाश्रमाणामुपकारकत्वागृहस्थाश्रम एव मुख्यः । स च सुशीलरूयधीनः शीलं सुलग्नाधीनमित्यतो लग्मशुद्धिकथनं वसंततिलकया प्रतिजानीते ॥
॥ अथ विवाहप्रकरणं प्रारभ्यते ॥ भार्यात्रिवर्गकरणं शुभशीलयुक्ता शीलं शुभं भवति लग्नवशेन तस्याः ॥ तस्माद्विवाहसमयः परिचिंत्यते हि
तन्निघ्नतामुपगताः सुतशीलधर्माः॥१॥ भार्येति ॥ शुभं भादेरनुकूलं शीलं स्वभावो यस्याः सा त्रिवर्गस्य धर्मार्थकामरूपस्य करणमतिशयेन साधनम् । तस्याः सुलग्नवशेन शीलं शुभं भवति यतः सुतशीलधर्माः तन्निघ्नतां विवाहाधीनताम् । अधीनो निघ्न आयत्त इत्यमरोक्तेः । उपगताः प्राप्ताः अतो हीति निश्चयेन विवाहसमयः परिचिंत्यते विचार्यत इति । ननु जन्मकालीनग्रहजनितं शुभाशुभं दुरतिक्रममिति विवाहलग्नानर्थक्यमिति चेन्न । ज्योतिषस्मृत्या वेदितशुभसमयारब्धविधिजन्यापूर्वजनितशुभफलेन जन्मांतरीयदुर्दिष्टध्वंसो भवतीत्येवमर्थतया सार्थक्यात् अत एव सत्याचार्यः । शुभक्षणक्रियारंभजनिताः पूर्वसंभवाः । संपदः सर्वलोकानां ज्योतिस्तत्र प्रयोजनमिति सर्वत्र ज्ञेयम् ॥ १ ॥ अथ प्रश्नलग्नाद्विवाहयोगद्वयं स्रग्धरयाह
आदौ संपूज्य रत्नादिभिरथ गणकं वेदयेत्स्वस्थचित्तं कन्योद्वाहं दिगीशानलयविशिखे प्रश्नलग्नाद्यदीदुः॥ दृष्टो जीवेन सद्यः परिणयनकरो गोतुलाकर्कटाख्यं वा स्यात्प्रश्नस्य लग्नं शुभखचरयुतालोकितं तद्विदध्यात् ॥ २॥
१५
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मुहूर्तचिंतामणी
आदौ संपूज्येति ॥ अथशब्दो मंगलार्थः । आदौ गणकं ज्योतिर्विदं रत्नादिभिः मणिवस्त्रफलादिभिः संपूज्य ततः प्रष्टा कन्याया उद्वाहं गणकं वेदयेत् । गतिबुद्धीत्यादिना कर्तुः कमत्वम् । कीदृशं गणकं स्वस्थचित्तं अव्याकुलांतःकरणम् । स्वस्थे चित्ते बुद्धयः संभवंतीत्युक्तेः । उत्पलः । प्रष्टा मणिकनकयुतैः फलकुसुमै राशिचक्रमभ्यर्च्य । प्रच्छेद्यथाभिलषितं भक्त्या विनयान्वितः प्रश्नम् । दिगिति । यदि प्रश्न लग्नाद्दशमैकादशतृतीय सप्तमपंचमानामन्यतमे स्थाने स्थित चंद्रो जीवन गुरुणा दृष्टः सद्यः शीघ्रं परिणयनकरः स्यात् । वा अथवा । गोतुलेति । नृषतुलाकर्काणामन्यतमं प्रश्न लग्नं स्यात्तच्च शुभग्रहैर्युतमवलोकितं वा भवेच्चत्तत्परिणयनं विदध्यात् ॥ २ ॥ अथान्यं योगद्वयं द्रुतविलंबितेनाह
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farariant शशिभार्गवौ तनुगृहं बलिनौ यदि पश्यतः ॥ रचयतो वरलाभमिमौ यदा युगलभांशगतौ युवतिमौ ॥ ३ ॥ विषमभांशगताविति ॥ स्पष्टार्थम् ॥ ३ ॥
अथ प्रश्नलनाद्वैधव्य योगत्रयं शालिन्याह
षष्ठाष्टस्थः प्रश्नलग्नाद्यदीं दुर्लने क्रूरः सप्तमे वा कुजः स्यात् ॥ मूतविदुः सप्तमे तस्य भौमो रंडा सा स्यादष्टसंवत्सरेण ॥ ४ ॥ षष्ठाष्टस्थ इति ॥ चंद्रः प्रश्भलग्नात्पष्ठाष्टमस्थस्तदा कन्याष्टसंवत्सरेण विवाहवर्षा - ढुंडा भर्तृनाशिका स्यात् । अथवा लग्ने यः कश्चित्क्रूरग्रहः स्यात्ततः सप्तमे कुजो भवेत्तदाष्टवर्षमध्ये रंडा स्यात् । केचित्सप्तमेऽपि पापं एवं प्रभे निषेधति । कश्यपः । एको लग्नगतः पापो ह्यन्यः सप्तमराशिगः । आसप्तमाब्दान्मरणं पुरुषस्य न संशय इति तेषां मते सप्तमे वा खलः स्यादिति पाठः । अथवा मूर्ती लग्ने चंद्रस्तस्य सप्तमे भौमो भवेत् तदाऽष्टवर्षेण रंडा स्यात् ॥ ४ ॥
अथ प्रश्नलग्नात् कुलटामृतवत्सायोगं दोधकवृत्तेनाह
प्रश्नतनोर्यदि पापनभोगः पंचमगो रिपुदृष्टशरीरः ॥
नीचगतश्च तदा खलु कन्या सा कुलटा त्वथवा मृतवत्सा ॥ ५ ॥ प्रश्नतनोरिति ॥ स्पष्टार्थः । कश्यपः । स्वनीचगः शत्रुदृष्टः पापः पंचमगो यदा । मृतपुत्रां करोत्येव कुलटां वा न संशय इति ॥ ५ ॥ अथ विवाहभंगयोगं पुष्पिताग्रयाह
यदि भवति सितातिरिक्तपक्षे तनुगृहतः समराशिगः शशांकः ॥
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विवाहप्रकरणम् । अशुभखचरवीक्षितोऽरिरंधे
भवति विवाहविनाशकारकोऽयम् ॥ ६॥ यदीति ॥ सितातिरिक्तपक्षे कृष्णपक्षे यदि चंद्रः समराशिषु वृषकर्कादिषु गतः सन् तनुगृहतः प्रश्नलग्नादरिरंध्रे षष्ठेऽष्टमे वा स्थाने स्थितः पापग्रहावलोकितो भवति तदायं योगो विवाहस्य विनाशकारको भवति ॥ ६ ॥
एवं प्रश्नलग्नाद्वैधव्यादियोगमभिधायेदानी जन्मलग्नादावपि बालवैधव्ययोगविचारमतिदिशन् तत्परिहारं शार्दूलविक्रीडितेनाह
जन्मोत्थं च विलोक्य बालविधवायोगं विधाप्य व्रतं सावित्र्या उत पैप्पलं हि सुतया दयादिमां वा रहः॥ सल्लग्नेऽच्युतमूतिपिप्पलघटः कृत्वा विवाहं स्फुट दद्यात्तां चिरजीविनेऽत्र न भवेद्दोषः पुनर्भुभवः ॥७॥ जन्मोत्थमिति ॥ प्रश्नलग्नाद्यथा विधवायोगो विचारितस्तथा जन्मोत्थं जन्मलग्नोद्वं च बालविधवायोगं जातकशास्त्रात् । बाल्ये विधवा भौमे पतिसंत्यक्ता दिवाकरेऽस्तस्थे । सौरे पापैर्दष्टे कन्यैव जरां समुपयाति । तथा । लग्ने व्यये च पाताले जामित्रे चाष्टमे कुजे। कन्या भर्तृविनाशाय भर्ता कन्याविनाशक इत्याद्युक्तैर्बालविधवायोगं विचार्य वक्ष्यमाणं व्रतं वैधव्यपरिहारकरं कारयेदित्यन्वयः । तत्र वैधव्ययोगपरिहारः। यो यो भावः स्वामिदृष्टो युतो वा सौम्यैर्वा स्यात्तस्य तस्यास्ति वृद्धिरिति । सप्तमस्थानं स्वस्वामिसौम्येक्षितं चेद्भवति तदा भर्तृसुखं भवतीति । अन्ये स्त्रीणां महत्यरिष्टयोगे भर्तुश्च स्वल्पेऽरिष्टयोगे तत्परिहारमाहुः । अथापरिहार्ये वैधव्ययोगे प्रतीकारमाह-विधाप्येति । रह इति वक्ष्यमाणमिहापि योज्यम् । पित्रादिः सुतया कन्यया कृत्वा रह एकांते हि निश्चयेन सावित्र्या व्रतं विधाप्य पश्चादिमां कन्यां चिरजीविने वराय दद्यात् । तदुक्तं व्रतखंडे । सावित्र्यादिव्रतादीनि भक्त्या कुर्वति याः स्त्रियः । सौभाग्यं च सुहृत्त्वं च भवेत्तासां सुसंततिरिति । व्रतग्रहणप्रकारस्तत एवावगंतव्यः । पिप्पलव्रतं ज्ञानभास्करे । बलवद्विधवायोगे बाल्ये सति मृगीदृशाम् । पिता रहसि कुर्वीत तद्गं शास्त्रसंमतम् ॥ सुदिने शुभनक्षत्रे चंद्रताराबलान्विते । अवैधव्यकरैर्योगैर्लग्ने ग्रहबलान्विते ॥ व्रतारंभं प्रकुर्वीत बालवैधव्यनाशकम् । सुस्नातां चित्रवसनां कन्यां पितृगृहाबहिः ॥ नीत्वाश्वत्थशमीस्थाने यद्वा बदरिकाश्रमे । आलवालं प्रकुर्वीत विपुलं मृद कर्षितम् ॥ कुमार्थाचार्यनिर्दिष्टं कृत्वा संकल्पमादरात् । करकांबुप्रपूर्णेन सिंचनं प्रतिवासरम् ॥ चैत्रे वाश्विनमासे वा तृतीयाऽसितपक्षतः । यावत्कृष्णतृतीयान्या मासमेकं यथाविधि ॥ ब्राह्मणानां तथा स्त्रीणां पूजनं च समाचरेत् । तदाशि
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मुहूर्तचिंतामणी
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षाप्नुयात्कन्या सौभाग्यं च सुखान्वितम् || प्रतिमां पार्वतीनाम्नीं वैणवे भाजनेऽर्चयेत् । चंदनाक्षतदूर्वाद्यैर्बिल्वपत्रैर्यथाविधि || उपचारैर्यथाशक्त्या नैवेद्यैः प्रतिवासरम् । एवं व्रतप्रभावेण बालवैधव्यनिष्कृतिः ॥ जायते कन्यकानां च ततः पाणिग्रहक्रिया । इत्यश्वत्थव्रतम् । अन्यमपि वैधव्ययोगपरिहारमाह । वा रह इत्यादिना । अथवा रह एकांते अच्युतमूर्तिर्विष्णुप्रतिमा पिप्पलघटौ प्रसिद्धौ । एषां मध्येऽन्यतरेण सह सने वक्ष्यमाणदोषरहिते सौभाग्यगुणान्विते च विवाहल विवाहं कृत्वा पश्चात्तां कन्यां स्फुटं लोकप्रसिद्धं यथा भवति तथा चिरजीविने वराय दद्यात् पित्रादिकः । तदुक्तं मार्कंडेयेन । बालवैधव्ययोगेऽपि कुंभद्रुप्रतिमादिभिः । कृत्वा लग्नं रहः पश्चात्कन्योद्वाह्येति चापरे इति । कुंभ इति मंथन्या अप्युपलक्षणम् । द्रुर्तृक्षोऽश्वत्थ एव प्रतिमा विष्णोः सौवर्णी करशिरोवयवादिसहिता न शालग्रामादिरूपा । तत्र कुंभ विवाहः । सूर्यारुणसंवादे । विवाहात्पूर्वकाले तु चंद्रताराबले शुभे । विवाहोक्तेन मंथन्या कुंभेन च सहोद्वहेत् || पिता संकल्प्य बाह्यं च विवाहविधिपूर्वकम् | सूत्रेण वेष्टयेत्पश्चाद्दशतंतुविधानतः ॥ कुंकुमालंकृतं देहं तयोरेकांतमंदिरे । ततः कुंभं विनिःसार्य प्रभज्य सलिलाशये ॥ ततोऽभिषेचनं कुर्यात्पंचपल्लववारिभिः । तत्सर्वं वस्त्रपूजाद्यं ब्राह्मणाय निवेद्य च ॥ कन्यालंकारवस्त्राद्यं ब्राह्मणाय निवेदयेत् । प्रार्थना । वरुणांगस्वरूप त्वं जीवनानां समाश्रय | पतिं जीवय कन्यायाश्चिरं पुत्रान्सुखं वरम् । देहि विष्णुवरानंद कन्यां पालय् दुःखत इति । इति कुंभविवाहः । अश्वत्थविवाहोऽपि तत्रैव । सुहृद्विजगुरून्नारी मंगलोञ्चारणैः समम् । आहूयोद्वाहकाले च रम्यभूभौ च मंडपे ॥ गत्वा प्रणम्य गौरीं च गणनाथं च भूरुहम् । भवानीं चैव मंथानीं पिता मंत्रमुदीरयेत् || उद्वाहयिष्ये विधिवदश्वत्थेन मनोहराम् । कन्यां सौभाग्यसौख्यार्थहेतवेऽहं द्विजोत्तमाः ॥ नमस्ते विष्णुरूपाय जगदानंदहेतवे । पितृदेवमनुष्याणामाश्रयाय नमोनमः ॥ वनानां पतये तुभ्यं विष्णुरूपाय भूरुह । नमो निखिलपापौघनाशनाय नमोनमः ॥ पूर्वजन्मकृतं पापं बालवैधव्यकारकम् । नाशयाशु सुखं देहि कन्याया मम भूरुह || इत्यश्वत्थविवाहे संकल्पप्रार्थने । विवाहस्तु कुंभविवाहवद्विधेयः । एवमेव सौवर्ण्य विष्णुप्रतिमया सह विवाहं विधाय प्रतिमां ब्राह्मणाय दद्यात् । दानप्रकारस्तत्रैव । शुभे मासे सिते पक्षे सानुकूलग्रहे दिने । ब्राह्मणं साधुमामंत्र्य संपूज्य विविधार्हणैः ॥ तस्मै दद्याद्विधानेन विष्णोर्मूर्ति चतुर्भुजाम् । शुद्धवर्णसुवर्णेन वित्तशक्त्या - थवा पुनः ॥ निर्मितां रुचिरां शंखगदाचक्राब्जसंयुताम् । दधानां वाससी पीते कुमुदोत्पलमालिनीम् || सदक्षिणां च तां दद्यान्मंत्रमेतमुदीरयेत् । यन्मया पूर्वजनुषि नंत्या पतिसमागमम् ॥ विषोपविषशस्त्राद्यैर्हतोवाऽतिविरक्तया । प्राप्यमाणं महाघोरं यशः सौख्यधनापहम् ॥ वैधव्याद्यतिदुःखौघनाशाय सुखलब्धये । महासौभाग्यलब्ध्यै च महाविष्णोरिमां तनुम् ॥
१. भवं. २. बहु.
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विवाहप्रकरणम् ।
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सौवर्णी निर्मितां शक्त्या तुभ्यं संप्रददे द्विज । अनघा त्वहमस्मीति त्रिवारं प्रवदेदिति ॥ एवमस्त्विति विप्राशीर्गृहीत्वा स्वगृहं विशेत् । ततो वैवाहिकं तातो विधिं कुर्यान्मृगीदृशाम् । इति प्रतिमादानविधिः । एवं घटादिभिः सह विवाहं एकांते विधाय पश्चाद्वादित्रघोषपुर:सरं पित्रादिः कन्यामायुष्मते वराय दद्यात् । अत्र पुनर्विवाहात्पुनर्भूत्वदोषो न भवति । यतो विधानखंडे । स्वर्गांवुपिप्पलानां च प्रतिमाविष्णुरूपिणी । तया सह विवाहे च पुनर्भूत्वं न जायत इत्युक्तत्वात् । चकारात् घटस्यापि । लक्ष्मीरूपा सदा कन्या हरिरूपं सदा जलम् । हरेर्दत्तं च यद्दानं दातुः पापहरं सदा । लक्ष्मीनारायणप्रीत्यै या दत्ता कन्यका बुधैः ॥ तारयेत्सकलं दातुः कुलं पूर्वापरं सदा । चंद्रवह्नचंबुगंधर्वशिवसोमस्मरा इमे ॥ पतयः कन्यकानां च बाल्यात्संति सदैव ते ॥ तदुद्वाहविधिर्यत्नात्कृतो नो जनयेदधम् । यथालिभुक्तकमलं देवानां पूजनाय ॥ अ भवति सर्वत्र तथा कन्या नृणां भवेत् । श्रुतावपि सोमादिभिः सह विवाहोऽभिहितः । सोमः प्रथमो विविदे गंधर्वो विविद उत्तरः । तृतीयो अग्निष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजा इति । अतो दैवतभोग्यानां कन्यानां पुरुषविवाहे यथा न दोषः पुनर्भूभवस्तथात्रापि । अत एव । मंथन्या भास्करो यत्नात्कृतवान् दुहितुर्विधिम् । रेणुकोऽपि स्वकन्यायास्तरूद्वाहं चकार स इति विधानखंडेऽभिधानात् । अत एव । पित्रा मात्रा तथा भ्रात्रा दत्ता या तोयधारया । विप्रानिसुहृदां साक्ष्यं कृत्वा सोद्वाहिता भवेदिति का - त्यायनादिपरिभाषितत्वादेकदा कन्यापुरुषविवाहं निर्वर्त्य पुनर्द्वितीयपुरुषविवाहे जाते सा पुनर्भूरेवेत्यलम् ॥ ७ ॥
अथान्यत्स्रग्विण्याह
प्रश्नलग्नक्षणे यादृशापत्ययुक् स्वेच्छया कामिनी तत्र चेदाव्रजेत् ॥ कन्यका वा सुतो वा तदा पंडितैस्तादृशापत्यमस्या विनिर्दिश्यते ८ प्रश्न लग्नक्षण इति ॥ तत्र ज्योतिर्वित्समीपे यादृशापत्ययुक् । यादृशापत्यत्वमेव विवृणोति कन्यकेत्यादि । शेषं स्पष्टम् ॥ ८ ॥
अथ सामान्यतो निमित्तवशेन शुभाशुभप्रश्नं स्वग्विण्याह
शंखभेरीविपंची रवैमंगलं जायते वैपरीत्यं तदा लक्षयेत् ॥ वायसो वा खरः श्वा मृगालोऽपि वा प्रश्नलग्नक्षणे रौति नादं यदि ९
शंखभेरीति ॥ विपंची वीणा एतेषां रवैः प्रश्नलने श्रुतैमंगलं जायते । उपलक्षणत्वान्मनोह्लादितुरगगजच्छत्रादिसान्निध्येऽपि शुभम् । अथाशुभयोगाः । वैपरीत्यमिति । वायसः काकः खरो गर्दभः श्वा कुकुर : सृगालः प्रसिद्धः । यदि प्रश्नलक्षणे वायसादिर्नादं शब्द करोति तदा वैपरीत्यमशुभं लक्षयेत् । उपलक्षणादुलूकोष्ट्रमहिषनादोऽप्यशुभः । अन्ये शु
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मुहूर्तचिंतामणी
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भयोगाः शौनकादिभ्यो ज्ञेयाः । विवाहवृंदावने उपश्रुतिरप्युक्ता । आरोप्याक्षतपूरिते गणपतिं प्रस्थादिपात्रे शनैः संमार्जन्यधिवेष्टिते युवतयस्तिस्त्रः सकन्या निशि । निर्याता रजकादिवेश्मसु करे कृत्वा तमभ्यर्चितं यां वाचं शृणुयुस्तदर्थसदृशी लोके किलोपश्रुतिः । तन्मंत्रश्च । उपश्रुति महादेवि चांडालगृहवासिनि । यथार्थ ब्रूहि देवि त्वं शक्रराज्यप्रवर्धिनि॥९॥ अथ कन्यावरणमुहूर्ते मत्तमयूरच्छंदसाह
विश्वस्वाती वैष्णवपूर्वात्रय मैत्रे taraaf करपीडोचितऋक्षैः ॥ वस्त्रालंकारादिसमेतैः फलपुष्पैः संतोष्यादौ स्यादनु कन्यावरणं हि ॥ १० ॥
विश्वस्वातीति ॥ उत्तराषाढादिनक्षत्रैरुपलक्षिते काले वस्त्रालंकारादिशब्देन खाद्यादिमधुरवस्तुभिः सहितैः फलपुष्पैः आदौ कन्यां संतोष्य तोषयित्वाऽनु पश्चात्कन्यावरणं हि निश्चयेन स्यात् । कन्यावरयोर्लक्षणानि सामुद्रिकाध्यायादवगंतव्यानि ॥ १० ॥ अथ वरवरणमुहूर्तमाह
धरणिदेवोऽथवा कन्यकासोदरः
शुभदिने गीतवाद्यादिभिः संयुतः ॥ वरवृतिं वस्त्रयज्ञोपवीतादिना ध्रुवयुतैर्व हि पूर्वात्रयैराचरेत् ॥ ११ ॥
धरणिदेव इति ॥ धरणिदेवो ब्राह्मणः पुरोहितादिः । चंडेश्वरः । पूर्वात्रितयमाग्नेयमुतत्रितयं तथा । रोहिणी तत्र वरणभगणः शस्यते सदा ॥ उपवीतं फलं पुष्पं वासांसि विविधानि च । देयं वराय वरणे कन्याभ्रात्रा द्विजेन वेति ॥ ११ ॥
अथ कन्याविवाहकालं ग्रहशुद्धिं च वसंतमालिकाच्छंदसाहगुरुशुद्धिवशेन कन्यकानां समवर्षेषु षडब्दकोपरिष्टात् ॥ रविशुद्धिवशाच्छुभो नराणामुभयोश्चंद्र विशुद्धितो विवाहः ॥ १२ ॥
गुरुशुद्धिवशेनेति ॥ कन्यानां विवाहः षडब्दकोपरिष्टात् षडर्षातिक्रमानंतरं समवर्षेषु युग्मवर्षेषु सत्सु बटुकन्याजन्मराशेरित्याद्युक्त गुरुशुद्धौ सत्यां विवाहः शुभः । अर्थात्पुरुषाणां विषमवर्षेषु गोचरप्रकरणोक्तरविशुद्धौ सत्यां विवाहः शुभः । राजमार्तंडः । तृतीयः षष्ठगश्चैव दशमैकादशस्थितः । रविः शुद्धो निगदितो वरस्यैव करग्रहे ॥ यन्मस्थेच द्वितीयस्थे पंचमे सप्तमेऽपि वा । नवमे भास्करे पूजां कुर्यात्पाणिग्रहोत्सवे ॥ चतुर्थे वाष्टमे
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विवाहप्रकरणम् ।
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चैव द्वादशे भास्करे स्थिते । वरः पंचत्वमाप्नोति कृते पाणिग्रहोत्सव इति । यत उक्तम् । षडब्दमध्ये नोद्वाह्या कन्या वर्षद्वयं ततः । सोमो भुंक्तेऽथ गंधर्वस्ततः पश्चाद्भुताशन इति । व्यासः । अष्टवर्षा भवेद्गौरी नववर्षा च रोहिणी । दशवर्षा भवेत्कन्या अत ऊर्ध्वं रजस्वला । वात्स्यः । द्वादशे वृषली स्मृतेति । गौरीं ददद्ब्रह्मलोकं सावित्रं रोहिणीं ददत् । कन्यां ददत्स्वर्गलोकमतः परमसद्गतिम् । प्राप्नोतीति शेषः । अत्र युग्मेऽब्दे जन्मतः स्त्रीणां शुभदं पाणिपीडनमित्युक्तत्वात् पुनर्नववर्षाया रोहिण्या अयुग्मवर्षत्वाद्विवाहनिषेधः प्राप्नोतीत्यत्र व्यवस्थामाह श्रीपतिः । मासत्रयादूर्ध्वमयुग्मवर्षे युग्मे तु मासत्रयमेव यावत् । विवाहशुद्धिं प्रवदंति संतो वात्स्यादयो गर्गवराहमुख्या इत्यतो नववर्षस्यायुग्मत्वनिषेधोऽष्टवर्षानंतरं मासत्रयपर्यंतमेव । तदनंतरं तु सुखेन विवाह इत्यविरोधः । एवं च षष्ठवर्षानंतरं जन्मतो विषमवर्षीयमासत्रयानंतरं नव मासाः शुभाः । समवर्षे आद्यमासत्रयं चेति गर्भतो युग्मवर्ष इति निष्कृष्टोऽर्थः । उभयोरिति । स्त्रीपुंसयोश्चंद्र विशुद्धितो विवाहः शुभः । उभयोश्चंद्रबलमावश्यकमित्यर्थः । शुद्धिर्गीचरेणाभिहिता । गोचरबलाभावे अष्टकवर्गादिवलं ग्राह्यमित्याह नारदः । गोचरं वेधजं चाष्टवर्गजं रूपजं बलम् । यथोत्तरं बलाधिक्यं स्थूलं गोचरमार्गजमिति । व्यासः । कन्याया ग्रहशुद्धिश्र दशवर्षावधिः स्मृता । दशवर्षव्यतिक्रांता कन्या शुद्धिविवर्जिता । तस्यास्तारेंदुलमानां शुद्ध पाणिग्रहो मत इति ॥ १२ ॥
अथ विहितान्मासान् द्रुतविलंबितेनाह
मिथुन कुंभमृगालिवृषाजगे मिथुनगेऽपि रवौ त्रिलवे शुचेः ॥ अलिमृगाजगते करपीडनं भवति कार्तिकपौष मधुष्वपि ॥ १३ ॥
मिथुनेति ॥ अलिर्वृश्चिकः एतद्राशिगते खौ सति तत्रापि मिथुनस्थिते रवौ सति शुचेः आषाढस्य त्रिलवे तृतीयांशे आषाढशुद्ध प्रतिपदमारभ्य दशमीपर्यंतं करपीडनं विवाहो भवति अर्थादितरराशिगे सूर्ये आषाढशुद्धदशम्यनंतरं मिथुनराशिगेऽर्केऽपि हरिशयने च विवाहो न स्यात् । अलीति । एतद्वाशिगे सूर्ये कार्तिकपौषमधुष्वपि करपीडनं स्यात् । वृश्चिके कार्तिके मकरे पौषे मेषे चैत्रेऽपीत्यर्थः । इदं तु सौरमासग्रहिलानां मतम् । श्रीधरोऽपि । पौषेऽपि कुर्यान्मकरस्थितेऽर्के चैत्रे भवेन्मेषगते यदा स्यात् । प्रशस्तमाषाढकृतं विवाहं वदंति गर्गा मिथुनस्थितेऽर्के इति । ये तु चांद्रमासानेवाहुर्नारदादयः माघफाल्गुनवैशाखज्येष्ठमासाः शुभप्रदाः । मध्यमः कार्तिको मार्गशीर्षो वै निंदिताः परे इति । तेषां म फाल्गुनो विहित इति तत्र मीन संक्रमणसद्भावेऽपि शुभः चैत्रो निषिद्ध इति मेष संक्रमणसद्भावेऽप्यशुभः । तदुक्तं वृंदावने । झषो न निद्यो यदि फाल्गुने स्यादजस्तु वैशाखगतो न निंद्यः । मध्वाश्रितौ द्वावपि वर्जनीयाविति । अजस्तु वैशाखगतो न निंद्य इति तु निर्मू
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मुहूर्तचिंतामणौ लमेव । वस्तुतस्तु वसिष्ठेन उभयमासविधानात्सौरचांद्रमासैक्ये उत्तमो विवाहः । एकतरपक्षाश्रयेण मध्यमः । दिनाधिपे मेषवषालिकुंभनृयुग्मनक्राख्यघटःसंस्थे । माघद्वये माधवशुक्रयोश्च मुख्योऽथवा कार्तिकसौम्ययोश्चेति । अथ प्रसंगात्सौरचांद्रमासविधायकवचनानि तेषां व्यवस्था च लिख्यते । तत्र ऋष्यशृंगः । विवाहव्रतयज्ञेषु सौरमानं विधीयते । गाग्र्योऽपि । विवाहोत्सवयज्ञेषु सौरमा प्रशस्यते । वृद्धगर्गः । विवाहादौ स्मृतः सौरो यज्ञादौ सावनः स्मृत इत्येवमादीनि सौरमासविधायकवचनानि । अथ चांद्रमासविधायकानि । तथा च वसिष्ठः । उद्वाहयज्ञोपनयप्रतिष्ठातिथिव्रतक्षौरमहोत्सवाद्यम् । पर्वक्रिया वास्तुगहप्रवेशाः सर्वं हि चांद्रेण विगृह्यते तत् । नारदः । यात्रोद्वाहव्रतक्षौरतिथिवर्षेशनिर्णयम् । पर्ववास्तूपवासादि कृच्छ्रे चांद्रेण गृह्यत इत्यादीनि तत्रैकतरमासावलंबनेऽपरवैयर्थ्यं स्यादित्यत्र समाधीयते । यत्र सौरचांद्रमानाभ्यां मासशुद्धिरुपलभ्यते स उत्तमो विवाहः एकतरपक्षावलंबने मध्यम इत्युक्तं प्राक् मध्यमपक्षावलंबनं च अवश्यदेया कन्या विषयं वेदितव्यम् । अपरे । पुनर्देशविवाहयोः तथा । तापिनीकृष्णयोर्मध्ये चांद्रो मासः प्रशस्यते । अन्येषु सर्वदेशेषु सौरो व्रतविवाहयोः । तथा । विंध्याद्रेर्दक्षिणे भागे चांद्रो मासः प्रशस्यते । उदग्भागे तु विंध्यस्य सौरं मानं विधीयते ॥ अन्येषु सर्वदेशेषु मिश्रमानं प्रकल्पयेदिति ॥१३॥
अथ मासप्रसंगाजन्ममासादिप्रयुक्तनिषेधविधीन रथोद्धतयाहआद्यगर्भसुतकन्ययोईयोर्जन्ममासभतिथौ करग्रहः॥ नोचितोऽथ विबुधैः प्रशस्यते चेद्वितीयजनुषोः सुतप्रदः॥ १४ ॥
आयेति ॥ यस्मिन् चांद्रे मासे जन्म स जन्ममासः । जन्मतिथिमारभ्य त्रिंशत्तिथ्यात्मको मासो जन्ममासो वेत्युच्यते । पक्षद्वयमध्ये प्रथमप्रकारेण प्रतिपादितम् । जन्मनक्षत्रं जन्मतिथिः । समाहारद्वंद्वः जन्ममुहूर्तोऽपि तत्राद्यगर्भयोः सुतकन्ययोईयोः करग्रहो विवाहो नोचितो निषिद्धः । वसिष्ठः । स्वजन्ममासःतिथिक्षणेषु वैनाशिकावृक्षगणेषु चैवम् । नोद्वाहमात्माभ्युदयाभिकांक्षी नैवाद्यगर्भद्वितयं कदाचित् । एतदपवादोऽपि । जातं दिनं दूषयते वसिष्ठ इत्यादि पूर्वमुक्तम् । अथेति । द्वितीयजनुषोरनाद्यगर्भयोश्चेद्विवाहस्तर्हि सुतप्रदो विबुधैः पंडितैः प्रशस्यते । अत्राद्यगर्भराहित्यं सर्वथा विवक्षितम् । अथवा चेदनाद्यजनुषोरिति पठितव्यम् । तथा च च्यवनः । जन्मः जन्ममासे वा तारायामथ जन्मनि । जन्मलग्ने भवेद्वोढा पुत्राढ्या पतिवल्लभेति । एतच्चानाद्यगर्भविषयम् । आद्यगर्भ साक्षान्निषेधात् ॥ १४ ॥
ज्येष्ठमासे विशेषं शालिन्याहज्येष्ठद्वंदं मध्यमं संप्रदिष्टं त्रिज्येष्ठं चेन्नैव युक्तं कदापि ॥ ५ केचित्सूर्यं वह्निगं प्रोज्झ्य चाहु वान्योन्यं ज्येष्ठयोः स्याद्विवाहः १५
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विवाहप्रकरणम् ।
१२१ ज्येष्ठद्वंद्वमिति ॥ पुत्रो ज्येष्ठः कन्या च ज्येष्ठा मासोऽपि ज्येष्ठ इत्येतत्रिज्येष्ठं यत् तत् कदापि नैव युक्तं न प्रशस्तम् । ज्येष्ठमासे ज्येष्ठयोर्वधूवरयोविवाहो नैव कार्य इत्यर्थः । यदा त्वेकतरज्येष्ठत्वे ज्येष्ठमासो भवति तदा मध्यमं संप्रदिष्टम् । अगतिविषयकमित्यर्थः । एकं ज्येष्ठं अन्यहयमज्येष्ठं तदा शुभमेव। वराहः । द्वौ ज्येष्ठौ मध्यमौ प्रोक्तावेकज्येष्ठः शुभावहः । ज्येष्ठत्रयं न कुर्वीत विवाहे सर्वसंमतम् ॥ अस्यापवादमाह । केचिदिति । सत्यावश्यकत्वे सूर्यं वह्निगं कृत्तिकास्थं त्यक्त्वा ज्येष्ठमासेऽपि ज्येष्ठवरस्य कन्याया विवाहः शुभ इति केचिदूचुः । एतच्च ज्येष्ठापत्यस्य न ज्येष्ठे इति सामान्यतो मंगलकृत्यनिषेधेऽपि द्रष्टव्यम् । भरद्वाजः । ज्येष्ठे ज्येष्ठस्य कुर्वीत भास्करे चानलस्थिते । सोत्सवादीनि कार्याणि दिनानि दश वर्जयेदिति । अत्र ज्येष्ठपुत्रदुहितोज्येष्ठमासवत् मार्गशीर्षे ऽपि मंगलकृत्यनिषेधमाह । भरद्वाजः । मार्गशीर्षे तथा ज्येष्ठे क्षौरं परिणयव्रतम् । आद्यपुत्रदुहित्रोस्तु यत्नेन परिवर्जयेदिति । स्वयमपि । ज्येष्ठापत्यस्य न ज्येष्ठे कैश्चिन्मार्गेऽपि नेप्यत इत्युक्तं प्राक् । केचिद्ग्रहणं शिष्टाचाराभावादिति सूचयितुं नैवान्योऽन्यमिति ज्येष्ठायाः कन्यायाः ज्येष्टपुत्रेण सह विवाहो नैव स्यात् । गर्गः । ज्येष्ठायाः कन्यकायाश्च ज्येष्ठपुत्रस्य वै मिथः । विवाहो नैव कर्तव्यो यदि स्यान्निधनं तयोरिति ॥ १५ ॥ अथान्यं विशेषं हरिणीछंदसाह
सुतपरिणयात्षण्मासांतः सुताकरपाडनं न च निजकुले तद्वद्वा मंडनादपि मुंडनम् ॥ न च सहजयोये भ्रात्रोः सहोदरकन्यके
न सहजसुतोद्वाहोऽब्दार्धे शुभे न पितृक्रिया ॥ १६ ॥ सुतपरिणयादिति ॥ निजकुले इति देहलीदीपन्यायेनात्रापि संबध्यते । निजकुले स्ववंशे सुतस्य पुत्रस्य परिणयात् षण्मासांतः षण्मासमध्ये सुताकरपीडनं कन्याविवाहो न स्यात् । नारदः । पुत्रोद्वाहात्परं पुत्रीविवाहो न ऋतुत्रये । न तयोव्रतमुद्दाहान्मंडनादपि मुंडनमिति । तद्वदिति निजकुले त्रिपुरुषमध्ये पुत्रस्य कन्याया वा मंडनाद्विवाहान्मुंडनं चौलोपनयनसमावर्तनादि वा तहत् षण्मासमध्ये न कार्यम् । अत्रिः । कुले ऋतुत्रयादवाग्मंडनान्न तु मुंडनम् । प्रवेशान्निर्गमं चैव न कुर्यान्मंगलत्रयमिति। अत्र विशेषः शाीये। व्रतं समावर्तनकं सचौलं केशांतमेतानि वदंति तज्ज्ञाः । क्षौरं पुरस्कृत्य भवंति यस्माच्चत्वारि तस्मादिह मुंडनानि । चूडासीमंतकेशांतविवाहोपनयान् बुधाः । गुरु . मंगलमित्याहुस्तदन्यलघु मंगलम् ॥ ज्येष्ठं कृत्वा तु षण्मासं न कुर्याल्लघु मंगलम् । कुर्वति मुनयः केचिदन्यस्मिन्नपि वत्सरे ॥ लघु वा मंगलं कार्यं कार्यं नैमित्तिकं हि तु । पुत्रोद्दाहः प्रवेशाख्यः क
१ कुर्यात्न.
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मुहूर्तचिंतामणी
न्योद्वाहस्तु निर्गमः || मुंडनं चौलमित्युक्तं व्रतोद्वाहौ तु मंगलम् । चौलं मुंडनमेवोक्तं वर्जयेद्वरणात्परम् || मौंजी तूभयतः कार्या यतो मौंजी न मुंडनम् । अभिन्ने वत्सरेऽपि स्यात्तदहस्तत्र भेदयेत् । अभेदे दिवसस्यापि न कुर्यादेकमंडप इति । एषां समूलत्वे देशकालसंकटे सति बोद्धव्यम् । उक्तं च । एकोदरयोर्द्वयोरेकदिनोद्वाहने भवेन्नाशः । नद्यंतर एवैके दिनेऽप्याहुः संकटे च शुभम् । न प्रतिषिद्धं लग्नं संप्राप्ते संकटे महति । एकोदर संभावयोरेकाहे भिन्नमंडपे काल इति । न चेति सहजयोः सोदरयोर्भ्रात्रोः सहोदरकन्यके न देये नोद्वाह्ये । नारदः । न चैकजन्मनोः पुंसोरेकजन्ये तु कन्यके । नूनं कदाचिदुद्वाह्ये नैकदा मुंडनद्वयमिति । अत्र चकारो ऽनुक्तसमुच्चयार्थस्तेनैकस्मै वराय सहोदरकन्याद्वयमपि न दे - यम् । न पुत्रीद्वयमेकस्मै प्रदद्यात्तु कदाचनेति वसिष्ठोक्तेः । न सहजसुतोद्वाहोऽब्दार्थ इति सुतश्च सुतश्च सुतौ सुता च सुता च सुते सरूपाणामेकशेष इत्येकशेषः । सुता च सुतश्च सुतौ च पुमान् स्त्रियेत्येकशेषः । सुतौ च सुता च सुते च सुतो वेति सुताः इति कृतकशेषेण द्वंद्वे पुमान् स्त्रियेत्येकशेषः । सहजाश्च ते सुताश्चेति कर्मधारयः । तेषां सोदरभ्रातॄणां विवाहः अब्दार्धे षण्मासमध्ये न कार्यः । उद्वाह इत्युपलक्षणम् । ततश्चैकमातृजयोः पुत्रयोः कन्ययोर्वा पुत्रकन्ययोर्वा समानसंस्कारो न कार्य इत्यर्थः । वृद्धमनुः । एकमातृजयोरेकवत्सरे पुरुषस्त्रियोः । न समानां क्रियां कुर्यान्मातृभेदे विधीयते ॥ समानक्रिया मुंडनादिका । भिन्नमातृजयोः समानक्रियायां न दोषः । नारदः । समानापि क्रिया कार्या मातृभेदे तथैव च । विवाहो दुहितुः कार्यो न विवाहश्चतुर्दिनमिति । भिन्नमातुर्दुहितुर्विवाहः समानक्रियायां यदि दिनचतुष्टयमध्ये न कार्य इत्यर्थः । वसिष्ठेन विशेष उक्तः । एकोदरप्रसूतानां नात्र कार्यत्रयं भवेत् । भिन्नोदरप्रसूतानां नेति शातातपोऽब्रवीदिति । चौलोपनयनविवाहरूपं कार्यत्रयम् । आदौ चौलं ततो मौंजी विवाहश्च शुभप्रदः । मातृभेदे बुधैरुक्तो मातुरैक्ये न कर्हिचित् । एवं सति भिन्नोदरमंगलमावश्यकत्वे गृहभेदात् एकगृहे आचार्यभेदाद्वा कार्यम् । वसिष्ठः । द्विशोभनं त्वेकगृहे न चेष्टं शुभं तु पश्चान्नवभिर्दिनैस्तु । आवश्यकं शोभनम् - त्सवो वा द्वारेऽथवा चार्यविभेदतो वेति । यमलजातयोस्त्वयमपि निषेधो नास्ति । एकस्मिन्वत्सरे चैव वासरे मंडपे तथा । कर्तव्यं मंगलं स्वस्त्रेोर्भ्रात्रोर्यमलजातयोः । तत्रापि ज्येष्ठानुक्रमेण कार्यम् । ज्येष्ठानुक्रमस्तु गर्भोत्पत्तिक्रमेण तथा च भागवते तृतीयस्कंधे हिरण्याक्ष - हिरण्यकशिपूत्पत्तौ । प्रजापतिर्नाम तयोकारर्षीद्यः प्राक् स्वदेहाद्यमयेोरजात । तं वै हिरण्यकशिपुं विदुः प्रजा यं तं हिरण्याक्षमस्त साग्रत इति । तथा वैद्यके आत्रेयसंहितायाम् । यदाविशेद्विधाभूतं बीजं पुष्पे परिक्षरत् । तदा भवेद्विधा गर्भः सूतिर्वेशविपर्ययात् ॥ तेन प्रथमं जातः कनिष्ठः अनंतरं जातो ज्येष्ठः । अत एव । यमयोश्चैव गर्ने जन्मतो ज्येष्ठता मतेति । मनुना गर्भे जन्मत इत्युक्तं जन्मज्येष्ठेन चाह्वानं सुब्रह्मण्यास्वपि स्मृतमिति तु मनु
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विवाहप्रकरणम् ।
१२३ वचनमेककोशजातयमलविषयम् । तथा च देवलः । यस्य जातस्य यमयोः पश्यंति प्रथमं मुखम् । संतानः पितरश्चैव तस्मिन् ज्यैष्ठयं प्रतिष्ठितमिति । संतानो वंशः यदा तु पुंसो बलातिशयाद्रेतसो द्विधा पातस्तदा कोशद्वये यमलोत्पत्तिः । यदा तु गर्भवायुना एकस्मिन्नेव कोशे रेतसो द्वैधीभावस्तदा एककोशे एव युगपद्यमलं जन्यते । ननु स्त्रीणां विवाह उपनयनस्थान इति स्मृतेः कन्याविवाहस्य पुत्रोपनयनस्य च समानत्वमिति चेन्न । अष्टवर्षं ब्राह्मणमुपनयेदिति वचने ब्राह्मणग्रहणात् स्त्रीशूद्राणां व्रतबंधनिषेधाच्च । यत्तु स्त्रीणां विवाह उपनयनस्थान इत्युक्तं तत्तासां द्विजत्वसिद्ध्यर्थं अतः स्त्रीविवाहे विवाह एव न तूपनयनम् । तस्मात्सोदरकन्यापुत्रयोर्विवाहोपनयनयोः समानसंस्कारत्वाभावात् षण्मासमध्येऽपि ते कार्ये शुभे इति । शुभे विवाहादिमंगलकृत्ये पितृक्रिया श्राद्धक्रिया न कार्या मंगलेनाप्यमंगलमिति नारदोक्तेः । अमंगलं श्राद्धम् । समाप्ते एव मंगले कार्यं न मध्ये इत्यर्थः ॥ १६ ॥ अथ प्रतिकूलनिर्णय मंद्रवज्जयाह
वध्वा वरस्यापि कुले त्रिपूरुषे नाशं व्रजेत्कश्चन निश्चयोत्तरम् ॥ मासोत्तरं तत्र विवाह इष्यते शांत्याथवा सूतकनिर्गमे परैः ॥ १७ ॥
वध्वा वरस्येति ॥ निश्वयोत्तरं वाग्दानानंतरं यदि वध्वाः कन्यायाः वरस्य वा कुले वंशे त्रिपुरुषे पुरुषत्रयमध्ये कश्चन सपिंडो नाशं प्राप्नुयात् तत्र मासोत्तरं मरणदिनादारभ्य त्रिंशद्दिनं प्रतिकूलं ततः शांत्या स्वनुष्ठितया विवाहः सुखेन इष्यते इदं पित्रा - दिभिन्नविषयम् । मांडव्यः । अन्येषां तु सपिंडानामाशौचं माससंमितम् । तदंते शांतिकं कृत्वा ततो लग्नं विधीयते । पित्रादिमरणे तु विशेषः । वरवध्वोः पिता माता पितृव्यश्व सहोदरः । एतेषां प्रतिकूलं चेन्महाविघ्नकरं भवेत् ॥ पिता मातामहचैव माता वापि पिता - मही । पितृव्यः स्त्रीसुतो भ्राता भगिनी वा विवाहिता ॥ एभिरेव विपन्नैश्च प्रतिकूलं बुधैः स्मृतम् । वाग्दानानंतरं यत्र कुलयोः कस्यचिन्मृतिः । तदा संवत्सरादूर्ध्व विवाहः शुभदो भवेत् ॥ पितुराशौचमब्दं स्यात्तदर्धं मातुरेव हि । मासत्रयं तु भार्यायास्तदर्धे भ्रातृपुत्रयोः ॥ अन्यच्च । प्रतिकूले सपिंडस्य मासमेकं विवर्जयेत् । विवाहस्तु ततः पश्चात्तयोरेव विधीयते ॥ दुर्भिक्षे राष्ट्रभंगे च पित्रोर्वा प्राणसंशये । प्रौढायामपि कन्यायां प्रतिकूलं न दुयति || दीर्घरोगाभिभूतस्य दूरदेशस्थितस्य च । उदासवर्तिनश्चैव प्रतिकूलं न विद्यते ॥ संकटे समनुप्राप्ते याज्ञवल्क्येन योगिना । शांतिरुक्ता गणेशस्य कृत्वा तां शुभमाचरेत् ॥ अथावश्यकत्वेऽपवादमाह । अथवेति । आशौचनिर्गमे शांत्या स्वनुष्ठितया विवाहः परैराचार्यैः इष्यते । ज्योतिःप्रकाशे । प्रतिकूलेऽपि कर्तव्यो विवाहो मासमंतरा । शांतिं विधाय गां दत्वा वाग्दानादि चरेद्बुधः ॥ १७ ॥
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मुहुर्तचिंतामणौ
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अथान्यदपि विशेषांतरमुपजात्याहचूडाव्रतं चापि विवाहतो व्रताचूडा न चेष्टा पुरुषत्रयांतरे ॥ वधूप्रवेशाच सुताविनिर्गमः षण्मासतो वान्दविभेदतः शुभः ॥१८॥
चूडाव्रतमिति ॥ अपिशब्दात्समावर्तनादि चौलमुपनयनं समावर्तनं च विवाहानंतरं पुरुषत्रयमध्य एव नेष्टम् तथा व्रतादुपनयनात् चूडा च पुरुषत्रयपर्यंत नेष्टा तथा वध्वाः स्नुषायाः प्रवेशात्सुताया विनिर्गमोऽपि पुरुषत्रयपर्यंतमेव नेष्टः । मेधातिथिः । पुरुषत्रयपयंत प्रतिकूले खगोत्रिणाम् । प्रवेशान्निर्गमस्तद्वत्तथा मुंडनमंडने इति तस्मान्मूलपुरुषस्य चतुर्थत्वे नायं दोषः । स चायं दोषः पुरुषत्रयेऽपि षण्मासपर्यंतमेव । अत एव षण्मासत इति मासषटकानंतरं परतोऽपि विवाहादिः शुभः । एतन्मूलवाक्यं कुले ऋतुत्रयादर्वागित्यादिना प्रागुक्तं अत्रापवाद उच्यते । वेति । अथवा । अब्दभेदात् वर्षभेदात् षण्मासमध्येऽपि शुभः । यथा माघे विवाहो वैशाखे चौलं यज्ञोपवीतं वा भवतीत्यर्थः । संहितासारावल्याम् । फाल्गुने. चैत्रमासे तु पुत्रोद्वाहोपनायने । भेदादब्दस्य कुर्वीत नर्तुत्रयविलंघनमिति ॥ १८ ॥ अथ मूलाद्यनिष्टनक्षत्रोत्पन्नयोर्वधूवरयोः श्वशुरादिपीडकत्वं वसंततिलकयाह
श्वश्रूविनाशमहिजो सुतरां विधत्तः कन्यासुतौ नितिजो श्वशुरं हतश्च ॥ ज्येष्ठाभजाततनया स्वधवाग्रजं च
शक्राग्निजा भवति देवरनाशकीं ॥ १९ ॥ श्वश्रूविनाशमिति ॥ अहिजो आश्लेषानक्षत्रोत्पन्नौ कन्यापुत्रौ श्वश्वाः साक्षाद्वरस्य मातुः कन्याया वा साक्षान्मातुः विनाशं विधत्तः कुरुतः । तथा नितिजौ मूलोत्पन्नौ श्वशुरं हतः नाशयतः । जनकं जननी हंति भर्तुर्मूलाहिधिष्ण्यजेति वसिष्ठोक्तेः। तुल्यन्यायत्वात्कन्याया अपि साक्षान्मातरम् । ज्येष्ठेति ज्येष्ठानक्षत्रोत्पन्ना कन्या स्वधवाग्रजं भर्तुज्येष्ठभ्रातरं हंति । शक्राग्निजाविशाखोत्पन्ना देवरस्य भर्तुः कनिष्ठभ्रातुर्नाशक: । उक्तं च । ऐंद्री पत्यग्रज हंति देवरं तु द्विदैवजेति ॥ १९॥ एतदपवादमनुष्टुभाह
द्वीशाद्यपायजा कन्या देवरसौख्यदा ॥
मूलांत्यपादसार्पाद्यपादजाते तयोः शुभे॥ २० ॥ द्वीशायेति ॥ स्पष्टार्थम् । न हंति देवरं कन्या तुलामिश्रद्विदैवजा । तदंतपादजा त्याज्या दुष्टा दृश्चिकपुच्छवदिति वृद्धनारदोक्तेः । मूलति । मूलचतुर्थचरणोत्पन्नौ कन्यासुतौ श्वशुरसौख्यदौ आश्लेपाप्रथमचरणोत्पन्नौ च श्वश्वाः। नारदः । सुतः सुता वा नियतं
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विवाहप्रकरणम् ।
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श्वशुरं हंति मूलजौ । तदंत्यपादजौं नैव तथा श्लेषाद्यपादजाविति पुंस्त्वमविवक्षितम् । ज्योतिर्निबंधे मौंजीबंधनानंतरं मूलाश्लेषादोषो नास्तीत्युक्तम् । मूलव्यालोद्भवो दोषः पुंसां मौंज्यां विनश्यतीति भूपालवल्लभवचनादिति तन्न । मूलाश्लेषादोषः शूद्रविषयः पर्यवस्यति तथा ज्येष्ठोत्पन्नः पुमान्पत्न्यग्रजमग्रजां वा हंति विशाखोत्पन्नश्च पत्न्यनुजमनुजां वा हंति । उक्तं च कलत्रपटले । पत्यग्रजामग्रजं वा हंति ज्येष्ठर्क्षजः पुमान् । तथा भार्यानुजां चै - वानुजं हंति द्विदैवज इत्युक्तम् । तत्परिहारश्च तत्रैव । मूलांत्यपादजौ श्रेष्ठौ तथाश्लेषाद्यपादौ । शांत्यपादौ दुष्टौ तद्वज्ज्येष्ठांत्यपादजाविति । ज्येष्ठाविशाखोत्पन्नपुंसः दोषतत्परिहारनिरूपणं ग्रंथेष्वदृष्टत्वादुपेक्ष्यम् ॥ २० ॥
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अथाष्टकूटानां नामान्यनुष्टुभाह
वर्णो वश्यं तथा तारा योनिश्च ग्रहमैत्रकम् ॥
गणमैत्रं भकूटं च नाडी चैते गुणाधिकाः ॥ २१ ॥
वर्ण इति ॥ एते वर्णादिमैत्र्यां सत्यां गुणाधिका एकादिगुणाधिकाः स्युः । यथा वर्णमैत्र्यामेको गुणः वश्ये द्वावित्यादि ॥ २१ ॥ तत्रादौ वर्णकूटं प्रमाणिकयाह
द्विजाझषालिकर्कटास्ततो नृपा विशऽप्रिजाः ॥ वरस्य वर्णतोऽधिका वधूर्न शस्यते बुधैः ॥ २२ ॥
द्विजा इति ॥ मीनकर्कटचिका द्विजाः ब्राह्मणाः । ततोऽनंतरमन्ये मेषसिंहधनुराशयो नृपाः क्षत्रियाः । वृषकन्यामकरा विशो वैश्याः । मिथुनतुलाकुंभा अंधिजाः शूद्राः । तत्र वरवधूराश्योर्वर्णी ज्ञात्वा वरस्य वर्णतो ब्राह्मणादिका वधूरधिका ज्येष्ठवर्णा बुधैर्न शस्यते । किंतु समा हीना वा शस्यत इत्यर्थः । एको गुणः सदृग्वर्णे तथावर्णोत्तमे वरे । हीनवर्णे वरे शून्यं केप्याहुः सदृशे दलमिति ॥ २२ ॥
अथ वश्यकूटमिंद्रवज्जयाह
हित्वा मृगेंद्र नरराशिवश्याः सर्वे तथैषां जलजास्तु भक्ष्याः ॥ सर्वेऽपि सिंहस्य वशे विनालिं ज्ञेयं नराणां व्यवहारतोऽन्यत् ॥२३॥
हित्वेति ॥ नरराशयो मिथुनकन्या तुला एषां मेषादयः सर्वेऽपि सिंहं त्यक्त्वा वश्याः । ननु जलचराणां सहानवस्थानात् कथं वश्यत्वं तत्राह । जलजास्तु भक्ष्या इति । एषां नरराशीनां जलजाः मकरकुंभमीनकर्कास्तु भक्ष्याः किंपुनर्वश्या इति सूचयितुं तुशब्दः सिंहस्यालं वृश्चिकं विना सर्वे वश्याः अन्यदनुक्तं चतुष्पदानां जलचराणां वश्यावश्यं नराणां मनुष्याणां व्यवहारतो ज्ञेयम् । वश्यकूटं वश्यभक्ष्यवैरभेदेन त्रिधा तत्र वरराशेः स्त्रीराशौ वश्ये सति गुणद्वयम् । भक्ष्य एको गुणः वैरे गुणाभावः ॥ २३ ॥
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मुहूर्तचिंतामणी
अथ ताराकूटमनुष्टुभाह
कन्यर्क्षाद्वरभं यावत् कन्याभं वरभादपि ॥ गणयेन्नवहृच्छेषे त्रीष्वभिमसत्स्मृतम् ॥ २४ ॥
कन्यक्षदिति ॥ कन्यानक्षत्राद्वरनक्षत्रं यावद्गणयेत् तथा वरनक्षत्रादपि कन्यानक्षत्रं गणयेत् । ततोऽवशिष्टें के नवभिर्भक्ते यदवशिष्टं तच्चेत्रिपंचसप्तमितं भवेत्तदाऽसदशुभं स्मृतम् । अन्यथा एकद्विचतुः षडष्टनवमितं चेत्तदा शुभम् । उभयत्रापि त्रिपंचाद्रिमिते शेषे तारामैत्री नास्त्येव अतो गुणाभावः । एकत्र चेत्तदार्धा मैत्री तदा सार्धेको गुणः उभयत्रापि चेत्र्यादिशेषाभावः तदा पूर्णमैत्रीत्यतो गुणत्रयम् ॥ २४ ॥
अथ योनिकूटं शार्दूलविक्रीडितद्वयेनाह
अश्विन्यंबुपयोर्हयो निगदितः स्वात्यर्कयोः कासरः सिंहो वस्वजपाद्भयोः समुदितो याम्यांत्ययोः कुंजरः ॥ मेषो देवपुरोहितानलभयोः कर्णाबुनोर्वानरः स्याद्वैश्वाभिजितोस्तथैव नकुलचांद्राब्जयोन्योरहिः ॥ २५ ॥ ज्येष्ठामैन्त्र भयोः कुरंग उदितो मूलाद्वयोः श्वा तथा माजीरो दितिसार्पयोरथ मघायोन्योस्तथैवों दुरुः ॥ व्याघ्रो द्वीशभचित्रयोरपि च गौरर्यम्णबुध्यर्क्षयोयोनिः पादयोः परस्परमहावैरं भयोन्योस्त्यजेत् ॥ २६ ॥ अश्विन्यबुपयोरिति । ज्येष्ठामैत्रभयेोरिति च ॥ अश्विनीशततारकयोऽश्व योनिरुक्तः । एवं स्वातीहस्तयोः कासरो महिषः । लुलायो महिषो वाहद्विषत्कासरसैरिभा इत्यमरोक्तेः । कर्णः श्रवणः अंबु पूर्वाषाढा तयोर्वानरो मर्कटः । चांद्र मृगः अब्जयोनिर्ब्रह्मा तनुं रोहिणी तयोरहिः सर्पः । कुरंगो हरिणः अनुराधाज्येष्ठयोः । द्वीशभं विशाखाचित्रयोर्व्याघ्रः । बुध्यक्ष उत्तराभाद्रपदा अर्यमोत्तराफाल्गुनी तयोर्गौयोनिः । अन्यत्स्पष्टम् । फलमाह । पादगयोरिति । एकस्मिन्पादे चरणे गतयोरुक्तनक्षत्रयोन्योः परस्परमहावैरं भवेत् । यथा । अश्विन्यंबुपयोर्हयो निगदितः स्वात्यर्कयोः कासर इति पादः तत्रोक्तयोर्भयोन्योरश्वमहिषयोर्महावैरम् । एवं सिंहहस्तिनोरित्यादि एतत्फलमाह । अत्रिः । एकयोनिषु संपत्यै दंपत्योः संगमः सदा । भिन्नयोनिषु मध्यः स्यादरिभावो न चेत्तयोः ॥ योनेरथो वैरभावः स तु कार्ये वियोगदः । राशिवश्यं च यद्यस्ति कारयेन्न तु दोषभाक् । अत्रातिवैरवैरोदासीनमैत्रातिमैत्रक्रमेण गुणविभागः गोव्याघ्रादीनां अतिवैरं तत्र गुणाभावः शुनकमाजीरादीनां वैरं तत्रैको गुणः । अश्वमेषादीनामौदास्यं तत्र गुणद्वयम् । गोमेषादीनां मैत्रं तत्र गुणत्रयम् । एकयोनौ अतिमैत्रं तत्र गुणचतुष्टयम् ॥ २९ ॥ २६ ॥
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विवाहप्रकरणम् ।
१२७ . अथ ग्रहमैत्री शार्दूलविक्रीडिताभ्यामाहमित्राणि शुमणेः कुजेज्यशशिनः शुक्रार्कजो वैरिणी सौम्यश्चास्य समो विधोधुंधरवी मित्रे न चास्य द्विषत् ॥ शेषाश्चास्य समः कुजस्य सुहृदश्चंद्रेज्यसूर्या बुधः शत्रुः शुक्रशनी समौ च शशभृत्सूनोः सिताहस्करी ॥ २७ ॥ मित्रे चास्य रिपुः शशी गुरुशनिक्ष्माजाः समा गीष्पतेमित्राण्यर्ककुजेंदवो बुधसितौ शत्रू समाः सूर्यजः॥ मित्रे सौम्यशनी कवेः शशिरवी शत्र कुजेज्यौ समौ मित्रे शुक्रबुधौ शनेः शशिरविक्ष्माजा द्विषोऽन्यः समः॥२८॥ मित्राणीति । मित्रे चेति ॥ द्युमणेः सूर्यस्य भौमगुरुचंद्राः मित्राणि शुक्रशनी अस्य वैरिणौ अस्य सौम्यो बुधः समः । विधोः चंद्रस्य बुधरवी मित्रे च पुनरस्य विधोढिषत् शत्रुर्नास्ति मंगलगुरुशुक्रशनयः समा एव । अथ भौमस्य गुरुचंद्रसूर्याः मित्राणि बुधः शत्रुः शुक्रशनी समौ । अथ । शशभृत्सूनोः बुधस्य सिताहस्करौ शुक्ररवी मित्रे अस्य बुधस्य शशी शत्रुः गुरुशनिभौमाः समाः । अथ गीप्पतेर्गुरोः सूर्यभौमचंद्राः मित्राणि बुधशुक्रौ शत्रू सूर्यजः शनिः समः । अथ कवेः शुक्रस्य बुधशनी मित्रे चंद्रसूर्यौ शत्रू कुजगुरू समौ । अथ शनेः शुक्रबुधौ मित्रे रविचंद्रभौमा द्विषो वैरिणः अन्यो गुरुः समः । अत्र गुणविचारः । तत्रैकाधिपतित्वे परस्परमित्रत्वे पंच गुणाः सममित्रत्वे चत्वारः उभयसमत्वे त्रयो गुणाः मित्रवैरे गुणद्वयं समवैरे एको गुणः परस्परं वैरे गुणाभावः ॥२७॥२८॥ अथ गणकूटं वसंततिलकया शालिन्या चाह
रक्षोनरामरगणाः क्रमतो मघाहिवस्विद्रमूलवरुणानलतक्षराधाः॥ पूर्वोत्तरात्रयविधातृयमेशानि मैत्रादितींदुहरिपौष्णमरुल्लघूनि ॥ २९ ॥ निजनिजगणमध्ये प्रीतिरत्युत्तमा स्यादमरमनुजयोः सा मध्यमा संप्रदिष्टा ॥ असुरमनुजयोश्चेन्मृत्युरेव प्रदिष्टो
दनुजविबुधयोः स्याद्वैरमेकांततोऽत्र ॥३०॥ रक्षोनरेति । निजनिजेति ॥ क्रमतो रक्षोनरामरगणाः पादत्रयेणोच्यते। तक्षा चित्रा राधा विशाखा मघादि एतत्पर्यंत नक्षत्राणि रक्षोगणः पूर्वात्रयमुत्तरात्रयं विधाता रोहिणी यमो भरणी ईश आर्द्रा एतानि भानि नरगणो मनुष्यगणः मैत्रमनुराधा अदितिः
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मुहूर्तचिंतामणौ
पुनर्वसुः इंदुर्मृगः हरिः श्रवणः पौष्णं रेवती मरुत्स्वाती लघूनि अश्विनीपुष्यहस्ताः एतानि नव भान्यमरगणो देवगण इति ॥ २९ ॥ निजेति । स्वस्वगणे विद्यमानयोः स्त्रीपुरुषनक्षत्रगणयोरत्युत्तमा प्रीतिः स्यात् । अमरमनुजयेोर्देवमनुष्ययोः स्त्रीपुरुषयोः परस्परं प्रीतिर्मध्यमा स्यात् । असुरमनुजयो राक्षसमनुष्ययोः स्त्रीपुरुषयोर्मृत्युरेव प्रदिष्टः । प्रबल दुर्बलन्यायेन मनुष्यगणस्यैव नाशः । शार्ङ्गये । रक्षोगणः पुमान् चेत्स्यात्कन्या भवति मानवी । केपीच्छंति तदोद्वाहं व्यस्तं कोऽपीह नेच्छति ॥ एतत्तुल्यन्यायाद्देवराक्षसयोरपि द्रष्टव्यम् । अस्यापवादमाह गर्गः । रक्षोगणो यदा पुंसां कुमारी नृगणा भवेत् । सकूटं खगप्रीतिर्योनिशुद्धं शुभं तदेति । अत्रेयं गुणकल्पना । नररक्षसोर्महद्वैरं तत्र गुणाभावः देवरक्षसोर्वैरं तत्र गुणाभावः देवमनुष्यत्वे चत्वारः गणैकत्वे षड्गुणाः ॥ ३० ॥
अथ राशिकूटमनुष्टुभाह
मृत्युः षडष्टके ज्ञेयोऽपत्यहानिर्नवात्मजे ॥ द्विर्द्वादशे निर्धनत्वं द्वयोरन्यत्र सौख्यकृत् ॥ ३१ ॥
मृत्युरिति ॥ स्त्रीपुरुषयोः परस्परं षष्ठाष्टमराशित्वे सति मृत्युर्ज्ञेयः । एवं नवात्मजे नवपंचमेऽपत्यानां हानिः एवं द्विर्द्वादशे निर्धनत्वं दारिद्र्यं स्यात् । अन्यत्र तृतीयैकादशचतुर्थदशमे समसप्तमे वा सति सौख्यकृत्पाणिपीडनं स्यात् ॥ ३१ अथास्य दुष्टभकूटस्य परिहारं शार्दूलविक्रीडितेनाहप्रोक्ते दुष्टभकूटके परिणयस्त्वेकाधिपत्ये शुभो suोराशीश्वर सौहृदेऽपि गदितो नाडयृक्षशुद्धिर्यदि ॥ अन्यक्षैशपयोर्बलित्वसखिते नाडवृक्षशुद्ध तथा ताराशुद्धिवशेन राशिवशताभावे निरुक्तो बुधैः ॥ ३२ ॥ प्रोक्ते इति ॥ स्त्रीपुरुषराश्योर्द्वयोरेकाधिपत्ये सति एकस्वामिकत्वे सति प्रोक्ते दुष्टभकूटे षडष्टकादावपि विवाहः शुभो गदितः । यथा । मेषवृश्चिकयोः तुलावृषभयोर्वा नवपंचमे त्वेकाधिपत्याभावः द्विर्द्वादशे मकरकुंभयोः अथवा राशीश्वरयोः राशिस्वामिनोः सौहृदे मैत्रेऽपि यदि नाडीनक्षत्रयोः शुद्धिर्वेधो न भवेत्तदापि दुष्टकूटके विवाहः शुभः । यथा षट्वाष्टके मीनसिंहराश्योर्नवपंचमे मेषधनुषोर्द्विर्द्वादशे मीनमेषयोरित्यादौ । तथाच वसिष्ठः। द्विर्द्वादशे वा नवपंचमे वा षट्काष्टके राक्षसयोषितो वा । एकाधिपत्ये भवनेशमैत्रे शुभाय पाणिग्रहणं विधेयमिति । अन्यच्च । विषमात्कन्यकाराशेः षष्ठं षष्ठाष्टकं न सत् । समात्षष्ठं शुभं ज्ञेयं विपरीतं न शोभनम् । अन्यर्क्षेशपयोरिति । अन्यर्क्षे प्रीतिषट्काष्टकादिभ्योऽन्यराशौ राशिस्वामिनोः परस्परशत्रुत्वे वा सति अंशपयोस्तद्राशिनवांशस्वामिनोर्बलित्वसखिते स्याताम् । बलित्वं च सखिता च प्रथमाद्विवचनांतं पदं बलित्वं उच्चादिस्थानस्थित
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विवाहप्रकरणम् ।
१२९ त्वेन सबलत्वं सखिता परस्परमैत्री ते उभे चेद्भवतः तथा नाड्यृक्षशुद्धौ नाडीनक्षत्रयो।धाभावे सति तथा ताराशुद्धिवशे च सति राशिवशताभावे च राशिवश्यत्वे च सति दुष्टभकूटकेऽपि विवाहः शुभो निरुक्तः । उक्तं च जगन्मोहने वसिष्ठेन । राशिनाथे विरुद्धेऽपि सबले वंशकाधिपौ । तन्मैत्रेऽपि च कर्तव्यं दंपत्योः सुखमिच्छतेति । अन्यच्च । तस्मिन्नेव प्रकरणे वसिष्ठवाक्यम् । राशिनाथे विरुद्धेऽपि मित्रत्वे चांशनाथयोः । विवाहं कारयेद्धीमान् दंपत्योः सौख्यवर्धनमिति । अत्रैकस्मिन्नेव प्रकरणे वसिष्ठवाक्ययोरन्यवाक्यानर्थक्यापत्तेरुपसंहारन्यायो न प्रवर्तते । तेनावश्यं वाक्यद्वयस्य भिन्नार्थत्वं वाच्यम् । तत्र कस्य कोऽर्थ इति संदेहे न्यूनार्थं द्वितीयं वचनं केवलग्रहवैरापवादकं तुल्यबलत्वात् । अंशनाथसबलत्वाभिधायकं प्रथमवचनमुभयविरोधस्य ग्रहवैरराशिवैररूपस्यापवादकम् । तेन राशिनाथे विरुद्धेऽपीत्यत्र राशी च नाथौ च एतेषां समाहारो राशिनाथं तस्मिन राशिनाथे । तथा चायमर्थः । राशी विरुद्धौ षट्काष्टकादिना नाथौ विरुद्धौ कयोरित्याकांक्षायां ययोः षट्काष्टकादिविचारस्तयोरेव सन्निहितत्वात् ग्रहणं तयो राश्यो थौ विरुद्धौ मित्राणि द्युमणेरित्यादिना परस्परं शत्रू स्यातां तद्राशिनवांशवामिनोः सबलत्वे च समुच्चिते स विवाहः शुभः । नन्वस्मिन्वाक्ये क्लिष्टव्याख्याने किं मानम् । उच्यते । अंशनाथसबलत्वस्याधिककरणमेव तच्च युगपदुत्पन्नस्य दोषद्वैविध्यस्य राशिविरोधग्रहविरोधरूपस्य परिहाररूपमित्यवगम्यते। अस्मिन्नपि पक्षे नाडीशुद्धिस्ताराशुद्धिः राशिवशता चापेक्षितेति ॥ ३२ ॥
अथदुष्टानां गणकूटभकूटग्रहकूटानां परिहारं शालिन्याहमैत्र्यां राशिस्वामिनोरंशनाथद्वंद्वस्यापि स्याद्गणानां न दोषः ॥ खेटारित्वं नाशयेत्सद्भकूटं खेटप्रीतिश्चापि दुष्टं भकूटम् ॥ ३३ ॥
मैन्यामिति ॥ स्त्रीपुरुषयो राशिस्वामिनोमयां सत्यां तथा राशिनवांशनाथयोईद्वस्यापि मैत्र्यां सत्यां दुष्टगुणानां दोषो न स्यात् । अत्रिः । राशीशयोः सुहृद्भावे मित्रत्वे चांशनाथयोः । गणादिदोष्टयेऽप्युदाहः पुत्रपौत्रप्रवर्धनः । अथ सद्भकूटं तृतीयैकादशादिकं खेटारित्वं ग्रहवैरकृतं दोषं नाशयेत् । एवमेव खेटप्रीतिः ग्रहमैत्री चापि दुष्टं भकूटं पडष्टादिकं नाशयेत् । असद्भकूटे गुणाभावः । भकूटदोषापवादे चत्वारो गुणा इति ॥३३॥ अथ नाडीकूटं स्त्रग्धरयाहज्येष्ठारौद्रार्यमांशपतिभयुगयुगं दास्रभं चैकनाडी पुष्येंदुत्वाष्ट्रमित्रांतकवसुजलभं योनिबुध्ये च मध्या ॥ वाय्वग्निव्यालविश्वोडुयुगयुगमथो पौष्णभं चापरा स्याइंपत्योरेकनाड्यां परिणयनमसन्मध्यनाड्यां हि मृत्युः ॥ ३४॥
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१३०
मुहूर्तचिंतामणौ __ ज्येष्ठारौद्रेति ॥ ज्येष्ठा रौद्रमार्दा अर्यमोत्तराफाल्गुनी अंभःपतिर्वरुणः शततारका एभ्यो नक्षत्रेभ्यो युगयुगं द्वयं द्वयम् ज्येष्ठा मूलम् उत्तरा हस्तः आर्द्रा पुनर्वसुः शततारा पूर्वाभाद्रपदा दास्त्रभमश्विनी च । एतन्नक्षत्रनवकं परस्परमेकनाडीत्युच्यते । पुष्यमृगचित्रानुराधा भरणी धनिष्ठा पूर्वाषाढा पूर्वाफाल्गुनी उत्तराभाद्रपदा एतन्नक्षत्रनवकं मध्यनाडीत्युच्यते । अथ वाय्वग्निव्यालविश्वोडुयुगयुगं वायुः स्वाती तद्युगं द्वयं स्वाती विशाखा अनिः कृत्तिका रोहिणी व्यालः आश्लेषा मघा विश्वोडुयुगं विश्वे उत्तराषाढा श्रवणश्च पौष्णभं रेवती एतन्नक्षत्रनवकं अपरा तृतीयैकनाडीत्युच्यते । एतत्फलमाह । दंपत्योः स्त्रीपुंसयोः एकनाड्यां परिणयनमसढुष्टफलं स्यात् । मध्यनाड्यां हि निश्चयेन मृत्युईयोरपि स्यात् नारदेन तु विशेष उक्तः । चतुस्सिद्व्यंघ्रिभोत्थायाः कन्यायाः क्रमशोऽश्विभात् । वह्निभादिंदुभान्नाडीत्रिचतुःपंचपर्वसु ॥ गणयेत्संख्यया चैकनाड्यां मृत्युर्न संशयः । एकनाडीविवाहश्च गुणैः सर्वैः समन्वितः ॥ वर्जनीयः प्रयत्नेन दंपत्योर्निधनं यत इति । अमुमर्थ स्पष्टमाह गर्गः । चतुष्पात्कन्यका ऋक्षं गणयेदश्विभादिकम् । त्रिभं सव्यापसव्येन भिन्नं पर्वशुभावहम् ॥ कन्यको त्रिपाञ्चेत्स्याद्गणयेत्कृत्तिकादिकम् । चतुर्भिः पर्वभिस्तद्वदभिजित्तारकान्वितम् ॥ कन्यकर्तं द्विपाच्चेत्स्याद्गणयेत्सोम्यभादिकम् । पंचभिस्त्ववरोहे तु पंचमांगुलिवर्जितम् ॥ एतत्फलमप्याह गर्गः । संश्लिष्टा मध्यनाडी तु पुरुषं हंति वेगतः । संश्लिष्टा पार्श्वनाडी तु कन्यकां हंत्यसंशयमिति । आसन्ना त्वेकनाडी स्यादासन्नमृतिदायिनी । दूरस्था चैकनाडी स्याहूरस्थानिष्टकारिणीति । नाडीविचारे चंडेश्वरः । पृष्ठमध्ये शुभसमन्वितभोगः क्रोडे वनितावित्तवियोगः । मध्ये रेखे भवति विवाहे उभयोमरणं वदति वराहः अश्व्यादिनाडीवेधर्क क्रमात्षष्ठद्वितीयकम् । याम्यादितुर्यतुर्यं च कृत्तिकादिद्विषष्ठकम् । अन्यच्च । अर्केदुजक्षोणितनूजजीवाः केतुः स्तिो राहुशशांकसौराः । जन्मादिनाडीत्रितये शुभाः स्युः शुभे शुभं स्यादशुभेऽशुभं च ॥ तद्यथा । अर्कः १, १०, १९ बुधः २, ११, २० मंगलः ३, १२, २१ बृहस्पतिः ४, १३, २२ केतुः ५, १४, २३ शुक्रः ६, १५, २४ राहुः ७, १६, २५ चंद्रः ८, १७, २६ शनिः ९, १८, २७ शुभग्रहनाडीनक्षत्रे शुभकार्यं कुर्यान्नाशुभग्रहनाडीनक्षत्रे इत्यर्थः । चतुर्नाडी त्वहल्यायां पांचाले पंचनाडिका । त्रिनाडी सर्वदेशेषु वर्जनीया प्रयत्नत इति । मनुस्तु । अहल्यायां चतुर्नाडीसंयोगः कालमृत्युदः । एष योगोऽन्यदेशेषु ह्यपमृत्युफलप्रदः ॥ पंचनाडीसमयोगः पांचाले कालदंडदः इतरत्र समायोगो दुःखदारिद्यदोषकत् ॥ त्रिनाड्यां तु समायोगः सर्वत्रानिष्टकारक इति । आवश्यकत्वे गुरुः । दोषापनुत्तये नाड्यां मृत्युंजयजपादिकम् । विधाय ब्राह्मणांश्चैव तर्पयेत्कांचनादिना ॥ हिरण्मयीं दक्षिणां च दद्याद्वर्णादिकूटके । गावोऽन्नवसनं हेम सर्वदो
१ सुखावहमित्यपि पाठः । २ कन्यःमित्यपि पाठः ।
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विवाहप्रकरणम् ।
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षापहारकमिति । अन्यच्च । षाष्टके गोमिथुनं प्रदद्यात्कांस्यं सरूप्यं नवपंचमेऽपि । वस्त्रं प्रदेयं कनकं च शक्त्या द्विर्द्वादशे ब्राह्मणतर्पणं चेति ॥ ३४ ॥ अथेंद्रवज्ञया पूर्वमध्यापरभागयोगीनि भान्याहपौष्णेशशक्राद्रससूर्यनंदा पूर्वार्धमध्यापरभागयुग्भम् ॥
भर्ता प्रियः प्राग्युजि भे स्त्रियाः स्यान्मध्ये द्वयोः प्रेमपरे प्रिया स्त्री ।। ३५ ॥
पौष्णेति । पौष्णावत्याः षट् भम् भानि जात्यभिप्रायमेकवचनम् । पूर्वार्धयोगीनि ज्ञेयानि आर्द्रादिद्वादश मध्यभागयोगीनि ज्ञेयानि । ज्येष्ठादीनि नव अपरभागयोगीनि ज्ञेयानि । फलमाह । भर्ता प्रिय इति । अयं भावः । राज्ञामंतः पुरस्थस्त्रीसमागमे गणिकादिसमागमे वा पूर्वार्धयुजि नक्षत्रे सति स्त्रीणां भर्ता प्रियः मध्यभागयुजि मे परस्परं प्रीतिर्भवेत् । परे परभागयुजि भे स्त्री नृणां प्रिया भवेदिति । एवं वधूवरयोर्नवसमागमेऽपि ज्ञेयमिति रत्नमालाटीकायां महादेवेनोक्तम् ॥ ३९ ॥ अथ प्राच्यसंमतं वर्गकूटमार्ययाह
अकचटतपयशवर्गाः खगेशमार्जारसिंहशूनाम् ॥ सर्पानुमृगावीनां निजपंचमवैरिणामष्टौ ॥ ३६ ॥
अकचटेति ॥ अज्वर्गोऽवर्गसंज्ञकः कुचुटुतुषु इति पंचवर्गाः एको यवर्गोऽन्यः शवर्गः एवमष्टौ वर्गाः । तत्र अवर्गः खगेशस्य गरुडस्य कवर्गो मार्जारस्य चवर्गः सिंहस्य टवर्गः शुनः तवर्गः सर्पस्य पवर्ग आखोर्मूषकस्य यवर्गो मृगस्य शवर्गोऽवेर्मेषस्य । अत्र निजात् स्वस्मात् पंचमा वैरिणो येषां ते तथोक्ताः गरुडसर्पयोर्मार्जारमूषकयोः सिंहमृगयोः श्वमेषयोः परस्परं महावैरमित्यर्थः । स्त्रीपुंसयोर्नक्षत्रद्वयं भक्ष्यभक्षकवर्गे चेत्तदा अशुभम् । यदा त्वेकवर्गे तदा शुभम् । एतच्च स्वामिसेवकयोरपि विचार्यम् ॥ ३६ ॥
इदानीं नक्षत्रराश्यैक्ये विशेषं शालिन्याह
राश्यैक्ये चेद्भिन्नमृक्षं द्वयोः स्यान्नक्षत्रैक्ये राशियुग्मं तथैव ॥ नाडीदोषो नो गणानां च दोषो नक्षत्रैक्ये पादभेदे शुभं स्यात् ३७
राश्यैक्ये चेदिति ॥ द्वयोर्वधूवरयोः एकराशित्वे सति यदि भिन्नमृक्षं स्यात्तदा नाडीदोषो गणानां च दोषो न स्यात् । यथा । शततारा पूर्वाभाद्रपदापादत्रयं च तथैव नक्षत्रैक्ये राशियुग्मं राशिद्वयं चेत्स्यात्तदापि प्रागुक्तो दोषो न स्यात् यथा पूर्वाभाद्रपदापादत्रयं चतुर्थचरणश्च अत्रापि विशेषमाह गर्गः । एकराशौ पृथग्विष्ण्ये पुंतारा प्रथमा भवेत् । अतीव शोभना प्रोक्ता स्त्रीतारा चेत्त्वशोभना । अथैकराशिनक्षत्रैक्ये ऽपवादमाह ।
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१३२
मुहूर्तचिंतामणी
नक्षत्रैक्य इति । वधूवरयोः राश्यैक्ये नक्षत्रैक्ये च यदि चरणभेदस्तदापि शुभं स्यात् । जन्मनक्षत्राज्ञाने उपायमाह । वसिष्ठः । अज्ञातजन्मनां नृणां नामभे परिकल्पना । तेनैव चिंतयेत्सर्वं राशिकूटादि जन्मवत् || जन्मभं जन्मधिष्ण्येन नामभं नामधिष्ण्यतः । व्यत्ययेन यदा योज्यं दंपत्योर्निधनप्रदमिति ॥ ३७ ॥
सेवकादिभस्य स्वाम्यादिभात् पूर्वत्वे विशेषं वसंततिलकयाहसेव्याधमर्णयुवतीनगरादिर्भ चेत्पूर्वं हि भृत्यघनिभर्तृपुरादि सद्भात् ॥ सेवाविनाशधननाशन भर्तृनाश
ग्रामादिसौख्यहृदिदं क्रमशः प्रदिष्टम् ॥ ३८ ॥
सेव्याधमर्णेति ॥ स्पष्टार्थम् । तथा चोक्तं डामरसंग्रहे । भामिनीजन्मनक्षत्राद्वितीयं पतिजन्मभम् । न शुभं भर्तृनाशाय कथितं ब्रह्मयामले ॥ प्रथमं सेव्यजन्म द्वितीयं सेवकस्य च । न सेवा सुस्थिरा तस्य जलबुद्बुदवत्प्रियेति ॥ ऋणग्राहकजन्मक्षै प्रथमं ऋणदस्य भात् । द्वितीयमृणसंबंधो न कर्तव्यः कदाचन ॥ कदाचिद्द्रव्यलोभेन क्रियते नैव लभ्यते । पार्वतीप्राणनाथेन प्रोक्तं डामरसंग्रहे ॥ ग्राममं प्रथमं यस्य द्वितीयं जन्मभं भवेत् । न ग्राह्यः सर्वथा ग्रामो यतः प्राप्यार्थनाशद इति ॥ ३८ ॥
अथ राशिस्वामिनो नवांशविधिं च मंजुभाषिण्याहकुजशुक्र सौम्यशशिसूर्यचंद्रजाः कविभौमजीवशनि सौरयो गुरुः ॥ इह राशिपाः क्रियमृगास्यतौलिकेंदुभतो नवांशविधिरुच्यते बुधैः ॥ ३९ ॥
कुजशुक्रेति ॥ स्पष्टार्थम् । क्रियमृगास्येति । क्रियो मेषः मृगास्यं मकरः तौलिकं तुला इंदुभं कर्कः एभ्यो राशिभ्यो बुधैर्नवांशविधिरुच्यते । मेषे मेषादेव वृषे मकरात् मिथुने तुलातः कर्के कर्कादेव एवं सिंहे मेषात् कन्यादिषु मकरादिभ्यः एवमेव धनुरादिष्वपि मेषादिभ्य एव ॥ ३९ ॥
अथ होरां गायत्रीच्छंदोभेदेन शशिवदनावृत्तेनाह
समगृहमध्ये शशिरविहोरा ॥
विषमभमध्ये रविशशिनोः सा ॥ ४० ॥
समगृहेति ॥ पंचदशभागमितैकैका होरा ततः समराशिमध्ये प्रथमा चंद्रस्य द्वितीया सूर्यस्य विषमराशिमध्ये प्रथमा रखेरपरा चंद्रस्येत्यर्थः ॥ ४० ॥
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विवाहप्रकरणम् ।
अथ त्रिंशांशद्रेष्काणान् वसंततिलकयाहशुक्रज्ञजीवशनिभूतनयस्य वाणशैलाष्टपंचविशिखाः समराशिमध्ये | त्रिंशांशको विषमभे विपरीतमस्माद्देcareer: प्रथमपंचनवाधिपानाम् ॥ ४१ ॥
शुक्रेति ॥ समराशिमध्ये क्रमेण प्रथमतः पंचांशानां शुक्रः स्वामी ततः शैलानां सप्तानां बुधः ततोऽष्टानां गुरुः ततः पंचानां शनिः ततः पंचानां भौमः विषमभे तु अस्मात्समराशेऽर्विपरीतं ज्ञेयम् । प्रथमतः पंचानां भौमः ततः पंचानां शनिः ततोऽष्टानां जीवः ततः सप्तांशानां बुधः ततः पंचानां शुक्रः अयं त्रिशांशकसंज्ञः । द्रेष्काणका इति । अस्य प्रमाणं दशांशाः तत्र प्रथमदशांशः प्रथमो द्रेष्काणः स प्रथमस्य स्वाधीशस्य ततो दशांशाः विंशतिभागपर्यंतं द्वितीयो द्रेष्काणः स स्वराशितः पंचमराशीश्वरस्य ततो विंशतिभागानंतरं दशांशास्तृतीयो द्रेष्काणः स स्वराशेर्नवमाधीश्वरस्य यथा मेषे प्रथमद्रेष्काणो भौमस्य द्वितीयः सूर्यस्य तृतीयो गुरोरिति ॥ ४१ ॥ अथ द्वादशांशं षड्वर्गोपसंहारं च सफलं वसंततिलकयाहस्याद्वादशांश इह राशित एव गेहूं होराथ नवमांशक सूर्यभागाः ॥ त्रिंशांशक पडिमे कथितास्तु वर्गाः
सौम्यैः शुभं भवति चाशुभमेव पापैः ॥ ४२ ॥
१३३
स्याद्वादशांश इति ॥ इह षडुर्गे द्वादशांशः राशितः स्वराशेरेव सार्वभागद्वयात्मको ज्ञेयः मेषस्य मेषादिः वृषस्य वृषादिरित्यर्थः । गेहं होरादृक्कः नवमांश : द्वादशांशः त्रिंशांशः इमे षड्वर्गाः कथिताः । एते वर्गाः सौम्यग्रहाणां चेद्भवंति तदा शुभम् पापानां चेदशुभम् मिश्राश्चेदधिकवर्गसदृशं फलम् । अत्र नारदादिभिरेकविंशतिर्महादोषा उक्ताः यथा । पंचांगशुद्धिरहितो दोषस्त्वाद्यः प्रकीर्तितः । उदयास्तशुद्धिरहितो द्वितीयः सूर्यसंक्रमः ॥ तृतीयः पापषडुर्गो भृगुः षष्ठः कुजोऽष्टमः । गंडांतं कर्तरी रिःफषडष्टें दुश्च सग्रहः ॥ दंपत्योरष्टमं लग्नं राशिर्विषघटी तथा । दुर्मुहूर्तो वारदोषः खार्जूरिकसमांघ्रिभम् ॥ ग्रहणोत्पातभं क्रूरविद्धर्क्ष क्रूरसंयुतम् । कुनवांशो महापातवैधृतावेकविंशतिरिति । अन्यैस्तु दश दोषा उक्ताः। वेधश्च लत्ता च तथा च पातः खार्जूरयोगं दशयोगचक्रम् । पुनश्च जामित्रमुपग्रहाश्च बाणाख्यव्रत्रौ दश चैव दोषा इति । अत्र ग्रंथकता लक्षणस्य पृथग्वक्तव्यत्वाद्दोषनापानि नोक्तानि । तत्र पंचांगशुद्धिदुर्मुहूर्त वारदोषग्रहणोत्पात नक्षत्रदोषा आद्ये
१ द्रेाणका इत्यपि पाठः ।
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मुहूर्तचिंतामणी
शुभाशुभप्रकरणे निरूपिता एवेति पुनर्नोच्यते । दुर्मुहूर्तवारदोषयोः पुनरभिधानप्रयोजनं तत्रैव वक्ष्यामः । तत्र पापषड्वर्गाख्यो दोषः कुजशुक्रेत्यादिभिश्चतुर्भिः श्लोकैर्निरूपितः ॥४२॥ अथ गंडांतदोषं शार्दूलविक्रीडितेनाह
1
ज्येष्ठपौष्णभसाप भांत्यघटिकायुग्मं च मूलाश्विनीपित्र्यादौ घटिकादयं निगदितं तद्भस्य गंडांतकम् ॥ कर्काल्यंडजभांततोऽर्धघटिका सिंहाश्वमेषादिगा पूर्णाताटिकात्मकं त्वशुभदं नंदातिथेश्चादिमम् ॥ ४३ ॥ ज्येष्ठपौष्णेति ॥ गंडांतं नाम संधिविशेषः स चानेकविधः नक्षत्रतिथिलग्नसंधिः तथा योगकरणवर्षायनर्तुमासपक्ष दिनरात्रिमध्याह्नप्रातः सायंनिशीथसंधिश्चेति । तत्र नक्षत्रतिथिलग्नसंधिर्गडांतसंज्ञ उच्यते । ज्येष्ठा पौष्णभं रेवती सार्पममाश्लेषा एतेषामंत्यघटिकाद्वयं तथा मूलाश्विनीमघानामादौ घटिकाद्वयं तस्य नक्षत्रस्य गंडातं ज्ञेयम् । यथा । रेवत्यश्विन्योराश्लेषामघयोर्ज्येष्ठामूलयोरंतरालवर्तिघटीचतुष्टयं नक्षत्रगंडांतमशुभदमित्यर्थः । अथ लग्नगंडांतं कर्केति कर्कः अलिर्वृश्चिकः अंडजो मीनः । मीनो वैसारिणोंडज इत्यभिधानात् । एषां लग्नानामंततोऽर्धघटिका । सप्तम्यर्थे तासः । अंतेऽर्घघटिका तथा सिंहमेषौ प्रसिद्धौ अश्वो धनुः एषां लग्नानां आदिगतार्धघटिका लग्नगंडातम् यथा कर्कसिंहयोर्मीनमेषयोर्वृश्चिकधनुषोश्यांतरालवर्तिन्येका घटिका तिथिगंडांतमशुभदमित्यर्थः । पूर्णातादिति । पूर्णाः पंचमी दशमी पंचदश्यस्तासामंते घटिकैका तथा नंदाः प्रतिपत्षष्ठयेकादश्यः तासामादिगतैका घटिका तिथिगंडांतं नाम यथा पंचमीषष्ठयोः दशम्येकादश्योः पंचदशीप्रतिपदोः तिथ्योरंतरालवर्ति घटीद्वयं तिथिगंडांतमशुभमित्यर्थः । एवं गंडांतसंज्ञः संधिः अतोऽन्येऽपि संघयो वसिष्ठेनोक्ताः । पक्षोऽब्दसंधिस्त्रिदिनं च माससंधिस्त्रिनाड्यः खलु संध्ययोश्च । नाड्यश्चतस्त्रस्तिथिऋक्षयोगसंधिस्तदर्धं करणस्य संधिः ॥ पक्षांते पुत्रनाशः स्यान्मासांते तु धनक्षयः । वर्षांते वर्गनाशः स्यात्करणात्सर्वनाशनमिति ॥ आवश्यकत्वे तु । नक्षत्रयोग तिथि संधिषु नाडिकैका तिथ्यष्टविंशतिपलैः सहितोभयत्र । कर्काीलिमीनतनुसंधिषु दिक्पलानि वर्ज्यानि शेषविवरेषु च पंच पंचेति । वासनासिद्धं केशवार्कवाक्यमनुसर्तव्यम् । गंडांतपरिहारमाह वसिष्ठः । गंडांतदोषमखिलं मुहूर्ताभिजिदाह्वयः । हंति यद्वन्मृगं व्याधः पक्षिसंघमिवाखिलमिति ॥ ४३ ॥
अथकर्तरीदोषमनुष्टुभाह
लग्नात्पापावृज्वन्न्रजू व्ययार्थस्थौ यदा तदा ॥
कर्तरी नाम सा ज्ञेया मृत्युदारिद्रयशोकदा ॥ ४४ ॥ लग्नात्पापाविति ॥ यदा पापग्रहौं ऋज्वनृजू लग्नाद्व्ययार्थस्थौ द्वादशस्थः पाप
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विवाहप्रकरणम् ।
१३५
I
ग्रहो ऋजुर्मार्गी द्वितीयस्थः पापोऽनृजुर्वक्री स्यात्तदा कर्तरीनामदोषः स्यात् मृत्युदारिद्र्यशोकदा भवेत् । कर्तरीकारकौ ग्रहौ उभावपि वक्रिणौ शीघ्रगौ वा तदा कर्तरी नेत्याह । वसिष्ठः । लग्नस्य ष्टष्ठाग्रगयोरसाध्वोः सा कर्तरी स्यादृजुवक्रगत्योः । तावेव शीघ्रौ यदि वक्रचारौ न कर्तरी चेति पितामहोक्तिरिति । इयं कर्तरी चंद्रस्यापि द्रष्टव्या । कश्यपः । चंद्रस्य कर्तरी तच्छुभदृष्टा न दोषदेति । परंतु लग्नस्य चंद्रस्य वा क्रूरमध्यगतत्व दोषोऽस्त्येव कर्तरीतः स्वल्पफलः कन्यानाशकरत्वात् । क्रूर ग्रहमध्यगते लग्ने चंद्रेऽथवा करग्रहणम् । ते यमसदनाभिमुखं गमनं स्वेच्छंति कन्याया इति वसिष्ठोक्तेः । कर्तरीदोषापवादम स्वयमपि वक्ष्यति ॥ ४४ ॥
अथ सग्रहदोषमनुष्टुभाह
चंद्रे सूर्यादिसंयुक्ते दारिद्र्यं मरणं शुभम् ॥ सौख्यं सापत्न्यवैराग्ये पापद्वययुते मृतिः ॥ ४५ ॥
चंद्रेति ॥ सूर्ययुक्ते चंद्रे दारिद्र्यं स्यात् । एवं भौमादिषु मरणादिफलं क्रमेण स्यादित्यर्थः । पापद्वययोगे चंद्रस्य मृतिः स्यात् । नारदादिभिर्बुध गुरुराहित्यफलमशुभमुक्तम् । अत्र तु श्रीपतिवाक्यानुरोधात् वसिष्ठेन च केचिन्मते शुभत्वोक्तेश्च शुभमुक्तम् । श्रीपतिः । शुभं च दंभोलिभृदीज्यविद्भयामिति । वसिष्ठः । दारिद्र्यं रविणा कुजेन मरणं सौम्येन न स्युः प्रजा दौर्भाग्यं गुरुणा सितेन सहिते चंद्रे ससापत्न्यकम् । प्रव्रज्यार्कसुतेन सग्रहयुजौ वांछंति केचिच्छुभं व्याद्यैर्मृत्युरसद्व हैः शशियुतैर्दीर्घः प्रवासः शुभैरिति । एतत्परिहारो नारदेनेोक्तः । स्वक्षेत्रगः स्वोच्चगो वा मित्रक्षेत्रगतो विधुः । युतिदोषाय न भवेद्दंपत्योः श्रेयसे तदेति ॥ ४५ ॥
अथाष्टमलग्नदोषं सापवादमनुष्टुभाह
-
जन्मलग्नभयोर्मृत्युराशौ नेष्टः करग्रहः ॥
एकाधिपत्ये राशीशमैत्रे वा नैव दोषकृत् ॥ ४६ ॥
जन्मलग्नभयोरिति ॥ जन्मलग्नजन्मराशिसंबंधिनि मृत्युराशौ अष्टमराशौ अष्टमलग्ने करग्रहो विवाहो नेष्टः । अत्र जन्मलग्ने जन्मराशौ च विशेषमाह नारदः । जन्मराश्युद्गमे नैव जन्मलग्नोदयः शुभः । तयोरुपचयस्थानं यदि लग्नगतं शुभम् । अष्टमलग्नापवादमाह । एकेति । जन्मराशिजन्मलग्नयोरन्यतरस्य विवाहलग्नस्य च स्वाम्यैक्ये सति यथा मेषवृश्चिकयोः ः तथा तयो राशीश्वरयोर्मैत्रे सति यथा सिंहमीनयोः एतादृशे विषये अष्टमलप्रदोषो न स्यात् ॥ ४६ ॥
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मुहूर्तचिंतामणौ अथोत्तरार्धोक्तमेवार्थ स्पष्टमुपजातिकयाहमीनोक्षकर्कालिमृगस्त्रियोऽष्टमं लग्नं यदा नाष्टमगेहदोषकृत् ॥ अन्योन्यमित्रत्ववशेन सा वधूर्भवेत्सुतायुर्गृहसौख्यभागिनी ॥४७॥
मीनोक्षेति ॥ उक्षा वृषः स्त्री कन्या एते राशयो यद्यष्टमं लग्नं स्युस्तदाष्टमलग्नदोषकन्न भवेत् । यथा सिंहान्मीन इत्यादि । कुत इत्यत आह । अन्योऽन्येति परिहारांतरमाह गुरुः । लग्नादष्टमराशीशः केंद्रगः शुभवीक्षितः । यद्यष्टमगतस्योक्तं दोषमाशु व्यपोहति ॥ रंधेशः स्वशुभांशस्थस्तुंगस्वक्षेत्रमित्रगः । अष्टमस्थानदोषो हि विनश्यति न संशय इति ॥ ४७ ॥
अथान्यदपि कुसुमविचित्राच्छंदसाहमृतिभवनांशो यदि च विलग्ने तद्धिपतिर्वा न शुभकरः स्यात् ॥ व्ययभवनं वा भवति तदंशस्तदधिपतिर्वा कलहकरः स्यात् ॥४८॥
मृतीति ॥ अष्टमभवननवांशो यदि लग्ने स्यादथवाष्टमलनेशः स्यात्तदा शुभकरो न स्यात् । अथ व्ययभवनं जन्मलग्नजन्मराशीभ्यां द्वादशभवनम् अथवा व्ययभवनांशः अथवा तत्स्वामी यदि लग्ने स्यात्तदा कलहकृत्स्यात् । कश्यपः । दंपत्योरष्टमे लग्ने राशी वापि तदंशके । तदीशे वा लग्नगते तयोर्मृत्युन संशय इति । तथैव द्वादशे लग्ने तदंशे वा तदीश्वरे । विवाहलग्नगे नैस्व्यं नित्यः स्यात्कलहो द्वयोरिति ।। ४८ ॥ अथ विषघटीदोषं वंशस्थाभ्यामिंद्रवज्रया चाह
खरामतों ३०ऽत्यादितिवह्निपित्र्यभे खवेदतः ४० के रदत ३२ श्च सार्प ॥ खबाणतो ५० श्वे धृतितो १८ऽर्यमांबुपे कृते २० भगत्वाष्ट्रभविश्वजीवझे ॥४९॥ मनो १४ दिदैवानिलसौम्यशाक्रभे कुपक्षतः २१ शैवकरेष्टि १६ तोऽजभे ॥ युगाश्वितो २४ बुध्यभतोययाम्यभे खचंद्रतो १० मित्रभवासवश्रुतौ ॥५०॥ मूलेंगबाणा ५६ द्विषनाडिकाः कृता वाः शुभेऽथो विषनाडिका ध्रुवाः॥ निघ्नाभनोगे नखतर्क ६० भाजिताः
स्फुटा भवेयुर्विषनाडिकास्तथा ॥५१॥ खरामेति । मनोरिति । मूले इति ॥ रेवतीपुनर्वसुकृत्तिकामघानक्षत्रेषु ख
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विवाहप्रकरणम् ।
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रामतस्त्रिंशद्धटिकोत्तरं कृताश्चतस्त्रो घटिकाः विषनाडिकाः शुभकार्ये वर्ज्याः स्युरिति तृतीयश्लोकेनान्वयः । एवं सर्वत्र व्याख्येयम् । के रोहिण्याम् अजभे पूर्वाभाद्रपदायाम् तदेवं षष्टिघटिकात्मके नक्षत्र भोगे ध्रुवका उक्ताः । न्यूनाधिकत्वे स्पष्टीकरणमाह । अथो इति । विषनाडिका ध्रुवाः खरामत इत्येवमादयः इष्टनक्षत्र भोगेन निघ्नाः खतर्कैः षष्ट्या भाजिताः तथा विषनाडिका अपि भोगेन निघ्नाः षष्ट्या भाजिताः लब्धाः स्पष्टा भवेयुरित्यर्थः । परिहारमाह गुरुः । चंद्रो विषघटीदोषं हंति केंद्रत्रिकोणगः । लग्नं विना शुभैर्दृष्टः केंद्रे वा लग्नपस्तथेति । विषनाड्युत्थितं दोषं हंति सौम्यर्क्षगः शशी । मित्रदृष्टोऽथवा स्वीयवर्गस्थो लग्नपोऽपि वेति । दैवज्ञमनोहरे तिथिवारविषघटिका उक्ताः । तिथीषुनागाद्रिगिरीषुवारिधिर्गजाद्रिदिक्पावकदिग्विभाकराः । मुनीभसंख्याः प्रथमात्तिथेः क्रमात्परं विषं स्याद्घाटिकाचतुष्टयम् ११, ५, ८, ७, ७, ५, ४, ८, ७, १०, ३, १०, १२, ७, ८ नखा द्वयं द्वादश दिक् च शैला बाणाश्च तत्त्वानि यथाक्रमेण । सूर्यादिवारेषु परं चतस्त्रो नाड्यो विषं स्यात्खलु वर्जनीयम् २०,२, १२, १०, ७, ९, २५ ॥ ४९ ॥ ५० ॥ ५१ ॥ अथ दुर्मुहूर्तदोषं विवक्षुरादौ दिवामुहूर्तान्मालिनीछंदसाह -
गिरिशभुजगमित्राः पित्र्यवस्वं बुविश्वेऽभिजिथ च विधातापींद्र इंद्रानलौ च ॥ निर्ऋतिरुदकनाथोऽप्यर्यमाथो भगः स्युः क्रमश इह मुहूर्ता वासरे बाणचंद्राः ॥ ५२ ॥ गिरिशेति ॥ अथ बाणचंद्रा इत्युक्तेर्दुर्मुहूर्तस्य पार्थक्येन लक्षणं नोक्तम् | इंद्रानलौ इंद्राग्नी एते वासरे पंचदश मुहूर्ताः स्युः ॥ १२ ॥
रात्रि मुहूर्ताननुष्टुभाह
शिवोऽजपादादष्टौ स्युर्भेशा अदितिजीवकौ ॥ विष्णवर्कत्वाष्ट्रमरुतो मुहूर्ता निशि कीर्तिताः ॥ ५३ ॥
शिव इति ॥ प्रथममुहूर्तस्वामी शिव एवं अजपादादष्टौ भेशाः नक्षत्रस्वामिनो मुहूर्तेशाः स्युः । यथा अजपादः अहिर्बुध्यः पूषा अश्विनौ यम अग्निः ब्रह्मा सोम इत्यष्टौ ततो दशममुहूर्तोऽदितिः जीवको गुरुः विष्ण्वर्कत्वाष्ट्रमरुतः प्रसिद्धाः एते सर्वे निशि मुहूर्ताः प्रकीर्तिताः । अह्नः पंचदशो भागो मुहूर्तोऽथ तथा निशीति कश्यपोक्तेः ॥ ९३ ॥
अथ दुर्मुहूर्तान् भुजंगप्रयातेनाह
वावर्यमा ब्रह्मरक्षश्च सोमे कुजे वह्निपित्र्ये बुधे चाभिजित्स्यात् ॥
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मुहूर्तचिंतामणौ गुरौ तोयरक्षा भृगौ ब्रामपित्र्ये
शनावीशसापौ मुहूर्ता निषिद्धाः ॥ ५४॥ रवावयमेति ॥ रवौ अर्यमा मुहूर्तो निषिद्धः एवं सोमे ब्रह्मरक्षः । द्वंद्वैकत्वम् । ब्रमरक्षःस्वामिकौ मुहूर्ती निषिद्धौ अन्यत्स्पष्टम् ॥ १४ ॥ अथ वेधं विवक्षुर्विहितनक्षत्रादिकमभिजिन्मानं च प्रहर्षिण्याह
निर्वेधैः शशिकरमूलमैत्रपित्र्यनाह्मांत्योत्तरपवनैः शुभो विवाहः॥ रिक्तामारहिततिथौ शुभेऽह्नि वैश्वप्रां
त्यांघ्रिः श्रुतितिथिभागतोऽभिजित्स्यात् ॥ ५५ ॥ निर्वेधैरिति ॥ वेधरहितैर्मुगादिनक्षत्रैविवाहः शुभः। रिक्तेति रिक्तामा ४, ९, १४, ३० आभिर्वजिततिथिषु शुभेऽह्नि शुभग्रहवारे विवाहः शुभः । अभिजिल्लक्षणमाह । अथ वैश्वेति । वैश्वमुत्तराषाढा तस्य प्रांत्यांशश्चतुर्थचरणः श्रुतेः श्रवणस्य तिथिभागः पंचदशांशो मिलित्वाभिजिगोगः स्यात् ॥ ५५ ॥ अथ वेधदोषं पंचशलाकाचक्रोद्धारनिरपेक्षं स्पष्टं शार्दूलविक्रीडितेनाहवेधोऽन्योन्यमसौ विरिंच्यभिजितोर्याम्यानुराधक्षयोविश्वेदोर्हरिपिन्ययोर्ग्रहकृतो हस्तोत्तराभाद्रयोः॥ स्वातीवारुणयोर्भवेन्निर्ऋतिभादित्योस्तथोपांत्ययोः
खेटे तत्र गते तुरीयचरणाद्योर्वा तृतीयद्वयोः ॥५६॥ वेधोऽन्योन्यमिति ॥ विरिंच्यभिजितोः रोहिण्यभिजितोर्ग्रहकृतो वेधोऽन्योन्यं परस्परं भवेत् । रोहिणीस्थे ग्रहेऽभिजिद्विद्धः अभिजित्स्थे रोहिणी विद्धा । एवं सर्वत्र व्याख्येयम् । चरणवेधमाह । खेट इति । तत्र तस्मिन्नक्षत्रे विद्यमाने ग्रहे सति यदि चतुर्थपादेऽस्ति तदा परनक्षत्रस्य प्रथमपादस्य वेधः । यदि तृतीयपादे तदा द्वितीयचरणस्य वेधः। एवं यदा द्वितीयपादे तदा तृतीयपादस्य वेधः। यदि प्रथमपादे तदा चतुर्थपादस्य वेध इ. त्यर्थः । अयं चरणवेधः सौम्यग्रहपर एव । नारदः । पादमेवं शुभैर्विद्धमशुभैर्नेव कृत्स्नत इति । क्रूरविद्धं युतं धिष्ण्यं क्रूराक्रांतं च कृत्स्नभम् । मणिहेममयं हh भूताक्रांतमिव त्यजेदिति । श्रीपतिः । वधूप्रवेशने दाने वरणे पाणिपीडने । वेधः पंचशलाकाख्योऽन्यत्र सप्तशलाकक इति । ज्योतिर्निबंधे गर्गः । मघायाः प्रथमे पादे मूलस्य प्रथमे तथा । रेवत्याश्च चतुर्थेऽशे विवाहः प्राणनाशन इति तद्नंडांतांतरं ज्ञेयम् ॥ ५६ ॥
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विवाहप्रकरणम् ।
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अथ विवाहादन्यत्र यज्ञोपवीतादौ कैश्विद्विवाहेऽपि सप्तशलाकाचक्रवेधो वर्ज्य उक्तस्तदर्थं चक्रन्यासं विनैव सप्तशलाकावेधं शार्दूलविक्रीडितेनाह
शाक्रेज्ये शतभानिले जलशिवे पौष्णार्यमर्क्षे वसुare वैश्वसुधांशुभे हयभगे सार्पानुराधे मिथः ॥ हस्तो पांतिमभे विधातृविधिभे मूलादिती त्वाष्ट्रभाजांत्री याम्यमधे कृशानुहरिभे विडे कुभृद्रेखिके ॥ ५७ ॥
शाक्रेज्ये इति ॥ कुभृद्रेखिके सप्तशलाकाचक्रे शाक्रेज्ये ज्येष्ठापुष्यनक्षत्रे मिथः परस्परं क्रूराधिष्ठितत्वेन विद्धे ज्ञेये । एवं जलशिवे पूर्वाषाढार्द्रे इत्यादि व्याख्येयम् । दीपिकायाम् । यस्याः शशी सप्तशलाकचक्रे पापैरपापैरथवा विवाहे । उद्वाहवस्त्रेण सुसंकृतांगी श्मशानभूमिं रुदती प्रयातीति ॥ ५७ ॥
अथ क्रूराक्रांतादिदोषं सापवादमनुष्टुभाह
ऋक्षाणि क्रूरविद्धानि क्रूरभुक्तादिकानि च ।। भुक्त्वा चंद्रेण मुक्तानि शुभाणि प्रचक्षते ॥ ५८ ॥
ऋक्षाणीति ॥ क्रूरग्रहैर्विद्धानि तथा क्रूरैर्मुक्तानि त्यक्तानि आदिशब्दात्क्रूरयुतानि क्रूरगंतव्यानि चकारात्रिविधोत्पातदूषितानि च नक्षत्राणि तानि यदि चंद्रेण भुक्त्वा मुक्तानि तदा शुभाणि शुभकर्मार्हाणि विवाहादौ योग्यानि बुधाः प्रचक्षते कथयति ॥ ९८ ॥ अथ लत्तादोषमुपजातिकयाह
ज्ञराहुपूर्णेदुसिताः स्वपृष्ठे भं सप्तगोजातिशरैर्मितं हि ॥ संलत्तयंतेऽर्कशनीज्यभौमाः सूर्याष्टतर्काग्निमितं पुरस्तात् ।। ५९ । ज्ञराह्निति ॥ गावो नव जातयो द्वाविंशतिः शराः पंच एतैर्मितं भं स्वाक्रांतनक्षत्रात् ज्ञराहुपूर्णैदुसिताः स्वष्टष्ठे संलत्तयंते । यथा बुधः सप्तमं राहुर्नवमं राहोः सदा वक्रगत्वान्नवमगणना क्रमेणैव कार्या यथाश्विन्यां राहुराश्लेषां लत्तयतीति पूर्णेदुः पूर्णिमांतचंद्रो द्वाविंशम् । तच्च । कृष्णपक्षे पंचम्यादितिथौ संभवति शुक्रः पंचमं स्वष्टष्ठे लत्तयतीत्यर्थः । अर्कशनीज्यभौमाः क्रमेण पुरस्ताद सूर्याष्टकनिमितं संलत्तयंते । यथा । सूर्यः स्वाक्रांतनक्षत्राद्वादशं शनिरष्टमम् गुरुः षष्ठं भौमस्तृतीयं नक्षत्रं अग्रतो लत्तयंतीत्यर्थः । वराहः । रविलत्ता वित्तहरी नित्यं कौजी विनिर्दिशेन्मरणम् । चांद्री नाशं कुर्याद्वौधी नाशं वदत्येव । सौरी मरणं कथयति बंधुविनाशं बृहस्पतेर्लत्ता । मरणं लत्ता राहोः कार्यविनाशं भृगोर्वदतीति ॥ ९९ ॥
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मुहूर्तचिंतामणौ अथ पातदोषं पथ्यार्ययाह
हर्षणवैधृतिसाध्यव्यतिपातकगंडशलयोगानाम् ॥
अंते यन्नक्षत्रं पातेन निपातितं तत्स्यात् ॥ ६०॥ हर्षणोति ॥ व्यतीपातक इति स्वार्थे कः हर्षणेत्यादि षड् योगानामते यच्चंद्रनक्षत्रं भवेत् तत्पातेन चंडीशचंडायुधाख्येन निपातितं स्यात् ॥ ६ ॥ __ अथ क्रांतिसाम्यापरपर्यायं महापातदोषं शालिन्याहपंचास्याजौ गोमृगौ तौलिकुंभौ कन्यामीनौ कळली चापयुग्मे ॥ तत्रान्योन्यं चंद्रभान्वोनिरुक्तं क्रांतेः साम्यं नो शुभं मंगलेषु ॥६१॥
पंचास्येति ॥ पंचास्याजौ सिंहमेषौ अन्ये प्रसिद्धाः एषु राशियुग्मेषु पाठक्रमण व्युत्क्रमणावस्थितयोश्चंद्रभान्वोः क्रांतिसाम्यं निरुक्तं तन्मंगलेषु नो शुभं स्यात् । अनेन क्रांतिसाम्यसभवमानं सूचितम् । तदानयनं सूर्यसिद्धांताद्रामविनोदाहा स्पष्टं ज्ञेयम् ॥ ६१ ॥
अथ खार्जूरदोषं सुबोधमिंद्रवज्रयाहव्याघातगंडव्यतिपातपूर्वशूलांत्यवज्र परिघातिगंडे ॥ योगे विरुद्ध त्वभिजित्समेतः खार्जूरमर्काद्विषमे शशी चेत्॥१२॥ व्याघातेति ॥ अंत्यो वैधृतिः यस्मिन् दिने व्याघातादिके विरुद्धे दुष्टे योगे सति अर्कादर्कनक्षत्रात् शशी चंद्रोऽभिजित्समेतो विषमे विषमसंख्याके नक्षत्रे स्यात्तदा खाराख्यो दोषः स्यात् । यदा समे स्यात्तदा न दोष इत्यर्थः । एकार्गलो दृष्टिपातश्चाभिजिद्रहितानि वै इति कश्यपेनात्राभिजिद्गणना निषिद्धा केशवार्कत्रिविक्रमादिभिरंगीकतेति उ. भयवचनप्रामाण्याद्विकल्पः ॥ ६२ ॥
अथोपग्रहदोषमुपेंद्रवज्रयाहशराष्टदिक्शक्रनगातिधृत्यस्तिथिधृतिश्च प्रकृतेश्च पंच ॥ उपग्रहाः सूर्यभतोऽब्जताराः शुभा न देशे कुरुबाह्निकानाम् ॥६॥
शराष्टेति ॥ सूर्यभतः सूर्याक्रांतनक्षत्रादब्जताराचंद्रनक्षत्राणि पंचाष्टदशचतुर्दशसतैकोनविंशतिः पंचदशाष्टादशैकविंशतिद्वाविंशतित्रयोविंशतिचतुर्विंशतिपंचविंशतिसंख्याश्चेत् स्युस्तदा उपग्रहनामका दोषाः स्युः । प्रकृतिरेकविंशतिः एषां देशभेदेन परिहारमाह । शुभा नेति । कुरुदेशे बाल्हिकदेशे शुभा न ॥ ६३ ॥
१ एकार्गलाख्यो ह्यभिजित्समेतो दोष: शशी चेद्विषमर्भगोऽर्कादित्यपि क्वचित्पाठः।
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विवाहप्रकरणम् । अथ प्रसंगात्पातोपग्रहलत्तास्वपवादमर्धयामं चानुष्टुभाह
पातोपग्रहलत्तासु नेष्टोऽघिः खेटपत्समः॥
वारस्त्रिघ्नोऽष्टभिस्तष्टः सैकः स्यादर्धयामकः ॥ ६४ ॥ पातेति॥पातश्चंडीशचंडायुधाख्यो दोषः उपग्रहाः प्रागुक्ताः लत्ता ज्ञराहुपूर्णेदुसितेत्यादिनोक्ता तत्र खेटपत्समः ग्रहचरणतुल्यो नक्षत्रचरणो नेष्टः । अयमर्थः । उपग्रह पाते रविर्यस्मिन् चरणे स्यात्तत्संख्य एव तस्य चरणो वज्यों नान्यः । लत्तायां तु । लत्ताकारी ग्रहो यत्र चरणे स्यात्तत्समसंख्य एव चरणो लत्तितनक्षत्रस्य वज्यों नान्यः । उक्तं च । उपग्रहेषु लत्तायां तथा चंडायुधाह्वये । ग्रहोऽस्ति यत्प्रमाणांशे विद्धांशस्तत्प्रमाणक इति । अयं परिहारः स्वार्जुरिकेऽपि द्रष्टव्यः । सूर्यो यस्मिन् पादे भवेत् तत्समसंख्य एव चरण एकरेखावस्थितचंद्रनक्षत्रस्य वर्ण्य इति खार्जूरिकसमांघ्रिभमित्युक्तत्वात् । वार इति । इष्टो वा. रस्त्रिघ्नः अष्टभिस्तष्टः शेषितो योऽकः सैकः सोऽर्धयामो दोषः स्यात् । कश्यपः । शैलाक्षश्रुतयः ७,९,४, सूर्ये चंद्रे षट् वेदपर्वताः ६,४,७ ॥ भौमे बाणाग्निनेत्राणि ५,३,२ सौम्ये वेदाक्षिवायवः ४,२,५ ॥ गुरुवारेऽग्निचंद्रेभाः ३, १, ८ शुक्रे नेत्राद्रिवह्नयः २, ७, ३॥ शनी चंद्रेभताः १, ८, ६ स्युः कुलिको यमघंटकः ॥ अर्धप्रहरसंज्ञांस्तान्मंगलेषु विवर्जयेत् । निधनं प्रहराधै तु निःसत्वं यमघंटके । कुलिके सर्वनाशः स्याद्रात्रावेते न दोषदा इति ॥ ६४ ॥ अथ कुलिकमनुष्टुभाह
शक्रादिग्वसुरसाध्यश्विनः कुलिका रवेः॥
रात्रौ निरेकास्तिथ्यंशाः शनौ चांऽत्योऽपि निंदिताः॥६५॥ . शक्रेति ॥ रविमारभ्य सर्ववारेषु क्रमादुक्तसंख्यास्तिथ्यंशा मुहूर्ताः कुलिकाः स्युः । यथा दिने रवौ १४ चंद्रे १२ भौमे १० बुधे ८ गुरौ ६ शुक्रे ४ शनौ २ रात्रावते निरेकाः कार्याः । यथा रवौ १३ चं. ११ भौ. ९ बु. ७ गु. ५ शु. ३ श. १ शनौ तु अंत्योऽपि रात्रेः पंचदशोऽपि मुहूर्तः कुलिकः। एते निंदिताः। एतेषामर्धयामादिदोषाणां पुननिरूपणं विवाहे अवश्यवर्जत्वाथै शीघ्रोपस्थित्यथै चेति । कुलिकापवादे गुरुः । वारेशे सबले वापि बलाढ्ये लग्नगे शुभे । कुलिकोदयदोषस्तु विनश्यति न संशयः ॥ वाराधीशे बलोपेते विधौ वा बलसंयुते । अर्धप्रहरसंभूतो दोषो नैवात्र विद्यते ॥ शुभे केंद्रगते चंद्रे शुभांशे वा शुभेक्षिते । लग्नगे सबले वापि कुलिकस्तु विलीयते ॥ अर्धप्रहरपूर्वार्ध मध्यं त यमघंटजम । वर्जयित्वा च कुलिकस्यांत्यांशं शुभमाचरेदिति ॥ १५ ॥
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मुहूर्तचिंतामणौ अथ दग्धतिथ्याख्यदोषमिंद्रवजयाहचापांत्यगे गोघटगे पतंगे कांजगे स्त्रीमिथुने स्थिते च ॥ सिंहालिगे नक्रधटे समाः स्युस्तिथ्यो द्वितीयाप्रमुखाश्च दग्धाः ६६
चापांत्येति ॥ तत्तद्राशिद्वयस्थिते पतंगे सूर्ये द्वितीयाप्रमुखा उभयपक्षसाधारणाः समसंख्याकास्तिथ्यो दग्धाः स्युः । यथा । धनुर्मीनगते सूर्ये द्वितीया दग्धा । दृषकुंभगेऽर्के चतुर्थी । कर्कमेषगे षष्ठी । कन्यामिथुनगेऽष्टमी । सिंहवृश्चिकगे दशमी । तुलामकरगेऽके द्वादशी दग्धेत्यर्थः । मासदग्धाश्च तिथयो मध्यदेशे वर्जिता इति परिहारः ॥ ६६ ॥
अथ जामित्रदोषं भ्रमरविलसितेनाहलग्नाचंद्रान्मदनभवनगे खेटे न स्यादिह परिणयनम् ॥ किंवा बाणाशुगमितलवगे जामित्रं स्यादशुभकरमिदम् ॥ ६७॥
लग्नादिति ॥ विवाहलग्नाच्चंद्राहा सप्तमभवनगते ग्रहे परिणयनं स्यात् । अस्यापवादः किंवेति । ग्रहाधिष्ठितनवांशमारभ्य बाणाशुग५५मितलवगे पंचपंचाशन्मितनवांशगे चंद्रे लग्ने वा जामित्रं सूक्ष्मं स्यात् । यथा मेषे पंचमनवांशे भौमोऽस्ति तस्मात्तुलायां पंचमनवांशस्थश्चंद्रो निषिद्धोऽन्येऽष्टौ नवांशाः शुभाः। एवंविधं सूक्ष्मजामित्रमिदमशुभकरं स्यात् । अस्यापवादो व्यवहारोच्चये । स्वोच्चेऽथवा स्वभवने स्फुरदंशुजाल: सौम्यालये हितगृहे शुभवर्गगो वा । जामित्रकादिपरिसंचितदोषराशिं हत्वा ददाति बहुशः सुखमेव चंद्र इति ॥ ६७ ॥
अथैकार्गलादिदोषाणामपवादभूतं साक्षाद्वसिष्ठवचनमेवेंद्रवजयाहएकार्गलोपग्रहपातलत्ताजामित्रकर्तर्युदयास्तदोषाः ॥ नश्यंति चंद्रार्कबलोपपन्ने लग्ने यथार्काभ्युदये तु दोषा ॥ ६८॥
एकागलेति ॥ चंद्रार्कबलोपपन्ने चंद्रार्कयोः स्वोच्चमित्रादिराशिस्थितत्वरूपेण बलेन युक्ते लग्ने सति एकार्गलादयो दोषा नश्यति । यथार्काभ्युदये दोषा रात्रिनश्यति ॥ ६८ ॥
अथ केषांचिद्दोषाणां देशविशेषेण परिहारमुपजात्याहउपग्रहदं कुरुबाह्निकेषु कलिंगवंगेषु च पातितं भम् ॥ सौराष्ट्रशाल्वेषु च लत्तितं भं त्यजेत्तु विडं किल सर्वदेशे ॥६९।।
उपग्रहःमिति ॥ स्पष्टार्थम् । अन्यच्च । लत्ता मालवके देशे पातः कौसलके तथा । एकार्गलं तु काश्मीरे वेधं सर्वत्र वर्जयेत् ॥ युतिदोषो भवेगौडे जामित्रस्य च यामुने । वेधदोषस्तु विध्याख्ये देशे नान्येषु केषु चेति ॥ ६९ ॥
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विवाहप्रकरणम् ।
अथ दशयोगदोषमुपजात्याहशशांकसूर्यःयुतेऽर्भशेषे खं भूयुगांगानि दशेशतिथ्यः॥ नागेंद्वोऽदुमिता नखाश्चेद्भवंति चैते दशयोगसंज्ञाः ॥ ७० ॥
शशांकेति ॥ चेद्यदि चंद्रसूर्यनक्षत्रयोर्युतेर्योगात् भैः सप्तविंशत्या भक्ताद्यः शेषस्तस्मिन् शून्यैकचतुःषट्दशैकादशपंचदशाष्टादशैकोनविंशतिविंशतिसंख्याके सति एतेंऽकाः दशदशयोगसंज्ञा भवंति । शिष्टानां दशानामंकानामभिहितत्वाद्दशयोग इत्यन्वर्था संज्ञा ॥ ७० ॥ अथ दशयोगफलं तदपवादं च शार्दूलविक्रीडितेनाहवाताभ्राग्निमहीपचोरमरणं रुग्वज्रवादाः क्षति
र्योगांके दलिते समे मनुयुतेऽथौजे तु सैकेर्धिते ॥ भंदास्रादथ संमितास्तु मनुभी रेखाः क्रमात्सँलिखे
वेधोऽस्मिन् ग्रहचंद्रयोर्न शुभदः स्यादेकरेखास्थयोः ॥ ७१ ॥ वाताभ्रेति ॥ शून्ये शेषे वातदोषः स्यात् एकशेषेऽभ्राच्चतुःशेषेऽग्नेः षट्शेषे महीपात् दशशेषे चोरात् एकादशसु मरणम् पंचदशसु रुक् अष्टादशसु वजम् एकोनविशेषु वादः कलिः झकटक इत्यर्थः । विंशतिशेषे क्षतिः द्रव्यनाशः । अथापवादः । योगांक इति । खं भूयुगादिरूपे योगांके समे युग्मसंख्याके सति दलिते अर्धीकते मनुभिश्चतुर्दशभिर्युक्ते योऽकः स्यात् तद्दास्रादश्विनीतो भं नक्षत्रं स्यात् । अौजे तु सैकेऽर्धिते योगांके ओजे विषमे सैके अर्धिते अश्विनीतः मं नक्षत्रं स्यात् । यथा समांकाः दश १ ० अर्धिताः ५ मनु १४ युताः १९ मूलं नक्षत्रं जातम् । ओजांके यथा विषमांके १५ योगः सैकः १६ अर्धितः ८ पुष्यनक्षत्रं जातम् । अथानंतरं मुनिभिः संमिताश्चतुर्दशरेखास्तिर्यक् क्रमात्संलिखेत्ततः अनेन प्रकारेण यन्नक्षत्रमागतं तत आरभ्य साभिजिन्नक्षत्रवृंदं अस्मिश्चक्रे लेख्यं तन्नक्षत्रे ग्रहा: स्थाप्याः । दिननक्षत्रे चंद्रः स्थाप्यः तत एकरेखास्थयोः ग्रहचंद्रयोः परस्परावलोकनरूपो वेधो न शुभदः । उक्तं च ज्योतिःसागरे । तिथ्यंगवेदैकदिगूनविंशशून्यं भवाष्टादशविंशसंख्याः । इष्टोडुना सूर्ययुतोडुना च योगादमी चेद्दशयोगदोषाः ॥ मरुन्मेघाग्निभूपालचौरमृत्युरुनोऽशनिः । कलिर्हानिर्दश दोषास्त्याज्याः स्युः सर्वथा बुधैः ॥ योगांके विषमे सैके समे सवसुलोचने । दलीलतेऽश्विनी पूर्वं दशयोगमुदाहृतम् ॥ दशयोगे महाचक्रे प्रमादाद्यदि विध्यते । क्रूरैः सौम्यग्रहैर्वापि दंपत्योरेकनाशनमिति । दशयोगापवादातरमाह भरद्वाजः । गुरौ लग्नाधिपे शुक्रे सवीर्ये लग्नकेंद्रगे । दश दोषा विनश्यति यथानौ तूल
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मुहूर्तचिंतामणौ राशयः ॥ व्यासः । गुरुणा भृगुणा वापि संयुतं दृष्टमेव च । दशयोगसमायुक्तमपि लग्नं शुभावहम् ॥ ७१॥
अथ पंचकाख्यं बाणदोषं शालिन्याहलग्नेनाढ्या याततिथ्योंऽकतष्टाः शेषे नागद्व्यब्धितकेंदुसंख्ये ॥ रोगो वही राजचौरौ च मृत्युर्बाणश्चायं दाक्षिणात्यप्रसिद्धः॥७२॥
लग्नेनेति ॥ शुक्लपक्षादिकास्तिथयो वर्तमानलग्नेनाढ्याः युक्ताः अंकैर्नवभिस्तष्टाः शेषे नागसंख्ये अष्टसंख्ये रोगाख्यो बाणः एवं द्विसंख्ये शेषे वयाख्यः चतुःसंख्ये राजाख्यः षट्संख्ये चौराख्यः एकसंख्ये मृत्युसंज्ञो वाणः एते बाणाः दाक्षिणात्येषु महाराष्ट्रेषु प्रसिद्धाः ॥ ७२॥ अथ व्यासमतेन बाणं सापवादं मालिन्याह
रसगुणशशिनागान्ध्यायसंक्रांतियातांशकमितिरथतष्टांकैर्यदा पंच शेषाः॥ रुगनलनृपचोरा मृत्युसंज्ञश्च बाणो
नवहृतशरशेषे शेषकैक्ये सशल्यः ॥ ७३ ॥ रसगुणेति ॥ रसगुणशशिनागाब्धिभिराव्या चासौ संक्रांतियाताशकमितिश्चेति कर्मधारयः । सूर्यभुक्तांशानां मितिः संख्या पंचधा स्थाप्या कलादिकमुपेक्ष्यं सा क्रमेण षट्येकाष्टचतुर्भिराव्या संयोज्यांकैनवभिस्तष्टा सती यदा पंचशेषा यस्मिन् स्थले पंच शिष्यते तत्र क्रमेण रुगादिवाणो ज्ञेयः । यथा आदौ पंचशेषे रोगबाणः द्वितीये पंचशेषेऽग्निबाणः तृतीये राजबाणः चतुर्थे चौरबाणः पंचमे मृत्युबाणः तस्माद्यं भवतीत्यर्थः । अयं बाणः शल्यसहितः तेन स्वल्पदोषः तदपवादभूतः सशल्यो बाण उच्यते । नवेति यानि प्रागागतानि शेषाणि तेषामैक्ये नवहते पश्चाच्छरशेषे सति सशल्यः शल्यसहितो बाणः स्यात् । पंचव्यतिरिक्तशेषे शल्यरहितो दुष्ट इत्यर्थः । अन्यैस्तु। तिथिवारभलग्नांको रसायब्जाष्टवेदयुक् । नंदाप्तपंचशेषे रुग्वह्निराट्चोरमृत्युकदिति ॥ ७३ ॥ अथ समयभेदेन वारभेदेन कर्मभेदेन च त्रिविधं बाणपरिहारं शार्दूलविक्रीडितेनाह
रात्रौ चोररुजौ दिवा नरपतिर्वह्निः सदासंध्ययोर्मृत्युश्वाथ शनौ नृपो विदि मृतिौमेऽग्निचोरौ रवौ ॥ रोगोऽथव्रतगेहगोपनृपसेवायानपाणिग्रहे वया॑श्च । क्रमतो बुधै रुगनलक्ष्मापालचोरा मृतिः ॥७४ ॥
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विवाहप्रकरणम् ।
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रात्रौ चोरेति ॥ चोररुजौ बाणौ रात्रौ त्याज्यौ । दिवा नरपतिः राजवाणस्त्याज्यः वह्निबाणः सदा दिवा रात्रौ त्याज्यः संध्ययोः सायंप्रातःसंध्ययोर्मृत्युबाणस्त्याज्यः । ज्योतिःप्रकाशे । रोगं चौरं त्यजेद्रात्रौ दिवा राजन्यपंचकम् । संध्ययोर्मृत्युदं त्याज्यं सर्वदा वह्निषंपंचकमिति । अथ वारभेदेन परिहारः । अथेति । शनिवारे नृपबाणः विदि बुधवारे मृतिबाणः भौमेऽग्निचौरौ बाणौ रवौ रोगबाणस्त्याज्यः । उक्तं च । रवौ रोगं कुजे वह्नि शनौ च नृपपंचकम् । वर्ज्यं पुनः कुजे चौरं बुधवारे च मृत्युदम् ॥ अथ कार्यभेदेन परिहारः । अथेति । क्रमत एषु शुभकर्मसु एते बाणाः वर्ज्याः । यथा व्रते यज्ञोपवीते रुक् गृहस्याच्छादनेऽग्निः नृपसेवायां राजवाणः याने चौर: पाणिग्रहे मृतिबाणो वर्ण्यः । उक्तं च । नृपाख्यं नृपसेवायां गृहगोपेऽग्निपंचकम् । याने चौरं व्रते रोगं त्यजेन्मृत्युं करग्रह इति ॥ ७४ ॥
अथ ग्रहदृष्टिमुपजातिकयाह
ज्याशं त्रिकोणं चतुरस्रमस्तं पश्यंति खेटाश्चरणाभिवृद्धया ॥ मंदो गुरुर्भूमिसुतः परे च क्रमेण संपूर्णहशो भवति ॥ ७५ ॥
त्र्याशमिति ॥ ये खेटाः यस्मिन् स्थाने स्थिताः तस्मात्कथ्यमानानि स्थानानि चरणाभिवृद्ध्या पश्यंति तद्यथा । त्र्याशं तृतीयं दशमं च एकचरणदृष्ट्या पश्यति । अनेन तत्तद्ब्रहोद्भवफलं चरणाभिवृद्ध्यैव भवतीति सूचितम् । मंद इति । मंदः शनैश्वरः स्वस्थानात् त्र्याशं संपूर्णदृक् चतुश्चरणदृष्टि एवं गुरुत्रिकोणे पूर्णदृक् भूमिसुतश्चतुरस्त्रे पूर्ण परेshचंद्रबुधशुक्राः सप्तमे पूर्णदृशः ॥ ७९ ॥
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अथोदयास्तशुद्धिं शिखरिणीभुजंगप्रयाताभ्यामाह
यदा लग्नांशेशी लवमथ तनुं पश्यति युतो भवेद्रायं वोदुः शुभफलमनल्पं रचयति ॥ लवधूनस्वामी लवमदनभं लग्नमदनं
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प्रपश्येद्वा वध्वाः शुभमितरथा ज्ञेयमशुभम् ॥ ७६ ॥ लवेशो लवं लग्नपो लग्नगेहं प्रपश्येन्मिथो वा शुभं स्याद्वरस्य ॥ लवयूनपोंऽशग्रुनं लग्नपोऽस्तं मिथो वेक्षते स्याच्छुभं कन्यकायाः ७७
यदा लग्नांशेश इति । लवेशो लवमिति ॥ लग्नेशः लग्नस्वामी अंशशो लग्ननवांशस्वामी लवं नवांशं पश्यति वाऽथवा नवांशेन सह युतो भवेत्तदा वोदुर्वरस्यानपं शुभफलं रचयति । यथा । मेषलग्ने मिथुनांशस्तदीशो बुधस्तुलायां मिथुनं पश्यति तत्र तिष्ठति वा अयमुदयशुद्धेः प्रथमप्रकारः तदभावे तु लग्नांशेशस्तनुं लग्नं पश्यति लग्नेन सह तो भवेत्तदापि वोढुः शुभफलमनल्पं स्यात् । यथा । मेषलने एव मिथुननवांशस्वा
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मुहूर्तचिंतामणौ मी बुधो मकरे नवांशं न पश्यति किंतु लग्नं पश्यति अथवा मेष एव तिष्ठति अयमदयशुद्धेद्धितीयः प्रकारः। लवद्यूनस्वामी लवान्नवांशात् द्यूनं सप्तमनवांशः तत्स्वामी लवमदनभं लवान्मदनभं सप्तमनवांशं पश्यति तेन सह युतो वा भवेत् तदा वध्वाः अनल्पं बहु शुभं रचयति । यथा मिथुननवांशात् सप्तमो धनुरंशः तदीशो गुरुमेषे धनुः पश्यति तत्र तिष्ठति वा अयमस्तशुद्धेः प्रथमप्रकारः । तदलाभे तु लवद्यूनस्वामी लग्नान्मदनं सप्तमं भवनं पश्यति युतो वा सप्तमभवनेन तदा वध्वाः शुभम् । यथा गुरुः कर्के स्वनवांशं न पश्यति किंतु सप्तमभवनं तुलां पश्यति अथवा तुलायामेवास्ति तदा वध्वाः शुभम् । अयमस्तशुद्धेर्द्वितीयः प्रकारः । इतरथेति यदा लग्नांशेशो लवं तनु वा न पश्यति तत्र युतो वा न स्यात्तदा वरस्याशुभम् एवं लवद्यूनस्वामी नवांशं सप्तमं वा न पश्यति तत्र युतो वा न स्यात् तदा कन्याया अशुभम् । काश्यपः। स्वदेशेनोदयास्तांशो वीक्षितौ वाथ संयुतौ । लग्नं वास्तगृहं तत्तदंशेशेनेक्षितं युतमिति ॥७६॥ लवेश इति । नवांशस्वामी नवांशं प्रपश्येत् लग्नस्वामी लग्नं पश्येत्तदा वरस्य शुभम् । एवं लवद्यूनपो नवांशात्सप्तमनवांशस्वामी अंशधूनं अंशसप्तमराशिं पश्येत् लग्नपो लग्नस्वामी अस्तं लग्नात्सप्तमभवनं पश्येत् तदा कन्यायाः शुभं स्यात् वा मिथः अंशसप्तमाधीशो लग्नसप्तममीक्षते लग्नात्सप्तमाधीशश्चांशसप्तममीक्षते तदापि कन्यायाः शुभं स्यात् । अत्राप्यन्यथात्वे दंपत्योरशुभमित्यर्थः । नारदः । लग्ननवांशको खस्वपतिना वीक्षितौ युतौ । न चेद्वान्योन्यपतिना शुभमित्रेण वा तथा ॥ वरस्य मृत्युः स्यात्ताभ्यां सप्तसप्तोदयांशकौ । एवं तौ वीक्षितयुतौ मृत्युर्वध्वाः करग्रह इति ॥ ७७ ॥ अथ पूर्वोक्तप्रकारेणोदयास्तशुद्धेरभावे तृतीयः प्रकार उच्यते मालिनीछंदसा
लवपतिशुभमित्रं वीक्षतेंऽशं तर्नु वा परिणयनकरस्य स्याच्छुभं शास्त्रदृष्टम् ॥ मदनलवपमित्रं सौम्यमंशगुनं वा
तनुमदनगृहं चेदीक्षते शर्म वध्वाः ॥ ७८ ॥ लवपतीति ॥ शुभं च तन्मित्रं चेति कर्मधारयः लवपतेर्लग्ननवांशेशस्य शुभग्रहः चंद्रबुधगुरुशुक्राणामन्यतमश्चेन्मित्रं स्यात्स चेदंशं नवांशं तनुं वा वीक्षते तदा परिणयनकरस्य वरस्य शास्त्रदृष्टं पुत्रादिप्राप्तिरूपं शुभं फलं स्यात् । एवं मदनलवपस्यास्तांशेशस्य मित्रं सौम्यं तच्चांशधूनं अंशाल्लग्ननवांशात् द्यूनं सप्तमनवांशं चेदीक्षते अथवा तनुमदनगृहं लग्नात्सप्तमभवनं चेदीक्षते तदा वध्वाः शर्म कल्याणं स्यात् । यद्युभयत्रापि नवांशस्वामिनो मित्रं पापग्रहश्चेत्तस्य दृष्टिरशुभैवेति फलितोऽर्थः । वराहः । शुद्धस्त्विह स्यान्न यदोदयांशो लग्नेन वास्तांश उपति शुद्धिम् । तदा सुहृत्सौम्यनिरीक्षितो यः शुभायसः स्यात्प्रवदंति संत इति । केचिद्विवाहे वज्रयोगं निषिद्धमाहुः । तल्लक्षणम् । तिथिवारं च नक्षत्रं
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विवाहप्रकरणम् ।
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नवभिश्च समन्वितम् । सप्तभिस्तु हरेद्भागं शेषांके फलमादिशेत् || त्रिशेषे तु जलं विद्यापंचशेषे प्रभंजनः । सप्तशेषे वज्रपातो ज्ञेयं वज्ञस्य लक्षणमिति ॥ ७८॥
अथार्कसंक्रमणदोषं मंजुभाषिण्याह
विषुवायनेषु परपूर्वमध्यमान्दिव सांस्त्यजेदितरसंक्रमेषु हि ॥ घटिकास्तु षोडश शुभक्रियाविधौ परतोऽपि पूर्वमपि संत्यजेदुधः ७९
विषुवायनेष्विति ॥ विषुवं तुलामेषसंक्रांती चतसृषु संक्रांतिषु परपूर्वमध्यमान् गतागामिवर्तमानान् दिवसान् बुधः शुभक्रियाविधौ विवाहादौ त्यजेत् । इतरसंक्रांतिषु संक्रमणकालात् परतोऽग्रे पूर्वं प्रागपि षोडश घटिका मिलित्वा द्वात्रिंशदटिकास्त्यजेत् । गुरुः । अयने विषुवे पूर्व परं मध्यं दिनं त्यजेत् । अन्यसंक्रमणे पूर्वाः पराः षोडश नाडिका इति ॥ ७९ ॥
अथ प्रसंगात्सकल ग्रहाणां संक्रांतिघटीरनुष्टुभाह
देवकर्तवोऽष्टाष्टौ नाड्योंऽकाः खनृपाः क्रमात् ॥
वर्ज्याः संक्रमणेऽर्कादेः प्रायोऽर्कस्यातिनिंदिताः ॥ ८० ॥ देवेति ॥ यथाक्रमेण सूर्यादेः संक्रमणे एता घटिका वर्ज्याः । यथा रवेः प्राकूपश्चात्रयस्त्रिंशद्धटिकास्त्याज्याः चंद्रस्य द्वे भौमस्य नव बुधस्य षट् गुरोरष्टाष्टौ अष्टाशीतिः शुक्रयांका नव शनेः खनृपाः षष्ठयधिकं शतमिति ॥ ८० ॥
अथ पंग्बंधबधिराख्यान् लग्नदोषानुपजातिकयाह
घ तुला बधिरौ मृगावौ रात्रौ च सिंहाजवृषा दिवांधाः ॥ कन्यानृयुक्कर्कटका निशांधा दिने घटोंऽत्यो निशि पंगुसंज्ञः ॥ ८१ ॥
इति ॥ घस्त्रे दिवसे तुलावृश्चिको बधिरसंज्ञकौ रात्रौ मकरधनुषौ बधिरसंज्ञों शेषं स्पष्टम् । वसिष्ठः । तुला च वृश्चिकश्चैव दिवसे बधिरौ तथा । धनुश्च मकरश्चैव बधिरौ निशि कीर्तितौ ॥ मेषो वृषो मृगेंद्रश्व दिवसांधाः प्रकीर्तिताः । नृयुक्कर्कटकन्याश्च रात्रावंधाः प्रकीर्तिताः ॥ कुंभमीनौ च पंगू हौ दिवा रात्रौ यथाक्रममिति । अनेन तस्मि - न्कालेंऽधादिलग्नानि वर्ज्यानीत्यर्थः ॥ ८१ ॥
अथ केचिन्मतमाह
afar धन्वितुलालयोऽपराह्ने मिथुनं कर्कटकोंगना निशांधाः ॥ दिवसांधा हरिगोक्रियास्तु कुब्जा मृगकुंभांतिमभानि संध्ययोर्हि८२
बधिरा धन्वीति ॥ स्पष्टार्थम् ॥ ८२ ॥ अथैषां प्रयोजनं सापवादं प्रहर्षिण्याह
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मुहूर्तचिंतामणौ
दारियं बधिरतनौ दिवांधलग्ने वैधव्यं शिशुमरणं निशांधलने ॥ पंरवंगे निखिलधनानि नाशमीयुः सर्वत्राधिपगुरुदृष्टिभिर्न दोषः ।। ८३ ।।
दारिद्र्यमिति ॥ पंग्वंगे पंगुल | अन्यत्स्पष्टम् ॥ ८३ ॥ अथ विहितनवांशांश्चित्रपदाच्छंदसाह
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कार्मुकतौलिककन्यायुग्मलवे झषगे वा ॥ यहि भवेदुपयामस्तर्हि सती खलु कन्या ॥ ८४ ॥
कार्मुकेति ॥ युग्मं मिथुनं एषां नवांशाः झषगे वा मीननवांशे विकल्पेन वाशब्द एकीयमतसूचनार्थः । एष्वंशेषु यहि उपयामो विवाहो भवेत्तर्हि कन्या सती पतिव्रता भवेत् ॥ ८४ ॥
अथ विहितनवांशे क्वचिन्निषेधं श्रीछंदसाह -
अंत्यनवांशे न च परिणेया काचन वर्गोत्तममिह हित्वा ॥ नो चरलग्ने चरलवयोगं तौलिमृगस्थे शशभृति कुर्यात् ॥ ८५ ॥ अंत्यनवांश इति ॥ विहितनवांशेष्वपि यथा मेषलग्ने धनुर्नवमांशोंऽतिम इत्येवं विधे विषये काचन कन्या न परिणेया न विवाह्या परंतु वर्गोत्तममंतिमनवांशं । हित्वा तत्र विवाह उचित एव । यथा मिथुन मिथुननवांशे | अंत्यांशका अपि श्रेष्ठा यदि वर्गोत्तमाह्वया इति कश्यपोक्तेः । नो चरलन इति । तौलिमृगस्थे तुलामकरस्थे चंद्रे चरलने विहितचरलवयोगं नो कुर्यात् । यथा मेषलने तुलांश इति ॥ ८५ ॥
अथ लग्नभंगमुपजात्याह
व्यये शनिः खेऽवनिजस्तृतीये भृगुस्तनौ चंद्रखला न शस्ताः ॥ लग्नेट् कविग्लश्च रिपौ मृतौ ग्लौलग्नेट्शुभाराश्च मदे च सर्वे ॥ ८६ ॥
व्यये शनिरिति ॥ द्वादशे शनिर्नो शस्तः खे दशमेऽवनिजो भौमो न शस्तः तृतीये शुक्रो न शस्तः लग्ने चंद्रखलाः चंद्रः पापग्रहाश्च न शस्ताः लग्नेट्लग्न स्वामी कविः शुक्रो ग्लौश्चंद्रश्च रिपौ षष्ठे न शस्ताः ग्लौचंद्रः लग्नेट् लग्नस्वामी शुभा बुधगुरुशुक्रा आरो भौमश्र एते मृतावष्टमे न शस्ताः मदे सप्तमे सर्वे ग्रहा न शस्ताः ॥ ८६ ॥
• अथ रेखाप्रदान्वसंततिलकयाह
व्यायाष्टषट्सु रविकेतुतमोऽर्कपुत्राख्यायारिगः क्षितिसुतो द्विगुणायगोऽब्जः ॥
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विवाहप्रकरणम् । सप्तव्ययाष्टरहितौ ज्ञगुरू सितोऽष्ट.
त्रिनषड्व्ययगृहान्परिहृत्य शस्तः ॥८७ ॥ न्यायेति ॥ स्पष्टार्थम् ॥ ८७ ॥ कर्तर्यादिमहादोषाणामपवादं शार्दूलविक्रीडितेनाह
पापा कतरिकारको रिपुगृहे नीचास्तगी कर्तरी दोषो नैव सितेरिनीचगृहगे तत्पष्टदोषोऽपि न ॥ भौमेऽस्ते रिपुनीचगे नहि भवेद्भौमोऽष्टमो दोषकृनीचे नीचनवांशके शशिनि रिःफाष्टारिदोषोऽपि न ॥८॥ पापा कतरिकारकाविति ॥ कर्तरिकारको क्रूरौ ग्रहौ रिपुगृहे शत्रुगृहे स्थितौ नीचे नीचराशिगौ अस्तगौ अस्तं गतौ वा तदा कर्तरीदोषो नैव स्यात् । कश्यपः । पापयोः कर्तरीकोंः शत्रुनीचगृहस्थयोः । यदा चास्तगयोर्वापि कर्तरी नैव दोषदेति । अथ सिते शुक्रे अरिनीचगृहगे शत्रुगृहगे स्वनीचगृहगे वा सति तत्षष्ठदोषोऽपि न स्यात् । कश्यपः । नीचराशिगते शुक्रे शत्रुक्षेत्रगतेऽपि वा । भृगुषटस्थितो दोषो नास्ति तत्र न संशय इति। भौमेऽस्ते अस्तंगते रिपुनीचगे शत्रुगृहे नीचगृहे वाऽष्टमो भौमो दोषकन्न स्यात् । कश्यपः । अस्तगे नीचगे भौमे शत्रुक्षेत्रगतेऽपि वा। कुजाष्टमोद्भवो दोषो न किंचिदपि विद्यते ॥ अथ शशिनि चंद्रे नीचे नीचनवांशके वा सति द्वादशाष्टमषष्ठस्थानस्थितचंद्रदोषोऽपि न स्यात् । नीचराशिगते चंद्रे नीचांशकगतेऽपि वा । चंद्रे षष्ठाष्टरिःफस्थे दोषो नास्ति न संशय इति कश्यपोक्तेः ॥ ८॥ अथाब्ददोषाद्यनेकदोषापवादं वसंततिलकयाह
अब्दायनर्तुतिथिमासभपक्षदग्धतिथ्यंधकाणबधिरांतमुखाश्च दोषाः॥ नश्यंति विद्गुरुसितेष्विह केंद्र कोणे
तबच पापविधुयुक्तनवांशदोषः॥ ८९॥ अब्दायनेति ॥ विद्रुरुसितेषु केंद्रकोणे सप्तमस्थानरहितेषु सत्सु एते दोषाः नश्यति । कश्यपः । अब्दायनर्तुमासोत्थाः पक्षतिथ्यृक्षसंभवाः । ते सर्व नाशमायांति केंद्रसंस्थे शुभग्रहे ॥ काणांधवधिरोद्भूता दग्धलग्नतिर्भवाः । ते दोषा नाशमायांति केंद्रसंस्थे शुभग्रहे ॥ अकालजाश्च नीहारविद्युत्पांस्वभ्रसंभवाः । परिवेषप्रतीसूर्यशकचापध्वजादयः ॥ दोषप्रदा मंगलेषु कालजाश्चेन्न दोषदाः । गुरुरेकोऽपि केंद्रस्थः शुक्रो वा यदि वा बुधः ॥ हरेः १ नीचे इत्यपि पाठः।
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मुहूर्तचिंतामणी
स्मृतिर्यथा हंति तद्वद्दोषांस्त्रिंकोणगः । लत्तोपग्रहचंडीशचंद्रजामित्रसंभवान् ॥ तत्केंद्रगो गुरुर्हति सुपर्णः पन्नगानिव । तद्वच्चेति । तथा यदि पापाः क्रूराः विधुश्चंद्रस्तैर्युक्तो यो नवांशस्तद्दोषोऽपि नश्यति । उक्तं च । सक्रूरराशेरशुभो नवांशः प्रोक्तः सपापोऽपि विलग्नसंस्थः। त्रिकोणकेंद्रेषु गुरुः सितो वा यदा तदाऽसावशुभोऽपि शस्त इति ॥ ८९ ॥
अथान्यान्परिहारान् शालिन्याह
केंद्रे कोणे जीव आये रवौ वा लग्ने चंद्रे वापि वर्गोत्तमे वा ॥ सर्वे दोषा नाशमायांति चंद्रे लाभे तद्वदुहुर्मुहूर्ताशदोषाः ॥ ९० ॥
केंद्रे कोण इति ॥ केंद्रे सप्तमरहिते १, ४, १० कोणे नवपंचमे वा तत्र गुरौ सति सर्वे दोषा नाशमायांति । कश्यपः । काव्ये गुरौ वा सौम्ये वा यदा केंद्रत्रिकोणगे । नाशं यत्यखिला दोषा पापानीव हरिस्मृतेः ॥ अथवा | आये एकादशे रवौ सति सर्वे दोषा नाशमायांति । वा लग्ने चंद्रे वा वर्गोत्तमे राशिनवांशयुक्ते सति । यथा मिथुने मिथुनो नवांशस्तदापि दोषनाशः द्वितीयवाशब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात् । चंद्रो लग्नादुपचये सर्वदोषविनाशकः । उक्तं च । यत्रैकादशगः सूर्यो दोषा नाशं ययुस्तदा । स्मरणादेव रुद्रस्य पापं जन्मशतोद्भवम् || वर्गोत्तमगते लग्ने सर्वे दोषा लयं ययुः । चंद्रो वाप्यथवा येऽपि ग्रीष्मे कुसरितो यथा ॥ चंद्रेति । एकादशे चंद्रे सति दुर्मुहूर्ताशदोषाः दुर्मुहूर्ता वावर्यमेत्यादयः अंशदोषाः पापग्रहनवांशाख्यः ते सर्वे तद्वन्नाशमायांति । कश्यपः । मुहूर्तलग्नषड्डुर्गकुनवांशग्रहोद्भवाः । ये दोषास्तान्निहंत्येव यत्रैकादशगः शशी ॥ ज्योतिर्निबंधे । नक्षत्रदोषं कुनवांशदोषं गंडांतदोषं च मुहूर्तदोषम् । विरुद्ध पंचांगविरुद्धदोषं निशाकरो लाभगतो निहंति ॥ ९० ॥
अथ सामान्यतो दोषसमूह परिहारं शिखरिण्याह
त्रिकोणे केंद्रे वा मदनरहिते दोषशतकं
हरेत्सौम्यः शुक्रो द्विगुणमपि लक्षं सुरगुरुः ॥ भवेदा केंद्रेऽप उत लवेशो यदि तदा समूहं दोषाणां दहन इव तूलं शमयति ॥ ९१ ॥
त्रिकोणे इति ॥ त्रिकोणे सप्तमरहिते केंद्रे वा यदि सौम्यो बुधस्तिष्ठेत्तदा दोषशतकं हरेत् । उक्तस्थानस्थितः शुक्रोऽपि द्विगुणं दोषशतकं दोषद्विशतिं हरेत् । तथोक्तस्थानस्थितो गुरुरपि लक्षदोषान्हरेत् । भवेदिति अंगपो लग्नस्वामी उत वार्थे लवेशो लग्नगतनवांशनाथो वा आये केंद्रे यदि भवेत्तदा दोषाणां समूहं नाशयति । यथा दहनोऽग्निस्तूलं का
१ न कालजानित्यपि पाठः । २ चंद्र इत्यपि पाठः ।
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विवाहप्रकरणम् । पसिमिव । लग्नेट् लग्नांशनाथो वा आयगः केंद्रगोऽपि वा । राशि निहंति दोषाणामिंधनानीव पावक इति ॥ ९१ ॥ अथ लग्नविंशोपकाननुष्टुभाह
दौ दो ज्ञभृग्वोः पंचेंदो रवौ सार्धत्रयो गुरौ ॥
रामा मंदागुकेत्वारे साधैकैकं विशोपकाः ॥ ९२॥ दाविती ॥ ज्ञभृग्वो रेखाप्रदयोः सतोह्रौं द्वौ विंशोपको एवंविधे चंद्रे पंच सूर्ये सास्त्रियः ३, ३० गुरौ रामास्त्रयः मंदः शनिः अगू. राहुः केतुः आरो भौमः एषु प्रत्येकं सार्धमेकैकम् १, ३० विंशोपकाः ज्ञेयाः ॥ ९२ ॥ ग्रहवशेन श्वशुरादिविभागं सप्रयोजनमुपजात्याह
श्वश्रूः सितोऽर्कः श्वशुरस्तनुस्तनु
र्जामित्रपः स्यादयितो मनः शशी ॥ एतद्बलं संप्रतिभाव्य तांत्रिक
स्तेषां सुखं संप्रवदेद्विवाहतः॥ ९३ ॥ श्वरिति ॥ सितः कन्यायाः श्वश्रूः सूर्यः श्वशुरः तनुर्लग्नं तनुः शरीरं स्यात् । जामित्रपः सप्तमाधीशो दयितो भर्ता मनः चंद्रः एतेषां शुक्रादीनां बलं विचार्य तांत्रिकः सिद्धांतवेत्ता विवाहतो विवाहानंतरं श्वशुरादीनां सुखं स्यादिति प्रवदेत् । कैश्चिद्विशेषांतरमप्युक्तम् । सूयात्पतिः स्त्री च विधोस्तथाराद्वित्तं सुतो ज्ञाच्च सुखं गुरोश्च । धर्मः सितादर्कसुताच्च वेश्म ब्रूयात्समुद्दाहविधौ स्वयुक्त्येति ॥ ९३ ॥ अथ संकीर्णजातीनां विशेषं मत्तमयरच्छंदसाह
कृष्णे पक्षे सौरिकुजार्केऽपि च वारे वये नक्षत्रे यदि वा स्यात्करपीडा ॥ संकीर्णानां तर्हि सुतायुर्धनलाभ
प्रीतिप्राप्त्यै सा भवतीह स्थितिरेषा ॥२४॥ कृष्णे पक्ष इति ॥ कृष्णे पक्षे शनिभौमार्कवारे विवाहोक्तनक्षत्रभिन्ननक्षत्रेषु । च. काराढुष्टयोगेष्वपि संकीर्णानामनुलोमप्रतिलोमजानामपि यदि करपीडा विवाहः स्यात् तर्हि सा करपीडा सुतायुर्धनलाभप्रीतिप्राप्त्यै भवति । एषा स्थितिः वा ग्रहणात् तदभावे प्रागुक्तदिनेऽपि विवाहः कार्य इति ॥ ९४ ॥
अथ गांधर्वादिविवाहे विशेषमनुष्टुभाह
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मुहूचिंतामणौ गांधर्वादिविवाहेऽकावेद४ नेत्रर गुणे३ दवः १॥ कुर युगां४ गाद नि३ भू१ रामा३ स्त्रिपद्यामशुभाः शुभाः ॥ ९५ ॥
गांधर्वादीति ॥प्राजापत्यब्राह्मदैवार्षसंज्ञा विवाहा उक्तकाले एव कार्याः । गांधर्वासुरराक्षसपैशाचाख्याः सर्वकाले कार्याः । श्रीपतिः । प्राजापत्यब्रह्मदैवार्षसंज्ञाः कालेषूक्तेष्वेव कार्या विवाहाः । गांधर्वाख्यश्चासुरो राक्षसश्च पैशाचो वा सर्वकालं विधेय इति । तत्र केचिदकौत्सूर्यनक्षत्रात् वेदनेत्रादिषु क्रमेण सदसत्स्यात् । अयमर्थः । सूर्याक्रांतनक्षत्रमारभ्य चत्वायेशुभानि ततो वे शुभे ततस्त्रीण्यशुभानीति क्रमेण त्रिपद्यां त्रयाणां पदानां समाहारस्त्रिपदी तस्यां ब्रह्मविष्णुरुद्रपदाभिधचक्रत्रये इत्यर्थः। एकस्मिन्नपि पदे यदशुभं तदशुभमेव पदत्रये यच्छुभं तच्छुभमिति कृत्वा अशुभशुभानि क्रमेण पठितानि । एवं पदत्रयाणां मुख्यार्थकथनात् पृथक्कथनानुपयोगः । तथा च पदत्रयमुक्तं भूपालवल्लभे । एवं पदत्रये शुद्धं नक्षत्रं दापयेत्सुधीः । गांधर्वासुरपैशाचराक्षसेषु विचिंतयेदिति ॥ ९ ॥ अथ विवाहात्प्राक्कर्तव्यानामावश्यककृत्यानां दिनशुद्धिं पृथ्वीछंदसाह
विधोलमवेक्ष्य वा दलनकंडनं वारक गृहांगणविभूषणान्यथ च वेदिकामंडपान् ॥ विवाहविहितोडुशिविरचयेत्तथोद्वाहतो
न पूर्वमिदमाचरेत्रिनवषण्मिते वासरे ॥ ९६ ॥ विधोर्बलमिति ॥ अत्र चंद्रबलमावश्यकत्वेन विचार्यम् । वारको मंगलकलशः गृहभूषणं चित्रलेखनादि अंगणविभूषणं संमार्जनगोमयाद्यालेपः अथ च वेदिका चत्वरं वधूवरोपवेशनार्थ स्थलविशेषः । मंडपो गृहाच्छादनं कटादिना वितानादिना वा । बहुवचनात्कटाहाद्यारोपणहरिद्राचंदनकांजिकाधारणादिसकलशुभारंभान् उद्वाहतः पूर्वं विवाहोक्तैरुडुभिर्नक्षत्रैः पंचांगशुद्धिसहिते दिने रचयेत् । उपलक्षणत्वात्तत्तन्नक्षत्रैरुपनयनादावपि पूर्वशुभकर्मप्रारंभान्विरचयेत् । तथा इदं कार्यजातं त्रिनवषण्मिते दिने पूर्व न आचरेत् । चित्रा विशाखा शततारकाश्विनी ज्येष्ठाभरण्यौ शिवभाच्चतुष्टयम् । हित्वा प्रशस्तं फलतैलवेदिकाप्रदानकं कंडनांडनादिकमिति दैवज्ञमनोहरोक्तेः । तत्रैव । मूलेंदुरुद्रश्रवणार्कपोष्णविश्वेशचित्रानलरेवतीषु । संस्थापनं कांजिककुंडिकाया वारे रवभूमिसुतस्य शस्तमिति ॥९६ ॥
अथ वेदीलक्षणं मंडपोद्वासने दिननियमं च शालिन्याहहस्तोच्छ्राया वेदहरतैः समंतातुल्या वेदी समतो वामभागे ॥ युग्मे घने षष्ठहीने च पंचसप्ताहे स्यान्मंडपोद्वासनं सत् ॥ ९७ ।। हस्तोच्छ्रायेति ॥ स्पष्टार्थः । नारदः । हस्तोच्छ्रिता चतुर्हस्तैश्चतुरस्रा समंततः । स्तं
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विवाहप्रकरणम् ।
१५३ भैश्चतुर्भिः सुश्लक्ष्णैर्वामभागे स्वसद्मनः ॥ मंडपोद्वासनं कार्य संमे तु दिवसे बुधैः । षष्ठं तु विषमं नेष्टं मुक्त्वा पंचमसप्तमाविति ॥ ९७ ॥ कैश्चित्तैलादिलापने संख्यानियम उक्तस्तमाह
मेषादिराशिजवधूवरयोर्बटोश्च तैलादिलापनविधौ कथितात्र संख्या ॥ शैला दिशः शरदिगक्षनगाद्रिबाणा बाणाक्षबाणगिरयो ७,१०,५,१०,५,७,७,५,५,५,५,७ विबु
धैस्तु कैश्चित् ॥ ९८॥ मेषादिराशिजेति ॥ स्पष्टम् देशविशेषे औडीछादौ प्रसिद्धम् ॥ ९८ ॥
अथ प्राप्तशिष्टसंमतं मंडपादौ स्तंभवेशनमिंद्रवज्रयाहसूर्येऽगनासिंहघटेषु शैवे स्तंभोऽलिकोदंडमृगेषु वायौ ॥ मीनाजकुंभे निक्रतो विवाहे स्थाप्योऽग्निकोणे वृषयुग्मकर्के ॥९९ ॥
सूर्येति ॥ कन्यातुलासिंहगतेऽर्के शैवे ईशानकोणे विवाहादौ स्तंभः स्थाप्यः वृश्चिकधनुर्मकरस्थिते वायुकोणे मीनमेषकुंभस्थिते निर्ऋतिकोणे दृषमिथुनकर्कस्थिते अग्निकोणे स्तंभः स्थाप्य इत्यर्थः ॥ ९९ ॥ अथ गोधूलीप्रशंसां मंदाक्रांतयाहनास्यामृक्षं न तिथिकरण नैव लग्नस्य चिंता नो वा वारो न च लवविधिों मुहूर्तस्य चर्चा ॥ नो वा योगो न मृतिभवनं नैव जामित्रदोषो । गोधूलिः सा मुनिभिरुदिता सर्वकार्येषु शस्ता ॥ १० ॥ नास्यामिति ॥ स्पष्टार्थम् । गोधूल्याधिकारिण आह नारदः । प्राच्यानां च कलिंगानां मुख्यं गोधूलिकं स्मृतम् । गांधवादिविवाहेषु वैश्योद्वाहे च योजयेत् ॥ भूपालवल्लभे । विप्रेषु घटिकालाभे दातव्यं गोरजं बुधैः । संकीर्णे गोरजः शस्तं परेषु द्वितयं शुभम् । घटिकालग्नाभावे कार्य विप्रैस्तु गोरजो लग्नमिति । महादोषान् परित्यज्य प्रोक्तान् धिष्ण्यादिकेषु च । कारयेद्गोरजो यावत्तावल्लग्नं शुभावहमिति । दैवज्ञमनोहरे । कुलिकं क्रांतिसाम्यं च मूर्ती षष्ठाष्टगः शशी । पंच गोधूलिके त्याज्या अन्ये दोषाः शुभावहा इति । तत्र गोधूलिकाकालः केशवार्केणोक्तः । अत्रोभयत्र घटिकादलमिष्टमाहुाह्यं तदंबरमणेरपि वार्धबिंबादिति । केचित्तु । यावद्दिनांते दिशि पश्चिमायां पश्येत्तृतीयं रविबिंबभागम् । त. स्मात्परं नाडिकयुग्ममेके गोधूलिकालं मुनयो वदंति ॥ १०० ॥ १ समे च दिक्स कुर्याद्देवकोत्थापनं बुध इत्यपि पाठः ।
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मुहूर्तीचंतामणौ । अथ गोधूलिभेदं जलधरमालाछंदसाहपिंडीभूते दिनकृति हेमंतौ स्यादर्धास्ते तपसमये गोधूलिः ॥ संपूर्णास्ते जलधरमालाकाले त्रेधा योज्या सकलशुभे कार्यादौ १०१
पिंडीभूत इति ॥ हेमंत” शीतकाले मार्गादिमासचतुष्टये दिनकृति सूर्ये पिंडीभूते गोलकसदृशे संध्यायां नीहारातत्वेन निष्प्रभे इत्यर्थः । तस्मिन् समये गोधलिझेंया । तथा तपसमये उष्णकाले चैत्रादिमासचतुष्टये अर्धास्ते अर्धबिस्य दृश्यत्वे गोधूलिः । जलधरा मेघास्तेषां माला समूहस्तस्योत्पादककाले वर्षाकाले श्रावणादिमासचतुष्टये सूर्ये संपूर्णास्ते दर्शनं यस्य तादृशे सति गोधूलिःजलधरमालाशब्देन छंदोनामापि सूचितम् । न केवलमियं विवाहे किंतु सकलशुभे कार्यादौ ज्ञेया ॥ १०१ ॥ अथ गोधूलिसमये अवश्यवानि वैश्वदेवीछंदसाह
अस्तं याते गुरुदिवसे सौरे सार्के लग्नान्मृत्यौ रिपुभवने लग्ने चंदौ ॥ कन्यानाशस्तनुमदमृत्युस्थे भौमे
वोढा धनसहजे चंद्रे सौख्यम् ॥ १०२ ॥ अस्तं याते इति ॥ गोधूलिरित्यनुवर्तते । बृहस्पतिवारे सूर्य अस्तं याते गोधूलिः शुभा स्यात् न तु पूर्वम् । अर्धयामसद्भावात् । तथा सौरे शनौ सार्के सत्येव गोधूलिः शुभा न त्वस्तानंतरं कुलिकसद्भावात् । क्रांतिसाम्यमपि त्याज्यम् । तथा लग्नात सायंकालीनलग्नात मृत्यावष्टमे रिपुभवने षष्ठे वा लग्ने एव वा चंद्रे सति कन्यानाशः स्यात् । लग्ने इति लनस्थे मदनस्थे मृत्युस्थे वा भौमे सति वोढुवरस्य नाशः स्यात् शेषं स्पष्टम् ॥ १०२॥ अथ सूर्यस्पष्टगतिमिंद्रवजयाह
मेषादिगेऽर्केऽष्टशरा ५८ नगाक्षाः ५७ सप्तेषवः ५७ सप्तशरा ५७ गजाक्षाः ५८॥ गोक्षाः ५९ खताः ६० कुरसाः ६१ कुतर्काः
६१ कंगानि ६१ षष्टि ६० नवपंच ५९ भुक्तिः ॥ १०३ ॥ मेषादिगे इति ॥ मेषादिद्वादशराशिषु स्थूला कलात्मिका स्पष्टा गतिरित्यर्थः १०३ सूर्यस्य तात्कालिकीकरणमनुष्टुभाहसंक्रांतियातघस्राद्यैर्गतिनिघ्नी खषट ६० हृता ॥
लब्धेनांशादिना योज्यं यातः स्पष्टभास्करः ॥ १०४ ॥ संक्रांतियातेति ॥ पंचांगे यदिने यावतीषु घटीषु पलेषु च संक्रांतिस्ततआरभ्य वाभीष्टदिनपर्यंत यावंति दिनानि घटी पलानि भवंति तैर्मेषादीष्टराशिस्थेऽर्केसति तत्सूर्यस्थू
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विवाहप्रकरणम् ।
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लस्पष्टगतिर्गुणनीया षष्ट्या भाज्या यल्लब्धं तेंऽशाः अवशिष्टं कलादि येंऽशावयवास्ते आदिशब्दवाच्याः तैर्यातक्षं यातराशिः सूर्यमुक्तमेषादिराशिर्युक्तः सन् तात्कालिकः स्पष्टभास्करः स्यात् ॥ १०४ ॥
अथ लग्नानयनमनुष्टुभाह
तनोरिष्टांशकात्पूर्वं नवांशा दशसंगुणाः ॥ रामाप्ता लब्धमंशाद्यं तनोर्वर्गादिसाधने ॥ १०५ ॥
तनोरिति ॥ लग्नस्य क्रियमृगास्येत्यादिना यो नवांशी विचारितः स यावत्संख्याक आगच्छेत्तत्पूर्वनवांशा यावंतः स्युस्ते दशगुणाः रामैस्त्रिभिराप्ता यल्लब्धं अंशाद्यं अंशकलाविकलात्मकं तत्तनोरिष्टकालिकंभुक्तं स्यात्तेन कृत्वा प्रागुक्तकुजशुक्र सौम्येत्यादिप्रकारेण षड्डुर्गसाधनं स्यात् ॥ १०५ ॥
'अथैवं साधिताभ्यां रविलग्नाभ्यां घटिकानयनं शालिन्याहअर्काल्लग्नात्सायनाङ्गोग्यभुक्तै भागैर्निनात्स्वोदयात्खाग्निभक्तात् ॥ भोग्यं भुक्तं चांतरालोदयात्यं षष्ट्या भक्तं स्वेष्टनाड्यो भवेयुः १०६
अर्कादिति । अयनांशसहितसूर्यात् राशिभोग्यांशैः सायनसूर्यकांतराशेः स्वदेशीय उदयः मेषादिराशीनां पलात्मकं प्रमाणं गुण्यं खामिभिस्त्रिंशता भक्तं लब्धानि भोग्यानि पलानि स्युः । एवं लग्नात्सायनांशात् । भुक्तांशैः स्वोदयो गुण्यः । खानिभक्तो लब्धानि भुक्तानि पलानि एवं जातानां भोग्यभुक्तपलानामैक्यं कार्यं तत्सायनांश लग्नार्कयोरंतरालोदयपलैर्युक्तं कार्यं षष्ट्या भक्तं सूर्योदयादिष्टघटिका भवेयुः ॥ १०६ ॥
विशेषं शालिन्याह
चेनार्कों सायनावेकराशौ तद्विश्लेषनोदयः खानिभक्तः ॥ स्वेष्टः कालो लग्नमूनं यदाद्रात्रेः शेषोऽकत्सषभान्निशायाम् ॥ लग्नाविति ॥ सायनांशी लग्नाक एकराशौ भवतस्तयोर्विश्लेषों ऽतरांशास्तैर्गुणितः स्वदेशीय उदयः ततः खानिभक्तो लब्धमिष्टकालः सूर्योदयात्स्यात् । तत्र यदाऽकत् सायनादेकराशिस्थितं लग्नमूनं स्यात् तदा य इष्टकाल आगतः स सूर्योदयात्प्रायात्रिशेषो भवेत् । अयमर्थः । आगत इष्टकालः षष्ट्यां प्रपात्य प्राग्दिनीय सूर्योदयानंतरमेतावानिष्टकालः अथवा रात्रिमानात् प्रपात्य प्राग्दिनीय सूर्यास्तानंतर मेतावानिष्टकालः । अथ रात्रौ विशेष उच्यते । निशायां रात्रौ सूर्यात् सषड्भात् राशिषट्कयुक्तात्प्रागुक्तप्रकारेणार्कालग्नादित्यादिनेष्टकालः साध्यः स सूर्यास्तानंतरं भवेत् । एवमानीते इष्टकाले अंशप्रवृत्तेः पंच पलानि योज्यानि० इति संप्रदायः । तत्समये परस्परदर्शनं कार्यमित्याह । कश्यपः । अन्योऽन्यवीक्षणं सम्यक् सुलग्ने कारयेत्सदेति । सुलग्नसाधनं घटिकायंत्रेण । तत्र घटस्थापने नारदः ।
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मुहूर्तचिंतामणौ ताम्रपात्रे जलैः पूणे गंधपुष्पैरलंकते । तंडुलस्थे रत्नयुते शुचिभूमावहर्पतेः ॥ मंडला|दयं वीक्ष्य जलपात्रे विनिक्षिपेत् । तत्र मंत्रः । यंत्राणां मुख्ययंत्रं त्वमिति धात्रा पुरा कृतम् । दंपत्योरायुरारोग्यसुपुत्रधनहेतवे ॥ जलयंत्रकमेतस्मादिष्टसिद्धिप्रदं भवेत् । अथवा साधयेत्कालं द्वादशांगुलशंकुनेति । शंकुघटीज्ञानं रामविनोदे मयोक्तं तत एव ज्ञेयम् ॥ १०७ ॥ अथ विवाहादौ शुभकार्येऽवश्यवानविस्मरणार्थं शार्दूलविक्रीडितत्रयेणाह
उत्पातान्सहपातदग्धतिथिभिर्दुष्टांश्च योगांस्तथा चंद्रज्योशनसामथास्तमयनं तिथ्याः क्षयर्डी तथा ॥ गंडांतं च सविष्टिसंक्रमदिनं तन्वंशपास्तं तथा तन्वंशेशविधूनथाष्टरिपुगान् पापस्य वर्गास्तथा ॥ १०८ ॥ सेंदुक्रूरखगोदयांशमुदयास्ताशुद्धिचंडायुधान् खार्जूरं दशयोगयोगसहितं जामित्रलत्ताव्यधम् ॥ बाणोपग्रहपापकर्तरि तथा तिथ्यृक्षवारोत्थितं दुष्टं योगमथार्धयामकुलिकाद्यान्वारदोषानपि ॥ १०९ ॥
राक्रांतविमुक्तभं ग्रहणभं यत्क्रूरगंतव्यभं वेधोत्पातहतं च केतुहतभ संध्योदितं भं तथा ॥ तबच्च ग्रहभिन्नयुद्धगतभं सर्वानिमान्संत्यजेदुद्वाहे शुभकर्मसु ग्रहकृतान् लग्नस्य दोषानपि ॥ ११० ॥
॥ इति मु० चिंता० षष्ठं विवाहप्रकरणं समाप्तम् ।। ६ ॥ उत्पातानिति । सेंदुरेति । क्रूराक्रांतेति च ॥ उत्पातादीन् उद्वाहे विवाहे यज्ञोपवीतादौ शुभकर्मसु च त्यजेदिति तृतीयश्लोकेनान्वयः । उत्पातान् दिव्यभौमांतरिक्षान् लक्षणया तत्संबंधि सप्त वज्योन दिवसान् पातो महापातः क्रांतिसाम्यमिति यावत् दग्धतिथयश्चापांत्यगे गोघटगे इत्यादिनोक्ताः । एतैः सह उत्पातं त्यजेदित्यर्थः । तथा दुष्टान् व्यतीपातादियोगान् चंद्रगुरुशुक्राणामस्तमयनमस्तम् तिथ्याः क्षयर्थी तिथिक्षयं तिथिवृद्धिं च गंडांतं तिथिनक्षत्रलग्नानां त्रिविधम् विष्टिर्भद्रा संक्रमदिनं संक्रमकालादुभयतो वा घटिका अयने विषुवे च पूर्वापरदिनसहितसंक्रांतिदिनं ज्ञेयम् ताभ्यां सहितमिति पूर्वेण संबंधः । तन्वंशपास्तं तनुलेग्नं अंशो लग्नगतो विहितनवांशः तौ पातः तो तन्वंशपो तयोरस्तम् । लग्नेशास्तं लग्ननवांशस्वाम्यस्तं च तथा तन्वंशेशविधून लग्नेशनवांशेशचंद्रान अष्टमषष्ठस्थानगान तथा पापग्रहवर्गान् ॥१०८॥ सेंदुक्रूरखगोदयांशम् इंदुसहितं लग्न लग्नांशं च क्रूरग्रहसहितं लग्नं लमांशं चेत्यर्थः । उदयास्तशुद्धिं उदयशुद्धिमस्तशुद्धिं च इतरथा ज्ञेयमशुभामित्याद्युक्ताम चंडायुधं हर्षणवैधृतिसाध्येत्यादिनोक्तम् । खाजूंरं व्याघातगंड इत्यादिनोक्तम् । दशयोगः सूर्यक्षेचं
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वधूप्रवेशप्रकरणम् ।
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द्रयुतेऽर्भशेष इत्यादिनोक्तः योगो ग्रहयुतिः तत्सहितं जामित्रलत्ताव्यधं जामित्रं लग्नजामित्रं चंद्रजामित्रं च लग्नाच्चंद्रान्मदनभवनगे इत्यादिनोक्तम् । लत्ता ज्ञराहुपूर्णैदुसिता इत्यादिनोक्ता व्यधं पंचशलाकासप्तशला कोक्तं च बाणाः पंचकं उपग्रहः प्रसिद्धः शराष्टदिक्शक्रनगेत्यादिः पापकर्तरि । समाहारद्वंद्वैकवचनम् । तिथ्यृक्षवारोत्थितं दुष्टयोगं तिथिनक्षत्रवारैः कृत्वोत्थितमुत्पन्नं दुष्टयोगं यथा तिथिनक्षत्रोत्थं सार्प द्वादश्यां वैश्वमादिम इत्यादि तिथि - वारोद्भवं सूर्येशपंचेत्यादि नक्षत्रवारोद्भवं याम्यं त्वाष्ट्रमित्यादि तिथिनक्षत्रवारोद्भवं हस्तार्कं पंचमी तिथावित्यादि दृष्टयोगम् अर्धयामकुलिकाद्यान्वारदोषानपि आदिशब्देन दुर्मुहूर्तादिकं च ॥ १०९ ॥ क्रूराक्रांतविमुक्तभं क्रूरग्रहेण युक्तभं क्रूरविमुक्तभं च ग्रहणभं यस्मिन्नक्षत्रे चंद्रसूर्योपरागो जातस्त क्रूरस्य गंतव्यमं त्रेधोत्पाताः त्रिविधोत्पाताः दिव्यभौमांतरिक्षाः तैर्हतं भम् तन्मासषङ्कं त्याज्यम् एवं ग्रहणनक्षत्रमपि केतुहतभम् केतुना धूननैः स्पर्शनैश्च यन्नक्षत्रं हतं अनेन नक्षत्रांतरेऽपि दोषः संध्योदितं भं सूर्यास्तकाले यन्नक्षत्रस्य क्षितिजे उदयः तत्सूर्यनक्षत्राच्चतुर्दशं नक्षत्रमित्यर्थः । तद्वच्च ग्रह भिन्नयुद्धगतभं ग्रहेण भेदितं ग्रह'युद्धगतं च षण्मासं निषिद्धम् । तथा ग्रहकृतान् लग्नस्य दोषान् व्यये शनिः खेऽवनिज इत्यादिकान् लग्नसंबंधिदोषान् संत्यजेत् । मूलवाक्यानि पूर्वमेव लिखितानि ॥ ११० ॥ इति मुहूर्तचिंतामणौ प्रमिताक्षरायां पष्ठं विवाहप्रकरणं समाप्तम् || ६ ||
अथ वधूप्रवेशप्रकरणप्रारंभः ॥
अथ वधूप्रवेशप्रकरणं व्याख्यायते । अथ वधूप्रवेशो नाम नूतनपरिणीताया वध्वाः प्रथमतः क्रियमाणो भर्तृगृहे प्रवेशो वधूप्रवेशस्तन्मुहूर्तमुपेंद्रवज्रयाह
समाद्रिपंचांकदिने विवाहादधूप्रवेशोऽष्टिदिनांतराले ॥ शुभः परस्ताद्विषमान्दमा सदिनेऽक्षवर्षात्परतो यथेष्टम् ॥ १ ॥ समाद्रीति ॥ विवाहाद्विवाहदिवसादारभ्याष्टिदिनांतराले षोडशदिनमध्ये समाद्रिपंचांकदिने समदिनानि द्वितीयचतुर्थषष्ठाष्टमदशमद्वादशचतुर्दशपोडशानि विषमदिनमध्ये सप्तमपंचमनवमदिनानि तेषु वधूप्रवेशः शुभः । नारदः । आरभ्योद्वाहदिवसात्षष्ठे वाप्यष्टमे दिने । वधूप्रवेशः संपत्त्यै दशमेऽथ समे दिने । पष्ठादीनां समत्वादेव ग्रहणे सिद्धे पुनस्तदुक्तिरतिप्राशस्त्यार्थी । वधूप्रवेशनं कार्य पंचमे सप्तमे दिने । नवमे च शुभे वारे सुलग्नेशशिनो बले । इति ज्योतिर्निबंधे । पोडशदिवसानंतरं वधूप्रवेशस्तदा विषमाब्दमासदिने विषमवर्षे विषममासे विषमदिने च कार्यः । अक्षवर्षादिति पंचवर्षादनंतरं विषमवर्षादिनियमो नास्ति । किंतु दोषरहितकाले वधूप्रवेशो विधेयः । उक्तं च । विवाहमारभ्य वधूप्रवेशो युग्मे दिने षोडशवासरांतः । ऊर्ध्वं ततोऽब्देऽयुजि पंचमांतं पुनः पुरस्तान्नियमो न चास्तीति ॥ १ ॥
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मुहूर्तचिंतामणौ अथ नक्षत्रशुद्धिमनुष्टभाह
ध्रुवक्षिप्रमृदुश्रोत्रवसुमूलमघानिले ॥
वधूप्रवेशः सन्नेष्टो रिक्तारार्के बुधे परैः ॥२॥ ध्रुवेति ॥ ध्रुवादिनक्षत्रेषु वधूप्रवेशः सन् शुभफलः रिक्ताराके रिक्तासु ४, ९, १४ आरे भौमे अर्के रवौ न इष्टः अर्थादन्यतिथिषु रविभौमव्यतिरिक्तवारेषु शस्त इत्यर्थः । अपरैर्बुधवारेऽपि नेष्टः ॥ २ ॥
अथ विशेष महेंद्रवजयाहज्येष्टे पतिज्येष्टमथाधिके पति हत्यादिमे भर्तृगृहे वधूः शुचौ ॥ श्वश्रृं सहस्ये श्वशुरं क्षये तनुं तातं मधौ तातगृहे विवाहतः ॥ ३ ॥
___इति मु० सप्तमं वधूप्रवेशप्रकरणं समाप्तम् ॥ ७॥
ज्येष्ठे पतिज्येष्ठमिति ।। विवाहतो विवाहानंतरं आदिमे ज्येष्ठे भर्तृगृहे स्थिता वधूः पतिज्येष्ठं हंति आदिमे अधिके पतिं भर्तारं हंति आदिमे शुचावाषाढे श्वश्रू भर्तृजननी हंति आदिमे सहस्ये पौषे श्वशुरं भर्तुः पितरं हंति । आदिमे क्षये क्षयमासे भर्तृगृहे तिष्ठंती तनुं निजं शरीरं हंति म्रियत इत्यर्थः । तथा आदिमे मधौ चैत्रे तातगृहे पितृगृहे तिष्ठंती तातं पितरं हंतीत्यर्थः । यदि पित्राद्यभावस्तर्हि तन्मासि तगृहावस्थितौ सत्यामपि न कोऽपि दोष इत्यर्थः । न भयं तेषामभावे इत्युक्तेः । ज्योतिर्निबंधे । विवाहात्प्रथमे पौषे आषाढे चाधिमासके न सा भर्तृगृहे तिष्ठेच्चैत्रे तातगृहेऽपि च ॥ आषाढो ज्येष्ठोपलक्षकः ॥३॥ इति मुहूर्तचिंतामणौ प्रमिताक्षरायां सप्तमं वधूप्रवेशप्रकरणं समाप्तम् ॥ ७ ॥
___अथ द्विरागमनप्रकरणप्रारंभः॥ __ अथ द्विरागमनप्रकरणं व्याख्यायते । तत्र वधूप्रवेशानंतरं परावृत्त्य पितृगृहं प्राप्ताया वध्वाः पुनर्भर्तृगृहे प्रवेशो द्विरागमनशब्दवाच्यः तन्मुहूर्त पंचचामरच्छंदसाह
चरेदोजहायने घटालिमेषगे रवौ रवीज्यशुद्धियोगतः शुभग्रहस्य वासरे ॥ नृयुग्ममीनकन्यकातुलावृषे विलग्नके
द्विरागर्म लघुधुवे चरेऽस्रपे मृदूडुनि ॥ १॥ चरेदिति ॥ अथानंतरं वक्ष्यमाणेषु लघुध्रुवादिनक्षत्रेषु ओजहायने विषमवर्षे प्रथम तृतीयादिवर्षे तथा घटालिमेषगे रवौ कुंभे सृश्चिके मेषे रवौ सति तथा वरस्य स्वीज्यशुद्धियोगतः शुभग्रहस्य वारे मिथुनमीनकन्यातुलावृषाणामन्यतमे लग्ने शुभयुतद्दष्टे सति ल
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द्विरागमनप्रकरणम् ।
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ध्रुवचराणि प्रसिद्धानि अस्रपो मूलम् मृदूनि प्रसिद्धानि एतेषु द्विरागमं चरेत्कुर्यात् । अत्र सामान्यतः गुरुशुक्रास्तादिविचारः पूर्वोक्त एव ज्ञेयः ॥ १ ॥ अथ संमुखशुक्रदोषं प्रहर्षिण्याह
दैत्येज्यो ह्यभिमुखदक्षिणे यदि स्याद्गच्छेयुर्न हि शिशुगर्भिणीनवोढाः ॥ बालश्चेजति विपद्यते नवोढा चेद्वन्ध्या भवति च गर्भिणी त्वगर्भा ॥ २ ॥
दैत्यज्य इति । दैत्येज्यः शुक्रः गंतव्यदिगभिमुखे गंतुर्दक्षिणभागे वा स्थितः स्यात्तदा शिशुर्वालकः गर्भिणी गर्भवती नवोढा नूतनपरिणीता एता न गच्छेयुः । यदि प्रतिशुक्रे गच्छेयुस्तदेत्याह बाल इति चेद्वालो गच्छति तदा विपद्यते म्रियते नवोढा चेजति तदा वंध्या अपत्यसंभावनारहिता स्यात् । गर्भिणी चेद्रजति तदा अगर्भा गर्भस्त्राववती स्यात् । यदि शुक्रः पूर्वस्यामुदितः पूर्वी गंतुः संमुखः उत्तरां गंतुर्दक्षिणः पश्चिमां गंतुः ष्टष्ठे दक्षिणां गंतुर्वामे स्यात् तदा पूर्वोत्तरे दिशौ न गच्छेत् । यदि पश्चिमायामुदितः शुक्रः तदा पश्चिमां गंतुः संमुखः दक्षिणां गंतुर्दक्षिणः पूर्वी गंतुः पृष्ठे उत्तरां गंतुर्वामे तदा पश्चिमदक्षिणदिशौ न गच्छेत् केचिदीपोत्सवप्रतिपदि नक्षत्रादिनियमं विनैव वधूप्रवेशं वांछंति । उक्तं च । अस्तंगते गुरौ शुक्रे सिंहस्थे वा बृहस्पतौ । दीपोत्सवदिने चैव कन्या भर्तृगृहं विशेदिति ॥ २ ॥
अथ प्रतिशुक्रापवादं मंजुभाषिण्याह
नगरप्रवेशविषयाद्युपद्रवे करपीडने विबुधतीर्थयात्रयोः ॥ नृपपीडने नववधूप्रवेशने प्रतिभार्गवो भवति दोषकृन्न हि ॥ ३ ॥ नगरप्रवेशेति ॥ विषयो देशः आदिशब्देन ग्रामः तस्योपद्रवे अन्यराजकृतोपद्रवे दुर्भिक्षाद्युपद्रवे वा सति गंतव्यदिशि प्रतिशुक्रदोषो नास्ति । करपीडने विवाहोद्देशेन यात्रायां सत्यां विबुधा देवास्तेषां यात्रा यथा नगरकोटयात्रा तीर्थयात्रा प्रयागादिका तयोः नृपपीडने राज्ञः सकाशात् पीडायां दंडादिकृतायां सत्याम् नववधूतनपरिणीता वधूः तस्याः प्रवेशे प्रतिभार्गवः संमुखशुक्रः दोषकृन्नहि भवति । भार्गवः । स्वभवनपुरप्रवेशे देशानां विभ्रमे तथा । नूतनवध्वा गमने प्रतिशुक्रविचारणं नास्ति । एकग्रामे पुरे वापि दुर्भिक्षे राजविप्लवे । विवाहे तीर्थयात्रायां प्रतिशुक्रो न दुष्यतीति बादरायणोक्तेः ॥ ३ ॥
अथ प्रौढस्त्रीणां द्विरागमने तथा गोत्रपरत्वेन च प्रतिशुक्रापवादांतरमिंद्रवंशयाहपिsये गृहे चेकुचपुष्पसंभवः स्त्रीणां न दोषः प्रतिशुक्र संभवः ॥
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मुहूर्तचिंतामणौ भृग्वंगिरोवत्सवसिष्ठकश्यपात्रीणां भरद्वाजमुनेः कुले तथा ॥४॥
__इति मु० अष्टमं द्विरागमनप्रकरणं समाप्तम् ॥ ८॥ पित्र्ये गृह इति ॥ पितुरिदं पित्र्यं तस्मिन्पित्र्ये गृहे कुचौ स्तनौ पुष्पमृतुस्तत्संभवः स्यात्तदा स्त्रीणां प्रतिशुक्रसंभवो दोषो नास्ति । उपलक्षणत्वाद्भर्तुः सूर्यगुरुशुद्धिराहित्यसंभवोऽपि दोषो नास्तीत्यपि ज्ञेयम् । चंडेश्वरः । पित्र्यागारे कुचकुसुमयोः संभवो वा यदि स्यात्पत्युः शुद्धिर्न भवति रवेः संमुखो वाथ शुक्रः । शुक्रे लग्ने गुणवति तिथौ चंद्रताराविशुद्धौ स्त्रीणां यात्रा भवति सफला सेवितुं स्वामिसद्म ॥ अथ भृग्वंगिरोवत्सवसिष्ठकश्यपात्रीणां भरद्वाजमुनेः कुले कोऽर्थः । एतद्वंशोत्पन्नानां प्रतिशुक्रसंभवो दोषो नास्ति । बादरायणः । कश्यपेषु वसिष्ठेषु भृग्वत्र्यंगिरसेषु च । भारद्वाजेषु वत्सेपु प्रतिशुक्रो न दुष्यतीति । अयं चापवादो यात्रामात्रसाधारणः । केचिदमुमपवादं बुधसंमुखेऽप्यूचुः । महेश्वरः । तीर्थानां गमने तथैकनगरे ग्रामे च सौम्यं तथेति ॥ ४ ॥
इति दै० प्रमिताक्षरायां द्विरागमनप्रकरणं समाप्तम् ॥ ८ ॥
अथाग्याधानप्रकरणप्रारंभः॥ अथान्याधानप्रकरणं व्याख्यायते । यत्र तु कालनियमेनाधानादिविहितं तत्र न मुहूर्तविचारः । यदा तु कालनियमाभावस्तदा मुहूर्ती विचार्य एवेत्यभिसंधायान्याधानादिमुहूर्त वसंततिलकयाह
स्यादग्निहोत्रविधिरुत्तरगे दिनेशे मिश्रध्रुवांत्यशशिशकसुरेज्यधिष्ण्ये ॥ रिक्तासु नो शशिकुजेज्यभृगौ न नीचे
नास्तं गते न विजिते न च शत्रुगेहे ॥ १॥ स्याग्निहोत्रविधिरिति ॥ उत्तरगे दिनेशे उत्तरायणगते सूर्ये सति मिश्रे कृत्तिकाविशाखे ध्रुवाणि रोहिण्युत्तरात्रयं अंत्यं रेवती शशी मृगः शक्रो ज्येष्ठा सुरेज्यधिप्ण्यं पुष्यः एषु नक्षत्रेषु अग्निहोत्रविधिः स्यात् रिक्तासु नो कार्यम् चंद्रमंगलगुरुशुक्रेषु नीचगतेषु अस्तंगतेषु ग्रहांतरैर्वजितेषु तथा शत्रुगृहस्थितेषु अग्याधानं नो कार्यम् ॥ १ ॥ अथ लग्नशुद्धिं वसंततिलकयाह
नो कर्कनक्रझषकुंभनवांशलग्ने नोऽब्जे तनौ रविशशीज्यकुजे त्रिकोणे ॥ केंद्रःषत्रिभवगे च परैस्त्रिलाभषट्खस्थितैनिधनशुद्धियुते विलग्ने ॥२॥
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अभ्याधानप्रकरणम् ।
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नो कर्केति ॥ कर्कमकरमीनकुंभानां नवांशे लग्ने चान्याधानं नो कार्यम् । लग्ने चंद्रे सति नो कार्यम् । चंगस्योपलक्षणत्वाच्छुक्रेऽपि लग्ने सति नो कार्यम् । यस्य चाधानलग्नस्थे चंद्रे च भृगुनंदने । उपैति तस्य जातोऽग्निर्निर्वाणं सततं कुले इति कश्यपोक्तेः । रविशशीज्येति । सूर्यचंद्रगुरुभौमेषु त्रिकोणकेंद्रक्षेपटूत्रिभवगेषु नवमपंचमलमचतुर्थसप्तमदशमषष्ठतुतीयस्थानस्थितेषु सत्सु परैर्बुधशुक्रशनिराहुकेतुभिः त्रिलाभषट्खस्थितैः तृतीयैकादशषष्टदशमस्थानस्थितैः सद्भिः आधानं हितं स्यात् । निधनेति अष्टमस्थानशुद्धियुते लग्ने अष्टमस्थाने शुभग्रहोऽपि न शुभः । अथवा निधनशुद्धियुते इति निधनमष्टमं लग्नं कस्मादित्याकांक्षायामाधानकर्तुर्जन्मराशिलग्नाभ्यामष्टमं लग्नमित्यर्थः । तस्य शुद्धत्वं तदभाव इति यावत् तेन युक्ते लग्ने इत्यर्थः । अत्र व्याख्यानद्वयेऽपि प्रमाणसद्भावात् इयमपि युक्तम् । अत्र निधनशुद्धिश्च निधनशुद्धिश्र ताभ्यां युते लग्न इत्यर्थः ॥ २ ॥ अथान्याधानकर्तुराधानलग्नवशाद्यागकर्तृत्वयोगाननुष्टुभाह
चापे जीवे तनुस्थे वा मेषे भौमें बरे द्युने ॥ षट्sयायेऽब्जे रवौ वा स्याज्जाताग्निर्यजति ध्रुवम् ॥ ३ ॥
इति श्रीमुहूर्तचिंतामणौ नवममश्याधानप्रकरणं समाप्तम् ॥ ९ ॥
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चाप इति ॥ जीवे गुरौ चापे धनुःस्थे लग्नगे सति आधानलग्ने धनुराख्ये गुर्वधिष्ठिते सतीत्यर्थः । अयमेको योगः । अथवा | भौमे मेषलग्नस्थिते सति अयं द्वितीयो योगः । अथवा । आधानलग्नाद्दशमे सप्तमे वा भौमे सति योगद्वयमेतत् । अथवा अब्जे चंद्रे षष्ठतृतीयैकादशस्थानस्थे सति योगत्रयमेतत् । अथवा षट्त्रयाये रवौ सूर्ये सति योगत्रयमेतत् । एवंविधे लग्ने यो जाताग्निरग्निहोत्रकर्ता ध्रुवं निश्चयेन जयति ज्योतिष्टोमादियागं करोतीत्यर्यः ॥ ३ ॥
इति श्रीदैवज्ञानंतसुतदैवज्ञरामविरचितप्रमिताक्षरायां नवममन्याधानप्रकरणं समाप्तम् ॥९॥
अथ राजाभिषेकप्रकरणप्रारंभः ॥
अथ राजाभिषेकप्रकरणं व्याख्यायते । तत्र कालशुद्धिमिंद्रवंशयाहराजाभिषेकः शुभ उत्तरायणे गुर्विदुशुकै रुदितैर्बलान्वितैः ॥ भौमार्कलग्नेशदशेशजन्मपैन चैत्ररिक्तारनिशामलिम्लुचे ॥ १ ॥
राजाभिषेक इति ॥ उतरायणगते सूर्ये सति तथा गुर्विदुशुः बृहस्पतिचंद्रशुक्ररुदितैः सद्भिः तथा भौमार्को प्रसिद्धौ लग्नेशो जन्मलग्नेशः दशेशौ वर्तमानजातकीयमहादशांतर्दशस्ट्रोः स्वामिनौ । जन्मपो जन्मराशिस्वामी एतैर्बलान्वितैः उच्चस्वगृहादिगृहस्थैः सद्भिः राजाभिषेकः शुभ उक्तः । नो चैत्रेति । चैत्रमासः रिक्ताः ४, ९, १४ आरो भौमः
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मुहूर्तचिंतामणौ निशा रात्रिः मलिम्लुचोऽधिमासः एषु राजाभिषेको नो कार्यः । कुत्रचित् भौमवार उक्तः स सेनापत्यभिषेकपरो ज्ञेयः भौमस्य सेनापतित्वात् । गोविप्रराज्यपितृकर्मचतुष्पदेऽपीति चतुष्पदे राज्याभिषेक उक्तः सोऽमावास्यायां भवत्येवेति ॥ १ ॥
अथाभिषेके नक्षत्राणि लग्नशुद्धिं चंद्रवंशयाहशाक्रश्रवःक्षिप्रमृदुध्रुवोडुभिः शीर्षोदये वोपचये शुभे तनौ । पापैस्त्रिषष्ठायगतैः शुभग्रहैः केंद्रत्रिकोणायधनत्रिसंस्थितैः ॥२॥
शाक्रश्रव इति ॥ शाको ज्येष्ठा श्रवः श्रवणः क्षिप्राण्यश्विनीपुष्यहस्ताः मृदूनि चित्रामृगरेवत्यनूराधाः ध्रुवाणि रोहिण्युत्तरात्रयम् । एतैर्नक्षत्रै राजाभिषेकः शुभः। अत्र चित्राग्रहणम् । ज्येष्ठाश्रवःक्षिप्रमृदुध्रुवेषु सौम्यग्रहस्याह्नि तिथी च रिक्ता इति महेश्वरवचनात् । अन्यग्रंथे तदभावात् । शीर्षोदय इति । शीर्षोदया मिथुनसिंहकन्यातुलावृश्चिककुंभाख्याः एषु अथवा उपचये स्वजन्मलग्नात्स्वजन्मराशेर्वा उपचये त्रिषडेकादशदशमानामन्यतमे लग्ने सति शुभे शुभग्रहे तनौ लग्नगते सति शुभग्रहदृष्टे वा सति अभिषेकः शुभः। कश्यपः। जन्मराशेरुपचये लग्ने शीर्षोदये स्थिरे।शुभग्रहेक्षितयुते न युते वीक्षिते परैरिति । पापैरिति पापग्रहैः तृतीयषष्ठैकादशस्थानस्थितैः शुभग्रहैः प्रथमचतुर्थसप्तमदशमनवमपंचमैकादशद्वितीयतृतीयस्थानस्थितै राजाभिषेकः शुभः ॥२॥
अथ स्थानविशेषे पापग्रहैरशुभं फलं सापवादमिंद्रवंशयाहपापैस्तनौ रुङ्गिधने मृतिः सुते पुत्रार्तिरर्थव्ययगैर्दरिद्रता॥ स्यात्वेऽलसो भ्रष्टपदो युनांबुगैः सर्वं शुभं केंद्रगतैः शुभग्रहः ॥३॥
पापैरिति ॥ तनौ लग्नस्थितैः पापैहैः रुक् रोगः स्यात् राज्ञ इति शेषः । निधनेऽष्टमे पापग्रहैः मृतिः स्यात् । सुते पंचमैः पापग्रहैः पुत्रातिः पुत्रपीडा स्यात् । अर्थव्ययगैः द्वितीयद्वादशगैः पापैर्दरिद्रता स्यात् । खे दशमे पापैरलसो निरुद्योगः स्यात् । युनांबुगैः सप्तमचतुर्थस्थानस्थैः पापग्रहैः भ्रष्टपदो भ्रष्टैश्वर्यः स्यात् । अथापवादमाह । सर्व शुभमिति केंद्रगतैः शुभग्रहैः सर्व प्रागुक्तं दुष्टफलं शुभं शुभोदकै स्यात् ॥ ३ ॥ ___ अथ विशेष भुजंगप्रयातेनाहगुरुर्लग्नकोणे कुजोरी सितः खे स राजा सदा मोदते राजलक्ष्म्या॥ तृतीयायगौ सौरिसूयौं खबंध्वोर्गुरुश्चेद्धरित्री स्थिरा स्यान्नृपस्य ४
इति मुहूर्तचिंतामणौ दशमं राजाभिषेकप्रकरणं समाप्तम् ॥१०॥ गुरुर्लग्नकोण इति ॥ लग्ने गुरुश्चेत्स्यादथवा कोणे नवपंचमे गुरुः स्यात् कुनो भौमोऽरौ शत्रुगृहे षष्ठे स्यात् खे दशमे सितः शुक्रः स्यात् एतादृशेऽभिषेकयोगे यो रा
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यात्राप्रकरणम् ।
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जामिषिच्यते स सदा सर्वकालं राजलक्ष्म्या मोदते अयमेको योगः । सौरिसूर्यौ तृतीयायगौ स्याताम् यथासंख्यं शनिस्तृतीये रविरेकादशे गुरुः खबंध्वोः खे दशमे बंधौ चतुर्थे वा चेद्गुरुः स्यादेवंविधयोगेऽभिषिक्तस्य नृपस्य धरित्री पृथ्वी स्थिरा सदा हस्तगता स्यात् ॥ ४ ॥
इति श्री दैवज्ञानंतसुत० प्रमिताक्षरायां दशमं राजाभिषेकप्रकरणं समाप्तम् ॥ १० ॥
अथ यात्राप्रकरणप्रारंभः ॥
अथ यात्राप्रकरणं व्याख्यायते । तत्र किंचित्कार्यमुद्दिश्य देशांतरगमनं यात्रेति । सा द्विधा परविषये विजयार्थे गंतुर्यात्रा तु समरविजयाख्या । निखिला परयात्रा या सामान्या विधा । कथिततिथिवा सरक्षैष्वभिमतफलदा भवेच्च सामान्या || समराह्वया च यात्रा योगविलग्नक्षितीशयोगेष्विति । तत्र यात्राधिकारिणः प्रहर्षिण्याह
यात्रायां प्रविदितजन्मनां नृपाणां दातव्यं दिवसमबुद्धजन्मनां च ॥ प्रश्नाद्यैरुदयनिमित्तमूलभूतैर्विज्ञाते शुभशुभे बुधः प्रदद्यात् ॥ १॥
यात्रायामिति ॥ प्रविदितं छायाघटिकादिना ज्ञातं जन्मलक्षणया तत्कालीनलग्नकुंडलिकास्थशुभाशुभग्रहसूचितशुभाशुभफलोदर्कज्ञानं येषां तेषां नृपाणां यात्रायां दिवसं दातव्यं यात्रादिनं देयमित्यर्थः । यदाह वराहः । विदिते होराराशौ स्थानादिवलं ग्रहाणां च । आयुषि च परिज्ञाते शुभमशुभं यातुरिह वाच्यमिति । ननु यस्य जन्मकालो न ज्ञातस्तस्य कथं यात्रा स्यादित्यत आह । अबुद्धमज्ञातं जन्मकालो येषां तेषामपि प्रश्नाद्यैः पृच्छोपश्रुत्यादिभिरशुभशुभे विज्ञाते सति बुधो यात्रादिवसं प्रदद्यात् । कीदृशैः प्रश्नाद्यैः उदयो लग्नं निमित्तं शकुनादि एतदादीनि मूलभूतानि निदानकारणानि येषां तैः प्रश्नोदयनिमित्ताद्यैस्तेषामपि फलोदय इति नारदोक्तेः ॥ 11
अथ प्रश्नादेव फलं द्रुतविलंबितेनाह
जननराशितनू यदि लग्नगे तदद्धिपौ यदि वा तत एव वा ॥ त्रिरिपुखायगृहं यदिवोदयो विजय एव भवेद्वसुधापतेः ॥ २ ॥ जननेति ॥ अथ यद्यपि जन्मलग्नजन्मराशिज्ञानं वर्तते तथापि जातकोत्तशुभफलदग्रहदशानवगमादज्ञातजन्मत्वं ज्ञेयम् । अतएव राशिल नज्ञानाभावे यदि पृच्छति प्रश्नं वक्ष्यति जननं जन्म तत्संबंधिनी राशिलने ते यदि प्रश्नगते स्याताम् । जन्मराशिर्जम्मलग्नं वा यदि प्रश्नलग्ने स्यात्तदा वसुधापते राज्ञो विजय एव वा अथवा तदधिपौलनौ स्याताम् जन्मराशिपतिर्जन्मलग्नपतिर्वा यदि प्रश्नलने स्यात्तदापि राज्ञो विजय एव । अथवा तत एव ताभ्यामेव जन्मलग्नजन्मराशिभ्यामेव त्रिरिपुखायगृहं तृतीयषष्टदशमैका
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मुहूर्तचिंतामणी
दशानामन्यतमं गृहं यद्युदयो लग्नं स्यात्तदापि विजय एव शत्रुक्षयः स्यादित्यर्थः ॥ २ ॥ अथान्यं प्रश्नं मंजुभाषिण्याह
रिपुजन्मलग्नभमथाधिपौ तयोस्तत एव वोपचयस चेद्भवेत् ॥ हिबुके सुनेऽथ शुभवर्गकस्तनौ यदि मस्तकोदयगृहं तदा जयः ॥ ३ ॥
रिपुजन्मलग्नभमिति ॥ रिपोः शत्रोः जन्मलग्नभं जन्मलग्नं जन्मराशिश्व तच्चेप्रभाके चतुर्थे द्युने सप्तमे वा स्यात्तदा राज्ञो जयो भवेत् । अथवा तयोः शत्रुज - न्मलग्नराश्योरधिपौ स्वामिनौ प्रश्भलग्नाद्धिबुके छुने वा स्यातां तदापि विजय एव अथवा तत एव ताभ्यां शत्रोर्जन्मलग्नजन्मराशिभ्यामेवोपचयगृहं ३, ६, १०, ११ प्रश्नलग्राद्धिबुके द्युने वा स्यात्तदापि जय एव । अथवा तनौ प्रश्भलग्ने शुभवर्गकः शुभग्रहाणां षड्वर्गकचेत्स्यात्तदापि जय एव । अथवा यदि मस्तकोदयाः शीर्षोदयराशयः प्रश्भलग्नगताश्चेत्स्युस्तदापि जय एव । वराहः । उदयमुदयपं वा जन्मभं जन्मपं वा तदुपचयगृहं वा वीक्ष्य लग्ने यियासोः । विनिहतमरिपक्षं विद्धि शत्रोरिदं वा हिबुकगृहसमेतं पृच्छतोऽस्तस्थितं वेति ॥ ३ ॥
अथान्यं प्रश्नं त्रोटकेनाह
यदि पृच्छितनौ वसुधारुचिरा शुभवस्तु यदि श्रुतिदर्शनगम् ॥ यदि पृच्छति चादरतश्च शुभग्रहदृष्टयुतं चरलग्नमपि ॥ ४ ॥
यदीति ॥ अत्र वसुधापतेर्जय इत्यनुवर्तते । यदि ष्टच्छितनौ प्रश्भलने वसुधा भूमी रुचिरा स्यात् अथवा यदि शुभवस्तु मंगलवस्तु मंगलवस्त्राभरणादि श्रुतिदर्शनगं श्रवणगोचरम् दर्शनमत्र चाक्षुषम् । अथवा प्रष्टा आदरतो दैवज्ञं पृच्छति तदापि वसुधापतेर्जयः स्यादिति सर्वत्र व्याख्येयम् । अथवा चरलनं मेषकर्कतुलामकराख्यं यदि प्रश्ननं शुभग्रहैष्टं तं वा तदापि जय एव ॥ ४ ॥
अथाशुभफलदं प्रश्नं मालिन्याह
विधुकुजयुतलग्ने सौरिदृष्टेऽथ चंद्रे मृतिभमदनसंस्थे लग्नगे भास्करेऽपि ॥ हिबुकनिधनहोराद्यूनगे वापि पापे
सपदि भवति भंगः प्रश्नकर्तुस्तदानीम् ॥ ५ ॥ विधुकुजेति ॥ चंद्रमंगलयुक्ते लग्ने सौरिणा शनिना दृष्टे तदा प्रश्नकर्तुर्भगः पराजयो नाशो वा स्यात् । अथ चंद्रे मृतिभमदनसंस्थे चंद्रे अष्टमे सप्तमे वा लग्ने सूर्ये च सति एवंविधे योगे प्रष्टुः सपदि भंगः स्यात् अव्ययानामनेकार्थत्वात् । अपिशब्दो विपर्ययार्थः ।
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यात्राप्रकरणम् ।
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तथाहि भास्करे मृतिभमदनसंस्थे चंद्रे लग्नगे च सति एवं विधयोगेऽपि प्रष्टुर्भगः स्यात् । उक्तं च वराहेण । चंद्रे सरुधिरे लग्ने भंगः सूर्यात्मजेक्षिते । द्यूने नैधनगे चंद्रे लग्ने याते दिवाकरे || विपर्यये वा यातस्य यात्राभंगवधागमा इति । वाऽथवा पापग्रहे चतुर्थाष्टमलनसप्तमानामन्यतमस्थे सति प्रष्टुर्भगः स्यात् ॥ ९ ॥ अथ प्रश्न विशेषं भुजंगप्रयातेनाह -
त्रिकोणे कुजात्सौरिशुक्रज्ञजीवा यदैकोsपि वा नो गमोऽकच्छशी वा ॥ बलीयांस्तु मध्ये तयोर्यो ग्रहः स्यात्स्वकीयां दिशं प्रत्युतासौ नयेच्च ॥ ६ ॥
त्रिकोणे कुजादिति ॥ कुजान्मंगलात्रिकोणे नवपंचमे सौरिशुक्रज्ञजीवाश्वेत्स्युः अथवा एकोsपि वा सौरिशुक्रज्ञ जीवानामन्यतमश्चेत्रिकोणे स्यात्तदाप्युद्दिष्टगमनं न स्यादेव । वाऽथवाऽर्काच्छशी त्रिकोणे चेत्स्यात्तदाप्युद्दिष्ट दिग्गमनं न स्यादेव । तर्हि कस्यां दिशि गमनं स्यादित्यत आह बलीयानिति । तयोरधुनोक्तोद्दिष्टदिक्प्रतिबंध कारकयोर्यहयोर्मध्ये यो ग्रहो बलवान् स्यात्सः स्वकीयां दिशं प्रत्युत सांप्रतं नयेत् || ६ || अथ योगांतरं मदलेखयाह
प्रश्ने गम्यदिगीशात्वेटः पंचमगो यः ॥ बोभूयाद्वलयुक्तः स्वामाशां नयतेऽसौ ॥ ७॥
प्रश्नेति ॥ गम्यदिगीशात् गंतुं इष्टा या दिक् तस्या ईश: स्वामी प्रश्भलग्ने यत्र स्थाने स्यात्ततः पंचमे स्थाने यो ग्रहो बलयुक्तो बोभूयात् भवेत् तदाऽसौ ग्रहः स्वामाशां दिशं नयते प्रापयति ॥ ७ ॥
अथ यात्राकालं भुजंगप्रयातेनाह
धनुर्मेषसिंहेषु यात्रा प्रशस्ता शनिज्ञोशनोराशिगे चैवमध्या ॥ at कर्कमीनालिसंस्थेऽतिदीर्घा जनुः पंचसप्तत्रिताराश्च नेष्टाः ॥८॥
धनुर्मेषेति ॥ धनुर्मेषसिंहस्थे रवौ यात्रा प्रशस्ता शुभफलदा । शनिज्ञोशनोराशिगे मध्या मकरकुंभमिथुनकन्यावृषतुलागते खौ यात्रा मध्या स्यात् । कर्कमीनालिसंस्थे रवौ दीर्घा बहुकालसाध्या यात्रा न सफलेत्यर्थः । वरोह: । यात्राजसिंहतुरगोपगते वरिष्ठा मध्या शनैश्चरबुधोशनसां गृहेषु । मानौ कुलीरवृषवृश्चिकगेऽतिदीर्घा शस्तश्च देवलमतेऽध्वनि ष्टष्ठगोऽर्कु इति । देवलमतेऽध्वनि मार्गे सूर्यः ष्टष्ठगतः शस्तः । ष्टष्ठगतत्वं तु वसंतराजोक्तभ्रम
१ लहः ।
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मुहूर्तचिंतामणौ णवशेनेति केचित् । यथा । दग्धा दिगैशी ज्वलिता दिगेंद्री धूमान्विता चानलदिक् प्रभाते। इत्येवमेव प्रहराष्टकेन भुंक्त दिशोऽष्टौ सविता क्रमेणेति । अनेन भ्रमणप्रकारेण यस्यां दिशि यस्मिन् प्रहरे भ्रमणसंभवः सा दिक् सूर्यसंमुखोच्यते । तत्पंचमी दिक् सूर्यप्टष्ठगतेत्युच्यते इत्याहुः । वस्तुतस्तु। द्वादशराशिभ्रमवशेन यस्यां दिश्यर्कः स्थितः तां पृष्ठतः कृत्वा यायादित्यर्थः । यथा । लग्नस्थेऽकै पश्चिमां दिशं गच्छेत् चतुथै दक्षिणां सप्तमे पूर्वाम् दशम उत्तरामित्यर्थः । यदाह देवलः । लग्नस्थे वरुणाशां हिबुकस्थे दक्षिणां रवौ यायात् । सप्तमगे पूर्वाशां मेषूरणसंस्थिते सौम्यामिति । एवं विदिक्ष्वपि ज्ञेयम् । यथाद्वितीयतृतीयस्थितेऽकेनैर्ऋतीम् पंचमे षष्ठे आग्नेयीम् अष्टमे नवमे ऐशानीयम् एकादशे द्वादशके वायव्यां गच्छेदिति । अथ तारानिषेधमाह । जनुरिति । स्वजन्मनक्षत्रादिननक्षत्रं यत्संख्यं स्यात् तस्मिन्नवभक्ते अवशिष्टाः प्रथमसप्तमपंचमतृतीयाख्यास्ताराश्चेत्स्युस्तदा नेष्टा निषिद्धाः ॥ ८॥ अथ तिथ्यादिशुद्धिं भुजंगप्रायतेनाह
न षष्ठी न च द्वादशी नाष्टमी नो सिताद्या तिथिः पूर्णिमाऽमा न रिक्ता ॥ हयादित्यमित्रेदुजीवांत्यहस्त
श्रवोवासवैरेव यात्रा प्रशस्ता ॥९॥ न षष्ठीति॥ सिताद्या तिथिः शुक्लपक्षप्रतिपत् आसु तिथिषु यात्रा न प्रशस्तेत्यर्थः । नारदः । षष्ठयष्टमीडादशिकारिक्तामावर्जितासु च । यात्रा शुक्ल प्रतिपदि निधनाय भवेदिति । हयोऽश्विनी आदित्यं पुनर्वसुः मित्रोऽनुराधा इंदुम॒गः जीवः पुष्यः अंत्यं रेवती हस्तश्रवणधनिष्ठाः एतैर्नवभिनक्षत्रैः यात्रा प्रशस्तोत्तमा मध्यानि निषिद्धानि च भानि। वसिष्ठ आह । तिस्रोत्तरावारुणनैर्ऋतेंद्रपूर्वात्रयं ब्राह्मभयुग्दशैवम् । मध्यान्यनिष्टान्यनलानिलेशद्विदैवचित्राहिमघांतकानीति । तिस्रोत्तरा इत्यार्षः संधिः। ननु वसिष्ठेन वारा उक्ताः। सुरेज्यदैत्येज्यशशीदुजानां वाराश्च वर्गाः शुभदाः प्रयाणे । आदित्यभूसूनुशनैश्चराणां वाराश्च वर्गा न शुभप्रदाः स्युरिति । अत्र कुतो नोक्ता इति चेत् नारदादिभिरनुक्तत्वात् । वसिष्ठादिभिरुक्तपापग्रहवारशूलनिषेधवैयर्थ्याच्च दोषाधिक्यसूचनार्थं तदिति चेन्न । भिन्नकर्तृकेषु मुनिग्रंथेषु मुनिवचनानां वैयर्थ्यानहत्वादेवंविधा गातरुचिता न त्वेककर्तृके ग्रंथे । तत्र हि पूर्वापरविरोधे अर्थातरं वा कार्यम् । ग्रंथांतरेण सहैकवाक्यता वा कार्या । तत्रायं वसिष्ठवाक्यस्वरसः । तुहिनकरमंदवारे इति वाक्यात् पापग्रहवारनिषेधो गौण इत्यनुमीयते तत्र तस्य गतिस्त्वेवं यदा वजन्मराशेरुपचये यो ग्रहः शुभो वाऽशुभो वा भवतु स सर्वदिक्षु हितः परं तु शूलदिशो विहाय यदात्वनुपचयस्थः स तु कुत्रापि न हितः । यदाहराजमा
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यात्राप्रकरणम् । तडः । उपचयकरग्रहदिने शुद्धिः क्रूरेऽपि पापिनां भवति । सौम्येऽप्यनुपचयस्थे न भवति यात्रा शुभा यातुरिति । तस्मान्नार्थो वारोक्त्येति तेऽत्र नोक्ताः ॥९॥ अथ वारशूलं नक्षत्रशूलं च पृथ्वीच्छंदसाह
न पूर्व दिशि शक्रभे न विधुसौरिवारे तथा न चाजपद: गुरौ यमदिशीनदैत्येज्ययोः॥ न पाशिदिशि धातृभे कुजबुधेर्यमः तथा
न सौम्यककुभि व्रजेत्स्वजयजीवितार्थी बुधः ॥ १०॥ न पूर्वदिशीति ॥ शक्रभे ज्येष्ठायां पूर्वदिशि न व्रजेत् । तथा विधुसौरिवारे सोमशनिवारेऽपि पूर्वदिशि न व्रजेत् । अजपदभे पूर्वाभाद्रपदायां तथा गुरुवारेऽपि यमदिशि न व्रजेत् । रविशुक्रयोवीरे तथा धातृभे रोहिण्यां पाशिदिशि पाशी वरुणस्तदिशि पश्चिमदिशि न व्रजेत् । कुजबुधवारे तथार्यमः उत्तराफाल्गुन्यां सौम्यककुभि उत्तरदिशि न व्रजेत् । कः स्वजयजीवितार्थी बुधः । स्वं धनं जयः क्षत्रुपराजयपूर्वकः स्वोत्कर्षः जीवितमायुष्यं एतानि अर्थयतेऽसौ न व्रजेत् । वारशूलपरिहारमाह गुरुः। सूर्यवारे घृतं प्राश्य सोमवारे पयस्तथा । गुडमंगारके वारे बुधवारे तिलानपि ॥ गुरुवारे दधि प्राश्य शुक्रवारे यवानपि । माषान् भुक्त्वा शनेवारे गच्छन् शूले न दोषभाक् ॥ तांबूलं चंदनं मृच्च पुष्पं दधि घृतं तिलाः । वारशूलहराण्यादानाद्धारणतोऽदनादिति ॥ १० ॥ अथ कालशूलं शार्दूलविक्रीतेनाह
पूर्वाह्ने ध्रुवमिश्रभैर्न नृपतेर्यात्रा न मध्याह्नके तीक्ष्णाख्यैरपराह्नके न लघुझै! पूर्वरात्रे तथा ॥ मित्राख्यैर्न च मध्यरात्रिसमये चोग्रैस्तथा नो चरै
राज्यंते हरिहस्तपुष्यशशिभिः स्यात्सर्वकाले शुभा ॥११॥ पूर्वाह्ने इति ॥ ध्रुवाख्यैमिश्राख्यश्च भैः पूर्वाह्ने यात्रा न शुभा स्यात् । तीक्ष्णाख्यैर्भेमध्याहे न स्यात् । अपराह्ने लघुनक्षत्रैः पूर्वरात्रे मैत्राख्यैः मध्यरात्रिसमये उग्रनक्षत्रैः तथा राज्यंते रात्रितृतीयभागे चरनक्षत्रैर्यात्रा न स्यात् । तत्र विशेषः । हरिहस्तपुष्यशशिभिः श्रवणहस्तपुष्यमृगैः सर्वस्मिन्नाप काले यात्रा शुभा स्यात् ॥ ११ ॥
अथ तत्रापि कालविशेषे मध्यमानां निषिद्धानां च कियतां भानां वय॑घटिका इंद्रवजयाहपूर्वाग्लिपिन्यांतकतारकाणां भूपप्रकृत्युग्रतुरंगमाः स्युः॥ स्वातीविशाखेंद्रभुजंगमानां नाड्यो निषिद्धा मनुसंमिताश्च ॥१२॥
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मुहूर्तचिंतामणौ पूर्वेति ॥ पूर्वात्रये प्रथमाः षोडश नाड्यो निषिद्धाः कृत्तिकायामेकविंशतिः मघायामेकादश भरण्यां सप्त घटिकाः त्याज्या इत्यर्थः । स्वातीविशाखाज्येष्ठाश्लेषानामाद्याश्चतुर्दश घटिकास्त्याज्याः। भरद्वाजः । भरण्यां सप्त घटिका वह्निभे चैकविंशतिः । एकादश घटीः पित्र्ये त्रिपूर्वासु च षोडश ॥ स्वातीसार्पविशाखाञज्येष्ठासु च चतुर्दश । वर्जयेच्छेषघटिका यात्रायां शुभदा मता इति ॥ १२॥ ___ अथ मतांतरेण वय॑त्वमिंद्रवजयाहपूर्वार्धमाग्नेयमघानिलानां त्यजेडि चित्राहियमोत्तरार्धम् ॥ नृपः समस्तां गमने जयार्थी स्वाती मघां चोशनसो मतेन ॥१३॥ पूर्वार्धमिति ॥ स्पष्टार्थम् ॥ १३ ॥ अथ भानां जीवपक्षादिकाः संज्ञा भुजंगप्रयातेनाह
तमोभुक्तताराः स्मृता विश्वसंख्या: शुभो जीवपक्षो मृतश्चापि भोग्याः॥ तदाक्रांतभं कर्तरीसंज्ञमुक्तं
ततोऽलंदुसंख्यं भवेद्स्तनाम ॥ १४ ॥ तमोभुक्तेति ॥ तमो राहुर्वक्री ग्रहस्तेन भुक्त्वा मुक्ता एवंविधा विश्वसंख्यास्त्रयोदशसंख्यास्तारा नक्षत्राणि जीवपक्षः जीवपक्षसंज्ञानि शुभकराणि । भोग्याः राहुणाक्रांतनक्षत्रात् भोग्यानि गम्यानि त्रयोदश भानि मृतो मृतपक्षसंज्ञानि । तदाक्रांतभं तेन राहुणाक्रांतभं कर्तरीत्येवनामकं स्यात् । यथा । राहुर्हस्तनक्षत्रे तेन भुक्तानि चित्रास्वातीप्रमुखानि पूर्वाभाद्रपदांतानि त्रयोदश जीवपक्षः तदाक्रांतभाद्धस्तात्पंचदशमुत्तराभाद्रपदाख्यं ग्रस्तसंज्ञम्। तेन राहुणा भोग्यानि उत्तराफाल्गुनीपूर्वाफाल्गुनीमघाश्लेषापुष्यपुनर्वस्वामृगरोहिणीकृत्तिकाभरण्यश्विनीरेवत्याख्यानि मृतपक्षः । हस्तस्तु कर्तरीसंज्ञमिति ॥ १४ ॥ अथ जीवपक्षादीनां फलं शार्दूलविक्रीडितेनाहमार्तडे मृतपक्षगे हिमकरश्चेज्जीवपक्षे शुभा यात्रा स्याद्विपरीतगे क्षयकरी द्वौ जीवपक्षे शुभा ॥ ग्रस्तः मृतपक्षतः शुभकरं ग्रस्तात्तथा कर्तरी यायींदुःस्थितिमान् रविर्जयकरौ तौ दो तयोर्जीवगौ ॥१५॥ मातंड इति ॥ मृतपक्षगे मातडे सूर्ये सति चंद्रश्चेज्जीवपक्षे स्यात्तदा यात्रा शुभा स्यात् । विपरीतगे मार्तडे जीवपक्षगे सति चंद्रश्चन्मृतपक्षगः तदा यात्रा क्रियमाणा यातुः क्षयकरी स्यात् । द्वौ सूर्याचंद्रमसौ चेन्जीवपक्षे स्यातां तदा शुभा शुभतरेत्यर्थः। अर्थाभी
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यात्राप्रकरणम् ।
१६९
मृतपक्षे स्यातां तदा यात्राऽतिक्षयकरी स्यात् । अथास्यापवादमाह । ग्रस्तःमिति । मृतपक्षतः मृतपक्षनक्षत्रात् ग्रस्तé राहुणाक्रांतभात् पंचदशसंख्यं शुभं शुभकरं स्यात् । यथा शवान्मरिप्यमाणो देही प्रबलः तथा प्रस्ताद्राहुभतः पंचदशसंख्याकात् कर्तरी राह्वाक्रांतं भं शुभकरं स्यात् । यायीति । यो राजा वरिणमुद्दिश्य जिगमिषुः स यायी तत्स्वामी चंद्रः । यश्च स्वदेशे दुर्गं कृत्वा तिष्ठति स स्थायी रविः स्थितिमान स्थायिनो राज्ञः स्वामी तौ द्वौ सूर्याचंद्रमसौ जीवगौ जीवपक्षगतौ तयोः स्थायियायिराज्ञोर्जयकरौ रविश्चेजीवपक्षगस्तदा स्थायिनो जयचंद्रश्चेजीवगस्तदा यायिजयः । उभौ चेत् जीवगौ तदा संधिकरौ अर्थाहावपि चेन्मृतपक्षगौ उभयोः पराजयकरौ । अत्र बहुविचारः स्वरोदयादवगंतव्यः ॥ १५ ॥ अथाकुलकुलाकुलकुलगणं वसंततिलकाशार्दूलविक्रीडिताभ्यामाह
स्वात्यंतकाहिवसुपौष्णकरानुराधादित्यधुवाणि विषमारितथयोऽकुलाः स्युः। सूयेंदुमंदगुरवश्व कुलाकुला ज्ञो मूलांबुपेशविधिभं दशद्धितिथ्यः ॥ १६ ॥ पूर्वाश्वीज्यमघेदुकर्णदहनदीशेंद्रचित्रास्तथा शुक्रारी कुलसंज्ञकाश्च तिथयोऽर्काप्टेंद्रवेदैमिताः ।। यायी स्यादकुले जयी च समरे स्थायी च तद्वत्कुले
संधिः स्यादुभयोः कुलाकुलगणे भूमीशयोयुध्यतोः॥१७॥ स्वात्यंतकाहीति । पूर्वाश्वीति च ॥ स्वाती अंतकं भरणी आश्लेषाधनिष्ठारेवतीहस्तानुराधापुनर्वसूत्तरात्रयरोहिण्यः एतानि द्वादश भानि । विषमास्तिथयः प्रतिपत्तृतीयापंचमीसप्तमीनवम्येकादशीत्रयोदशीपंचदश्य इत्यष्टौ तिथयः रविचंद्रशनिबृहस्पतिवाराश्चत्वारः एते प्रत्येकमकुलसंज्ञाः । अथ ज्ञो बुधवारः मूलं अंबुपं शततारकाः ईश आर्द्रा विधिभमभिजित् चत्वारि भानि दशषद्वितिथ्यः दशमीषष्ठीद्वितियास्तिस्त्रस्तिथयः एते प्रत्येक कुलाकुलसंज्ञाः स्युः । अथ पूर्वास्तिस्त्रः अश्विनीपुष्यमघाः इंदुर्मगः कर्णः श्रवणः दहनः कृत्तिकाः द्वीशं विशाखा इंद्रो ज्येष्ठा चित्रा एतानि द्वादश भानि शुक्रभौमवारौ अर्काष्टंद्रवेदैमिता द्वादश्यष्टमीचतुर्दशीचतुर्थीसंज्ञाश्चतस्त्रस्तिथयः प्रत्येकं कुलसंज्ञकाः स्युः । फलमाह यायीति ।अकुलसंज्ञके तिथिवारनक्षत्रगणे समरे युद्धप्रारंभे सति यायी राजा जयी स्यात् । यदि कुलसंज्ञके तिथिनक्षत्रवारगणे सति स्थायी राजा तद्वजयी स्यात् । कुलाकुलसंज्ञके तिथिवारनक्षत्रगणे युध्यतोयुद्धं कुर्वतोः भूमीशयो राज्ञोः परस्परं सन्धिः स्यात् ॥ १६ ॥ १७ ॥ __ अथ पथि राहुचक्रं स्त्रग्धरयाह
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१७०
मुहूर्तचिंतामणौ स्युर्धर्मे दस्रपुष्योरगवसुजलपरीशमैत्राण्यथार्थे याम्याजांधींद्रकर्णादितिपितृपवनोडून्यथो भानि कामे ॥ वन्ह्यान्रबुध्न्यचित्रानि,तिविधिभगाख्यानि मोक्षेऽथरोहिण्याप्येवंत्यविश्वार्यमभदिनकरआणि पथ्यादिराहो ॥१८॥
स्युर्धर्मे इति ॥ अश्विनीपुष्याश्लेषाधनिष्ठाशततारकाविशाखानुराधाख्यानि भानि धर्मे धर्मस्थाने लेख्यानि अथ भरणीपूर्वाभाद्रपदाज्येष्ठाश्रवणपुनर्वसुमघाखात्याख्यानि भानि अर्थे स्युः । अथ कृत्तिकाद्रोत्तराभाद्रपदाचित्रामूलाभिनित्पूर्वाफाल्गुनीनक्षत्राणि कामे स्युः । अथ रोहिणी आप्यं पूर्वाषाढा मृगः अंत्यं रेवती विश्वमुत्तराषाढा अर्यमभमुत्तराफाल्गुनी हस्तः एतानि भानि मोक्षे स्युः । पथिशब्द आदिर्यस्य तादृशे राही पथिराहावित्यर्थः । चक्रे इति विशेष्यमध्याहार्यम् ॥ १८ ॥ अथ स्रग्विण्या तत्फलमाह
धर्मगे भास्करे वित्तमोक्षे शशी वित्तगे धर्ममोक्षास्थितः शस्यते ॥ कामगे धर्ममोक्षार्थगः शोभनो
मोक्षगे केवलं धर्मगः प्रोच्यते ॥ १९॥ धर्मगे भास्कर इति ॥ धर्ममार्गस्थिते भास्करे सति चेद्वित्तमोक्षे शशी अर्थमार्गे मोक्षमार्गे वा शशी स्यात्तदा शोभनः । अथ वित्तगे अर्थगे भास्करे सति धर्ममार्गगः मोक्षमार्गगो वा शशी शोभनः । अथ कामगे भास्करे सति धर्माथमोक्षमार्गगः शशी शोभनः । अथ मोक्षमार्गे भास्करे सति केवलं धर्मगः शशी शोभनः । अर्थाद्विपरीतावस्थितयोईयोः सूर्याचंद्रमसोरशुभत्वं स्यात् ॥ १९ ॥ __. अथ तिथिचक्रं शालिन्याह
पौषे पक्षत्यादिका द्वादशैवं तिथ्यो माघादौ द्वितीयादिकास्ताः॥ कामात्तिस्रः स्युस्तृतीयादिवच
याने प्राच्यादौ फलं तत्र वक्ष्ये ॥२०॥ पौषे इति ॥ अत्र पौपादितः प्रतिमासे द्वादशकोष्ठका लेख्याः । एवं कृते चतुश्चत्वारिंशदधिकशतं कोष्ठेका जायते । तत्र चक्राकृतिर्यथा न्यासः प्राग्लिखितः। तत्र पक्षस्य शुक्लपक्षस्य कृष्णपक्षस्य वा मूलं पक्षतिः प्रतिपत्तदादिकालः प्रथमं पौषे मासे प्रतिपदादिकाः द्वादश तिथयोऽधोऽधो लेख्याः । माघादौ माघादिमासषु द्वितीयादिकास्लिथयो लेख्याः । यथा । माघे द्वितीयादिकाः फाल्गुने तृतीयादिकाः चैत्रे चतुोदिकाः वैशाखे
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यात्राप्रकरणम् ।
१७१
:
पंचम्यादिकाः ज्येष्ठे षष्ट्यादिका: आषाढे सप्तम्यादिकाः श्रावणेऽष्टम्यादिकाः भाद्रपदे नवम्यादिकाः आश्विने दशम्यादिकाः कार्तिके एकादश्यादिकाः मार्गशीर्षे द्वादश्यादिकाः सर्वास्तिथयो द्वादश्यंता लेख्याः । अवशिष्टस्थानानि प्रतिपदादिभिः पूरणीयानि । कामातिस्र इति कामात्रयोदशीचतुर्दशीपंचदश्यस्तृतीयादिवत्स्युः त्रयोदशी तृतीयावत्. चतुर्दशी चतुर्थीवत् पंचदशी पंचमीवत्स्युरित्यर्थः । फलार्थमतिदेशो ऽयम् । तत्र प्रतिपदादौ पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरासु दिक्षु याने चिकीर्षिते सति फलं शुभाशुभं सौख्यं क्लेश इत्यादिना वृत्तत्रयेण वक्ष्ये कथयिष्यामि ॥ २० ॥
फलानि शालिनीत्रयेणाह -
सौख्यं क्लेशो भीतिरर्थागमश्च
शून्यं नैःस्व्यं निःस्वता मिश्रता च ॥ द्रव्यक्लेशो दुःखमिष्टाप्तिरर्थो
लाभः सौख्यं मंगलं वित्तलाभः ॥ २१ ॥ लाभो द्रव्याप्तिर्धनं सौख्यमुक्तं भीतिर्लाभो मृत्युरर्थागमश्च ॥ लाभः कष्टद्रव्यलाभौ सुखं च कष्टं सौख्यं क्लेशलाभौ सुखं च ।। २२ ।। सौख्यं लाभः कार्यसिद्धिश्च कष्टं क्लेशः कष्टात्सिद्धिरथ धनं च ॥ मृत्युर्लाभो द्रव्यलाभश्च शून्यं शून्यं सौख्यं मृत्युरत्यंतकष्टम् ॥ २३ ॥
सौख्यमिति । लाभ इति । सौख्यमिति च ॥ श्लोकत्रयं स्पष्टार्थमेव । तत्र पौषप्रतिपदि दिक्चतुष्टये सौख्यं क्लेशो भीतिरर्थागमश्चेति फलचतुष्टयं क्रमेण ज्ञेयम् । एवं द्वितीयादिष्वपि श्लोकचतुर्थांशोक्तं फलं स्यात् ॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥
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पौ. मा. फा. चै.
ه.
वै.
२ ३ ४ ५
A
२ ३ ४ ५
३ ४ ५
2 1
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६ ७
४ ५ ६
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५ ६ ७ ८
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७ ८ ९ १०
९ १० ११
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९ १० ११ १२
१० ११ १२ १
११ | १२
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१२, १ | २
पौ. मा. फा.
ज्ये.
६
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८
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१
२
३
४
आ. श्रा.
७
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९ १०
१० ११
८
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कोष्टकन्यासः ।
भा. आ. का. मा.
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८
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२
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७ ८ ९
८ ९ १०
शून्यम्
२ द्रव्यक्लेशः
२
३
लाभः
३
४
लाभः
४
५
भीतिः
५ ५ ६
लाभ:
६ ७ कष्टम्
८ सौख्यम्
क्लेशः
९ | १० | ११
ज्ये. आ. श्रा. भा. आ. का. मा.
पूर्व
सौख्यम्
मृत्युः
शून्यम्
पूर्व
दक्षिण
क्लेशः
नैः स्व्यम्
दुःखम् इष्टाप्तिः अर्थः
सौख्यम्
द्रव्याप्तिः
लाभः
कष्टम्
सौख्यम्
पश्चिम उत्तर
भीतिः अर्थागमः
निःस्वत्वम् मिश्रता
लाभः
कष्टात्सिद्धिः |
मंगलम्
धनम्
मृत्युः
द्रव्यलाभः
सुखम्
क्लेशलाभः सुखम्
कार्यसिद्धिः
कष्टम्
अर्थः धनम्
लाभः द्रव्यलाभः
सौख्यम्
दक्षिण
वित्तलाभः
सौख्यम्
अर्थागमः
मृत्युः
पश्चिम
शून्यम्
असंतकष्टम्
उत्तर
१७२
मुहूर्तचिंतामण
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यात्राप्रकरणम् ।
अथ सर्वांकज्ञानं वसंततिलकयाह
तिथ्यृक्षवारयुतिरद्विगजाग्नितष्ठा स्थानत्रयेss वियति प्रथमेऽतिदुःखी ॥ मध्ये धनक्षतिरथो चरमे मृतिः स्यात्स्थानत्रयेंकयुजि सोख्यजयौ निरुक्तौ ॥ २४ ॥
तिथ्यृक्षेति ॥ तिथयोऽत्र शुक्लप्रतिपदादितो ग्राह्याः । तत्र तिथिनक्षत्रवाणां युतिः स्थानत्रये स्थाप्या क्रमेण सप्तभिरष्टभिस्त्रिभिश्व तष्टा भक्तावशिष्टा सती प्रथमस्थाने वियति शून्ये सति अतिदुःखी यात्रा कर्ता स्यात् । मध्ये द्वितीयस्थाने धननाशः । चरमे तृतीयस्थाने शून्यं मृत्युः स्यात् स्थानत्रयेऽकयुजि अंकयुतौ सौख्यजयौ भवेताम् ॥ २४ ॥ अथाडलभ्रमणे प्रमाणिकयाह
रखेर्भतोऽब्जभोन्मितिर्नगावशेषिता झगा ॥
महाडलो न शस्यते त्रिषमिताभ्रमो भवेत् ॥
१७३
२५ ॥
वेर्भत इति ॥ सूर्यनक्षत्रात् अब्जभस्य चंद्रभस्योन्मितिर्गणना कार्या सा नगैः सप्तभिरवशेषिता सती द्व्यगा द्विशेषमिता सप्तशेषमिता वा भवेत्तदा महाडलो दोषः स्यात् स न शस्यते । प्रागुक्तप्रकारेण यदि त्रिषण्मता त्रिशेषमिता षट्शेषमिता वा स्यात्तदा भ्रमो भ्रमणाख्यो दोषः स्यात् । सोऽपि न शस्यते एतन्निर्मूलम् । तत्र भ्रमणे यात्रामेव त्यजंति आडले बहूनि कार्याणि त्यजति । उक्तं च । यात्रायंत्र हलप्रवाहसमरे चौर्ये च संधौ तथा कूपारामतडागबंधनविधौ पापदुर्ग । अश्वेभष्ट्ररथाधिरोहणविधौ त्याज्यं सदैवाडलं यत्नान्नात्र शुभेषु मंगलविधौ दोषो न तस्य क्वचिदिति ॥ २५ ॥
अथ हैवराख्यं योगमुपजातिकयाह
1
शशांक सूर्यभतोऽत्र गण्यं पक्षादितिथ्या दिनवासरेण ॥ युतं नवा नगशेषकं चेत्स्याद्वैवरं तद्गमनेऽतिशस्तम् ॥ २६ ॥ शशांकभमिति ॥ स्पष्टार्थम् । प्रसंगात् घबाडमपि सूर्यमाणयेच्चांद्र त्रिगुणं तिथिसंयुतम् । सप्तभिस्तु हरेद्वागं त्रिशेषं स्याद्वबाडकम् । एतच्च हैवराच्छुभं ज्ञेयम् । एतत्सर्वं दाक्षिणात्या विचारयन्तीति । अत्र प्रसंगानंथांतरस्थसंग्रहः । सूर्यभाद्रणयेच्चां तिथिवारं च मिश्रितम् । सप्तभिस्तु हरेद्भागं पंचशेषं तु टेलकम् || सूर्य भागणयेच्चाद्रं तिथिवारं च मिश्रितम् । अर्कसंख्यैर्हरेद्भागं नवशेषं तु गौरवम् ॥ प्रवेशे गौरवं दद्यान्निर्गमे हैवरं तथा । तस्करे टेलकं दद्याद्धबाडं सर्वकर्मसु । इति ज्योतिर्निर्बंधे ॥ २६ ॥ • अथ घातचंद्र शालिन्या तत्परिहारं चानुष्टुब्द्वयेनाह
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मुहूर्तचिंतामणी
भूपंचांकांगदिग्वह्निसप्तवेदाष्टेशाकश्च घाताख्यचंद्रः ॥ मेषादीनां राजसेवाविवादे वर्ज्या युद्धाद्ये च नान्यत्र वर्ज्यः ॥ २७ ॥ आग्नेयत्वाष्ट्रजलपपित्र्यवासवरौद्रभे ।
१७४
मूलब्राह्माजपादक्षै पित्र्यमूलाजभे क्रमात् ॥ २८ ॥ रूपट्ट्यग्यग्निश्रूरामद्व्यन्ध्यश्यब्धियुगाग्नयः ॥
घातचंद्रे धिष्ण्यपादा मेषाद्वर्ज्या मनीषिभिः ॥ २९ ॥ भूपंचेति । आग्नेयेति । रूपद्व्यग्नीति च ॥ मेषादिराशीनां भूपंचांकेत्यादि - को घातचंद्रो ज्ञेयः । यथा मेषस्य प्रथमो मेष एव वृषस्य पंचमः कन्यास्थः मिथुनस्य नवमः कर्कस्य द्वितीयः सिंहस्य षष्ठः कन्याया दशमः तुलायास्तृतीयः वृश्चिकस्य सप्तमः धनुषश्चतुर्थः मकरस्याष्टमः कुंभस्यैकादशः मनिस्य द्वादशः स घातचंद्रो राजसेवायां विवादे प्रतिवादिना सह कलहे युद्धाद्ये आदिशब्दान्मृगयादिषु वर्ज्यः । अन्यत्र विवाहान्नप्राशनादिमंगलकृत्ये न वर्ज्यः । उक्तं च । युद्धे चैव विवादे च कुमारीपूजने तथा । राजसेवावाहनादौ घातचंद्र विवर्जयेत् ॥ तीर्थयात्राविवाहान्नप्राशनोपनयादिषु । मांगल्यसर्वकार्येषु घातचंद्रं न चिंतयेत् ॥ अत्र लाघवार्थं भ्रातृपुत्रगोविंदपद्यम् । मेषकन्याघटहरिनक्रयुग्मधनुर्वृषाः । मीनसिंहधनुः कुंभा घातचंद्रा अजादित इति । घातचंद्रे मेषादिराशिषु कृत्तिकादिभानां चरणा एते वर्ज्या इति केचिद्वति ॥ २७ ॥ २८ ॥ २९ ॥
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घाततिथीरुपजातिकयाह
गोत्रीझ घाततिथिस्तु पूर्णा भद्रा नृयुक्कर्कटकेऽथ नंदा ॥ htजयोटे च रिक्ता जया धनुः कुंभहरौ न शस्ताः ॥ २० ॥
गोत्रीति ॥ गौः वृषः स्त्री कन्या झषो मीनः एतद्राशिमति नरे पूर्णा पंचमी दशमी पंचदशी च घाततिथिः नृयुग्मिथुनं कर्कटकः कर्कस्तयोः भद्रा द्वितीया सप्तमी द्वादशी च तिथिः कौप्र्यो वृश्चिकः अजो मेषः एतयोर्नदा प्रतिपत्षष्ठयेकादशी च तिथिः नक्रधटे मकतुलयोः रिक्ता चतुर्थी नवमी चतुर्दशी घाततिथिः । धनु. कुंभसिंहानां जया तृतीयाष्टमी त्रयोदशी च घाततिथिः । एते घाततिथयो यात्रादौ न शस्ताः ॥ ३० ॥
घातवारान् शालिन्याह
न भौमो गो हरिस्त्रीषु मंदचंद्रो द्वंद्वेsaऽजभे ज्ञश्च कर्के ॥ शुक्रः कोदंडालिमीनेषु कुंभे जूके जीवो घातवारा न शस्ताः ॥३१ ॥
न भौम इति ॥ मकरराशिमति पुरुषे भौमो घातवारः वृषसिंहकन्यासु मंदः शनिर्घातवारः द्वंद्वे मिथुने चंद्र : अजे मेषेऽर्कः कर्के बुधः धनुर्मीनरश्चिकेषु शुक्रसरः जूकस्तुला कुंभतुलयोर्जीवो गुरुर्घातवार इत्यर्थः । घातवारा अपि यात्रादौ न शस्ताः ॥ ३१॥
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यात्राप्रकरणम् ।
अथ घातनक्षत्राण्यनुष्टुभाह
मघाकरस्वातिमैत्रमूलश्रुत्यंबुपांत्यभम् ॥
याम्यब्राह्मेशसापं च मेषादेर्धातभं न सत् ॥ ३२ ॥ मधेति ॥ स्पष्टार्थम् एतदपि यात्रादौ न शस्तम् ॥ ३२ ॥ अथ घातलग्नान्याह
भूमि१व्द्य२०ध्य४द्रिदिक्१० सूर्या१२गाष्टिांके९शा१ग्निश्सायकाः ५॥
मेषादिघातलग्नानि यात्रायां वर्जयेत्सूधीः ॥ ३३ ॥ भूव्द्यब्धीति ॥ स्पष्टार्थम् । तदपि यात्रायां वय॑म् ॥ ३३ ॥
नवभूम्यः शिव११वहयो३ऽक्ष विश्वे१३ऽर्क१२कृताः४शक १४रसादस्तुरंगतिथ्यः १५ ॥ द्विरदिशो१०मा३०वसवाश्च पूर्वतःस्यु
स्तिथयः संमुखवामगा न शस्ताः ॥ ३४ ॥ नवभूम्य इति ॥ एतास्तिथयः पूर्वतः पूर्वदिशमारभ्य अष्टदिक्षु ज्ञेयाः । यथा । पूर्वस्यां नवभूम्यः नवमी प्रतिपच्च आग्नेय्यां शिववह्नयः एकादशी तृतीया च । एवमग्रेऽपि । एतास्तिथयो योगिन्य इति जीर्णास्तास्तिथयः संमुखा वामगा न शस्ताः । यथा । प्राच्यां गंतुः प्रतिपत्संमुखी दक्षिणां गंतुर्वामगा प्रतीच्यां गंतुः पृष्ठगा उदीच्यां गंतुईक्षिणा एवं सर्वासु दिक्षु सर्वास्तिथयो विचार्यास्तत्र संमुख्यो वामगाश्च तिथयो न शुभाः। अर्थाद्दक्षिणाः पृष्ठगाश्च शुभाः । उक्तं च । पृष्ठतो दक्षिणे वापि योगिनी गमने हिता। वामसंमुखयोनेष्टा वायुमेवं विचिंतयेदिति ॥ ३४ ॥
अथ कालपाशयोगौ शालिन्याहकौबेरीतो वैपरीत्येन कालो वारेऽर्काये समुंखे तस्य पाशः ॥ रात्रावेतौ वैपरीत्येन गण्यौ यात्रायुद्धे संमुखे वर्जनीयौ ॥३५॥
कौबेरीत इति ॥ कौबेरी उत्तरा दिक् तस्याः विपरीतदिक्षु अर्काद्ये वारे कालः स्यात् । तद्यथा । रवावुत्तरदिशि कालः दक्षिणे पाश इत्यर्थः । चंद्रे वायव्यां कालः आनेय्यां पाशः एवं भौमादिष्वपि रात्रौ कालदिशि पाश इति वैपरीत्यं ज्ञेयम् । एतौ यात्रायुद्धादिषु संमुखे वज्यौ । उक्तं च खरोदये । वारोत्थः पूर्वदिग्भागे ततः सव्येन मंदगः । यत्रस्थस्तब कालः स्यात्पाशस्तस्य तु संमुखः ॥ दक्षिणस्थः शुभः कालः पाशो वामदिगाश्रयः । यात्रायां समरे श्रेष्ठस्ततोऽन्यत्र न शोभन इति । प्रसंगादर्धयामराहुरपि स्वरोद
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मुहूर्तचिंतामण
दयस्थो लिख्यते । इंद्रवायुयमरुद्रतोयाग्निशशिनैर्ऋते । यामार्धमुदितो राहुर्भ्रमत्येवं दिग
ष्टके दति ॥ ३५ ॥
अथ परिघदंडाख्यं दोषमनुष्टुभाह
पूर्वादिषु चतुर्दिक्षु सप्तसप्तानलर्क्षतः ॥ वायव्याग्नेयदिक्संस्थं पारिघं नैव लंघयेत् ॥ २६ ॥
पूर्वादिष्विति ।। अनलर्क्षतः कृत्तिकातः सप्त भानि पूर्वस्याम् । मघातः सप्त या - म्यायाम् । अनुराधातः सप्त पश्चिमायाम् । धनिष्ठातः सप्त भान्युत्तरस्यां रेखास्थिति सर्वत्र वाक्यशेषः । तत्र वायव्याग्नेयदिगुपनिबद्धरेखापरिघो दंड: स्यात्तं सर्वथा नोलंघयेत् । तत्र यवनेश्वरः । प्राचीमुदग्द्वारिभिरत्र यायात्प्राग्द्वारिभिचोडुभिरप्युदीचीम् । तथैव याम्यामपराश्रितैर्भेर्याम्याश्रयैश्वाप्यपरां प्रयायादिति ॥ ३६ ॥
अथ विदिक्षु गमे नक्षत्रातिदेशमावश्यककृत्ये निद्यदंडापवादं च वसंततिलकयाहअग्नेर्दशं नृप इयात्पुरुहूतदिग्भैरेवं प्रदक्षिणगता विदिशोऽथ कृत्ये ॥ आवश्यकेऽपि परिघं प्रविलंघ्य गच्छे
च्छूलं विहाय यदि दिक्तनुशुद्धिरस्ति ॥ ३७ ॥
अग्नेदिशमिति ॥ नृपः पुरुहूतदिक् प्राची तत्स्थैः कृत्तिकादिसप्त नक्षत्रैः अग्नेदिशमाग्नेयीमियाद्गच्छेत् । एवमनेन प्रकारेण प्रदक्षिणगताः सृष्टिमार्गेण स्थिता विदिशो नैर्ऋत्यादीर्गच्छेत् । यथा । मघादिसप्तभिनैर्ऋत्याम् अनुराधादिसप्तभिर्वायव्यां धनिष्ठादिसप्तभिरेशानीं गच्छेदित्यर्थः । अथेति आवश्यके कृत्ये कर्तव्ये परिघदंडमपि लंघयित्वा नृपो गच्छेत् । परंतु शूलं वारशूलं नक्षत्रशूलं विहाय त्यक्त्वा यदि दिक्तनशुद्धिरस्ति पूर्वादिदिक्षु मेषादयस्त्रिरावृत्त्या दिग्राशयः स्युः । क्रमशो मेषाद्या एव तस्यां तस्यां दिशि दिग्लग्नशब्देन व्यवह्नियंते । तेषां शुद्धिः शुभफलदातृग्रहानुकूल्यसाहित्यं स्यात् । दिग्राशीनाह नारदः । दिग्राशयः स्युः क्रमशो मेषाद्याश्च पुनः पुनरिति ॥ ३७ ॥
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अन्यदपींद्रवज्रयाह
मैत्रार्कपुष्याश्विनभैनिरुक्ता यात्रा शुभा सर्वदिशासु तज्ज्ञैः ॥ वक्री ग्रहः केंद्रगतोऽस्य वर्गो लग्ने दिनं चास्य गमे निषिद्धम् ||३८||
मैत्रार्केति ॥ अनुराधाहस्तपुण्याश्विनी नक्षत्रैः सर्वासु दिशासु चतुर्दिक्षु तज्ज्ञैज्र्ज्योतिषिकैर्यात्रा शुभा निगदिता । यस्तु बालिकाविवेकादौ प्रागादिषु श्रवणाश्विपुष्ग्रहस्तानां त्याग उक्तः स निर्मूलत्वादुपेक्ष्यः । क्वचिदष्टौ सर्वदिग्द्वारकाण्युक्तानि । गुरुः । पुष्याश्विह
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यात्राप्रकरणम् ।
१७७ स्तमैत्राणि पौष्णवैष्णवसौम्यभम् । वासवं सर्वदिक्ष्वाशु यात्रायां शोभनानि होति । वराहः। सर्वद्वारिकसंज्ञितानि गुरुमं हस्ताश्चिमैत्राणि च श्रेष्ठान्यैदवपौष्णविष्णुवसुभान्याद्यैः सहाष्टौ सदेति । वक्री ग्रह इति । वक्री ग्रहो यदि केंद्रगः स्यात्स गमे यात्रायां निषिद्धः । अथवाऽस्य वक्रीग्रहस्य लग्ने वर्गः षडुर्गश्चेत्सोऽपि गमने निषिद्धः । वास्य वक्रीग्रहस्य दिनं वारोऽपि गमने निषिद्धम् ॥ ३८ ॥ __ अथायनशूलमिंद्रवजयाहसौम्यायने सूर्यविधू तदोत्तरां प्राची व्रजेत्तौ यदि दक्षिणायने ॥ प्रत्यग्यमाशां च तयोदिवानिशं भिन्नायनत्वेऽथ वधोऽन्यथाभवेत्॥
सौम्यायन इति ॥ यदि सूर्यचंद्रौ सौम्यायने उत्तरायणगतौ स्यातां तदा उत्तरां प्राची वा व्रजेत् । तद्दिङ्मुखा यात्रा शुभेत्यर्थः । यदि तु रविचंद्रौ दक्षिणायनगतौ स्यातां तदा प्रतीची दक्षिणां वा व्रजेत् । अथ तयोभिन्नायनत्वे अयनभेदे सति दिवानिशं व्रजेत् । यथा । सूर्यो यस्मिन्नयने तां दिशं दिवा व्रजेत् । चंद्रो यस्मिन्नयने तां दिशं रात्रौ यायात् । अत्रोत्तरस्यां पूर्वस्या अंतर्भावः दक्षिणस्यां पश्चिमाया इति । रत्नकोशे । दिनकरकरप्रतप्तां मकरादावुत्तरां च पूर्वी च । यायाच्च कर्कटादौ याम्यामाशां प्रतीची चेति । अथान्यथा चेत्कुर्यात्तदा वधो मरणं भवेत् । भिन्नायनत्वे सति सूर्यो यस्मिन्नयने तां दिशं यदि रात्रौ गच्छेत् चंद्रो यस्मिन्नयने तां दिवा गच्छेत्तदा यातुर्वधो भवेदित्यर्थः ॥ ३९ ॥ __ अथ संमुखशुक्रदोषमुपजात्याहउदेति यस्यां दिशि यत्र याति गोलभ्रमाद्वाथ ककुम्भसंघे ॥ त्रिधोच्यते संमुख एव शुक्रो यत्रोदितस्तां तु दिशं न यायात् ॥४०॥ - उदेतीति ॥ शुक्रो यस्यां दिशि प्राच्या प्रतीच्यां वा कालवशेनोदयं करोति तत्र गंतुः पुंसः शुक्रः संमुखः । अयमेकः प्रकारः । अथवा गोलभ्रमवशेन यत्र यस्यां दिशि उत्तरस्यां दक्षिणस्यां वा यदि याति गच्छति तत्र गंतुः पुंसः शुक्रः संमुखः । अयमेकः प्रकारः । अथवा गोलभ्रमवशेन यत्र यस्यां दिशि उत्तरस्यां दक्षिणस्यां वा यदि याति गच्छति तत्र गंतुः पुंसः संमुखः शुक्रः स्यात् । अयं द्वितीयः प्रकारः । अथ यत्र ककुब्भसंघे प्राच्यादिदिशि कृत्तिकादिन्यासवशेन यदिङ्नक्षत्रे चरति तत्र दिशि गंतुः संमुखः शुक्रः स्यादित्ययं तृतीयः प्रकारः । अत्रिः । यदिग्गतः समुदयेद्विचरेद्यत्र गोलके । यहारभेषु विचरेत्रिविधं प्रतिभार्गवमिति । यत्रोदित इति । यस्यां दिश्युदितः शुक्रो हुश्यते तां दिशमेव न गच्छेत् । अन्यदिश्यपि यथासंभवं न यायात् । मूढे शुक्रे कार्यहानिः प्रतिशुक्रे पराजय इति नारदोक्तेः । अवश्यकर्तव्ये गमने शांतिमाह वसिष्ठः । भृगुलग्ने भृगोवीरे भृगुवर्ग भृगूदये । उपोष्य भृगुवारेऽपि यावच्छुक्रोदयं प्रति । रजतेनैव शुद्धेन
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मुहूर्तचिंतामणौ कारयेत्प्रतिमां भृगोः । लिखेदष्टदलं पद्मं कांस्यपात्रे च तंडुलैः ॥ शुक्लसूक्ष्मांबरैष्टय प्रतिमां तत्र पूजयेत् । शुक्लपुष्पाक्षतैगमुक्ताहारौविचित्रितैः ॥ उपचाराणि कार्याणि शुक्र ते अन्यदित्यचा । तन्मंत्रेण जपं कुर्यात्सम्यगष्टोत्तरं शतम् ॥ कर्माते तेन मंत्रेण भक्त्या चार्य प्रदापयेत । श्वेतगंधाक्षतैः पुष्पैः क्षीरमिश्रेण वारिणा ॥ दैत्यमंत्री दिवादी चोशना भार्गवः कविः । श्वेतोऽथ मंडली काव्यो विधिस्थो भृगवे नमः ॥ दत्वेत्यऱ्या प्रयत्नेन प्रार्थयेदेव भक्तितः । अनेनैव तु मंत्रेण प्रांजलिः प्रणतः स्थितः ॥ त्वत्पूजयानया शुक्र संमुखत्वसमुद्भवम् । दोषं विनाशय क्षिप्रं रक्ष मां तेजसां निधे ॥ इति प्रार्थ्य प्रयत्नेन प्रतिमा भूषणान्विता । दैवज्ञायैव दातव्या श्वेताश्वसहितैव सा ॥ शिष्टेभ्यो दक्षिणां दद्याद्यथावित्तानुसारतः । ब्राह्मणान् भोजयेत्पश्चात्स्वयं भुंजीत बंधुभिः ॥ इतरेषां ग्रहाणां च पूजां कुर्यात्प्रयत्नतः । तत्तत्संमुखजो दोषस्तत्क्षणादेव नश्यति ॥ दीपिकायां तु दानमेवोक्तम् । सितमश्वं सितच्छत्रं हेममौक्तिकसंयुतम् । ततो द्विजातये दद्यात्प्रतिशुक्रप्रशांतय इति ॥ ४० ॥
अथ वक्रास्तादिदोषं सापवादमुपजात्याहवक्रास्तनीचोपगते भृगोः सुते राजा व्रजन्याति वशं हि विद्विषाम् । बुधोऽनुकूलो यदि तत्र संचलन रिपूञ्जयेन्नैव जयः प्रतीदुजे ॥४१॥
वक्रास्तेति ॥ भृगोः सुते शुक्रे वक्रोपगते अस्तोपगते नीचोपगते च उपलक्षणत्वाद्वयुद्धपराजिते वर्णरहिते वा सति राजा परराष्ट्रं व्रजन् सन् हि निश्चयेन विद्विषां शतृणां वशं याति बद्धो भवतीत्यर्थः । भरद्वाजः । विवणे विजिते नीचे वक्रिते वा सितेऽस्तगे । शत्रुक्षेत्रगते वापि तदंशे तन्निरीक्षिते ॥ भौमांशे भौमसंयुक्ते मंदांशे मंदसंयुते । यात्रां नैव प्रकुर्वीत लक्ष्म्यायुर्बलहानिदेति । बुध इति । तत्र शुक्रास्ते यदि बुधोऽनुकूलः पृष्ठदिक्संस्थो भवेत्तदा संचलन् सन् राजा रिपून शत्रून् जयेत् । नैवेति प्रतींदुजे बुधे संमुखे सति गंतू राज्ञो नैव जयः किंतु पराजयः । अयं तु प्रतिशुक्रविचारो नृणां प्रथमगमने राज्ञां तु समरयात्रायामाहुः । रैभ्यः । प्रतिशुक्रादिदोषोऽयं नूतने गमने नृणाम् । राज्ञां विजययात्रायां नान्यथा दोषमावहेदिति ॥ ४१ ॥ __ अथ विशेष शालिन्याहयावच्चंद्रः पूषभात्कृत्तिकाद्ये पादे शुक्रोंऽधो न दुष्टोऽग्रदक्षे । मध्ये मार्ग भार्गवास्तेऽपि राजा तावत्तिष्ठेत्संमुखत्वेऽपि तस्य ॥४२॥
यावच्चंद्र इति ॥ चंद्रो यदा पूषभाद्रेवतीनक्षत्रादारभ्य कृत्तिकाद्ये पादे रेवत्यश्विनीभरणीकृत्तिकाप्रथमचरणे यावत्तिष्ठति तावच्छुक्रोऽधो ज्ञेयः दृष्टोऽपि शुको दर्शनकार्य न करोतीत्यर्थः । तदेवाह । न दुष्ट इति । अंधो यदा तदा अग्रे संमुखे दक्षे द
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यात्राप्रकरणम् ।
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क्षिणभागे च दुष्टो न स्यात् । मध्येमार्गमिति । सुमुहूर्तप्रस्थितोऽपि राजा मध्येमार्ग मार्ग - मध्ये यदि शुक्रास्तो भवेत्तावत्कालं तस्मिन्नेव प्रयाणे तिष्ठेत् यावच्छुक्रोदयो भवेत् यदि गच्छतो राज्ञो दैवात्संमुखः शुक्रश्चेत्तावदस्य शुक्रस्य संमुखत्वेऽपि तस्मिन्नेव प्रयाणे तिष्ठेत् उपलक्षणत्वाद्दुरावप्येवंविधे द्रष्टव्यम् । पराशरः । जीवः शशांकः शुक्रो वा मार्गमध्येऽस्तगो यदि । तत्रैव निवसेद्राजा यावदभ्युदितो भवेदिति || मार्गमध्ये बुधास्ते न दोषः । यदा तु मार्गमध्ये बुधोदयो भवेत्स च पुनः संमुखो भवेत्तदा तु पुनर्दोष एव । वसिष्ठः । संमुखश्चंद्रजो यत्र मार्गमध्योदितो यदि । यावदस्तं गते तस्मिंस्तावत्तत्रैव संवसेदिति ॥ ४२ ॥ अथ निषिद्धलन मनुष्टुभाह
कुंभकुंभांशको त्याज्यौ सर्वथा यत्नतो बुधैः । तत्र प्रयातुर्नृपतेरर्थनाशः पदेपदे ।। ४३ । कुंभकुंभांशकाविति ॥ स्पष्टोऽर्थः ॥ ४३ ॥
अथान्यन्मंजुभाषिण्याह
अथ मीनलग्न उतवा तदंशके चलितस्य वक्रमिह वर्त्म जायते । जनिलग्नजन्मभपती शुभग्रहौ भवतस्तदा तदुद्ये शुभो गमः ॥ ४४ ॥
अथ मीनलग्न इति ॥ मीनलग्ने लग्नांतरे वा मीनांशके चलितस्य राज्ञो वर्त्म वक्रं स्यात् । जनीति जनिर्जन्मकालीनं लग्नं जन्मभं जन्मराशिः तयोर्जन्मलग्नराश्योः पती स्वामिनौ शुभग्रहौ सौम्यग्रहौ चेदुदये लग्ने भवतस्तदा गमो गमनं शुभः स्यात् । जन्मलग्नं जन्मराशिव यात्रालग्नगं शुभमिति प्रागेवाभिहितम् । जननराशितनू यदि लग्नग इति । अर्थाज्जन्मलग्नजन्मराशिस्वामिनी पापग्रहौ यात्रालग्ने स्यातां तदा तादृशे लग्ने गमनमशुभफलमित्यर्थः । वसिष्ठः । जन्मराशौ लग्नगते तदीशे वा विलनगे । अभीष्टफलदा यात्रा राशीशश्रेच्छुभग्रहः ॥ वृद्धनारदेन । जन्मराश्युद्गमो नैव जन्मलग्नोदयः शुभः । तयोरुपचयस्थानं यदि लग्नगतं शुभमिति जन्मराशिर्यात्रालग्ने निषिद्ध उक्तः स जन्मराशेः पापग्रहस्वामित्वे ज्ञेयः । शुभस्वामित्वे तु प्रागुक्तवसिष्ठवाक्यं स्वरसं स्यात् । एवं जन्मलग्नोदयः शुभ इत्यत्रापि जन्मलग्नस्य शुभस्वामित्वे शुभफलता न पापस्वामित्वे इति व्याख्येयम् ॥ ४४ ॥ अथान्यद्रथोद्धतयाहजन्मराशिततोऽष्टमेऽथवा स्वारिभाव रिपुभे तनुस्थिते ॥ लग्नगास्तदधिपा यदाथवा स्युर्गतं हि नृपतेर्मृतिप्रदम् ।। ४५ ।।
जन्मराशितनुत इति । स्वजन्मराशेर्जन्मलग्नाच्च वाष्टमे राशौ लग्नस्थिते सति तथारिभात् जिगमिषतः शत्रोर्भात् राशेर्लग्नाच्च रिपुभे षष्ठराशौ लग्नस्थिते सति अथवा
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मुहूर्तचिंतामणी
स्वराशिलग्नाभ्यां अष्टमभवने स्वशत्रुराशेर्जन्मराशिलनाभ्यां षष्ठभवने तेषां स्वामिनो या - त्रालग्नगताः स्युर्यदा तदा राज्ञो मृतिप्रदाः ॥ ४९ ॥
अथान्यच्छुभलग्नं शालिन्याह
लग्ने चंद्रे वापि वर्गोत्तमस्थे यात्रा प्रोक्ता वांछितार्थैकदात्री ॥ अंभोराशौ वा तदंशे प्रशस्तं नौकायानं सर्वसिद्धिप्रदायि ॥ ४६ ॥
लग्ने चंद्र इति ॥ मीनकुंभविवर्जिते कस्मिंश्चिलने वर्गोत्तमनवांशस्थे अथवा चंद्रे वर्गोत्तमस्थे सति यात्रा वांछितार्थस्य मनोभीष्टार्थस्यैका अद्वितीया दात्री । अंभोराशाविति जलराशौ लग्नगते सति अथवा लग्नांतरे तदंशे जलराश्यंशे सति नौकायानं सर्वसिद्धिप्रदायि स्यात् ॥ ४६ ॥
अथान्यदिद्रवज्रयाह
दिग्द्वार लग्नगते प्रशस्ता यात्रार्थदात्री जयकारिणी च ॥ हानिं विनाशं रिपुतो भयं च कुर्यात्तथा दिक्प्रतिलोमलग्ने ॥४७॥ दिग्द्वारभे इति । पूर्वादिदिक्षु मेषाद्याः क्रमाद्दिग्द्वारराशयस्तेषु गंतव्यदिगवस्थितेषु समुत्था यात्रा प्रशस्ता । प्रशस्तत्वमाह । अर्थदात्री जयकारिणी चेति । यथा मेषः पूर्वस्याम् वृषो दक्षिणस्याम् मिथुनः पश्चिमायाम् कर्क उत्तरस्याम् एवं सिंहादयो धनुरादयश्च पूर्वादिषु ज्ञेयाः । हानिमिति दिक्प्रतिलोमल ने विपरीतदिगवस्थिते लग्ने । यथा पश्चिमायां मेषः उत्तरस्यां वृषः पूर्वस्यां मिथुनः दक्षिणस्यां कर्कः एवं पुनः पश्विमादिषु सिंहादयो धनुरादयश्च ज्ञेयाः । तादृशे लग्ने गंतुः यात्रा हानिं द्रव्यनाशं शत्रुतो भयं च कुर्यात् । दिग्द्वारभे लग्नगते यात्रार्थविजयप्रदा । लग्ने दिक्प्रतिलोमे सा हानिदा शत्रुभीतिदेति वराहोक्तेः ॥ ४७ ॥
अथ शुभलग्नानि वसंततिलकयाह
राशिः स्वजन्मसमये शुभसंयुतो यो यः स्वारिभान्निधनगोऽपि च वेशिसंज्ञः । लग्नोपगः स गमने जयदोऽथ भूपयोगैर्गमो विजयदो मुनिभिः प्रदिष्टः ॥ ४८ ॥
राशिरिति ॥ गंतुः पुंसः स्वजन्मसमये यो राशिः शुभग्रहैश्चंद्रबुधगुरुशुकैः संयुतोऽस्ति स राशिर्यात्रालग्नोपगः स्यात् । अथवा स्वारिभात् स्वशत्रुजन्मराशिजन्मलग्नादष्टमो यो राशिः स चेद्यात्रालग्नोपगतः स्यात् । अथवा यो राशिर्वेशिसंज्ञः जन्मसमये सूर्याक्रांतराशेर्द्वितीयो राशिर्वेशिसंज्ञः । स चेद्यात्रालग्नोपगः स्यात्तदा गमने जयदः
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यात्राप्रकरणम् ।
१८१ . स्यात् । अथवा भूपयोगैर्जातकोक्तैराजयोगैर्यात्रालग्नस्थितैर्गमो मुनिभिर्विजयदः प्रोक्तः । जातके राजयोगा द्रष्टव्याः ॥ ४८ ॥
अथ दिक्स्वामिन उपजातिकयाहसूर्यः सितो भूमिसुतोऽथराहुः शनिः शशी ज्ञश्च बृहस्पतिश्च ॥ प्राच्यादितो दिक्षु विदिक्षु चापि दिशामधीशाः क्रमतः प्रदिष्टाः ॥
सूर्यः सित इति ॥ स्पष्टार्थम् ॥ ४९ ॥ अथ दिगीशप्रयोजनं तनुमध्याछंदसाह
केंद्रे दिगधीशे गच्छेदवनीशः ॥
लालाटिनि तस्मिन्नेयादरिसेनाम् ॥ ५० ॥ केंद्रे इति ॥ तस्मिन् दिगीशे लालाटिनि सति अरिसेनां नेयात् न गच्छेत् ॥ १० ॥ अथ लालाटियोगान् शार्दूलविक्रीडितेनाहप्राच्यादौ तरणिस्तनौ भृगुसुतो लाभव्यये भूसुतः कर्मस्थोऽथ तमो नवाष्टमगृहे सौरिस्तथा सप्तमे ॥ चंद्रः शत्रुगृहात्मजेऽपि च बुधः पातालगो गीष्पतिवित्तभ्रातृगृहे विलग्नसदनाल्लालाटिकाः कीर्तिताः ॥५१॥ प्राच्यादाविति ॥ प्राच्याद्यष्टदिक्षु क्रमेण विलग्नसदनात् एतेषु भावेषु सूर्यादिनहाः स्थिताश्चेत् । लालाटिकाः स्युरिति वाक्यार्थः । यथा तनौ लग्नस्थः तरणिः सूर्यः प्राच्यां गंतुर्लालाटिकः एवं भृगुसुतो लाभव्यये आग्नेय्यां कर्मस्थो भूसुतो दक्षिणस्याम् तमो नवाष्टमगृहे नैर्ऋत्याम् सौरिः सप्तमे पश्चिमायाम् चंद्रः शत्रुगृहात्मजे वायव्याम् बुधः पातालग उत्तरस्याम् गीष्पतिर्वित्तभ्रातृगृहे ईशान्यां गंतुर्लालाटिक इत्यर्थः कश्यपेन तु सूर्यराशिवशेन लालाटिका उक्तास्ते यथा । दिनेशाधिष्ठितो राशिर्यदा लग्नगतस्तदा । यातुर्मृत्युप्रदः प्राच्यां दिशि सूर्यो ललाटगः ॥ सूर्यस्य राशितस्तस्माहादशे लग्नगे गृहे । एकादशे वा आग्नेय्यां दिशि शुक्रो ललाटगः ॥ ललाटगः कुजो याम्ये दशमे लग्नगे गृहे । लग्नगे नवमे राशावष्टमे वापि नैऋते ।। ललाटगः सैहिकेयो यातुर्द्राङ्गिधनप्रदः । लग्नगे सप्तमे राशी शनिः प्रत्यग्ललाटगः ॥ षष्ठराशी लग्नगते पंचमे वापि चंद्रमाः । ललाटगो वायुदिाश यातुर्मत्युप्रदस्तदा ॥ चतुर्थराशौ लग्नस्थे बुधः सौम्ये ललाटगः । राशौ तृतीये लग्नस्थे द्वितीये चंद्रपूजितः ॥ ललाटगश्चंद्रमौलेर्दिशि यातुर्विनाशद इति । अत्र ललाटव्यतिरिक्त कंटकस्थाने यदि दिगधीशस्तिष्ठति तदा यात्रा शुभा अन्यथा ह्यशोभनेति तत्त्वम् ॥ ५१ ॥
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मुहूर्तचिंतामण
अथ पर्युषितयात्रा योगचतुष्टयमनुष्टुभैद्रवजया चाहमृगे गत्वा शिवे स्थित्वादितौ गच्छञ्जयेद्रिपून् ॥ मैत्रे प्रस्थाय शाहि स्थित्वा मूले व्रजंस्तथा ॥ ५२ ॥ प्रस्थाय हस्तेऽनिलतक्षधिष्ण्ये स्थित्वा जयार्थी प्रवसेदैिवे || वस्वंत्यपुष्ये निजसीनि चैकरात्रोषितः क्ष्मां लभतेऽवनीशः ५३ मृगेति । प्रस्थायेति च ॥ मृगे स्वगृहाद्यातव्यदिगभिमुखं कस्यचिदिष्टस्य गृहे गत्वा प्रस्थाय आर्द्रायां तस्मिन्नेव गृहे स्थित्वोषित्वादितौ पुनर्वसौ गच्छन् तद्गृहं त्यक्त्वा ग्रामाद्वहिरेव गच्छन् रिपून् शत्रून् जयेत् अयमेको योगः । एवमेव मैत्रेऽनुराधायां प्रस्थाय शाक्रे ज्येष्ठायां स्थित्वा मूले व्रजन तथा जयेदित्यर्थः अयं द्वितीयो योगः । तथा हस्ते प्रस्थायानिलतक्षधिष्ण्ये स्वातीचित्रानक्षत्रद्वये स्थित्वा द्विदैवे विशाखायां जयार्थी भूपादिः प्रवसेद्देशांतरं गच्छेत् अयं तृतीयः । वस्वंत्यपुष्येषु निजसीनि स्वनगर प्रांते प्रस्थितः सन् यद्येकरात्रोषितः स्यात्तदाऽवनीशो राजा क्ष्मां भूमिं शत्रोरिति शेषः । लभते जयेन प्रामोतीत्यर्थः । अयं चतुर्थो योगः ॥ ५२ ॥ ५३ ॥
अथ समयबलमनुष्टुभाह
उषःकालो विना पूर्वी गोधूलिः पश्चिमां विना ॥
विनोत्तरां निशीथः सन् याने याम्यां विनाऽभिजित् ॥ ५४ ॥ उषःकाल इति । सन्शब्दश्चरणचतुष्टयेऽपि संबध्यते । उषःकालः पूर्वी विना याने यात्रायां सन् । एवं सर्वत्र । वराहेण तु दिग्विशेषे समयविशेषे प्रशस्तोऽभिहितः । यथा पूर्वाह्णे तूत्तरां गच्छेन्मध्याह्ने पूर्वतो व्रजेत् । अपराह्ने व्रजेद्याम्यामर्धरात्रे तु पश्चिमामिति ॥ ५४ ॥
अथ लग्नादिभावानां संज्ञा अनुष्टुभाह
लग्नाद्भावाः क्रमाद्देह १ कोश२धानुष्कश्वाहनम् ४ ॥ मंत्रो५रि६ मर्ग ७ आयुश्च हृदयापारा १० गम ११व्ययाः १२ ।। ५५ ॥ लग्नाद्भावा इति ॥ हन्मनः । स्वांतं हृन्मानसं मन इत्यभिधानात् । आगमः प्राप्तिः अन्यत्स्पष्टम् । एवंविधसंज्ञाकथनप्रयोजनं तु क्रूरग्रहसाहित्ये तत्तद्भावानां पीडा । शुभग्रहसाहित्ये तत्तद्भावानां शुभमित्यर्थः ॥ ५९ ॥
अथ शालिन्या विशेषफलमाह
केंद्रे कोणे सौम्यखेटाः शुभाः स्युर्याने पापाख्यायषट्खेषु चंद्रः ॥ नेष्टो लग्नांत्यारिरंध्रे शनिः खेऽस्ते शुक्रो लग्नेट् नगांत्यारिरंध्रे ॥ ५६ ॥ केंद्रे कोण इति ॥ शुभग्रहाः यदि केंद्रे कोणे १, ४, ७, १०, ९, ९, स्युस्तदा
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यात्राप्रकरणम् ।
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याने शुभफलदाः स्युः पापारुयाषट्खेषु ३, ११, ६, १०, शुभफलदाः स्युः चंद्र लग्नांत्यारिरंध्रे १, १२, ६, ८, नेष्टः अशुभफलदः शनिः खे दशमे नेष्टः शुक्रोऽस्ते सप्तमे नेष्टः । लग्नेडिति । लग्नेट् यात्रालग्नस्वामी नगांत्यारिरंध्रे सप्तमद्वादशषष्ठाष्टमेषु चेत्तदा नेष्टः अशुभफलद इत्यर्थः । गुरुः । लग्नपो मृत्युदो याने रंध्रास्तारिव्ययोपगः केऽप्याहुर्भयदो धर्मे शेषस्थाने शुभाव इति ॥ ९६ ॥
अथ योगयात्रा व्याख्यायते । तदारंभप्रयोजनं पादाकुलकेनाहयोगात्सिद्धिर्धरणिपतीनामृक्षगुणैरपि भूदेवानाम् ॥ चौराणामपि शुभशकुनैरुक्ता भवति मुहूर्तादपि मनुजानाम् ॥ ५७॥ योगादिति ॥ धरणिपतीनां राज्ञां योगाद्वक्ष्यमाणयोगयात्रालग्नवशाद्दृष्टे तिथ्यादौ सिद्धिर्वांछितकार्यनिष्पत्तिः स्यात् । भूदेवानां ब्राह्मणानां ऋक्षगुणैर्नक्षत्रगुणैश्चंद्रबलताराबलविहितनक्षत्रर्त्वादिभिः सिद्धिर्भवति । अपिशब्दात्पंचांग शुद्ध्यादिषु नावश्यकता । चौराणां वक्ष्यमाणैः शुभसूचकशकुनैः सिद्धिर्भवति । एतद्भिन्नानां मनुजानां मुहूर्तात् गिरिशभुजगमित्रा । इति विहितनक्षत्रस्वामिकमुहूर्तात्सिद्धिर्भवति ॥ ९७ ॥
अथ योगात्रानं मंजुभाषिण्याह
सहजे रविर्दशमभे शशी तथा शनिमंगला रिपुगृहे सितः सुते ॥ हिgh बुधो गुरुरपीह लग्नगः स जयत्यरीन्प्रचलितोऽचिरान्नृपः॥५८॥
सहजेरविरिति ॥ रविः सहजे तृतीये स्यात् शशी चंद्रो दशमभे दशमस्थाने शनिमंगलौ रिपुगृहे षष्ठस्थाने स्यातां सितः सुते पंचमे बुधो हिबुके चतुर्थे गुरुरपि लग्नगश्चेत्स्यात् एवंविधे योगे राजा प्रचलितः अचिरात्स्वल्पकालेनैवारीन् जयति वशीकरो - तीत्यर्थः ॥ ५८ ॥
अथ योगांतरं गाथयाह
भ्रातरि सौरिर्भूमिसुतो वैरिणि लग्ने देवगुरुः ॥
आयगतेऽशत्रुजयश्चेदनुकूलो दैत्यगुरुः ॥ ५९ ॥
भ्रातरि सौरिरिति ॥ भ्रातरि तृतीये शनिः वैौरणि षष्ठे भूमिसुतो मंगलः अर्के आयगते एकादशे एवंविधे योगे राज्ञां शत्रुजयो भवेत् चेदैत्यगुरुः शुक्रो ऽनुकूलः यातव्यदिष्टष्ठवर्ती भवति ॥ ५९ ॥
अन्यद्योगांतरं भुजंगप्रयातार्धेनाह
जीव इंदु
वैरिगोऽर्कः प्रयातो महींद्रो जयत्येव शत्रून् ॥ ६० ॥
जीव इति ॥ स्पष्टार्थः । तथाच नारदः । जीवार्कचंद्रा लग्नारिरंध्रगा यदि गच्छतः । तस्याग्रे खलमैत्रीव न स्थिरा रिपुवाहिनीति ॥ ६० ॥
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मुहूर्तचिंतामण
अथान्यं योगं पंत्याह
लग्नगतः स्याद्देवपुरोधाः ॥ लाभधनस्थैः शेषनभोगैः ॥ ६१ ॥ लग्नगतः स्यादिति ॥ लग्ने गुरुः स्यात् अन्ये ग्रहा लाभधनस्थाः एकादशद्वितीयस्थाश्वेदेवंविधे योगे राज्ञो विजयः ॥ ६१ ॥
अन्यं योगंमत्तयाह
द्यूने चंद्रे समुदयगेऽर्के जीवे शुक्रे विदि धनसंस्थे ॥
ईदृग्योगे चलति नरेशो जेता शत्रून् गरुड इवाहीन् ॥ ६२ ॥ द्यून इति ॥ चंद्रे सप्तमस्थे सति अर्के समुदयगे लग्भगे सति जीवे शुक्रे विदि बुधे एतेऽषु त्रिषु धनसंस्थेषु द्वितीयस्थानस्थितेषु सत्सु एवंविधे योगे नरेशश्चेत् चलति तदा शत्रून् जेता जेष्यति । कः कानिव गरुडोऽहीन् सर्पान् यथा ॥ ६२ ॥
अथान्यं योगं चित्रपदयाह
वित्तगतः शशिपुत्रो भ्रातरि वासरनाथः ॥
लग्नगते भृगुपुत्रे स्युः शलभा इव सर्वे ॥ ६३ ॥
वित्तगत इति ॥ बुधो द्वितीये वासरनाथः सूर्यस्तृतीये शुक्रे लग्नगे एवंविधे योगे चेद्राजा चलति तदा शत्रवो राजानः शलभा इव स्युः । यथा शलभा अनौ स्वयमेव गत्वा पतंति तथा शत्रवोऽपि गंतृराजप्रतापानले पतिष्यतीत्यर्थः ॥ ६३ ॥
अथान्यं योगं गाथयाह
उदये रविर्यदि सौरिररिंगः शशी दशमेऽपि ॥ वसुधापतिर्यदि याति रिपुवाहिनी वशमेति ॥ ६४ ॥ उदयेरविरिति ॥ उदये रविः शनिः षष्ठः चंद्रो दशमः स्यात् एवंविधे योगे वसुधापती राजा यदि याति तदा रिपुवाहिनी शत्रुसेना वशमेति ॥ ६४ ॥ अथान्यद्योगद्वयं जलोद्धतगत्याह
तनौ शनिकुजौ रविदेशमभे बुधो भृगुसुतोऽपि लाभदशमे || त्रिलाभरिपुभेषु भूसुतशनी गुरुज्ञभृगुजास्तथा बलयुताः ॥ ६५ ॥
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तनौ शनिकुजाविति ॥ इत आरभ्य वसुधापतिर्यदि याति रिपुवाहिनी वशमेतीत्युत्तरार्धे सहजे कुज इत्येतत्पर्यंतमनुवर्तते । तेन यत्र फलनिर्देशो नास्ति तत्र जिगमिषो राज्ञो विजयः स्यादिति वाक्यार्थोज्ञेयः । तनौ लग्नस्थौ शनिमंगलौ स्याताम् । रविर्दशमे बुधो लाभे दशमे वा स्यात् भृगुसुतो वा लाभे दशमे वा स्यात् एवंविधे योगे प्रचलितस्य राज्ञो विजयः स्यात् । अयमेको योगः । अथ द्वितीयः । त्रिलाभरिपुभेषु ३, ११, ६, एष्वन्यतमस्थानस्थितौ भूसुतशनी स्याताम् यस्मिन् कस्मिंश्चित्स्थाने गुरुज्ञभृगुजा बलयुताः स्युस्तदा राज्ञो विजय इत्यर्थः ॥ ६५ ॥
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यात्राप्रकरणम् ।
अथान्यं योगं त्वरितगतिश्च नजनगैरित्यनेन छंदसाह
समुदयगे विबुधगुरौ मदनगते हिमकिरणे ॥
हिghat बुधभृगु सहजगताः खलखचराः ॥ ६६ ॥
समुदयेति ॥ समुदयगे लग्नस्थे बृहस्पतौ सति हिमकिरणे चंद्रे मदनगते सप्तमस्थे सति चतुर्थस्थौ बुधशुक्रौ स्याताम् खलखचराः पापग्रहाः सहजगताः तृतीयगाः स्युः एवंविधे योगे वसुधापतिर्यदि याति तदा रिपुवाहिनी वशमेति ।। ६६ ।।
अथान्यं योगं सुमुख्या जजलजगैर्गदिता सुमुखीति लक्षणलक्षितयाह
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त्रिदशगुरुस्तनुगो मदने हिमकिरणो रविरायगतः ॥ सितशशिजावपि कर्मगतौ रविसुतभूमिसुतौ सहजे ॥ ६७ ॥ त्रिदशगुरुरिति ॥ बृहस्पतिर्लने चंद्रः सप्तमे सूर्य एकादशे शुक्रबुधौ दशमे शनिमंगलौ सहजगतौ तृतीये एवंविधे योगे गंतू राज्ञो विजय एव ॥ ६७ ॥ अथान्यं योगं स्यादनुकूला भतनगगश्चेति लक्षणलक्षितयानुकूलयाह
देवगुरौ वा शशिनि तनुस्थे वासरनाथे रिपुभवनस्थे ॥ पंचमगेहे हिमकरपुत्रः कर्मणि सौरिः सुहृदि सितश्च ।। ६८ ।। देवगुराविति ॥ गुरौ चंद्रे वा लग्ने सति सूर्ये षष्ठे बुधः पंचमस्थाने शनिर्दशमे शुक्रश्चतुर्थे स्यात् एवंविधे योगे जिगमिषो राज्ञो विजय एव ॥ ६८ ॥
अथान्यं योगं ननररघटिता तु मंदाकिनीति लक्षणलक्षितया मंदाकिन्याहहिमकिरणसुतो बली चेत्तनौ त्रिदशपतिगुरुर्हि केंद्रस्थितः ॥ व्ययगृहसहजारिधर्मस्थितो यदि च भवति निर्बलश्चंद्रमाः ॥ ६९ ॥
हिमकिरण इति ॥ बुधो बली चेत्तनौ लग्ने स्यात् हीति निश्वयेन बृहस्पतिश्चेकेंद्रगतः यदि निर्बलो नीचाद्यशुभाधिकारप्राप्तो बलरहितः सन् द्वादशतृतीयषष्ठनवमानामन्यतमस्थानस्थश्चंद्रस्तदैवंविधे योगे गंतू राज्ञो विजय एव ॥ ६९ ॥
अथान्यं योगं अभिनवतामरसं तजजाय इति लक्षणलक्षितेनाभिनवतामरसच्छंद साहअशुभख गैरनवाष्टमदनस्थैर्हिवुक सहोदरलाभगृहस्थः ॥ कविरिह केंद्रगगीष्पतिदृष्टो वसुचयलाभकरः खलुयोगः ॥ ७० ॥ अशुभखगैरिति ॥ अशुभग्रहैः अनवाष्टमदनस्थैः नवमाष्टमसप्तमस्थानव्यतिरिक्तस्थानस्थैः कविः शुक्रः चतुर्थतृतीयैकादशस्थानस्थः केंद्रगतो गीष्पतिर्गुरुस्तेन दृष्टः एवंविधो योगो वसुचयो द्रव्यसमूहस्तस्य लाभकरः स्यात् ॥ ७० ॥
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मुहूर्तचिंतामणौ अथान्यं योगं प्रमिताक्षरा सजससैरुदितेति लक्षणलक्षितप्रमिताक्षराच्छंदसाहरिपुलग्नकर्महिबुके शशिजे परिवीक्षिते शुभनभोगमनैः॥ व्ययलग्नमन्मथगृहेषु जयः परिवर्जितेष्वशुभनामधरैः ॥ ७१॥
रिपुलग्नोति ॥ षष्ठलग्नदशमचतुर्थानामन्यतमस्थानस्थे बुधे शुभनभोगमनैः शुभग्रहैः परिवीक्षिते दृष्टे सति द्वादशलग्नसप्तमस्थानव्यतिरिक्तस्थानस्थितैरशुभनामधरैः पापग्रहैरुपलक्षिते सति एवंविधे योगे जिगमिषो राज्ञो विजय एव ॥ ७१ ॥ अथान्यं योगद्वयं त्यौ त्यौ मणिमाला छिन्ना गुहवकैरिति लक्षणलक्षितयाह
लग्ने यदि जीवः पापा यदि लाभे कर्मण्यपि वा चेद्राज्याधिगमः स्यात् ॥ यूने बुधशुक्रौ चंद्रो हिबुके वा
तत्फलमुक्तं सर्वैर्मुनिवर्यः ॥ ७२ ॥ लग्न इति ॥ लग्ने गुरुः पापग्रहा यदि लाभे एकादशे कर्मण्यपि दशमेऽपि चेत्स्युः एवंविधयोगे प्रचलितस्य राज्ञो राज्याधिगमो राज्यप्राप्तिः स्यात् । अथवा द्यूने सप्तमे बुधशुक्रौ स्यातां चंद्रो हिबुके चतुर्थे स्यादेवंविधयोगे सर्वेर्मुनिवर्यस्तद्वत्फलमुक्तं राज्याधिगमः स्यात् ॥ ७२ ॥
अथान्यद्योगत्रयं ननततगुरुभिश्चंद्रिकाश्वर्तुभिरिति लक्षणलक्षितेन चंद्रिकाच्छंदसाहरिपुतनुनिधने शुक्रजीवेंदवो ह्यथ बुधभृगुजी तुर्यगेहस्थितौ ॥ मदनभवनगश्चंद्रमा वांबुगः शशिसुतभृगुजांतर्गतश्चंद्रमाः ॥ ७३ ॥
रिपुतन्विति ॥ अत्र स्थानानां ग्रहाणां च साम्याद्यथासंख्यमन्वयः । यथा रिपौ षष्ठे शुक्रः लग्ने जीवः अष्टमे चंद्रः एवंविधे योगे गंतू राज्ञो विजय एव । अयमेको योगः। अथ द्वितीयः बुधभृगुजौ तुर्यगेहस्थितौ चतुर्थस्थानस्थौ स्याताम् चंद्रमा मदनभवनगः सप्तमस्थानस्थश्चेदेवंविधे योगे गंतू राज्ञो विजय एव । अथ तृतीयो योगः वा चंद्रमा अंबुगः चतुर्थगः बुधशुक्रयोरंतर्गतो मध्यवर्ती चेत्तदापि राज्ञो विजय एव शशिसुतभृगुजयोरंतर्गतत्वं एकराशावेव ज्ञेयम् अन्यथा चतुर्थस्थानस्थचंद्रस्य बुधशुक्रकतदुरुधरायोगमेवावक्ष्यत् ॥ ७३॥ __ अथान्यद्योगद्वयं सजसासगौ च कथितः कलहंस इति लक्षणलक्षितेन कलहंसच्छंदसाहसितजीवभौमबुधभानुतनूजास्तनुमन्मथारिहिबुकत्रिगृहे चेत् ॥ क्रमतोऽरिसोदरखशात्रवहोरा हिबुकायगैर्गुरुदिनेऽखिलखेटैः ७४
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यात्राप्रकरणम् । सितेति ॥ लग्ने शुक्रः सप्तमे जीवः षष्ठे भौमः चतुर्थे बुधः तृतीये शनिः एवंविधे योगे गंतू राज्ञो विजय एव एको योगः अथान्यः । गुरुदिने बृहस्पतिवारे अखिलखेटैः समस्तग्रहैः सूर्यादिभिः क्रमतोऽरिसोदरेत्यादिस्थानस्थितैः यथा षष्ठेऽर्कः तृतीये चंद्रः दशमे भौमः षष्ठे बुधः लग्ने गुरुः चतुर्थे शुक्रः एकादशे शनिः एवंविधे योगेऽपि गंतू राज्ञो विजय एव ॥ ७४ ॥ अथान्यद्योगद्वयं सजसा जगौ च कथिता प्रबोधिकेति लक्षणलक्षितप्रबोधिकाच्छंदसाह
सहजे कुजो निधनगश्च भार्गवो मदने बुधो रविररौ तनौ गुरुः ॥ अथ चेत्स्युरीज्यसितभानवो जल
त्रिगता हि सौरिरुधिरौ रिपुस्थितौ ॥ ७ ॥ सहज इति ॥ तृतीये भौमः अष्टमे शुक्रः सप्तमे बुधः षष्ठे सूर्यः लग्ने गुरुः एवंविधे योगे गंतू राज्ञो विजय एव अयमेको योगः । अथान्यः । अथेति । ईज्यसितभानवो गुरुशुक्रसूर्याः जलत्रिगताः चतुर्थतृतीयस्थानस्थाः सौरिरुधिरौ शनिमंगलौ षष्ठस्थितौ एवंविधे योगे हि निश्चितं राज्ञो जयः स्यात् ॥ ७५ ॥ अथ नामविशेषपुरस्कारेण योगत्रयं सफलं शार्दूलविक्रीडितेनाहएको ज्ञेज्यसितेषु पंचमतप:केंद्रेषु योगस्तथा द्वौ चेत्तेष्वधियोग एषु सकला योगाधियोगः स्मृतः॥ योगे क्षेममथाधियोगगमने क्षेमं रिपूणां वधं चाथो क्षेमयशोवनीश्च लभते योगाधियोगे ब्रजन् ॥७६॥ एक इति ॥ ज्ञेज्यसितेषु बुधगुरुशुक्रेषु एकोऽपि बुधो वा गुरुर्वा शुक्रो वा चेत्पंचमतपःकेंद्रेषु तदा योगाख्यो योगः । तथा तेषु ज्ञेज्यसितेषु द्वौ चेत् बुधगुरू बुधशुक्रौ गुरुशुक्रो वा चेत्पंचमतपःकेंद्राणामन्यतमस्थाने स्थानभेदेन स्थानैक्येन वा स्थितौ स्यातां तदाधियोगाख्यो योगः । सकलाः ज्ञेज्यसिताः एषु पंचमतपःकेंद्राणामन्यतमस्थानेषु स्थानभेदेन स्थानैक्येन वा स्थितास्तदा योगाधियोगाख्यो योगः । फलमाह योग इति । योगे व्रजन् राजा क्षेमं कुशलं लभते कुशलेन गतागतं करोतीत्यर्थः । अथाधियोगे व्रजन् राजा क्षेमं तथा रिपूणां वधं च लभते । अथ योगाधियोगे व्रजन् राजा क्षेमयशोवनीश्चकारात् शत्रुवधं च लभते । अत्र वसिष्ठादिभिर्बहूनि यात्रालग्नान्यभिहितानि तानि तथेभ्य एवावधार्याणि ॥ ७६ ॥ ___ अथान्येऽपि यात्रायोगा लिख्यते । कश्यपः । पंचमे ज्ञो रविः षष्ठे वर्तते नवमे गुरुः । भाग्ययोगाभिधे योगे निहंता वैरिणां सदा ॥ १ ॥ गुरुः केंद्रे त्रिकोणे वा रविर्लाभे च
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मुहूर्तचिंतामणौ कर्मणि । कल्याणयोगो भूपस्य यातुः कल्याणकद्भवेत् ॥ २॥ दिगीशो दिग्बली चेत्स्याब्लग्नेशस्य सुहृद्यदि । विजयो नाम योगोऽयं याता राजा जयी भवेत् ॥ ३ ॥ अत्रिः । सहजस्थानगो भौमो भाग्यस्थश्च बृहस्पतिः । चिंतामणिसमाख्योऽयं यातुः संकल्पपूरकः ॥ ४ ॥ लग्ने शुक्रः शशी बंधौ कर्मस्थाने गुरुर्यदा । मृगेंद्रयोगो विख्यातो यातुः सर्वार्थसाधकः ॥ ५॥ लग्ने भौमो गुरुच्छिद्रे षष्ठस्थाने च भास्करः । मृत्युंजयसमाख्योऽयं सर्वशत्रुनिबर्हणः ॥ ६ ॥ आपोक्लिमगते चंद्रे केंद्रस्थे सुरपूजिते । योगः केंद्र इति ख्यातो यातुरिष्टार्थसिद्धिदः ॥ ७ ॥ चंद्रोदये गुरुश्चास्ते लग्ने वा सुरपूजिते । योगः पारावतो यातुः शुक्र वा लग्नकेंद्रगे ॥ ८ ॥ प्रबले यदि योगोऽसौ गमने सर्वसिद्धिदः ॥ ९॥ रविः षष्ठे सितश्छिद्रे तृतीये भूमिनंदनः । पिनाकियोगो विख्यातो यातुर्विजयकारकः ॥ १० ॥ अन्योन्यक्षेत्रगावेकक्षेत्रे वा कविभास्करौं । मृत्युयोगोऽयमाख्यातो यातुमृत्युप्रदायकः ११ उच्चक्षेत्रगतश्चंद्रो ह्यक्षीणश्च रविर्गुरुः । संजीवनसमाख्योऽयं मृत्युयोगापहारकः ॥ १२ ॥ एकसंगौ जीवशुक्रौ स्यातामन्योन्यसप्तगौ । भयंकराख्ययोगोऽयं यातुर्भीतिप्रदः स्मृतः १३ उच्चमूलत्रिकोणेषु वर्तते गुरुभार्गवौ । अभयाभिधयोगोऽयं भयंकरविनाशनः ॥ १४ ॥ भार्येशो व्ययगो नीचः पुत्रस्थाने शनैश्चरः । विदारिकसमाख्योऽयं यातुः पत्नी निहंत्यसौ ॥ १५ ॥ मार्गेशः शनिसंयुक्तः सप्तमेऽस्तंगतो ग्रहः । विदारिकमिमं मन्ये यातुः पत्नीविनाशकम् ॥ १६ ॥ सप्तमे चंद्रमास्तस्मात्सप्तमे नीचखेचरः । कुटुंबहारको योगो यातुः प्रियतमा हरेत् ॥ १७ ॥ दुर्बलो यदि मार्गेशो निवसेत्पापमध्यगः ॥ पापकुंजरयोगोऽयं यातुः पत्नी निहंत्यसौ ॥ १८ ॥ मार्गेशात्सप्तमे भानुः पंचमे क्रूरखेचरः । विदारिकाख्य एवासौ भार्यामरिवशं नयेत् ॥ १९ ॥ स्वोच्चमूलत्रिकोणस्थः सौम्यः पापविवर्जितः । आनंदार्णवयोगोऽयं धर्मेणैव जयावहः ॥ २० ॥ रत्नावल्याम् । उदयारिनभस्तलगैदिनकृद्यमशीतकरैः । न भवंत्यरयोऽभिमुखा हरिणा इव केसरिणः ॥ २१ ॥ दैवज्ञवल्लभे । ज्ञे सितेन सहितेऽस्तगे विधौ बंधुगे प्रवसता महीभुजा । संगरे रिपुगणो विकीर्यते तूलराशिरिव मातरिश्वना ॥ २२ ॥ मूर्ति वित्तसहजेषु संस्थिताः शुक्रचंद्रसुततिग्मरश्मयः । यस्य यानसमये रणांगणे तस्य यांति शलभा इवारयः ॥ २३ ॥ यात्राशिरोमणौ । यो याति जीवे तनुगे महीशः क्रूरैः स्थितैव्योम्यथवायसंस्थैः । तस्याग्रतः संयति वैरिसेना प्रीतिर्नृपाणामिव नो स्थिरा स्यात् ॥ २४ ॥ राजमार्तडः । लाभारिदुश्चिक्यगतौ यमारौ बलान्विता भार्गवजीवसौम्याः । यस्य प्रयाणे विलयं प्रयांति तस्य द्विषः सर्वरसं यथाप्सु ॥ २५ ॥ फलप्रदीपे। लाभविक्रमसुखस्थिते कवौ कंटकस्थगुरुणा निरीक्षिते । द्यूनरंध्रभववर्जितैः खलैः स्याद्गतोऽभिमतसिद्धिभाङ्नृपः ॥ २६ ॥ सौम्यग्रहैः केंद्रतपःसुतस्थैः क्रूस्त्रिलाभारिगतैर्गता ये। कोपानलः शांतिमुपैति तेषां विरोधिनारीनयनांबुपातैः ॥ २७ ॥ वराहः । एकोऽपि जीवा
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र्ककुजाकजानां स्वोच्चे विलग्ने स्वगृहे यददुः । यातस्य यांत्यत्र पराः प्रणाशं महाकुलानीव कुटुंबभेदे ॥ २८ ॥ चंद्रेऽस्तगे देवगुरौ विलग्ने ज्ञशुक्रयोः कर्मणि लाभगेऽर्के । सौरारयोभ्रातृगयोश्च यातो नृपः स्वभृत्यानिव शास्ति शत्रून् ॥ २९ ॥ नारदः । स्वोच्चस्थे लग्नगे जीवे चंद्रे चायगते यदि । गतो राजा रिपून् हंति पिनाकी त्रिपुरं यथा ॥ ३० ॥ शुक्रे त्रिकोणे केंद्रस्थे लग्ने चंद्रेथ वा रवौ । शत्रून् हंति गतौ राजा ब्रह्मद्वेषः कुलं यथा ॥ ३१ ॥ पापास्तृतीये हिबुके सितज्ञौ जीवो विलग्ने मृतलांछनो ऽस्ते । यस्योद्गतस्यापि बलं रिपूणां कृतं कृतघ्नेष्विव याति नाशम् || ३२ || यस्योदयास्तारिचतुस्त्रिसंस्थाः शुक्रांऽगिरोंऽगारकसौम्यसौराः । द्विषद्बलं स्त्रीवदनानि तस्य कांतानि कांता न विलोकयति ॥ ३३ ॥ पूर्वोक्तयोगे धनगो बुधश्चेच्छशांकसूर्यौ च दशायसंस्थौ । अस्मिन् गतस्यालिकुलोपनीता नानावस्था द्विरदा भवति ॥ ३४ ॥ वराहः । त्रिषण्णवांत्येष्वबलः शशांको बुधो बलीयांश्च गुरुश्च केंद्रे । तस्यारियोषाभरणैः प्रियाणि प्रियाप्रियाणां जनयति सैन्ये ॥ ३५ ॥ चंद्रो - Samः बुधो बली उभौ च त्रिषण्णवांत्येष्वेव भवतस्तदा योगः । केंद्रोपगतेन वीक्षिते गुरुणा खायतुरीयगे सिते । पापैरनवाष्टसप्तगैर्वसुकिं तन्न यदाप्नुयान्नृपः || ३६ || षष्ठाष्ट गौ शुक्रgat प्रयाणे सुरेशपूज्यो गगने यदि स्यात् । रिपुप्रणाशं विषयेषु सौख्यं प्राप्नोति । कीर्तिं विपुलां च भोगम् ॥ २७ ॥ दुश्चिक्यलाभारिगतेऽर्कपुत्रे चतुर्थगे दैत्यगुरौ प्रयाति यदा पुमान् सद्विरदेंद्रयानं कीर्तिं यशः सिद्धिसहस्त्रमेति ॥ ३८ ॥ केंद्रस्थाने सुरपतिगुरौ कंटकस्थे सुरेज्ये छिद्रे सौम्ये प्रवसति यदा त्वष्टमे ग्लौर्यदि स्यात् । येषां क्रूरा रिपुसहजगा राहुकेतू च मूर्तीवायुः कीर्ति द्रविणमतुलं ते लभते यशश्च ॥ ३९ ॥ मूर्ती शुक्रौ सुरपतिगुरौ छिद्र वा त्रिकोणे केंद्रस्थाने शनिरविकुजा लाभगा वा यदि स्युः । ये भूपा यांति शत्रुं विपुलधनमथो सैन्यनाशं रिपूणां कीर्तिं शुद्धं यशश्च प्रमथितरिपवस्ते सुखादाव्रजति ॥ ४० ॥ होरासंस्थे सुरपतिगुरौ भार्गवे कंटकस्थे षष्ठे चंद्रे व्रजति यदि वा कार्ययोगात्क्षितीशः । प्राप्नोत्यग्र्यं कनकतुरगं रूप्यरत्नादिकोशमायुः कीर्ति जयति च तदा मत्तमातंगयूथम् ॥ ४१ ॥ लग्नारिकर्महिबुकेषु शुभेक्षितेषु द्यूनांत्यलग्नरहितेष्वशुभग्रहेषु । यातुर्भयं न भवति प्रतरेत्समुद्रं यद्यश्मनापि किमुतारिसमागमेषु ॥ ४२ ॥ एकांतरक्ष भृगुजात्कुजाद्वा सौम्ये स्थिते सूर्यसुतागुरोर्वा । प्रध्वस्यतेऽरिर्न चिराद्गतस्य वेषाधिको भृत्य इवेश्वरस्य ॥४३॥ शुक्रामाद्वा सौराजीवाद्वा बुधः एकांतरे तृतीयस्थाने यत्र कुत्र स्यात्तदा योगः । निरंतरं यदि भवनेषु पंचसु ग्रहाः स्थिता दिवसकरेण वर्जिताः । यियासतो यदि च भवंति पृष्ठतस्तदा परान्बलभिदिवाशु कंतति ॥ ४४ ॥ प्राक्कपालस्थैर्य हैः पश्चिमदिशि पृष्ठगतत्वम् । अपरकपालस्थैः प्राच्यां खमध्यस्थैरुत्तरदिशि अर्धरात्रस्थैर्दक्षिणदिशि बुधभार्गवमध्यगते हिमगौ हिबुकोपगते च नृपः प्रवसेत्पुरुहूतदिशं यदिवांतकृतः पुरुहूतयमं प्रति ॥ ४५ ॥
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मुहूर्तचिंतामणौ सितेंदुजौ चतुर्थगौ निशाकरश्च सप्तमे । यदा तदा गतो नृपः प्रशास्त्यरीन् विनारणात् ४६ शुक्रवाक्पतिबुधैर्धनसंस्थैः सप्तमे शशिनि लग्नगतेऽके। निर्गतो नृपतिरेति कृतार्थों वर्षांते यदरीविनिहत्य ॥४७॥ सूर्येदु बलवर्जितौ बलयुतौ लग्नेशजन्मेश्वरौ पाताले दशमेऽपि वा शशिसुतो लग्नस्थितो वाक्पतिः । षट्सप्ताष्टमवर्जितेषु भृगुजः स्थानेषु यस्य स्थितो यातुस्तस्य न विद्विषो रणमुखे तिष्ठति योषा इव ॥ ४८ ॥ सौरे भौमे लग्नगेऽर्के खमध्ये कर्मण्याये भार्गवे चंद्रजे वा । यायाद्रूपः शत्रुगेहं निरंतुं दृप्तं शत्रु कालवत्क्रूरचेष्टः ॥ ४९॥ गुरौ विलग्ने यदि वा शशांके षष्ठे रवौ कर्मगतेऽर्कपुत्रे ॥ सितज्ञयोर्बधुसुतस्थयोश्च यात्रा जनित्रीव हितानि धत्ते ॥ ५० ॥ त्रिनिधनतनुसप्तमारिसंस्थाः कुजसितजीवबुधा रविश्च यस्य । खलजनजनितेव लोकयात्रा न भवति तस्य चिराय शत्रुसेना ॥ ५१॥ कुजरविजयुतेऽरिभे गतानां जलसहजायगतैः सितार्कजीवैः । परबलमुपयाति नाशमाशु श्रुतमधनस्य कुटुंबचिंतयेव ६२ भृगुपुत्रमहेंद्रगुरू गमने सहितौ यदि में युगपत्त्यजतः । ज्ञगुरू यदि वांशकमेकगतौ समरेऽमरराडिव भाति तदा ॥५३॥ क्षितितनययुतान्नवांशकाद्यदि शतमे भृगुजोऽथवा गुरुः। शतगुणमपि हंत्यरेबलं विषमिव कायमसृक्पथोपगम् ॥५४॥ स्वोच्चोपगैर्जीवकुजार्कखेटैरेभिस्त्रिभिर्वा कथितैर्विलग्ने । राज्ञः प्रणाशं समुपैति शत्रुः सौख्यं द्विभार्यस्य यथा धनस्य ॥ ५५ ॥ शतांशकादूर्ध्वमवस्थिते बुधे यमारयोस्वत्र गतस्य भूभृतः । प्रयाति नाशं समरे द्विषद्बलं यथाथिभावोपगतस्य गौरवम् ॥ ५६ ॥ भौमाधिष्ठितनवांशाद्यदिबुधो नवांशकशतादूर्ध्व तिष्ठति । एवं शनिरपि । सिंहाजतौलिमिथुना मृगकर्कटौ च खेशान्विता भवति यस्य शनिश्च लग्ने । तत्सैनिकाः परबलं क्षपयंति यातुमूर्खस्य वित्तमिव चारणचट्टमंक्षाः ॥ ५७ ॥ चट्टा धूर्ताः मंक्षा अलीकवादिनः । अथ समरयात्रा । गुरौ वीर्य केंद्रयुते बुधे वा भृगुनंदने । विजयो नाम योगोऽयं यातुर्विजयदः सदा ॥ ५८ ॥ स्वराशिगे बुधे लग्ने सिते वा सुरवंदिते । नंद्यावर्ताद्वयो योगो यातुरिष्टार्थसिद्धिदः ॥ ५९ ॥ स्वांशसंस्थे बुधे लग्ने शुक्रे वा सुरपूजिते । शंखसंज्ञाह्वयो योगो यातुः कीर्तप्रदः सदा ॥ ६० ॥ स्वराशौ स्वांशगे सौम्ये लग्नस्थे वा भृगोः सुते । जीवे वा व्रजयोगोऽयं यातुः शत्रुविनाशकृत् ॥ ६१ ॥ अधिमित्रांशगे सौम्ये सिते वाथ सुरार्चिते । लग्नगे मातृयोगोऽयं शत्रूणां संधिकत्सदा ॥ ६२॥ यत्रैकादशगचंद्रो भानुर्वा प्रबलः शुभः । अभयो नाम योगोऽयमरिभूतिविनाशकृत् ॥ ६३ ॥ त्रिकोणगे शुभे खेटे सबले वा द्वितीयगे । कल्याणसंज्ञो योगोऽयं यायिनां मंगलप्रदः ॥ ६४ ॥ यत्र स्वोच्चगतश्चंद्रो लग्नादेकादशे स्थितः ॥ जयंतो नाम योगोऽयं शत्रुपक्षविनाशकृत् ॥ ६५ ॥ वर्गोत्तमगते लग्ने शुभे वाथ बलान्विते । शुभग्रहयुतैः केंद्रयोगोऽयं सिद्धिदायकः ॥ ६६ ॥ षष्ठे वायगते सूर्य तामगे हरसंज्ञकः । योगो महारणे शत्रुपक्षक्षयकरः सदा ॥ ६७ ॥ उच्चस्थे लाभगे शुक्रे त्रिषष्ठे देवपूजिते । सुदर्शनो महायोगः
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यात्राप्रकरणम् ।
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शत्रुध्वंसक रणे ॥ ६८ ॥ लग्नान्यकेंद्र गे चंद्रे लग्नस्थे देवपूजिते । महाशंखाह्नयो योगः प्रतिपक्षाच्च मानदः || ६९ ॥ भूसुते स्वोच्च लाभे मृगकुंभगते यमे । नंद्यावर्तायो योगो रणे शत्रुतृणानलः || ७० मेषगे भास्करे षष्ठे लाभगे स्वोच्चगे यमे । नक्षत्रपादयोगोऽयं शत्रुमेघानिलो रणे ॥ ७१ ॥ भौमे स्वराशिगे लग्ने सौम्ये केंद्र त्रिकोणगे । पुष्ययोगोऽरिविपिनकुठारः संगरांगणे ॥ ७२ ॥ एकांतरगते लग्नाच्छुभखेटेऽथवाऽशुभे । वापीयोगस्त्वरिव्राततिमिरौघदिवाकरः ॥ ७३ ॥ आवश्यके तथा याने सौम्योऽस्ते निधनेऽपि वा । व्रजेदकोंदयेऽस्ते वा मध्याह्ने वाप्यशंकितः ॥ ७४ ॥ प्रभ्रष्टद्युतितारकास्फुटतटी प्राची भवेन्निर्मला त्वीषद्रक्तविलोहिता न धवला देवैः सदावांछिता । नो वारं न तिथिं न चापि करणं लग्नं च नापेक्षते हत्वा दोषसहस्रकं चयमुखा नूनं करोत्युन्नतिम् ॥ ७९ ॥ मध्यव्योमप्रयाते स्फुरदनलनिभे केसरैरर्कबिंबे छाया साध्वीव कांता प्रचलति पुरुषे यत्र तत्पाद - लग्ना । तावत्सौरिर्न विष्टिः कुजकृतमशुभं नैव ऋक्षं न योगः संमानारोग्यसंपत्क्षितिमथ युवतिं तत्र गंता लभेत ॥ ७६ ॥ यावत्सिंदूरवर्णे गगनतलगतं भानुबिंबं च नास्तं यावन्नो दिक्षु शांतिं व्रजति खुरपुटैरुद्धतो रेणुसंघः । तावन्नैवास्ति दोषः प्रभवति न च सा क्रूरटष्टिर्ग्रहाणां यात्रायां वा विवाहे सकलशुभकरी सर्वकार्येषु सिद्धिः ॥ ७७ ॥ इत्यलं ग्रंथविस्तरेण । इति यात्रालग्ने राजयोगाः ॥
अथ विजयादशमीसंज्ञकं सिद्धमुहूर्त तोटकेन सगणचतुष्टयेनाहइषमासि सिता दशमी विजया शुभकर्मसु सिद्धिकरी कथिता ॥ श्रवणक्षता सुतरां शुभदा नृपतेस्तु गमे जयसंधिकरी ॥ ७७ ॥ इषमासीति ॥ स्पष्टार्थः । कश्यपः । मासीषे शुक्कदशमी सर्वदा विजयाभिधा । विजयस्तत्र यातॄणां संधिर्वा न पराजय इति ॥ ७७ ॥
अथान्यद्वसंततिलकयाह
चेतो निमित्तशकुनैः खलु सुप्रशस्तैज्ञत्वा विलग्नबलमुर्व्यधिपः प्रयाति ॥ सिद्धिर्भवेदथ पुनः शकुनादितोऽपि चेतोविशुद्धिरधिका न च तां विनेयात् ॥ ७८ ॥
चेतानिमित्तेति ॥ ततःकरणम् निमित्तमंगस्फुरणादि शकुनानि वक्ष्यमाणानि एतैः सुप्रशस्तैः सद्भिः खलु निश्चयेन लग्नबलं ज्ञात्वा उर्व्यधिपो राजा प्रयाति तदा सर्वसिद्धिर्वोछितसिद्धिर्भवति । यदा तु लग्नादिबले सत्यपि निंद्यानि शकुनानि स्युस्तदा यात्रा निषिद्धैव । वसिष्ठः । अशुभानि निमित्तानि उत्पातशकुनानि च । यात्राकाले नृणां तेषां निधनायाधनाय चेति । यदा तु दैवात् शकुनलप्रादीन्यनिंद्यानि चेतोविशुद्धिश्च नास्त्येवात्र
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मुहूर्तचिंतामण
कस्य प्राबल्यमित्यत आह । अथेति शकुनादितोऽपि सकाशाच्चेतोविशुद्धिरधिका तां चेतोव - शुद्धिं विना नेयात् न गच्छेत् । कश्यपः । निमित्तशकुनादिभ्यः प्रधानं हि मनोजयः । तस्माद्धिया सतां नृणां फलसिद्धिर्मनोजयादिति ॥ ७८ ॥
अथ यात्रायामवश्यनिषिद्धनिमित्तानि वसंतमालिकाछंदसाह
तल्लक्षणम् । विषमे ससजा गुरू समे चेत् समरायश्च वसंतमालिका सा । विषमे समे चरणे ॥ व्रतबंधनदेवताप्रतिष्ठाकरपीडोत्सव सूतकासमाप्तौ ॥
न कदापि चलेदकालविद्युद्धनवर्षातुहिनेऽपि सप्तरात्रम् ॥ ७९ ॥ व्रतबंधनेति ॥ व्रतबंधनं यज्ञोपवीतम् देवप्रतिष्ठा प्रसिद्धा करपीडा विवाहः उत्सवो होलिकादिः सूतकं द्विविधं जननसूतकं मरणसूतकं च एषां शास्त्रोक्तयावद्दिनसमाप्यानामसमाप्तौ समाप्ति विना कदापि नैव चलेत् गच्छेत् । नारदः । उत्सवोपनयोद्वाहप्रतिष्ठाशौचसूतके । आसमाप्तेर्न कुर्वीत यात्रां तत्र जिजीविषुरिति । अकालेति विद्युत् प्रसिद्धा घनो मेघगर्जतम् वर्षावृष्टिः तुहिनं नीहारः एषु पदार्थेष्वकालेषु सत्सु सप्तरात्रं दिनसप्तकं न चलेत् । नारदः । अकालजेषु नृपतिर्विद्युद्गर्जितवृष्टिषु । उत्पातेषु त्रिविधेषु सप्तरात्रं न तु ब्रजेदिति ॥ ७९ ॥
अथैकदिन साध्ये गमनप्रवेशे विशेषं वंशस्थवत्तेनाह
महीपतेरेकदिने पुरात्पुरे यदा भवेतां गमनप्रवेशकौ ॥ भवारशूलप्रतिशुक्रयोगिनी विचारयेन्नैव कदापि पंडितः ॥ ८० ॥ महीपतेरिति ॥ स्पष्टार्थः । यथा वाराणसीस्थानाच्चरणाद्विनगरे प्रवेशः तत्रैतान् दोषान् पंडितो नैव विचारयेत् ॥ ८० ॥
अथैकदिनमध्ये निर्गमप्रवेशाख्यरूपे कार्ये विचिकीर्षिते किंविचार्यमित्यार्ययाह
यद्येकस्मिन् दिवसे महीपतेर्निर्गमप्रवेशौ स्तः ॥
तहि विचार्यः सुधिया प्रवेशकालो न यात्रिकस्तत्र ॥ ८१ ॥ यद्येकस्मिन्निति ॥ स्पष्टार्थम् ॥ ८१ ॥
अथ प्रयाणे नवमीदोषमनुष्टुभाह
प्रवेशान्निर्गमं तस्मात्प्रवेशं नवमे तिथौ ॥ नक्षत्रे च तथा वारे नैव कुर्यात्कदाचन ॥ ८२ ॥
प्रवेशादिति ॥ गृहप्रवेशतिथितो नवमे तिथौ निर्गमं न कुर्यात् । पुनश्च गमनदिवसात् नवमे तिथौ गृहप्रवेशं न कुर्यात् । एवं नक्षत्रान्नवमे नक्षत्रे गृहप्रवेशं तथा गृहप्रवेशनक्षत्रान्नवमनक्षत्रे गमनं च न कुर्यात् । वारे च गमनवारान्नवमवारे गृहप्रवेशं गृहप्रवेश
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यात्राप्रकरणम् ।
१९३ वासरान्नवमवारे गमनं न च कुर्यात् । गर्गः । प्रवेशान्निर्गमश्चैव निर्गमाच्च प्रवेशनम् । नवमे यातुर्नो कुर्याद्धिष्ण्ये वारे तिथावपीति ॥ ८२ ॥ अथ यात्रादिनीयं विधि शालिन्याह
अग्निं हुत्वा देवतां पूजयित्वा नत्वा विमानर्चयित्वा दिगीशम् ॥ दत्वा दानं ब्राह्मणेभ्यो दिगीशं
ध्यात्वा चित्ते भूमिपालोऽधिगच्छेत् ॥ ८३॥ अग्निं हुत्वेति ॥ स्पष्टार्थम् ॥ ८३ ॥ अथ नक्षत्रदोहदान् शार्दूलविक्रीडितेनाहकुल्माषांस्तिलतंडुलानपि तथा माषांश्च गव्यं दधि त्वाज्यं दुग्धमथैणमांसमपरं तस्यैव रक्तं तथा ॥ . तद्वत्पायसमेव चापपललं मागं च शाशं तथा षाष्टिक्यं च प्रियंग्वपूपमथवा चित्रांडजान् सत्फलम् ॥ ८४॥ कुल्माषानिति ॥ अत्र चतुर्थचरणे प्रियंग्वपूपेत्यत्र छंदोभंगोऽस्ति सगणप्रक्षेपाकरणात् । सत्यम् प्रे ने हे वेति पिंगलसूत्रेण पकारे रेफसंयोगे च प्राग्वर्णस्य लघुत्वाभिधानात् सगणप्रक्षेप एव । तथा च कालिदासः । गृहीतप्रत्युद्गमनीयवस्त्रेति । हयादृक्षे अश्विन्यादिसप्तविंशतिभेषु कुल्माषादिकं नक्षत्रदोहदम् । इदं भक्ष्याभक्ष्यं वर्णभेदेन देशभेदेन विचार्यम् । भक्ष्यसंभवे भक्षयेत् अभक्ष्यसंभवे आलोकयेत् पश्येत्स्टशेद्वेति ध्येयम् । यथाऽश्चिन्यां कुल्माषानक्षतचिन्नमाषान् भरण्यां तिलमिश्रतंडुलान् कृत्तिकायां माषान् रोहिण्यां गव्यम् गोरसं च दधि मृगे गव्यमाज्यं घृतम् आर्द्रायां दुग्धं गव्यमेव पुनर्वसावेणमांसं हरिणमांसम् पुष्ये मृगस्य रक्तम् आश्लेषायां पायसम् मघायां चाषस्य पललं मांसम् पूर्वाफल्गुन्यां मृगस्येदं मार्ग मांसं उत्तराफल्गुन्यां शशस्येदं शाशं मांसं हस्ते षाष्टिक्यं पष्टिकान्नं चित्रायां प्रियंगुः फलिनीत्येके स्वात्यामपूपं विशाखायां चित्रान् नानावर्णानंडजान्पक्षिणः अनुराधायां सत्फलं उत्तमफलमाम्रादिकम् ॥ ८४ ॥ ज्येष्ठादिदोहदं शार्दूलविक्रीडितेनाह
कौम सारिकगौधिकं च पललं शाल्यं हविष्यं हयादृक्षे स्यात्कृसरान्नमुद्गमपि वा पिष्टं यवानां तथा ॥ मत्स्यान्नं खलु चित्रितान्नमथवा ध्यन्नमेवं क्रमाद्रक्ष्याभक्ष्यमिदं विचार्य मतिमान् भक्षेत्तथालोकयेत् ॥८५॥
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मुहूर्तचिंतामणी
कौर्ममिति ॥ ज्येष्ठायां कूर्मस्य कच्छपस्येदं कौर्म मांसं मूले सारिकायाः पक्षिण्या इदं सारिकं मांसं पूर्वाषाढायां गोधायाः इदं गौधिकं मांसं उत्तराषाढायां शलस्य पक्षिण इदं शाल्यं मांसम् । श्वावित्तु शल्य इत्यमरः । अभिजिति हविष्यं मुद्रादि श्रवणे कसरानं खिच्चडिका धनिष्ठायां मुगौदनं शतभे यवानां यवपिष्टं पूर्वाभाद्रपदायां मत्स्यान्नं मत्स्यमिश्रितमोदनम् उत्तराभाद्रपदायां चित्रान्नं चित्रवर्णमोदनम् रेवत्यां दध्यन्नं दधिभक्तमिति । नारदः । कुल्माषांच तिलान्माषान्दधि गव्यं घृतं पयः । मृगमांसं च तत्सारं पायसं चाषकं मृगम् ॥ शशमांसं च षाष्टिक्यं प्रियंगुकमपूपकम् । चित्रांडजान् फलं कूर्म सारी गोधां च शल्यकम् ॥ हविष्यं कृसरान्नं च मुद्गान्नं यवपिष्टकम् | मत्स्यान्नं चित्रितान्नं च दध्यन्नं दस्रभात् क्रमादिति । गुरुः । अलभ्या लभ्या भक्ष्या वा स्मृत्वा स्पृष्ट्वाथ तान्व्रजेत् । गत्वा सिद्धिमवाप्नोति दुष्टभादिषु भूपतिः । दोहदेषु ग्रंथांतरे भेदस्तत्र विकल्पो ज्ञेयः ॥ ८१ ॥ अथ दिग्दोहदमनुष्टुभाह
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आज्यं तिलौदनं मत्स्यं पयश्चापि यथाक्रमम् ॥ भक्षयेद्दोहदं दिश्यमाशां पूर्वादिकां व्रजेत् ॥ ८६ ॥
आज्यमिति ॥ आज्यं घृतं पूर्वस्याम् तिलमिश्रमोदनं दक्षिणस्याम् मत्स्यं पश्चिमायाम् पयो दुग्धमुत्तरस्याम् । दिशि भवं दिश्यं एतद्दोहदं भक्षयेत् । ततः पूर्वाद्यामाशां व्रजेत् ॥ ८६ ॥
वारदोह दमनुष्टुभाह
रसालां पायसं कांजीं श्रुतं दुग्धं तथा दधि ॥ पयोऽभृतं तिलान्नं च भक्षयेद्वारदोहदम् ॥ ८७ ॥
रसालामिति ॥ रसाला शर्करा दधिमरीचक पूरैलासंस्ष्टष्टा लोके शिखरिणीति प्रसिद्धा तां रविवारे पायसं सोमवारे कांजी प्रसिद्धा तां भौमवारे शृतं पक्कदुग्धं बुधे दधि गुरौ अनृतं अपक्कदुग्धं शुक्रे तिलमिश्रमोदनं शनिवारे एतद्वारदोह रविवारा क्रमेण भक्षयेत् । स्याद्रसाला तु मार्जिकेत्यमरः ॥ ८७ ॥ अथ तिथिदोहदं वसंततिलकयाह
पक्षादितोऽर्कदलतंडुलवारि सर्पिः श्राणा हविष्यमपि हेमजलं त्वपूपम् ॥ भुक्त्वा व्रजेदुचकमंबु च धेनुमूत्रं
यावान्नपायसगुडानसृगन्नमुद्गान् ॥ ८८ ॥
पक्षादित इति ॥ पक्षादितः प्रतिपदमारभ्य पंचदशतिथिषु क्रमेण तिथिदोहदं
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यात्राप्रकरणम् ।
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मुक्त्वा व्रजेत् । यथा । प्रतिपदि अर्कस्य प्रसिद्धस्य दलानि पर्णानि द्वितीयायां तंडुलवारि प्रक्षालिततंडुलजलम् तृतीयायां सर्पिघृतम् चतुथ्यो श्राणा यवागूः पंचम्यां हविष्यान्नं मु. द्रादि षष्ठयां हेमजलं प्रक्षालितसुवर्णजलम् सप्तम्यां अपूपम् अष्टम्यां रुचकं बीजपूरफलम् । रुचको मातुलिंगक इत्यमरः । नवम्यां अंबु जलम् दशम्यां धेनुमूत्रम् एकादश्यां यवान्नं यवविकारम् द्वादश्यां पायसम् त्रयोदश्यां गुडमिक्षुविकारम् चतुर्दश्यामसूक् रुधिरम् पंचदश्यामन्नमुद्गान् अन्नमिश्रितमुगान् । गुरुः । अर्कपत्रं भवेद्यातुः प्रथमायां तु भक्षणम् । द्वितीयायां भवेद्यातुर्भक्ष्यं सत्तंडुलोदकम् ॥ तृतीयायां तथा सर्पिर्यवागूः स्यात्ततः परम् । पंचम्यां तद्धविष्यं स्यात्षष्ठयां वा कांचनोदकम् ॥ अपूपभुक्तिः सप्तम्यामष्टम्यां बीजपूरकम् । नवम्यां तोयपानं स्याद्गोमूत्रं तु ततः परम् ॥ एकादश्यां यवानद्याहादश्यां पायसं भवेत् । त्रयोदश्यां गुडं लेह्यं रुधिरं स्याच्चतुर्दशे॥ मुद्गौदनं भवेद्भोज्यं पंचदश्यां यियासतः । पक्षयोरुभयोरेवं यात्रायोगे विधिः स्मृत इति । अत्र दुष्टभादिषु दोहदभक्षणेन दोषापाकरणं युक्तं विधिकरणं तु व्यर्थमिति चेन्न । आवश्यकगमने महादोषाणामपि पारिघदंडविरुद्धताराक्र्रसाहित्यादीनां दोषवारणाय दोहदोक्तेः सार्थक्यात् । एवं विहिततिथिदोहदाभिधानं योगिन्यादिदोषनाशार्थम् वारदोहदोक्तिरपि वक्रिग्रहवासरवारशूलादिदोषहान्या सार्थिका ॥ ८॥ अथ गमनसमये विधि प्रहर्षिण्याह
उद्धृत्य प्रथमत एव दक्षिणांप्रिं द्वात्रिंशत्पद्मभिगत्य दिश्ययानम् ॥ आरोहेत्तिलघृतहेमताम्रपात्रं
दत्त्वादौ गणकवराय च प्रगच्छेत् ॥ ८९ ॥ उद्धृत्येति ॥ राजा गमनसमय एव प्रथमतो दक्षिणांधिं दक्षिणचरणमुद्धृत्य पश्चाहात्रिंशत्पदपरिमितां भूमिं गत्वादिश्ययानं वक्ष्यमाणं हस्त्यादियानमारोहेत् । तिलेति । आरोहणसमये एव च तिलघृतहेमसहितं ताम्रपात्रमादौ गणकवराय ज्योतिर्विच्छ्रेष्ठाय च चकारादन्येभ्योऽपि ब्राह्मणेभ्यो यथाशक्ति दानं दत्त्वा प्रगच्छेत् ॥ ८९॥ अथ दिश्ययानमनुष्टुभाह
प्राच्यां गच्छेद्गजेनैव दक्षिणस्यां रथेन हि ॥ . दिशि प्रतीच्यामश्वेन तथोदीच्यां नरैर्नृपः ॥ ९० ॥ प्राच्यामिति ॥ नरैर्नरवाद्यैः सुखासनादिभिः अन्यत् स्पष्टार्थम् ॥ ९० ॥
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मुहूर्तचिंतामणौ अथ निर्गमस्थानानि पादाकुलकच्छंदसाह
देवगृहाद्वा गुरुसदनाद्वा स्वगृहान्मुख्यकलत्रगृहावा ॥ प्राश्य हविष्यं विप्रानुमतः पश्यन् शृण्वन्मंगलमेयात् ॥९१॥ देवगृहादिति ॥ देवगृहादेवपूजागृहात् गुरोरध्यापकस्य गृहात्कुलगुरोर्वा स्वगृहात् स्वशयनगृहात् बहुस्त्रीत्वसंभवे मुख्यकलत्रं पट्टराज्ञी तगृहाहा हविष्यं प्राश्य भक्षयित्वा विफ्राह्मणैरनुमतः मंगलद्रव्यं मनोभीष्टं पश्यन् शृण्वन् सन् एयात् गच्छेत् ॥ ९१ ॥
अथ प्रस्थानवस्तूनि वर्णक्रमात् प्रहर्षिण्याहकार्याचैरिह गमनस्य चेद्विलंबो भूदेवादिभिरुपवीतमायुधं च ॥ क्षौद्रं चामलफलमाशु चालनीयं सर्वेषां भवति यदेव हृत्प्रियं वा ९२
कार्याचैरिति ॥ किंचिदावश्यक कार्य माभूदिति चेद्गमनस्य विलंबः स्यात्तदा विधारितयात्रालग्ने ब्राह्मणादिभिरेतानि वस्तूनि आशु चालनीयानि । यथा ब्राह्मणेनोपवीतं क्षत्रियेणायुधं वैश्येन मधु शूद्रेणामलफलं नारिकेलादि । राजमार्तडः । प्रस्थाने ब्राह्मणादीनां यज्ञसूत्रमथायुधम् । मध्वामलफलं चैव प्रशस्तं वृद्धिकारणमिति । वाऽथवा सर्वेषां वर्णानां यदेव हृत्प्रियं मनोभीष्टं तदेव प्रस्थापनीयम् । वसिष्ठः । श्वेतातपत्रध्वजचामरांश्च विभूषणोष्णीषगजांबराणि । आंदोलिकारत्नरथाश्ववारान् शय्यासनाद्यं मनसस्त्वभीष्टमिति ॥ ९२ ॥ अथ प्राच्यमतेन प्रस्थानपरिमाणं मंदाक्रांतयाहगेहाद्नेहांतरमपि गमस्तहि यात्रेति गर्गः सीनः सीमांतरमपि भृगुर्वाणविक्षेपमात्रम् ॥ प्रस्थानं स्यादिति कथयतेऽथो भरद्वाज एवं यात्रा कार्या बहिरिह पुरात्स्यावसिष्ठो ब्रवीति ॥ ९३ ॥ गेहादिति ॥ स्वगृहात्परगृहमतिसमीपवर्त्यपि तत्रापि चेद्गमः स्यात्तर्हि यात्रा जातेति गर्गः कथयते । अथवा स्वसीमामुल्य सीमांतरं ग्रामांतरसीमां प्राप्य वसेदिति भृगुः कथयते । अथवा महता योद्धा स्वबलेन क्षिप्यमाणशरो यावद्दूरं गच्छति तावन्मात्रं प्रस्थान स्यादिति भरद्वाजः कथयते । अथवा पुरात् नगरात् बहिः यात्रा कार्यति वसिष्ठः कथयते ॥ ९३ ॥ अथ मुनिमतेन प्रस्थानपरिमाणं वसंततिलकयाह
प्रस्थानमत्र धनुषां हि शतानि पंच केचिच्छतव्यमुशंति दशैव चान्ये ॥
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यात्राप्रकरणम् ।
१९७ संप्रस्थितो य इह मंदिरतः प्रयातो
गंतव्यदिक्षु तदपि प्रयतेन कार्यम् ॥ ९४ ॥ प्रस्थानमत्रेति ॥ धनुःप्रमाणं चतुःकराः तादृशानां धनुषां पंचशतानि हस्तसहस्त्रद्वयमिति यावत् । स्वगृहात्तावतस्तेषु प्रस्थानं स्यादिति केचिदूचुः अन्ये तु तादृशानां धनुषां शतद्वयं अष्टौ शतानि हस्तास्तावत्प्रस्थानमित्याहुः । अपरे तु इह यात्राकाले मंदिरतः स्वगृहाद्दशैव धषि चत्वारिंशद्धस्तास्तावदूरपस्थितः प्रयातः एवं ज्ञेयमित्याहुः । प्रस्थानं धनुषां पंचशतान्युत शतद्वयम् । स्वदेवसदनाद्वापि दशभिः प्रस्थितो द्रुत इति वसिष्ठोक्तेः । गंतव्यदिक्ष्विति तदपि प्रस्थानं प्रयतेन सावधानेन राज्ञा गंतव्यदिक्षु यस्यां दिशि गमनं चिकीर्षितं तद्दिगभिमुखं कार्यम् । गंतव्यदेशाभिमुखे प्रदेशे प्रस्थानमाहुः शुभदं नराणामिति राजमार्तडोक्तेः ॥ ९४ ।। अथान्यदपि स्त्रग्धरयाहप्रस्थाने भूमिपालो दशदिवसमभिव्याप्य नैकत्र तिष्ठेत्सामंतः सप्तरात्रं तदितरमनुजः पंचरात्रं तथैव ॥ ऊर्ध्वं गच्छेच्छुभाहेऽप्यथ गमनदिनात्सप्तरात्राणि पूर्व
चाशक्तौ तद्दिनेऽसौ रिपुविजयमना मैथुनं नैव कुर्यात् ॥९॥ प्रस्थाने भूमिपाल इति ॥ भूमिपालो राजा प्रस्थाने दशदिवसमभिव्याप्य दशाहोरात्राणि न वसेत् । सामंतो मांडलिकश्चतुर्दारिकः एकत्र प्रस्थाने सप्तरात्रं न वसेत् । तदितरमनुजो ब्राह्मणादिस्तथैव एकत्र प्रस्थाने पंचरात्रं न वसेत् । यदि दैवाद्वसेत्तदा किं कुर्यादित्यत आह । उर्ध्वमिति अवधिदिवसातिक्रमानंतरं पुनर्गहमागत्य शुभाहे पूर्वोक्तप्रकारेण विचारिते शुभदिवसे गच्छेत् । क्वचिदिग्विशेषेण प्रस्थाने दिवसनियमोऽभिहितः । राजमार्तडः । प्राच्यामहानि मुनयः प्रवदंति सप्त याम्यामतीव शुभदानि दिनानि पंच । त्रीण्येव पश्चिमदिशि क्षितिनायकानां प्रस्थानकेषु दिवसद्वयमुत्तरस्यामिति । अथ प्रस्थानकर्तर्नियममाह । अथेति असौ राजादिः रिपुविजयमनाः शत्रुजयकृतांतःकरणो यात्रादिनात्पूर्व सप्तरात्राणि मैथुनं संभोगं नैव कुर्यात् । च्यवनः । त्रिरात्रं वर्जयेत्क्षीरं पंचाहं शुरकर्म च । तदहश्चावशेषाणि सप्ताहं मैथुनं त्यजेत् । वा अथवा अशक्ती सप्ताहमतिकामितया स्थातुमशक्तौ तदिने यात्रादिवसे मैथुनं नैव कुर्यात् । गर्गः । यात्राकाले तु संप्राप्ते मैथुन यो निषेवते । रोगातः क्षीणकोशश्च स निवर्तेत वा नवेति । यदा तु प्रयाणदिने स्त्री ऋतुस्नाता भवति गमने चावश्यकता तत्र निर्णयमाह । च्यवनः । आत्ययिककार्यपाते पुष्पस्नातासमागमं कृत्वा । मुदितो गच्छेल्लभते मनोरथानचिरकालेनेति । यदा पुनर्गमनार्थ कालांतरमस्ति तदा तद्दिने मैथुनं कृत्वा कालांतरे सुलग्ने यायादित्यर्थसिद्धम् ॥९५॥
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मुहूर्तचिंतामणौ अन्यदपि शालिन्याहदुग्धं त्याज्यं पूर्वमेव त्रिरात्रं क्षौरं त्याज्यं पंचरात्रं च पूर्वम् ॥ क्षौद्रं तैलं वासरेऽस्मिन्वमिश्च त्याज्यं यत्नामिपालेन नूनम् ॥१६॥
दुग्धमिति ॥ यात्रादिनात्पूर्वं भूमिपालेन राज्ञोपलक्षणत्वात् गमनका यत्नात् दुग्धं पेयत्वेन त्रिदिनं त्याज्यम् । न तु द्रव्यत्वेन तद्विकारः पायसं च निषिद्धम् । च पुनः पंचरात्रं पूर्व क्षौरं क्षुरसंबंधि कृत्यं मुंडनं श्मश्रुकर्म च त्याज्यम् । अस्मिन्वासरे यात्रादिने क्षौद्रं मधु भक्ष्यत्वेन तैलें तैललापनं त्याज्यम् । वमिश्चेदेवोद्भूता शरीरशोधनार्थ बलात्कारकृता वा यात्रादिने निषिद्धा ॥ ९६ ॥ अन्यदपि गीत्याह
भुक्त्वा गच्छति यदि चेत्तैलगुडक्षारपकमांसानि ॥ विनिवर्तते स रुग्णः स्त्रीद्विजमवमान्य गच्छतो मरणम् ॥९७॥ भुक्त्वोत ॥ यदि तैलपक्वानि वटकादीनि गुडमिक्षविकारम् क्षारं सलवणम् पक्वमांसानि यो भुक्का गच्छति स राजातिरुग्णो रोगसहितो विनिवर्तते । गर्गः । कटुतैलगुडक्षारं पक्वमांसाशनं तथा । भुक्त्वा यो यात्यसौ मोहाद्व्याधितः सन्निवर्तत इति । मांसदुग्धादिनिषेधो दोहदव्यतिरिक्तविषयः । स्त्रीद्विजमिति स्त्री च द्विजश्च तयोः समाहारः स्त्रीद्विजं अवमान्य धिक्शब्दताडनादिना मानभंगं कृत्वा गच्छतः पुंसो मरणं स्यात् । गर्गः । यस्तु संप्रस्थितो यात्रां भार्या नैवाभिनंदति । भार्या वा नाभिनंदेत न स प्रतिनिवर्तते ॥ परकीयां स्वकीयां वा स्त्रियं पुरुषमेव च । ताडयित्वा तु यो मोहात्तदंतं तस्य जीवितम् ॥ यात्रायां प्रस्थितो यस्तु ब्राह्मणानवमानयेत् । नासौ प्रतिनिवर्तत तदंतं तस्य जीवितम् ॥ केचिच्छुभाशुभशब्दान्यात्राकाले शुभाशुभसूचकानाहुः । लल्लः । प्रापय गच्छ विसर्जय निर्गच्छ व्रज सरेति सिद्धिकराः । खल्वेतेष्वप्यधिका प्रमोदजयजीवशब्दाश्च ॥ मागास्तिष्ठ निवर्तय क्क गम्यते मूढ दुर्मते मोहात् । यात्रां नेच्छंति बुधाः शुतकासितभीतशब्दैश्चेति । कासितं रोगातध्वनिर्हिक्कादिः ॥ ९७ ॥ ___ अथाकालदृष्टयाख्यदोषं वसंतमालिकयाहयदि माःसु चतुषु पौषमासादिषु वृष्टिहिं भवेदकालवृष्टिः॥ पशुमर्त्यपदांकिता न यावदसुधा स्यान्न हि तावदेव दोषः ॥९८॥ ___ यदीति ॥ पौषमाधफाल्गुनचैत्रेषु चतुर्पु मासेषु यदि दृष्टिर्भवेत्साऽकालवृष्टिः । पौपादिचतुरो मासान् प्राप्ता वृष्टिरकालजेति वचनात् । तत्राकालवृष्टयां जातायां यदि वसुधा पृथ्वी यावत् पशवो गवादयः मा मनुष्यास्तेषां पदैश्चरणैरङ्किता चिह्निता न भवति तावदकालवृष्टेर्दोषो नास्ति यदि पशुचरणांकिता स्यात्तदा दोषोऽस्त्येव । अत्र प्राच्या अल्पवृष्टौ
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यात्राप्रकरणम् ।
१९९ कर्दमादिबाहुल्यात् अत्यल्पावृष्टिर्दोषाय न महतीति वदंति तत्र बहुवृष्टया कर्दमापाकरणात् तन्न । सितादौ मार्गशीर्षस्य प्रतिपदिवसे तथा । पूर्वाषाढागते चंद्रे गर्भाणां धारणं भवेदिति कश्यपोक्तर्मार्गादिमासा गर्भग्रहणकालस्तत्र वृष्टिरावश्यकी । यदाह वराहः । पवनसलिलविद्युद्गर्जिताभ्रान्वितो यः स भवति बहुतोयः पंचरूपस्तु मेघ इति ॥ ततश्च गर्भग्रहणयोग्या अल्पा वृष्टिर्न दोषदा महती वृष्टिस्तु गर्भगलनम् । यतो वराहेणोक्तम् । गर्भसमयेऽतिवृष्टिर्गर्भाभावाय निमित्तकृतेति । निमित्तं शुक्रास्तादिकम् सा गर्भगलनरूपा विकृतिः विद्युतोपचीयमाना महांतं दोषमुपजनयति । एतावता महारष्टरेव दोषवत्त्वम् । अत एव । भृशं क्षरंतो जलदा न शस्ता इति बृहद्यात्रायामुक्तम् । तस्मादत्यल्पायामकालदृष्टौ दोषाभावः । अल्पायां त्वल्पदोषः महत्यां तु महादोष इति । स च सप्तरात्रिक इत्युक्तं प्राक् । एकेनैकमहः प्रोक्तं द्वितीयेन त्रिरात्रकम् । तृतीयेन तु पंचाहं दशरात्रमतः परम् ॥ पौषे तु त्रिदिनं वय माघमासे दिनद्वयम् । फाल्गुमे दिनमेकं तु चैत्रे तु घटिकाद्वयमिति तु आवश्यककार्यविषयम् ॥ ९८ ॥
पूर्वोक्तमेवार्थ स्पष्टीकुर्वन्नावश्यकयात्रायां तच्छांतिकं दुष्टशकुनशांतिकं चातिशकर्या गाथाछंदसाह
अल्पायां वृष्टौ दोषोऽल्पो भूयस्यां दोषो भूयान् जीमूतानां निर्घोषे वृष्टौ वा जातायां भूपः॥ सूर्यद्रोबिंबे सौवर्णे कृत्वा विप्रेभ्यो दयाहुःशाकुन्ये साज्यं स्वर्ण दत्वा गच्छेत्स्वेच्छाभिः॥९९॥ अल्पायामिति ॥ स्पष्टार्थ प्रथममर्धम् । अतो यत्प्राच्याः पठति । तावत्प्रयाणादिषु भूपतीनामकालवृष्टिः प्रकरोति दोषम् । यावद्भवेत्संचरतां जनानां तथा पशूनां चरणांकिता भूरिति तन्निमूलत्वादुपेक्ष्यम् । स्वयं प्रस्थाने सति मागेमध्ये नास्त्ययं दोषः । आवश्यकयात्रायां दानमाह जीमूतानामिति । जीमूतानां मेघानां निर्घोष शब्दे अकालवृष्टौ वा जातायां सूर्येद्वोर्यथाशक्त्या सौवणे सुवर्णनिर्मिते बिंबे कृत्वा भूपो राजा ब्राह्मणेभ्यो दद्यातत्तः खेच्छया गच्छेत् । प्रसंगाढुष्टशकुनानां दानमाह । दुःशाकुन्य इति ॥ शकुनस्य भावः शाकुन्यं दुष्टं च तच्छाकुन्यं च दुःशाकुन्यं तस्मिन्दुष्टे शकुने प्रस्थानकाले संभूते सति साज्यं सघृतं स्वर्ण विप्रेभ्यो दत्वा खेच्छाभिर्गच्छेत् ।। ९९ ॥ अथ शुभसूचकान् शकुनाच शार्दूलविक्रीडितेनाहविप्राश्वेभफलान्नदुग्धदधिगोसिद्धार्थपद्मांबरं वेश्यावाद्यमयूरचाषनकुला बढेकपश्वामिषम् ॥
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मुहूर्तचिंतामणौ सद्वाक्यं कुसुमेापूर्णकलशच्छत्राणि मृत्कन्यका
रत्नोष्णीषसितोक्षमद्यससुतस्त्रीदीप्तवैश्वानराः ॥१०॥ विप्राश्वेति ॥ विप्रा बहवो द्वौ वा न त्वेकः अश्वः प्रसिद्धः इभो हस्ती अनुन्मत्तः फलान्नदुग्धदधीनि प्रसिद्धानि गौः धेनुः सिद्धार्थः सर्षपः पद्मं कमलं अंबरं वस्त्रं स्वच्छं वेश्या गणिका वाद्यं मर्दलादि मयूरचाषौ पक्षिणौ नकुलः प्रसिद्धः बढेकपशुः रज्ज्वादिबद्धो वृषादिः आमिषं मांसम् सहाक्यं कार्यसिद्धिरस्त्वित्याकिदं कुसुमानि चंपकादीनि इक्षुः प्रसिद्धः सकलः न तु खंडितः जलपूर्णकलशः संमुखः छत्रं प्रसिद्धम् मृत्तिका कन्या कुमारी रत्नं माणिक्यादि उष्णीषं शिरोवेष्टनम् सितोऽक्षः श्वेतवृषः अयमबद्धोऽपि मद्यं प्रसिद्धम् ससुतस्त्री सपुत्रा स्त्री दीप्तो जाज्वल्यमानोऽनिरिति ॥ १० ॥ अन्यच्छार्दूलविक्रीडितेनाह
आदीजनधौतवस्त्ररजका मीनाज्यसिंहासनं शावं रोदनवर्जितं ध्वजमधुच्छागास्त्रगोरोचनम् ॥ भारद्वाजनृयानवेनिनदा मांगल्यगीतांकुशा दृष्टाः सत्फलदाः प्रयाणसमये रिक्तो घटः स्वानुगः॥१०१॥ आदीजनेति ॥ आदशों दर्पणं अंजनं कज्जलम् धौतवस्त्र उज्ज्वलीकृतवस्त्रो रजकः वस्त्रनिऎक्ता मीनो मत्स्यः आज्यं घृतं सिंहासनं देवादेः शवमेव शावं मृतकं पृष्ठगामिलोकरोदनरहितम् ध्वजः पताका मधु क्षौद्रम् छागो मेषः अस्त्रं धनुरादि गोरोचनं प्रसिद्धम् भारद्वाजः पक्षी नृयानं सुखासनादि वेदनिनादो वेदध्वनिः मांगल्यं प्रसिद्ध गीतं गानम् अंकुशो हस्तिनिवारणार्थमस्त्रम् एते पदार्थाः गंतुर्भूपतेः प्रयाणसमये संमुखं दृश्यमानाः सत्फलदाः शुभफलदाः। तथा रिक्तो जलरहितो घटः कुंभः स्वानुगः स्वस्य पश्चाद्भागगामी सोऽपि शुभफलदः । कश्यपः । कार्यसिद्धिर्भवेदृष्टे शवे रोदनवर्जिते । प्रवेशे रोदनयुतः शवः स्यादशिवप्रदः ॥ वसंतराजः । आदाय रिक्तं कलशं जलार्थी यदि व्रजेकोऽपि सहाध्वगेन । पूर्ण समादाय निवर्ततेऽसौ यथा कृतार्थः पथिकस्तथैवेति । अथ कैश्चिल्लग्नवशेन शकुना उक्ताः । लग्ने वाक्पतिशुक्राणां ब्राह्मणाः संमुखाः स्त्रियः । बुधशुक्रौ च केंद्रस्थौ सवत्सा गौः प्रदृश्यते ॥ चंद्रः सूर्यश्च भवति दशमस्थो यदाथवा। दीपादर्शी सुमनसौ रजका धौतवाससः ॥ सुतस्थाने यदा सौम्यो वृषो बद्धस्तु संमुखः । चंद्रो गुरुश्च सहजे श्वानो वामांगभागतः ॥ सर्वे कर्मायनवमे भारद्वाजोऽथ नाकुलः । चाषस्य दर्शनं वा स्याद्वामांगेऽत्यंतदुर्लभम् ॥ आदित्यो राहुसौरी च सहजस्थौ कुमारिका । प्रौढानां सुभगानां वा दर्शनं सर्वकामदम् ॥ षष्ठे तृतीये कर्माये भौमश्चेत्तत्फलं भवेत् । दास्यो वेश्याः सुरा मांसं लाभश्चैव सुनिश्चितः ॥ सप्ताष्टपंचमे यस्य जीवो ज्ञो वा प्रवर्तते । आ
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यात्राप्रकरणम् ।
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दर्शषुष्पमांसानि सुरादर्शश्च लाभदः ॥ राहुभॊमश्च मंदश्च लग्नाद्यदि तृतीयगाः। उद्धृतं गोमयं पश्येच्छीघ्रं लाभधनं दिशेत् ॥ इत्यादयः शकुनाः शकुनग्रंथेभ्यो ज्ञेया विस्तरभयादिह नोक्ताः ॥ १०१ ॥ अथापशकुनान् शार्दूलविक्रीडितेनाहवंध्या चर्म तुषास्थि सर्पलवणांगारेंधनक्लीबविट्तैलोन्मत्तवसौषधारिजटिलप्रव्रातृणव्याधिताः॥ नग्नाभ्यक्तविमुक्तकेशपतिता व्यंगक्षुधार्ता असृक् स्त्रीपुष्पं सरठः स्वगेहदहनं मार्जारयुद्धं क्षुतम् ॥ १०२॥ वंध्येति ॥ वंध्या प्रसिद्धा चर्म प्रसिद्धम् तुषं धान्यादितुषम् अस्थि सर्पलवणानि प्रसिद्धानि अंगारो निधूमोऽग्निपिंडः इंधनं पाकयोग्यम् कीबः पंढः विट् उद्धृता विष्ठा । अस्त्री विष्ठाविशौ स्त्रियावित्यमरः । तैलं प्रसिद्धम् उन्मत्तो मद्यभूताद्यावेशवान् वसा शरीरांतर्धातुविशेषः औषधं प्रसिद्धम् अरिः शत्रुः जटिलो जटावान् प्रव्राट् संन्यासी तृणं प्रसिद्धम् व्याधितोऽचिकित्स्यव्याधिमान् नग्नः अपरिहितवस्त्रः कुमारव्यतिरिक्तः अभ्यक्तः कृततैलाभ्यंगोऽस्नातः विमुक्तकेशः असंयतकेशः पतितो मद्यपानाद्यभिशापवान् द्विजः व्यंगश्छिन्ननासिकादिः क्षुधातः क्षुत्पीडितः असूक् रुधिरम् स्त्रीणामृतुः सरठः ककलासः स्वगेहदहनं स्वगेहदाहः मार्जारयुद्धं प्रसिद्धम् शुतं छिक्का ॥ १०२ ॥ अन्यदपि शार्दूलविक्रीडितेनाह
काषायी गुडतक्रपंकविधवाकुब्जाः कुटुंबे कलिर्वस्त्रादेः स्खलनं लुलायसमरं कृष्णानि धान्यानि च ॥ कार्पासं वमनं च गर्दभरवो दक्षेऽतिरुट् गर्भिणी
मुंडाबरदुर्वचोंऽधबधिरोदक्या न दृष्टाः शुभाः॥१०३ ॥ काषायीति ॥ काषायो रागविशेषः तेन रक्तं वस्त्रं काषायं तद्वान् गुडतके प्रसिद्ध पंकः कर्दमः विधवाकुब्जौ प्रसिद्धौ कुटुंबे कलिः पुत्रादिभिः कलहः वस्त्रादेः स्खलनं आदिशब्देन कमंडलुछत्रादेः स्खलनं मिनिमित्तं स्वहस्तात्पतनम् लुलाया महिषास्तेषां समरं युद्धम् कृष्णवर्णानि धान्यानि माषादीनि कार्पासं तूलम् वमनं वांतम् दक्षे दक्षिणभागे गर्दभशब्दः अतिरुट क्रोधाधिक्यम् गर्भिणी गर्भवती मुंडो मुंडितशिरस्कः आर्द्राबरः आईवस्त्रः दुर्वचः स्वमुखोत्थं परमुखोत्थं वा दुष्टवाक्यम् अंधबधिरौ प्रसिद्धौ उदक्या रजस्वला स्त्री एते पदार्थाः गंतुः पुंसः यानसमये दृष्टाः संतो न शुभाः किंतु अशुभफलदाः । नारदः। सर्वदिक्षु क्षुतं नेष्टं गोक्षुतं मरणप्रदम् । अफलं तच्छ्रुतं वाक्यं वृद्धपीनसकैतवैरिति । औषधे वाहनारोहे विवादे शयनेऽशने । विद्यारंभे बीजवापे क्षुतं सप्तसु शोभनमिति ॥१०३॥
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मुहूर्तचिंतामणौ अन्याञ्छकुनान् शार्दूलविक्रीडितेनाह
गोधाजाहकसूकराहिशशकानां कीर्तनं शोभनं नो शब्दो न विलोकनं च कपिऋक्षाणामतो व्यत्ययः॥ नद्युत्तारभयप्रवेशसमरे नष्टार्थसंवीक्षणे व्यत्यस्ताः
शकुना नृपेक्षणविधौ यात्रोदिताः शोभनाः ॥ १०४॥ गोधाजाहकेति ॥ गोधा प्राणिविशेषः गोह इति भाषया । जाहको गात्रसंकोची प्राणिविशेषः सकरः प्रसिद्धः अहिः सर्पः शशकः प्रसिद्धः यानसमये एषां गोधादीनां कीर्तनं स्वमुखेनान्यमुखेन वोच्चारणं शुभम् । न पुनरेतेषां गोधादीनां शब्दो रुतं अथवा विलोकनं दर्शनं शुभं निषिद्धमित्यर्थः । कपिऋक्षाणां कपीनां वानरादीनां ऋक्षाणां भल्लुकादीनां अतो गोधादिभ्यो व्यत्ययो ज्ञेयः । यथा वानराणां भल्लुकानां कीर्तनं निषिद्धम् तेषामेव द. र्शनं शब्दितं वा न निषिद्धम् शुभमित्यर्थः । नात्तार इति । नद्या गंगादेरुत्तारणे भये भयसंबंधिनि कार्ये पलायनादिके प्रवेशे गृहप्रवेशे समरे संग्रामे नष्टार्थस्य नष्टद्रव्यस्य संवीक्षणे गवेषणे प्रागुक्ताः शकुनाः व्यत्यस्ता विपरीता ज्ञेयाः । शुभशकुना विप्राश्वेत्यादयोऽशुभा ज्ञेयाः । वंध्याचर्मेत्याद्यशुभशकुनाः शुभफलदा ज्ञेयाः । नृपेति । नृपदर्शनार्थ गमने यात्रायामुदिता विप्राश्वेत्यादयः शकुनाः शुभा ज्ञेयाः । नृपावलोके शकुनः प्रयाणवदित्युके राजदर्शनस्य भयस्थानत्वाद्विप्राश्वेत्यादीनामपशकुनत्वप्राप्तौ तदपवादोऽयम् ॥ १०४ ॥ अथान्यदप्यनुष्टुभाह
वामांगे कोकिला पल्ली पोतकी सूकरी रला ॥
पिंगला छुछुका श्रेष्ठा शिवा पुरुषसंज्ञिताः॥ १०५ ॥ वामांगे इति ॥ कोकिलापल्लयौ प्रसिद्ध पोतकी दुर्गा सूकरी जात्यचटका रला पक्षिविशेषः । पिंगला भैरवी छुछका छछंदरी शिवा सुगाली पुरुषसंज्ञिताः पुनामानः कपोतखंजनतित्तिरिहंसादयः एते गच्छतां राजादीनां वामांगे शरीरवामभागे शस्ताः स्युः॥१०५॥ अन्यदप्यनुष्टुभाह
छिक्करः पिक्कको भासः श्रीकंठो वानरो रुरुः॥
स्त्रीसंज्ञकाः काकऋक्षश्वानः स्युर्दक्षिणाः शुभाः॥ १०६ ॥ _ छिक्कर इति ॥ छिक्करो मृगजातिः पिक्ककः पक्षिविशेषः भासः श्रीकंठः वानरः एते प्रसिद्धाः रुरुर्मुगविशेषः स्त्रीसंज्ञकाः स्त्रीनामानो मृगपक्षिणः दक्षिणभागगाः शुभाः शेषाः प्रसिद्धाः ॥ १०६ ॥
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यात्राप्रकरणम् ।
अथोक्तव्यतिरिक्तानां मृगपक्षिणां सामान्यतः प्रादक्षिण्येन शकुनमनुष्टुभाहप्रदक्षिणगताः श्रेष्ठा यात्रायां मृगपक्षिणः ॥
ओजा मृगा व्रजंतोऽतिधन्या वामे खरस्वनः ।। १०७ ।। प्रदक्षिणगता इति ॥ रुरुव्यतिरिक्तमृगाः पक्षिणच यात्रायां प्रादक्षिण्येन गताश्चलिताः श्रेष्ठाः शुभफलदाः स्युः परंतु ओजा मृगा विषमसंख्यास्त्रिपंचसप्तादयश्चेद्रजंतो दृष्टास्तदाऽतिधन्याः स्युः । वामे इति स्ववामभागे खरस्वनो गर्दभशब्दोऽतिधन्यः । अथ शकुनानां कियतां कालविशेषैनैर्बल्यमाह । वराहः । न ग्रामेऽरण्यगो ग्राह्यो नारण्यो ग्रामसंस्थितः । दिवाचरो न शर्वर्या न च नक्तंचरो दिवा ॥ द्वंद्वरोगार्दितस्तत्र कलहामिषकांक्षिणः । आपगांतरिता मत्ता न ग्राह्याः शकुनाः क्वचित् || रोहिताश्वाजवालेय कुरंगोष्ट्रमृगाः शशाः । निष्फलाः शिशिरे ज्ञेया वसंते काककोकिलौ ॥ न तु भाद्रपदे ग्राह्याः सूकराश्च वृकादयः । शरघृक्षादयः क्रौंचाः श्रावणे हस्तिचातकौ ॥ व्याघ्रक्षवानरद्वीपिमहिषाः सबिलेशयाः । हेमंते निष्फला ज्ञेया बालाः सर्वे विमानुषा इति । प्रभग्नशुष्कद्रुमकंटकीषु श्मशानभस्मास्थितुषाकुलेषु । प्राकारशून्यालयजर्जरीषु सौम्योऽपि पापः शकुनः प्रकल्प्यः ॥ दैवज्ञमनोहरे । वरं श्रयेद्दुर्जनकालसर्पो वरं क्षिपेद्व्याघ्रमुखे स्वमंगम् । वरं तरेद्वारिनिधिं भुजाभ्यां नोल्लंघयेद्दुः शकुनं कदापि ॥ १०७ ॥
अथावश्यक कार्ये विरुद्धशकुने जातेऽपि परिहारमनुष्टुभाह
आद्येऽपशकुने स्थित्वा प्राणानेकादश व्रजेत् ॥
द्वितीये षोडश प्रणांस्तृतीये न कचिद्रजेत् ॥ १०८ ॥
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आद्य इति ॥ आवश्यककार्ये विरुद्धशकुने जाते एकादश प्राणान् स्थित्वा एकादशप्राणपरिच्छेद्यं कालं स्थित्वेत्यर्थः । ततः समीचीने शकुने व्रजेत् । तत्रापि द्वितीये विरुद्धे शकुने संवृत्ते षोडशसंख्याकान् प्राणान् स्थित्वा शुभशकुने व्रजेत् । तत्रापि पुनस्तृतीये विरुद्धे शकुने संवृत्ते क्वचिदपि न व्रजेत् । किंतु परावृत्त्य गृहमागच्छेत् । दश गुर्वक्षरैः प्राण इति। कश्यपेन तु प्राणायामत्रयमेव प्रतीक्ष्यमित्युक्तम् । यायी विरुद्धं शकुनमादौ दृष्ट्रा प्रयत्नतः । प्राणायामत्रयं कुर्याद्वितीये द्विगुणं चरेत् ॥ तृतीये पुनरावृत्य शांत्या यायादिनां - तरे इति ॥ १०८ ॥
अथ यात्रानिवृत्तौ गृहप्रवेशमुपजात्याह
यात्रानिवृत्तौ शुभदं प्रवेशनं मृदुधुवैः क्षिप्रचरैः पुनर्गमः ॥ द्वीशेऽनले दारुणभे तथोग्रभे स्त्रीगेहपुत्रात्मविनाशनं क्रमात् ॥ १०९ ॥ यात्रानिवृत्ताविति ॥ मृदूनि चित्रानुराधामृगरेवत्यः ध्रुवाणि रोहिण्युत्तराश्च एभिर्नक्षत्रैः राज्ञो यात्रानिवृत्तौ प्रवेशनं शुभदम् । क्षिप्रचरैर्नक्षत्रैः अश्विनीपुष्यहस्ताभि
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मुहूर्तचिंतामणी
जिद्भिः श्रवणधनिष्ठाशततारापुनर्वसुस्वातीभि प्रवेशने पुनरपि गमो यात्रा स्यात् । तस्मादेतानि मध्यमानि । द्वीशादिनक्षत्रेषु प्रवेशे क्रमात् ख्यादीनां नाशः यथा विशाखायां प्रवेशे स्त्रिया राज्ञ्या नाशः । कृत्तिकायां प्रवेशे गृहं दग्धं स्यात् । दारुणभे मूलज्येष्ठार्द्राश्लेषासु प्रवेशे पुत्रस्य नाशः उग्रभे पूर्वात्रय भरणीमघासु प्रवेशे आत्मनः स्वस्यैव राज्ञो नाशः स्यादित्यर्थः । लग्नादिविचारो गृहप्रवेशप्रकरणाज्ज्ञेयः । अत्रेदं विचार्यम् । यत्र मासे यात्रा कृता तन्मासान्नवमे मासि यात्रादिनान्नवमदिने च प्रवेशो न विधेयः । गुरुः । निर्गमान्नवमे मासि प्रवेशो नैव शोभनः । नवमे दिवसे चैव प्रवेशं नैव कारयेदिति ॥ १०९ ॥ अथ विवाहप्रकरणोक्तदोषातिदेशं प्रागुक्तदोषांश्च शिष्याणामविस्मरणार्थं मंजु - भाषिण्याह
अयनर्क्षमासतिथिकालवासरोद्भवशूलसंमुखसितज्ञदिक्कपाः ॥
भृगुवक्रतादिपरिघाख्यदंडकरूमृतु
जाद्यशौचमपि चोत्सवादिकम् ॥ ११० ॥
अक्षैति ॥ एते अयनशूलादयो दोषा विवाह प्रकरणोक्तदोषाश्व यात्रायां नेष्टाः तत्रायनशूलः सौम्यायने सूर्यविधू तदोत्तरामिति मासोद्भवः शूलो द्विविधः ग्रंथांतरोक्तः वृषादित्रित्रिराशिष्वर्के प्राच्यादिदिक्षु न गंतव्यमित्येकः । कपाटकंटकादिश्व द्वितीयस्तु स्वरोदये । त्रयस्त्रयो वृषाद्याश्च पूर्वाशादि बुधैः क्रमात् ॥ राशयो द्वादशैवं तु मेषांताः सृष्टिमार्गगाः । यत्र पूर्वादिकाष्ठायां वृषराश्यादिगो रविः । सा दिशास्तमिता ज्ञेया तिस्रः शेषाः सदोदिता इति । कपाटकंटकादिर्यथा । कपाटं पूवतो ज्ञेयं कार्तिकादित्रिकं तथा । नभस्यतो वास्तुमध्ये मधोरेकेन कंटक इति ज्योतिषार्कवचनात् । नक्षत्रशूलः । न पूर्वदिशि शक्रभे न विधुसौरिवारे तथेति । तिथिशूलः योगिनीनवभूम्य इति संमुखसितज्ञ दिक्कपाः संमुखः शुक्रः संमुखो बुधः संमुखो दिक्स्वामी ललाटी भृगुवक्रतादि आदिशब्दात् क्षीणत्वास्तमितत्वपराजितत्वबाल्यादिकम् वक्रास्तनीचेत्युक्तम् परिधाख्यदंडः पूर्वादिषु चतुर्दिश्वित्युक्तः ख्यूतुजाद्यशौचम् स्वस्त्रीऋतुजं आर्तवं स्नानकालपर्यंतम् अशौचं जननाशौचं मरणाशौचं च उत्सवो दीपोत्सवः आदिशब्देन विवाहव्रतबंधनादिरिति ॥ ११० ॥
अन्यदपि मंजुभाषिणीछंदसाह
मृतपक्षरिक्तरवितर्कसंख्यकास्तिथयश्च सौरिरविभौमवासराः ॥ अपि वामपृष्ठगविधुस्तथाडलो वसुपंचकाभिजिद्यापि दक्षिणे ॥ १११ ॥
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वास्तुप्रकरणम् ।
२०५ मृतपक्षेति ॥ मृतपक्षः तमोभुक्तताराः स्मृता विश्वसंख्या इत्याद्युक्तः रिक्तरवितर्कसंख्यकाः चतुर्थीनवमीचतुर्दशीद्वादशीषष्ठयस्तिथयः उपलक्षणत्वादष्टमीपूर्णिमामावास्याशुक्लपक्षप्रतिपदः सौरिभौमरविवाराः वामष्टष्ठगविधुः अजवृषभमिथुनकुलीरा इत्यादि जातकोक्त्या वामप्टष्ठराशिगतः आडलो रवे तोऽब्जभोन्मितिरिति भ्रमणमपि ज्ञेयम् । वसुपंचकं धनिष्ठोत्तरार्धात्पंच नक्षत्राणि अभिजिन्मुहूर्तश्च दक्षिणे वय॑ः एते पंचांगदोषाः ॥ १११ ॥ अथ लग्नदोषान् स्रग्धरयाह
लग्ने जन्मर्मतन्वोर्मृतिगृहमहिताच षष्ठं तदीशा वा लग्ने कुंभमीनःनवलवतनूचापि पृष्ठोदयं च ॥ पृष्ठाशामृक्षसंस्थं दशमशनिरथो सप्तमे चापि काव्यः केंद्रे वक्राश्च वक्रीग्रहदिवसविवाहोक्तदोषाश्च नेष्टाः॥ ११२॥ इति मुहूर्तचिंतामणौ यात्राप्रकरणं समाप्तम् ॥ लग्ने इति ॥ जन्मराशेर्जन्मलग्नाद्वाऽष्टमगृहं अहितच्छित्रुजन्मराशेर्जन्मलग्नाद्वा षष्ठम् लग्ने यात्रालग्ने तदीशाः तेषां जन्मराशिजन्मलग्नाभ्यामष्टमभवनयोः स्वामिनः रिपुजन्मराशिजन्मलग्नाभ्यां षष्ठभवनयोः खामिनो वा कुंभमीनयोर्नवलवो नवांशी लग्नं च । पृष्ठोदया गोजाश्विकर्किमिथुनाः समृगा निशाख्याः पृष्ठोदया विमिथुना इत्युक्ताः पृष्ठाशासंस्थमृक्षं गंतव्यदिग्विलोमलग्नम् दशमे शनिः सप्तम काव्यः शुक्रः केंद्रे वक्राः वक्रिणो ग्रहाः वक्रिग्रहवाराश्च एते दोषा विवाहोक्तदोषा उत्पातान् सहपातदग्धतिथिभिरित्याधुक्तास्ते सर्वे यात्रायां वाः । तत्र सप्तमशुक्रव्यतिरिक्तो जामित्रदोषो नास्तीति ज्ञेयम् ॥ ११२ ॥
इति प्रमिताक्षरायां यात्राप्रकरणं समाप्तम् ॥
॥ अथ वास्तुपकरणमारंभः॥ अथ वास्तुप्रकरणं व्याख्यायते । गृहनिर्माणप्रयोजनं भविष्यपुराणे । गृहस्थस्य क्रियाः सर्वा न सिद्ध्यंति गृहं विना । यतस्तस्मागृहारंभप्रवेशसमयौ ब्रुवे ॥ गृहं स्वसत्ताकम् । न सिद्ध्यंति निष्फला भवंतीत्यर्थः । इत्येतन्मनस्यालोच्य ग्रामादिषु स्वस्य शुभाशुभं लाभालाभादिविचारं शार्दूलविक्रीडितेनाह
यझं वयंकसुतेशदिमितमसौ ग्रामः शुभो नामभास्वं वर्ग द्विगुणं विधाय परवर्गाढ्यं गजैः शेषितम् ।। काकिण्यस्त्वनयोश्च तद्विवरतो यस्याधिकाः सोऽर्थ
दोऽथद्वारं द्विजवैश्यशूद्रनृपराशीनां हितं पूर्वतः ॥ १॥ यद्भमिति ॥ नामभात् व्यावहारिकनाममात् व्यावहारिकनामराशेः यस्य ग्रामादेर्भ
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मुहूर्तचिंतामणौ राशिः स चेहितीयो नवमः पंचमः एकादशसंख्यो दशमश्च स्यात्तदासौ ग्रामः स्वस्य शुभः स्यात् । अन्यथा न शुभ इत्यर्थः । यथा नीलकंठराशेश्चिकाख्यात्पंचमो मीनराशिश्चरणाद्रेरतश्चरणाद्रिनीलकंठस्य वासयोग्यः । अत्र नामराशिरेव ग्राह्यः । काकिण्यां वर्गशद्धौ च वादे यते स्वरोदये । मंत्रे पुनर्भवरणे नामराशेः प्रधानतेति । अथ ग्रामात्मनोरुत्तमर्णत्वमधमर्णत्वं चाह । स्वंवर्गमिति वर्गास्तु । अकचटतपयशवर्गाः खगेशमार्जरसिंहशुनाम् । सर्पाखुमृगावीनां निजपंचमवैरिणामष्टौ इत्युक्ताः। तत्र यस्य पुंसो यत्संख्याको वर्गो गरुडादिस्तद्वर्गसंख्यां द्विगुणां विधाय परस्य ग्रामादेर्वर्गसंख्ययान्यां च कृत्वा गजैरष्टभिः शेषितमवशिष्टं ताः पुंसः काकिण्यो ज्ञेयाः एवंग्रामादेरपि वर्गसंख्यां द्विगुणां कृत्वा परस्य पुंसो वर्गसंख्ययान्यां कृत्वा गर्भजेदवशिष्टाः ग्रामस्य काकिण्यो भवंति। एवमनयोः पुरुषग्रामयोः काकिणीनां विवराद्यस्याधिका अवशिष्यते सोऽर्थदः परस्य लाभदः । यथा नीलकंठस्य वर्गः सर्पः तत्संख्या ५ द्विगुणा १० चरणाद्रिवर्गः सिंहः ३ तत्संख्यया युक्ता १३ गजभक्तावशेषं ५ नीलकंठस्य काकिण्यः एवं ग्रामवर्गसंख्या ३ द्विगुणा ६ नीलकंठवर्ग ५ संख्यया युक्ताः ११ अष्टभक्ता शेषं ३ ग्रामस्य काकिण्यः द्वयोरंतरशेषं २ नीलकंठस्याधिकत्वेन दातृत्वाद्रव्यहानिरित्यर्थः । उक्तं च । वं वर्ग द्विगुणीकृत्य परवगैण योजयेत् । अष्टभिस्तु हरेद्भागं योऽधिकः स ऋणी भवेदिति । अथ द्वारवेशनमाह अथेति द्विजादिराशीनां पुंसां क्रमेण पूर्वतः प्राच्यादिदिक्चतुष्टये द्वारं हितम् । यथा । द्विजराशीनां कर्कवृश्चिकमीनानां पूर्वदिशि वैश्यराशीनां दृषकन्यामकराणां दक्षिणदिशि शूद्रराशीनां मिथुनतुलाकुंभानां पश्चिमदिशि नृपराशीनां मेषसिंहधनुषां उत्तरदिशि द्वारं हितम् ॥ १ ॥ अथ राशिपरत्वेन ग्रामविवासे निषिद्धस्थानानि वसंततिलकयाह
गोसिंहनक्रमिथुनं निवसेन्न मध्ये ग्रामस्य पूर्वककुभोऽलिझषांगनाश्च ॥ कर्को धनुस्तुलभमेषघटाश्च तद्वद्वर्गाः
स्वपंचमपरा बलिनः स्युरेंद्रयाः॥२॥ गोसिंहेति ॥ वस्तुमिष्टस्य ग्रामस्य वस्त्रविभागवन्नवधा विभागं कृत्वा मध्ये विभागे गोसिंहनक्रमिथुनं न निवसेत् षसिंहमकरमिथुनराशिमंतः पुरुषा न वसेयुः। अथ पूर्वककुभः पूर्वदिशातोऽष्टदिक्षु अलिदृश्चिकः तदादिराशिमंतः पुरुषा न वसेयुः । यथा । पूर्वस्यां वृश्चिकः आग्नेय्यां झषो मीनः दक्षिणस्यां कन्या नैर्ऋत्यां कर्कः पश्चिमायां धनुः वायव्यां तुला उत्तरस्यां मेषः ईशान्यां कुंभः न वसेदित्यर्थः । यथा । अवर्गः पूर्वस्याम् कवर्ग आनेय्याम् चवर्गों दक्षिणस्याम् टवर्गों नैर्ऋत्यात् तवर्गः पश्चिमायाम् पवर्गों वायव्याम् यवर्ग उत्तरस्याम् शवर्ग ईशान्याम् बली इत्यर्थः । कीदृशा वर्गाः स्वपंचमपराः स्वस्मात्पंचमः
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वास्तुप्रकरणम् ।
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परः शत्रुर्येषां ते । यस्य वर्गः पूर्वस्यां बली तेन पश्चिमायां द्वारं निवासो व विधेयः । एवं कवर्गादिमद्भिरपि वायव्यादौ द्वारं निवासो वा न विधेयः ॥ २ ॥
अथेष्टनक्षत्रायाभ्यां इष्टभूम्या विस्तारायामाविंद्रवजेंद्रवंशा पूर्वार्धेनाहएकोनिष्टक्षहता द्वितिथ्यो रूपोनितेष्टायतें नागैः ॥ युक्ता 'घनैश्चापि युता विभक्ता भूपाश्विभिः शेषमितो हि पिंडः ॥ २ ॥
एकोनितेति । स्वेष्टायेति च ॥ तत्र राशिकूटादिकं सर्वे दंपत्योरिव चिंतयेदिति वसिष्ठोत्तेर्यदेव नक्षत्रं व्यवहारनाम्ना विवाहोक्तमेलापकविधिना शुभदं स्यात्तदेव स्वेष्टभं कल्प्यम् । यश्च ध्वजाद्यष्टायेषु विषम आय ईप्सितः स्यात्स एवेष्टायः कल्प्यः ताभ्यां विस्तारायामज्ञानम् । यथा नीलकंठस्यानुराधानक्षत्रं तस्य रोहिण्या सह मेलापकः संभवतीतीष्टभं रोहिणी कल्पितम् तत्संख्या ४ एकोनितेष्टर्क्ष ३ अनेन द्वितिथ्यो १५२ हताः ४९६ इष्टायः सिंहः कल्पितः तृतीयः रूपोनित इष्टायः २ अनेनेंदुनागाः ८१ गुणिताः १६२ तैर्युताः ६१८ घनैश्च १७ युताः ६३९ भूपाश्विभि २१६ विभक्तः २०३ इदमेव क्षेत्रफलं गृहस्य इष्टायनक्षत्रभवम् । अथ कल्पितदैर्ध्य २९ अनेन भक्तो लब्धो विस्तारः ७ अथ कल्पितविस्तृतिः ७ भक्तो लब्धदैर्ध्य २९ अत्र गोपिराजाचार्यकृतं सूत्रम् । विष्णुं व्येकायगोभू १९ हतिभयुजि फलं गोपिराजो भशेषात्सायं वाहाष्टिदृग्नेष्ट २१६ युतमहि८ हता दृक् २ प्रकृत्या २९ ख्यविश्वे १३ ॥ बाणाः ५ सिद्धा २४ टि १६ नागो< ड्ड २७ तिधृति १९ गिरिश ११ त्र्या ३ कृतीं २२ द्र १४ र्तु ६ तच्चा २५ त्यष्ट्यं १७ क ९ क्ष्मा १ नखे २० ना १२ र्णव ४ विकृति २३ दिना १५ द्या ७ कृती २२ भेंदु १८ काष्ठाः २० ॥ गोपिराजः । विष्णुम् व्येकायगो भूहतियुजिसति भशेषात् अहिहता दृक्प्रकृत्याख्यविश्वादयः सायं फलमाहेत्यन्वयः । विगतः एको यस्मात्स व्येकः स चासौ आयश्च व्येकायः ध्वजादिरिष्टायः स च गोभुवश्च एषां हतिः परस्परगुणनं व्येकायगोमूहतिश्च मं च व्येकायगोमूहति तयोर्युक् व्येकायगोभूहतिभयक् तस्मिन् सति भशेषात् भै २७ भक्ते सति यच्छेषं तस्माद्विष्णुनामानं शिष्यं अहिहता अष्टगुणिता दृक् द्वौ प्रकृत्याख्या एकविंशतिः विश्वे त्रयोदशेत्यादयो गृहक्षेत्रफलम् सायं इष्टायसहितम् आह वदति । अत्रोदाहरणम् इष्टायः ३ व्येकः २ गोभू १९ हतिः ३८ इष्टर्क्ष रोहिणी तत्संख्यया ४ युतम् ४२ अस्माद्वैः २७ शेषं १५ एतत्संख्यया फलम् २५ अहि ८ हतम् २०० सायंम् २०३ इदं स्वेष्टायनक्षत्रभवं क्षेत्रफलं । पूर्वसममेव महागृहप्रमाणमाह । वेति वा अथवा इष्टायसहितं जातं यत् क्षेत्रफलं अष्टिदृग्नेष्टयुतं अष्टिश्च दृशश्व अष्टिदृशः अष्टिदृग्भिः षोडशाधिकद्विशत्या २१६ हतो गुणितो य इष्टः एक द्वित्र्याद्यंकः तेन युक्तं कार्यं तन्मनोऽभीष्टस्य महागृहस्य क्षेत्रफलं स्यादित्यर्थः । अत्रैवाचार्यप्रपौत्रगो
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मुहूर्तचिंतामणौ पिराजस्यापि पद्यम् । इष्टव्यिमुनींदवो द्विराह ८ हृच्छेषात्यजेत्स्वायतो नोचेच्छुद्ध्यति शोध्यमष्टसहिताच्छेषं त्रिहृत्साग्रकम् चेत्स्यादिष्टयुतं यथा तु तदशेषं स्यादथो रामहृत्प्राप्तन्नाद्विकरान्विताः फलमभीष्टायर्क्षजं जायते ॥ सिद्धैर्भक्तः स्यात्करादीष्टदीर्घमानार्थ चैकादिनिघ्नान् भभोगान् । तावद्यावत्प्रक्षिपेदिष्टभानि विस्तारः स्यादिष्टदैर्येण भक्ते ॥ ३ ॥
अथेंद्रवंशोत्तरार्धेन ध्वजाद्यायान्वदन्नायैर्वर्णपरत्वेन च द्वारनिवेशनमुपजात्याहस्वेष्टायनक्षत्रभवोऽथदैर्घ्यहृत्स्याद्विस्तृतिविस्तृतिहृच्च दीर्घता ॥ आया ध्वजोधूमहरिश्वगोखरेभध्वांक्षकाः पिंड इहाष्टशेषिते ॥ ४ ॥ ध्वजादिकाः सर्वदिशि ध्वजे मुखं कार्य हरौ पूर्वयमोत्तरे तथा ॥ प्राच्यां वृषे प्राग्यमयोगजेऽथवा पश्चादुदक्पूर्वयमे द्विजादितः॥५॥ ___ आया इति ॥ ध्वजादिका इति ॥ पिंडे क्षेत्रफले अष्टशेषिते यदवशिष्टं तत्परिमिता ध्वजादिका आयाः स्युः ध्वजधूमौ प्रसिद्धौ हरिः सिंहः श्वा कुक्कुरः गौतषः खरो गर्दभः इभो हस्ती ध्वांक्षकः काकः स्वाथै कः सर्वदिशीति ध्वजाख्ये आये सर्वदिशि दिक्चतुष्टयेऽपि गृहद्वारं कार्यम् । हरौ सिंहाये पूर्वदक्षिणोत्तरदिक्षु द्वाराणि स्युः न पश्चिमदिशि । तथा वृषाख्ये प्राच्यां दिश्येव द्वारं कार्य नान्यदिक्षु गजाख्ये आये प्राग्यमयोः पूर्वदक्षिणदिशोः गृहद्वारं कार्यम् आयानां प्रयोजनमाह विश्वकर्मा । वृषसिंहौ गजश्चैव कुंडे कर्पटकाटयोः । द्विपः पुनः प्रयोक्तव्यो वापीकूपसरःसु च ॥ मृगेंद्रमासने दद्याच्छयनेषु गजं पुनः । वृषं भोजनपात्रेषु छत्रादिषु पुनर्वजम् ॥ अग्निवेश्मसु सर्वेषु गृहे वह्नयुपजीविनाम् । धूमं नियोजयेत्केचिच्छ्रानं म्लेच्छादिजातिषु ॥ खरो वेश्यागृहे शस्तो ध्वांक्षश्चापि कुटीषु च । तृपसिंहौ ध्वजश्चापि प्रासादपुरवेश्मसु ॥ गजाये वा ध्वजाये वा गजानां सदनं शुभम् । अश्वालयं ध्वजाये वा खराये वृषभेऽपि वा ॥ उष्ट्राणां मंदिरं कार्यं गजाये वा वृषे ध्वजे । पशुसद्म वृषाये वा ध्वजाये वा शुभप्रदम् ॥ शय्यासु वृषभः शस्तः पीठे सिंहः शुभप्रदः । अमत्रछत्रवस्त्राणि वृषाये वा ध्वजेऽपि वा ॥ पादुकोपानही कार्य सिंहाख्येऽप्यथवा ध्वजे । उक्तानामप्यनुक्तानां सर्वेषां च ध्वजः शुभ इति । अथ ब्राह्मणादिवर्णपरत्वेन द्वा. रनिवेशनमाह द्विजादितो अथवेति । ब्राह्मणादिवर्णविभागेन पश्चादुदक्पूर्वयमे । यथा । ब्राह्मणस्य पश्चान्मुखं द्वारं क्षत्रियस्योदङ्मुखम् वैश्यस्य पूर्वमुखम् शूद्रस्य दक्षिणमुखमित्यर्थः । श्रीपतिः । ध्वजे प्रतीचीमुखमग्रजानामुदङ्मुखं भूमिभृतां च सिंहे । विशो वृषे प्राग्वदनं गजे तु शूद्रस्य याम्याननमामनंतीति ॥ ४ ॥ ५ ॥ __ अथ गृहारंभे विशिष्यकालनिषेधमुपजात्याहगृहेशतत्स्त्रीसुखवित्तनाशोऽर्केडीज्यशुक्रे विबलेऽस्तनीचे । कर्तुः स्थिति! विधुवास्तुनो पुरस्थिते पृष्ठगते खनिः स्यात् ॥६॥
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वास्तुप्रकरणम् । गृहेशति ॥ अद्वीज्यशुक्रे विबले निर्बले अस्ते अस्तंगते नीचराशिगते सति क्रमात् गृहेशतत्स्त्रीसुखवित्तनाशो भवति । यथा । सूर्ये निर्बले नीचस्थिते गृहेशस्य नाशः। इंदौ चंद्रे निर्बले अस्तमिते नीचगते वा गृहेशस्य स्त्रीनाशः । गुरौ ईज्ये निर्बलेऽस्तगे नीचगते वा गृहेशस्य सुखनाशः । शुक्रे निर्बलेऽस्तगे नीचगते वा वित्तनाशः । वसिष्ठस्तु । नीचे शत्रगते जीवे शुक्रे चंद्रेऽथ वा रवौ । निर्मितं सदनं शश्वदतिनिःस्वत्वमाप्नुयादिति । अस्तदोषोऽत्र न ग्राह्यः प्रातिदैवसिको बुधैः । नास्ते दोषः सदा चंद्रे न मैत्रेऽब्जस्य नीचतेति । कर्तुरिति । यन्नक्षत्रे दिनचंद्रस्तद्विधुभम् । यद्गृहस्य विस्तारायामवशादुत्पन्नभं तद्गृहभं तस्मिन्पुरस्थिते संमुखस्थे सति कर्तुगृहनिर्माणकर्तुस्तगृहे स्थितिर्निवासो न स्यात् । पृष्ठगते वा विधुवास्तुनोभै सति खनिः खननं चोरकृतापहारं तहशात्सर्वस्वहानिः स्यादित्यर्थः । पुरः पृष्ठस्थितत्वं च दिग्द्वारभक्रमेण । यथा । गृह द्वारं यस्यां दिशि विधित्सितं तदिक्षत्रे च गृहारंभो न कार्यः । वामदक्षिणनक्षत्रेषु गृहारंभः सुखेन कार्यः । यदुक्तं ब्रमशंभुना । गृहायलब्धऋक्षे च यन्नक्षत्रे च चंद्रमाः । शलाकासप्तके देयं कृत्तिकादिक्रमेण च ॥ वामदक्षिणभागे तत्प्रशस्तं शांतिकारकम् । अग्रे पृष्ठे न दातव्यं यदीच्छेच्छ्रेय आत्मनः ।। ऋक्षं चंद्रस्य वास्तोश्च अग्रे पृष्ठे न शस्यत इति । अयमाशयः । कृत्तिकादिसप्त नक्षत्रेषु अनुराधादिसप्तसु वा गृहनक्षत्रे चंद्रनक्षत्रे च सति पूर्वद्वारं पश्चिमद्वारं वा न कार्यम् । तत्र चंद्रः पृष्ठस्थितोऽग्रस्थितो वा भवति एवं मघादि सप्तसु धनिष्ठादि सप्तसु वा गृहनक्षत्रे चंद्रनक्षत्रे वा सति दक्षिणद्वारमुत्तरद्वारं वा न कार्यमित्यर्थः ॥ ६ ॥ इदानीं व्ययकथनपुरःसरं सफलमंशकज्ञानं उपजात्याहभं नागतष्टं व्यय ईरितोऽसौ ध्रुवादिनामाक्षरयुक सपिंडः॥ तष्टो गुणैरिंद्रकृतांतभूपा वंशा भवेयुर्न शुभोऽतकोऽत्र ॥ ७॥
भमिति ॥ प्रागुक्तदिशाकल्पितं यगृहभं तन्नागैरष्टभिस्तष्टं अवशिष्टं व्यय ईरितः। यथा रोहिणीभं ४ अयमेव व्ययः असौ व्ययः ध्रुवादिनामाक्षरयुक् ध्रुवादिनामान्यधुनैव वक्ष्यति । यानि दिक्षु द्वाराणि चिकीर्षितानि तदनुरोधेन यदागतं ध्रुवादिनाम तदक्षरसंख्यया युक्तः ततः स पिंडः प्रागानीतपिंडयुक्तः गुणेस्त्रिभिस्तष्टो भक्तावशिष्टः एकद्वित्रिशेषेण इंद्रयमराजसंज्ञकास्त्रयोंऽशाः स्युः । अत्र गृहारंभेऽतको यमाख्योऽशको न शुभः । अर्थादिंद्रराजानौ शुभफलदौ ॥ ७ ॥ अथ शालाध्रुवाद्यानयनमनुष्टुभाहदिक्षु पूर्वादितः शाला ध्रुवाभूतौ कृता गजाः॥
शालाधुवांकसंयोगः सैको वेश्मध्रुवादिकम् ॥ ८॥ दिक्ष्विति ॥ प्राच्या द्वारे चिकीर्षिते शालाध्रुवांक एकः दक्षिणस्यां द्वौ पश्चिमायां
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२१०
मुहूर्तचिंतामणी
कृताश्चत्वारः उत्तरस्यां गजा अष्टौ । अथ दिक्परत्वेन यावंति द्वाराणि एकं द्वे त्रीणि चत्वारि वा चिकीर्षितानि तावतां शालाध्रुवांकानां संयोगः सैकः एकयुतः सन् ध्रुवादिकं वेश्म गृहं स्यात् । यथा । पूर्वस्यां पश्चिमायां द्वारे अभीष्टे शाला ध्रुवौ १ । ४ अनयोर्योगः ५ सैकः ६ गृहं जातं कांताख्यम् एवं पूर्वदक्षिणोत्तरदिक्षु शालाध्रुवाणां १,२,८ संयोगः ११ सैकः १२ धनदाख्यं गृहम् दिचतुष्टये विजयाख्यं गृहं षोडशमिति ॥ ८ ॥ अथ ध्रुवादीनां नामाक्षरसंख्यां पथ्यावऋछंदसाह -
तिथ्यर्काष्टष्टिगोरुद्रश नामाक्षरं त्रयम् ॥ भूयब्धीष्वंगदिग्वह्निविश्वेषु द्वौ नगेऽब्धयः ॥ ९ ॥
तिथ्यर्केति ॥ दिक्षु पूर्वादित इत्यादिना यत् ध्रुवादि वेश्म समागतं तस्य शालानुवांकसंयोगः सैको वेश्मेत्युक्तदिशासंख्यामवधारयेत् । सा चेत्संख्या पंचदशी द्वादशी अष्टमी षोडशी नवमी एकादशी चतुर्दशी वा स्यात्तदा गृहनामाक्षरं त्रयात्मकं स्यात् । यथा १५,१२,८,१६,९,११,१४, अत्र त्रीण्येवाक्षराणि सैव संख्या । प्रथमा द्वितीया चतुर्थी पंचमी षष्ठी दशमी तृतीया त्रयोदशी वा स्यात् तदा गृहनाम द्वौ अक्षरद्वयात्मकं स्यात् । यथा १,२,४,५,६,१०, ३,१३ अत्र द्वे अक्षरे पुनः सा संख्या सप्तमी स्यात्तदा अब्धयश्चतुरक्षरं गृहनाम । यथा ७ अत्र चत्वार्यक्षराणि ॥ ९ ॥
अथ यद्यपि ध्रुवादिनामाक्षरसंख्याज्ञानं प्राक्पद्ये नैव जातं तथापि तन्मध्ये कानि शुभानि कान्यशुभानीत्यसदृशफलसूचनार्थं षोडशगृहाणां नामानि आर्यागीतिच्छंदसाहध्रुवधान्ये जयनंदौ खरकांतमनोरम सुमुखदुर्मुखोग्रम् ॥ रिपुदं वित्तदनाशे चादं विपुलविजयाख्यं स्यात् ॥ १० ॥ ध्रुवधान्येति ॥ अत्रार्यागीतिलक्षणं वा आर्यापूर्वार्ध यदि गुरुणैकेनाधिकेन निधने युक्तम् । इतरत्तद्वन्निखिलं यदीयमुदितेयमार्यागीतिरिति । अत्रार्यापूवार्धे || || || || |||siऽऽ उत्तरार्धे || ss || sssss || sss सामान्यलक्षणमप्यनुसंधेयम् । विशेषलक्षणस्य सामान्यलक्षणाधीनत्वात् निधने प्रांते ध्रुवमूर्ध्वमुखं प्रथमं गृहम् । धान्यं पूर्वद्वारं द्वितीयम् । जयं दक्षिणद्वारं तृतीयम् । नंदं प्राक्दक्षिणद्वारं चतुर्थम् । खरं पश्चिमद्वारं पंचमम् । कांतं प्राक्पश्चिमद्वारं षष्ठम् । मनोरमं दक्षिणपश्चिमद्वारं सप्तमम् । सुमुखं प्राग्दक्षिणपश्चिमद्वारमष्टमम् । दुर्मुखमुत्तरद्वारं नवमम् । उग्रं पूर्वोत्तरद्वारं दशमम् । रिपुदं विपक्षाख्यं दक्षिणोत्तरद्वारमेकादशम् । वित्तदं पूर्वदक्षिणोत्तरद्वारं त्रयोदशम् । नाशाख्यं पश्चिमोत्तरद्वारं द्वादशम् । आक्रदं प्राक्पश्चिमोत्तरद्वारं चतुर्दशम् । विपुलाख्यं दक्षिणपश्चिमोत्तरद्वारं पंचदशम् । विजयं चतुर्दिद्वारं षोडशम् ॥ १० ॥
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वास्तुप्रकरणम् । अथ केषांचिन्मतेन गृहस्यायादिनवकमुपजातिकापथ्यावक्राभ्यामाहपिंडे नवांकां९गगजाग्नि ३नाग८नागान्धिनागैर्गुणिते क्रमेण ॥ विभाजिते नागटनगांक९सूर्य १२नाग ८क्षतिथ्य१५र्फ २७खभानुभि१२०श्च ॥ ११ ॥ आयो वारोंऽशको द्रव्यमृणमृक्षं तिथियुतिः॥
आयुश्चाथ गृहेशर्भगृहभैक्यं मृतिप्रदम् ॥ १२ ॥ पिंड इति । आय इति ॥पिंडे क्षेत्रफले नवधा स्थापिते क्रमेण नवादिमिरकैर्गुणिते क्रमेण नागादिभिरंकैर्भक्ते च सति यदवशिष्टं तदायादिकं स्यात् । यथा । क्षेत्रफलं नवभिर्गुणितं अष्टभिर्भक्तं शिष्टमायः स्यात् । तद्यथा । पिंडः २०३ नवगुणितः १८२७ अष्टभक्ते शेषं ३ सिंहायो जातः एवं सर्वेऽप्यानीताः वारः ७ अंशकः ३ द्रव्यम् ४ ऋणम् १ नक्षत्रम् ४ रोहिणीतिथिश्चतुर्थी ४ योगः २ प्रीतिः आयुः ६४ । उक्तं च । गों ९ क ९ व६ष्ट ८ गुणा ३ ष्ट < नाग < जलधि ४ व्यालै ८ हतं भूफलं नागा < यं ७ क ९ दिवाकरा १२ ष्ट ८ भ २७ तिथी १५ योगैः २७ खसूर्ये १२० भजेत् । आयं वारमथांशकं धनमृणं तारां तिथिं चिंतयेद्योगं चायुरितीह शेषकपदे भागैर्हते तांत्रिकैरिति । अथैषां प्रयोजनम् । विषमायः शुभायैव समायः शोकदुःखदः । वाराणां च । सूर्यारवारराश्यंशाः सदा वह्निभयप्रदाः । यथा । गणितागतो भौमवारः स निंद्यः तद्राशी मेषवृश्चिकौ तौ निंद्यौ तदंशा यस्मिन् कस्मिंश्चिल्लग्ने मेषवृश्चिकनवांशा निषिद्धाः । एवं सूर्यवारोऽपि अन्येषां वारराश्यंशाः शुभाः अंशानां च । गृहस्यागतनक्षत्रं तहिराश्यात्मकं यदि । तन्नवांशवशात्तत्र ज्ञातव्यं सर्वदा गृहमिति । कृत्तिका द्विराश्यात्मिका तत्रैकावशेषे मेषः व्यादिशेषे वृषः मृगे व्यधिके शेषे मिथुनम् अन्यथा दृषः पुनर्वसावप्यंशकत्रयं यावन्मिथुनम् अन्यथा कर्कः एवमुत्तराफाल्गुन्यादिषु द्विराश्यात्मकेषूहनीयम् । न तु निःसंदिग्धेष्वश्विन्यादिषु धनर्णयोश्च । धनादिकं गृहं वृद्धौ निर्धनं यहणाधिकामिति । नक्षत्रस्य । विपत्प्रदा विपत्तारा प्रत्यरा प्रतिकूलदा । निधनाख्या तारका तु सर्वदा निधनप्रदा । अस्यार्थः । गृह कर्तुर्नक्षत्रागृहमसंख्या नवभक्तावशिष्टं यदि विपत्तारादिकं स्यात् तदा तगृहमनिष्टं स्यात् । अन्यथा शुभमिति । कश्यपः । दत्ते दुःखं तृतीयः पंचमङ्ख् यशः क्षयम् । आयुःक्षयं सप्तम· कर्तृभाद्यदि सद्मभमिति । यदा तु गृहकर्तुर्गृहस्य चैकमेव नक्षत्रं तत्र स्वयमेव निर्णयमाह । गृहेति । गृहेशर्स खामिनक्षत्रं प्रागुक्तप्रकारेणानीतं गृहभं च तयोरैक्यं एकमेव चेर् स्यात्तगृहकर्तुमरणप्रदं स्यात् । गृहस्य तत्पतेस्त्वेकं धिष्ण्यं चेन्निधनप्रदमिति वसिष्ठोक्तेः। वास्तुशास्त्रे द्विराश्यात्मकभेषु राश्यादिनिर्णयोऽन्यथाभिहितः। अश्विन्यादित्रयं मेषे सिंहे प्रोक्तं मघात्रयम्।
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मुहूर्तचिंतामणौ . मूलादित्रितयं चापे शेषेषु नव राशय इति । अयं पक्षो वास्तुशास्त्रे नवांशानुक्तेरुक्तः । गृहस्य नक्षत्रराशिज्ञाने वर्णों वश्यमित्याद्युक्तप्रकारेण गृहस्वामिनक्षत्रराशिवशादटितादिविचारो विधेयः । तत्र नाडीवेधे प्राशस्त्यमुक्तं चिंतामणौ । सेव्यसेवकयोश्चैव गृहतत्स्वामिनोरपि । परस्परं मित्रयोश्चेदेकनाडी प्रशस्यत इति तिथिप्रयोजनं दर्श रिक्तां च वर्जयेदिति । योगानामपि दुष्टयोगाश्च वर्णाः । आयुःप्रयोजनं तावत्कालं गृहावस्थितिरिति । अत्राभीष्टांशादिसिद्ध्यर्थ अंगुलादिकं प्रक्षिप्य विशोध्य वा क्षेत्रफलं साध्यम् ॥ ११ ॥ १२ ॥
अथ गृहारंभे वृषवास्तुचक्रं शालिनीभ्यामाहगेहाद्यारंभेऽभावत्सशीर्षे रामै ३ होवेद ४ भैरग्रपादे ॥ शून्यं वेदैः ४ पृष्ठपादे स्थिरत्वं रामः३पृष्ठे श्रीयुगै ४ दक्षकुक्षौ ॥१३॥ लामो रामैः ३ पुच्छगैः स्वामिनाशो वेदै ख्यं वामकुक्षौ मुखस्थैः ॥ रामैः पीडा संततं वार्कधिष्ण्यादश्वैरुद्रदिग्भि १० रुक्तं ह्यसत्सत्॥१४॥
गेहाद्यारंभ इति । लाभो रामैरिति ॥ गेहं गृहं आदिशब्देन प्रासादग्रामादि तदारंभे सति अर्कभात् सूर्याक्रांतनक्षत्रात् रामैस्त्रिभिर्भः वृषस्य वत्सस्य शीर्षस्थितैः सद्भिः दाहः फलं स्यात् । ततो वेदभैः अग्रपादे पुरःस्थितपादद्वयस्थितैः शून्यं गृहं जनवासरहितं स्यात् । ततश्चतुर्भेः पृष्ठपादद्वयस्थैः स्थिरत्वं गृहकर्तुः ततो रामैः पृष्ठस्थैः श्रीः स्यात् । ततो युगैश्चतुर्भिः दक्षिणकुक्षिस्थितैः लाभः । ततस्त्रिभिः पुच्छगैः स्वामिनो गृहकतुर्नाशः ततो वेदैः वामकुक्षौ स्थितैः नैव्यं दारिद्यम् ततस्त्रिभिर्मुखस्थैः गृहकर्तुः पीडा संततं अनवरतं स्यात् । उक्तं च भ्रातृचरणैः । त्रिवेदवेदाग्नियुगाग्निवेदत्रिकेषु भानोः शशिभं गृहेषु । दाहो विनाशः स्थिरता धनं श्रीः शून्यं च दारिद्यमृती क्रमेणेति । अथैतस्य निष्कृष्टार्थमाह । वेति अर्कधिष्ण्यादश्वैः सप्तभैरसत्फलम् ततोरुढैरेकादशधिष्ण्यैः सत्फलम् ततो दिग्भिर्दशनक्षत्रैरसत्फलं स्यादिति । उक्तं च । रविभात्सप्त नेष्टानि शुभान्येकादशाष्टभात् । दशशेषाण्यनिष्टानि साभिजिदृषवास्तुनीति ॥ १३ ॥ १४ ॥
अथ सूर्यचंद्रमासैक्येन प्रागादिदिक्षु द्वाराणि गृहनिर्माणनक्षत्राणि च स्त्रग्धरयाहकुंभेऽर्के फाल्गुने प्रागपरमुखगृहं श्रावणे सिंहकोः पौषे नक्रे च याम्योत्तरमुखसदनं गोजगेर्के च राधे ॥ मार्गे जूकालिगे सत् ध्रुवमृदुवरुणस्वातिवस्वर्कपुष्यैः सूतीगेहं त्वदित्यां हरिभविधिभयोस्तत्र शस्तः प्रवेशः॥ १५ ॥ कुंभेर्क इति ॥ कुंभस्थे सूर्ये फाल्गुने च मासि प्रागपरमुखगृहं प्राङ्मुखं पश्चिममुखं वा गृहं सत् शुभफलं स्यात् । श्रावणे मासे सिंहकर्किसंक्रांत्योश्च प्राङ्मुखं पश्चिममुखं वा गृह
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वास्तुप्रकरणम् । स्यात् । पौषे मासे नके मकरसंक्रांतौ च प्रागपरमुखं गृहं स्यात् । अथ गोजगेऽके सुषमेषगे सूर्ये राधे वैशाखे मासि याम्योत्तरमुखं सदनं शुभं स्यात् । मार्गे मार्गशीर्षे जूकालिगे तुलाश्चिकगते सूर्ये सति याम्योत्तरमुखसदनं दक्षिणमुखमुत्तरमुखं वा सदनं गृहं स्यात् ।। नारदः । गृहसंस्थापनं सूर्य मेषगे शुभदं भवेत् । वृषस्थे धनवृद्धिः स्यान्मिथुने मरणं ध्रुवम् ॥ कर्कटे शुभदं प्रोक्तं सिंहे भृत्यविवर्धनम् । कन्या रोगं तुला सौख्यं वृश्चिके धनवर्धनम् ॥ कार्मुके च महाहानिर्मकरे स्याद्धनागमः । कुंभे तु रत्नलाभः स्यान्मीने सद्मभयावहमिति । चांद्रमासानाह श्रीपतिः । शोको धान्यं मृतिपशुहती द्रव्यवृद्धिविनाशो युद्ध भृत्यक्षतिरथ धनं श्रीश्च वह्नेभयं च । लक्ष्मीप्राप्तिर्भवति भवनारंभकर्तुः क्रमेण चैत्रादूचे मुनिरिति फलं वास्तुशास्त्रोपदिष्टमिति । अत्र सौरचांद्रमासानां महान् शुभाशुभफलविरोधः । अत्र चिकीर्षितगृहद्वारानुकूलरविसंक्रमसमीचीनविहितमासेष्वेव वैशाखादिषु गृहारंभः कार्य इति विरोधाभाव इति तथैवोपनिबद्धम् । द्वारनियममाह श्रीपतिः । कर्किनक्रहरिकुंभगतेऽकें पूर्वपश्चिममुखानि गृहाणि । तौलिमेषवृषवृश्चिकयाते दक्षिणोत्तरमुखानि च कुर्यात् । अन्यथा यदि करोति दुर्मतिर्व्याधिशोकभयनाशमश्नुते । मीनचापमिथुनांगनागते कारयेत्तु गृहमेव भास्कर इति । तत्र कुंभार्कसहिते फाल्गुने प्रागपरमुखं गृहं कार्यम् उभयोविहितयोरेकवाक्यता श्रवणात् एवमग्रेऽपि सर्वत्र । जगन्मोहने । पाषाणेष्टकादिगेहानि निंद्यमासे न कारयेत् । तृणदारुगृहारंभे मासदोषो न विद्यते इति । अथ नक्षत्राण्याह ध्रुवेति । ध्रुवाणि रोहिण्युत्तरात्रयं मृदूनि मृगरेवतीचित्रानुराधाः वरुणः शततारका स्वाती वसुधनिष्ठा अर्को हस्तः पुष्यश्च एषु भेषु गृहनिर्माणं सत् शुभं स्यात् । गर्गः । व्युत्तरेऽपि च रोहिण्यां पुष्ये मैत्रे करद्वये । धनिष्ठाद्वितये पौष्णे गृहारंभः प्रशस्यते इति । अत्र मृगो नोक्तः तदुक्तिश्च महेश्वरायुक्तेः । सूतीगेहमिति अदित्यां पुनर्वसौ सूतिकागृहनिर्माणं प्रशस्तम् । तत्रेति । तत्र सूतीगृहे हरिभविधिभयोः श्रवणाभिजितोर्नक्षत्रयोः प्रवेशः शस्तः । लल्लः । पुनर्वसौ नृपादीनां कर्तव्यं सतिकागृहम् । श्रवणाभिजितोमध्ये प्रवेशं तत्र कारयेदिति । अत्र नृपपदोपादानात् ब्राह्मणानां पूर्वोक्तनक्षत्रेष्वेव कार्यम् । आवश्यकत्वे तु श्रवणाभिजितोर्मुहूर्तः तद्दयो वा ग्राह्यः । तच्च सतीगृहं नैर्ऋत्यां कार्यम् । नैर्ऋत्यां सूतिकागृहमिति वसिष्टोक्तेः । वराहेणात्रानेकनक्षत्राण्यभिहितानि । हस्तादित्यशशांकपुष्यपवनब्राह्मेशमित्रोत्तराचित्राश्विश्रवणेषु वृश्चिकघटौ हित्वा विरिक्त तिथौ । शुक्राचार्यशनैश्चरज्ञशशिनां वारेऽनुकूले विधौ सद्भिवैश्मनि सूतिकागृहविधिः क्षेमंकरः कीर्त्यते इति । वेश्मनि चतुर्थस्थाने सद्भिः शुभग्रहैः नवममासि सूतिकागृहप्रवेशः कार्यः । गर्गः । मासे तु नवमे प्राप्ते पूर्वपक्षे शुभे दिने । प्रसूतिसंभवे काले सद्य एव प्रवेशयेत् । रोहिण्येदवपौष्णेषु स्वातीवारुणयोरपि । पुष्ये पुनर्वसौ हस्ते धनिष्ठात्र्युनरासु च ॥ मैत्रे त्वाष्ट्रे तथाश्चिन्यां सूतिकागारवेश
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मुहूर्तचिंतामणौ
२१४ नम् । सर्वे शुभग्रहाः केंद्रे पापाश्च त्रिषडायगाः । शुभांशे शुभसंदृष्टौ सूतिकावेशनं शुभमिति ॥ १५ ॥
अथ प्रागभिहितानां सौराणां चांद्राणां मासानां प्रकारांतरेणैकवाक्यतां शार्दूलविक्रीडितेनाह-.
कैश्चिन्मेषरवौ मधौ वृषभगे ज्येष्ठे शुचौ कर्कटे भाद्रे सिंहगते धटेऽश्वयुजि चोर्जे लौ मृगे पौषके ॥ माघे नक्रघटे शुभं निगदितं गेहं तथोर्जे न सत्कन्यायां
च तथा धनुष्यपि न सत्कृष्णादिमासाद्भवेत् ॥ १६ ॥ कैश्चिदिति ॥ पूर्व दिग्द्वारवशेनैकवाक्यतोक्ता इदानीं मेषस्थे रवौ मधौ चैत्रमासे गेहं प्रारब्धं शुभं स्यात् । तथा वृषस्थे सूर्य ज्येष्ठमासे कर्कस्थेऽके शुचावाषाढे सिंहगतेऽके भाद्रपदे मासि धटे तुलास्थे रवौ अश्वयुज्याश्विने मासे अलौ वृश्चिकस्थेऽके उर्जे कातिकमासे मृगे मकरस्थेऽके पौषमासे नक्रघटे मकरकुंभेऽके माथे प्रारब्धं गृहं शमं स्यादित्यर्थ इति कैश्चिन्निगदितम् । अनेन मेषेऽके चैत्रेऽपि शुभं गृहं यस्तु चैत्रनिषेधः स मीनाकविषयः वृषस्थेऽके ज्येष्ठेऽपि शुभम् यस्तु ज्येष्ठनिषेधः स मिथुनार्कविषयः कर्कस्थेऽके आषाढेऽपि शुभम् आषाढनिषेधस्तु मिथुनार्कविषयः सिंहे ऽके भाद्रेपि शुभम् भाद्रनिषेधस्तु कन्याविषयः श्रावणस्तु तत्र विहितत्वादेव शुभः तुलास्थेऽकै आश्विनेऽपि शुभं । अस्य निषेधः कन्यापरः वृश्चिकेऽके कार्तिकेऽपि शुभं निषेधविषयं वयमेव वक्ष्यति मार्गशीर्षस्तु विहित एव मकरस्थेऽके पौषेऽपि शुभं धनुरकसाहित्ये सोऽप्यशुभः मकरकुंभस्थेऽके माघेऽपि शुभम् निषधेस्तु धनुरर्कविषयः अतएव । सौम्यफाल्गुनवैशाखमाघश्रावणकार्तिकाः। मासाः स्युर्गृहनिर्माणे पुत्रारोग्यधनप्रदा इति नारदवाक्यम् । मासे तपस्ये तपसि माधवे नभसि त्विषे । ऊर्जे च गृहनिर्माणं पुत्रपौत्रप्रवर्धनमिति वसिष्ठवाक्यं च आश्विनकार्तिकमाघानां शुभत्वप्रतिपादकं तुलावृश्चिकमकरकुंभार्कराहित्ये प्राशस्त्यपरं वचनांतरैरबोधि तन्निषेधः प्रागुक्तविषय एव । एवं फाल्गुनस्य शुभत्वं कुंभार्कविषयम् कुंभार्कराहित्ये तु निषिद्धम् ननु कार्तिकमाघमासौ श्रीपतिना निषिद्वौ तयोः को विषय इत्यत आह । अथेति । ऊर्जः कार्तिको मासः कन्यागतेऽके न सत् न शुभः । च पुनः तथा माघमासः धनुष्यपि धनुरकै न सत् । नन्वेतदयुक्तम्। यतः शुक्लादिचांद्रमासे चैत्रादिमाससंज्ञाः संति तत्र कार्तिके कन्यासंक्रांतिमासे धनुःसंक्रांतिश्च कदापि न संभवति अत आह । कृष्णादिमासादिति । मासो द्विविधः शुक्लादिः कृष्णादिश्च तत्र चैत्रशुक्लप्रतिपदमारभ्यामावास्यापर्यंत शुक्लादिः। कृष्णप्रतिपदमारभ्य पूर्णिमापर्यंतं कृष्णादिः उभयत्रापि शास्त्रे व्यवहारः । आश्वयुकृष्णपक्षे तु, श्राद्धं कुर्यादिने दिने इति । मासि भाद्रपदेऽष्टम्यां कृष्णपक्षेऽर्धरात्रके । भवेत्नोष्ठपदे मासि ज
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वास्तुप्रकरणम् ।
२१५ यंती नाम सा स्मृतेति च । अत्र यदि दर्शातो मासो विवक्ष्यते तदा भाद्रपदकृष्णपक्षे श्रावणे मासे चेत्येवं ब्रूयात् । तदेतन्मासस्य कृष्णादित्वे प्रमाणम् । तत्राश्विनपूर्णिमातः कार्तिकपूर्णिमांत कृष्णादित्वेन व्यवहारात्तत्र कन्यासंक्रांतिसंभवान्निषेध उपपन्नो भवति एवमेव माघे मासि धनुरर्कसंभवेन निषेधसार्थक्यमित्यलम् ॥ १६ ॥
अथ तिथिपरत्वेन द्वारनिषेधमुपजातिकयाहपूर्णेदुतः प्राग्वद्नं नवम्यादिषूत्तरास्यं त्वथ पश्चिमास्यम् ॥ दर्शादितः शुक्लदले नवम्यादौ दक्षिणास्यं न शुभं वदंति ॥ १७॥
पूर्णेदुत इति ॥ पूर्णेदुतः पूर्णिमातः कृष्णाष्टमीपर्यंतं प्राङ्मुखं गृहं शुभं न वदंति कृष्णनवमीतः चतुर्दशीपर्यंतं क्रियमाणमुत्तरास्यं न शुभम् अथ दर्शादितः शुक्लाष्टमीपर्यंतं पश्चिमास्यं गृहं न शुभं शुक्लनवमीतश्चचतुर्दशीपर्यंतं दक्षिणास्यं गृहं शुभं न वदंति तासु तासु तिथिषु तत्तद्दिङ्मुखं गृहं न कर्तव्यमित्यर्थः । व्यवहारोच्चये । पूर्णिमातोऽष्टमी यावत्पूवास्यं वर्जयेद्गृहम् । उत्तरास्यं न कुर्वीत नवम्यादिचतुर्दशीम् । अमायाश्चाष्टमी यावत्पश्चिमास्यं विवर्जयेत् ॥ नवम्यादौ दक्षिणास्यं यावच्छुक्लचतुर्दशीमिति । वेधादिविचारो न लिखितः ग्रंथगौरवात् ।। १७ ॥ अथ पंचांगशुद्धिं लग्नशुद्धिं चानुष्टुभाह
भौमार्करिक्तामाङ्ने चरोनेंगे विपंचके ॥
व्यष्टांत्यस्थैः शुभैर्गेहारंभख्यायारिगैः खलः ॥ १८ ॥ भौमार्केति ॥ भौमार्कवारौ रिक्ताश्च प्रसिद्धाः अमावास्या आदिः प्रतिपत् उपलक्षणत्वादष्टम्यपि एतैरूने काले तथा चरराशिर्मेषकर्कतुलामकरै रहिते लग्ने स्थिरे द्विस्वभावे तथा विपंचके रुगनलनृपचोरमृत्युसंज्ञकपंचकरहित इत्यर्थः । उक्तं च । दारिद्रं प्रतिपत्कुर्याच्चतुर्थी धनहारिणी । अष्टम्युच्चाटनं चैव नवमी शस्त्रघातिनी ॥ दशैं राजभयं ज्ञेयं भूते दारविनाशनमिति । मांडव्येन स्तंभोच्छ्रये । धनिष्ठापंचके नैव कुर्यास्तंभसमुच्छ्रयम् । सूत्रधारशिलान्यासप्राकारादिसमारभेदिति ॥ व्यष्टांत्य इति अष्टमद्वादशस्थानव्यतिरिक्तस्थैः शुभैः पापैस्तृतीयैकादशषष्ठस्थानस्यैश्योपलक्षिते लग्ने गृहारंभः कार्यः ॥ १८ ॥ अथ देवालयादौ विदिक्षु राहुमुखमिंद्रवंशयाह
देवालये गेहविधौ जलाशये राहोर्मुखं शंभुदिशो विलोमतः॥ मीनार्कसिंहामृगार्कतस्त्रिभे खाते मुखात् पृष्ठविदिक शुभा भवेत् ॥ १९ ॥
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मुहूर्तचिंतामणौ देवालय इति ॥ अत्र यथासंख्यं संबंधः । देवालयप्रारंभे राहुमुखं मीनार्कतस्त्रिराश्यवस्थिते सूर्ये ऐशानीतो विलोमतो विपरीतं विदिशु वायव्यादिषु राहुमुखं स्यात् । यथा मीनमेषवृषराश्यवस्थिते सूर्ये ईशान्यां राहुमुखम् । मिथुनकर्कसिंहस्थितेऽके वायव्याम् कन्यातुलावृश्चिकस्थितेऽकै नैर्ऋत्याम् धनुर्मकरकुंभस्थेऽके आग्नेय्यां राहुमुखमित्यर्थः । एवं गृहारंभेऽपि सिंहार्कतस्त्रिराश्यवस्थितेऽके विलोमत ऐशान्यां राहुमुखं स्यात् वृश्चिकादित्रिभे वायव्यां कुंभादित्रिभे नैर्ऋत्यां वृषादित्रिभे आग्नेय्यां राहुमुखमित्यर्थः । तथा जलाशयप्रारंभेऽपि मकरतस्त्रिराश्यवस्थितेऽके विलोमत ऐशान्यां राहुमुखं स्यात् । मेषादित्रिभे वायव्याम् कर्कादित्रिभे नैऋत्याम तुलादित्रिभे आग्नेय्यां राहमुखं स्यादित्यर्थः । फलमाह खात इति । देवालयादिविषयके खाते भमिशोधने कर्तव्ये सति राहमुखाक्रांतदिशः सकाशात्ष्टष्ठवर्तिनी विदिक् शुभा भवेत् । यथैशान्यां राहुमुखं तत्टष्ठदिगाग्नेयी तस्यां प्रथमखातारंभःशुभफलदः एवं वायव्यां राहुमुखं तत्प्टष्ठविदिगैशानी तस्यां खातारंभः एवं सर्वत्र । उक्तंच । ईशानतः सर्पति कालसर्पो विहाय सृष्टिं गणयेद्विदिक्षु । शेषोऽस्य वास्तोर्मुखमध्यपुच्छं त्रयं परित्यज्य खनेञ्चतुर्थम् ।। वृषार्कादित्रयं वेद्यां सिंहादिगणयेगृहे । देवालये च मीनादि तडागे' मकरादिकमिति । खातारंभादिनक्षत्राण्याह । मांडव्यः । अधोमुखै विदधीत खातं शिलास्तथैवोर्ध्वमुखैश्च पट्टम् । तिर्यङ्मुखैभरि कपाटदानं गृहप्रवेशो मृदुभिर्बुवरिति ॥ १९॥ अथ गृहे कूपनिर्माणदिगवस्थित्या फलं शालिन्याह
कूपे वास्तोर्मध्यदेशेऽर्थनाशस्त्वैशान्यादौ पुष्टिरैश्वर्यवृद्धिः ॥ सूनो शः स्त्रीविनाशो मृतिश्च
संपत्पीडा शत्रुतः स्याच सौख्यम् ॥२०॥ कूप इति ॥ वेश्मभूर्वास्तुरस्त्रियामिति वास्तुशब्दः पुलिंगः । वास्तोर्गृहस्य मध्यभागे कपे जलकूपे सति स्वामिनोऽर्थनाशः स्यात् अर्थशान्यादिषु सृष्टिमार्गेणाष्टदिक्षु पुष्टिरित्यादि फलं । यथैशान्यां कूपे पुष्टिः पूर्वस्यामैश्वर्यवृद्धिः आग्नेय्यां पुत्रनाशः दक्षिणस्यां स्त्रीविनाशः नैऋत्यां गृहपतेर्मृतिः पश्चिमायां संपत् वायव्यां शत्रुतः सकाशात्पीडा स्यात् उत्तरस्यां कूपे सुखं गृहस्वामिन एव । वसिष्ठः । ऐश्वर्य पुत्रहानिश्च स्त्रीनाशो निधनं भवेत् । संपच्छत्रुभयं सौख्यं पुष्टिः प्रागादितः क्रमात् ॥ कूपे कृते मध्यमे तु धनहानिर्हि वास्तुनीति । अथ कूपारंभे चक्रमाह । कूपेऽर्कभान्मध्यगतैस्त्रिभिर्भः स्वादूदकं पूर्वदिशि त्रिभिभैंः । खंडं जलं स्वादुजलं जलक्षयं स्वादूदकं क्षारजलं शिलाजलम् । क्षारं जलं मृष्टजलं क्रमाद्भवेद्वा सूर्यभात्रित्रिमितैः शुभाशुभमिति ॥ २० ॥
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वास्तुप्रकरणम् । अथ दिक्परत्वेन उपकरणगृहाणि वसंततिलकयाह
स्नानस्य पाकशयनास्त्रभुजेश्च धान्यभांडारदैवतगृहाणि च पूर्वतः स्युः॥ तन्मध्यतस्तु मथनाज्यपुरीषविद्या
भ्यासाख्यरोदनरतौषधसर्वधाम ॥२१॥ स्नानस्येति ॥ पूर्वतः पूर्वाद्यष्टदिक्षु स्नानगृहादीनि गृहाणि स्युः । यथा । पूर्वस्यां स्नानगृहम् आग्नेय्यां पाकगृहम् दक्षिणस्यां शयनगृहम् नैर्ऋत्यां शस्त्रगृहम् पश्चिमायां भोजनगृहम् वायव्यां धान्यसंग्रहगृहम् उत्तरस्यां भांडारं कोशगृहम् ऐशान्यां दैवतगृहम् । वसिष्ठः । ऐंद्रयां दिशि स्नानगृहमाग्नेय्यां पचनालयम् । याम्यायां शयनं वेश्म नैऋत्यां शस्त्रमंदिरम् ॥ वारुण्यां भोजनगृहं वायव्यां धान्यमंदिरम् । उदीच्यां हाटकं सद्म ऐशान्यां देवमंदिरमिति । नारदस्तु विशेषमाह । भांडागारं तूत्तरस्यां वायव्यां पशुमंदिरमिति । पूर्वाद्यष्टदिक्षु तन्मध्यतः तयोदिग्विदिशोर्मध्येऽष्टसंख्याके मथनाद्यष्टौ गृहाणि स्युः। यथा पूर्वाग्नेययोर्मध्ये मथनस्य दध्यालोडनस्य गृहं स्यात् आग्नेयीदक्षिणयोर्मध्ये आज्यस्य घृतसंग्रहस्य दक्षिणनैऋत्योर्मध्ये पुरीषस्य विष्ठात्यागस्य गृहम् नैर्ऋतीपश्चिमयोर्मध्ये विद्याभ्यासस्य पश्चिमवायव्ययोर्मध्ये रोदनस्य गृहम् वायव्योत्तरयोर्मध्ये रतस्य संभोगस्य गृहम् उत्तरैशान्ययोर्मध्ये औषधस्य गृहम् ऐशानीप्राच्योर्मध्ये उक्तव्यतिरिक्तसर्ववस्तूनां धाम गृहं कार्यं स्यादित्यर्थः । वसिष्ठः । इंद्राम्योर्मथनं मध्ये याम्याग्योर्घतमंदिरम् । यमराक्षसयोमध्ये पुरीपत्यागमंदिरम् ॥ राक्षसांबुपयोर्मध्ये विद्याभ्यासस्य मंदिरम् । तोयेशानिलयोर्मध्ये रोदनं मंदिरं ततः ॥ कामोपभोगसदनं वायुकौबेरमध्यमे । कौबेरैशानयोर्मध्ये चिकित्सामंदिरं सदा ॥ गृहं हरीशयोर्मध्ये सर्ववस्तुसुसंग्रहम् । सदनं कारयेदेवं क्रमादुक्तानि षोडशेति ॥ २१॥
अथ विशेषमुपजातिकयाहजीवार्कविच्छुक्रशनैश्चरेषु लग्नारिजामित्रसुखत्रिगेषु ॥ स्थितिः शतं स्याच्छरदां सिताप्रेज्ये तनुभ्यंगसुते शते दे॥२२॥
जीवार्केति ॥ अत्र योगद्वये ग्रहस्थानयोर्यथासंख्यं संबंधः । यथा जीवो लग्ने अकोऽरौ षष्ठे विद्रुधो जामित्रे सप्तमे शुक्रश्चतुर्थे शनिस्तृतीये एवंविधे लग्ने प्रारब्धस्य गृहस्य स्थितिरब्दशतं वर्षशतं स्यात् । अयमेको योगः । सितेति शुक्रो लग्ने अर्कस्तृतीये आरः षष्ठे ईज्यः पंचमे एवंविधे प्रारब्धस्य गृहस्य स्थितिढे शते वर्षशतद्वयं स्यात् ॥२२॥
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मुहूर्तचिंतामणी
अथान्यद्योगद्वयमिंद्रवंशयाहलग्नांबरायेषु भृगुज्ञभानुभिः केंद्रे गुरौ वर्षशतायुरालयम् ॥ ist of शशी कुजार्कजौ लाभे तदाशीतिसमायुरालयम् २३
लग्नांबरायेष्विति || अत्रापि योगद्वये स्थानग्रहयोर्यथासंख्यं संबंध: । लग्ने शुक्रः दशमे बुधः एकादशे सूर्यः लग्नव्यतिरिक्तकेंद्रे गुरुः तदैवंविधे योगे प्रारब्ध आलयः गृहं वर्षशतमायुरवस्थानं यस्य तादृशं स्यात् । अथ द्वितीयः बंधाविति चतुर्थे गुरुः दशमे चंद्रः मंगलशनैश्चरावेकादशे तदा गृहमशीतिसमा वर्षाण्यायुर्यस्य तादृशं स्यात्॥२३॥ अथान्यद्योगत्रयमनुष्टुभाह—
२१८
स्वोचे शुक्रे लग्नगे वा गुरौ वेश्मगतेऽथवा ॥
शनौ स्वोच्चे लाभगे वा लक्ष्म्या युक्तं चिरं गृहम् ॥ २४ ॥ स्वोच्च इति ।। स्वोच्चस्थमीनस्थे शुक्रे लग्नगते अथवा स्वोच्चस्थे कर्कस् गुरौ चतुर्थस्थानगते सति अथवा स्वोच्चस्थे तुलास्थे शनौ एकादशस्थानगते सति चिरं लक्ष्म्या युक्तं गृहं स्यात् । यदा समुदायो भवेत् तदा पतनावधि लक्ष्म्या युतं स्यात् ॥ २४ ॥
अथ गृहस्य परहस्तगामित्वयोगमनुष्टुभाह
यूनांबरे यदेकोऽपि परांशस्थ ग्रहो गृहम् ॥ अब्दांतः परहस्तस्थं कुर्याद्वर्णोऽबलः ॥ २५ ॥
air इति ॥ एकोsपि ग्रहोत्युत्कृष्टशुभफलदाता परांशस्थः सन् यदि द्यूने सप्तमे स्यात् अथवां बरे दशमे स्यात् तदा स ग्रहः तगृहं प्रारब्धं अब्दांत ः वर्षमध्ये एव परहस्तस्थं अन्यहस्तगामि कुर्यात् । चेद्वर्णः ब्राह्मणादिवर्णस्वामी विप्राधीशौ भार्गवेज्यावित्याद्यभिहितः स चेदबलः स्यात् यदा स्ववर्णाधीशः सबलः स्यात्तदा परहस्तगामि न स्यादित्यर्थः ॥ २५ ॥
अथान्यं विशेषं वसंततिलकयाह
पुष्यध्रुवेंदु हरिसर्पजलैः सजीवस्तद्वासरेण च कृतं सुतराज्यदं स्यात् ॥ दीशाश्वितक्षवसुपाशिशिवैः सशुक्रेबारे सितस्य च गृहं धनधान्यदं स्यात् ॥ २६ ॥
पुष्येति ॥ पुष्यः ध्रुवाणि प्रसिद्धानि इंदुर्मृगः हरिः श्रवणः सर्प आश्लेषा जलं पूर्वापाढा एतैर्नक्षत्रैः सजीवैः गुरुयुक्तैः तद्वासरेण गुरुवासरेण कृतं कर्तुमारब्धं गृहं सुतान् पुत्रान् राज्यं च ददाति तादृशं स्यात् अत्र संमतिर्वसिष्ठनारदवाक्यतः । द्वीशेति । द्वीशं विशाखा
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वास्तुप्रकरणम् ।
२१९
अश्विनी तक्षः चित्रा वसुर्धनिष्ठा पाशी शतभम् शिव आर्द्रा एतैर्नक्षत्रैः सशुक्रः शुक्रसहितैः सितस्य शुक्रस्य वासरे च कृतं गेहं धनानि सुवर्णादीनि धान्यानि व्रीह्मादीनि ददाति तादृशं गृहं स्यात् । तथा च नारदः । श्रवणाषाढयोश्चैव रोहिण्यां चोत्तरात्रये । गुरुवारे कृतं वेश्म राजयोग्यमिहोच्यते ॥ तगृहे जातपुत्रस्य राज्यं भवति निश्चयात् । अत्र वसिष्ठवा - क्ये नक्षत्राधिख्यं तदनुसारेण मूल नक्षत्राभिधानम् । ईज्योत्तरात्रयाहीं दुविष्णुधातृजलोडुषु । गुरुणा सहितेषु कृतं गेहं श्रियान्वितमिति वसिष्ठोक्तेः । अश्विनीशततारासु विशाखा - भाद्रचित्रके । धनिष्ठा शतभे शुक्रसंयुक्ते शुक्रवासरे ॥ तद्वेश्मनि प्रजातस्तु कुबेरसदृशो भवेत् । अत्रापि नक्षत्रभेदैः प्राग्वत्समाधिः || २६ ||
अथान्यद्योगद्वयमिंद्रवज्जयाह
सारैः करेज्यांत्यमघांबुमूलैः कौजे हि वेश्माग्निसुतार्तिदं स्यात् ॥ सज्ञैः कदास्रार्यमतक्षहस्तैज्ञस्यैव वारे सुखपुत्रदं स्यात् ॥ २७ ॥
सारैरिति ॥ हस्तपुष्यरेवती मघापूर्वाषाढामूलैः सारैमंगलसहितैः कौजे भौमसंबंधिनि अह्नि वारे कृतं गृहं अनिसुतार्तिदं अग्निपीडां सुतपीडां ददाति तादृशं स्यात् । उक्तं च । मूलं च रेवती चैव कृत्तिकाषाढमेव च । एषु भौमेन युक्तेषु वारे तस्यैव निर्मितम् । अग्निना दह्यते कृत्स्नं पुत्रनाशश्च जायत इति । सज्ञैरिति । रोहिण्यश्विन्युत्तराफाल्गुनीचित्राहस्तैः सज्ञैः बुधयुक्तैः ज्ञस्य च वारे कृतं गृहं सुखदं पुत्रदं च स्यात् । उक्तं च । हस्तार्यमत्वाष्ट्रदात्रचतुरास्येंदुभेऽपि च । सबुधे बुधवारे च धनपुत्रसुखप्रदमिति ॥ २७ ॥
अथान्यं योगमनुष्टुभाह
अजैकपादहिर्बुः पशक्रमित्रानिलांतकैः ॥
समंदैर्मेदवारे स्याद्रक्षोभूतयुतं गृहम् ॥ २८ ॥
अजैकपादिति । पूर्वाभाद्रपदोत्तराभाद्रपदाज्येष्ठानुराधास्वातीभरणीनक्षत्रैः सदेः शनैश्चरयुक्तैः मंदस्यैव वारे च प्रारब्धं गृहं रक्षोभिर्भूतैश्च युतं स्यात् । उक्तं च । अजपाद्वितये याम्यमित्रेंद्रानिलभेऽपि वा । समंदे मंदवारे च गृह्यते यक्षराक्षसैः । पुत्रे जातेऽथवा तस्मिन् गृह्यते यक्षराक्षसैरिति । अत्रायं निकृष्टोऽर्थः पूर्वं गृहारंभनक्षत्राण्यवधेयानि ततो वृषवास्तुचक्रे शोध्यानि पश्चादिदं योगपंचकं विचार्यम् एवं गृहारंभः शुभफलदो भवेत् २८ अथ केषांचिन्मतेन द्वारचक्रं सफलं शार्दूलविक्रीडितेनाह
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सूर्यर्क्षायुगभैः शिरस्यथ फलं लक्ष्मीस्ततः कोणभैर्नागैरुद्रसनं ततो गजमितैः शाखासुसौख्यं भवेत् ॥
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२२०
मुहूर्तचिंतामणौ देहल्यां गुणतिर्ग्रहपतेमध्यस्थितैर्वेदभैः सौख्यं चक्रमिदं विलोक्य सुधिया द्वारं विधेयं शुभम् ॥२९॥ इति मुहूर्तचिंतामणौ वास्तुप्रकरणं समाप्तम् ॥ सूर्यादिति ॥ सूर्याधिष्ठितनक्षत्रात् युगभैश्चतुर्भिर्नक्षत्रैः शिरसि उपरि अवस्थितैः फलं कर्तुर्लक्ष्मीप्राप्तिः स्यात् ततः । नागभैः अष्टभिः कोणगैः कोणेष्ववस्थितैः उद्वसनं जनावासरहितं स्यात् तदअभैर्गजमितैरष्टमितैरशाखास्थितैहखामिनः सौख्यं स्यात् तदनिमः गुणभैस्त्रिभिर्नक्षत्रैर्दैहल्यामवस्थितैर्गृहस्वामिनो मृतिः स्यात् ततस्तदग्रिमैवेदभैश्चतुर्भिर्नक्षत्रैः मध्यरूपे अवकाशे स्थितैः सौख्यं स्यात् फलितार्थमाह । चक्रमिति । इदं चक्रं विलोक्य सुधिया शुभं शुभफलदं द्वारं विधेयं कर्तव्यमिति अनेनोपसंहरति ॥ २९ ॥ इति मुहूर्तचिंतामणिटीकायां प्रमिताक्षरायां द्वादशं वास्तुप्रकरणं समाप्तम् ॥
॥अथ गृहप्रवेशप्रकरणप्रारंभः॥ अथ गृहप्रवेशप्रकरणं व्याख्यायते । तत्र प्रवेशश्चतुर्धा । अपूर्वप्रवेशः सपूर्वप्रवेशः ईहाभयप्रवेशः वधूप्रवेशश्चेति । तत्र वधूप्रवेशस्यान्वर्थसंज्ञकत्वाल्लक्षणं नोक्तम् स च प्रागभिहितः । अन्येषां लक्षणमाह वसिष्ठः । अपूर्वसंज्ञः प्रथमप्रवेशो यात्रावसाने तु सपूर्वसंज्ञः । द्वंद्वामयस्त्वग्निभयादिजातस्त्वेवं प्रवेशस्त्रिविधः प्रदिष्ट इति । नवगृहं निर्माय यः प्रथमः प्रवेशः सोऽपूर्वसंज्ञः प्रवेशः यस्तु यात्रानिवृत्त्यनंतरं गृहप्रवेशः स सपूर्वसंज्ञः यस्तु अग्निभयेनाग्निदाहेन आदिशब्देन क्रुद्धेन राज्ञा पातनेन गृहनाशस्तगृहं यदा पुनः संपाद्यते तस्मिन् यः प्रवेशः स द्वंद्वाभय इत्युच्यते अन्वर्थसंज्ञा चेयम् । द्वंद्वं शीतोष्णम् अत्र शीतशब्देन जलम् उष्णशब्देनाग्निरुच्यते लक्षणया जलालावेनानवरतवृष्टिपातेन वा गृहपातस्तजलभयम् अग्निकृतदाहेन यो गृहनाशस्तदग्निभयम् तस्माच्छीतोष्णरूपात् द्वंद्वात्पुनरुत्थापनेन यदभयं तत् द्वंद्वाभयमित्युच्यते द्वंद्वाभयं विद्यते यस्मिन्नित्यर्थः । अर्शआदिभ्योऽ. जिति मत्वर्थीयोऽच् प्रत्ययः । तादृशः प्रवेशो द्वंद्वामय इति । तत्रापूर्वसपूर्वप्रवेशयोः कालशुद्ध्यादिकमिंद्रवंशयाहसौम्यायने ज्येष्ठतपोंऽत्यमाधवे यात्रानिवृत्तौ नृपतेनवे गृहे ॥ स्याडेशन द्वास्थमृदुधुवोडुभिर्जन्मक्षलग्नोपचयोदये स्थिरे ॥ १॥
सौम्यायने इति ॥ एषु सौम्यायन इत्यादिकेषु पदार्थेषु सत्सु नृपतेर्यात्रानिवृत्ती अथवा नवे नूतनोत्थापिते गृहे वेशनं प्रवेशनं स्यात् अत्र सौम्यायन इति मंदबुद्धीनां शीघ्रप्रतिपच्यर्थम् ज्येष्ठेति ज्येष्ठमाघफाल्गुनवैशाखेष्वेव सत्यप्युत्तरायणे प्रवेशनं शुभम् । मारदः । अपि सौम्यायने कार्य नववेश्मनवेशनम् । राज्ञा यात्रानिवृत्तौ चेति तथा माघफा
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गृहप्रवेशप्रकरणम् ।
२२१ ल्गुनवैशाखज्येष्ठमासेषु शोभनः । प्रवेशो मध्यमो ज्ञेयः सौम्यकार्तिकमासयोरिति मध्यमोक्तिरावश्यकविषया । द्वास्थेति यस्मिन्गृहे प्रवेशः कर्तुमिष्यते तस्य यस्यां दिशि मुखं तद्दि
क्षत्रैः पूर्वादिषु चतुर्दिक्षु सप्तसप्तानलक्षत इत्याद्युक्तैर्मृदुध्रुवनक्षत्रैः प्रवेशनं स्यात् । यद्दिक्द्वारं मंदिरं तद्दिगृक्षरुक्तः स्यात्स प्रवेशो न सर्वेरिति वसिष्ठोक्तेः । अन्यदपि तत्रैव । अर्कानिलेयादितिदस्त्रविष्णुऋक्षे प्रविष्टं नवमंदिरं यत् । अब्दत्रयात्तत्परतस्तु यातं शेषेषु धिष्ण्येषु च मृत्युदं स्यादिति । जन्मक्षति । जन्मः जन्मराशिः जन्मलग्नं प्रसिद्धम् ताभ्यामुपचयं तृतीयषष्ठदशमैकादशस्थानं तस्मिन् उदये लग्ने स्थिरे स्थिराख्ये वृषसिंहवृश्चिककुंभाख्ये लग्ने प्रवेशनं शुभम् । नारदः । कर्तुर्जन्मभलग्ने वा ताभ्यामुपचयेऽपि वा । प्रवेशलग्ने स्याद्बुद्धिरन्यभे शोकनिःस्वतेति । सौम्ये स्थिरे भे शुभाष्टियुक्ते लग्नेऽथवा द्वयंगगृहे विलग्ने इति च सौम्यग्रहयुक्ते द्वचंगे द्विस्वभावराशौ ॥ १ ॥ ___ अथ जीर्णगृहप्रवेशे विशेषमिंद्रवजयाहजीर्णे गृहेऽन्यादिभयान्नवेऽपि मार्गोर्जयोः श्रावणिकेपि सत्स्यात् ॥ वेशोऽबुपेज्यानिलवासवेषु नावश्यमस्तादिविचारणाऽत्र ॥२॥
जीर्णगृह इति ॥ जीणे पुरातनेऽन्यनिर्मिते गृहे अग्निभयात् अग्निना दाहात् आदिशब्देन बहुवृष्टिराजकोपाद्युपद्रवात्पतिते गृहे पुनरपि सम्यगेव कृते उत्थापिते पूर्वोक्ताः। सर्वेऽपि मासा ज्ञेयाः । किंच मार्गोर्जयोः मार्गशीर्षकार्तिकयोश्च श्रावणिकेऽपि श्रावणेऽपि वेशः प्रवेशः सन् शुभफलदः स्यात् । सनत्कुमारः। गृहारंभोदितैर्मासैर्धिष्ण्यैवीरैविशेगृहमिति । अत्र सामान्यतो गृहारंभोदिता मासा गृहप्रवेशेऽभिहिताः । ते च । सौम्यफाल्गुनवैशाखमाघश्रावणकार्तिकाः । मासाः स्युर्गृहनिर्माणे पुत्रारोग्यधनप्रदा इति नारदोक्तेर्मार्गशीर्षफाल्गुनवैशाखमाघश्रावणकार्तिकाः विहिताः। तत्रोत्तरायण एव गृहप्रवेशस्य वाक्यांतरेण विहितत्वात् श्रावणकार्तिकमार्गशीर्षाणामुत्तरायणत्वाभावात् विरोधे नूतनजीर्णगृहप्रवेशाभ्यां व्यवस्था । कथं प्रागभिहितनारदवाक्येन उत्तरायणसाहचर्येण नूतनगृहप्रवेशपूर्वप्रवेशयोर्विधानात् गृहारंभोदितैर्मासैरित्यनेन तु सामान्यतस्त्रिविधस्यापि प्रवेशस्य विधानादुत्तरायणीयमासास्त्रिविधगृहप्रवेशे शुभाः । दक्षिणायनीयमासाः श्रावणादयस्तु जीर्णगृहप्रवेशविषयाः । अत एव नारदो मार्गशीर्षकार्तिकयोनूतनप्रवेशे मध्यमत्वमाह । अर्थादेव जीर्णगृहप्रवेशे उत्कृष्टत्वमध्यवस्यते । अंबुपेति । अंबुपः शततारका ईज्यः पुष्यः अनिलः स्वाती वासवं धनिष्ठा एषु भेषु जीर्णगृहे अग्न्यादिभयान्नवेऽपि गृहप्रवेशः शुभः प्राक् पद्योक्तनक्षत्रेषु त शुभ एवेति कैमुतिकन्यायादवगम्यते । ज्योतिःप्रकाशे । प्रवेशो नतने हम्य ध्रुवैभित्रैः सुखाप्तये । पुष्यस्वातीयुतैस्तैस्तु जीणे स्याहासवद्वये इति । नावश्यमिति अत्रैवंविधे जीणे गृहे अन्यादिभयान्नवेऽपि आवश्यकमस्तादिविचारणा शुक्रास्तगुर्वस्तबाल्यवार्धकसिंहस्थ
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२२२
मुहूर्तचिंतामणौ गुर्वादिदोषाणां विचारणा विचारो नास्ति अस्तादयः कालदोषाः संतु मा वा संतु तथापि गृहप्रवेशः कार्यः । सोऽपि पंचांगशुद्धिमात्रमंगीकृत्य विहितनक्षत्रेष्वेव कार्यः । ज्योतिःप्रकाशे । नित्ययाने गृहे जीणे प्राशने परिधानके । वधूप्रवेशे मांगल्ये न मौढ्यं गुरुशुक्रयोरिति । वसिष्ठः । नवप्रवेशे ह्यथ कालशुद्धिर्न द्वंद्वसौपूर्विकयोः कदाचित् । प्रवेशपंचांगदिने मुलग्ने वास्त्वर्चनं पूर्ववदेव कुर्यात् । पूर्ववदेव नूतनप्रवेशे यथा वास्तुपूजा तथा द्वंद्वसौपूविकयोरपि कार्येत्यर्थः । नारदेन तु यात्रानिवृत्तिप्रवेशे कालशुद्धिरपेक्षितैवेति तद्वाक्यं प्राग. भिहितं तदेतयोर्वाक्ययोरावश्यकानावश्यत्वेन व्यवस्था । अत्र त्रिविधेऽपि प्रवेशे प्रवेशनक्षत्रं क्रूराक्रांतं क्रूरविद्धं वा सर्वथा वर्ण्यम् । वसिष्ठः । क्रूरग्रहाधिष्ठितविद्धभं च विवर्जनीयं त्रिविधप्रवेश इति ॥ २॥
अथ गृहप्रवेशदिनात् प्राकर्तव्यवास्तुपूजां विवक्षुस्तन्नक्षत्राणि उपजातिकापूर्वार्धेनाहमृदुधुवक्षिप्रचरेषु मूलभे वास्त्वचनं भूतबलिं च कारयेत् ॥
मृदुष्टुवेति ॥ एषु सप्तदशसु नक्षत्रेषु वास्तुपुरुषस्यार्चनं भूतबलिं च कारयेत् . गृहपतिर्वास्तुपूजां च कुर्यात् । पुरोहितो गृहपतिं वास्तुपूजादि कारयेत् । हूक्रोरन्यतरस्यामित्यणौ कर्तुः कर्मत्वम् । वास्तुपूजाप्रकारमाह । वसिष्ठः । निर्माणे मंदिराणां च प्रवेशे त्रिविधेऽपि च । वास्तुपूजा प्रकर्तव्या यस्मात्तां कथयाम्यतः ॥ गृहमध्ये हस्तमात्रं समंतात्तं. डुलोपरि । एकाशीतिपदं कार्य तिलैस्तुल्यं सुशोभनम् । एकद्वित्रिपदाः पंच चत्वारिंशत्सुरार्चिताः । द्वात्रिंशद्वाह्यतो वक्ष्यमाणाश्चांतस्त्रयोदश ॥ तेषां स्थानानि नामानि वक्ष्यामीश्वरकोणतः । तत्राग्निः शंभुकोणस्थस्त्वसौ चैकपदेश्वरः ॥ तस्माहितीयः पर्जन्यश्चासावेकपदेश्वरः । जयंतेंद्रार्कसत्याख्या भृशश्च द्विपदेश्वराः ॥ आकाशवायुपरतः क्रमादेकपदेश्वरौ । एवं प्राच्यां नव ज्ञात्वा त्वेवमेवान्यदिक्षु च ॥ आद्यश्चांत्यावेकपदौ द्विपदाः पंचमध्यगाः । शिख्याद्यष्टावाकाशांता अमराः पूर्वभागगाः ॥ आद्यश्चात्यावेकपदी द्विपदाः पंच मध्यगाः । पूषाद्यष्टौ यमांताः स्युरमरा याम्यभागगाः । आद्यश्चात्यावेकपदौ द्विपदाः पंच मध्यगाः । अष्टौ पितृगणाधीशात् पापांताः पश्चिमे सुराः ॥ आद्यंतौ द्वावेकपदौ द्विपदाः पंच मध्यगाः । रोगादिदित्यंतसुराः सप्त सौम्यदिशि क्रमात् ॥ तत्राधस्थचतुःकोणे त्वीशानादिष च क्रमात् । आपः सावित्रविजयरुद्राश्चैकपदेश्वराः ॥ मध्ये नवपदो ब्रह्मा तस्यैशानादिकोणगाः । आपवत्सोऽथ सविता विबुधाधिपसंज्ञकः ॥ राजयक्ष्मा च चत्वारः सुराश्चैकपदेश्वराः । ब्रह्मणः पूर्वतो दिक्षु त्रिपदाश्चामरा अमी ॥ अर्यमा च विवस्वांश्च मित्रः पृथ्वीधरः क्रमात् । स्वस्वस्थलेषु देवेषु स्थापितेवीदृशं भवेत् । कोणेषु पंचपंचैव चतुर्थैकपदाः सुराः । प्रागादिदिक्षुद्विपदाः पंच पंच यथाक्रमम् ॥ ब्रह्मणः पूर्वतो दिक्षु द्विपदाः स्युः समीपगाः । हिरण्यरेताः पर्जन्यो जयंतः पाकशासनः ॥ सूर्यः सत्यो भूशाकाशौ वायुः
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गृहप्रवेशप्रकरणम् ।
२२३ पूषा च वै तथा । गृहक्षतः पितृपतिर्गंधर्वो भंगराजकः ॥ मृगः पितृगणाधीशस्तथा दोवारिकाह्वयः । सुग्रीवः पुष्पदंतश्च जलाधीशो निशाचरः ॥ शोषः पापश्च रोगोहिर्मुख्यो भलाट एव च । सोमसपी दित्यदिती द्वात्रिंशदमराः स्मृताः ॥ आपश्चैवापवत्सश्च जयो रुद्रस्तथैव च । मध्ये नवपदो ब्रह्मा तस्थौ तस्य समीपगाः ॥ प्राच्या व्यंतरिता देवाः परितो ब्रह्मणः स्मृताः । अर्यमा सविता चैव विवस्वान्विबुधाधिपः ॥ मित्रोऽथ राजयक्ष्मा च तथा पृथ्वीधरः क्रमात् । आपवत्सोऽष्टमः पंचचत्वारिंशत्सुरोत्तमाः ॥ ज्ञात्वैवं स्थानमानानि बह्मणा सहितान् न्यसेत् । वास्तुज्ञो वास्तुमंत्रेण गंधपुष्पाक्षतादिभिः ॥ प्रणवेनार्चयेद्वापि अथवा स्वस्वनामभिः । शुक्लवस्त्रयुगं दद्याडूपदीपफलैः सह ॥ अपूर्भूरिनैवेद्यैर्वाद्यैः सह समर्चयेत् । तांबूलं च ततो दद्याद्देवेभ्यश्च पृथक् पृथक् ॥ दत्वा पुष्पांजलिं कर्ता प्रार्थयेद्वास्तुपूरुषम् । वास्तुपुरुष नमस्तेऽस्तु भूशय्यानिरत प्रभो ॥ मगृहं धनधान्यादिसमृद्धं कुरु सर्वदा । इति प्रार्थ्य ततो दद्याद्दक्षिणामर्चकाय च ॥ विप्रेभ्यो भोजनं दत्त्वा स्वयं भुंजीत बंधुभिः । एवं यः कुरुते सम्यग्वास्तुपूजां प्रयत्नतः ॥ आरोग्यं पुत्रपौत्रादि धनं धान्यं लभेन्नरः । वास्तुपूजामकृत्वा यः प्रविशेन्नवमंदिरम् ॥ रोगान्नानाविधान्क्लेशानभुते बहुसंकटम् ॥ इति वसिष्ठसंहितायां वास्तुशांतिः ॥ नारदादयः पंचांगशुद्धिमात्रयुक्ते पूर्वदिने एव वास्तुपूजामाहुः । विधाय पूर्वदिवसे वास्तुपूजां बलिक्रियामिति तृतीयश्लोकार्धस्य टीका ॥
अथ लग्नशुद्धिं तिथिवारशुद्धिं चोपजातिकोत्तरार्धेनेंद्रवजया चाहत्रिकोणकेंद्रायधनत्रिगैः शुभैलग्ने त्रिषष्ठायगतैश्व पापकैः ॥ ३ ॥
शुद्धांबुरंधे विजनुर्भमृत्यौ व्यर्काररिक्ताचरदर्शचैत्रे ॥ अग्रेऽबुपूर्ण कलशं द्विजांश्च कृत्वा विशेद्वेश्म भकूटशुद्धम् ॥४॥ त्रिकोणेति ॥शुद्धांबुरंध्र इति ॥ नवमपंचमप्रथमचतुर्थसप्तमदशमैकादशद्वितीयतृतीयस्थानानामन्यतमस्थानस्थितैः शुभैरुपलक्षिते तथा तृतीयषष्ठैकादशस्थानस्थैः पापग्रहैरुपलक्षिते च ॥३॥ तथांबु चतुर्थस्थानं रंध्रमष्टमस्थानं तस्मिन् शुद्धे सर्वग्रहरहिते अंबुरंधे यस्मिन् तादृशे लग्ने गृहं विशेत् । कीदृशे लग्ने जनुर्भमृत्यौ भं राशिर्लग्नं च जनुषि जन्मकाले भे जनुर्भे ताभ्यां मृत्युरष्टमभवनं जनुर्भमृत्युः विगतो जनुर्भमृत्युर्यस्मिन् स्वजन्मलग्नात् स्वजन्मराशेर्वाऽष्टमराशिः प्रवेशलग्ने नापेक्षित इत्यर्थः । पुनः कीदृशे लग्ने । व्यर्काररिक्ताचरदर्शचैत्रे अर्कारौ प्रसिद्धौ वारौ रिक्ताः ४, ९, १४ उपलक्षणत्वाद्दग्धतिथयोऽपि चरलग्नानि मेषकर्कतुलामकराख्यानि तदंशाश्च दर्शोऽमावास्या चैत्रमासः विगता अर्कादयो यस्मिन् । अर्कादयः प्रवेशदिने निषिद्धा इत्यर्थः । अग्र इति । गृहप्रवेशसमये जलपूर्ण कलशं स्वसंमुखं कृत्वा द्विजान्ब्राह्मणांश्चाग्रे रुत्वा वेश्म गृहं विशेत् । वसिष्ठः । कृत्वा शुक्र पृष्ठतो वामतोऽर्क विप्रान् पूज्यानग्रतः पूर्णकुंभम् । रम्यं हयं तोरणस्वग्वितानैः
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मुहूर्तचिंतामणी
स्त्रीभिः स्रग्वी गीतवाद्यैविशेत्तदिति । अयं विधिः प्रवेशे साधारणः । कीदृशं वेश्म भकू - शुद्धं भकूटं षष्ठाष्टकादि उपलक्षणत्वाद्विवाह प्रकरणोक्तं वर्णो वश्यं तथा तारेत्यादिकं च तेनापि शुद्धम् । वसिष्ठः । राशिकूटादिकं सर्व दंपत्योरिव चितयेदिति ॥ ४ ॥
अथ वामगतार्कज्ञानं पूर्वादिमुखगृहप्रवेशं चेंद्रवंशयाह
वामो रविर्मृत्युसुतार्थलाभतोऽर्के पंचभे प्राग्वदनादिमंदिरे ॥ पूर्णा तिथौ प्राग्वदने गृहे शुभो नंदादिके याम्यजलोत्तरानने ॥ ५ ॥
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वामी रविरिति ॥ अष्टमपंचमद्वितीयैकादशस्थानेभ्यः पंचसु स्थानेषु स्थिते ral सति प्राग्वदनादिके मंदिरे प्रवेष्टव्ये गृहप्रवेशकर्तुर्वामो रविज्ञेयः । यथा यस्मिँल्ने गृहप्रवेशः कर्तुमिष्यते तस्मादष्टमं यत्स्थानं ततः पंचसु स्थानेष्वर्के सति पूर्वाभिमुखे गृहे प्रवेशकर्तुर्वामः सूर्यः स्यात् । तथा लग्नाद्यत्पंचमस्थानं ततः पंचसु स्थानेषु रवौ स्थिते दक्षिणाभिमुखे वामोऽर्कः । तथैव लग्नाद्यत् द्वितीयस्थानं ततः पंचसु स्थानेषु रवौ स्थिते पश्चिमाभिमुखे गृहे वामोऽर्कः । तथैव लग्नाद्यदेकादशस्थानं ततः पंचसु स्थानेषु सूर्ये स्थिते उत्तराभिमुखे गृहे प्रवेशकर्तुर्वामः सूर्य इत्यर्थः । उक्तं च । रंध्रात्पुत्राद्धनादायात्पंचस्व स्थिते क्रमात् । पूर्वाशादिमुखं गेहं विशेद्वामो भवेद्यत इति । पूर्णातिथाविति । प्राग्वदने पूर्वाभिमुखे गृहे पूर्णातिथौ पंचम्यां दशम्यां पूर्णिमायां वा प्रवेश: नंदादिके तिथिगणे याम्यजलोत्तरानने गृहे प्रवेशः शुभः । यथा । दक्षिणाभिमुखे गेहे नंदायां प्रतिपदि षष्ठ्यामेकादश्यां वा प्रवेशः शुभः । जलं पश्चिमादिक् तद्दिङ्मुखे गृहे भद्रायां द्वितीयायां सप्तम्यां द्वादश्यां वा प्रवेशः शुभः । उत्तराभिमुखे गृहे जयायां तृतीयायामष्टम्यां त्रयोदश्यां वा प्रवेशः शुभः । गुरुः नंदायां दक्षिणद्वारं भद्रायां पश्चिमामुखं जयायामुत्तरद्वारं पूर्णायां पूर्वतो विशेत् इति ॥ ९ ॥
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अथ गृहप्रवेशे कलशवास्तुचक्रं शार्दूलविक्रीडितेनाह
वक्रे भूरविभात्प्रवेशसमये कुंभेऽग्निदाहः कृताः प्राच्यामुद्रसनं कृता यमगता लाभः कृताः पश्चिमे ॥ श्रीर्वेदाः कलिरुत्तरे युगमिता गर्ने विनाशो गुदे रामाः स्थैर्यमतः स्थिरत्वमनलाः कंठे भवेत्सर्वदा ॥ ६ ॥ व भूरिति । गृहप्रवेशसमय इति सर्वत्रापि संबध्यते । कुंभे कलशाकृतिवास्तौ रविभात् सूर्याक्रांतनक्षत्रात् ल्यब्लोपे पंचमी । रविभमारभ्य कलशस्य मुखे भूरेकं सूर्याकांतनक्षत्रमेव स्थाप्यम् तत्फलं गृहस्याग्निदाहः ततः सूर्यभात्कृताः अग्रिमाणि चत्वारि भा प्राच्यां स्थाप्यानि फलमुद्वसनं जनवासशून्यं गृहं स्यात् ततः कृता यमगताः तदनिमाणि चत्वारि भानि दक्षिणे स्थाप्यानि फलं गृहपतेर्लाभः द्रव्यप्राप्तिः ततः कृताः पश्चिमे
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गृहप्रवेशप्रकरणम् ।
२२५ तदग्रिमाणि चत्वारि भानि पश्चिमायां स्थाप्यानि फलं गृहपतेः श्रीप्राप्तिः ततो वेदा उत्तरे तदग्रिमाणि चत्वारि भानि उत्तरस्यां स्थाप्यानि फलं कलिः लोकैः सह गृहसंबंधी निरर्थको वादः झकटः स्यात् । ततो युगमितास्तदग्रिमाणि चत्वारि भानि गर्भ कलशमध्ये स्थाप्यानि फलं विनाशो गर्भस्यैवेत्यर्थः । ततो रामास्तदग्रिमाणि त्रीणि भानि गुदे बध्ने स्थाप्यानि फलं स्थैर्य गृहपतेबहुकालं तत्र निवासः। ततोऽनलास्तदग्रिमाणि त्रीणि भानि कंठे स्थाप्यानि फलं स्थिरत्वं गृहपतेर्भवेत् । एवमभिहितानि सप्तविंशति भानि स्युः । ज्योतिःप्रकाशे भूर्वेदपंचकं त्रिस्त्रिः १, ४,४,४,४,४,३,३ प्रवेशे कलशेऽर्कभात् । मृतितिर्धनं श्रीः स्याद्वैरं शुक् स्थिरता सुखमिति । अत्र कलशचक्रे शुभफलस्थाने याते सत्येव विहितनक्षत्राणां परिग्रहो युक्तस्तत्रापि यदिङ्मुखे प्रवेशे विधित्सिते तद्दिङ्मुखनक्षत्रपरिग्रहः। यथा पूर्वस्यां प्रवेशे विधित्सिते रोहिणी मृगो वा ग्राह्यः दक्षिणमुखग्रहप्रवेशे उत्तराफाल्गुनी चित्रे एवंपश्चिमाभिमुखे अनुराधोत्तराषाढे एवं उत्तराभिमुखे उत्तराभाद्रपदारेवत्यौ ग्राह्ये इति निष्कृष्टोऽर्थः । अत एवोक्तं वसिष्ठेन । यदिग्द्वारं मंदिरं तद्दिगृक्षैरुक्तक्षैः स्यात्सन्निवेशो न सर्वैरिति । तद्दिगृक्षैरिति उक्तःरिति वानयोः सामानाधिकरण्येनान्वयः भिन्नवाक्ये तु चकारः कर्तव्यः स्यात् अतएव अर्कानिलेयादितिदत्रविष्णुऋक्षे प्रविष्टं नवमंदिरं यत् । अब्दत्रयात्तत्परहस्तमेति शेषेषु धिष्ण्येषु च मृत्युदं स्यादिति निषेधोऽप्युपपन्नो भवति ॥ ६॥
अथ गृहप्रकरणप्रवंशोपसंहारं सूचयन्प्रवेशोत्तरकालीनकर्तव्यविधिमुपजात्याहएवं सुलग्ने स्वगृहं प्रविश्य वितानपुष्पश्रुतिघोषयुक्तम् ।। शिल्पज्ञदैवज्ञविधिज्ञपौरान राजार्चयेद्भूमिहिरण्यवस्त्रैः॥७॥ इति श्रीदैवज्ञ० मुहूर्तचिंतामणौ० त्रयोदशं गृहप्रवेशप्रकरणं समाप्तम् ॥ १३ ॥
एवं सुलग्न इति ॥ एवं प्रागुक्तप्रकारेण विचारिते सुलग्ने शोभनगुणयुते स्थिरराश्यादिके राजा वितानपुष्पश्रुतिघोषयुक्तं वितानानि सुवस्त्रमंडपाः पुष्पाणि खकालर्तुजानि मालत्यादीनि श्रुतिघोषो वेदध्वनिश्चतैर्युक्तं उपलक्षणत्वात्तोरणाद्यनेकमांगल्यवस्तुसहितमेतादृशं स्वसत्ताकं गृहं प्रविश्य पश्चात् शिल्पज्ञान् गृहोत्थापकान् स्थपतिवर्धक्यादीन् दैवज्ञान ज्योतिर्विदः विधिज्ञान् वास्तुपूजाभूतबलिगृहप्रवेशविधिज्ञान पुरोहितप्रभृतीन् पौरान् नागरिकान् पंडितदीनानाथांधकृपणांश्च भूमिहिरण्यवस्त्रैर्यथाशक्त्या व्यस्तैः समस्तैर्वा उपलक्षणत्वादश्वादिभिर्वा अर्चयेत्पूजयेत् । अत्र विशेषमाह वसिष्ठः । यहास्तुपूजारहितं त्वदत्तबलिं त्वनाच्छन्नगृहं विरूपम् । कपाटहीनं न विशेद्यतस्तत्सर्वाऽपदामालयमेव तत्स्यादिति । तस्मात् कपाटमुपरिष्टादाच्छादितं कृतवास्तुपूजं दत्तबलिमेव गृहं प्रविशेत् । प्रवेशो
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मुहूर्तचिंतामणौ तरविधिमाह श्रीपतिः । ततो नृपो विप्रसुहृत्पुरोधसः शिल्पज्ञभूगोलविदश्च लिंगिनः ।। नैश्च रत्नैः पशुभिः समर्चयन् सदांधदीनान्पुरवासिनस्तथेति ॥ ७ ॥
इति श्रीदैवज्ञानंतसुतदैवज्ञरामविरचितायां स्वरूतमुहूर्तचिंतामणिटीकायां प्रमिताक्षरायां गृहप्रवेशप्रकरणं समाप्तम् ॥ अथ ग्रंथसमाप्तौ पितामहवर्णनं शार्दूलविक्रीडितेनाह
आसीद्धर्मपुरे षडंगनिगमाध्येतद्विजैर्मडिते ज्योति-. वित्तिलकः फणींद्ररचिते भाष्ये कृतातिश्रमः॥ तत्तज्जातकसंहितागाणितकृन्मान्यो महाभूभुजां तर्कालंकृतिवेदवाक्यविलसहुद्धिः स चिंतामणिः ॥१॥ आसीदिति ॥धर्मपुरे नर्मदातीरग्रामविशेषे प्रसिद्धश्चितामणिरासीत् । किंभूते धर्मपुरे षडंगानि शिक्षादीनि तानि विद्यते यस्य एतादृशो यो निगमो वेदस्तस्याध्येतारो ये द्विजा ब्राह्मणादयस्तैमैडिते भूषिते । कीदृशश्चितामणिः ज्योतिर्वित्सु तिलक इव ज्योतिवित्तिलकः ज्योतिर्विच्छेष्ठ इत्यर्थः । पुनः कीदृशः फणींद्रः शेषनागः तद्रचिते भाष्ये महाभाष्ये कृतोऽतिश्रमोऽत्यभ्यासो येन । पुनः कीदृशश्चितामणिः तत्तज्जातकसंहितागणितकृत तानि तानि स्वल्पबृहदादिभेदेनानेकविधजातकानि जातकशास्त्राणि संहिताः संहिताशास्त्राणि गणितानि गणितशास्त्राणि करोति तादृशः । पुनः कीदृशः महाभूभुजां मान्यः पूज्यः । पुनः कीदृशः तकोलंकृतिवेदवाक्यविलसद्बुद्धिः तर्कों न्यायशास्त्रं अलंकृतिः अलंकारशास्त्रम् वेदवाक्यं वेदवाक्यविचारप्रतिपादको ग्रंथो मीमांसाशास्त्रं वेदांतशास्त्रं च तेषु विलसतीति विलासयुक्ता बुद्धिर्यस्य सः ॥ १॥ अथ क्रमप्राप्तं तातवर्णनं तेनैव रत्तेनाह
ज्योतिर्विद्गणवंदितांघ्रिकमलस्तत्सूनुरासीत्कृती नाम्नाऽनंत इति प्रथांमधिगतो भूमंडलाहस्करः ।। यो रम्यां जनिपद्धति समकरोढुष्टाशयध्वंसिनी टीकां चोत्तमकामधेनुगणितेऽकार्षीत्सतां प्रीतये ॥२॥ ज्योतिर्विदिति ॥ तत्सूनुस्तस्य चिंतामणिदैवज्ञस्य सूनुः पुत्रोऽनंत इति नाम्न प्रथां ख्यातिमधिगतः प्राप्त आसीत् । कीदृशः ज्योतिर्विद्गणवंदितांधिकमलः ज्योतिर्विदा गणेन समूहेन वंदितं चरणकमलं यस्य सः । पुनः कीदृशः भूमंडलेऽहस्कर इव अध्यापनद्वारा प्रकाशक इत्यर्थः । पुनः कीदृशः कृती कुशलः ग्रंथकरणसमर्थ इति शेषः ग्रंथकर्तृत्वमेवोत्तरार्धेन प्रकाशयति यो रम्यामिति । जनिपद्धति जातकपद्धतिं दुष्टाशयध्वंसिनी
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महप्रमा
गृहप्रवेशप्रकरणम् ।
२२७ जन्मपद्धतिमार्गसंप्रदायानभिज्ञास्तेषामाशयमभिप्रायं ध्वंसयति इति दुष्टाशयध्वंसिनी करोत् । तथा । उत्तमे ब्रह्मपक्षार्यपक्षप्रतिपादके कामधेनुगणिते ग्रंथविशेषे टीकां च प्रीतयेऽकार्षीत् कृतवानित्यर्थः ॥२॥ अथ स्वनामकथनपूर्वक ग्रंथसमाप्ति पृथ्वीछंदसाह
तदात्मज उदारधीविबुधनीलकंठानुजो गणेशपदपंकजं हृदि निधाय रामाभिधः॥ गिरीशनगरे वरे भुजभुजेषुचंद्रे( १५२२)मिते शके विनिरमादिमं खलु मुहूर्तचिंतामणिम् ॥३॥
॥ इति श्रीदैवज्ञरामविरचितमुहूर्तचिंतामणिः समाप्तः॥ तदात्मज इति ॥ तस्यानंतस्यात्मजो . रामाभिधो गिरीशनगरे वाराणस्यां मुहूर्त तामणि मुहूर्तचितामणिनामधेयं ग्रंथं भुजभुजेषुचंद्र (१५२२) मिते शके द्वाविंशत्यकपंचदशशतमिते शके विनिरमात् अकार्षीत् शेषं स्पष्टम् ॥ ३ ॥ 'इति श्रीदैवज्ञानंतसुतदैवज्ञरामविरचितायां वकृतमुहूर्तचिंतामणिटीकायां प्रमिताक्षरायां शवर्णनम् ॥ ॥॥ ॥ श्रीकृष्णार्पणमस्त ॥ . ॥ ७ ॥ शभंभवत ॥ ७ ॥
इदं पुस्तके अन्यानि च संस्कृतपुस्तकानि मुम्बापुर्या कालिकादेव्या राजमार्गे रामवाज्ञके स्थले भगीरथात्मजहरिप्रसादस्य पुस्तकालये तथा कानपुरनगरे हनुमान्दासवनभिस्य पुस्तकालये यथायोग्यमौल्येन मिलिष्यति ॥
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