Book Title: Jain Tattva Mimansa ki Samiksha
Author(s): Chandmal Chudiwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अ इस और अनेकान्ताय नमः जैन तत्त्व मीमांसा की समीक्षा लेखक - विद्वान् ब्रह्मचारी पं० चांदमलजी चूड़ीवाल नागौर (राजस्थान ) **: प्रकाशिका Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MET-ART श्री शांतिसागर जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था चार्य श्रीशान्तिवीर नगर । पोष्ट - श्रीमहावीरजी (राजस्थान) आश्विन श्रीवीरनिर्वाण संवत् २४८८ अक्टूबर १६६२ For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशिका अ. शान्तिसागर जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था आचार्य श्री शांतिवीर नगर श्रीमहावीरजी सेठ हीरालाल पाटनी निवाई वाले For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवश्यक निवेदन अनन्तधर्मणस्तत्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः । अनेकान्तमयी मूर्तिनित्यमेव प्रकाशताम् । मंसारका एक नाम दुनिया है । यह द्विनया शब्दका अपभ्रंश है । इसका अर्थ होता है कि जितना लौकिक पारमार्थिक व्यवहार अथवा कथन है वह सब दो नय-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनो नयोंकी अपेक्षा से ही चलता है । एक नयका आश्रयकर जो चलता है वह अपना अभीष्ट सिद्ध नही कर सक्ता सर्वज्ञकी वाणी भी यही कहती है कि--जितने पदार्थ हैं वे सव एक धर्म वाले नहीं हैं उनमें अनेक-बहुतसे अन्त-धर्म रहते हैं। उनका वर्णन भी अनेक प्रकार से हो सकता है परन्तु वचनमें एक साथ सव धर्मोके वर्णन करनेकी शक्ति न होनेसे एक धर्मका ही वर्णन एक समय में हो सकता है। वचन से जिस एक धर्मका वर्णन किया जारहा है उसके सिवा अन्य और भी बहुत से धर्म इस पदार्थ में है इस अभिप्रायको प्रगट करनेके लिये 'स्याद्' शब्दका प्रयोग किया जाता है । स्थाद् शब्दके अनेक अर्थ संस्कृत भाषामें होते हैं परन्तु अन्य अर्थका ग्रहण न कर यहां 'किसी अपेक्षा से' अथवा 'वर्णनीय धर्मकी मुख्यतासे अन्य धर्मोंकी गौणता रखकर यह कहना है' यह अर्थ लिया जाता है। इसी अर्थको कहनेवाली पद्धतिका नाम स्याद्वाद वाणी है। जैनाचार्योंने इसी पद्धतिका आश्रय लेकर तत्त्व विवेचन किया है। 'सर्वथा' पदार्थ नित्य ही है अथवा सर्वथा अनित्य ही है अथवा अमुक गुण से ही सहित है ऐसा मानना तत्त्वदृष्टि से बाधित है। इसका कारण यह है कि-एक पदार्थ में अपना सद्भाव रहता है और दूसरे पदार्थका असद्भाव--अभाव रहता ही है इस तरह For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ख ) भाव और प्रभाव परस्पर विरोधी होने पर भी दोनों गुण रहते इस स्यावाद पद्धतिका आश्रय लेकर वर्णन करनेवाले बहुत कम लोग देखे जाते हैं । जो लोग अपने को जैन समझते हैं और तत्त्व चर्चा में प्रवीण समझे जाते हैं, वे भी इसके प्रयोग करने में चोखा खा जाते हैं। इसका कारण यह है कि-लोग स्वाद्वाद का 'है भी, नहीं भी है' ऐसा गलत अर्थ प्रायः समझते हैं। पदार्थ में कौन सा गुण किस अपेक्षा से रहता है इस अपेक्षा बादको जो समझते हैं वे तो सही अर्थ में स्याद्वाद का प्रयोगकर अभीष्टार्थ पालेते हैं और जो इसको नहीं समझ पाते, वे विपरीत अर्थका श्रद्धान कर लेते हैं। आज वल अनेक विवाद जो दि जैन समाजमें फैल रहे है उसमें यह अपेक्षा बादका अज्ञान भी कारण है। ___पं० फूलचंदजी मिद्धांत शास्त्री वन रस ने जैन तत्त्वमीमांसा नामकी पुस्तक कानजी मतकी पुष्टिमें लिखी है उसमें इस स्याद्वादका खूब ही दुरुपयोग किया है । इतना ही नहीं, इसमें उपचार अभूतार्थ आदि शब्दोंका अर्थ भी अन्यथा लगाकर तत्त्वमीभांसाया उपहास किया गया है। विद्वान् ब्रह्मचारी चांदमल जी चूडीवालने युक्ति और श्रागमके बल से पंडितजोकी मीमांसाकी ममीक्षा की है इसको पढने से लोगों के ज्ञान में समीचीनता आवेगी । सोनगढका प्रचार विभाग अति उद्योगी है। आधुनिक जितने साधन उपलब्ध हैं, उन सबका उपयोग कर लेने में सिद्धहस्त है। यही कारण है कि-इन लोगोंके मतका प्रचार दिन पर दिन वढ रहा है दि० जैन समाजमें समीचीन दर्शन ज्ञान चारित्र की दिन पर दिन वृद्धि होती रहे और भ्रान्त धारणओंका निरसन होता रहे इसलिये यह पुस्तिका प्रकाशित की गई है। इसमें कानजी मतको आगम विरुद्ध सभी मान्यताओंका विवेचन विस्ता For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ग ) रसे किया गया है । इसके पढनेसे तत्त्वज्ञान यथार्थ रीतिसे होगा और पं० फूलचंदजी ने मीमांसा नाम रख कर भी जो वकील की तरह इक तरफा पार्ट अदा किया है उसका भी रहस्य समझ में आजायगा। किसी भी विवाद प्रस्त विषय का निर्णय करते समय न्यायाधीशके समान दोनों पक्षकी समस्त युक्तियोंका निष्पक्ष हो कर मनन करना चाहिये और फिर आगमके आलोकमें उसका निश्च । करना चाहिये । यही एक ऐसी निर्दोष पद्धति है जिससे यथार्थ श्रद्धान ज्ञान होकर आत्मामें विशुद्धि निकषायता आती है। जो लोग किसी कषायकी पुष्टि करने के लिये जैन तत्त्वोंका अन्यथा प्ररूपण करते हैं, वे अपनी चतुराई से भले ही उसके प्रवारमें सफल हो जाय और लोगों में सम्मान भी पा लें परन्तु अशुभ कर्मबंधके बंधन से वे नहीं बच सक्ते, परिपाक समय आने पर उसका अशुभ फल-दुख उन्हें भोगना ही पड़ेगा। ____ भाई कानजी ने और उनके भक्तोंने, जिन जिन ऋषि प्रणीत शास्त्रों से उनके मतका पाषण नहीं होता परन्तु वे शास्त्र दिगम्बर जैन संप्रदायमें सर्वोपरि मान्य हैं तो उन सबका हिंदी गुजराती अर्थ बदल दिया है और अपने मतकी पुष्टि करनेवाला स्वकल्पित व्याख्यान लिख दिया है। इतना ही नहीं, उसको छपाकर अल्पमूल्य अथवा विनामूल्यसे वितरण कर समस्त दिगम्बर जैन शास्त्र भंडारों में पहुँचा भी दिया है। इस तरह इन्होंने वर्तमान की तरह भविष्य में भी दि० जैन स्त्री पुरुषों के यथार्थ श्रद्धान में परिवर्तन कर देने का असत् प्रयास किया है। पुरातन ऋषि प्रणीत प्रथ प्राकृत संस्कृत भाषाओं में हैं इस लिये संस्कृत प्राकृत भाषाओंके ज्ञाता निर्लोभी आत्म कल्याणेच्छु विद्वान तो भ्रममें न पडेगें परन्तु वे हैं ही कितने ? आज कल तो लोभी लालची रुपयोंके पीछे अपनी विद्वत्ताका दूसरों के अभि For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (घ ) प्राय प्रचारमें खर्च कर देने वाले ही अधिक दीखते हैं । वील लोग जैसे मेहनताना लेकर अपने मुवक्किल का पक्ष सत् अम्त युक्तियोंसे पुष्ट कर दिखाते हैं वैसे ही ये लोग लिखाईका रुपया वसूलकर द्रव्य दाताके पक्ष की पुष्टि कर दिखात है । परन्तु ये लोग वकील और अपने वीचके इस अंतरको भूल जाते हैं कि वकील तो एक आदमी का अहित करता है और न्यायाधीश उसके अहित को वचा भी सक्ता है । परन्तु शास्त्रोंका विपरीत अर्थ अनन्त जीवों का अहित करता है । जैसा भविष्य दीख रहा है उससे संस्कृत प्राकृतज्ञ विद्वानों का सर्वाथा अभाव ही होता जायगा एसा जान पड़ता है। आजकलके पंडित लंग भी जब हिंदी भाषाके ग्रंथों का ही पठन पाठन करते नजर आते हैं तर आगे तो और भी यह भाषा का स्वाध्याय जोर पकड़ेगा । अतः प्रत्येक स्वपर हितैषी दि० नका कर्तव्य है कि-यह सावधान होकर भंडारों में शास्त्र मंग्रह करे। स्वयं भी शास्त्र पढ़ते समय देखले कि-इसका अनुवाद किसने किया है और किस जगह से प्रकाशित हुआ है । आजकल जैले खादा आदि पदार्थों में मिलावट अधिक होने लगी है और उम मिल्लावटी मालकी विक्री करने में जो जितना चतुर होता है वह उतना ही अपना स्वार्थ सिद्ध करलेता है। इसी तरह दिगम्बर जैन समाजमें भी श्वेतावर जैनों की शाखाएं स्थानकवासी इ'ढिया आदि के मानने वाले लोग मिलावटी शास्त्र चलाने लगे हैं। जिस पुरुष वा मन प्रसिद्धि पानेका हुआ, जिसके मन्में जो बात ठीक जंच गई वही शास्त्र का नाम रखकर मनमोहक आकार में छपाकर इम भोली दिगम्बर जैन समाज में अपने मिलावटी शास्त्र का व्यापार शुरू कर देता है । दि० जैन लोग समझते हैं कि हमारी समाज में अमुक व्यक्ति सामिल हो गया तो हमारी संख्या बढ़ गई परन्तु यह नहीं विचारते कि-यह हममें मिला है तो For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ङ ) हमारा अहित करने और अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये तो नहीं मिला है। यह हमारे समाज में मिल रहा है अथवा हमें अपने समाज में मिल रहा है । इस बातका विचार करना तो दूर रहा इसके विपरीत यह देखा जाता है कि इनका आदर सत्कार भी खूब किया जाता है। शास्त्रजी की गद्दी पर इनको बैठाकर इनके मुख से उपदेश सुना जाता है और इनके रचे हुए प्रन्थों को छपाने मं द्रव्य की सहायता भी दी जाती है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस तरह दिगम्बर जैन आम्नाय के शास्त्रों और उनके अनुयायियों के लिये यह समय बड़ा नाजुक है। समय रहते हम न चेते तो असली दिगम्बर जैन धर्म का क्या स्वरूप है यह सर्व साधारण न जान सकेंगे और तब सर्वज्ञ वीतरागोपदिष्ट वाणी से जो जगत् का हित साधन होना चाहिये, वह न हो सकेगा । धन्यवाद आश्विन सुदी १० श्रीवीर सं० २४५८ अक्टूबर १६६२ सम्यग्ज्ञान का संसार में प्रचार हो, लोग मिथ्यात्व के फेर में पड़कर अपना अहित न कर बैठें इसलिये नीचे लिखे महानुभावों ने इस "जैन तत्र मीमांसा की समीक्षा" नामक पुस्तक के प्रकाशन में सहायता दी है एतदर्थ वे धन्यवाद के पात्र हैं। अन्य लोगों को भी आपका अनुकरण कर इस सनातन दिगम्बर जैन धर्म के तत्त्वों के प्रचार में सहायक बनना चाहिये । ५०००) सेठ पारसमलजी, कासलीवाल, बालू दावाले, कलकत्ता २५१) ब्रह्मचारी पन्नालाल उमाभाई अहमदाबाद १००) सेठ भंवरीलालजी वाकलीवाल, मनीपुर ( आसाम ) १००) सेठ गोविंदलालजी अग्रवाल, फरमेसगंज ( बिहार ) ५१) गुप्त दान ० श्रीलाल जैन काव्यतीर्थ महामंत्री - संस्था For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रयोमार्ग के ग्राहक बनिये। आचार्य श्री शांतिसागर जी की स्मृति में स्थापित श्री शांतिसागर जैन सिद्धांत प्रकाशिनी संस्था द्वारा यह पत्र निकलता है। इसके आदि प्रवर्तक स्व० स्याद्वाद बारिधि पं० खूबचन्दजी शास्त्री हैं | सम्पादक ७० श्रीला न जी जैन काव्यतीर्थ और व० सूरजमलजी शास्त्री हैं। प्रकाशक सेठ हीरालाल जी पाटनी हैं। धार्मिक लेखों से भरपूर, शास्त्र स्वरूप यह पत्र आचार्य श्री शांतिवीर नगर पो० श्रीमहावीरजी से मुद्रित है यह पत्र कोई समाचार पत्र नहीं है। वार्षिक मूल्य ६) छह रुपया है । तथा जो साल भर के ग्राहक बनते है उन्हें अनेक ग्रन्थ भी उपहार में मिलते हैं । तारीफ करना व्यर्थ है। आप भी इसके ग्राहक बनके देखिये और पढकर स्व-पर कल्याण कीजिये । ___ यह पत्र धर्म प्रचारार्थ मन्दिर-अजैन, लाइब्रेरी पुस्तकालय शास्त्र भण्डार, आदिको अर्द्ध मूल्य यानी ३) तीन रुपया वार्षिक में भेजा जाता है इसमें उपहार ग्रंथ नहीं मिलते हैं। निवेदक। सुरेन्द्र कुमार जैन श्रेयोमार्ग-कार्यालय आचार्य श्री शांति वीर नगर श्रीमहावीरजी (राजस्थान) For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Ans ।। श्रीमदनेकान्ताय नमः ॥ जैनतत्त्वमीमांसा की समीक्षा मंगलाचरण अर्हसिद्धाचार्यान सदुपाध्याय सर्वसाधूश्च। वंदित्वा संवादये फूलचन्द्रस्य जैनतत्त्वमीमांसां ॥ श्रीयुत प० फूलचन्द्र जी ने निश्चय एकान्त का समर्थन करते हुये एक "जनतत्वमीमासा" नामकी पुस्तक प्रकाशित की है। प्रसकी समीक्षा यहां उचित जानकर की जाती है। इस में नीचे खि १२ अधिकार है। For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २ जैन तत्त्व मीमांसा की (१) विषय प्रवेश ( २ ) वस्तुस्वभाव मीमांसा (३) निमिन्त क स्वीकृति (४) उपादान निमित्त मीमांसा ( ५ ) कर्तृकर्ममीमांसा (६) षटकारकमीमांसा ( ७ ) क्रम नियमित पर्याय मीमांसा ( 5 ) सम्यक नियति स्वरूप मीमांसा ( ( ) निश्चय व्यवहार मीमांसा (१०) अनेकान्त स्यादवाद मीमांसा ( ११ ) केवल ज्ञान स्वभाव मीमांसा (१२) उपादान निमित्त सम्बाद | इन बारह अधिकारों में सर्वत्र कानजी स्वामी के निश्चय एकान्तका समर्थन किया गया है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परन्तु वस्तु स्वरूपका ज्ञान केवल निश्चय नयसे ही नहीं होता । व्यवहार नय का भी शरण लेना पड़ता है। इसका कारण यह है कि व्यवहार नय वस्तु के विचार करने में विवादग्रस्त विषयों को सुलझाने में वस्तु स्वरूप में संदेह होने पर उनका समाधान करने में समर्थ है । व्यवहार नय सापेक्ष निश्चय नय का आलम्बन हितकर है। इस बात की पुष्टि पंचाध्यायी ग्रन्थ से हो जाती है । "नैवं यतो वलादिह विप्रतिपत्तौ च संशयापत्तौ । वस्तुविचारे यदि वा प्रमाण मुभयालम्बितज्ञानम् ।।" अर्थात् बिना व्यवहार नयका अवलम्बन किये केवल निश्चय जयसे ज्ञानमें प्रमाणता ही नहीं आ सकती है क्यों कि पदार्थों नेक धर्मात्मक है और एक नय एक ही धर्म का वर्णन कर सकती है। नय प्रमाण का अंश है। वह दो भागों में बटा हुआ है । एक द्रव्यार्थिक नय जिसको निश्चय नय कहते हैं। दूसरा पर्यायार्थिक नय, जिसको व्यवहार नय कहते हैं । द्रव्यार्थिक नयका विषय द्रव्याश्रित है और पर्यायार्थिक नयका विषय द्रव्यकी पर्याय है. For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा इसलिये एक को छोड़कर एक नय निरपेक्ष नहीं रह सकती। कारण यह है कि द्रव्य है वह गुण और पर्यायवान है इसलिये द्रव्य से गुण भी अलग नहीं रह सकते और गुणों का परिणमन रूप पर्याय भी गुणों से अलग नहीं हो सकती क्यों कि वह उसका परिणमन है । “गुणपर्य यवत् द्रव्यम्" तत्वार्थ सूत्रमें द्रव्यका लक्षण ऐसा ही किया है अर्थात् “च अन्वयिनो गुणा व्यतिरेकिणः पर्यथाः उभयैरुपेतं द्रव्यमिति"। "उक्त च-गुण इदि दव्वविहाण दवबियारोहि पज्जवो भणिदो तेहि अणूणं दव्यं अजुदंपसिद्ध हवे दन्यं ।।" __ इस कथन से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों ही नय सापेक्षही प्रमाण भूत हैं सत्यार्थ है निरपक्ष दोना ही नय मिथ्या है। यही बात न्यायदापिका में कहा है। "अनेकान्तोप्यनेकांतः प्रमाणनयसाधनः । निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तुतोऽर्थकृत् ॥" अर्थात् प्रमाण नयों से सिद्ध होने वाला अनेकान्त भी अमेकान्त है तथा नय है वह प्रमाण का अंश है इसलिये प्रमाण स्वरूप वस्तु स्वरूप को सिद्ध सापेक्ष दोनों नयों से ही होती है। यदि निश्चय और व्यवहार यह दोनों नय निरपेक्ष रख कर केवल एक नय द्वारा हो वस्तु स्वरूप की सिद्धि कोई करना चाहे तो उसके द्वारा वस्तु स्वरूप की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि निरपेक्ष नय मिथ्या है उनसे वन्तु स्वरूप नहीं बनता इसका कारण यह है कि वह विवक्षित वस्तु के एक देश का ही ग्रहण करता है सर्वांश का नहीं । और बातु स्वरूप आंशिक रूप नहीं है सोश रूप है वह निरपेक्ष नय द्वारा सिद्ध होता नहीं । इस कारण निरपेक्ष नय मिथ्या है । चाहे वह निश्चय नय हो अथवा व्यवहार नय हो अतः वस्तु स्वरूप की सिद्धि निश्चय व्यवहार सापेक्ष नय द्वारा ही For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्व मीमांसा की ' v -~ vv. ...... होती है । एक नय की अपेक्षा एक नय रखकर जो कथन किया जाता है उनसे वस्तु स्वरूप का शुद्धाशुद्ध रूप सर्वाश ग्रहण हो जायगा वह प्रमाण स्वरूप है अतः जीवकी शुद्धाशुद्ध रूप अवस्था द्वोनों नथ द्वारा सिद्ध है । संसार अवस्था में जीवकी अशुद्ध अवस्था है और मुक्त जीव की शुद्ध अवस्था है। यह शुद्धाशुद्ध रूप जीव की दोनों ही पर्याय हैं वह यथार्थ है इस यथार्थता का प्रतिपादन सापेक्ष दानों नयों द्वारा होता है। इसलिये दोनों ही नय सापेक्ष सत्यार्थ हैं मापेक्ष नय ही वस्तु स्वरूप के प्रतिपादन करने में समर्थ होता है, निरपेक्ष नय नहीं होती। इस लिये आचार्य कहते हैं कि-वस्तु स्वरूप प्रतिपादन करने में एक नय को मुख्य और दूसरी नय को गौण रखकर वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करोगे तो वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन हो सकेगा__ "अस्तिानर्पितसिद्धः" ___ तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५ अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाद् यस्य कस्यचिद्धर्मस्य विवक्षया प्रापितं प्राधान्यातमुनीतमिति यावत् । तद्विपरीतमनर्षितम् प्रयोजनाभावात् सतोऽथ विवक्षा भवतीत्युपसत्र मीभूतम गतिमित्युच्यते । तथा द्रव्यमपि सामान्याणिया नित्यं विशेष प्रणयाऽनित्यमिति नास्ति विरोवः । तौ च सामन्यविशेषी कथंचित भेदाभेदाभ्यां व्यवहारहेतू भवतः ॥ सर्वार्थासद्धिः । ___ अर्थात् सर्व वस्तु अनन्त धर्मात्मक भेदाभेद रूप है इसलिये उसके प्रतिपादन करने में दोनों नयों का मामय प्रयोजनीभूत है। असः जहां पर अभेदरूप वस्तु का निर्विकास विचार किया For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा raamrrormwwwwron मायगा वहां पर निश्चय नय का आलम्बन होगा और जहां पर भेद रूप सविकल्प वस्तु का विचार किया जायगा वहां पर व्यवहार नय का आलम्बन लेना पड़ेगा अतः श्रेणो चढ़ने के प्रथम सातवें गुणस्थान तक मुख्यतया व्यवहार नय का ही पालम्बन है क्योंकि वहां तक निर्विकल्पध्यान नहीं होता इसलिये वहां तक व्यवहार का हो शरण लेना पडता है । जैसा कि समयसार नाटक में कहा है । देखो जावाधिकार"ज्यों नर कोउ गिर गिरसों तिहि होइ हितू जो गहैं दृढ़वाही स्यों बुधको विवहार भलो जवलों तवलों शिवनापति नाही यद्यपि यो परमाण तथापि सधे परमारथ चेतनमाही। जीव अव्यापक है परसों विवहार मों तो परकी परछाई" ॥ इस कथन से जय तक मोक्ष प्राप्त नहीं होती तब तक विद्वानों को व्यवहार का साधन करना चाहिये यह बात प्रमाण भूत है। जैसे कोई मनुष्य पहाड़ से गिरता हुआ वह यदि अपनी भुजा के द्वारा किमी पदार्थ को पकड़ कर रहें तो वह गिरने से बच सकता है । तेसे ही यह जाव नर्क निगोदादि में पतन करता हुआ यदि यह व्यवहार धर्म का प्राश्रय ले तो वह नर्क निगोदादि के पतन से बच सकता है । इमलिये जब तक मोक्ष (पर के संयोग से सर्वथा मुक्त निश्चय नथ का विषय भूत शुद्ध स्वरूप वाला ) न हो तब तक व्यहार धर्म के आश्रय रहना योग्य है तब ही आत्मा में परमार्थ की सिद्धि हो सकती है अन्यथा नहीं । संसार में कोई प्राणी दुखी रहना नहीं चाहता-सब सुखा रहना चाहते हैं । और सुख का साधन है व्यवहार धर्म। "धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निरवाण । धर्म पंथ साधे विना यह नर तियंचसमान॥" For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की armirmwar.mmmmmmmmwwwwwwrimar ... अर्थात् व्यवहार धर्म से संसार के सुख मिलते हैं। और . उमी व्यवहार धर्मके निमित्त से ही अनन्त सुखमय मोक्ष प्राप्त करने की इस संसारी जीव में योग्यता प्राप्त होती है। अर्थात् उत्तम देश काल का पाना, उत्तम कुल का पाना, उत्तम शरीर का पाना, उत्तम धर्म का पाना, उत्तम सत्संगति का पाना उत्तम व्रतों का धारण होना इत्यादि ये सब योग्यता इस जीव को व्यवहार धर्म के आश्रय से ही प्राप्त होती है और योग्यता प्राप्त हुए विना जीव को मोक्ष की भी प्राप्ति दुर्लभ हो नहीं संभव ही है । इसलिये जब तक मोक्ष की प्राप्ति न हो तब तक व्यवहार को छोडकर अधर्म का सेवन कर संसार में दुःखी रहना महान मूखता है । जैसाकि ग्रीष्म ऋतु की धूप में छाया में न बैठकर धूप में बैठने के समान है इसलिये जब तक मोक्ष की प्राप्ति न हो तब तक व्यवहार ही शरण है ऐमा उक्त छन्द का अभिप्राय है। अत: जो व्यवहार को छोडने से परमार्थ की सिद्धि होना मानते है, वे विष में अमृतकी कल्पना करते हैं। कुन्दकुन्दाचार्य कहते है कि जे जीव श्रद्धा के तथा ज्ञान चारित्र के पूर्ण भाव को नहीं पहुंच पाये हैं साधक अवस्था में अवस्थित हैं उनके लिये व्यवहार का ही उपदेश देना योग्य है। "सुद्धो सुद्धादेसो णादब्बो परमभावदरिसीहिं । व्यवहार देसिदो पुण जेदु अपरमे ठिदा भावे" । १२ समयमा अर्थात् परमभावदर्शी जे शुद्ध नय ताईपहुंचि श्रद्धागन भये तथा पूर्णज्ञान चारित्रवान् भये तिनिकरितो सुद्ध का है श्रादेश कहिये आज्ञा उपदेश जामें ऐसा शुद्ध नय जानने योग्य है । वहुरि जे पुरुष अपर भाव कहिये श्रद्धा के तथा ज्ञान चारित्र के पूर्ण भाव को नहीं पहुंचे हैं-साधक अवस्था में तिष्ठे हैं। तिनिके For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा WAPAR यवहार का देशपणा है अथवा ते व्यवहारकरि उपदेशने योग्य हैं। टीकायां द्वारकरि कहे हैं । जे पुरुष अन्त के पाक फेरि उतर्या जो शुद्ध सुवरण तिहस्थानीय जो वस्तु का उत्कृष्ट असाधारण भाव तिनिक अनुभव हैं, तिनिके प्रथम द्वितीय आदि अनेक पाक की परंपरा करि पच्यमान जो अशुद्ध सुवर्ण तिम स्थानिय जो अनुत्कृष्ट मध्यम भाव तिसके अनुभव करि शुद्धपणातें शुद्ध द्रव्य का श्रदेशीपणा करि प्रगट किया है अप लित अखंड एक स्वभाव रूप एक भाव जाने ऐसा शुद्ध नय है । सोही उपरि ही उपरि का एक प्रतिवर्शिका स्थानीयपणाव जान्या हुआ प्रयोजनवान है । बहुरि जे केई पुरुष प्रथम द्वितीय यादि अनेक पाक की परंपरा करि पच्यमान करि जो वही सुवर्ण तिसस्थानीय जो वस्तु का अनुत्कृट मध्यम भाव ताकू अनुभव है, तिनिके अन्त के पाक करि ही उतरया जो शुद्ध सुवर्णतिम स्थानीय वस्तु का उत्कृष्ट भाव ताका अनुभव करि शून्य पणातें अशुद्ध द्रव्य का आदेशीपणाकरि दिखाया है न्यारा न्यारा एक भाव स्वरूप अनेक भाव जाने ऐसा व्यवहार नय हैं। सोही विचित्र अनेक जे वर्णमाला तिस स्थानीयपणातें जान्या हुआ तिम काल प्रयोजनवान् है । जाते तीर्थ अर तीर्थ का फल Bf stafter ऐसा ही व्यवस्थित पना है। नीर्थ जा करि faरिए ऐसा तो व्यवहार धर्म र जो पार होना सो व्यवहार धर्म का फल, अपना स्वरूप का पावना सो तीर्थ फल है। इ उक्त' च गाथा जो जिणमयं पवज्जड़ ता मा, ववहार बिच्छये मुहय । एक्केण विणा छिज्जर तित्थं, अपणेण उण तच्चं । For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की अर्थ-आचार्य कहे है---जो हे पुरुष हो तुम जो जिनमतकू प्रवर्तावोहो तो व्यवहार अर निश्चय इनि दोऊ नयनिकू मति भूलो ( छोडो) जातें एक जो व्यवहार नय ताक दिना तो तीर्थ कहिये व्यवहार मार्ग ताका नाश होयगा । बहुरि अन्य नय कहिये निश्चय नय विना तत्त्व का नाश होयगा। इससे अधिक व्यवहार नय की और व्यवहार धर्म को क्या बुष्टि होगी। आचार्य कहते है कि व्यवहार धर्म तो तीर्थ स्वरूप है जां करि तिरिये सो तीर्थ, तार्थ का फल संसार से पार होना यह दोनू ही कार्य व्यवहार धर्म से सिद्ध होते हैं अतः इम व्यवहार धर्म का नाश करके जो परमार्थ की सिद्धि चाहते हैं वे तीर्थ और तीर्थ के फलका नाश करने वाले हैं अतः तीर्थका (व्यवहार धर्मका) लोप करने वाला तीर्थ का फल जो तिरना पार होना उसको वह तीन काल में भी नहीं पा सकता है क्योंकि तीर्थ के विना तिरना नहीं होता है और तिरे विना पार होना कैमा ? इसलिये आ. चार्य कहते हैं कि जो संसार समुद्र मे तिरना चाहते हो तो पोत के समान जो व्यवहार धर्म उसको मत छोडो । उक्त च गाथाकार कहते हैं कि व्यवहार नय तो व्यवहार मोक्ष मार्ग है यह तीर्थ स्वरूप है और निश्चय नय है वह तत्त्व स्वरूप है इसलिये दोनू नष को जैनी हो तो मति छोडो क्योंकि व्यवहार नय को छोडने से धर्म तीर्थ का नाश होयगा और नियश्च नय को छोडने से तत्त्व स्वरूप (वस्तु स्वरूप) का नाश होयगा इसी बात का स्पष्टी करण करते हुए टोकाकार कलश रूप काव्य कहते है। "उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदांके। जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः । सपदि समयसारं ते परंज्योतिरुच्चै रनवमनयपक्षाचण्णमीक्षन्त एव ।।" For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा - अर्थ-निश्चय व्यवहार रूप जे दोय नय तिनिके विषय के भेदतें परस्पर विरोध है, तिस विरोध दूर करनहारा भ्यात्पद करि चिह्नित जो जिनभगवान का वचन तिस विष जो पुरःष रमें है प्रचुर प्रीति महित अभ्यास करें हैं ते स्वयं कहिये स्वयमेव आपे आप वम्या है मोह कहिये मिथ्यात्व कर्म का उदय जिनने ते पुरुष इस समयसार जो शुद्ध आमा अतिशय रूप परम ज्योति प्रकाशमान ताहि शीघ्र पावे हैं अवलोकन करे हैं । कैसा है समयसार ? अनव कहिये नवीन उपज्या नाही कमतें आच्छादित . था सो प्रगट व्यक्त रूप भया है। बहुरि कैसा है ? अनय कहिये जो मर्वथा एकान्त रूप कुनय ता की अपेक्षा कार अनुगण कहिये खंड्या न जाय है निर्वाध है । भावार्थ-जिन वचन स्याद्वाद रूप है जहा दोय नय के विषय का विरोध है, जैसे सद्रप है अमद्रप न होय, एक होय सो अनेक न होय, नित्य होय सो भनित्य न होय, भेद रूप होय सा अभेद रूप न होय, शुद्ध होय सो अशुद्ध न होय इत्यादिक नयनिक विषयनिविषं विरोध है । तहां जिन वचन कथं चत् विवक्षातें सत् असत् एक अनेक नित्य अनित्य भेद अभेद शुद्ध अशुद्ध जैसे विद्यमान वस्तु हैं तैसे कहि करि विराध मैटे है। झूठी कल्पना नाही करे है वातें द्रव्याथिक पर्यायार्थिक दोय नय में प्रयोजनके वशतें शुद्ध व्यार्थिक मुख्य करि निश्चय नय कहे हैं। अर अशुद्ध द्रव्यार्थिक रूप पर्यायार्थिक कू' गाण करि व्यवहार कहें हैं । ऐसे जिनवचन विर्षे जे पुरुष रमें हैं ते इस शुद्ध आत्मा कू यथार्थ पायें हैं। अन्य सर्वथा एकान्ती सांख्यादिक नाहीं पायें हैं। जातें सर्वथा एकान्त पक्षका वस्तु विषय नाहीं । एक धर्म मात्र ग्रहण करि वस्तु की असत्य कल्पना करे हैं। सो असत्यार्थ ही है गांधा सहित मिथ्याष्टि हैं ऐसे जानना । For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की इस कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि स्याद्वाद के द्वारा ही वस्तु स्वरूप की सिद्धि होती है। एकान्त बाद से नहीं अतः जो एकान्तवादी है वह मिथ्यादृष्टि है। क्योंकि एकान्त आद से वस्तु स्वरूप की सिद्धि नहीं होती और बस्तु स्वरूप समझे विना मोक्ष मार्ग में प्रवृत्ति नहीं होती अतः मोक्षमार्ग में "प्रवृत्ति का नहीं होना यही तो मिथ्याष्ट्रिपना है। जो व्यक्ति व्यवहार धर्म का लोपकर परमार्थ की मिद्धि चाहता है वह मोक्ष मार्ग में प्रवृत्ति कैसे करसकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता इसका भी कारण यह है कि मोचा मार्ग में प्रवृत्तिका करना वह व्यवहार है और वह व्यवहार का लोप करना चाहता है इमलिये व्यवहार लोपक की प्रवृत्ति मोक्षमार्ग में नहीं हो सकती है । ऊपर के कथन के दृशान्त द्वारा यह भी अच्छी तरह समझ में श्रा जाता है कि जब तक शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती तब तक व्यवहार नय और व्यवहार धर्म दोनू ही पुरुष कों मोक्ष प्राप्ति में हस्तावलम्बन की तुल्य है। अतः उस तीर्थ का लोप करने से परमार्थ का ही लोप होकर तीर्थ से प्राप्त होने वाला शुद्ध स्वरूप परमतत्त्व उसका भी नाश होगा । ऐसा प्राचार्यों का कहना है । किन्तु पण्डित फूलचन्द जो सिद्धान्त शास्त्री का इसके विपरीत यह कहना है कि व्यवहार का लोप करने से परमार्थ की सिद्धि होगी देखिये आपकी लिखी 'जैन - तत्त्वमीमांसा' पृष्ट । __“बहुत से मनीषी यह मानकर कि इससे व्यवहार का लोप हो जायगा ऐसे कल्पित सम्बन्धों को परमार्थ भूत मानने की चेष्ट करते हैं। परन्तु यही उनकी सबसे बड़ी भूल है। क्योंकि इस भूल के सुधरने से यदि उनके व्यवहार का लोप होकर परमाणे की प्राप्ति होती है तो अच्छा ही है ऐसे व्यवहार का लोप भवा For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा किसे इष्ट नहीं होगा ? इस संसारी जीव को स्वयं निश्चय स्वरूप बनने के लिये अपने में अनादि काल से चले आरहे इस श्रज्ञान मूलक व्यवहार वा ही तो लोप करना है उसे और करना ही क्या है वास्तव में देखा जाय तो यही उसका परम पुरुषार्थ है इसलिये व्यवहार का लोप हो जायगा इस भ्रान्ति श परमार्थ से दूर रह कर व्यवहार को ही परमार्थ रूप मानने की चेष्टा करना उचित नहीं है।" इस वक्तव्य में पंडितज ने व्यवहार को कल्पित ठहराया है इसलिये इस वहिपत त्याहार वा लोप करने के लिये परम ( उत्कृष्ट ) पुरुषार्थ करने की प्रेरणा की है। तथा व्यवहार को अज्ञान मूलक कह कर उसका लोप करने से परमार्थ की सिद्धि होगी इसलिये व्यवहार का लोप करना सबके लिये इष्ट है ऐसा उनका कहना है । अब इस पर श्रागम और युक्तियों द्वारा विचार करना है कि पंडितजी का यह कहना आगम और युक्ति संगत है या असंगत है। . अब बस्तु भेदाभेद रूप है तब वस्तु में भेद रूप व्यवहार करना कल्पित संबंध कैसा ? और उसका लोप करने में परमार्थ की सिद्धि कैसी क्योंकि परमार्थ, वस्तु में व्या हार द्वारा भेद उसके गुणों में ही तो किया जाता है न कि उ. के साथ भूठा म्वरूप सम्बन्ध जोडा जाता है ? कदापि नहीं । गुण गुणी में ही व्यवहार द्वारा भेद किया जाता है इसलिये वह भेद कल्पित-झूठा नहीं है सत्यार्थ है इसलिये गुणी के गुणों को कल्पित ठहराकर उसका लोप करने से परमार्थ स्वरूप गुणी काही लोप हो जायगा, फिर व्यवहार के लोप से परमार्थ की सिद्धि कैसी ? क्योंकि गुणों के अभाव में गुणी का अभाव अवश्य ही होगा क्योंकि कथंचित् निश्चय से गुण गुणी अमेद स्वरूप भी है और कथंचित् वह For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्व मीमांसा की व्यवहार से भेद रूप भी है अतः वस्तु भेदाभेद रूप होने से एक भेद के नाश में दूसरे भेद का अस्तित्व कायम नहीं रह सकता। इसलिये व्यवहार के लोप में परार्थ की सिद्धि चाहना स्वप्न मात्र हे असत्य है सातवें गुण स्थान तक व्यवहार का लोप नही होता वहां तक मविकल्प अवस्था है जहां तक सविकल्प अवस्था है तहा तक व्यवहार है हो । जहां पर'निजमाहि निजके हेत निजकरि आप को आपोगहयो। गुणगुणी ज्ञाताज्ञान ज्ञयमझार कुल भेद न रहयो" ॥ ऐमी अवस्था हो जाती है तहां पर निविकल्यध्यान है इसके पहिले मविकल्पध्यान है सो भा व्यवहार है इसलिये इसके पहिले ब्यवहार ही शरण है । देखो पंचाध्यायी"तस्मादाश्रयणीग: कांश्चित् स नयः प्रसंगत्वात् । अपि सविकल्पानामिन न अंयो निर्विकल्पबोधवतार" ६३६ अर्थात् प्रसंगवश किन्ही किन्ही को (श्रेणी के पूर्व वालों को) व्यवहारु नय भी आश्रयण य (आश्रय करने योग्य) है । वह सविकल्प बोधवालों के लिये ही प्राश्रय करना योग्य है। वह सवि. कल्पक बोध वालों के समान निर्विकल्पक बोध वालों के लिये वह व्यहार नय हितकारी नहीं है। अतः सविकल्पक बोध पूर्वक जो निर्विकल्पक बोध पा चुके हैं फिर उन्हें व्यवहार नय की शरण नहीं लेनी पड़ती है निश्चय नय की प्राप्ति के लिये ही व्यवहार नय का आश्रय लेना परमावश्यक है । तथा जहां शुद्धास्मानुभूति प्रगट हो जाती है यहां पर निश्चय नय का भी. आलम्बन छूट जाता है। जब तक नयों की पक्षपातता है तब तक शुद्धात्मा की अनुभूति प्राप्त नहीं होती, जो समयसार For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir mmr.wmmmmmmm.. समीक्षा ..mrrrrr ...mmmmmmmmmmmmmmmmmm..." रूप परमार्थ है । इस लिये निश्चय नय को परमार्थ भूत मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि उस समयसारभूत परमार्थ का बोध होना वह ज्ञानगम्य है, किसी नय का विषय नहीं है । नय तो द्रव्य श्रुत का अंश है इसलिये परोक्ष भी है कचित् जड़ रूप भी है और सविकल्प भी है। "सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीन इति" __इस कथन से निश्चय नय भी सविकल्प है और परार्थ है इसलिये वह भी सविकल्पक होने से व्यवहार नय की तरह अपरमार्थभूत ही है इसकारण आचार्थान इसको भा मिथ्या "उभय यं विभणिम जाणइ णवर तु समयपडिबद्धो । ण दु णयपक्खं गिव्हदि किंचिवि सयपक्सपरिहीणो" ॥ __अर्थात् दोय प्रकार के नय कहे गये हैं उन्हें सम्यग्दृष्टि जानता तो है परन्तु किसी मी नय के पक्ष को ग्रहण नहीं करता है। वह नयपक्ष से रहित है। "जे न करे नय पक्षविवाद धरे न विषाध अलीक न भाखें जे उदवेग तजे घट अन्तर सीतलभाव निरन्तर राखें । जे न गुणीगुगभेदविवारत आकुलता मनकी सब नाखें। ते जगमें धरि आत्मध्यान अखंडित ज्ञान सुधारस चाखें" कर्ता कर्म क्रिया द्वार "इत्युक्तम्पादपि सविकल्पवात्तथानुभूतेश्च । सोपि नयो यावत्परसमयः स च नयावलंबी" ६४७ ।। संचाग्यायी For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १४ जैन तत्र मीमांसा की I निश्चयावलम्बी को भी मिध्यादृष्टि कहा गया है क्योंकि निश्चय नय भी सविकल्पक है और जितना सविकल्प ज्ञान है वह सब ज्ञान अभूतार्थ है । मिथ्या है। इस कथन से निश्चय नव भी अभूतार्थं सिद्ध हो चुकी उसके द्वारा भी परमार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती इसलिये निश्चय नय को परमार्थ भूत मानना यह भी मिथ्या है | आचार्यों ने प्रमाण को सकलादेश माना है, उसके भी स्वार्थ और परार्थ रूप दो भेद हो जाते हैं, स्वार्थ प्रमाण ज्ञानात्मक है और परार्थ प्रमाण वचनात्मक द्रव्य श्रुत रूप है ! . अतः प्रमाण सकलादेशी होने पर भी द्रव्यं श्रुत प्रमाण चनात्मक है इसलिये वह परार्थ है । अतः परार्थ प्रमाण वस्तु को सकलादेश किस प्रकार ग्रहण कर सकेगा क्योंकि वस्तु स्वरूप वचनातीत है और परार्थ प्रमाण वचनात्मक है इसलिये वचन द्वारा वस्तु का सकलादेश प्रहरण हो नहीं सकता वह तो अनुभव गम्य है इसलिये परार्थ प्रमाण भी निश्चय नय की तरह अपरमार्थ भूत ही ठहरता है । । " द्रव्यार्थिक नय परियायार्थिक नय, दोऊ श्रुतज्ञान रूप श्रुतज्ञान तो परोक्ष है | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुद्ध परमात्माका अनुभौ प्रगट, तातें अनुभौ विराजमान अनुभौ अदोख है || अनुभौ प्रमाण भगवान पुरुष, पुराण ज्ञान और विज्ञानघन महासुख पोख है । परम पवित्रयो अनन्त नाम अनुभौके । अनुभौ विना न कहूं और ठौर मोख है" || For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा .. परमार्थभून तो . एक निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान ही है इसके अतिरिक्त सब अभृतार्थ ही है ! ऐसा मानना पड़ेगा परन्तु, आचार्यों ने श्रत प्रमाण को भी अ त केवली कहा है और निश्चय नय को भी भूतार्थ कहा है, तथा व्यवहार नय भी परमार्थ मार्ग सम्यग्ज्ञान रूपी है उसको भिन्न २ कर दिखाने वाला है सो भी सत्यार्थ है परमार्थ भूत है क्योंकि वस्तु का ज्ञान इन प्रमाण नयों के द्वारा ही होता है इसलिये भूतार्थ भी है । अभूतार्थ इसलिये हैं कि यह एक अखंडपिड वस्तु में भेद करके दिखाता है वस्तु अभेद रूप है उसमें भेद करना यह हो उसका अभूतार्थपणा है परन्तु वरतु में भेद करना यह झूठी कल्पना नहीं है। वस्तु भेदा और रूप है इसलिये उसका भेदाभेद रूप कथन करने वाले सर्ब ही नय और प्रमाण भूतार्थ हैं क्योंकि उसके विना भेदाभेद स्वरूप वस्तुका ज्ञान नहीं होता उसका ज्ञान कराने के लिये ही आचार्यों ने "प्रमाणनयैरधिगमः" ऐसा कहा है । अर्थात् प्रमाण और नयों के सही वस्तु का ज्ञान होता है, उसका लोप करने से वस्तु स्वरूप जानने रूप परमार्थ की सिद्धि कैसे होगी कदापि नहीं होंगी। यदि कहो कि शास्त्रों में व्यवहार नय को अभूतार्थ उपचरित' अपरमार्थ भूत कहा है, प्रमाण और निश्चय नय को अभूतार्थं चरित अपरमार्थ भूत नहीं कहा सो ठीक नहीं क्योंकि आचार्यो. तो निश्चय नय को भी सविकल मानकर मिथ्या कहा है। तथा छत प्रमाण परार्थ परोक्ष वह भी वस्तु स्वरूप को परोक्ष ही जानता है प्रत्यक्ष नहीं जान सकता इसलिए अपरमार्थ भूत भी कहा है। इसलिये केवल व्यवहार नय ही अपरमार्थ भूत क्यों ? यदि केवल व्यवहार नय ही अपरमार्थ भूत मिथ्या है तो "प्रमाणनयैरधिगम" इस सूत्र में वस्तु स्वरूप का बोध कराने में व्यवहार नय का महण किसलिये किया है ? किन्तु इस व्यवहार नय विना भो. For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ जैन तत्त्वमीमांसा का वस्तु स्वरूप का बांध नहीं होता इसलिये ही श्राचार्यों ने उसको : परमार्थ साधक बताया है। तथा ऐसा भी कहा है कि विना व्यवहार के परमार्थ का उपदेश करना अशक्य है फिर भला लोप करने से परमार्थ सिद्धि कैसी ? "जह ण वि सक्कमणज्जी अणज्जभासं विणा दुगाहेदु । तह बवहारेण विणा परमत्युव देसम सक्कं ||८|| समयप्राभृत । 1 टीका- यथा न शक्य: कोसौ अनार्यो म्लेच्छः किं कतु अर्थ ग्रहणरूपेण संबोधयितुं कथं अनार्य भाषाम्ले - च्छभाषा तां विना । दृष्टांतो गतः इदानी दाष्टान्तमाहतथा व्यवहारrयं विना परमार्थोपदेशनं कतुमशक्यं इति । अयमत्राभिप्रायः यथा कश्चिद् ब्राह्मणो यतिर्वा * लेच्छाल्ल्यांगतः तेन नमस्कारे कृते सति ब्राह्मणेन यतिना वा स्वस्तीति भणिते स्वस्त्यर्थम विनश्वरत्वमजानन्सन् निरीक्ष्यते मेष इवतथा, यमज्ञानी जनोऽयमात्मेति भणिते सत्यात्मशब्दस्यार्थमजानन् सन् भ्रांत्या निरीक्ष्यत एव । यदा पुनर्निश्चयव्यवहारज्ञपुरुषेण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि जीवशब्दस्यार्थ इति कथ्यते तदा संतुष्टो भूत्व जानासीति एवं भेदाभेद रत्नत्रयव्याख्यानमुख्तयतया गाथाद्वयेन द्वितीयं स्थलं गतं " | For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा wirrrr.. अर्थ-जैसे अनार्य कहिये म्लेच्छ है सो म्लेच्छ भाषा बिना सिंधु वस्तूका स्वरूप ग्रहण करावनेकू असमर्थ हूजिये तैसे व्यवहार विना परमार्थका उपदेश करनेकू समर्थ नहीं हूजिये हैं: टीका-जैसे प्रगटपणे कोई म्लेच्छ कू काहू ब्राह्मण स्वस्ति होऊ ऐसा शब्द कहा से म्लेच्छ तिस शब्द का वाच्य वाचक सम्बन्ध का ज्ञानतें वाह्य है ताते ताका अर्थ किच्छूभी न पावत संता ब्राह्मण की तरफ मेंढा की ज्यों नेत्र उघाडि टिमकारे विना देखता रहा जो याने कहा कह्या, तव तिस ब्राह्मण की भाषा तथा म्लेच्छ की भाषा दोऊ का एक अर्थ जानने वाला सोही ब्राह्मण तथा अन्य कोई तिस म्लेच्छभाषाकू लेकर स्वस्ति शब्द का अर्थ ऐसा कह्या जो तेरा अविनाश कल्याण होऊ ऐसा याका अर्थ है तब सो म्लेच्छ तत्काल उपज्या जो बहुत आनन्द तिसमयी जो अश्रुपात तिसकरि झलकते भरि आये हैं लोचन पात्र जाक ऐसा हुआ संता तिस स्वस्तिशब्द का अर्थ समझेहो है। तैसे हा व्यवहारी है सोऊ आत्मा ऐसा शब्द कहतेसंते जैसा जैसा आत्मा. शब्द का अर्थ है ताका ज्ञान के वाह्य वर्ते हैं तातें याका अर्थ कछु न पावता संता मींढे की ज्यों नेत्र उघाडि टिमकारे विना देखता हो रहे । अर जव व्यहार परमार्थ मार्ग विषै चलाया सम्यग्ज्ञान रूप महारथ जाने ऐसा सारथी सारिखा सोही प्राचार्य तथा अन्य कोई आचार्य व्यवहार मार्ग में तिष्ट करि दर्शन ज्ञान चाचित्र कृ निरंतर प्राप्तहो सो आत्मा है ऐसा आत्मशब्द का अर्थ कहै जब तत्कालही उपज्यां प्रचुर मानन्द जामें पाईये ऐसा अन्तरंग विषे सुन्दर अर वन्धुर कहिये प्रवन्ध रूप ज्ञान रूप तरंग जाके ऐसा व्यबहारी जन सोतिस आत्मशब्द का अर्थ पावेहो । ऐसे जगत तो म्लेच्छस्थानीय जानना बहुरि व्यवहारनय म्लेच्छ भाषास्था For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तारा का। नीय जानना यातें व्यवहार को परमार्थ का कहनहारा मानि स्थापन योग्य है। अथवा ब्राह्मणको म्लेच्छ न होना इस वचन ते व्यव हार नयकू सर्वथा उपादेय मानकर अगीकार करना । इस पंथन से व्यवहार नय उपादेय है जंगाकार करने योग्य है इसके आगे व्यवहारनय परमार्थ का प्रतिपादक है ऐसा निरूपण करें है । "जोहि सुदेश भिगच्छदि अप्पामि तु केवलं सुद्धं । तं सुदके व लिमिसियो भांति लोगप्पदीवयरा, ६ “जोसुदशायं सव्वं जायदि सुद केवलिं तमाहुजिया । गाणं अप्पासच्वं जम्लामुदकेवलीतला,, १० आत्मख्यातिः यः श्रुतेन केवलंशुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति तावत्परमार्थो यः श्रुतज्ञानं सर्व जानाति स त केवल तिव्यवहारः । तदत्रसर्वमेव तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा किमनात्मा, न तावद्नात्मा समस्तस्याप्यनात्मनश्चेतनेतरपदार्थ, पंचतयस्य ज्ञानतादात्म्यानुपपत्तेः ततोगत्यंतराभावात् ज्ञानमात्मेत्यायात्यातः श्रुतज्ञानमप्यात्मैव स्यात् । एवं सति यः श्रात्मा न जानाति स श्रुतकेवलीत्यायाति स तु परमार्थ एव । एवं ज्ञानज्ञा निनोभेदेन व्यपदिश्यता व्यवहारेणापि परमार्थमात्रएव प्रतिपद्यत न किचिदप्यतिरिक्त अथच यः श्रुतेन केवलशुद्धमात्मानं जानाति स श्रतकेवलीति परमार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वाद्यः श्रतज्ञानं सर्व जानाति स श्रुतकेवलीति व्यवहारपरमार्थप्रतिपादकत्वेनात्मानं प्रतिष्ठापयति । हिंदी टीका - जो श्रुतकरि केवल शुद्धआत्माकू जाने है सो श्रुतकेवली है यह तो प्रथम परमार्थ है । वहुरि जो श्रुतज्ञान सर्व: जाने हैं सो श्रुतकेबली है । यह व्यवहार है । सो यहां परीक्षा दोय पक्षकार कहे हैं। जो यह कहा हुवा सर्व हीं ज्ञान, अनात्मा For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १६ है कि आत्मा है तहां प्रथम पक्ष लीसिये जो अनात्मा है तो अना स्मा तो नहीं है । जातें समस्त ही जे जड रूप अनास्मा आकाशादि पांच द्रव्य है तिनिके ज्ञानके तादात्म्यकी अनुपपत्ति है तत्स्वरूप पणी बने नाहीं । तातें अन्य पक्षके अभावतें ज्ञान है सो आत्मा है ऐसा दूजा पक्ष आया । यार्ते श्रुतज्ञान भी आत्माही है। ऐसे होते जो आत्माकू जाने है सो श्रुतकेवली है ऐसा ही आवे है सो पर माथ ही है । ऐसे ज्ञान अर ज्ञानीक भेद करि कहता जो व्यवहार तिम करि भी परमार्थ मात्रही कहिये हैं, तिसते जुदा अधिक तो विकू भी न कहे हैं। अथवा जो श्रुतकरि केवल शुद्ध आत्मा जान है सो अंतकेवली है ऐसे परमार्थका लक्षणके कहे विना करने का भममर्थ पणा है तातें जो साश्रुतज्ञानकू जाने है सो श्रुतकेही है ऐसा व्यवहार है सो परमार्थ के प्रतिपादकरणेतें. आत्माकू प्रतिष्ठा रूप कहै है प्रगटरूप स्थापे है । भावार्थ-जो शास्त्रज्ञान करि अभेदरूप हायकमात्र शुद्ध आरमाकू जाने सो श्रुतकेवली है । यह तो परमार्थ है. बरि लो सर्वशास्त्रज्ञानक' जाने सो इतकेवली है । यह ज्ञान है सोही आ. स्मा है, सो ज्ञानकू जान्या सो आत्माहीकू जान्या सो ही परमार्थ है, ऐसे ज्ञान ज्ञानीके भेद करता जी व्यवहार तिसने भी परमार्थ. ही कसा अन्य तो किछू न कहा । बहुरि ऐसा भी है जो परमा. का विषय तोकथंचित् वचनगोचर नाही भी है तातें व्यवहार नयही प्रगटरूप भात्माकू कहे है ऐसे जानना । इस उपरोक्त कथनसे यह अच्छी तरह सिद्ध होचुका क व्यवहारनय परमार्थस्वरूप जो शुद्धात्मा तिसको प्रगटकर बताये है। इसलिये व्यवहारनय परमार्थस्वरूप है उसका लोष करने से परमार्थस्वरूप प्रात्मा ही का लोप होगा। मोक्षमार्गमें चतना यह व्यवहार है और मोक्षमागमें चलेबिन मोक्षतक कोई पहुंच नहीं सकता अतः जिसने मोक्षमार्गका लोप For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्व मीमांसा की किया उसने मोक्ष के पावनेका ही लोप किया । यदि व्यवहार का लाप करने से ही परमार्थकी सिद्धि होती तो आचार्य व्यवहारसाधनका उपदेश ही नहीं देते । पंडित फूलचन्दजी का जो यह कहना है किा व्यवहारका खोप होजायगा इसभ्रांतिवश परमार्थसे दूर रहकर व्यवहारको ही परमार्थ रूप समझनेकी चेष्टा करना उचित नहीं है। यह सर्वथा गलत है क्योंकि प्रथम तो जेनागमको समझनेवाला विद्वान कोई भी ज्यवहार को परमार्थ स्वरूप समझता ही नहीं क्योंकि परमार्थ निविकल्प एक शुद्ध चैतन्य चमत्कारमात्र है सो अनुभवगम्य है और वचनातीत है इसलिये व्यवहारतो क्या निश्चयनव और द्रव्या अतप्रमाण भी परमार्थस्वरूप नहीं है क्योंकि ये सब सविकल्पक है और जो सविकल्पक है वह परमार्थस्वरूप नहीं है यद्यपि मह वास्तविक बात है । तथापि परमार्थका ज्ञान अतप्रमाण और नखों के द्वारा ही होता है इसलिये काचत भूतप्रमाण और नय यह भी परमार्थस्वरूप कई है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि भुत को जामनेवाला भी श्रुतकेवली है तथा व्यवहारके विना परमार्थका ज्ञान होना अशक्य है ऐसा ऊपर दृष्टान्तद्वारा कहा जाचुका है. इसलिये ! पंडितजी परमार्थकी सिद्धि व्यवहारका लोप करने से नहीं होगी व्यवहारके साधन से ही परमार्थकी सिद्धि होगी अतः व्यवहारका साधन करनेवालों को परमार्थसे दूर रहना आप मानते है यह आप की भ्रान्ति है क्योंकि पूर्वाचार्यों में ऐसा कही पर भी नहीं कहाकि व्यवहारका लोप करने से परमार्थकी सिद्धि होगी। अन्य व्यवहार के द्वारा परमार्थ की सिद्धि नहीं होगी प्रत्युत उन्होंने तो यह कहा है कि परमार्थकी सिखि होगी तो व्यवहार के द्वारा ही होगी अन्य प्रकारसे नहीं होगी क्योंकि व्यवहारके विना परमार्थका विमा प्रशस्य है। इसलिये व्यवहार से परमार्थ की For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २१ सिद्धि मानने वाले परमार्थ से दूर नहीं हैं किंतु व्यवहार से परमार्थ की सिद्धि न माननेवाले ही परमार्थ से दूर रहते हैं इसमें संदेह है क्योंकि उनकी जैनागम पर श्रद्धा नहीं है। और न वे जैनागम को को हो है बैनागम जो में व्यवहारको अभूतार्थ है यह fadarक्ष है इसबात को लोग समझते नहीं किन्तु व्यवहार को सवथा हेय मानकर व्यबहार को छोड हैं और स्वच्छंद होकर परमार्थ से दूर रह जाते है। द्यपि व्यवहार नय परमार्थ का कहनहारा ही है इसलिये उपादेय है तथापि वह अभेद शुद्ध आत्म स्वरूपमें भेद कर आत्म स्वरूप को प्रगट करती है इसलिये अभूतार्थ भी है। "एक रूप आतम दरव ज्ञान चरण हग तीन । भेदभाव परिग्राम यो व्यवहारे सुमलीन । यद्यपि समल व्यवहारसों पर्यय शक्ति | त िनियत नय देखिये शुद्ध निरंजन एक । एक देखिये. जामिये रमरहिये इकठोर समलविमल न विचारिये, यह सिद्धि नहीं और" । अर्थात् शुद्ध द्रव्यार्थिक दृष्टिसे आत्मशुद्ध एकाकार भेड़ रूप नित्यद्रव्य है । वही व्यवहार दृष्टि से दर्शनज्ञानचारित्ररूप है इस भेदभाव से शुद्ध एक रूप आत्माका अनुभव नहीं होता अतः यह परिणामोंकी स्वच्छता सविकल्पपना है सो ही परणामों की लीना है इस मलिनताको दूर करनेसे ही एक अखड - पिण्ड शुद्धस्वरूप आत्माका अनुभव होता रहता है इसलिये आत्मा समल है विमल है दर्शनज्ञान चारित्र स्वरूप है यह विकल्प जब तक है तब तक उस शुद्धस्वरूप के अनुभवका आनन्द नहीं आता जिस प्रकार मोतियोंका हर पहरनेवाला मनुष्य मोतियों के विकल्प में रहै लच्च रखे तो उसे उस हारके पहनने का बानन्द नहीं भाता। अतः वह यदि मोतियों का विकल्प लच हटाकर उन मोतियोंका एकाकाररूप हारका ही अनुभव करें तो For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मोसंसा की उसको उस हार के पहनने का आनन्द आसकता है उसी प्रकार ज्ञानदर्शन चारित्रात्मक अनन्तगुणोंका शुद्ध प्रखंड पिण्ड एक ज्ञायक स्वभाव रूप आत्मा का भेद रहित अनुभव करने में जो आनन्द आता है वह प्रानन्द गुण गुणीके भेदका अनुभव करने में नही आता क्योंकि वस्तुस्वरूप वैसा नहीं है जिस प्रकार अलग अलम मोती हार नहीं उसी प्रकार अलग अलग गुण आत्मा का स्वरूप नहीं है । इस लिये गुण गुणी का भेद करना व्यवहारनय अभूतार्थ है किन्तु व्यवहार नय भूठी कल्पना कर कुछ भी नहीं कहती व्यवहार नय जो कहती है वह वस्तु के एक देश को सत्यार्थ ही कहती है। यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो परमार्थका लोप ही हो जावेगा। जिनेन्द्र भगवानका प्रतिविम्ब है वह साक्षात जिनेन्द्र नहीं हैं तो भी हम स्थापना निक्षेपसे उसको साक्षात जिनेन्द्र मानकर ही दर्शन- पूजनादिके द्वारा हम सब परमार्थकी सिद्धि करते हैं यह वात असत्य नहीं है । "जिनप्रतिमा जिनसारखी कही जिनागम माहिए ऐसा जैनागमका वाक्य है। तथा जिन प्रतिमा का अवलोकन आदि सम्यक्त्व की प्राप्ति में मुख्य हेतु बतलाया है जो सारभूत परमार्थ है। किन्तु पंडित जी की दृष्टि में तो ये सब अपरमार्थ भूत ही हैं जब कि आप गुण गुणी के भेद करने वाली सद्भूत व्यवहार नय को भी अपरमार्थभूत बता रहे हैं तब असमत व्यवहार नय द्वारा पाण्ादिक में उपचार से जिनेन्द्र की कल्पना करना तो अपर मार्थभूत है ही। फिर इसके द्वारा पंडित जी की दृष्टि में परमार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती अतः इनसे परमार्थ की सिद्धि होती है ऐसा मानकर उनकी पूजादि करना भी सब अपरमार्थभूत ही है जैसा कि कानजी का कहना है। For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .." समीक्षा "जिस प्रकार कुगुरु कुदेव कुशास्त्र की श्रद्धा और सुदेवादिक की श्रद्धा दोनों मिथ्यात्व हैं तथापि कुदेवादिक को श्रद्धा में तीन मिथ्यात्व है.और सुदेवादिक की श्रद्धा में मन्द" श्रा०प०६ वर्ष ४ यद्यपि देवशास्त्र गुरु पर हैं, अनात्मभूत हैं तो भी इनके 'द्वारा आत्मानुभूति परमार्थ की सिद्धि होती है जैसा कि समय प्राभूत में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी और टीकाकार अमृतचन्द्र सूरी ने कहा है इस बात को हम ऊपर उद्धृत कर चुके हैं तो भी प्रयोजन बश उसका भावार्थ उद्धृत कर देते हैं। - "जो शास्त्र ज्ञान करि अभेद रूप ज्ञायक मात्र शुद्ध आत्मा जाने सो अत केवली है यह तो परमार्थ है। बहुरि जो. सक शास्त्रज्ञानकू जाने सो सकेवली है यह ज्ञान है सो ही प्रात्मा है । सो ज्ञानकू जान्या सो पात्मा ही को जान्या सो ही परमार्थ है, ऐसे ज्ञान ज्ञानी के भेद करता जो व्यवहार तिसने भी परमार्थ ही कहा अन्य तो किळू न कहा । बहुरि ऐसा भी है जो परमार्थ का विषय तो कथंचित् वचन गोचर नहीं भी है ताते व्यवहार नय ही प्रगट रूप आत्मा कू कहे है ऐसे जानना" इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि गुणगुणी में भेद कर .कथन करने वाली व्यवहार नय भी परमार्थभूत है क्योंकि उसने परमार्थ ही को कहा है इसके अतिरिक्त और कुछ भी न कहा तथा परमार्थ का विषय वचन अगोचर अनुभव गम्य है उसको वचन द्वारे व्यवहार नय ही प्रगट रूप आत्म स्वरूप को बतलाती हैं तथा आत्म स्वरूपकी प्राप्ति किस तरह से होसकती है उसका उपाय भी बतलाती हैं इसलिये व्यवहार नय परमार्थ भूत भी है । पाषाणादिक में उपचार से जिनराज की कल्पना करना यह असद्ध त व्यवहार नथ का विषय है अतः असद्भत व्यवहार For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २४ www.kobatirth.org जैन तत्त्व मीमांसा की नय द्वारा पाषाणादिक में स्थापन किया हुआ जिनराज का प्रतिबिम्ब सो भी सर्वथा परमार्थ भूत नहीं है क्योंकि उसके द्वारा भी जिस प्रकार शास्त्र ज्ञान द्वारा आत्म ज्ञान की प्राप्ति होती है इसलिये शास्त्र ज्ञान परमार्थ स्वरूप है उसी प्रकार जिन स्वरूप जिन विम्ब द्वारा श्रात्म स्वरूप की प्राप्ति होती है इसलिये जिन विम्ब का आराधन भी परमार्थ स्वरूप है । मोक्षमार्ग अनादि काल से इसी के द्वारा अविच्छिन्न रूप से चलता है । “साधु ही की पूजा से हजार गुण फल जिन, जिनसे हजार गुण फल पूजा सिद्धि की सिद्धते हजार गुण फल जिन प्रतिभा की, तिहू काल दाता आठों नवों निधिरिद्धि की । ताहिं देख देख साधु श्रर्हत सिद्धभये, तातें करता है पाचों पद वृद्धि की करे न बखान मिद्ध होने को है यही ध्यान मोक्ष फल देत कौन बात स्वर्ग ऋद्धि की " अतः कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय चैत्य अनादि कालीन हैं और वह सम्यक्त्व रूप परमार्थ की सिद्धि में निमित्त भूत हैं इसलिये जिस प्रकार शास्त्रों के ज्ञाता को त केवलो कहा गया है उसी प्रकार जिन विम्ब से जिन स्वरूप की प्राप्ति होती है। शास्त्र भी जिन वचन लिपिबद्ध मूर्ति स्वरूप है उसके पढ़ने से आत्म बोध प्राप्त होता है उसी प्रकार पाषाणादिक में अङ्कित किया हुआ जिन स्वरूप उसके अवलोकन से श्रात्मोपलब्धी रूप परमार्थ की प्राप्ति होती है । कुन्दकुन्द स्वामी देव का स्वरूप निरूपण करते कहते हैं कि "सो देवो अत्थं धम्मं कामं सुदेइ गाणं च । . Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सो देइ जस्स अस्थिहु अन्थो धम्मो य पवज्जा" २४ बोधप्राभृते टीका -- स देवी योऽर्थं धनं निधिरत्नादिकं ददाति । धर्म चारित्रलक्षणं, दयालक्षणं वस्तुस्वरूपमात्मोपलब्धि For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोक्षा समुत्तमचमादिदशभेद सुददाति सुष्ठु अतिशयेन् दाति । कामं अर्धमण्डलीकमण्डलिकमहामण्डलिकबलदेववासुदेव चक्रवर्ती द्रधरणेन्द्रभोगं तीर्थंकर भोगं च यो दाति स देयः सुष्टु ददाति ज्ञानं च केवलं ज्योतिः ददाति पर पुरुषस्य यद्वस्तु वर्तते असत्कथं दातुं समर्थः यश्चाथों वर्तते सोऽयं ददाति यस्य धर्मो वर्तते सधर्म ददाति यस्य प्रवज्यां दीक्षा वर्तते स केवलज्ञानहेतुभृता प्रवज्यां ददाति चस्प सर्व सुखं वर्तते स सर्व सौख्यं ददाति"।... ___ यहां पर यह शङ्का हो सकती है कि क्या ये सब वस्तुयें देव के पास रक्खी हुई हैं सो अपने भक्तों को प्रदान कर देते हैं। अथवा भक्त तो अनेक हैं किन किन को ये वस्तुयें प्रदान करेंगे। अथवा देव का लक्षण किया है सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशी इन तीन गुण विशष्टि हो सो देव । अतः जो वीतराग होगा वह रागद्वष रहितही होगा उनके द्वारा देने लेने का सवालही उपस्थित नहीं होता, देने लेने का कार्य तो राग द्वेषी जीवों का है, फिर कुन्दकुन्द स्वामी ने देव का स्वरूप निरूपण करते यह कैसे कहा कि सर्व प्रकार के संसारी और मोक्ष सुखों को देवे सो देव इत्यादि शकाओं का समाधान यह है कि देव किसी को कुछ देते नहीं किसी से कुछ लेते भी नहीं भक्ति पूजनादि कराते नहीं, उनके पास ये वस्तुयें हैं भी नहीं वे तौ वीतराग सर्वज्ञ हितपदेशी है उनके प्रति यह सबाल ही उपस्थित नहीं होता कि वे कुछ ही भक्तों को देते हैं या उनसे कुछ लेते हैं । किन्तु "यपि तुमको रागादि नहीं यह सत्य सर्वथा जाना है । चिन्मरति आप अनन्त गुनी नित शुद्ध दशा शिव थाना है । तद्दपि भक्तनकी भीड़ हरौ सुख देत तिन्हें जु सुराना है ! . H . For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की यह शक्ति अचिंत्य तुम्हारी क्या पावे पार सयाना है । ___ यह बात भी असिद्ध नहीं है। इसका कारण यह है कि वे बोतराग उनकी वीतरागता का जब हम अवलोकन करते हैं तब हमारे परणामों में वीतरागता की झलक जागृत होती है उम झलक से हमारे शुभ परिणाम होते हैं उस शुभ परणामों से पुण्य संचय होता है उस पुण्य के उदय काल में उपरोक्त चक्रबादिक की विभूतियों का संसारिक सुख प्राप्त होता है । तथा उनकी मुद्रा को देखकर उन जैसे बनने की हमारी भावना जागृत होती है और उन जैसे वनकर मोक्ष सुख प्राप्त कर लेते हैं इससे स्पष्ट हो जाता है कि हम तो लोहा के समान हैं और वे पारस के समान है अतः जिम प्रकार लोहा पारस के स्पर्श से कंचन वन जाता है उसी प्रकार हम भी उनके निमित्त से सुखी बन जाते हैं ये सब असद्भुत व्यवहार नय की अपेक्षा से कथन किया गया है असद्भुत व्यवहार नय परनिमित्त से होने वाले परिणाम की प्रगट कर कहती है । असद्भूत लय का लक्षण अपिचाऽसद्भूतादिव्यवहारान्तोनयश्चभवतियथा । 'अन्यद्रव्यसगुणाः सञ्जायन्तेवलात्तदवन्यत्र ५२६ पंचाध्यायी ___ दूसरे द्रव्यों के गुणों का बल पूर्वक दूसरे द्रव्य में आरोपण किया जाय इसी को असद्भूत व्यवहार नय कहते हैं। दृष्टान्त "सयथावर्णादिमूर्ताद्रव्यस्य कर्मकिलमूर्तम् तत्संयो.. गत्वादिहमूर्ताः क्रोधादयोपिजीवभवाः" ५३० पंचाध्यायी ___ वर्णादि वाले मूर्त द्रव्य से कर्म बनते हैं इसीलिये वे भी मूर्त ही हैं। उन कमों के सम्बन्ध से क्रोधादि भाव बनते हैं। इसीलिये वे भी मूर्तिक हैं उनको जीव के कहना यही असद्भुत व्यवहार नय का विषय है। For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असद्भुत व्यवहार नय की प्रवृत्ति में हेतू-- भारणमन्तीनाद्रव्यस्यविभावभावसाक्तस्यात् । मा भवति सहजसिद्धा केवलमिहजीवपुद्गलयोः ५३१ पंचाध्यायी असद्भुत व्यवहार नय की प्रवृत्ति क्यों होती है । इसका कारण द्रव्य में रहने वाली वैभाविक शक्ति है । वह स्वभाविक शक्ति है । केवल जीव औरपुद्गल में ही पाई जाती है। यह दोनों द्रव्यों का स्वाभाविक गुण है। उस गुण का वैभाविक परिणमन पर निमित्त से होता है। विना निमित्त के उसका स्वभाविक परिणमन होता है उसीवैभाविक शक्ति के विभाव परिगमन से असद्भूत व्यवहार नय के विषय भूतजीव के क्रोधादि भाव बनते हैं। ___ असद्भूत व्यवहार नय का फल"फलमागन्तुभावादुपाधिमात्र विहाय यावदिह ! शेषस्तच्छुद्धगुणस्यादितिमत्वासुदृष्टिरिह" पंचाध्यायी - जीव में क्रोधादि उपाधि है बह आगन्तुक भावकों से हुई है । उपाधी दूर कर देने से जीव शुद्ध गुण वाला प्रतीत होता है । अर्थात् जीव के गुणों में पर निमित्त से होने वाली उपाधि को हटा देने से उसके चारित्र आदि शुद्ध गुण प्रतीत होने लगते हैं ऐसा समझ कर जीव के स्वरूप को पहिचान कर कोई मिथ्यादृष्टि अथवा विचलित 'वृत्ति जीव भी सम्यकदृष्टि हो सकता है वस यही इस नय का फल है । सारांश यह है कि जब असद्भूत व्यवहार नय का विषय समझ लेने से उसका फल सम्यक्त्व की प्राप्ति होना आचार्यों ने बतलाई है तब वह भी परमार्थ भूत है । क्योंकि सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाना ही तो परमार्थ भूत है । इमको अपरमार्थ भूत समझना अज्ञानता है। For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की सब नय अपने अपने विषय में भूतार्थ हैं सत्यार्थ हैं किसी नय का विषय कल्पित नहीं है जीव में होने वाले शुद्धाशुद्ध परिणमन कारी बोध कराती है। सद्भूत व्यवहार नय और असद्भूत व्यवहार नय अथवा निश्चय नय से सब प्रमाण के ही अंश है इसालेये इनका कथन भी प्रमाण भूत है । प्रमाण का लक्षण"उक्तोव्यवहारनयस्तदनुन योनिश्चयः पृथक्पृथक् । युगपदद्वयंचमिलितप्रमाणमितिलक्षणंवदये" ७६४ पंचाध्यायी व्यवहार और निश्चय नय का स्वरूप कहा गया दोनों ही नय भिम भिन्न स्वरूप वाले हैं। जब दोनों नय एक साथ मिल जाते हैं तभी वह प्रमाण का स्वरूप कहलाता है। उसी प्रमाण का. लक्षण कहा जाता है। "विधिपूर्वःप्रतिषेधप्रतिषेधपुरस्सरोविधिस्त्वनयोः। मैत्रीप्रमाणमिति का स्वपराकाराबगाहियज्जानम्" ६६५ अर्थात-विधि पूर्वक प्रतिषेध होता है, प्रतिषेध पूर्वक विधि होती है । और विधि और प्रतिषेध इन दोनों की जो मैत्री है वही प्रमाण कहलाता है । अथवा स्वपर को जानने वाला जो ज्ञान है वही प्रमाण कहलाता है । इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहार और निश्चय इन दोनू नयों की मैत्री ( सापडता) का ही नाम प्रमाण है व्यवहार नय का विषय विधि रूप है और निश्चय नय का विषय प्रतिषेध रूप है। विधि निषेध रूप प्रमाण का विषय है। ___ इसका खुलासा आचाय स्वयं कहते हैं। "अयमोंर्थ विकल्पोज्ञानंकिललक्षणस्वतस्तस्य । एक विकल्पोनयसादुभयविक न्यः प्रमाणमितिबोध" ६६६ For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा AALAn...... e connammann अर्थात- अर्थाकार परिणमन करने का नाम ही अर्थ विकल्प है यही झानका लक्षण है । वह ज्ञान जब एक विकल्प होता है, एक अंशको विषय करता है तब वह नयाधीन नयात्मक ज्ञानकहलाता है। तथा वही ज्ञान जब उभय विकल्प होता है अर्थात् पदार्थ के दोनों अंशों को विषय करता है तब वह प्रमाण रूप ज्ञान कहलाता है । भावार्थ-पदार्थमें सामान्य और विशेष ऐसी दो प्रकार को प्रताति होती है यह वही है ऐसी अनुगत प्रतीति को सामान्य प्रतीति कहते हैं। तथा विशेष पर्यायात्मक प्रतीतिको विशेष प्रतीति कहते हैं । सामान्य विशेष प्रतीति पदार्थ में तभी हो सकती है जब कि वह सामान्य विशेषात्मक हो । इसलिये सिद्ध होता है कि पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है । सारांश पदार्थके सामान्य अंश को विषय करने वाला द्रव्यार्थिक नय है उसके विशेषांशको विषय करने वाला पर्यायाथिक नय है दोनों अंशों को युगपत एकसाथ विषय करने वाला प्रमाण ज्ञान है । इस कथन से यह भी अच्छी तरह सिद्ध हो गया कि निश्चय नय (द्रव्यार्थिक) पदार्थ के सामान्य अंश को विषय करता है और व्यवहार नय (पर्यायार्थिक ) पदार्थ के विशेष अंश को विषय करता है। तथा प्रमाण सामान्य विशेषको युगपत् एक साथ विषय करता है। यह सब एक ही पदार्थ के आश्रय से ही किया गया है दूसरे पदार्थ के श्राश्रय से नहीं ! इसलिये व्यवहार नय चाहे सद्भुत व्यवहार नय हो चाहे असद्भूत व्यवहार नय हो ये दोनों ही नय एक ही द्रव्य के आय ही उनके ममल बिमल गुण पर्यायों का विषय कर कथन करता है। अमद्भुत व्यवहार नय तो परनिमित्त से होने वाले पदार्थ में वैभाविक पारणमन का प्रतिपादन करता है जैसा कि अपर में कहा जाचुका है। क्रोधादिक भाव जीव के परनिमित्त से होते हैं वह वास्तविक आत्मा के स्वभाव न होने For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३० जैन तत्व मीमांसा की ail वह भाव नहीं है परनिमित्त से आत्मा के वैभाविक गुण का परिणमन है वह आत्मा में ही भाव परिणमन हुआ है । परसंयोग से पर के गुणों का उसमें संक्रमणादि नहीं हुआ है । "शुद्ध भाव चेतन अशुद्ध भाव चेतन । दुहुँ को करतार जीव और नहि मानिये ॥ कर्मficat विलास वर्ण रस गंध फास | करतार दुहू' को पुदगल परमानिये || तातै चरणादिगुण ज्ञाना वरणादि कर्म । नाना पर कार पुदगल रूप जानिये || समल विमल परिणाम जे जे चेतन के । ते ते सव अलख पुरुषयों बखानिये" ।। F कर्ता कर्म क्रिया द्वार समय सार नाटक-इस कथन से अशुद्ध भावों का कर्ता स्वयं आत्मा ही है ऐसा अलख पुरुष जो भगवान सर्वज्ञ देव ने कहा है यह परनिमित्त से होने वाले आगन्तुक भाव आत्मा के वैभाविक शक्ति का परिणमन है जो ऊपर बताया जा चुका है उसे आत्मा का कहना यह अद्भूत व्यवहार का विषय है। इस नय का ज्ञान होने से जीव पर निमित्तों से अलग रह कर अपनी आत्मा को शुद्ध बनाने की प्रवृत्ति करने में लग जाता है। यद्यपि सर्व द्रव्य स्वतन्त्र हैं । तो भी जीव और पुदगल में एक वैभाविकी शक्ति ही ऐसी है उसका परिणमन पर निमित्त से विभाव रूप होता है पर उसका स्वभाविक गुण है इसको कोई मिटा नहीं सकता है। सद्भूत व्यवहार नय का विषय अभेद वस्तु में भेद करना अर्थात गुणगुणी में भेदकरना जैसे सद्भूत तो गुणी के । For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा गणों का नाम है और व्यवहार उसकी प्रवृति का नाम है अर्थात् किमो द्रव्य के गुण उसो द्रव्य में विवक्षित करने का नाम सद्भूत व्यवहार नय है यह नय उसी वस्तु के गुणों का विवेचन करता है. इसलिये यथार्थ है। इस नय में यथार्थ पना केवल इतना ही है कि यह एक अखण्ड वस्तु में से गुण गुणी का भेद करता है । तथा वस्तु के सामान्य गुणों को गौण रख कर उसके विशेष गुणों का ही विवेचन है। "सामान्य शास्त्रतो नूनं 'वशेषो वलबान भवेत्" इस कथन से यह नय बलवान है। सी लये इसके विषय में आचार्य कहते हैं । किअस्यावगमे फलमिति तदितर वस्तु निषेधवुद्धिः स्यात् । इतरविभिन्नी नय इति भेदाभिव्यञ्जको न नयः ५२७ पंचाध्यायी इस नवक समझनेपर एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में निषेध बुद्धि होजाती है । अर्थात् एक पदार्थ से दूसरा पदार्थ बुदाही दीखने लगता है इसलिये यह व्यवहार नय एक पदार्थको दूसरे पदार्थ से भिन्न प्रतीति करानेवाला है एकही पदार्थ में भिन्नताका सूचक भी नहीं है अतः सद्भत व्यवहार नय वस्तु के विशेष गुणोंका विवेचन करता है इसलिये वस्तु अपने विशेष गुणोंद्वारा दुसरी वस्तु से भिन्न ही प्रतीत होने लगती है । जैसे जीवक्य झान गुण इस नय द्वारा विवक्षित होने पर वह जीवको इतर पुद्गलादिद्वयों से भिन्न सिद्ध कर देता है। किन्तु ऐसा भी नहीं समझना कि वह जीव को उसके गुणों से जुदा करदेता है । बस यही इस नय का फल है । इस नयके द्वारा ही यह जाना जा सकता है कि शात अनन्त गुणात्मक है और दूसरे द्रव्योंसे सध्या भिन्न है जोब अनादिकाल से कमों के साथ एकक्षेत्रावगाही हो रहा है For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ जैन तत्त्व मीमांसा की इसलिये उसका कर्मो के साथ एकत्वबुद्धि हो रही हैं । " जैसे गजराज नाज घास गरासकरि भक्षणस्वभाव नहीं भिन्न रस लिया है। जैसे मतवारी नहीं जानत शिखरणा स्वाद गऊ में मगन कहै गऊदूधपियो है । जैसे मिथ्यामतिजा व ज्ञानरूपी है सदीव पग्यो पाप पुष सोसहज सुन्नहियो है ! चेतन अचेतन दुहुँको मिश्रपिण्ड लखि एकमेक मानें न विवेक कछु कियो है । समयसार नाटक कर्ताकर्म क्रियाद्वार । 1 यह जो कर्मोंके साथ एकत्वबुद्धि है वह सद्भूतव्यवहारनय के द्वारा दूर हो जाती है यही तो परमार्थ है इसीके लिये ही तो हम पुरुषार्थ करते हैं। अतः व्यवहार का लोप करने से न तो वस्तु स्वरूपकी प्राप्ति ही होगी और न परमार्थकी ही सिद्धि होगी । इसलिये केवल निश्चय नयही परमार्थभूत हैं और व्यवहारनय अपरमार्थभूत है ऐसा समझना भ्रम है । व्यवहार निरपेक्ष केवल निश्चय नय भी अपरमार्थभूत ही है। क्योंकि उससे वस्तु स्वरूप का बोध नहीं होता इसलिये व्यवहार नय की शरण लेनी पड़ती है । आचार्य इस विषय में शंका उठा कर समाधान करते हैं कि जो केवल निश्चयनयसे ही विवादका परिहार और वस्तुका विश्वार हो सकता है ऐसा जोमानते हैं सोगलत है शंका" ननु च समीहितसिद्धिः किलचैकस्मान्नयात्कथं न स्यात् विप्रतिपत्तिनिरासो वस्तुविचारश्च निश्चयादिति चेत् ६४१ पंचाध्यायी || अर्थ- अपने अभीष्टको सिद्धि एक ही निश्चय नयसे क्यों नहीं हो जाती है। विवादका परिहार और वस्तुका विचार भी निश्चयजय से हो जायगा इसलिये केवल निश्चयनय का हो मात लेना ठीक है। आचार्य कहते हैं यह ठीक नहीं है । For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SIONvMANNNNN समीक्षा * बतोस्ति भेदोऽनिर्वचनीयो नयः स परमार्थः । अस्मात्तीर्थस्थितये श्रेयान् कश्चित् स वा बद कोपि" ६४१ अर्थात् ऊपर कीगई शंका ठीक नहीं है। क्योंकि दोनों नयों में भेद है निश्चय अनिर्वचनीय है । उसके द्वारा पदार्थका विवेबननहीं किया जा सकता। इसलिये धर्म या दर्शन की स्थितिके लिये अर्थात् वस्तु स्वभाव को जानने के लिये कोई बोलने वाला भी नय होना चाहिये । अतः वह व्यवहार नय है और हितकारी इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहार निरपेक्ष का निश्चय नय वस्तुस्वरूपका द्योतक नहीं है और न हितकारी ही है अर्थात् श्रपरमार्थाभूत ही है। __व्यवहार नय परमार्थ भूत क्या है इसका खुलासा"अस्तमितसर्यसंकरदोष, क्षतसर्व शून्यदोषं वा । गणुरिष वस्तुसमस्त ज्ञानं भवतीत्यनन्यशरणमिदम् ५२७ अर्थ-सद्भूत व्यहारनय से वस्तुका यथार्थ परिज्ञान होने पर वह सब प्रकार के शंकर दोषों से रहित सबसे जुदी सब प्रकार के शून्यता अभाव आदि दोषों से रहित समर तहा वस्तु परमाणु के समान अखंड प्रतीत होने लगती है । ऐसी अवस्था में मह उसका शरण वही दीखती है । भावार्थ--इस नय द्वारा जब बस्तु उसके विशेष गुणों से भिन्न सिद्ध हो जाती है फिर उसने शहर दोष नहीं आ सकता है । तथा गुणोंका परिज्ञान होने पर समें शून्यता अभाव आदि दोष भी नहीं पा सकते हैं क्योंकि उसके गुणों की सत्ता और उसके नित्यताका परिज्ञान उक्त दोनों दोषोंका विरोधी है। For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org :y जैन तत्त्वमीमांसा को तथा जब वस्तु के सामान्य भी गुण उसमें ही दीखते हैं. उसके बाहर नहीं दीखते तब वस्तु परमाणु के समान उसके गुणां से वह अखंड ही प्रतीत होती है। इतने बोध होने पर ही वस्तु अनन्य शरण प्रतीत होती है । इस कथन से सद्भूत व्यवहार नय परमार्थभूत भी है. ऐसा सिद्ध हो जाता है। क्योंकि वस्तु स्वरूप समझना तथा वस्तु दूसरी वस्तु से भिन्न है और अपने गुणों से अभिन्न है नित्य है शंकर आदि दोषों से रहित है ऐसा समझना ही तो परमार्थ है । इसको सर्वथा परमार्थं भूत मानकर इसके बिना परमार्थ की सिद्धि चाहना वालूरेत के पेलने से तेल की प्राप्ति के समान असंभव ही है। आप जो यह कहते हैं कि आचार्य देवसेन का कथन है कि"इस द्वारा उन्होंने जबकि एक अखण्ड द्रव्यमें गुणगुणी आदि के आश्रय से होने बाले सद्भूत व्यहार को ही अपरमार्थभूत बतलाया है ऐसी अवस्था में दो द्रव्यों के आश्रय से कर्ता कर्म आदि रूप जो उपचरित और अनुपचरित श्रसद्भूत व्यवहार होता है उसे परमार्थभूत कैसे माना जासकता है अर्थात् नहीं माना जा सकता । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( जैन तत्र मीमांसा ) पंडितजी ! देवसेन आचार्य ही क्यों सब ही आचार्यों ने सद्द्भूत व्यवहार नय को अपरमार्थ भूत माना इस बात को कोई भी विद्वान नय चक्रको जानने बाला अस्वीकार नहीं कर सकता किन्तु साथ में इसको ( सद्भूत व्यवहार नव को ) परमार्थभूत भी माना है इस बात को भी तो लिखिये। अपनी पतपुष्टि के लिये अन्यथा तो निरूपण मत कीजिये । परमार्थभूत भी माना है इन दोनों पक्षका सब ही आचार्यों ने स्पष्ट शब्दों में विवेचन किया है कि इस अपेक्षा सद्भूत व्यवहारमय अपरमार्थाभृत है For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . समीक्षा और इम अपेक्षा सद्भुत व्यवहारनय परमार्शभूत है जिसका खुलासा हम ऊपर कर चुके हैं । व्यवहारनय परमार्थाभूत क्यों है इसका खुलासा देवसेन प्राचार्य भी कर चुके हैं जिसको आपने भी उद्ध त विया हैं । जै० त० मी. पृ. ७ ___"उपनयोपजनितो व्यवहारः प्रमाण नयनिक्षेपात्मा भेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति व्यवहारः । कथमुपनयस्तस्य जनक इति चेत् ! सद्भूतो भेदोत्पादकत्वात, अस द्भूतस्तु उपचारोत्पादकत्वात् । उपचरितासद्भुतस्तु उपचारादपि उपचारोत्पादकत्वात । योऽसौ भेदोपचारलक्षणोर्थः सोऽपरमार्थः ।" - इसका अर्था आपने इस प्रकार किया है, प्रमाण नय, और निक्षेपात्मक जितने भी व्यवहार हैं वह मब उपनयसे उपजनित है भेद द्वारा और उपचार द्वारा वस्तु व्यव्हार पदवीको प्राप्त होती है इसलिये इसकी व्यवहार संज्ञा है। ...इसका स्पष्टीकरण करते हुये आपने व्यहारनय को उपनय से उपजनित वताकर अपरमार्थाभूत सिद्ध किया है भेदका उत्पादक सद्भूत व्यवहारनय है । उपचारका उत्पादक असद्भूत व्यवहार नय है और उपचार से भी उपचार का उत्पादक उपचरित असद्भूत व्यवहार है। और जो यह भेद लक्षण वाला तथा उपचार लक्षण वाला अर्थ है वह भी अपरमार्थभूत है अतः व्यवहार अपरमार्थ का प्रतिपादक होने से अपरमार्थभूत है - इस कथन से पं० फूल चन्दजी ने प्रमाण नय निक्षेपों को असत्यार्थ अपरमार्थभूत सिद्ध करके ब्यवहार का लोप करना इष्ट समझा है । क्योंकि देवसेन आचार्य प्रमाण नय और निक्षेपों से वस्तु में भेदोपचार द्वारा ब्यवहार की प्रवृत्ति होती है। प्रमाण For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मामांता की ................... ... .. ... ... . vir umr. me.in.... नय निक्षेपामा भेदोपचाराभ्याम् वस्तु व्यवहरतीति व्यवहारः ऐसा कहा है इसलिये भेदोपचार लक्षणवाला अशंभी अपरमार्थाभूत है और उसका कथन करने वाला प्रमाण, नय, निक्षेप भी अपरमार्थभूत हैं। “भेदोपचारलक्षणोऽर्थाः सोऽपरमार्थः श्रतएव व्यवहारो ऽपरमार्थाप्रतिपादकत्वादपरमार्थाः इस पर आपने शंका उठाकर समाधान किया है वह भी प्रमाणादिकको अपरमार्थरूप सिद्ध करने के पक्ष में किया है। __ शंका-यदि भिन्न कत', कर्म आदि रूप व्यवहार उपचरितही हैं तो शास्त्रों में उसका निर्देश क्यों कियागया है ? समाधानएकतो निमित्तका ज्ञान कराना इसका मुख्य प्रयोजन है इसलिये यह कथन कियागया है (पृष्ठ =) अब यहां पर यह देखना है कि देव सेन आदि अचार्यो ने प्रमाणादिकको अपरमार्थाभूत किस दृष्टिसे कहा है । तथा शास्त्रोंमें इनका कथन केवल निमित्तका ज्ञान कराने के लिये ही किया गया है या वस्तु स्वरूपका परिज्ञान कराने के लिये किया गया है। अथवा वस्तु स्वरूप का ज्ञान इन नय प्रमाणादिक के बिना भी हो सकता है क्या अथवा जिस वस्तुका ज्ञान करना है वह वस्तु (अर्थ) कैसा है । वह केवल एक रूपही है या वह अनेक रूपभी है अर्थाका (द्रव्यका) आचार्यों ने ऐसा लक्षण किया है कि ___गुणपर्ययवद् द्रव्यम्" अर्थात गुण और पर्याय इन करि सहित द्रव्य है । यहां गुण पर्याय जाके होय. सो द्रव्य है । द्रव्यका अन्वयी सो गुण है, व्यतिरेकी पर्याय है । इन गुण पर्यायनिकरि युक्त होय सो द्रव्य है। "गुणइदिदव्वविहाणं दव्ववियारोहि पज्जवो भणिदो। तेहिं अणुणं दव्वं अजुदपसिद्ध हवे णिच्चं । For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ___ अर्थात् गुण ऐसा तो द्रव्यका विधान है। गुणनिका समुदाय वह द्रव्य ह , तथा द्रब्यके विकार कहिये क्रमपरिणाम ते पर्याय है । अतः गुण पर्याय सहित है सो द्रव्य है। वह अयुत प्रसिद्ध है संयोगरूप नहीं है । तादात्मक स्वरूप है नित्य है अपने विशेष लक्षणकर लक्षित है। जब द्रव्यका लक्षण गुण और पर्यायवान है तब उसका वोध (ज्ञान) विना नय प्रमाण निक्षेपों के नहीं हो सकता (क्योंकि) निश्चयनय तो अवाच्य है उसके द्वारा वस्तु स्वरूपका विवेचन नहीं किया जा सकता । विना विवेचनके वस्तु स्वरूप समझमें भी नहीं आ सकता । इसलिये धर्म अथवा दर्शनकी स्थिति के लिये अर्थात् वस्तु के स्वभावको जनानेवाला कोई बोलनेवाला भी होनाचाहिये वह बोलनेवाला व्यवहार है इस बातको हम ऊपर बतला चुके हैं विना प्रमाणादिक के निश्चयनय का भी क्या विषय है इसका भी वोध नहीं हो सकता इसलिये व्यवहारनय द्वागही वस्तु स्वरूपका चोथ हो जाता है कि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। ऐसा वोध होनेपर ही उन अनन्तगुणों से युक्त एक अखंडपिण्ड वस्तु है ऐसा निश्चय हो जाता है इसलिये भिन्न भिन्न रूप से वस्तु स्वरूप समझने की भी आवश्यकता है क्योंकि भिन्न भिन्न स्वरूप समझे विना यह वस्तु ऐसी है यह वस्तु ऐसी है ऐसा ज्ञान नहीं होता और ऐसा शान हुये विना परमार्थ की सिद्धि भी नहीं हो सकती। ..इसलिये प्रमाणादिकसे जीवादि वस्तु स्वरूप समझने से ही श्रद्धान दृढ होता है । जीवादि वस्तु स्वरूप समझ कर उस पर विश्वास करनाही सम्यक्त्व है और वही परमार्थ स्वरूप है। अत:वस्तु म्वरूप समभाने के लिये ही आचार्यों ने प्रमाणादिक का कथन किया है। For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३८ जैन तत्त्व मीमांसा की प्रमाणनयेरधिगमः, टीका - नामादि निक्षेपविधिनो पलक्षितानां जीवादीनां तवं प्रमाणाभ्यां नयश्चाधिः गम्यते । प्रमाणनया वच्यमाणलक्षण विकल्पाः तत्र प्रमाणं द्विविधं - स्वार्थं परार्थं च । तत्र स्वार्थप्रमाण • वर्ज्यम् । श्रतं पुनः स्वार्थं भवति परार्थं च ! ज्ञानात्म ॐ स्वार्थं वचनात्मकं परार्थम् । तद्विकल्पा नयाः । अत्राह नैयशब्दस्य अल्पाच्तरत्वात्पूर्वनिपातः प्राप्नोति ! नेप दोष: अभ्यर्हितत्वात्प्रमाणस्य तत्पूर्वनिपातः, अभ्यर्हितत्वं सर्वतोवलीयः । कुतोऽभ्यर्हितत्वम् १ नयप्ररूपणप्रभव योनि त्वात् । एवं युक्त "प्रगृह्य प्रमाणतः परिणतिविशेषादर्थावधारणं नयः इति" सकलविषयत्वाच्च प्रमाणस्य, तथा चोक्तं सकलादेश: प्रमाणाधीनो विकला देशो नयाधीन इति" नयोद्विविधः द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्च पर्यायार्थिकनयेन पर्यायतत्त्वमधिगन्तव्यम् । इतरेषां नामस्थापनाद्रव्याणां द्रव्यार्थिकनयेन, सामान्यात्मकत्वात् । द्रव्यार्थः प्रयोजनमस्येत्यस्यt द्रव्यार्थिकः पर्यायोऽर्थः प्रयोजनमस्येत्यसौ पर्यायार्थिकः तत्सर्वं समुदितं प्रमाणेनाधिगन्तव्यम्" । I हिन्दी टीका -- प्रमाण नय इनि करि जीवादिक पदार्थनिका अधिगम (ज्ञान) हो है । नाम आदि निक्षेप विधि करि अंगीकार करे जे जीवादिक तिनि का यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाण करि तथा द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नय करि होय है । तहां Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा प्रमाण ननिका लक्षण तथा भेद तो आगे करसी तहां प्रमाण दोय प्रकार है । एक स्वार्थ तो ज्ञान स्वरूप कहिय । बहुरि परार्थ वचन रूप कहिये तामें चार ज्ञान तो स्वार्थ रूप है। बहुरि श्रुत प्रमाण ज्ञानरूपी है भी वचन रूपी भी है । तातें स्वार्थ परार्थ दोऊ. प्रकार है बहुरि श्रुत ज्ञान के भेद विकल्प हैं ते नय हैं । इहां कोई पूछे हैं नय शब्द के अक्षर थोडे हैं तातें द्वदसमास में पर्व निपात चाहिये ताका उत्तर-प्रमाण प्रधान है । पूज्य है सर्व नय है ते प्रमाण के अंश है जातें ऐसा कया है वस्तु को प्रमाण तै ग्रहण , करि बहुरि सत्व, असत्व नित्य, अनित्य इत्यादि परिणाम के विशेषते अर्था का अवधारण व.र ना सो नय है । बहुरि प्रमाण सकल धर्म अर धर्मा कूविषय को है सो ही कहा है। सकला- . देश तो प्रमाणाधीन है। बहुरि विकलादेश नयाधीन हैं तातै प्रमाण ही का पूर्व निपात युक्त है ! बहुरि नय के दो भेद कहे तहां पर्यायार्थिक नय कार तो भाव तत्व ग्रहण करना। बहुरि नाम स्थापना द्रव्य ये तीन द्रव्यार्थिक नवं करि प्रहण करना जाते द्रव्यार्थिक है सो मामान्य कू ग्रहण करे है । द्रव्य है विषय प्रयोजन जाका ताकद्रव्यार्थिक कहिये । पर्याय है विषय प्रयोजन जाका मो र्यायार्थिक कहिये ये मर्व भेले प्रमाण करि जाने । प्रश्न-जो जोवादिक का अधिगम ( ज्ञान ) तो प्रमाण नयनिते करिये बहुरि प्रमाण नयनिका अधिगम काहंते करिये ? जो प्रमाण नयनितें करिये तो अनवस्था दूषण होयगा । बहुरि. आपही करिये तो सर्वही पदार्थानिका आपही ते होगा, प्रमाण नय निष्फल होहिगे । ताका समाधान--जो प्रमाण नयनिका अधिगम अभ्यास अपेक्षा तो अाप ही ते कह्या है । बिना अभ्यास अपेक्षा परते कह्या है तातें दोष नहीं । फेर प्रश्न--जो प्रामण तो अंशी को ग्रहण करें है अरु नय अशकू ग्रहण करे हैं सो अंशानते For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्व मीमामा की जुदा पदार्था तो अंशी भासता नहीं अंशानक समुदाय विषे अंशी की कल्पना ही यह कल्पना है सो अमत्यार्थ है । नाका उत्तर-- प्रथम तो प्रत्यक्ष वुद्धि विषे अंशी ग्थूल स्थिर एक साक्षात् प्रतिभासै है ताको कल्पित कैसे कहिये बहुरि जो कल्पित होय तो एक कल्पनाते द्वितीय कल्पना होते ताका सद्भाव इन्द्रिय गोचर कैसे रहे ? बहुरि कल्पित के अर्थक्रिया शक्ति कहांते होय ? बहरि कल्पित प्रत्यक्ष ज्ञानमें स्पष्ट कैसे भासे ? ताते अंशनिका समुदाय रूप अंशी सत्यार्थ है । कल्पित नाहीं । अंश अंशी विषे कथंचित भेद है कथंचित् अभेद है । जे सर्वथा भेद ही तथा अभेद ही माने हैं तिनिकी मानिवेमें दूषण भावे हैं स्याद्वादीनिके दूषण नाही । इहा उदाहरण-जैसे एक मनुष्य जीव नाम वस्तु है ताके देहविषे मस्तक ललाट-कान-नाक-नेत्र-मुख-होठ-गला-कांधा भुजा हस्त-अंगुलो-छाती-उदर-नाभी नितंव--लिंग जांघ--गोडे पीडी टेकुण्या-पग-पगथली अंगुली आदि अङ्ग है उपांग हैं। तिनिक अवयव भी कहिये । अंश भी कहिये । धर्मकहिये । वहुरि गोरा सावला आदि वर्ण है तिनिकूगुण कहिये । वाल कुमार जुवान बूढा आदि अवस्थाकू पर्याय कहिये ! सो सर्वका समुदाय कथंचित भेदाभेद रूप वस्तु है । ता अपयवी कहिये, अंगा कहिये अंशी कहिये धर्मी कहिये । ऐस अंशीको कल्पित कम कहिये कल्पित होयतो प्रत्यक्ष वुद्धिमें स्पष्ट कैसे भासे ? वहरि अनेक कार्य करने की शक्ति रूप जो अर्थ क्रियाकी शक्ति कैस होगी? सर्वथा भेदरूप अंशनिही में पुरुष के करने योग्य कार्य की शक्ति नाही । वहुरि इस मनुष्य नाम को अंशोकी कल्पना टि अन्य वस्तुको कल्पना होते वह मनुष्य वस्तु उत्तर कालमें जैमा का तैसा काहेकू रहता ? तातै अंशी सत्यार्या है ! सोही प्रमाण गांचर भेदाभेदरूप भासै हैं । वहुरि नय है ते अशनि ग्रहण कर है। तहां For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Avvvv समाक्षा मनुष्य गोणरूप होय है । जब केवल एक अभेदमात्र अंशकू अंशो नामा ग्रहण करे तब तो द्रव्याथिक नय है। तहां अभेदपक्ष मुख्य है, भेद पक्ष गौण है । वहुरि जब भेदरूप अंशनिकू जुदे जुदे ग्रहण करे । तहां पर्यायार्थिक नय है यहा अभेदरूप है। भेद पक्ष मुख्य है । तहां भी किसी एक अंशकू मुख्य करें तब दूसरा अंश गोण रहै । ऐसे सर्व हा जीवादिक पदार्थ प्रमाण नय करि सत्यार्थी प्रतिभासे हैं । जो सर्वथा एकान्तकी पक्ष सो कल्पना मिथ्या है । जाते कल्पनामात्र ही है। मिथ्यात्व कर्मके उदयते यह निपज़ा है । वस्तु स्वरूप तो कल्पित है नाहीं । ___ इस उपरोक्त कथन से प्रमाण, लय और निक्षेपों के द्वारा वस्तु में व्यवहार प्रवृत्रि किस प्रकार होती है उसका स्पष्टीकरण मनुष्य के दृष्टान्त से हो जाता है। पदार्थ गुण और पर्याय मंयुक्त होने से उसका कथन भी भेदाभेद रूप वस्तु से किया जा सक्ता है । अतः भेदाभेद, रूप वस्तु का ग्रहण करने वाला प्रमाग है । तथा नय है वह वस्तु के अंश का ग्रहण करने वाला है वहां पर मनुष्य रूप वस्तु गौण है। निश्चय नय केवल अभेद मात्र अंशी नामा मनुष्य अंश का प्रहण करने वाला है। यहां पर अभेद पक्ष मुख्य है और भेद पक्ष गौण है । व्यवहार नब वस्तु के भेद रूप अंशों को अलग अलग ग्रहण करता है, वहां पर भेद दृष्टि मुख्य है प्रभेद पक्ष गोण है.. इस तरह सर्व ही जीवादि पदार्थ प्रमाण, नय निक्षेपों से सत्यार्थ ही प्रतिभासे हैं सारांश यह है कि जब पदार्थ का प्रतिपादन मुख्य और गौण से किया जाता है तब ही पदार्थ का स्वरूप बनता है। "अर्पितानर्पितसिद्ध”। तत्त्वार्थ सूत्र टीका--अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनक्शायस्य कस्यचिद्धर्मस्य विवक्षया प्रापितं प्रधानमर्पितमुप For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा क. नीतमिति यावत् । तद्विपरीतमनर्पितम्, प्रयोजनाभावात् । सतोऽप्यविवक्षाभवतीत्युपमर्जनीभूतमनर्षितमित्युच्यते । तथा द्रव्यमपि. मामान्यापणया नित्यं विशेषार्पणया:नित्यमिति नास्ति विरोधः । तौ च सामान्यविशेषी कथ ञ्चित भेदाभेदाभ्यां व्यवहारहेतू भवतः । हिन्दी टोका-अर्पित कहिये जो. मुख्य करिये सो तथा अनर्पित कहिये जो गौण करिये सो। इन दोऊ नय करि अनेक धर्म रूप वस्तु का कहना सिद्ध होय है तहां अनेक धर्म रूप ॐ जो वस्तु नाकू प्रयोजन वशतें जिम कोई एक धर्म की विवक्षा करि पाया है प्रधानपणा जाने सो अर्पित कहिये। ताकू उपनीत अभ्युपगत ऐसा भी कहिये । भावार्थ-जिस धर्म कूवक्ता प्रयोजनके वशते प्रधान करि कहै मो अर्पित है । याके विपरीत जाकी विवक्षा न करें मो अर्पित है । जातें जाका प्रयोजन नाही । वहरि ऐमा नाही जो वस्तु में धर्म नाही ताको गौण करि विवक्षाते कहे हैं । जाते विवक्षा तथा अविव ज्ञा दोऊ ही सत की होय है। तातै मन रूप होय नाकू प्रयोजनके वशते अविवक्षा करिये सो गौण है । ताते दोर. में वस्तुको सिद्धि है। यामें विरोध नाही। इहो उदाहरण-जैसे पुरुषके पिता, पुत्र, भ्राता भागजा इत्यादि संबन्ध है ते जनकपणा आदिकी अपेक्षाते विरोधरूप नाही । ताते अर्पणका भेदते पुत्रको अपेक्षा तो पिता कहिये ! वहरि तिमही पुरुषको पिताको अपेक्षा पुत्र कहिये । भाईकी अपेक्षा भाई कहिये मामाकी अपेक्षा भाणजा कहिये इत्यादि । तैसेही वस्तुकी सामान्य अर्पणाते नित्य कहिये विशेष अर्पणाते अनित्य कहिये । यामें विरोध नाही बहुरि मामान्य विशेष है ते कथश्चित् भेद अभेदकरि व्यवहारके कारण होय हैं । इहां सत्स त् एकानेक नित्या For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोक्षा fare भेदाभेद इत्यादि अनेक धर्मात्मक वस्तुके कहने में अन्यमति विरोध आदि दूषरण बतायें हैं. 'ताक' कहिये जो ये दूषण जे सर्व एकान्तपक्ष हैं और अनेक धर्म वस्तुके है तिनके श्रावे हैं बहुरि अनेक धर्म विरुद्धरूप एक वस्तुमें संभव है तिनकू देण्यार्थिक पर्यायार्थिकनकी अर्पणाका विधान करि प्रयोजनके वशते मुख्य गोणकरि कहिये तामें दूषण नाहीं । स्याद्वाद यह वलवान है। जो ऐसे भी विरोध रूपको अविरोधरूप करि क है है । सर्वा एकान्तकी यह सामर्थ्य नाहीं जो वस्तूकू साधे। जैसा कहेगा तैसे हं। दूषण आवेगा । तातें स्याद्वादका शरणा ले वस्तुका यथार्थ ज्ञानकरि श्रद्धान करि हेयोपादेय जानि हेयते छूट उपादेयरूप होय वीतराग होना योग्य है यही श्रीगुरुका उपदेश दे" For Private And Personal Use Only ४३ इस कथन से भेदाभेद वस्तुकी सिद्धि स्याद्वाद नग द्वारा ही होसकती है। अन्यथा वस्तुमें विरोधी धर्मोकी सिद्धि नहीं हो सकती एकान्तवाद वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती उसमें अनेक दूषण आते हैं। आप जो व्यवहार नय को देवसेन आचार्य के वचनों से सर्वथा अपरमार्थभूत सिद्ध करते हैं सो सर्वथा मिथ्या है। क्योंकि देवसेन आचार्य कथचित् भूत कहते है सर्वथा नहीं । यही तो आपमें और उन ( आ० देवसेन के कथन में ) में अंतर है । श्रथात् पदार्थ सामान्य दृष्टिसे अभेदरूप है उसमें भेद करना अपरमार्थभूत है । किन्तु पदार्थको सर्वथा अभेदरूप मानना यह भी तो अपरमार्थभूत है । क्योंकि वस्तु भेदाभेदरूप है । वह प्रमाण गोचर है प्रमाण है वह सम्यग्ज्ञान रूप है ।" सम्यग्ज्ञानं प्रमा” उसको अप्रमाण परमार्थरूप कैसे कहा जाय । नय है सो प्रमाणका अंग है और प्रमाण है वह नयका श्रंगी है। अतः प्रमाणका विषय जो पदार्थ को भेदाभेदरूप से प्रहण करना है। वह यदि सत्यार्थ है परमार्थ भूत है तो प्रमाण से उत्पन्न हुई नयका भेदाभेदरूप कहना कथं Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की चित असत्यार्थ कैसा ? वह भी एकदेश सत्यार्थ है उन नयों का कहना यदि निरपेक्ष है तो वह प्रमाण वा अङ्ग भी नहीं है और उनका कहना भी अभूतार्थ है-मिथ्या है। क्योंकि उससे वस्तुकी सिद्धि नहीं होती । वस्तु न तो भेदरूप ही है और न अभेदरूप है' है! वस्तु भेदाभेद रूप है, सामान विशेषात्मक है । अतः उसका कथन मुख्य और गौर से किया जाय तो वस्तुस्वरूपकी सिद्धि होती है अन्यथा नहीं मुख्य गौणसे वस्तुकी सिद्धि तवही हा सकती है जब दोनों नय मापेक्ष हो. निरपेक्ष नयों में मुख्य गौण की व्यवस्था ही नहीं बनती इसलिये निरपेक्ष नयों से कहा हुआ पदार्थ अपरमार्थभूत ही है और उसका प्रतिपादन करनेवाला नय भी अपरमार्थभूत है। परन्तु मुख्यगौण कीपेक्षा वस्तु का भेदाभेद रूप कथन अपस्मार्थभूत नहीं है. क्योंकि वस्तु में यह गुण है इन गुणवाली वस्तु है यह ज्ञान भेदाae arts fear नहीं होता । जिस प्रकार मनुष्यके हस्तपादादि अवयव अंग उपांग हैं, गौर स्वास्मादि रूप है वाल युवादि अवस्था उसकी पर्याय है इस प्रकार भेदको जाने विमा मनुष्य ऐसा होता हैं ऐसा ज्ञान बिना भेदके कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता है उमीप्रकार वस्तु गुण और पर्याययुक्त है अतः वस्तुके गुणांका और उनकी पर्यायोंका भेदरूप ज्ञान हुये विना यह वस्तु इन गुणों वाली तथा पर्यायवाली है ऐसा ज्ञान कैसे होगा ? कदापि नहीं होगा । इसलिये व्यवहार नय द्वारा वस्तुमें अभेदको गौण कर किया गया भेद वस्तुस्वरूपका ही प्रतिपादक है इसलिये व्यवहार नय भी परमार्थाभूत है । किन्तु उस वस्तुका कथन सामान्य धर्म का लक्ष्य छोडकर निरपेक्षभेदरूप करै ता वह पदार्थभी मिथ्या है और उसका कथन करनेवाला नय भी मिथ्या है तथा पदार्थको भेरूप समझनेवाला भी मिध्यादृष्टि है उसी प्रकार भेद निरपेक्ष केवल सामान्यधर्मका प्रतिपादन करनेवाला निश्चयनय भी मिथ्या 4 : For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ...marnamani.marrrrrrrrs. समीक्षा था. विशेषरहित वह पदार्श भी मिथ्या है एवं उसका श्रद्धान करनेवाला जोबभी मिथ्यादृष्टि है । इसलिये प्रमाण नय करि जो बालुका जानपना होता है वह दो प्रकारसे होता है ज्ञान द्वारा तथा शाल द्वारा । ज्ञान तो पंच प्रकार का मतिश्रुतादि । तथा शब्दात्मक विध निषेधरूप है । कोई शब्द तो प्रश्नके करने पर विधिरूप है असे सर्ववस्तु अपने द्रव्य क्षेत्र काल और भाव करि अस्तित्वरूप हे तथा कोई शब्द निषेधरूप है। जैसे समस्त वस्तु परचतुष्टयकर मास्तित्वरूप ही है तथा कोई शब्द विधिनिषेधरूप है जैसे समस्त वस्तु अपने तथा परके द्रव्यक्षेत्रकाल भाव करि अनुक्रम करि अस्तिनास्तिरूप है । तथा कोई शब्द विधि निषेध दोनोंको अवकम्य कहै है । जैसे समस्तवस्तु अपने वा परके चतुष्टयसे एक काल अस्तित्वनास्तित्वस्वरूप है । अत: एक काल ( समय) कहे जाते नहीं इसलिये अवक्तव्यस्वरूप है । तथा कोई शब्द विधिनिषेधको क्रमकरि कहै है एक समयमें नहीं कहा जाय है इसलिये विधि अवक्तव्य निषेध अवक्तव्य अथवा विधिनिषेधश्रवक्तव्य ऐसे विधिनिषेधके शब्द सप्त भंग रूप वस्तुको साधे हैं ! इसलिये वस्तु का स्वरूप सर्वथा वचन अगोचर ही है सो बात नहीं है क्योंकि सर्व ही पदार्थ ममान परिणाम असमानपरिणाम रूप है । इस लिये समानपरिणाम है वह तो वचनगोचर है । तथा सर्वथा अममानपरिणाम शुद्धद्रव्यके शुद्ध पर्यायके अगुरुलधु गुणके अविभाग परिच्छेद रूप पर्याय है वह किसी द्रव्यके समान नहीं है। इसलिय वह वचन अगोचर है। क्योंकि वचनके परिणाम तो संख्यात ही है । और यह असमान परिणाम अनन्तानन्त हैं। इस लिये इनकी संज्ञा वचनमे बन्धतो नहीं तात ये प्रवक्तव्य ही हैं। ऐसे वक्तव्यावक्तव्यरूप वस्तुका स्वरूप है । अतः वक्तव्यावक्तव्य स्वरूप वस्तु को साधने केलिये कथंचित् शब्दका भी प्रयोग करना चाहिये क्योंकि कथंचित् शब्दसे एकान्तवादका परिहार और For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की वस्तु स्वरूपकी सिद्धि होती है। उदाहरण-स्यादस्त्येव जीवादिः स्वद्रव्य क्षेत्र काल भावात स्यान्नास्त्येव जीवादित पर द्रव्य क्षेत्र काल भावात् । स्यादस्तिना. स्त्येव जीवादिः क्रमेण स्वपर द्रव्य क्षेत्र कालभावान । स्यादवक्तन्य एव जीवादिः युगपत् स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावात् । स्यादस्त्येवतव्य एव जीवादिः स्वचतुष्टयाद्युगपत्स्वपरचतुष्टयाच्च स्यान्नास्त्य बक्तव्य एव जीवादिः परचतुष्टयात् युगपत् स्वपरचतुष्टयाच्च स्थादस्तिनास्त्यवक्तव्य एव जीवादिः क्रमेण स्वपरचतुष्टयात स्परचतष्टय च्च, इत्यादि सर्वपदार्थोके साथ स्यात् शब्द जोड सही वस्तु स्वरूपकी सिद्धि होती है और एकान्तका निराकरण हो जाता है। . उपर जो यह कहा गया था कि प्रमाणवाक्य तो सकलादेशी है और नयवाक्य बिकलादेशी है अतः सकलादेश तो प्रमाणा धीन है और विकलादेश नयाधीन है इसका स्पष्टीकरण-सकलादेश है सो अशेष धर्मात्मक जो वस्तु है उसको युगपत्त वालादिकार अभेद वृत्तिकरि अथवा अभेद उपचार करि कहना सो तो प्रमाणाधीन है । विकलादेश है .सो. अनुक्रमरि भेदोपचारकरि अथवा भेद प्रधान कार कहना सो नयाधीन है। तहां अस्तित्वादि धर्मनिकों कालादि करि भेद विवक्षा करे तब एकही शब्दके अनेक अर्थकी प्रतीति उपजाबने का अभाव है। इसलिये क्रमकरि कहे हैं। अथवा जो अस्तित्वादि धर्म कालादिकर प्रभेदवृत्ति करि कहना तब एक ही शब्द करि अनेक धर्मकी प्रतीति उपजावनेकी मुख्यता करि कहै तहां योगपदा है। ते कालादि कौन, काल-आत्मस्वरूप, अर्थ, सम्बन्ध, उपकार गुण देश, संसर्ग, शब्द, ऐसे यह पाठ है इनकरि वन्तु साधिये है स्याज्जीवादि वस्तु अस्त्येव ऐसा वाक्य है । अर्थ कथंचित जीवादि वस्तु है सो अस्तिरूप ही है । तहां काल जो अस्तित्वका है सोही For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा काल अवशेष अनन्त धर्मका एक वस्तु में है। ऐसे तो कालकरि अभेदवृत्ति है। तथा जो वस्तुका अस्तित्वके तद्गुणपणा है श्रात्मरूपं है मोही अनन्तगुणनिका भी है। ऐसे आत्मस्वरूपकी अभेद वृत्ति है। तथा जो द्रव्यनामा आधार अस्तित्वका है सो ही अन्य पर्यायनिका है ऐसे अर्थकरि अभेदवृत्ति है तथा जो कथंचित् तादात्मक स्वरूप अभेदभाव संवन्ध अस्तित्वका है सोही समस्त विशेषनिका है । ऐसे सम्बन्धकरि अभेदवृत्ति है । तथा आपमें अनुरक्त करना उपकार अस्तित्वका है सोही अन्यगुणनिका. है. ऐसे उपकार करि अभेदवृत्ति है तथा जो गुणीका देश अस्तित्वका है सो ही अन्य गुणनिका है ऐसे गुण देशकरि अमेदवृत्ति है। तथा जो एक वस्तुत्य स्वरूपकरि अस्तित्वका संसर्ग है सो ही अन्य समस्त धर्मनिका है । ऐसे संसर्ग -करि अभेदवृत्ति है । तथा जो अस्तित्व ऐसा शब्द अस्तित्व धर्म स्वरूप वस्तुका वाचक है सो ही वाकीके अशेष धर्म स्वरूप वस्तुका वाचक है। ऐसे शब्दकार अभेदवृत्ति है । ऐसे पर्यायार्थिकको गोणकरि द्रव्यार्थिक पणाके प्रधानपणाते प्राप्त होय है किन्तु द्रव्यार्थिकको गौणकरि पर्यायार्थिक को प्रधान करि गुणनिकी कालादिक अष्ट प्रकार की अभेदवृत्ति नहीं होती क्योंकि क्षण २ प्रति और और पणाकी प्राप्ति होनेसे सर्व का काल भिन्न भिन्न है नाना गुण एक वस्तुविषे एककाल नहीं पाया जाता यदि पाया जावे तो गुणों का आधाररूप वस्तु के भी उतनेही भेद होजावेंगे इमलिये कालकरि भेदवृत्ति है । तथा तिनि गुणनिका आत्मस्वरूप भी भिन्न है। क्योंकि अभिन्न होय तो भेद कैसे होय । तातें अात्मस्वरूपकरि भेद वृत्ति है । तथा तिनिका आश्रयभी जुदा जुदाही है जो जुदा न होय तो नाना गुणका प्राश्रय वस्तु न ठहरे ऐसे आश्रयकरि भेदवृत्ति है ! तथा सम्बन्धीके भेद करि भेद देखिये हैं। जातें अनेक सम्बन्धनिकरि एक वस्तु विषे सम्बन्ध वणता For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org नहीं इसलिये सम्बन्धरि भेद वृत्ति है। तथा गुणनिकार किया उपकार प्रतिनियत जुदा जुदा ही है तारों अनेक हैं इसलिये उपकारकरि भेद वृत्ति है । तथा गुणीका देश है सो गुण गुणी प्रति भेदरूप है । अभेदरूप कहिये तो भिन्न पदार्थ के गुणते भी अभेदका प्रसंग श्रावे इसलिये गुण देशसे भी भेद वृत्ति है । तथा शब्द के विषय प्रति नानापरणा है सर्व गुणनिका एक ही शब्द वाचक होय तो सर्वपदार्थनिका एक शब्द वाचक ठहरे तब अन्य शब्द के निरर्थकपणा आवे ऐसे शब्द करि भेद: वृत्ति है । ऐसे परमार्थते अस्तित्वादि, गुणनिका वस्तुविष अभेदका असंभव होते कालादिक करि श्रभेदोपचार कीजिए हैं । ऐसे अभेद वृत्ति अभेदोपचार भेद वृत्ति भेदोपचार इनि दोऊनिते एक शब्द अनन्तधर्मात्मक जीवादि वस्तुका यहु स्यात् शब्द है सद्योक है। 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपरोक्त कथन eeraaकरि स्पष्ट करिये है जैसे कोई एक मनुष्यनामा वस्तु है सो गुण पर्यायनिकरि समुदायरूप समुदायरूप तो द्रव्य है। और याका देहप्रमाण संकोच विस्ताररूप क्षेत्र है। तथा गर्भ से लेकर मरणापर्यंत याकाकाल है तथा जितनी गुणपर्यायनिकी अवस्था है वह याके भाव है ऐसे द्रव्यादि चतुष्टय या गर्भित है कालादिकर अभेदवृत्तिरि कहिये तव जेते काल आयु बल पर्यंत मनुष्यपणा नामा गुश है तेते ही काल अन्य या सर्व धर्म हैं। ऐसे कालकरि प्रभेदवृत्ति है तथा जो ही मनुष्य परण के मनुष्यरूपकरणा आत्मरूप है मोही अनेक अन्यगुणनिके है। ऐसे श्रात्म रूपकरि अभेदवृत्ति है तथा जोही श्राधारद्रव्यनामा अर्थ मनुष्यका है मोड़ी अन्य या पर्यायनिका है। ऐसे अर्थकार अभेदवृत्ति है तथा जोही अभिन्नभावरूप तादात्म्यलक्षणसम्बन्ध मनुष्यपणा के है सोही अन्य सर्वगुण निके है ऐसे सम्बन्धकरि अभेदवृत्ति है । तथा जोही उपकार मनुष्यपणाकरि अपने स्वरूप करणा है सो ह For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा अन्य अवशे. गुणनिकार करिये ऐसे उपकारकरि अभेदत्ति है तथा जोही गुणीका देश मनुष्यपणाका है सो ही अन्य सर्वगुणनिका है। ऐसे गुणदेशकार अभेदवृत्ति है । तथा जाही एकवस्तुस्वरूपकरि मनुष्यपर्यायका संसर्ग है सोही अन्य अवशेष धर्मनिका ई ऐसे संसर्गकरि अभेदवृत्ति है। तथा जोही मनुष्य ऐसा शब्द मनुष्यस्वरूपवस्तुका बाचक है सोही अन्य अवशेषअनेकधर्मोका है ऐसे शब्द करि अभेद वृत्ति है ऐसे पहचाधिकनयके गौण होते द्रव्याथिकनयकी प्रधानतात अभेदवृत्ति वर्ण है। ऐसे ही द्रव्याथिक नय गौण होते पर्यायाथिक प्रधान करनेसे कालादिककी अभेदवृत्ति अष्ट प्रकार नहीं वो है क्योंकि क्षरण क्षण प्रति मनुष्यपणा और और गुण पर्याय रूप है । इसलिये सर्वगुणपर्यायनिका भिन्न भिन्न काल है एक काल एक मनुष्य पणा विपे अनेक गुण असंभव हैं। यदि संभव मानिये तो गुणनिका आश्रयरूप जो मनुष्यनामा वस्तु सो जेते गुण पर्याय हैं उत्तने ठहरे इमलिये कालकरि भेदत्ति है । तथा अनेक गुणपर्यायनिकार किया गया उपकार भी जुदा जुदा है यदि एकही मानिये तो एक मनुष्यपणा ही उपकार ठहरे ऐसे उपकारकरि भेदवृत्ति है। तथा गुणनिका देश है सो गुणगुणप्रति भेदरूपही करिहै अन्यथामनुष्यपणाका ही देश ठहरे अन्यका न ठहरै इसलिये गुणदेशकरि भी भेदवृत्ति है । तथा संसर्गकारभी भेदवृत्ति है । तथा शब्द भी सर्वगुणपर्यायनिका जुदा जुदा वाचक हैं । एक मनुष्यपणा ऐसा ही वचन होय तो सर्वके एक शब्द वाच्यपणाकी प्राप्ति ठहरे ऐसे मनुष्यपणाने आदिकरि सर्वही गुणपर्यायनिके एक मनुष्य नाम वस्तुविषे अभेदवृत्तिका असंभवपणाते भिन्न भिन्न स्वरूपनिकरि भेदवृत्ति भेदका उपचार करिये है। ऐसे इनि दोऊ मेदवृत्ति भेदोपचार अभेदवृत्ति अभेदोपचारत एकशब्दकरि एक मनुष्यादि वस्तु में अनेकधर्मात्मकपणाको स्यात्कार है वह प्रगट करने For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की वाला है अतः इनके सप्त भंग होते हैं। जैसे एक घटनाम वस्तु है सो कचित् घट है । कथंचित् अघट है । कथंचित अवसव्य है कचित् घट अवक्तव्य है । कचित् अघट अवक्तव्य है। कचित् घट अघट अवतव्य है । ऐसे विधिनिषेध का मुख्य गौरण विवक्षा करि निरूपण करना। तहां अपने स्वरूपकार कचित् चट है। परस्वरूपगरि कथंचित् अघट है । तहां का ज्ञान तथा घटका अभिधान (संज्ञा) की प्रवृत्तिका कारण जो घटाकार चिन्ह सो तो घटका स्वात्मा कहिये स्वरूप है । जहां घट का ज्ञान तथा घटका नामकी प्रवृत्तिका कारण नहीं ऐमा पटादिक सो परात्मा कहिये परका स्वरूप है। सो अपने स्वरूपका ग्रहण और पर स्वरूपका त्यागकी व्यवस्था रुप ही वस्तुका दस्तुपणा है । जो आप वि परते जुदा रहनेका परिणाम न होय तो सर्व पर घट रूप हो जायगा अथवा परते जुदा होते भी अपने स्वरूपका प्रह का परिणाम न होय तो गधाके सींगवत् अवस्तु ठहरे ऐसे से विधि निषेध रूप दोय भंग होते हैं इसी प्रकार सब पर घटा लेने चाहिये तथा नाम स्थापना द्रव्य और भाव इन चारों निक्षेपों पर भी घटित करलेना चाहिये। जाकी विवक्षा करिये सो तो घटका वात्मा है जाकी विवक्षा न करिये सो परात्मा है अतः विवक्षित स्वरूप करि तो घट है। तथा अविवक्षित स्वरूप करि अघट है जो अन्य स्वरूप भी घट हो जाय और विवक्षित स्वरूप करि न होय तो नामादिकका व्यवहार का लोप हो जाय । ऐसे ये च्यारिनिके दोय दोय भंग होते हैं अथवा विवक्षित घट शब्दवाच्य समानाकार जे घट तिनिका सामान्यकर, जे विशेषाकार घट तिति विषे कोई एक विशेष ग्रहण करिये ता विषे जो न्यारा आकार है मो तो घट का स्वात्मा है अन्य सर्व परात्मा है । तहाँ अपना जुद | रूप करि घट है अन्य रूप करि अघट है जो अन्य रूप करि For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोक्षा मी घट होय तो सर्व घट एक घट मात्र होय तो सामान्याश्रय व्यवहारका लोप हो जाय । ऐसे ये दोय भंग होते हैं इहां जितना विशेष घटाकार होय उतने हो विधि निषेधके भंग होय जाय हैं। अथ.. तिस हा घट विशेष कालान्तर स्थाई होते पूर्व उत्तर कपालादि कुशूलाग्न अवस्थाका समूह सा घटका परात्मा तथा ताके मध्यवर्ती घट सो स्वात्मा सा तिस स्वात्मा करि घट है । इसलिये ताविष ताके कम वा गुण दीखते हैं। ___ अनः अन्य स्वरूप करि अघट है। जो कपालादि कुसूलांत स्वरूप करि भी घट होय तो घट अवस्था विषे भी तिनि की प्राप्ति होनी चाहिये। फिर तो उपजावने निमित्त तथा विनाशके निमित्त पुरुषका उद्यम निष्फल हो जायगा । तथा अंतरालवी पर्याय घट स्वरूप करि भी घट न होगा इस हालतमें घट करि करने योग्य फल भी न होयगा। ऐसे ये दोय भंग होते हैं अथवा क्षण क्षण प्रति द्रब्यके परिणामके उपचय अपचय भेदते अर्थान्तरपना होय है या ऋजु सूत्र नयकी अपेक्षा ते वर्तमान स्वभाव करि घट है। अतीत अनागत स्वभाव करि अघट है । ऐसे न होय तो वर्तमान की ज्यों अतीत अनागत स्वभाव करि भी घट होय ता एक समय मात्र सर्व स्वभाव होय तथा अतीत अनागतकी ज्या वर्तमान स्वभाव भी होय तो वर्तमान घट स्वभावकः अभाव होनेसे घटका आश्रय रूप व्यवहारका भी अभाव होगा जैसे विनस्या नथा नहीं उपज्या घटके घटका व्यवहार का प्रभाव है तैसे यह भी ठहरे ऐसे दोयभंग होय है अथवा तिस वर्तमान घट विषे रूपादिक का समुदाय परम्पर उपकार वारने वाला है उन विषे पृथु बुध्नोदरादि श्राकार है सो घटसा त्यामा है। अन्य सर्व परात्मा है । तिस आकारते घट है। अन्य आकार करि अघट है । घटका व्यवहार तिस ही भाकारते हैं, तिस विनः अभ व है। अत : पृथु बुध्नोदराद्याकार करि भी बढ़ न होय ते For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५२ जैमीमांसा की wani maan काका? यदि इतर आकारकरि घट होय तो आकारशून्यविषे भी घटव्यवहार की प्राप्ति आवे । ऐसे ये दोय भंग हैं । अथव रूपादिका संनिवेश जो रचनाविशेष आकार तहां नेत्रकरि घटग्रहण होय है। तहां व्यवहारविषे रूपको प्रधानकरि घटग्रहण कीजिये तहां रूप घटका स्वात्मा है और उसमें रसादिक है वह परात्मा है सो घटरूपकरि तो घट है । रसादिककरि अघट है । जातें ते रसादिक न्यारे इंद्रियनिकरि ग्राह्य हैं । जे नेत्र करि घटग्रहण कीजिये हैं तैसे रसादिक भी ग्रहण करें तो सर्वके रूपपणाका प्रसंग आवे इस हालत में अन्य इन्द्रियनिकी कल्पना निरर्थक होय क्योंकि रसादिककी ज्यों रूप भी घट ऐसा नेत्र नाहीं ग्रहण करे तो नेत्रगोचरता या घटमें न होय । ऐसे ये दोय भंग होय हैं । अथवा शब्द के भेदते अर्थका भेद अवश्य है। इस न्यायकरि घट कुट शब्दनिके अर्थभेद है । तातें घटनेते तो घट नाम है और कुटिलता ते कुटिल नाम है अतः तिसक्रियारूप परिणति के समयही तिस शब्दकी प्रवृत्ति होय है इस न्यायसे घटनक्रियाविषे कर्तापणा है सो ही घटका स्वात्मा है। कुटिलतादिक परात्मा है। तहां घटक्रियापरिणति क्षणही में घट है। अन्य क्रियामें अघट है जो घटन क्रिया परिहातिमुख्यताकरि भी घट न होय तो घटव्यबहारकी निवृत्ति होय अथवा जो अन्यक्रिया अपेक्षा भी घट होय तो तिस क्रियाकरि रहित जे पटादिक तिनिविषे भी घटशब्दकी प्रवृत्ति होय । ऐसे ये दोय भंग भयं । अथवा वटशब्द उच्चारणते उपजा जो घटके आकार उपयोग ज्ञान सो तो घटका स्वात्मा है तथा वाह्य घटाकार है सो परात्मा है वाह्यघटके अभाव होते भी घटका व्यवहार है सो घट उपयोगाकार करि तो घट है तथा वाह्याकारकरि अघट है। जो उपयोगाकार घटस्वरूपकरि भी अघट होय तो बक्ता श्रोताके हेतुफलभूत जो उपयोगाकार घटके प्रभावतें तिस आधीन व्यवहारका भी अभाव होय अथवा जो उपयोग से दूरवर्ती जो बाह्य घट भी घट होय तो पटादिकके भी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा घट का प्रसंग श्रावे ऐसे दोय भंग ये भये अथवा चैतन्यशक्ति हो आकार है । एक ज्ञानाकार है एक झयाकार है। तहां यते जुड्या नाही ऐसा आरसाका, विना प्रतिविम्य आकारबत् तो ज्ञाना कार है तथा ज्ञयते जुड्या प्रतिविम्बभहित आरसाका आकारयत् ज्ञ याकार है। तह घटज्ञ याकाररूप ज्ञान तो घटका स्वात्मा है । घटका व्यवहार याही ते चले है तथा विना घटाकार ज्ञान है सों परात्मा है याते सर्व ज्ञय ते साधारण हैं। अतः घट ज्ञेयाकारकरि तो घट है विना घटाकार ज्ञानकरि अघट है । जो शयाकार भी घट न होय तो तिसके आश्रय जो करने योग्य कार्य है ताका अभाव होय । अतः ज्ञानाकारकरि भी घट होय तो पटादिकका आकार मा ज्ञानका प्राकार है सो भी घट ठहरे । ऐसे ये भी दोय भंग भए इन दोय दोय भंगां के अतिरिक्त इनके पांच पांच भंग और करने से सबके सात सात भंग हो जाते हैं। __ एक घट एक अघट ऐसे दोय भेद कहे ते परस्पर भिन्न नहीं है जो जुदे होय तो एक प्राधारपणा करि दोङके नामकी तथा दोऊ. के ज्ञानकी एक घट वस्तुविषै वृत्ति न होय घट पट वत तो परस्पर अविनाभावहोते दोऊ में एक का अभावही से दोऊका अभाव हो जाय तब इसके आश्रय जो व्यवहार ताका लोप होय इमलिये यह घट है सा घट अघट दाऊ स्वरूप है सो अनुक्रमकरि तो वचन गाचर है । परन्तु जो घट अघट दोऊ :स्वरूप को घट ही कहिये तो अघटका ग्रहण न होय अथवा अघटही कहिये तो घटका ग्रहण न होय इसलिये एकही शब्द करि एक काल दोऊ कहने में न आ ताते अवक्तव्य है तथा घट स्वरूप की मुख्यताकरि करा जो वक्तव्य सो युगपत् न कहा जाय ताकी मुयस्ता करि घट अवक्तव्य है तथा इसी प्रकार अघट भी अवक्तव्य है तथा क्रमकरि दोऊ कहे जायें युगपतू न कहे जाय इसलिये घट अघट दोऊ For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की अवक्ताय है । एसे यह सप्तभंगी सम्यग्दर्शनादिक तथा जीवादक पदार्थनिविधे द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयका मुख्य गौण भेद करि लगानेसे शनन्तवस्तु अनन्तधर्मके परम्पर विधिनिषेधते अनन्त सप्त भंगीहोय है । इनिका सर्वथा एकान्त अभिप्राय होय तो मिश्या वाद है इसी प्रकार सप्तभंगी प्रमाण और नयों में भी होती है यहां प्रमाण का विषय तो अनन्त धर्मात्मक वस्तु है तहां एक ही वस्तु का वचन के सर्व धर्मनिकी अभेदवृत्ति करि तथा अन्य वस्तु के अभेदके लाचार करि प्रमाण सप्तभंगी होय है। तथा नय का विषय एक धर्म है ताते तिस धर्म की भेदवृत्ति करि तथा अन्य नय का विषय जो अन्य धर्म ताके भेदके उपचारकरि नय सप्त मंगी होय है (शंका) अनेकान्त ही है ऐसे भी एकान्त पाये है . घ अनेकान्त कैसे रहा ? ताका समाधान-यह सत्य है जो अनेकान्न है.सो भी अनेकान्त ही है जाते प्रमाण बचन करि तो अनेकान्त ही है। नया नय वचन करि एकान्त ही है। ऐसे एकान्त ही सम्यक है जहां प्रमाणकी सापेक्षा है । और जहां निरपेक्ष एकान्त है सो मिथ्या है । इहां फेर शंका-अनेकान्त तो छलमात्र है पैलेकी युक्ति वाधने को छलका अवलम्बन है। समाधान-छलका लक्षण तो अर्थ का विकल्प उपजाय पैलेका वचन खंडन करना है। सो अनेकान्त ऐसा नहीं है । क्योंकि वह तो धर्म की प्रधान गोण की अपेक्षाकरि वस्तु जैसी है वैसी कहे है इसमें छल काहेका है। फेर यदि कोई यह शंका करे कि दोय पक्षका साधन तो संशयका कारण है उत्तर-दोपक्ष साधना संशयका कारण नहीं है संशय मिटाने का कारण है संशयतो तब होय जवकि दोऊ पक्षका निश्चय न होय । परन्तु यहां तो अनेकान्तविर्षे दोऊपक्षके विषय प्रत्यक्ष निश्चित हैं इसलिये मंशयका कारण नहीं है और विरोध भी नहीं है क्योंकि नय करि ग्रहें ले विरुद्ध धर्म तिनिका मुख्यगोणके कथनके भेदते सर्वथा भेद नहीं है । जैसे एक ही पुरुषविषे पितापणा पुत्र For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा पया इत्यादिक विरूद्ध धर्म हैं तिनिके कहनेका मुख्य गौणविदाकरि विरोध नहीं है तेसे इहां भा जानलेना । इस उपरोक्त श्लोकवातिक के कथनसे यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है कि नय प्रमाण परस्पर सापेक्ष रहते जो भी वस्तुस्वरूपका कथन किया जाता है वह सव मत्यार्थ है क्योंकि वस्तु श्रनन्त धर्मात्मक है उन श्रन्न्त antar infia are aथनसे ही होगी। भेदरूप कथन करना हार नय का विषय है। तथा पदार्थ गुण गुणी अभेदरूप भी है अत: उear अभेदरूप ग्रहण करना निश्चयनयका विषय है । तथा पदार्थ गुण गुणी भेदाभेदरूप भी है इस लिये पदार्थका भेदाभेदरूपसे ग्रहण करना प्रमाणका विषय है अर्थात् वस्तुके भेद और अंशका ग्रहण करने वाला व्यवहार और निश्चय नय है । तथा वस्तुके भेदाभेद अंशोंको एक साथ समकालीन ग्रहण करना प्रमाण का विषय है इसलिये वस्तुस्वरूपका प्रतिपादन जिस दृष्टिसे [या जाता है उस 'टसे वह कथन सत्यार्थ होने से परमाथ भूत है क्योंकि वस्तुस्वरूपको छोडकर कोई भी प्रमाण नय निक्षेप कथन नही करता | कोई भेदरूप कथनकार वस्तुका स्वरूप सिद्ध करता है । कोई अभेदरूप कथन करि वस्तुस्वरूपको सिद्ध करता है। कोई भेदाभेदरूप कथन करि वस्तुस्वरूपको सिद्ध करता है इसप्रकार प्रयोजनवश वस्तुका भेदरूप भेदरूप भेदाभेदरूप कथन किया जाता है। वह वस्तुसे भेद भी भिन्न नहीं, अभेद भी भिन्न नहीं है, भेदाभेद भी भिन्न नहीं है। अतः स तरहसे वस्तुस्वरूप की ही सिद्धि होती है और वस्तुस्वरूप में संदेह संक For Private And Personal Use Only ५५ विदोषोंका निराकरण होता है भेदरूप वस्तुका प्रतिपादन करने ले वस्तु इन गुणोंवाली है ऐसा दृढ श्रद्धान होजाता है छतः वस्तु स्वरूपका दृढ श्रद्धान होना ही तो सम्यकरूप है । आचार्योंने खो वस्तुको अपरमार्थभूत कहा है तथा भेदरूपवस्तुका प्रतिपादन करनेवाला व्यवहारनयको भी अपरमार्थमूत कहा है सो इसका Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की ... .........xxx.imir................ ....... कारण यही है कि वस्तु केवल अंशमात्र ही नहीं है अंशोंका समुदायरूप वस्तु है इसलिये अंशरूपवस्तु सत्यार्थ नहीं होने अंशरूप वस्तु भी अपरमार्थभूत ही है और अंशरूप वस्तुका प्रतिपादन करनेवाला व्यवहारनय मी श्रपरमार्थभूत ही है। क्यों कि एकान्तवादसे वस्तुस्वरूपकी सिद्धि नहीं होती । इसलिये श्राचार्योंने एकान्तवादका परिहार करने के लिये ही स्याद्वादशैलीको अपनाया है इसके विना वस्तुस्वरूपकी सिद्धि नहीं होतो क्योंकि वस्तुस्वरूपही ऐसा है वह एकान्तवादसे सिद्ध नहीं होता इसलिये वस्तु एकरूप है अनेक रूप है, भेदरूप है अभेदरूप है, अस्तिरूप है, नास्तिरूप है, इत्यादिक अनन्तधर्मात्मकस्वरूप वस्तु है उसका कथन एक धर्मको मुख्य और दूसरे धर्मको गौण करके किया जाय तो वह कथन सत्यार्थ ही है । क्योंकि वचनमें यह ताकत नहीं है कि वह अनन्तधर्मोको एक साथ कह सके इसलिये वहां वचन सत्यार्थ है जो दूसरे धर्मों के सापेक्ष उस्तुके एक धर्मका प्रतिपादन करे । मारांश यह है-वचनके कहे विना तो वस्तुस्वरूपका वध होता नहीं और वचन है सो संख्यात् ही है इसलिये वह वस्तुके अनन्तधर्मीका प्रतिपादन एकमाथ कर नहीं सकता, वह क्रमक्रमसे ही कर सकता है । अतः क्रम क्रमसे कथन करना तवही सत्यार्थ होसकता है जब कि वह एक धर्मको मुख्य और दूसरे धर्मको गौण करके कथन करे यदि वह दूसरे धर्मको गौण न करे एक धर्मको कहे तो वह वचन मिथ्या है इसलिये आचार्य कहते हैं कि अनेकान्तोप्यनेकांतः प्रमाणनयसाधनः । निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षाः वस्तुतेऽर्थकृत् । न्यायदीपिका अर्थात् प्रमाणनयोंसे सिद्ध होनेवाला अनेकांत भी अनेकांत है, यदि प्रमागके एक देशको निश्चयात्मक केवल स्वभाव पर्यायको या केवल पवहारात्मक विभावपर्यायको ग्रहण करनेवाला निश्चय For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ...... ..............marma और व्यवहारनयोंको परस्परसापेक्ष न माना जाय एवं केवल निचयनयको या केवल व्यवहारनको हो एकान्तरूपसे पकड कर प्रतिपादन कियाजाय तो वह कथन मिथ्या एवं वस्तुस्वरूपसे विरुद्ध ठहरेगा। क्योंकि वस्तुके एकदेशकोहो एक नय एक समय में जानता है । इसलिये निरपेक्ष नय मिथ्या है । तथा परस्पर सापेक्ष नय निश्चय व्यवहारकी अपेक्षा रखकर वस्तुको ग्रहण करेगा ता समस्त वस्तुस्वरूपका ग्रहण हो जायगा इसीका नाम प्रमाण है । विधिपूर्वः प्रतिषेधः प्रतिषेधपुरस्सरो विधिस्त्वनयोः । मंत्रीप्रमाणमिति वा स्वपराकारावगाहि यज्ज्ञानम्" । ____अर्थात-विधि पूर्वक प्रतिषेध होता है। प्रतिषेध पूर्वक विधि होती है। विधि और प्रतिषेध इन दोनू की जो मैत्री है वही प्रमाण कहलाता है । अथवा स्व पर को जाननेवाला जो ज्ञान है वही प्रमाण कहलाता है । स्पष्टीकरणअयमोंर्थविकल्पो ज्ञानं किल लक्षणं स्वतस्तस्य । एकविकल्पो नयः स्यादुभयनिकल्पः प्रमाणमिति बोधः ॥ अर्थात-अर्थाकार पदार्थकार परिणमन करनेका नामही अर्थ विकल्प है । यही ज्ञानका लक्षण हैं। वह ज्ञान जब एक विकल्प होता है, एक अंश को विषय करता है तब वह नयाधीन नयास्मक ज्ञान कहलाता है । और वही ज्ञान उभय विकल्प होता है, पदार्थ के दोनों अंशोंको विषय करता है तो वह प्रमाणरूप ज्ञान कहलाता है। अयमर्थो जीवादौ प्रकृतपरामर्शपूर्वकं ज्ञानं । यदि वा सदभिज्ञानं यथा हि सोयं वलावयामशि ।। ___ अर्थात्-ऊपर जो कुछ कहा गया है उसका अर्थ यह है कि ‘जीवादि पदार्थोमे व्यवहार और निश्चयके विचार पूर्वक ज्ञान है वही प्रमाण ज्ञान है अथबा पदार्थमें जो प्रत्यभिज्ञान है वह प्रमाण For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न तत्व मीमांसा की ज्ञान है जैसे-ग्रह वही हैं इस प्रकारका ज्ञान एक वस्तुकी सामान्य विशेष दोनो अवस्थाओंको एक समयमें ग्रहण करता है । प्रमाण का फलःफलमस्यानुभवः स्यात्समक्षमिव सर्ववस्तुजातस्य । ' आख्याप्रमाणमिति किल भेदः प्रत्यक्षमथ परोक्षं च ।। अर्थ-सम्पूर्ण वस्तु मात्रका प्रत्यक्षके समान अनुभव होना ही प्रमाणका फल है । प्रमाण नाम प्रमाण है इसमें अप्रमाणकी कोई बात नहीं रहती क्योंकि सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम' सम्यज्ञान है वही प्रमाण है उसीके द्वारा पदार्थ प्रत्यक्षके समान भासता है फिर उसमें अप्रमाणता की बात ही क्या है ! अतः प्रमाण वस्तु के सर्वधर्माको विषय करता है और नय वस्तुके एक देशको ग्रहण करता है। इसलिये प्रमाण और नयम विषय विशेषकी अपेक्षा से भेद है तथापि दोनों ही ज्ञान ज्ञानात्मक होनेसे इनमें कुछभी भेद नहीं है इसलिये इनमेंसे किसी एकका लोप करनेसे सर्व के लोपके प्रसंगका हेतु है। क्योंकि नयके अभावमें प्रमाण व्यवस्था नहीं बन सकती और प्रमाण के अभावमें नयकी भी व्यवस्था नहीं बन सकती दोनोंकी व्यवस्था के विना वस्तुरूप का भी वोध हो नहीं सकता इसलिये इनमें से किसी एकको अपरमार्थाभूत समझ कर उसका लोप करना वस्तु स्वरूपका ही लोप करना है । यह बात उपरोक्त कथनसे अच्छी तरह सिद्ध हो चुकी । इसलिये प्रमाण नय निक्षेप इनमें से किसीका भी कथन वस्तु स्वरूपको छोडकर नहीं है ये सत्र ही वस्तु स्वरूएकी ही सिद्धि करते हैं। जिम प्रकार वस्तु स्वरूपसे वस्तुके गुण धर्म अभिन्न है उसी प्रकार प्रमाणसे नय निक्षेप भी अभिन्न है प्रमाण स्वाधीन है दीपवत् स्व पर प्रकाशक है। तथा नाम स्थापना द्रव्य ये तीन निक्षेप तौ द्रव्यार्थिक नयाश्रीन है । नय प्रमाणाधीन है और निक्षेप नयाधीन है। For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ___ तथा भाव निक्षेप पर्यायाथिक नय है । नथा निक्षेप विषय विषयीके भेदसे जुदे भी है। सत्यं गुणसाक्षेषो सविपक्षः स च नयः स्वपक्षपतिः । य इह गुणाक्षेपः स्यादुपचरितः केवलं म निक्षपः । ७४. पंचाध्यायी अर्थात् नय तो गौण और मुख्य को अपेक्षा रखता है। इसलिये वह विपक्ष सहित है नय मदा अपने विवक्षित पक्षका स्वामी है । अर्थात् वह विवक्षित पक्ष पर आरूढ रहा है और दूसरे प्रति पक्षकी अपेक्षा भी रखता है। किन्तु निक्षेपमें यह बात नहीं है। यहां तो गौण पदार्थमें मुख्यका आक्षेप किया जाता है इसलिये निक्षेप केवल उपचरित है। निक्षेप और नगमें सबसे बढा भेद तो यह है कि नय तो ज्ञान विकल्प रूप है और निक्षेप पदार्थो में व्यवहार के लिये हुये संकेतोंका नाम है। अतः संकेत करि कहीं तो तद्गुण होता है और कहीं पर अतद्गुण होता है नय और निक्षेपमें विषय विषयी सम्बन्ध है । नय विषय करने वाला ज्ञान है और निक्षेप उनका विषयभूत पदार्थ है। इसलिये नयोंके कहनेसे ही निक्षेपोंका विवेचन स्वयं हो जाता है। अतः इनका स्वतंत्र उल्लेख करनेकी श्रावश्यकता नहीं है फिर भी यह शंका हो सकती है कि जन निक्षेप नयका ही विषय है दो फिर चार निक्षेपीका स्वतंत्र विवेचन सूत्रों द्वारा ग्रंथकारोंने किसलिये किया है ? इसके उत्तरमें इतना ही क ना पर्याप्त है कि केबल समझाने के लिये निक्षेपों का निरूपण किया गया है । अन्यथा विषयभूत पदार्थों में ही वे गर्मित हो जाते हैं। दूसरे भिन्न भिन्न व्यवहार चलाना ही नियोका प्रयोजन है । इसलिये उस प्रयोजनको स्पष्ट करनेके लिये प्रथकारोंने उनका निरूपण For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६० जैन तत्त्वममांसा की किया है। श्लोक में " गुणाक्षेपः" पर आया है उसका अर्थ चारों निक्ष पीमें इस प्रकार घटित कर लेना चाहिये । नाम गौण पदार्थ में अर्थात अतद्गुण पदार्थ में केवल व्यवहा रार्थ किया हुआ आक्षेप, स्थापना में श्रतद्गुण पदार्थनें किया हुआ गुणों का आक्षेप, द्रव्य में भावि अथवा भूत तद्गुण में वर्तमानवत् किया हुआ गुणों का आक्षेप, भावमें वर्तमान तद्गुणमें किया हुआ वर्तमान गुणों का आक्षेप, इस प्रकार गौणमें आक्षेप अथवा गुणांका आक्षेप हीं निक्षेप है। नाम स्थापना द्रव्य ये तीन निक्षेप द्रव्यार्थिक नयका विषय है। भाव निक्षेप पर्यायार्थिक नयका विषय है । अन्तर नयोंकी अपेक्षा नाम निक्षेप तो सम[free नय का विषय है । स्थापना और द्रव्य निक्षेप नैगम नयका विषय है। भाव निक्षेप ऋजु सूत्र तथा एवं भूत नयका विषय है ! नय प्रमाणका विषय और भी श्राचार्य स्पष्ट करते हैंतत्त्वमनिर्वचनीयं शुद्धद्रव्यार्थिकस्य भवति मतम् । गुणवद् द्रव्यं पर्यायार्थिकन यस्य पक्षोऽयम् || ७४७ || । ---- अर्थात्-तत्त्व अनिर्वचनीय है अर्थात् वचनके अगोचर है यह शुद्ध द्रव्यार्थिक नयका पक्ष है। तथा तव द्रव्य गुण पर्याय वाला है यह पर्यायार्थिक नयका पक्ष है अर्थात तत्त्व अभेद बुद्धिका होना द्रव्यार्थिक नय है और उसमें भेद बुद्धि होना पर्यायार्थिक नय है ? यदिदमनिर्वचनीयं गुणपर्यायवत्तदेव नास्त्यन्यत् । गुणपर्यावद्यदिदं तदेव तत्त्वं तथा प्रमाणमिति || ७४८ || अर्थात- जो तत्त्व अनिर्वचनीय है वही गुण पर्यायवाला है अन्य नहीं है । तथा जो तत्त्व गुण पर्यायवाला है वही तत्त्व है यही प्रमाणका विषय है । भावार्थ- वस्तु सामान्य विशेषात्मक है वस्तका सामान्यांश द्रव्यार्थिकका विषय है उसका विशेषांश For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा पर्यायाथिक का विषय है । तथा सामान्य विशेषात्मक उभयात्मक वस्तु प्रमाण का विषय है। प्रमाण एक ही समय में विरुद्ध रीतिसे दोनों धर्माको विषय करता है। ___ भेदअभेदपक्ष-यव्यंत न गुणो योपि गुणस्तन्न द्रव्यमिति चायोत् । पयोयोपि यथा स्याद् जुनयपक्षः स्वपक्षमात्रत्वात् ॥७५०॥ ___ अर्थात-जो द्रव्य है वह गुण नहीं है, जो गुण है वह द्रव्य नहीं है तथा जो द्रव्य गुण है वह पर्याय नहीं है । यह ऋजुसूत्र नय पर्यायार्थिकका पक्ष है क्योंकि भेद पक्षही पर्यायार्थिक (व्यवहार ) नय का पक्ष है तथा जो द्रव्य है वही गुण है जो गुण है वही द्रव्य है क्योंकि गुण द्रव्य दोनोंका एक ही अर्थ है यह अभेद पक्ष द्रव्यार्थिक (निश्चय ) नय का पक्ष है । तथा भेद और अभेद इन दोनों पक्षों में समर्था विक्षित प्रमाण पक्ष है । अतःपृथगादानमशिष्टं निक्षेपो नयविशेषश्च यस्मात् । तदुदाहरणं नियमादस्ति नयानां निरूपणावसरे॥ ७५१ पंचाध्यायी अर्थात-नय और प्रमाणके समान निक्षपोंका स्वतंत्र निरूपण करने की आवश्यक्ता नहीं है क्योंकि निक्षपोंका उदाहरण नयों के विवेचन में नियमसे किया गया है। एकअनेकपक्ष-अस्ति द्रव्यं गुणोथवा पर्यायस्तत्त्रयं मिथोऽनेक व्यवहारविशिष्टो नयः स वाऽनेक संज्ञको न्यायात् ॥७५२।। अर्थात-द्रव्य अथवा गुण अथवा पर्याय यह तीनोंही अनेक है व्यवहार विशिष्ट यही नय अनेक मंत्रक कहलाता है । क्योंकि For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की व्यवहार नाम पर्यायका है पर्याय विशिष्ट अनेक, अनेक पर्यायर्थिक नय कहलाता है। एकं सदिति द्रव्यं गुणोऽथवा पर्यायोऽथवा नाम्ना । इतरद्वयमन्यतरं लब्धमनुक्त स एकनयपक्षः । ७५३ १६.. ___ अर्थात-द्रव्य अथवा गुण अथवा पर्याय यह तीनों ही एक नामसे सत कहे जाते हैं । अतः यह तीनों ही अभिन्न एक मत रूप है, एक के कहनेसे वाकीके दोनोंका बिना कहे ही ग्रहण हो जाता है । यही एक नयका पक्ष है। मो पर्यायार्थिक नय है। न द्रव्यं नापि गुणो न च पर्यायो निरंशदेशत्वात् । वस्तु न विकल्पादपि शुद्धद्रव्यार्थिकस्य मतमेतत् ॥ ७५४ पंचाध्यायी अर्थान् न द्रव्य है न गुण है न पर्याय है और न विकल्प द्वारा प्रगट है किन्तु निरंश देशात्मक तत्त्व है । यह शुद्ध द्रव्याथिकनयका पक्ष है। ___ "द्रव्यगुणपर्ययाख्ययदनेकं सद्विभिद्यतेहेतोः । तदभेवमनंशन्वादेकं सदिति प्रमाणमतमेतत् ।। ७५५ पंचाध्याय अर्थात् कारणवश जो मनद्रव्य गुण पर्यायोंके द्वारा अनेक रूप भिन्न किया जाता है । वही सत अंश रहित होने से अभिन्न एक है। यह एक अनेकात्मक उभय म्प प्रमाण पक्ष है ! अस्तिनास्तिपक्ष"अपि चास्ति सामान्यमात्रादथवा विशेषमात्रत्वात । अविवक्षितो विपक्षो याचदानन्यः म नाबदस्ति नयः" ! ७५६ पंचाध्यायी For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोक्षा ६३ अर्थात वस्तु सामान्य मात्र से है अथवा विशेष मात्र से है जबतक विपक्ष नय अविवक्षित गौण रहता है तबतक अन्य रूप से यह अस्ति नय ही प्रधान रहता है । "नास्ति च तदिह विशेष: वाम सविवचितायां वा । सामान्यैरितरस्य च गौणत्वं सति भवति नास्तिनयः ।। पंचाध्यायी ७५७ अर्थ--वस्तु सामान्यकी अविवक्षा में विशेषसे नहीं है । अथवा विशेषकी अविवक्षा में सामान्य रूपसे नहीं है यहां पर नास्ति नय ही प्रधान रहता है । " द्रव्यार्थिकनयपक्षादस्ति न स्वरूपतोषि ततः । न च नास्ति परस्वरूपात सर्वविकल्पत्तिगं यतो वस्तु ७५८ पंचाध्यायी 1 तद्रव्यार्थिक नय (निश्चय) की अपेक्षा से वस्तु स्वरूप से भी अस्तिरूप नहीं है । क्योंकि सर्व विकल्पोंसे रहित ही वस्तुका स्वरूप है इस अपेक्षा निश्चय नयसे भी वस्तु स्वरूप अतीत है । "यदिदं नास्तिस्वरूपाभावादस्तिस्वरूपसद्भावात् । दिदं वाच्यत्यय रचितं वाच्यं सर्वप्रमाणपत्रस्य " || ७५६ पंचाध्यायी अर्थात् जो वस्तु स्वरूपाभाव से नास्ति रूप है । और जो स्वरूप सद्भाव में अस्तिरूप है वही वस्तु विकल्पातीत अवक्तव्य है । यह सर्व प्रमाणपत्र है अर्थात् पर्यायार्थिक नयसे अस्तिरूप और र्थिक नयसे विकल्पातीत तथा प्रमाणसे उभयात्मक वस्तु है । नित्य अनित्यपक्षउत्पद्यते विनश्यति सदिति यथास्वं प्रतिक्षणं यावत् । For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा के व्यवहारविशिष्टोऽयं नियतमनित्यो नयप्रसिद्ध : स्यात् ।। ७६० पंचाध्यायी अर्थात सतपदार्थ अपने आप प्रतिक्षण उत्पन्न होता है और विनष्ट होता है यह प्रसिद्ध व्यवहार विशिष्ट अनित्यनय अर्थात व्यवहार नय है। "नोत्पद्यते न नश्यति ध्र वमिति सत्स्यादनन्यथावृत्तेः । व्यवहारान्तरभूतो नयः स नित्योप्यनन्यशरणःस्यात् ।। पंचाध्यायी ७६१ अर्थात् सत न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है। किन्तु अन्यथा भाव न होनेसे वह नित्य है। यह अनन्य शरण स्वपक्ष नियत नित्यव्यवहार नय है। "न विनश्यति वस्तु यथा वस्तु तथा नैव जायते नियमात् । स्थितिमेति न केवलमिह भवति स निश्चयनयस्य पक्षस्य ।। ७६२ पंचाध्यायी अर्थात् जिस प्रकार वस्तु नष्ट नहीं होता है उसी प्रकार वह नियमसे उत्पन्न भी नही होता है तथा वह ध्रुव भी नहीं है । यह केवल निश्चय नयका पक्ष है क्योंकि उत्पाद व्यय और ध्रौव्य ये तीनों ही एक समयमें होने वाली सस की पर्याय है। इसलिये इन पर्यायोंको पर्यायाथिक नय विषय करता है । किन्तु निश्चय नय सर्वविकल्पोंसे रहित वस्तुको विषय करता है। "यदिदं नास्ति विशेषः सामान्यस्याविवक्षया तदिदम् । उन्मज्जत्सामान्यरस्ति तदेतत्प्रमाणमविशेषात् ।। ७६३ पंचाध्यायी For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा अर्थात जो वस्तु सामान्यकी अविवक्षामें विशेषोंसे नहीं के ENही वस्तु सामान्यकी विवक्षासे है । यही सामान्य रीति से प्रमाण ____ अर्थात विशेष नाम पर्यायका है पर्यायें अनित्य होती हैं। इसलिये विशेषकी अपेक्षासे वस्तु अनित्य है । सामान्यकी अपेक्षा से वह नित्य भी है। प्रमाण की अपेक्षा वह नित्यानित्यात्मक है। भाव अभाव पक्ष "अभिनवभावपरिणतेर्योयं वस्तुन्यपूर्वसमयो यः । इति यो वदति स कश्चित् पर्यायाथिकनयेष्वभावनयः ।। ७६४ पंचाध्यायी अर्थात नवीन परिणाम धारण करनेसे वस्तुमें नवीन ही भाव होता है ऐसा जो कोई कहता है वह पर्यायार्थिक नयोंमें अभाव परिणममानपि तथाभूतभावविनश्यमानेपि । नायं पूर्वो भावः पर्यायार्थिकविशिष्टभावनयः ७६५ पंचा० ___ अर्थ-वस्तुके परिणमन करने पर भी तथा उनके पूर्वभावों के विनिष्ट होने पर भी वस्तुमें नवीन भाव नहीं होता है किन्तु जैसा का तैसा ही रहता है यह पर्यायार्थिक भाव नय है। "शुद्धद्रव्यादेशादभिनवभावो न सर्वतो वस्तुनि । नाप्यनाभनवश्च यतः स्यादभूतपूर्वो न भूतपूर्वो वा। ७६६ पंचाध्यापी अर्थ-शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे वस्तुमें सर्वथा नवोन भाव भी नही होता है । तथा प्राचीन भाव भी नहीं रहता है। क्योंकि वस्तु न तो अभूत पूर्व है और न भूतपूर्व है अर्थात् शुद्ध द्रव्यार्थि For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६ जैन तत्त्वमीमांसा की नय को दृष्टि से वस्तु न नवीन है और न पुरानी है किन्तु जैसी है वैसी ही है ! अभिनवभावैयदिदं परिणममानं प्रतिक्षणं यावत् । असदुत्पन्नं नहि तत्सन्नष्टं वा न प्रमाण मतमेतत् ।। ७६७ पंचाध्यायी श्रर्थात् जो सत् प्रतिक्षण नवीन नवीन भावोंसे परिणमन करता है वह न तो असत् उत्पन्न होता है और न सत् विनष्ट ही होता है यहो प्रमाण का पक्ष है। इत्यादियथासम्भव मुक्तभिवानक्तमपि च नयचक्रम् । योज्यं यथागमादिह प्रत्येकमनेकभार संयुक्तम् ७६८ पंचा० अर्थात् इत्यादि अनेक धर्मो को धारण करने वाला और भी अनेक नय समूह जो यहां पर नहीं कहा गया है उसे भी कहे हुये के समान समझना चाहिये । तथा हर एक नय को आगम के अनुसार यथा योग्य अपेक्षा से घटा लेना चाहिये । अन्यथा वस्तु स्वरूप समझ में नहीं आता । उपरोक्त प्रमाण नय निक्षेपों के कथन से व्यवहार नय सर्वथा अभूतार्थ है यह बात खण्डित हो चुकी । क्योंकि व्यवहार नय भी वस्तु स्वरूप के भेदांश का ही प्रतिपादक है अत: यह नय तस्तु के भेद रूप अंश का ज्ञान कराता है। उसी प्रकार निश्चय नय वस्तु के अभेद रूप अंश का बोध कराता है दोनों नग अपने अपने पक्ष के कथन करने में स्वतन्त्र हैं तो भी अपर नय की अपेक्षा अवश्य रखता है तभी उनका कहना सार्थक समझा जाता है अन्यथा नहीं | यह बात ऊपर अच्छी तरह सिद्ध की जा चुकी है दोनों ही नय वस्तु के सर्वांश के प्रतिपादक नहीं हैं। क्योंकि "विकलादेशो नयाः " नय का लक्षण ही ऐसा है श्रतः निश्चय For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा नय भी वस्तु के द्रव्यांश का प्राही है। और व्यवहार नय पर्या यांश का ग्राही है । अतः दोनों ही नय वस्तु का आंशिक रूप का ग्राही है । इसलिय जिस प्रकार पर्यायांश का ग्राही व्यवहार नय मि है उसी प्रकार द्रव्यांश का ग्राही निश्चय नय भी मिथ्या क्यों नहीं ? तथा जिस प्रकार व्यवहार नय विकल्यात्मक है, उसी प्रकार निश्चय नय भी सविकल्पक है । व्यवहार नय का विधि रूप विकल्प है। और निश्चय नय का निषेध रूप विकल्प है ! इसलिये दोनों ही सविकल्पक है अतः विकल्प की अपेक्षा एक को मिथ्या एक को सत्य कहना यह भी उचित नहीं है। अथवा वस्तु स्वरूप निरंश है, वचन अगोचर है इसलिये वह वचन द्वारा कहने में न आवे है। इस कारण वह नय का विषय भी नहीं है वह अनुभव गम्य है। "सत्यं किन्तु विशेपो भवति स सूक्ष्मो गुरूपदेश्यत्वात् । अपि निश्चयनयपक्षादपरः स्वात्मानुभूतिमहिमा स्यात् ।। अर्थातठीक है परन्तु निश्चय नय से भी विशेष कोई है बह सूक्ष्म है इसलिये वह गुरु के ही उपदेश योग्य है सिवाय महनीयगुरु के उमका स्वरूप कोई नहीं बतला सकता बढ़ विशेष स्यात्मानुभूति की महिमा है इसलिये वह निश्चय नय से मी अनि नरम है और भिन्न है । अत: वह वस्तु स्वरूप निश्चय न्य के भी गम्य नहीं है इस कारण निश्चय नय का जानपणा भी अधूम ही है इसलिये वह भी अपरमार्थभूत हैं। "नस्माद् द्रव्य व्यवहार इव प्रकृतो नात्मानुभूतिहेतु स्यात् अयं मेऽहमस्य स्वामी सदवश्यम्भाविनो विकल्पत्वात् ।। ६५३ पंचाध्यायी अर्थात इसलिये व्यवहार नब के समान निश्चय नय भी स्वानुभूति करण नहीं है क्योंकि उसमें भी यह आत्मा है For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की मैं इस का स्वामी हूं ऐसा मत पदार्थ में अवश्यंभावी विकल्प उठता है । और विकल्पमें स्वानुभूति नहीं होती। ' अथवा निश्चयावलम्बी को भी प्राचार्याने मिथ्यादृष्टि बतलाया है। "उभयं णयं विभणियं जाणइ ण वरंतु समयपडिबद्धो । रण हु णयपक्खं गिरहदि किंचिवि णयपक्खपरिहीणो" अर्थात्-जो दोय प्रकार का नय कहा गया है उन्हें सम्यग्दृष्टि जानता तो है पर तु वह किसी भी नय का पक्ष ग्रहण नहीं करता, वह नय पक्ष ले रहित है । अतः उपरोक्त गाथा से यह स्पष्ट हो जा.ा है कि सम्यग्दृष्टि निश्चय नय का भी अवलम्वन नहीं करता है। दूमरी बात यह भी है कि निश्चय नयको भी आचार्यों ने सविकल्पक बतलाया है। और जितना सविकल्पक ज्ञान है उसे अभूतार्थ बतलाया है । जैसा कि कहा गया है "यदि वा ज्ञानवि कल्यो नयो विकल्पोस्ति सोप्यपरमार्थः' इसलिये सविकल्म ज्ञानात्मक होने से भी निश्चय नय मिध्चा सिद्ध हो जाता है। तथा अनुभव में भी यही बात आती है-जितने मो नव है ममा परसमय मिथ्या हैं। और उनका अलम्बन करने वाला भी मिथ्याष्टि है । इसलिये सम्यग्दृष्टि नय पक्ष नहीं करता : जे न करें नयपक्ष विवाद बरे न विषाद अलीक न भाखें जे उदवेग तजे घट अंतर सीतलभाव निरंतर राखें । जे न गुणीगुण भेद विचारत आकुलना मनकी सब नाखें For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ते जगमें धरि आतमध्यान अखंडित ज्ञान सुधारस चाखें । com a call bows at सम्यग्दृष्टि के लिये दोनूही नय अभूतार्थ हैं। वह किसी नयकी पक्ष ग्रहण नहीं करता वह केवल नयोंके द्वारा वस्तुस्वरूप समझ लेता है । अत: नयकी पक्ष करना मिध्यात्व है । जो हिय अंध विकल मिथ्यात घर मृपा सकल विकलप उपजावत । गहि एकान्तपक्ष आत्मको करता मानि अधोसुख धावत । त्यां जिनमति द्रव्यचारित्रकर करनी करि करतार कहावत । ति मुक्ति तथापि मूहमति विन समकित भवपार न पावत ॥ कोई मुठ विकल एकान्त पक्ष है है आता अकरतार पूरण परम है। तिनसीं जु कोउ कहै जीव करता है तांसे फेर कहै कर्मको करता करम है । ऐसे मिध्यामगन मिथ्याति ब्रह्मघाती जीव जिनके हिये अनादि मोहको भरम है । तिनके मिथ्यात्व दूर करवेकू कहै गुरु स्याद्वाद परमाण आतम धरम है। अर्थात् एकान्तपक्षको ग्रहण करनेवाले जीवको श्राचार्यांन निध्याती ब्रह्मघाती बतलाया है इसलिये आचार्य कहते हैं कि व्यवहारनिश्चय दोनों नयों से वस्तुस्वरूप समझनेवाला जीव सम्यग्दृष्टि है। नि अभेद अंग उदे गुणकी तरंग उद्यमकी रीति लिये उता शकति है। रूप प्रमाण स्वभाव कालकी मी हाल परिणाम चक्रगति हैं। याहि भांति आतमदर वके अनेक अंग एकमा एकको न मार्ने यो कुमति है। एक For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७० जैन तत्त्व मीमांसा की डारि एक में अनेक खोजै सो सुबुद्धि खोजि जीवै वादि मर सांची कहावति है। एक में अनेक है अनेक ही में एक है सो एक न अनेक कछु कह्या न परत है । करता अकरता है भोगता अभोगता है उपजे न उपजत मरे न मरत है। बोलत विचारत न बोले न विचारे कछू भेखको न भाजन पै भेख सो धरत है। ऐसे प्रभु चेतन अचेतनकी संगतीसों उलट पलट नटवाजी सी करत है। ___इसलिये श्राचार्य कहते हैं किकेई कहे जीव क्षणभंगुर केई कहे कर्मकरतार । केई कर्मरहित नित जंपहि नय अनन्त नाना परकार । जे एकान्त गहे ते मूख पंडित अनेकान्त पखधार । जैसे-भिन्न मुकतागण गुणसों, गहत कहावै हार ।। सर्वविशुद्धिअधिकार इस उपरोक्त कथनसे यह भलीभांति समभ में आजाता है कि स्याद्वादसे ही वस्तुस्वरूपकी सिद्धि होती है ! एकान्तबादसे नह क्योंकि पदार्थ अनन्तगुणात्मक है उन अनन्तगुणोंका बोध करा. नेवाली नयभी अनंत है वह मूल दोभेदोंमें बंटी हुई है ! एक द्रव्यार्थिक और दूसरो पर्यायार्थिक, इमीका नाम निश्चय और व्यवहार भी है अर्थात् द्रव्यार्थिक कहो या निश्चय कहो । पर्यायाधिक कहो या व्यवहार कहो । एकही बात है । निश्चयनय तो एक ही है वह अनेक नहीं है। इसका कारण यह है कि वा द्रव्यको अखंड अभेदरूपसे ग्रहण करता है । वह पदार्थमें भेद का उत्पादक नहीं है भेदकं विना अनेकता आ नहीं सक्ती इस विषयमें प्राचार्य For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा नैवं यतोस्त्यनेको नैकः प्रथमोप्यनन्तधर्मत्वात न तथैति लक्षणत्वादस्त्येको निश्चयो हि नानेकः || अर्थात- शंकाकार की यह शंका थी कि जिस प्रकार अनेक अंश सहित होनेसे व्यवहार नय अनेक है। उसी प्रकार व्यवहार नयके समान निश्चय नय भी अनेक होना चाहिये क्योंकि व्यव हार नय द्वारा प्रतिपादित द्रव्यके अंशोंका यह निषेध करता है For Private And Personal Use Only हेल अर्थात् आत्मा सत् रूप है, चैतन्य रूप है, दर्शन ज्ञान चारित्र रूप है इत्यादि अनन्त गुणोंका अखंडपिण्ड एक आत्मा उस मैं व्यवहार नय द्वारा भेद किया जाता है उसका निश्चय नय निषेध करता है कि श्रात्मा सत् रूप भी नहीं है. चैतन्य रूप भी नहीं है दर्शन ज्ञान चारित्र रूप भी नहीं है । इत्यादि व्यवहारनयके अनेक विकल्पका निषेध करने वाला निश्चय नय भी व्यवहार जबकी तरह अनेक होना चाहिये अर्थात् व्यवहार नय द्वारा गुण गुणी में जितना भेदरूप विकल्प होता है उतना उन विकल्पोंका निषेध निश्चय नय द्वारा किया जाता है इसलिये व्यवहार नयके अनेक विकल्पों का निषेध करनेसे निश्चय नय भी नेक है ऐसा मानना चाहिये । किन्तु आचार्य कहते हैं कि व्यवहार नय तो वस्तु में रहनेवाले अनन्त धर्मका विधिरूपसे प्रतिपादन करने से वह तो अनेक ही है एक नहीं है । परन्तु निश्चय नय एक ही है क्योंकि उसका लक्षण 'न तथा' है । अर्थात् व्यवहार द्वारा जो कुछ कहा है उसका निषेध करने मात्र ही निश्चय नयका एक कार्य है। निश्चय नय क्यों एक है. इस विषय में दृष्टान्त द्वारा आचार्य स्पष्ट करते हैं I दृष्टिः कनकत्वं ताम्रोपाधेर्निवृत्तितो यादृक् । अपर' तदपरमिह वा रुक्मोपाधेर्निवृत्तितस्तादृक् ६५८ पंचा० Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७२ जैन तत्व मीमांसा की अर्थात् निश्चय नय एक क्यों है इस विषय में सोनेका दृष्टान्त उपयुक्त है। सोना तांबे की खाद निवृति से जेसा है वैसा ही चान्दो की उपाधिकी निवृत्तिस भी है । अथवा और और अनेक उपाधियोंका निवृति से वैसा ही सोना है। सारांश सोनमें तांब पीतल चान्दी श्रादिकी कालिमा आदिकी उपाधियां हैं वह अनेक परन्तु उनका अभाव होना अनेक नहीं हैं। किसी उपाधिका अभाव क्यों न हो वह एक अभाव ही रहेगा तथा हर एक उपाधिकी निवृत्ति में सोना सदा सोना ही रहेगा इसलिये नश्चय नय खादरहित सोनेकी तरह पदार्थका परिज्ञान करनेसे एक ही है अनेक नहीं अतः जो निश्चय नयको अनेक रूप मानते हैं वह मिथ्यादृष्टि हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुद्धद्रव्यार्थिक इति स्यादेकः शुद्धनिश्चयो नाम । अपरोऽशुद्धद्रव्यार्थिक इति तदशुद्ध निश्चयो नाम ६६० इत्यादिकाश्च बहवो भेदा निश्चयनवस्य यस्य मते । स हि मिथ्यादृष्टित्वात् सर्वज्ञाज्ञानमानितो नियमात् अर्थात् निश्चयनयके शुद्ध अशुद्ध आदि भेद कुछ भी नहीं है ऐसा जैन सिद्धांत है वह केवल निषेधात्मक एक है अतः उसके जो भेद करते हैं वे सर्वज्ञ की आज्ञा का उलंघन करते है इसलिए वे मिथ्यादृष्टि हैं । अपिनिश्चयस्य नियतं हेतुः सामान्यमात्रमिह वस्तु । फलमात्मसिद्धि: स्यात् कर्म कलंकावमुक्तबोधात्मा । ६६३ पं० अर्थात् निश्चय नयका कारण नियम से सामान्य मात्र वस्तु है फल उस का आत्मसिद्धि है। निश्चय नयसे वस्तु बोध करने पर कर्मकलंक रहित ज्ञान वाला श्रात्मा वन जाता है । सारांश निश्चय नयका विषय वस्तुका सामान्य अवलोकन है । सामान्य अवलोकनमें वस्तु भेद प्रभेद रूप दिखाई नही पडती अतः भेद For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा रहित अन्त धर्मात्मक एक अखंड पिण्ड वस्तु सामान्य रूप से प्रतिभासती है इसलिये निश्चय नय परमार्थ भूत है । यदि वह निश्चय नय व्यवहार नय निरपेक्ष हो तो वह भी परमार्थभूत है । इसका कारण यह है कि पदार्थ सामान्य विशेषात्म है अतः सामान्य को छोड़कर कोई विशेष अलग नहीं तथा विशेष को छोडकर कोई सामान्य अलग नहीं इसलिये सामान्य विशेष रूप वस्तु ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है । वह ज्ञान दोनू नयों के द्वारा ही हो सकता है एक के द्वारा नहीं क्योंकि वस्तुमें सामान्यका ज्ञान निश्चय नय द्वारा होता है और विशेषका ज्ञान व्यवहार नय द्वारा होता है इसलिए वस्तु सामान्य का ज्ञान होता है वहां विशेष को छोडकर सामान्य नहीं होता अथवा जहां परवस्तु में विशेष का ज्ञान होता है वहां पर सामान्य को छोड कर विशेष का ज्ञान नहीं होता । अतः निश्चय व्यवहार दोन नय सापेक्ष ही परमार्थ भूत है निरपेक्ष दोनू ही नय मिश्रया हैं श्रपरमार्थभूत हैं। इस वात को हम ऊपर भी स्पष्ट कर चुके हैं। तथा आगे भी स्पष्ट कर देते हैं । "इदमत्र तु तात्पर्यमधिगंतव्यं चिदादि यद्वस्तु । व्यवहार निश्चयाभ्यामविरुद्धं यथात्मशुद्धश्रर्थम् " ६६२ पं अर्थात् यहां पर तात्पर्य इतना ही है कि जीवादिक जो पदार्थ हैं वे सव श्रात्म शुद्धिके लिये तव ही उपयुक्त हो सकते हैं जव कि वे व्यवहार और निश्चय नय के द्वारा अविरुद्ध रीतिसे जाने जाते हैं । अन्यथा नहीं | अनेक प्रमाणोंके द्वारा ऊपर में यह सिद्ध किया जाचुका है कि वस्तु उभयात्म है अर्थात् सामान्यविशेषात्मक है सामान्यसे भिन्न विशेष नहीं और विशेषसे भिन्न सामान्य नहीं अतः दोनोंका तादानमक सम्बन्ध है इसलिये पदार्थ कथंचित् अभेदरूप भी है कथं For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ن जैन तत्त्व मीमांसाकी चित भी हैं। कथंचित भेदाभेद रूप भी है। अतः वस्तुका सदरूप कथन करने वाला व्यवहार नय है तथा वस्तुका अभेदरूप कथन करन वाला निश्चय नय है। और वस्तुका भेदाभेदरूप कथन करने वाला प्रमाण है इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि तीनों ही नय प्रमाण वस्तुकं सामान्य विशेष का ही प्रतिपादक हैं वस्तुक सामान्य विशेष को छोडकर भिन्न पदार्थका प्रतिपादक नहीं है इसलिये वे सब नय प्रमाण सम्यक रूप हैं इनको मिथ्या समझना ही मिथ्या है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जो नय और प्रमाण परस्पर की सापेक्षाको छोडकर वरू स्वरूपका कथन करता है तो वह वस्तुस्वरूप भी मिथ्या है और उसका प्रतिपादन करने वाला नय और प्रमाण भी मिथ्या है यद्यपि निरपेक्ष नय भी वस्तु के स्वरूप का आंशिक रूपमें वर्णन करता है तथापि वह मिथ्या इसलिये है कि अपर नय निरपेक्ष आशिक कथनकरनेसे आशिकरूप ही वस्तु स्वरूप समझा जाने लगेगा। क्योंकि अपर नय निरपेक्षता मे यह बात नहीं हतो कि अपर नय क्या कहता है किन्तु सापेक्ष नयके कथन में अपर नय की अपेक्षा रहती है जिससे यह बात स्पष्टरूप से समझमें आजाती है कि वस्तु स्वरूप इतना ही नहीं है और भी कुछ है इसलिए माज़ नयका जितना कहना है उतना सत्य है तथा जो नय एक के गुणों को दूसरे के गुण बताया करता है वह नय ही नहीं है वह नयाभास है इसलिये वह नय अपरमार्थभूतही है, मिथ्या है। उस का लक्षण ही दिन नहीं होता क्योंकि नयका लक्षण ही ऐसा है कि वह लक्ष्यभूत वस्तु के सामान्य और विशेष धर्मका ही विवेचन करता है । वह अन्य लक्ष्य वस्तुके गुणधर्मका विवेचन नहीं करता वस्तु सामान्य और विशेष दो धर्म रहते हैं उन दोन धर्मका प्रतिपादन करने वाली भी दोय तय हैं। वस्तुके सामान्य धर्मका कहने वाला द्रव्याथिक (निश्चय) नय है। और For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समीक्षा ww Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only ७५ वस्तुके विशेष धर्मका प्रतिपादन करने वाला पर्यायार्थिक ( व्यव हार ) नय है | "eat द्रव्यार्थिक इति पर्यायार्थिक इति द्वितीयः स्यात् । सर्वेषां च नयानां मूलमिदं नयद्वयं यावत् ५१७ पंचा० । अर्थात् एक द्रव्यार्थिक नय है दूसरा पर्यायार्थिक नय है । संपूर्ण नयों के मूल भूत यही होय नय हैं । द्रव्यार्थिक नय" द्रव्यसन्मुखतया केवलमर्थः प्रयोजन यस्य । प्रभवति द्रव्यार्थिक इति नयः स्वधात्वर्थ संज्ञकश्चैकः " ५१८ अर्थात् केवल द्रव्यही मुख्यतासे जिस नयका प्रयोजन विषय है वह नय व्यार्थिक नय कहा जाता है। और वही अपनी धातु के अर्थ के अनुसार यथार्थ नाम धारक है और वह एक है अर्थात् जिस नयसे द्रव्य पर्यायकों गांग रखकर मुख्यतासे द्रव्य कहा जाता है अथवा उसका ज्ञान किया जाता है वह द्रव्यार्थिक नय कहलाता है और वह एक है उसमें भेद विवक्षा नहीं है। पर्यायार्थिक नम "अंशा: पर्याया इति तन्मध्ये यो विवक्षितोंऽशः सः | यस्येति स पार्थिकनयस्त्वनेकश्च" ५१६ पं० अर्थात् शोका नाम ही पर्याय है । उन अंशों में से जो विवक्षित अंश है वह अंश जिस नयका विषय है वहीं पर्यायार्थिक नय कहलाता है। ऐसे पर्यायार्थिक नय अनेक हैं । वस्तुकी प्रतिक्षण नई नई पर्याये होती रहती हैं वे सब वस्तुके ही अंश हैं। जिस समय किसी अवस्था रूपमें वस्तु कही जाती है उस समय वह कथन अथवा वह ज्ञान पर्यायार्थिक नय कहाजाता है । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की पर्याये अनेक है इसलिये उनको विषय करनेवाले ज्ञान भी अनेक है । तथा उसको प्रतिपादन करने वाले वाक्य भी अनेक हैं। पर्यायार्थिकनय इति यदि वा व्यवहार एव नामेति । एकार्थो यस्मादिह सर्वोप्युचारमात्रः स्यात् ५२१ पंचा० ___ अर्थ-पर्यायाथिक नय कहो अथवा व्यवहार नय कहाँ दोनों का एक हो अर्थ है । मभी उपचार मात्र है । व्यवहार नय उपचरित इसलिये है कि वह वस्तु स्वरूपको यथार्थ रूप को नहीं कहता । वह व्यवहारार्थ पदार्थमें भेद करता है । वास्तव दृष्टिसे पदार्थ वेसा नहीं है। इसलिये व्यवहार नय को उपचरित कहा गया है। यही बात भी देवसेन आचार्य ने कहा है । कथमुपनयस्तस्य जनक इतिचेत् ? सद्भूतो भेदोत्पाद कत्वात् अभद्भनस्तु उपचारोत्पादकत्वात् उपचरितासद्धतस्तु उपचारादपि उपचारोत्पादकत्वात् । योऽसौ भेदोषचारलक्षणोऽर्थः सोऽपरमार्थ अतएव व्यवहारोऽपरमार्थ प्रतिपादकत्वाद परमार्थः। __ अर्थात् --जिम वस्तु का विशेष गुग उनी वस्तुम विवक्षित करना इतना अंश तो सद्भत का स्वरूप है। तथा गुणोसे गुण का भेद करना इतना अंश व्यवहारका स्वरूप है । तथा वह गुण उम वस्तुमें परसे उपचरिन करना इतना अंश उपचरितका है । जीव को ज्ञानवाला कहना यह नद्भून उपचारित व्यवहार नय कहलाना है। यह ज्ञानको विकल्पात्मक अवस्था है। यहां पर ज्ञानका रूप उसके विषयभूत पदार्था के उपचारमे सिद्ध किया जाता है । तथापि विकल्ल रूप ज्ञानको जोक्का ही गुण वनलाना इसलिये यह उपचरित मद्भूत व्यवहार नयका विषय है। अर्थान ज्ञान द्यपि निर्विकल्प होनेसे मन्मात्र है इसलिये ऊपर्युक्त विकयल्प For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org **** समोक्षा स्वरूप लक्षण उसमें नहीं आता है, तथापि वह विना अवलम्बनके निर्विषय नहीं कहा जाता । इसलिये ज्ञान अपने स्वरूपसे स्वयं सिद्ध है अतः वह अनन्य शरण उसका वही अवलम्बन है तो भी हेतु वश वह ज्ञान् अन्य शरणके समान उपचारित होत है । ऐसा क्यों होता है इसका हेतु यह है कि स्वरूप सिद्धिके विना परसे सिद्धि असिद्ध है। अर्थात् ज्ञान स्वरूपसे सिद्ध है तभी वह परसे भी सिद्ध माना जाता है। ज्ञान स्वरूपसे सिद्ध है यह बात प्रमाणसे सिद्ध है। "अर्थ वकल्पो ज्ञानं प्रमाण अर्थात् स्वपर पदार्थका बोध होना ही प्रमाण है ऐसा कहा गया Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir گاری । इस कथन से ज्ञानमें प्रमाणता परसे लाई गई है | परन्तु परसे प्रमाणता ज्ञानमें तभी या सकती है जब कि वह अपने स्वरूप से सिद्ध है क्योंकि वह जीव द्रव्यका विशेष गुण है। इस कथनसे यह स्पष्ट हो गया कि ज्ञानकी परसे सिद्धि करना यह उपचरित है ५४०२४२१४ - २४३१४४) पंचाध्यायी के श्लोकों का संक्षेप में भावार्थ है । इसका फल क्या है सो दिखाते हैंअर्थी ज्ञेयं ज्ञायक शङ्करदोप भ्रम क्षयो यदि वा । अविनाभावात्साध्यं सामान्यं साधको विशेषः स्यात् । ५४५ For Private And Personal Use Only अर्थात् - उपचरित सद्भूत व्यवहार नयका यह फल है कि ज्ञेय और ज्ञायक में शंकर दोष उत्पन्न न हो और किसी प्रकार का भ्रम भी इनमें उत्पन्न न हो पहिले ज्ञेयओर ज्ञायकमें शंकर दोष अथवा दोनोंमें भ्रम हुआ हो तो इस नयके जानने से वह दोष तथा भ्रम दूर हो जाता है। यहां पर अविनाभाव होनेसे सामान्य साध्य है विशेष उसका साधक है । अर्थात् ज्ञान साध्य है और वट ज्ञान पट ज्ञानादि उसका साधक है । इन दोनोंका ही अविनाभ व है । कारण कि पदार्थ प्रमेय है इसलिये वह किसी न किसीके ज्ञानका विषय होता ही है । और ज्ञान भी ज्ञेयका Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 26 www.kobatirth.org जैन तत्त्वमीमांसा की अवलम्बन करता ही है निर्विषय वह भी नहीं होता । सारांश यह है कि कोई पदार्थ के स्वरूपको नहीं समझने वाले ज्ञानको वट पटादि पदार्थोका धर्म बतलाते हैं । कोई कोई ज्ञेयक धर्मको ज्ञायक बतलाते है । अथवा विषय विषय के सम्बन्धस किन्ही किन्दाको भ्रम होजाता हैं उन सबका अज्ञान दूर करना हो इस नयका फल है । इस नय द्वारा यही बात बतलाई गई है कि विकल्पता ज्ञानका साथक है । अर्थात् घट ज्ञान पट ज्ञान इत्यादि ज्ञानके विशेषण साधक है। सामान्य ज्ञान साध्य है । उप युक्त विशेषणोंसे सामान्य ज्ञान की ही सिद्धि होती है। ज्ञानमं घटादिक धर्मका सिद्धि नहीं होती। ऐसा यथार्थ परिज्ञान होने से ज्ञेय ज्ञायक में शंकरताका बोध कभी नहीं हो सकता। यह सद्त उपचरित व्यवहार नयका फल | भू भूत कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा इसको अपरमार्थ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जा सकता । यहां पर कोई यह कहें कि सद्भूत व्यवहार नय तथा लभूत अनुपचरित व्यवहार नय एवं सद्भूत उपचरित व्यवहार जयका विषय तो स्त्र वस्तु शाम ही है कथंचित् परमार्थभूत भी समझा जा सकता है । किन्तु असद्भूत व्यवहार नय तथा असद् भूत श्रनुपचरित व्यवहार नय और असद्भूत उपचरिक्त यवहार नयका विषय तो दूसरे द्रव्यके गुण दूसरे द्रव्यमें विवक्षित किये जाय यह है इसीका नाम श्रसद्भूत व्यवहार नय है इसलिये असद्भूत व्यवहार नयका कहना तो अदभूत ही है अर्थात् परमार्थभूत ही है । जब असद्भूत व्यवहार नय अपरमार्थ भूत है तव सद्भूत व्यवहार नय परमार्थ भूत कैसी ? क्योंकि इन दोनों नयों का आधार भूत एक व्यवहार नय ही तो है। उसी के यह दो भेद हैं इसलिये उसका एक अंश सत्य और दूसरा अंश For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा rnev... .wwwrrrrrrr.com मिण्या ऐमा कैसे कहा जा सकता है ? जबकि अंश अंशी अभेद रूप है इसलिये यदि असदभूत व्यवहार नय अभूतार्थ है तो इमके ममान सद्भुत व्यवहार नय भी अभूतार्थ है ऐमा मानना पड़ेगा । जब व्यवहार नयके दोनों अंश मिथ्या सिद्ध होते है तब ब्यवहार नय म्वतः मिथ्या सिद्ध हो जाता है । क्योंकि अंश मिया मिद्ध होने पर अंशो सम्यक नहीं रह सकता । __ शंकाकार को शंका ठीक नहीं है व प्रमाण वाधित है । क्योंकि प्रत्यक्ष थमा देखने में आता है कि उपादान शुद्ध है। उसकी पर्याय अशुद्ध है तथा जिसका ट्रय अशुद्ध है उसकी पर्याय शुद्ध है यह वन्तुका परिणभन्न है यह किसी के वशकी बात नहीं है। गाय का द्रव्य अशुद्ध है उसके दृध गोरोचन गोवर पूछके वालोंकी ययाय शुद्ध है । दूध गोरोचन खानेके काममें आता है गोदर पाकादिक काममें आता है पूछके वालोंका चमर बनता है। तथा हाथाका द्रव्य शुद्ध है उनका मोती तथा दांतकी पर्याय शुद्ध है । मोतीयोंकी प्रतिमा तक वनती है और पूजी जाती है तथा दांतोंकी अनेक प्रकारकी चीजें बनती है वह सब व्यवहार में लाई जाती है तथा सीप और शंखका द्रव्य अशुद्ध है उसकी मोती शुक्ती शंख पर्याय शुद्ध है । सांप का द्रव्य अशुद्ध है उसकी मणी पर्याय शुद्ध है गंडे का द्रव्य अशुद्ध है उसकी सींग पर्याय शुद्ध हे । इत्यादि तथा अन्न व दुग्ध मेवा मष्टान्न आदि पदार्थ शुद्ध उसकी मल मूत्रादि पर्याय अशुद्ध है। तथा एक वृक्षकं अंगनाना रूप है । कोई शांग विष रूप है तो कोई अंग अमृत रूप है । अर्थात जिन वृक्षका पत्ता अमृत रूप है तो उसका फल विष रूप है उदाहरण---अफीम के वृक्ष के पत्तोंकी भाजी बनती है वह स्वादिष्ट और गुणकारी है तथा उसके फल उसका अफीम बनता है वह विष तुल्य है और उम फलका चीज For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की पोस्ता पुष्टिकारक है तथा गर्मीके दिनों में इसको ठंडाईम घोंट कर पोते हैं इत्यादिक वस्तुका नाना रूप परिणमन है उसको कोई मिटा नहीं सकता। अतः ऊपर के उदारहणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अशुद्ध पदार्थ की पर्याये शुद्ध भी होती हैं और शुद्ध पदार्थ की पर्याये अशुद्ध भी होती है उसी प्रकार जीवकी भी शुद्धाशुद्ध पर्याये होती हैं । यह जीव और पुद्गलमें रहने वाली जिस प्रकार एक वैभावीको शक्ति का परिणमन है संसार अवस्थामें उस शक्तिका अशुद्ध रूप परिणमन हैं और मुक्त अबस्थामें उस शक्तिका शुद्ध रूप परिणमन है । अतः सद्भूत व्यवहार नय तो वस्तुके शुद्ध विशेषांश का प्रतिपादन करता है। जैसे एकरूप आतम दरव ज्ञान चरण हग तीन । भेद भाव परिणामयो विवहारे सुमलीन" यह सद्भूत व्यवहार नयका कथन है । तथा निश्चय नयका कथन निम्न प्रकार है यद्यपि समलव्यवहारसों पर्याय शक्ति अनेक । तदपि निश्चयनय देखिये शुद्ध निरंजन एक" अर्थात-गुणगुणीमें भेद कर कथन करना यह व्यवहार नयका लक्षण है । और जो गुण गुणीमें अभेदरूपमे कथन करना यह निश्चय नयका लक्षण है । खुलासा दरशन ज्ञान चरण त्रिगुणातम समलरूप कहिये व्यवहार । निहचै दृष्टि एकरसचेतन भेदरहित अविचलअविकार ।। सम्यकशाप्रमाण उभयनय निर्मल समल एकही वार। यो समकाल जीव की परणति कहे जिनेन्द्र गहे गणधार ।। समयसार प्रथमद्वार। For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा HARAMMr.RAN.... ___ अतः वस्तु सामान्यविशेषात्मक है इसलिये उसका कथन भी सामान्यविशेषात्मक ही होता है । वस्तुके सामान्य अंशका कथन करनेवाला निश्चयनय है और वस्तुक विशेषांशका कथन करने वाला व्यवहार नय है । आचार्य कहते हैं कि "मम्यकदशा प्रमाण उभय नय" अर्थात सम्यकरूप वस्तु स्वरूपकी मिद्धि उभय नय से सिद्ध होती है ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। ___ वस्तु एक रूप भी है तथा अनेकरूप भी है इस एकता अनेकता के समझने के लिये ही उभय नय अविरोध रूपसे वस्तुमे एकता अनेकता को सिद्ध करता है । इसलिये आचार्य कहते है कि-- निहचेमें एकरूप व्यवहारमें अनेक गाही नविरोधमे जगत भरमायो है । जगतके विवाद नाशवकू' जिनआगम है ज्याम स्यादवाद नाम लक्षण सुहायो है ।। दरशनमोहजाको गयो है सहजरूप आगमप्रमाण ताको हिरदे में आयो है अनयसो अखंडित अनूतन अनंत तेज एसो पद परण तुरत तिन पायो है। ___ अर्थात-वस्तुस्वरूप समझनके लिय स्याद्वादका शरण लेना पडता है । अतः सापक्ष निश्चय और व्यवहार नय हे वही स्याद्वाद है। इसके अतिरिक्त स्याद्वाद दूसरी कोई वस्तु नहीं है कथंचित् निश्चयनय की अपेक्षा वस्तु एकरूप है । कथंचित व्यवहारनयकी अपेक्षा वस्तु अनेक रूप है यही तो स्याद्वाद है। व्यवहारनयके द्वारा वस्तुस्वरूप समझने से वस्तु में श्रास्तिक्यवृद्धि होती है । व्यवहारनयसे यह वात जानी जाती है कि वस्तु अनन्तगुणोंका एक पुज है क्योंकि गुणोंकी विवक्षामें गुणोंक सद्भाव सिद्ध होता है और गुणोंके सद्भावमें गुणीका सद्भाव स्व For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनतत्त्व म मामा की सिद्ध होजाता है। सारांश यह है कि व्यवहारनय के विना पदार्थ का ज्ञान होता ही नहीं । दृष्टान्तके लिय जीवको ही लेलिजीये व्यवहारनयसे जीवका कभी ज्ञानगुण विवक्षित किया जाता है । कभी दर्शनगुण, कभी चारित्रगुण, कभी मुख, कभी वीर्य, कभी सम्यक्त्व कभी द्रव्यत्व इत्यादि सवगुणोंको क्रमशः विवक्षित करनेसे यह बात ध्यानमें सहजरूपसे आजाती है कि जीवद्रव्य अनन्तगुणोंका पुज है। साथ ही इस वातका भी परिज्ञान व्यवहारनयस होजाता है कि ज्ञान दर्शन चारित्र सुख सम्यक्त्व, आदि यह जीवके विशेषगुण हैं। क्योंकि ये गुण जीबके सिवाय अन्य किसी द्रव्यमें नही पाये जाते है । तथा अस्तित्व वस्तुत्व द्रव्यत्व आदि ये सामान्यगुण हे य गुण जावक सिवाय अन्य द्रव्याम मा पाये जाने हैं ! तथा रूप रस गंध स्पर्श ये पुद्गल के सिवाअन्य किसी द्रध्यमें नहीं पाये जाते हैं इसलिय ये पुद्गलके विशेष गुण है। इस प्रकार वस्तुमें अनन्त गुणोंका परिज्ञान होने के साथ साथ ही उसके सामान्य विशेष गुणोंका भी परिज्ञान होजाता है । अतः गुणगुणी और सामान्य विशेष गुणोंका परिज्ञान होनेपर ही पदार्थमें आस्तिक्य भाव होता है । इसलिय व्यवहारनयके विना पदाम आस्तिक्य बुद्धि नहीं हो पाती । पदार्थ में आस्तिक्यबुद्धिका होना ही सम्यक्त्व है । सारांश यह है कि पदार्थका स्वरूप विना समझाये समझमें श्रा नहीं सकता और जो कुछ समझाया जायगा वह अंश अंश रूपसे कहा जायगा अतः इसी को पदार्थ में भेद वुद्धि कहते हैं । अभिन्न अखंड पदार्थ में भेदबुद्धिको ही उपचरित नामसे कहा गया है । अत:--- उपचरितके नामसे अज्ञ लोग यह समझ लेते हैं कि एक द्रव्यके गुण दूसरे द्रव्यमें आरोपित करना उसीका नाम उपचरित है परन्तु ऊपरके कथन से स्पष्ट होजाता है कि गुणगुणी में भेद For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममोना वृद्धिका होना उपचरित है। एक वस्तुके गुण दूसरी वस्तुमें धारापित करना उसका नाम उपचरित नहीं है । वह उपचरिताभास है। अतः जो व्यवहारनयको उपचारत समझकर अपरमार्थभूत मानते हैं वे परमार्थसे जोजनों दूर हैं। क्योंकि पदार्थमें जबतक आस्तिक्य वृद्धि नही होती तबतक उसके सम्यक्त्व भी नहीं होता । सम्यक्त्व के विना परमार्थकी सिद्धि भी नहीं होती यह अटल सिद्धांत है । इसलिये पदार्थ में आस्तिक्य वुद्धि पदार्थके स्वरूपको समझे बिना नहीं हो सकती और पदार्थका स्वरूप विना व्यवहार मय के समझमें नही आसकता । इसलिये ब्यवहारनयको उप रन कहनेपर उमको अपरमार्थभूत नहीं समझना चाहिये । क्योंकि व्यवहारनय के द्वारा ही भेदविज्ञान होता है। अर्थात यवहारनय वस्तुके विशेषगुणों का प्रतिपादन करता है इसलिये वह वस्तु अपने विशेषगुणोंके द्वारा दूसरी वस्तुसे जुदा ही प्रतीत होने लगती है जैसे जीवका ज्ञानगुण इस नय द्वारा विविक्षित होने पर इतर पुद्गला'द द्रव्योंसे भिन्न सिद्ध कर देता है इसलिये जीवमें आस्तिक्य बुद्धि होजाती है। यहो सम्यवत्व है यही परमार्थ स्वरूप है यही भेद ज्ञान है। इस भेदज्ञानकी प्रशंसा करते हुये पं० वनारसीदासजी कहते हैं कि"भेदविज्ञान जगो जिनके घट सीतलचित्त भयो जिम चन्दन कलि करे शिवमारगमें जगमाहि जिनेश्वर के लघुनन्दन । सत्यस्वरूप सदा जिनके उर प्रगटयो अवदात मिथ्यातनिकंदन शांत दशा जिनकी पहिचान करहिं करजोर बनारसि बन्दन" अर्थात्-भेदविज्ञान जिसके व्यवहारनय द्वारा होगया है, वह मोक्षमार्ग में केलि करता है इसलिये उसको जिनेन्द्रदेवका लघु भैया समझकर वनारसिदासजी ने उनको नमस्कार किया For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८४ जैन तत्त्व मीमांसा की है | अतः व्यवहारनय के द्वारास्वपरका भेदविज्ञान होने से वह परमार्थभूत है । और स्ववस्तुमें गुण गुण का भेद करनेमे अपर मार्थभूत है। क्योंकि गुणगुणी अभेदस्वरूप वस्तु स्वरूप है उसमें भेद करने से वस्तु स्वरूप नहीं बनता इस कारण व्यवहार नय अपरमार्थ भूत है । यह बात हम ऊपर कह श्रायें हैं तो भी शङ्का समाधान में पुनः उसका उल्लेख किया गया है। अद्भूत व्यव हार नय के सम्बन्ध में भी हम ऊपर बना चुके हैं देखलेवें- श्लोक ५२६ | ३० । ३१ । ३२ तक है। तथा अनुपचारित श्रसद्भूत व्यव हार नय का तथा उपचारित अमभूत का स्वरूप एवं उसका फल क्या है इसका स्पर्श करण और कर देते हैं जिसमें सद्भून व्यवहार नय को भी कोई सर्वथा अपरमार्थभूत न समझे। वह भी कiचित परमार्थ भूत है क्योंकि पर निमित्त से होने वाले आत्मा में कावादि भाव साविक मात्र हैं ऐसा ज्ञान हो जाने से कादिभावका निवृत्ति की जा सकती है यही परमार्थभूत कार्य इस नय के द्वारा होता है। इसलिये कथंचिन अद्भूत व्यवहार नय भी परमार्थभूत है। ऐसा नहीं समझना चाहिये कि द्रव्यानुयोग और द्रव्यार्थिक नय हो परमार्थभूत है और सब अनुयोग तथा नय प्रमाण निक्षेपादि सब अपरमार्थभूत हैं आचार्योंने जो भी नय प्रमाण निक्षेपादिक का कथन किया है व परमार्थ सिद्धि के लिये ही किया है. उन सबका विषय समके बिना वस्तु स्वरूप भी समझ नहीं आता और वस्तु स्वरूप मम विना परमार्थ की भी मिद्धि नहीं होती इसलिये जिम अपेक्षा में नव प्रभा निक्षेपादक के द्वारा वशन किया है उस अपेक्षा से कथन सत्यार्थ है । अनपचरित व्यवहार नय का दृष्टान्न Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ८५ "अपि वासभूतो योऽनुपचरिताख्यो नयः स भवति यथा क्रोधाद्या जीवस्य हि विविचिताश्चेद वृद्धिभावः " ५४६ पंचा० अर्थात -अबुद्धि पूर्वक होनेवाले क्रोधादिक भावों में जीवके भावों की विक्षा करना यह अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय कहलाता है । भावार्थ - दूसरे द्रव्य के गुण दूसरे द्रव्य में विवक्षित किये जांय इसी को अद्भूत व्यवहार नय कहते हैं । क्राधादि भाव यद्यपि जीव के ही वैभाविक भाव हैं तथापि वह भाव कम के सम्बन्ध से होते हैं इसलिये यह भाव जीव के नहीं है परनिमित्त से उत्पन्न है अतः उनको जॉब के भाव कहना जानना असद्भूत नय है । कोधादि भाव दो तरह के होते हैं - एक बुद्धिपूर्वक, एक अबुद्धि पूर्वके । बुद्धि पूर्वक भाव स्थूल रूप से उदय में आरहे हो जिससे हम क्रोध कर रहे हैं वह बुद्धि पूर्वक क्रोधादि भाव हैं। तथा क्रोधादि भाव सूक्ष्मता से उदय में आर है हों जिसके विषय में हम यह नहीं कह सकते कि क्रोधादि भाव हैं ऐसे सूक्ष्म अप्रगट रूप कोधादि भावों को अबुद्धि पूर्वक कोचादि भाव कहते हैं उनको जीवके विवक्षित करना अनुपचारित असद्भूत व्यवहार नय है। यहां पर वैभाविक भावों को-पर भावों को जीव का कहना इतना श्रंश तो श्रसद्भूत का है । गुणगुणी का विकल्प व्यवहार का अश है श्रबुद्धिपूर्वक कोधादिको कहना इतना अंश अनुपचरित का है। इस नय की प्रवृत्ति का कारण"कारणमिह यस्य सतो या शक्तिः स्याद्विभावमयी । उपयोगदशाविशिष्टा या शक्तिः तदाप्यनन्यमयी" ५४७ पं० अर्थ-जिस पदार्थ की जो शक्ति वैभाविक भावमय हो रही है और उपयोग दशा यानी कार्य कारणी विशिष्ट है। तो भी वह For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्व मीमांसा का शक्ति अन्य की नहीं कही जा सकती । यही अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय की प्रवृत्ति में कारण है। अर्थात् यदि एक शक्ति दूसरी शक्ति रूप परिणत हो जाय तब तो एक पदार्थ के गुण दूसरे पदार्थ में चले जाने से शंकर और अभाव दोष उत्पन्न हाते हैं। तया ऐसा ज्ञान और कथन भी मिथ्या नय है, जीवके क्रोधादि भाव उसके चारित्र गुण के ही पर-निमित्त से होने वाले विकार हैं। चारित्र गुण कितना ही विकार मय अवस्था में परिणत क्यों न हो जाय परन्तु वह सदा जीव का ही रहेगा। इसलिये यहां असद्भूत व्यवहार नय प्रवृत्त होता है। मारांशकिसो वस्तु के गुण का अन्य रूप परिणत नहीं होना इसी नय का हेतु है। ___ उपचरित असद्भूत व्यवहार नवउपचरितोऽसद्भूतो व्यवहाराख्यो नयः स भवति यथा। क्रोधाद्याः औदयिकाश्चेद्बुद्धिजा विवक्षाः स्युः ५४६ । पंचा, अर्थ-औदायिकक्रोधादि भाव यदि बुद्धि पूर्वक हां फिर उन्हें जीवका समझना या कहना उपचरत असद्भुत व्यवहार नय है अर्थात प्रगट रूप क्रोधादि भावों को जानता है कि मैं क्रोधादि कर रहा हूं फिर भी उनको अपना निज का भाव समझना या कहना ऐसा कह ना समझना उपचरित असद्भूत व्यवहार नय है । क्रोधादिक भार केवल जीवके नहीं है उन्हें जीवका कहना इनना अंश तो अमद्भून का है । क्रोधादिकाको क्रोधादिक ममझ कर केभी उन्हें जीवके बनाना इतना अंश नपचरित का है। गुणगुणी में भेद करना इतना अंश व्यवहार का है ! श्रनः वृद्धि पूर्वक कोधादि भार छटे गुण स्थान तक होने हैं इसके ऊपर नहीं होते। For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा इसलिये छठे गुण स्थान के ऊपर उपचरित असद्भूत व्यवहार नय की प्रवृत्ति नहीं होती, छठे गुण स्थान तक ही होती है । इससे आगे नहीं। वीज विभावभावा:स्वपरोभयरहतवस्तथा नियमान । सत्यपि शक्तिविशेषे न परनिमित्ताद्विना भवन्ति यतः ।। ५५० पंचाध्यायी अर्थ-जितने भी वैभाविक भाव हैं वे नियम से अपने और परके निमित्त से होते हैं यद्यपि वैभाविक रूप परिणमन करना यह निज गुण है तथापि वैभाविक परिणमन पर के निमित्त बिना नहीं होते हैं । अतः आत्मा के गुणों का पुद्गल कर्मों के निमित्त से वैभाविक रूप होना ही उपचारत असद्भूत व्यवहार नय का कारण है । इस नय का फल- . तत्फलमविनाभावात्साध्यं त्वबुद्धिपूर्वका भावाः । तत्सत्तामात्र प्रांत साधनामहबुदिपूर्वका भावा ।। ५५१ पंचाध्यायी __ अर्थ-बिना अबुद्धि पूर्वक भावों के बुद्धि पूर्वक भाव हो ही नहीं सकता। इसलिय बुद्धि पूर्वक भावों का अबुद्धि पूर्वक भावों के साथ अविनाभाव है अबिनाभाव होने से अबुद्धि पूर्वभाव साध्य है । और उनकी सत्ता सिद्ध करने के लिये साधन बुद्धि पूर्वक भाव है, यही इसका फल है । भावार्थ-बुद्धि पूर्वक भावों से अबुद्धि पूर्व के भावों का परिज्ञान करना ही अनुपरित असद्भूत व्यवहार नय का फल है। शङ्काननु चासद्भूतादिर्भवति स यत्रेत्यद्विगुणारोपः । दृष्टान्तादपि च यथा जीवो वर्णादिमानिहास्त्विति चेत् ॥ ५५२ पंचाध्यायी For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्व मीमामा की अर्थ-असद्भूत व्यवहार नयहां पर प्रवृत्त होता है जहां कि एक वस्तु के गुण दूसरी वस्तु में पारापित किये जाते हैं । दृष्टान्त जैसे जीव को वर्णादि वाला कहना ।एमा मानने में क्या हानि है ? भावार्थ-प्रन्थकारने उपर अनुपचारत और उपचरित दोनों प्रकार का ही असद्भूत व्यवहार नय तद्वद् गुणारोपा बतलाया है अर्थात् उभी वस्तु के गुण उसी में आरोपित करने को विवक्षा को असद्भूत नय कहा है क्योंकि क्रोधादि भाव भी तो जीव के ही हैं और वे जंव में ही विवक्षित किय गये हैं। जैसा कि समयमार में कहा है कर्ता कर्म क्रिया द्वार में। "शुद्ध भाव चेतन अशुद्ध भाव चेतन । दहूँ को करनार जीव और नहि मानिये ।। कर्म पिण्डको विलास वर्ण रस गन्ध फास । करतार दहूँ को पुद्गल परमानिये ।। तांतें वर्णादि गुण ज्ञानावरणादि कर्म । नाना परकार पुद्गल रूप मानिये ॥ समल विमल परिणाम जे जे चेतन के। ते ते सब अलख पुरुष यों बखानिये" ।। इस कथन से भी यही बात सिद्ध होती है कि क्रोधादि भाव जीव के ही वैभाविक अशुद्ध भाव हैं। ऐसा जो अलख सर्वज्ञ वीतराग देव ने कहा है। किन्तु शंकाकारका कहना है कि सद्भुत व्यवहार नय को तद्गुण रोपी कहना चाहिये और अमद्भूत नय को अतद्गुणारोगी कहना चाहिये । इस विषय में शंका कार कहता है कि वरणादि पुद्गल के गुण हैं उनको जीव के कहना यही असद्भूत व्यवहार नय का विषय है, आचार्य कहते हैं कि ऐसा नहीं है। For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा "तन्न यतो न नयास्ते किन्तु नयाभाससंज्ञकाः सन्ति । स्वयमप्पतद्गुणत्वादव्यवहाराऽविशेषतो न्यायात् " || ५५३ पंचाध्यायी अर्थ-- शङ्काकारका उपर्युक्त कहना ठीक नहीं है क्योंकि जो तद्गुणारोपी नहीं है किन्तु एक वस्तु के गुण दूसरी वस्तु आरोपित करते हैं वे नम नहीं हैं किन्तु नयामास हैं अतः वे व्यवहार के योग्य नहीं है। शंकाकार फिर कहता है कि " " ननु किन्न वस्तुविचारे भवतु गुणी वाथ दोष एव यतः न्यायवलादायातो दुर्वारः स्यान्नयप्रवाहश्च ५५६ पंचा० अर्थ -- वस्तु के विचार समय में गुण हो अथवा दोष हो जो वस्तु जिस रूप में है उसी रूप में वह सिद्ध होगी चाहै उसकी यथार्थ सिद्धि में दोष आवे या गुण । नयों का प्रवाह न्याय बल सं हैं, इसलिये वह दूर नहीं किया जा सकता अतः जीव को वर्णादिमान कहना यह भी एक नय है । इस नयकी सिद्धि में जीव और वर्णादि में एकता भले ही प्रतीत हो परन्तु उसकी सिद्धि आवश्यक है। प्राप्त हुआ उत्तर--- सत्य दुवरिः स्यान्नयप्रवाहो यथाप्रमाणाद्वा । दुर्वारश्च तथा स्यात्सम्यङ मिथ्येति नयविशेषशेोषि ।। मह ५५७ पंचाध्यायी For Private And Personal Use Only अर्थ - यह बात ठीक है कि नय प्रवाह अनिवार्य है परन्तु साथ में यह भी अनिवार्य है कि वह प्रमाणाधीन हो । अन्यथा बह मिथ्या है कुनय हैं क्योंकि कोई नय यथार्थ होता है तो कोई Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६० जैन तत्त्व मामांसाको नय मिथ्या होता है । यह नयों की विशेषता भी अनिवार्य है जिस प्रकार सम्यग्ज्ञान और मिथ्या ज्ञान इस प्रकार ज्ञान दोय रूप है उसी प्रकार नय भी सम्यकू नय और मिथ्या नय ऐसे नय भी दो प्रकार की हैं इसी बात को प्रगट करते हुये आचार्य कहते हैं किअर्थविकल्पो ज्ञानं भवति तदेकं विकल्पमात्रत्वात् । अस्ति च सम्यग्ज्ञानं मिथ्याज्ञानं विशेषविषयत्वात् || ५५८ पंचाध्यायी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - ज्ञान अर्थ विकल्पात्म होता है । अर्थात् ज्ञान स्व पर पदार्थ को विषय करता है इसलिये ज्ञान सामान्य की अपेक्षा से ज्ञान एक ही है। क्योंकि अर्थ विकल्पता सबही ज्ञानों में है । परन्तु विशेष २ विषयों को अपेक्षा से उसी ज्ञान के दो भेद हो जाते हैं। सम्यग्ज्ञान और मिथ्या ज्ञान। दोनों का स्वरूप आचार्य प्रतिपादन करते हैं । "तत्रापि यथावस्तु ज्ञानं सम्यग्विशेषहेतु स्यात् । अथ चेदं यथावस्तु ज्ञानं मिध्याविशेषहेतुः स्यात् ॥ ५५६ पंचाध्यायी अर्थ- इन दोनों प्रकार के ज्ञानों में सम्यग्ज्ञान का कारण वस्तु का यथार्थ ज्ञान है। तथा मिथ्या ज्ञान का कारण वस्तु का अयथार्थ ज्ञान है। अर्थात् जो वस्तु ज्ञान में विषय पडतो है । उस वस्तुका वैसा ही ज्ञान होना जैसी की वह है उसे सम्यग्ज्ञान कहते जैसे किसी के ज्ञान में चांदी विषय पडी हो तो चांदीको चांदी हो म तब तो वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और यदि वह चांदी को सीप समझे तो वह ज्ञान मिथ्याज्ञान है। क्योंकि जिस ज्ञानमें वस्तु तो कुछ और ही पड़ी हो और ज्ञान दूसरी ही वस्तुका हो तो For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा उसे मिथ्याज्ञान कहते हैं । इस प्रकार विषय के भेद से ज्ञान के भी सम्यक और मिथ्या ऐसे दो भेद हो जाते हैं। अतः ज्ञान के समान नय के भी दो भेद सम्यक और मिथ्या रूप होते हैं। ज्ञानं यथा तथासौ नयोस्ति सर्वो विकल्पमात्र स्वात् । तत्रापि नयः सम्यक् तदितरथा स्यान्नयामासः ५६० ५० .. अर्थ--जिस प्रकार ज्ञान है उसी प्रकार नय भी है। अर्थात् जैस सामान्य ज्ञान एक है वैस सम्पूर्ण नयभी विकल्पमात्र होनेसे ( विकल्पात्मक ज्ञान को ही नय कहते हैं ) सामान्य रूप से एक है। और विशेष को अपेक्षा सं ज्ञान के समान नय भी सम्यक न्य और मिया नय ऐसे दोय भेद वाले हैं। जो सम्यक् नय हैं उन्है नय कहते हैं । जो मिथ्या नय है उन्हें नयाभास दोनों नयों का स्वरूप "तद्गुणसंविज्ञानः सोदाहरणः सहेतुरथ फलवान् । यो हि नयः स नयः स्याद्विपरीतो नयो नयाभासः ।। ५६१ पंचाध्यायी अर्थ-~जो तद्गुण संविज्ञान हो अर्थात् गुणगुणी के भेद पूर्वक किसी वस्तु के विशेष गुणों को उसी में बतलाने वाला हो उदाहरण सहित हो, हेतु पूर्वक हो, और फल सहित, हो वह नय कहलाता है। उपयुक्त बातोंसे विपरीत हो वह नय नयाभास है। फलवत्वेन नयानां भाव्यमवश्यं प्रमाणवद्वियत् । स्यादनयविप्रमाणं स्युस्तदंशत्वात् ।। ५६२ पंचाध्यायी अर्थ-जिस प्रकार प्रमाण का फलसहित होना परम आवश्यक है। कारण अवयवी प्रमाण कहलाता है उसी का अवयव नय For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की कहलाता है । नय प्रमाण के ही अंश स्वरूप है । इस प्रकार अंश अंशी रूप होने से प्रमाण के समान नय भी फल महित होता है। सारांश"तस्मादनुपादेयोव्यवहारो तद्गुणे तदारोपः । इष्टफलाभावादिह न नयो वणादिमान् यथाजीवः" ।। ____५६३ पंचाध्यायी अर्थ-जिस वस्तु में जो गुण नहीं है दूसरी वस्तु के गुण उसमें आरोपित-विवक्षित किये जाते है । जहां पर ऐसा व्यवहार किया जाता है वह व्यवहार प्राहा नहीं है । क्योंकि ऐसे व्यवहार से इष्ट फल की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिये जीवको वर्णादि वाला कहना यह नय नहीं है किन्तु नयाभास है। क्योंकि जीव के वर्णादि गुण नहीं है फिर भी उन्है जीव के कहने से जाब और पुद्गल में एकत्व बुद्धि होने लगती है । यही इष्ट फल की हानि है । इमलिये चाहे सद्भूत व्यवहार नय हो, चाहै असद्भूत व्यवहार नय हो तद्गुणा रोपी ही नय है अन्यथा वह नयामान है। क्रोधादि भाव पुद्गल कर्म के निमित्त से आत्मा के चारित्र गुण का विकार है -इमलिये आत्मा ही के वैभाविक भाव है अतः जीव में उसको आरोपित करना ग्रह अनद् गुमारोप नहीं कहा जा सकता किन्तु तद्गुणारोप ही है। क्रोधादि भाव शुद्ध आत्मा में नहीं है किन्तु पर के निमित्त में होते हैं । इसलिये उन्हें श्रमद्भूत व्यवहार नय का विषय कहा जाता है। __ इस विषय में पंडित फूलचन्द सिद्धान्त शास्त्री जी की या कहना है कि "जो अन्य द्रव्य के गुणों को अन्य द्रव्य के बहता है वह असद्भूत व्यवहार नय है" इसके प्रमाण में खण्ड रूप नय चक्र की गाथा उद्धृत की है वह इस प्रकार है । "अरमि भएणगुणो भगइ मन्द " ..." ०२२ इम विषय में ग्व For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममीक्षा पं० टोडरमल जी के वाक्य भी मोक्ष मार्ग प्रकाश के उद्धृत किये हैं वे निम्न प्रकार है । "तहां जिन ागम विषै निश्चय-व्यवहार रूप वर्णन है निनविषै यथार्थ का नाम निश्चय है। उपचार का नाम व्यवहार है"। अधि ७ पृष्ठ ८७ "व्यवहार अभूतार्थ है सत्य स्वरूपको न निम्पै है । किमी अपेक्षा उपचार करि अन्यथा निरूपै हैं । बहुरि शुद्ध नय जा निश्चय है सो भूतार्थ है जैसा वस्तु का रूप है तैमा निरूपै हैं" अधि० ७ पृ. ३६६ __"एक हो द्रव्य के भाव को तिम ल्वरूप ही निरूपण करना सो निश्चय नय है । उपचार करि तिस द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य के भावस्वरूप निम्पण करना सो व्यवहार है" अधि: ७ | पृष्ठ । ३६६ ___ उपचार। कथन के उदाहरण --५० फूलचन्द जी ने दिये हैं वे इस प्रकार है १-"एक द्रव्य अपनी विवन्ति पर्याय द्वारा दूसरे द्रव्य का कर्ता है और दुमरे द्रव्य को बह पर्याय उसका कर्म है। २-"अन्य द्रव्य अन्य द्रव्य को परिणमाता है या उसमें अतिशय उत्पन्न करता है।" ३-"अन्य द्रव्य की विवक्षित पर्याय अन्य उच्च की विवक्षित पर्याय के होने में हेतु है। उसके विना वह कार्य नहीं होता " ___-"शरीर मेरा है तथा देश बन और स्त्री पुत्रादिक मेरे है आदि पृष्ठ। २१३।४ जैन तत्त्व मीर पं० फूलचन्द जी के उपरोक्त कथनसे यह स्पष्ट जाहिर होता है कि उनका विचार व्यवहार नयको चाहे सद्भूत हो चाहै असद्भूत हो दोनोंही न्य वस्तु स्वरूपको धन्यथा प्ररूपै हैं ऐमा सिद्ध करने For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Ex जैन तत्त्व मोमांसा का का है । व्यवहार नय को आचार्यों ने उपचरित क्यों कहा है इस बातको पंडितजी भी जानते हैं फिरभी आपने कतिपय नयाभासों का उदाहरण देकर व्यवहार नय को सर्वथा अतद्गुणारोपी ठह रानेका प्रयत्न किया है यह आश्चर्य की बात है । क्योंकि निश्चयं और व्यवहार नय दोनों ही नय प्रमाण के अंश है इसलिये प्रमाणाधीन हैं । अत: जिस प्रकार प्रमाण फलसहित है उसी प्रकार नय भी तद्गुण संविज्ञान उदाहरण सहित हो, हतु पूर्वक हो ओर फलसहित हा वहां नय नय कहलाने के योग्य है किन्तु जिस नय द्वारा जिस वस्तु में जो गुण नहीं है उस वस्तु में दूसरी वस्तु के गुण आरोपित किये जाते हैं वह व्यवहार नय बाहा नहीं, वह नय नहीं, नयाभास है क्योंकि ऐसी नयों द्वारा इष्ट फल की सिद्धि नहीं होतो इसका संस कारण यह है कि पर में एकत्व बुद्धि होने लगती है। यही इस फल का विधात है इस बात को उपर में अच्छी तरह सिद्ध किया जा चुका है। अतः अतद्गुणारोपी नयों का उदाहरण देकर आपने "जैन तत्त्व मीमांसा" की है वह जैन तत्त्वमीमांसा कही न जाकर जैन तत्त्व की अवहेलना कही जा सकती है। __पंडितजी ने जा उपचरित कथन के चार उदाण पेस किये द नयाभासों के क्यों उदाहरण हैं इस बात को हम यहां पर पागम प्रमाण से सिद्ध करके दिखलायेंगे। "अथ सन्ति नयाभासा यथोपचाराव्यहेतुदृष्टान्ताः । अत्रोच्यन्ते केचिद्रेयतया वा नयादिशुद्यर्थम्" । ५६६ पंचाध्यायी अर्थ-उपचार नाम वाले उपगर पूर्वक हेतु दृष्टान्तों को ही नयाभास कहते हैं। यहां पर कुछ नयाभासों का उल्लेख किया जाता है इसलिये कि नयाभासों को समझलेने पर उन्हें छोड दिया For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - समीक्षा जाय। और उन नयाभासों को देखने से शुद्ध नयों का परिज्ञान हो जाय तो न्याभासों के भ्रम में न पड़े। “अस्ति व्यवहारः किल लोकानामयमलब्धबुद्धित्वात् । योऽयं मनुजादिवपुर्भवति स जीवस्तप्यतोनन्यत्वात् ॥ ५६७ पंचाध्यायी अर्थ--- वृद्धि का अभाव होने से लोकों का यह मनुष्यादि शरीर है वह जीव है क्योंकि वह जीव से अभिन्न है । " सोयं व्यवहारः स्यादव्यवहारो यथापसिद्धान्तात् । अप्यपसिद्धान्तत्वं नासिद्धं स्यादनेकधर्मिकत्वात् " || ५६८ पंचाध्यायी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Audio w For Private And Personal Use Only Ca अर्थ -- शरीर में जीव का व्यवहार जो लोक में होता है वह व्यवहार अयोग्य व्यवहार है । कारण वह सिद्धान्त से ति है। सिद्धान्त विरुद्धना इस व्यवहार में असिद्ध नहीं है । किन्तु शरीर और जीव को भिन्न भिन्न धर्मी होने से प्रसिद्ध ही हे अर्थात् शरीर पुद्गल द्रव्य भिन्न पदार्थ है, और जीव द्रव्य free पदार्थ है फिर भी जो लोग शरीर में जोव व्यवहार करते है वह वश्य सिद्धान्त विरुद्ध है । "नाशंक्यं कारणमिदमेक क्षेत्रावगाहिमात्रं यत् । सर्वद्रव्येषु यतस्तथावगाहाद्भवेदतिव्याप्तिः || ५६६ पंचाध्यायी अर्थ- शरीर और जीव दोनों का एक क्षेत्र में अवगाहन-स्थिति है इस कारण लोक में जैसा व्यवहार होता है ऐसी आशंका भी नहीं करना चाहिये क्योंकि एक क्षेत्र में तो सम्पूर्ण द्रव्यों का अवगाहन हो रहा है। यदि एक क्षेत्र में अवगाहन होना ही एकता Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जन तत्त्व मीमामा की का कारण हो तो समो पदार्थों में अतिव्याप्ति दोष उत्पन्न होगा अर्थात् धर्म, अबर्म, आकाश-कान, जीव पुद्गल ये छहों ही द्रन्य एक क्षेत्र में रहते हैं । परन्तु छहोंके लक्षण जुदे जुदे हैं। यदि एक क्षेत्र अवगाह ही एकता का कारण हो तो छहों में अति व्याप्ति दोष नावेगा और उनमें अनेकता भी नहीं रहेगी। "अपि भवति वन्ध्यवन्धकमावो यदि वानयोन शंक्यमिति । तदनकचे नियमात्तद्वन्धस्य स्वतोप्यसिद्ध स्यात् ।। ५७०६० अर्थ-कदाचित यह कहा जाय कि जीव और शरीर में परस्पर वन्ध्यवन्धक भाव है इसलिये वैसा व्यवहार होता है। ऐसी आशंका भा नहीं करना चाहिय । क्या िवन्ध नियम में अनेक पदार्थों में होता है । एक पदार्थ में अपने आप ही वन्ध का होना असिद्ध ही है। अर्थात् पुद्गल को वान्यनवाला आत्मा है । आत्मा से बन्धने वाला पुद्गल है इसलिये पुद्गत शरीर वक्ष्य है। आत्मा उसका वन्धक है। ऐसा क्य बन्धक सम्बन्ध होने से शरीर में जोव व्यवहार किया जाता है ऐस , आशंका भी निम्ल है। क्योंकि बन्ध तब ही हो सकता है जद कि दो पदार्थ प्रसिद्ध हो वन्ध्यवन्धक में द्वैत ही प्रतीत होता है। "अथ चेदवश्यमेतन्निमित्तनैमित कत्वमस्ति मिथः । न यतः स्वयं स्वतो वा परिणममानस्य किंनिमित्ततया" ५७१ पंचाध्यायी अर्थ-कदाचित मनुष्यादि शरीर में जोवत्व बुद्धिका कारण शरीर और जीवका निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध हो, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि जो अपने श्राप परिणमन शील है उसके लिये निमित्तपनेसे क्या प्रयोजन है । अर्थात् जीव स्वरूप में निमित्त कारण कुछ नहीं कर सकता। जीव और शरीर में For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध शरीर में निमित्तता और जीव में नैमित्तिकता का ही सूचक होगा। वह सम्बन्ध दोनों में एकत्व बुद्धि का जनक नहीं है क्योंकि जीव अपने स्वरूप से ही परिणमन करता है निमित्त कारण के निमित्त से उसमें पर स्वरूपता नहीं पाती इसलिये मनुष्यादि शरीर में जीव व्यवहार करना नयाभास है। दूसरा नयाभास "अपरोपि नयाभासो भवति यथा मूर्तस्य तस्य सतः ! कर्ता भोक्ता जीवः स्यादपि नोकर्म कर्मकृते" ५७२ पं० ___ अर्थ--आहारवर्गणा, भाषावर्गणा, तैजसवर्गणा, मनोवर्गणा ये चार वर्गणायें जब आत्मा से सम्बन्धित होती हैं तब वे नो कर्म के नाम से कहो जाता है। और कार्माण वर्गणा जब मात्मा से सम्बन्धित होकर कर्मरूप ( ज्ञानावरणादिरूप) परिणत होती हैं तब वह कर्म के नाम से कही जाती है। ये कर्म और नाकर्म पुद्गल की पर्याय है इसलिये ये मूर्त हैं। उन मूर्त कर्माका नो कर्मो का जीव कर्ता भोक्ता है ऐसा कहना यह दूसरा नयाभास है । अर्थात् जीव अमूर्त स्वरूप वाला है इसलिये वह अपने ज्ञानादि भावोंका कर्ता भोक्ता है । उसको ज्ञानादि भावों का कर्ता भोक्ता कहना यह भी व्यवहार ही है किन्तु यह व्यवहार असद्भूत नहीं है। क्योंकि जीव के ही ज्ञानादि गुण जीव ही में आरोपित किये गये हैं। परन्तु जो जीव को मूर्त पदार्थों का कर्ता भोक्ता व्यवहारनय से बलाते हैं इस विषय में आचार्य कहते हैं कि वह नय नय नही किन्तु नयाभ स है।। "नाभासत्वमसिद्धं स्यादसिद्धान्तो नयस्वास्य । ससदनेकत्वे सति किल गुणसंक्रांतिः कुतः प्रमाणाद्धा" ५७३ पंचाध्यायी For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir mar १८ जैन तत्त्व मीमांसा की "गुणसंक्रातिमृते यदि कर्ता स्यात्कर्मणश्च भोक्तात्मा सर्वस्य सर्वशंकरदोषः स्यात् सर्वशून्यदोषश्च" । ५७४ पं० अर्थ-मूर्त कोका जीव को कर्ता भोक्ता बतलाने वाला व्यवहार नय नयाभास है यह बात प्रसिद्ध नहीं है । कारण ऐमा व्यवहार नय सिद्धान्त विरुद्ध है । सिद्धान्त विरुद्धता का भी कारण यह है कि जब कर्म और जीव दोनों भिन्न भिन्न पदार्थ हैं, तब उनमें गुण संक्रमण किस प्रकार से होगा ? अर्थात् नहीं होता । तथा बिना गुणों के परिवर्तन हुये जीव कम का कर्ता भोक्ता नहीं हो सकता । यदि विना गुणों की संक्राति के ही जीव कर्म का कर्ता भोक्ता हो जाय तो सब पदार्थों में मर्व शंकर दोष उत्पन्न होगा तथा सर्व शून्य दोष भी उत्पन्न होगा। इसलिये जीवके गुण पुद्गल में नहीं चले जाने से जीव पुद्गल कर्मका कर्ता भोक्ता नहीं हो सकता है । भ्रमका कारण अस्त्यत्र भ्रमहेतु वस्याशुद्धपरणतिं प्राप्य ! कर्मत्वं परिणमते स्वयमपि मूर्तिः मद्यतो द्रव्यम् ।। ५७५ पंचाध्यायी. अर्थ-जीव कर्मों का कर्ता है इस भ्रम का कारण भी यह है कि जीव की अशुद्ध परणति के निमित्तसे पुद्गल द्रव्य कार्माण वर्गणा स्वयं उपादान कर्म रूप परिणत हो जाती है। अर्थात जीव के राग द्वेष भावोंके निमित्त से कार्माण वर्गणा कर्म पर्याय को धारण करती है । इमालये उसमें जीव कर्तृता का भ्रम होता है। "इदमत्र समाधानं कर्ता य: कोपि स स्वभावस्य । परभावस्य न कता भोक्ता वा तन्निमिनमात्रेषि" ५७६ पंचाध्यायी For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा wor . अर्थ-उस भ्रम का समाधान यह है कि जो कोई कर्ता होगा वह अपने स्वभाव का ही कर्ता होगा उसका निमित्त कारण मात्र होने पर भी कोई परभाव का कर्ता अथवा भोक्ता नहीं हो सकता है । दृष्टान्त " भवति स यथा कुलालः कर्ता भोक्ता यथात्मभावस्य । न तथा परभावस्य च कर्ता भोक्ता कदापि कलशस्य ! ५७७ पंचाध्यायी श्रथ कुम्हार सदा अपने स्वभाव का ही कर्त्ता भोक्ता होता है वह परभाव कलश का कर्ता भोक्ता नहीं होता । अर्थात् कलश के बनाने में वह केवल निमित्त कारण है। निमित्त होने से वह उसका कर्ता भोक्ता नहीं हो सकता । " तदभिज्ञानं च यथा भवति घटो मृत्तिकास्वभावेन । अपि मृणमयो घटः स्यान्न स्यादिह घटः कुलालमयः " ५७८ पंचाध्यायी अर्थ -- कुम्हार कलश : कर्ता क्यों नहीं है ? इस विषय में यह दृष्टांत प्रत्यक्ष है कि घट मिट्टी के स्वभाव वाला कुम्हार स्वरूप नहीं होता अर्थात् जब घट के भीतर कुम्हार का एक भी गुण नहीं पाया जाता है तब कुम्हार ने घट का क्या किया ? कुछ भी नहीं किया वह केवल उसका निमित्त मात्र है । अत: लोक व्यवहार मिथ्या है। "अथ चेटकर्तासौ घटकारो जनतोक्तिलेशोयम् । दुर्वा भवतु तदा का नो हानिर्यदानयाभासः " || ६६ For Private And Personal Use Only ५७६ - पंचाध्यायी । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .१०० जैन तत्त्व मीमांसा की अर्थ--यदि यह कहा जाय कि लोक में यह यवहार ? त है कि घटकार-कुम्हार घट का बनाने वाला है मोक्यों? आचार्य कहते हैं कि उस व्यवहार को होने दो मम हमारी कुछ भी हानि नहीं है किन्तु उसे नयाभास ममझो अर्थात उमे नयाभास समझकर बराबर व्यवहारो। इमसे हमारे कथन में किसी प्रकार की बाधा नहीं आती है परन्तु उसे नय ममझन वाला लोक व्यवहार है तो वह मिथ्या है। तीसरा नयाभाम "अपरे वहिरात्मानो मिथ्यावाद बदन्ति दमनयः । यद्गुरेऽपि परस्मिन् कर्ता भोक्ता परोपि भवनि यथा" । ५८० पंचाध्यायी अर्थ--और भी खोटी बुद्धि के धारण करने वाले मिथ्यादृष्टि पुरुष मिथ्या बात कहते है जैसे जो पर पदार्थ सर्वथा दूर है जीव के साथ बन्धा हुआ भी नहीं है उसका भी जीव कर्ता भोक्ता हाता है ऐसा वे कहते है। "सद्व द्योदयभावान् गृहधनधान्यकलत्रपुत्रांश्च । स्वमिह करोति जीवो मुनक्ति वा स एव जीवश्च" । ५८१ पंचाध्यायी अथ-साता वेदनीय कम से, उदय में होने वाले घर, धन धान्य, स्त्री, पुत्र, मजीव निर्जीव पदार्थ स्थावर जंगम सम्पत्ति है उनका जीव ही भर्ता है और वही जीव उनका भोक्ता है। ननु सति गृहनिनादौ अति सुखं प्राणिनामिहाध्यक्षात असति च तत्र न नदिदं तत्कता स एव नद्भोक्ता ।। ५८२ पंचाध्यायी For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममीक्षा __ अर्थ--यह बात प्रत्यक्ष सिद्ध है कि घर स्त्री आदि होने पर हा जोवों को सुख होता है उनके अभाव में उन्हें सुख भी नहीं हाता । इसलिये जीव ही उनका कर्ता है और स्वयं ही उसका भोक्ता है । अर्थात् अपनी सुख सामग्री को यह जीव स्वर्ग मंग्रह करता है और स्वयं भोक्ता है। उत्तर--- सत्यं वैपयिकमिदं परमिह तदपि न परत्र सापेक्षम् । सति बहिरथंपि यतः किल केषाञ्चिदसुखादिहेतुत्वात् ।। ५८३ पंचाध्यायी अर्थ-यह बात ठीक है कि घर वनितादि के संयोग से यह मंसारी जीव सुख सममाने लगता है । परन्तु उसका यह सुत्र केवल वैषियिक विषय जन्य है वास्तविक नहीं है सो भी घर मनी आदि पदाशी की अपेक्षा नहीं रखता है कारण घर स्त्री आदि याह्य पदार्थो के होने पर भी किन्हीं किन्हीं पुरुषों को सुख के बदले दुख भी होता है। उनके लिये वही सामग्री दुःख का कारण बनजाती है । इसालय"इदमत्र तात्पर्य भवतु म कताथवा च मा भवतु । भोक्ता स्वस्य परस्य च यथा कशाचच्चिदात्मको जीवः पंचाध्यायी अर्थ-वहां पर मारांश इतना है कि जीव अपना और परका यथाकथंचित कर्ता हो अथवा भोका हो अथवा मत हो परन्तु यह चिदात्मक चैतन्य स्वरूप है : अर्थात् जीव सदा अपने भागेका ही ऋ और भोक्ता मोता है, परका नहीं। For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org { जैन तत्त्व मीमांसा की चोथा नयाभास "अयमपि च नयाभासो भवति मिथोवोध्यवोधसम्बन्धः ज्ञानं ज्ञेयगतं वा ज्ञानगतं ज्ञं यमेतदेव यथा ५८५ पंचा० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ- परस्पर ज्ञान और ज्ञेयका जो बोध्य बोधक रूप सम्बन्ध है उसके कारण ज्ञानको ज्ञेयगत ज्ञेयका धर्म मानना अथवा ज्ञ ेय को ज्ञानगत मानना यह भी नयाभास है । अर्थात् ज्ञानका स्वभाव है वह हर एक पदार्थ को जाने परन्तु किसी पदार्थको जानता हुआ भी वह सदा अपने ही स्वरूपमें स्थिर रहता है वह पदार्थ में नहीं चला जाता है । और न वह उसका धर्म ही हो जाता है। तथा न पदार्थका कुछ अंश ही ज्ञानमें आजाता है । जो कोई इसके विरूद्ध मानते हैं वे नयामास मिथ्या ज्ञान से ग्रसित हैं । "सकलवस्तु जग में अस होई वस्तु वस्तुसों मिले न कोई। जीव वस्त जाने जग जेती सोऊ भिन्न रहे सबसेती" ॥ सर्वविशुद्धिद्वार । दृष्टान्त जैसे चन्द्र किरण प्रगट भूमि स्वेत करे भूमिसन होत सदा ज्योतिसी रहत है । तैसे ज्ञानशकति प्रकाश हे उपादेय ज्ञ ेयाकार दीमै वै न ज्ञयको गहत है । शुद्ध वस्तु शुद्धययरूप परिण में सत्ता परमाणमाहि ढाहे न ढड़त है। सो तो और रूप कबहू न होत सर्वथा निश्चय अनादि जिनवाणी यों कहत है। 1 "च रूपं पश्यति रूपगतं तन्न चक्षुरेव यथा । ज्ञानं ज्ञ ेयमवैति च ज्ञयगतं वा न भवति तज्ज्ञानं " ५८६ श्रर्थ--- जिसप्रकार चक्षु रूपको देखता है परन्तु वह रूपमें चला नहीं जाता अथवा रूपका वह वर्म नहीं होजाता है । For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा "इत्यादिकाश्च बहवः सन्ति यथालक्षणनयाभासाः। तेषामयमुद्द शो भवति विलक्ष्यो नयान्नयामासाः ५८७ अर्थ-कुछ नयामामों का उपर उल्लेख किया गया है उनके मिवाय और भी बहुतसे नयाभास हैं जोकि वैसेही लक्षणों वाले हैं। उन सब नयाभासोंका यह उद्देश्य आशय नयसे सर्वथा विरुद्ध हैं इसलिये वे नयाभास कहे जाते है । अर्थात् नयों का जो स्वरूप कहागया है उससे नयाभासोंका स्वरूप विरुद्ध है। इसलिये जो समीचीन नय है, उसे नय कहते हैं और मिथ्यानयको नयाभास कहते हैं। पं० फूलचन्दजीने उपरोक्त मयाभासोंका उदाहरण देकर समोचीन व्यवहार नयोंके मिथ्या सिद्ध करनेकी चेष्टा की है किन्तु विद्वानों के सामने वह बात टिक नहीं सकती नयचक्रक प्रमाण अमद्भूतव्यवहारनयका पंचाध्यायीके अनुरूप ही है किन्तु "अण्णेसिं अण्णगुणो भणइ असम्भूद,, ___ इमगाथावा अर्थ आपने कर्म नोकर्म तथा घट पटादिका कती मानना श्रमद्भूतव्यवहारनय का विषय बतलाया है सो ठीक नहीं है क्योकि अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्य कर्ता माननेवाला नय नहीं है वह नयाभास है यह वात ऊपरमें बतलाई जाचुकी है। इमलिये "अण्णसि अण्णगुणो भणई,, इसका अर्थ यह नहीं है क अन्यद्रव्यमें अन्यद्रव्यके गुण आरोप करना असद्भुत व्यवहारनय है । किन्तु अन्य व्यके निमित्तसे होनेवाले अपने में वैभाविक परिणामोंको अपना कहना अर्थात क्रोधादिक कर्मोके निमि से होनेवाले आत्माक क्रोधादि वैभाविक भावोंको आत्माका कहना यह असद्भूतव्यवहारनयका विषय है। यह क्रोधादिभाव मामाहीम हात ह, जडमें नहीं इसलिये य तद्गुणारोपही है For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न तत्व मामाता Anamund १०४ न तत्त्व मीमांसा की अतद्गुणारोप नहीं जैसा कि ऊपर खुलासा किया जाचुका है। आपने जो असद्भूतव्यवहार नयकी व्याख्या वृहद्रव्यप्रहको गाथाको टीकाका प्रमाण दिया है वह नयाभासोंकी मान्यताका है। इसका कारण यह है कि उसकी टीकाम टोकाकार स्परूपसे कहते हैं कि "मनोवच का व्यापार कियारहित शुद्ध निजात्मतत्त्वभावनासे शून्य ऐसा जो आत्मा वह ऐसा मानता है कि कर्मनोकर्म और वट पटादिका कर्ता जीव है। "मनोवचनकायव्यापारहित निजशुद्धात्मतत्वभावनाशून्यः मन्नुपचरितासद्भतव्यवहारण ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मणां आदिशब्देनौदारिकवेक्रयिकाहारकशरीरत्रयाहारादि षट्पर्याप्ति योग्यपुद्गल पिण्डरूपनाकर्मणां तथैवोपचरितासद्भ तव्यवहारण बहिर्विषयघटपटादीनां च कता भवति" इसटीकामें ज्ञानावरणादि द्रव्यकमौका और औदारिकादि शरीररूपी नोकमांका एवं आहारादि षट्पर्याप्ति रूप नोकर्माका फर्ता मानना यह असद्भूत अनुपरित व्यवहारनयका विषय महागया है तथा घर मकान स्त्रीपुत्रादिकोका कर्ता मानना यह असद्भूत उपचरित व्यवहारनयका विषय कहा गया है इससे सह नहीं समझनाचाहिये कि यह सुनय असद्भूत अनुपचारत और उपचरित व्यवहारनयका लक्षण है क्योंकि समीचीन नयका रक्षण तद्गुणारोपही कहागया है जो अतद्गुणागेप नय है वह अनय है ऐसा ऊपर अच्छीतरह सिद्ध किया जा चुका है । इसलिये यहां पर जो असदभूत अनुपचरित तथा अमद्भूत उपचरितनयकी मान्यताका उल्लेख किया गया है उसको प्रमाणांश यं नहीं समझना चाहिये । क्योंकि जो प्रमाणांश नय होगा वह स्तुस्वरूपके अंशको ही प्रहण करेगा। वह अपर वस्तु को स्ववस्तु For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममीक्षा १०५ समझ कर ग्रहण नहीं करेगा। किन्तु जो नय प्रमाणाधीन नहीं है ant नय पर पदार्थों स्वपदार्थकी कल्पना करता है इसलिये वह कुनय है | मारांश यह है कि जो मिध्यादृष्टि वरिश्रात्मा है वहां पर जा ज्ञानावरणादि यकमका अथवा औदारिकादि शरीररूपी नो कमका तथा घटपटादिका कर्ता होता है । इसका कारण यह है कि उसका ज्ञान मिध्याज्ञान है इसलिये उसके ज्ञानमें पदार्थ विपरीत ही झलकता है अतः जैसा उसके ज्ञानमें झलकता है बसा है। वह मानता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि स्वानुभूतिसे शून्य मिध्यादृष्टि वहिरात्मा नोकर्मवाह्यकर्म धनधान्यादिक पदार्थोंमें अबुद्धि रखता है यह कुज्ञानका विषय है । और कुज्ञान के अंश का नाम ही कुनय तथा सुज्ञानके अंशका नाम ही सुनय है । यह बात असिद्ध नहीं है इसवातको स्वीकार करते हुये भी पंडित फूलचन्दजी ने आचार्य के अभिप्रायोंको छिपाकर कुनयांके उदाहरणोंद्वारा सुनयोंको कुनय सिद्ध करनेकी चेष्टा की है । एक तरफ तो आप यह कहते हैं कि "त थैंकरोंका जो उपदेश चारों श्रनुयोग में संकलित है उसे वचनव्यवहारकी दृष्टिसे कितने ही भागों में विभक्त किया जा सकता है ? विविधप्रमाणोंसे प्रकाशमं विचार करने पर विदित होता है कि उसे हम मुख्यरूपसे दो भागों में विभक्त कर सकते हैं उपचरित कथन और अनुपचरित कथन | जिस कथनका प्रतिपाद्य अर्थ ( वस्तुस्वरूप तो असत्यार्थ है ( जो कहा गया है वैसा नहीं है ) परन्तु उससे परमाथंभूत अर्थ ( वस्तुस्वरूप का ज्ञान हो जाता है, उसे उपचरित कथन कहते हैं। और जिसकथनसे जो पदार्थ जैसा है उसका उसी रूपमें ज्ञान होता है उसे अनुपचारित कथन कहते हैं" । इस वक्तव्यका तात्पर्य यह है कि अनुपचरित कथन है वह निश्चयस्वरूप है और उपचरित कथन है वह व्यवहारस्वरूप हैं For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६ जैन तत्व मीमांसा का अर्थात गुणगुणीके भेदरूप कथन है इसलिये बद वस्तुस्वरूप तो नहीं है क्योंकि वस्तुस्वरूप गुणगुणी अभेदरूप है तो भी उस भेदरूप कथन से परमार्थ स्वरूप वस्तुस्वरूपका बोध होजाता है। यह कथन तद्गुणारोप सुनयका कथन है। क्योंकि सुनयके विना परमार्थभूतवस्तुका बोध नहीं होता । अतः यहां पर ता श्राप उपचरितनय के द्वारा परमार्थभूत अर्थका ज्ञान हो जाता है ऐसा कह पाये हैं। इसके आगे आपने जो उपचरित कथनके च र उदाहरण दिये हैं वे ऊपर में उद्धृत किये जाचके, उनमें "शरीर मेरा है और देश धन तथा स्त्री पुत्रादिक मेरे है" आदि इस उपच रितकथनसे परमार्थरूप अर्थका बोध कैसे होगा ? नहीं होगा ! यदि शरीर धन धान्य स्त्री पुत्रादि मेरे हैं इस मान्यतासे परमार्थ स्वरूप आत्मार्थका वोध होजाता है तो यह मान्यना तो अनादि. कालको है और इसी मान्यतासे यह जाव अनादि कालसे संसार परिभ्रमण कररहा है आजतक इस मान्यतासे किसीने भी आत्मस्वरूपकी प्राप्ति नहीं की इसलिये यह उपचरित कथन परमार्थस्वरूप अर्थका विघातक है अत: यह उपचार मिथ्या है इस मिथ्या उपचारका उदाहरण देकर वास्तविक उपचार नयको मिथ्यानय वतलाना सर्वथा अनुचित है। ___ श्राप यहभी कहते जारह है कि "शास्त्रों में लौकिक व्यवहार को स्वीकार करनेवाले ज्ञान नयकी अपेक्षा ( श्रद्धा मूलक ज्ञान नयकी अपेक्षा नहीं ) असद्भूतव्यवहारनयका लक्षण करते हुये लिखा है कि जो अन्य द्रव्यके गुणों को अन्य व्यके कहती है वह असद्भूतव्यवहार न्य है। इस वक्तव्यमें आप खुद इस वात को मंजूर करते है कि शास्त्रोंमें लौकिक व्यवहारको स्वीकार करने वाले ज्ञान नयकी अपेक्षा जो कथन है वह कथन श्रद्धामूलक ज्ञान नयी अपेक्षा कथन नहीं है अर्थात कुज्ञान नय असद्भूत For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा व्यवहार की अपेक्षासे वह कथन है । जब वह श्रद्धामूलक अस द्भूत व्यवहार नयका कथन नहीं है तव कह कथन अश्रद्धामूलक कुज्ञान नयका ही समझा जायगा । इस हालतमें शरीरादि मेरा है धन धान्यादिक मेरे हैं ऐसी मान्यताको सुज्ञान नय असद्भूत व्यवहार नहीं कहा जासकता है । सुज्ञान असद्भूत व्यवहारन यका विषय तो आत्मामें पर निमित्तसे होनेवाले राग द्वेष परिणाम है, वे आत्माहीके हैं। उसीका प्रतिपादन करना सुज्ञान असद्भूत व्यवहारनयका विषय है । परन्तु शरारादिक का पुत्रपात्रादिकको वन धान्यादिक सम्पत्तिको अपना समझना मानना यह कुझान असद्भूतव्यवहारनयका विषय है । इसलिये वह मिथ्या है इस नयसे परमार्थभूत अर्थकी सिद्धि नहीं होती। यहा पर इस वा को भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि व्यवहारनयके आचार्योंने दो भेद किये हैं । एक सद्भूतव्यवहारनय और दूसरा असद्भूतव्यवहारनय अतः सद्भूतव्यवहार नयक विषयमें तो किसीका मतभेद नहीं है क्योंकि इस नयके द्वारा सद्पदार्थमें ही व्यवहार होता है । तो भी आचार्यों ने इसको भी अभूतार्थ जिस अपेक्षा से कहा है उस अपेक्षा का सविस्तर स्पष्टीकरण ऊपर किया जाचुका है । तथा असद्भूतव्यवहारनय का भो उदाहरण पूर्वक एवं हेतु पूर्वक स्पष्टीकरण फल सहित सविस्तर किया गया है। जिससे असद्भूतव्यवहारनयका क्या विषय है यह बात अच्छी तरह समझमें आजाती है । तथा लौकिक व्यवहारनयाभांसोंका भी उपरमें कुछ नयाभासोंका उदाहरग पूर्वक स्पष्टीकरण किया गया है। प्राचार्योन खुलासा करनेमें कोई कमी नहीं रक्खा है, तो भी नयविभागको नहीं समझनेवाले सज्जन असद्भूतव्यवहारनयक विषयमे गडवडा जाते हैं । इसका कारण यह है कि लौकिक व्यवहारार्थ जो नयाभासाकी प्रवृत्ति For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०८ जैन तत्त्व मीमांसा की an.mmon दोरही है उसे भी आचार्यान असद्भूतव्यबहारनयका विषय कहा है । इसका भी कारण यह है कि व्यवहारनय दो भागामें विभक्त होनेसे लौकिकयवहार सभूद्तव्यवहार में तो गर्भित हो नहीं सकते । क्योंकि उसमें अतद्गुणारोप हो नहीं सकता। यदि उसमें अतद्गुणारोप किया जाय तो कई सदभूत रहन सकता इसलिये लौकिक व्यवहार जिस नयाश्रित चल रहा है उसे आचायोने असद्भूतन्यवहारनयम गर्भित किया है फिर भी प्राचार्याने उसे कुनय, नयाभासही कहकर पुकारा है अतः लौकिक नयाभासों के उदाहरण से सुनयको कुनय या नयाभास समझना या ममझाना उचित नहीं है। इस बात को आप भी स्वीकार करते हैं कि “इसलिये दोनों स्थलों पर उपचार शब्द का व्यवहार किया गया है नत्र इस शब्द साम्यको देखकर उनकी परिगणना एक कोटी में नहीं करनी चाहिये । मोक्षमार्ग में भेद व्यवहार गौण होने से त्यजनीय है । और भिन्न कत कर्म आदि रूप व्यवहार अवास्तविक होने से त्यजनीय है।" जैन तत्त्व मीमांसा पृष्ठ १५ । ___ तथा नय चक्र का प्रमाण देते हुये आप यह भी स्वीकार करते हैं कि “यहां अखण्ड एक वस्तुमें भेद करने को उपचार या न्यबहार कहा है। इसलिये प्रश्न होता है कि क्या प्रत्येक द्रव्य में जो गुण पर्याय भेद परिलक्षित होता है वह वास्तविक नहीं है और यदि वह वास्तविक नहीं है तो प्रत्येक द्रव्य को भेदाभेद स्वभाव क्यों माना गया है और यदि वास्तविक है तो उसे उपचरित नहीं कहना चाहिये । एक ओर तो भेद करने को वास्तविक कहो और दूसरी ओर उसे उपचरित भी मानो ये दोनों बातें नहीं बन सकती । समाधान यह है कि प्रत्येक द्रव्यकी उभय रूप से प्रतीति होती है । इसलिये यह उभय रूप ही है इसमें संदेह नहीं। यदि For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १८६ इस दृष्टि से देखते हैं तो जिस प्रकार वस्तु अखण्ड एक है वह कथन वास्तविक ठहरता है । इसी प्रकार वह गुणगुणी के भेद से भेद रूप है यह कथन भी वास्तविक ही ठहरता है फिर भी यहां पर जो भेद करने को उपचार कहा है मो यह अखण्ड एक वस्तु को प्रतीति में लाने के अभिप्राय से ही कहा गया है। आशय यह कि यह जीव अनादिकाल से भेद को मुख्य मान कर प्रवृत्ति करता आरहा है जिसमें वह संसार का पात्र बना हुआ है । किन्तु यह संसार दुखदाई है ऐसा समझकर उससे निवृत्त होने के लिये उसे भेद को गौण करने के साथ अवेद स्वरूप अखण्ड एक आत्मा पर अपनी दृष्टि स्थिर करनी है तभी वह संसार बन्धनसे मुक्त हो सकेगा। वर्तमान में इस जीव का यह मुख्य प्रयोजन है और यही कारण है कि इस प्रयोजन को ध्यान में रखकर इससे मोक्षेच्छुक जीव की दृष्टि को परावृत कराया गया है।" ___आपके कहने का सारांश यह है कि जीव अनादि कालसे भेद को मुख्य मानकर प्रवृत्ति करता आ रहा है अर्थात् भेद रूप ही वस्तु स्वरूप समझता रहा है। किन्तु वस्तु स्वरूप भेद रूप ( खण्ड रूप ) नहीं है वहां अभेद रूप एक अखण्ड द्रव्य है उसमें भेद करना खण्ड करना उसका नाम उपचार है । यह उपचार व्यवहार स्व द्रव्य में ही है इसलिये परमार्थ भूत है । जो व्यवहार भिन्न कर्तृ कर्म आदि रूप है वह वास्तविक व्यवहार नहीं है इसलिये मिथ्या है । जब इस बात को आप मानते हैं तब नैगमादि समीचीन नयों को असमीचीन बतलाने का क्या प्रयोजन है ? किसी भी श्रागम में नैगमादि नयोंको असमीचीन नय मिथ्या नय नहीं कहा है। यदि कहा हो तो बतलाने की कृपा करे । अन्यथा नैगमादि नयों का विषय सम्यक रूप नहीं For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्व मीमांसा की है उपचरित है ऐसा कहना आगम विरुद्ध है। नैगमादि नयों में नेगम संग्रह व्यवहार तीन नय तो द्रव्याथिक ( निश्चय नय ) है और ऋजुसूत्र शब्द समभिरुढ एवं भूत यह चार नय पर्याया , र्थिक ( व्यवहार ) नय है । “नैगमसंग्रहव्यवहारास्त्र योनया द्रव्यार्थिका वेदितव्याः । ऋजुशब्दसमभिरूद्वैवंभूता श्चत्वारा नया पर्यायार्थिका ज्ञातव्याः ।" सवार्थ सिद्धौ ___"उत्ता नैगमादयो नया उत्तरोत्तरसूक्ष्मविषयत्वादेषा क्रमः, पूर्व पूर्व हतुकत्वाच्च" नैगमात्संग्रहोऽल्पविषयस्तन्मात्राहित्वात् नैगमस्तु भावाभावविध याहुविषयः । यथैव हि भावे संकल्पस्तथाऽभावेनैगमस्यसंकल्पः एवमुत्तरत्रापि योञ्चम् । नैगमः संग्रहस्य हेतुः, संग्रहो व्यवहारस्य हेतुः । व्यवहार ऋजुसूत्रस्य हेतुः । ऋजुसूत्र: शब्दस्य हेतुः, शब्दः समभिरूढस्य हेतुः । समभिरूढ एवंभूतस्य हेतुरित्यर्थः । आधीनाः __ अर्थात् नैगमादि सात नय है इनका लक्षण अनेक धर्मरूप जो वस्तु ताविषे अविरोधकरि हेतुरूप अर्पण करनेते माध्यक विशेषका यथार्थस्वरूप प्राप्त करनेकू व्यापाररूप जो प्रयोग करना सो नय है । सो यह नय संक्षेपते दोय प्रकार है द्रव्याथिक पर्यायाथिक ऐसे । तहां द्रव्य तथा सामान्य तथा उत्सर्ग तथा अनुवृत्ति ए सर्व एकार्थ हैं । ऐसा द्रव्य जाका विषय सा द्रव्याथिक है । वहुरि पर्याय तथा विशेष तथा अपवाद तथा व्यावृत्ति ए सर्व एकार्थ हैं। ऐसा पर्याय जाका विषय सो पर्यायाथिक है। इन दोऊनिके भेद नैगमादि हैं। तहां नैगम, संग्रह, व्यवहार ए तीन तो द्रव्याथिक है । वहुरि ऋजुसूत्र शब्द, समभिरूढ, एवम्भूत एं चारि पर्यायाथिक है । तामें भी गम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र एं चारि ता अर्थकू प्रधानकरि प्रवर्ते हे तातें इनको अर्थनय कहिय बहुरि शब्द समभिरूढ़ एवंभूत ए तीन शब्दका प्रधानकरि प्रवर्ते है For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १९५ इनको शब्दन कहिये । इहां कोई पूछे पर्यायार्थिक तो नय कहा अरु गुणार्थिक न कहा सो कारण कहा ? ताका उत्तर-सिद्धा 1 पर्याय सहभाविक्रमभावी ऐसे दोय प्रकार कहे है । तहां सहभावी पर्याय को गुण संज्ञा कही है। क्रमभावीकू पर्याय संज्ञा कही है । तातें पर्याय कहनेते यामें गुण भी जानिलेना ऐसे जानना नैगमनय ने तो वस्तुका सत् असत् दोऊलिये । संग्रहनयनै सत् ही लिया । व्यवहारने सतका एक भेद लिए। ऋजुन वर्तमनकू हो लिया । शब्दोंने वर्तमान सत में भी भेदकर एक कार्य पकड़ा समभिरूडौं वा कार्यके अनेक नाम थे तिसमें एक नामकू पकडा एवंभूतने तभी जिस नामकू पकडा तिसही क्रियारूप परिणाम ताकू पकडा | दृष्टान्त - जैसे एक नगरविषे एक वृक्ष ऊपरि पक्षी बोलेथा ताकू काहूने की या नगरविषे पक्षी गेले हैं। काहूनें कही या नगर में एक वृक्ष है तामें बोले है । काने कहा या वृक्षका एक वडा डाला है तामें बोले हैं। काने कही इस डालामें एक शाखा छोटी डाली है तामें बोले हैं। काहूने कही वाके शरीर में कंठ है तामें बोले है। ऐसे उत्तरोत्तर विषय छूटता गया सो यह अनुक्रमते इनि नयनिकं वचन जानने । जिसपदार्थकू साधिये तापरि सर्वही यह एसे नय लगाय लेने । सारांश - पहला पहला नयतो कारणरूप है | श्रमिला अगिला कार्यरूप है। तहां कार्य की पेक्षा स्थूलभी कहिये | ऐसे ये नय पूर्व पूर्वतो विरुद्धरूप महाविषय हैं। उत्तर उत्तर अनुकूल रूप रूप विषय हैं । जाते पहिले नयका विषय अगले नय में नाहीं ताते विरुद्ध है। अगलेका विश्य पहिलेमें गभित है तातें ताके अनुकूलपणा है । 1 ऐसे ये नैगमादि नय कहे ते श्रागे अल्प विषय हैं तिस कारणते उनके पाठका अनुक्रम है । पहिले नैगम वह्या ताका तो वस्तु मद्रूप असद्रूप इत्यादि अनेक धर्मरूप है । ताका संकल्प विषय हैं For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२ जैन तत्त्व मीमांसा की ..... .. . .. . . . . . सो यह नय तो सर्वते महा विषय है । याके पीछे संग्रह कह्या सो याका विषय सत् द्रव्यत्व आदि ही है । इनिके परस्पर निषेध रूप जो असत् आदि सो विषय नाहीं है । तातै तिसते अल्प विषय है । बहुरि याके पीछे व्यवहार कह्या मो याका विषय मंग्रहके विषयका भेद है। तहां अभेद विषय रहिगया तातै तिसते अल्प विषय है। वहरि याके पीछे ऋजुसूत्र कह्या सो याका विषय वर्तमान मात्र वस्तुका पर्याय है सो अतीत अनागते रहिगया ताते तिसते अल्प विषय है याकै पीछे शब्द नय कया तो याका विषय वस्तुकी मंज्ञा है एक वस्तु के अनेक नाम हैं तहां काल कारक लिंग संख्या साधन उपग्रहादिक भेदतै अर्थकू भेदरूपक हे है । सो इनिका भेद होतेभी वर्तमान पर्याय रूप वस्तुकू अभिन्न मानता जो ऋजुसूत्र तातै अल्प विषय भया । जातें एक भेद करते अन्य भेद रहिगये । बहुरि याके पीछे ममभिरूढ कह्या मो एक वस्तुकं अनेक नाम है तिनिक पर्याय शब्द कहिये तिनि पर्याय शब्दके जुटे जुदे भी अर्थ हैं । मो यह जिस शब्दक पकडे तिमही अर्थ रूपकूक है तब अन्य शब्द याते रहिगये तातै अल्प विषय भया । बहुरि एवंभूत याके पोछे कह्य मो याका विषय जिस शब्दकू पकड्या तिस क्रिया रूप परिणमता पदार्थ है सो अनेक क्रिया करता एक ही कहता जो ममभिरूढ तातें अल्प विषय भया । ऐसे उत्तरोतर अल्प विषय हैं । ऐसे में नयभेद काहेते होय है ? जाते द्रव्य अनन्त :शक्तिकूलिये है तातें एक एक शक्ति प्रति भेदरूप भये बहुत भेद होय है। ऐसे ये नय मुख्य गौणपणां करि परस्पर मापेक्षरूप भये सन्ते सम्यग्दर्शन के कारण होय हैं। इस कथनसे नैगमादि नय सम्यक रूप हैं और सम्यग्दर्शन के कारण होनेसे परमार्थभूत हैं ये गमादि नय मव तद्गुणरोपई है अतद्गुणारोप नहीं है । अर्थात जड चैतन्य सवपदार्थोंमें ए कत्व For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ११३ स्थापित करना इन सत्र नयोंका काम नहीं है इसलिये इनका विषय भी परमार्थभूत है और इन नयाँका लक्ष्यार्थ भी परमार्थस्वरूप ही है। क्योंकि इन नयाँका होध होनेपर वस्तुस्वरूपका वोध होजाता है। नैगमादिनयों के विषय में पंडित फूलचन्दजीका जो यह कहना है कि "उदाहरणस्वरूप पर संग्रहनय के विषय महासत्ता की दृष्टिसे विचार कीजिये। यह तो प्रत्येक आगमाभ्यासी जानता हैं कि जैनदर्शन में स्वरूपसत्ताके सिवाय ऐसी कोई मत्ता नहीं है जो सव द्रव्योंमें तात्त्विकी एकता स्थापित करती हो फिर भी अभिप्राय विशेषसे सादृश्य सामान्यरूप महासत्ताको चैनदर्शन में स्थान मिला हुआ है । इस द्वारा यह बतलाया गया है कि यदि कोई काल्पत युक्तियों द्वारा जड चेतन सव पदार्थों में एकत्व स्थापित करना चाहता है तो वह उपचरित महासत्ताको स्वीकार करके उसके द्वारा ही ऐसा कर सकता है । परमार्थभूत स्वरूपास्तित्व के द्वारा नहीं | इसप्रकार आगम में इस नयको स्वीकार करनेसे विदित होता है कि जो इस नयका विषय है वह भले ही परमार्थभूत न हो पर उससे फलितार्थरूप में स्वरूपास्तित्वका बोध होजाता है। इसी प्रकार नैगम व्यवहार और स्थूल ऋजु सूत्रय का विषय क्यों उपचारित है इसका व्याख्यान कर लेना चाहिये तथा इसी प्रकार अन्य नयों के विषय में भी जान लेना चाहिये ।" वह उचित नहीं है। कारण आगम में संग्रह नय का लक्षण ऐसा किया है-अपनी एक जाति वस्तुनिकू अविरोध करिये एक प्रकार पणाकू प्राप्ति करि जिनमें भेद पाईय ऐसे विशेषनिक अविशेष करि समस्तनिकू ग्रहण करे ताकू संग्रह य कहिये । इहां उदाहरण - जैस सत For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की ऐसा कहते मत् ऐसा वचन करि तथा ज्ञान करि अन्वय रूप जो चिन्ह ता करि अनुमान रूप किया जो सत्ता ताके आधार भूत जे मव वस्तु तिनिका अविशेष करि संग्रह करे जो सर्व ही सत्ता रूप है ऐसे संग्रह नय होय है । तथा द्रव्य ऐसा कहते जो गुण पर्यायनिकरि सहित जीव जीवादिक भेद तथा तिनिके भेद तिनिका सर्वनिका संग्रह होय है तथा घट ऐसा कहते घट का नाम तथा ज्ञान के अन्बय रूप चिन्ह करि अनुमान रूप किये जे समस्त घट तिनिका संग्रह हाय है । ऐसे अन्य भी एक जातिके वस्तुनिक भेला एक कार कहे तहां संग्रह जानना । तहां सत् कहनेते सर्व वस्तु का संग्रह भया ! सो यहु तो शुद्ध द्रव्य कहिये ताका सर्वथा एकान्त मो तो संग्रहाभास है अनय है सो मांख्य तो प्रधान ऐसा कह है । बहुरि व्याकरण वाले शब्दाह तक कहें हैं । वेदान्ती पुरुषाद्वैत कहें हैं । बोधति संवेदनाहुत कहे हैं। सो ये सब नय एकान्त है । बहुरि या नयकू पर संग्रह कहिये । बहुरि द्रव्यम सर्व द्रयनिका संग्रह करे, पर्याय में सर्व पर्यायनिका संग्रह करें । सो अपर संग्रह है। ऐसे ही जीव में सर्व जीवनिका संग्रह करे ! पुद्गल में सर्व पुद्गलनिका संग्रह करे। घट में सर्व घर्शन का संग्रह करे । इत्यादि जानना । मारांश यह है कि इस नय के दा भेद किय-एक. पर संग्रह नय, दूसरा अपर संग्रह नय इन दो भेदों में पर संग्रह नय कुनय है अन्य मतावलम्वीयों द्वारा अद्वैत संग्रह किया गया है इसलिये उनका कहना मिथ्या है। क्यों कि सब पदार्थ ही द्वेत हो है अद्वत नहीं है । यदि सर्व पदार्थ अवत ही होय तो फिर संसार मोक्ष आदि की व्यवस्था ही नहीं बन ग! इमलिये पर सग्रह नय का उदाहरण में महासत्ता को स्वीकार कर अपर ग्रह नव को अपरमार्थ भून ठहराना सर्वथा बागम विन्द्ध है। क्या कि जिन महामत्ता में अमान्तर सत्ता विद्यमान For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा नही है वह महासत्ता भी कैसी ? और उससे स्वरूपास्तित्व का बोध म कैसा? __ जब कि अपनी सत्ता ही अद्वततामें नष्ट होजाती है इसलिये जहां अप'सत्ता स्वीकर की जाती है उसी संग्रहनयद्वारा स्वरूपास्तित्वका बोध होसकता है और उस नयका विषय भी परमार्थ भूत है । इसनयका विषय ज्ञानकं साथ अन्वयरूप चिन्हकरि अनुमानसे सर्व पदार्थोकी सत्ताके आधारभूत सनिका अविशेषकार सत्तारूपसे संग्रह करनेका है । अर्थात् सत्तारूपसे सर्वद्रव्य सतरूप है इसनयसे ऐसा वोध होता है इस वोधसे सर्वपदार्थोकी सत्ता अलग अलग सिद्ध होती है इसलिये इसनयका विषय भी परमार्थभूत है और फलार्थ भी स्वरूपास्तित्वका बोध है । इसीप्र. कार व्यवहारनय का विषय सत्तारूपसे संग्रह किये गये सर्व पदाथामें भेद कर सबकी अलग अलग सत्ता सिद्ध करने का है इसलिये इसनयद्वारा अपनी सत्ता सिद्ध होती है सो परमार्थभूत है । इसीप्रकार सब नयोंपर घटालेना चाहिये । अतः नैगमादि नय सर्व ही सम्यकप है इसको असम्यकप समझना मानना मिथ्यात्व का द्योतक है । इसका कारण यह है कि नैगमादिनय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोय भेदरूप है सो ही निश्चयव्यबहार साधन रूप है : ऐसा नय चक्रमें कहा है कि जो निश्चय व्यवहारनय है ते सर्वनयनिका मूलभेद है। इनि दोय भेदनिते सर्वनय भेद प्रवते हैं । तहां निश्चयके साधनेक कारण द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दोऊ नय है । वस्तुका स्वरूप द्रव्यपर्यायन्वरूप ही है ताते इन दोऊनयनिते साधिये हैं। तात य दोऊही ( द्रव्याथिक'पर्यायाथिक ) तत्त्वस्वरूप है सत्यार्थ है। इसलिये इनको असत्यार्थ मानना मिथ्यात्वका ही कारण है तथा श्लोकवार्तिकमें ऐमा कहा है कि जो एवंभूतनय है वह निश्चत्यस्वरूप है। क्योंकि जिमकी जो संज्ञा होय तिस ही क्रिया रूप For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मामासा परणमता जो पदार्थ मो याका विषय है । जैसे चैतन्य, अपना चैतन्यभावरूप परिणमें ताकू चैतन्य ही कहै हैं । क्रोधीको क्रोधी ही कहे हैं। ____ यहां प्रश्न-जो अध्यात्मननिमे व ह्या है जो निश्चयनय तो सत्यार्थ है -यवहार असत्यार्थ है ' त्यजने योग्य है । सो यहु उपदेश कैसे हैं ? ताका समाधान-जो उपदेश दोय प्रकार प्रवर्ते है तहां एक तो आगम तामे तो निश्चय द्रव्यार्थिक पर्यायाथिक दोऊ ही नय परमार्थरूप सत्यार्थ कहैं हैं । तथा प्रयोज.. और निमित्तके वशते अन्य द्रव्य गुण पर्यायनिक अन्य द्रव्यपर्यायनिविप श्रारोपण करना सो उपचार है याकू व्यवहार कहिये । असत्यार्थ भी कहिय गौण भी कहिये बहुरि दूसरा अध्यात्म उपदेश तामें अध्यात्मनथका आशय यह है जो प्रात्मा अपना एक अभेद नित्य शुद्ध असाधारण चैतन्य मात्र शुद्ध द्रव्याथिकनयका विषय है सो तो उपादेय है वहुरि अवशेष भेद पर्याय अनित्य अशुद्ध तथा माधारणगुण तथा अन्य द्रव्य ये सई पर्याय नयके विषय हैं ते सब हेय हैं | काहे ? जातें यह आत्मा अनादिने कम्वन्धपर्यायमें मग्न है । क्र.मरूपज्ञानते पर्यायनिकू ही जाणे है । अनादि अनन्त अपना द्रव्यत्वभावका यांक अनुभव नाही तातें पर्यायमात्रमें आपा जाने है । तात ताकू द्रव्यदृष्टिकराक्नेके अथिं पर्यायदृष्टिकू गौणकरि असत्यार्थ कहिकरि एकान्तपक्ष छुडावनेके अथि झूठा कह्या है । ऐसा तो नहीं है जो ए पर्याय सर्वथा ही झूठ है। किच वस्तु ही नाही । आकाशके फूलवत् है । जो अध्यात्मशास्त्रका वचन है ताकू सर्वथा एकान्त पकड करि पर्यायनिक सर्वथा झूठ माने तो वेदाती तथा सांख्यमतीकी ज्यों मिथ्याष्टि यहरे है । पहिले तो पर्यायबुद्धिका एकान्त मिथ्यात्व था । अव ताकू सर्वथा छोड़ि द्रव्यनयका मकान्त मिथ्या दृष्टि होगा, तव गृहीतमिथ्यात्वका सद्भाव श्रावेगा। For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ११७ इसकथनसे नेगमादिनयोंको असत्यार्थ मानना गृहीत मिथ्यात्वका कारण है । जैनागममें ऐसा कोई भी महासत्ताको स्थान नहीं मिला है जो जड चेतनकी एकत्वसत्ता स्थापित करती है । क्योंकि जहां जडचेतनकी एकत्वसत्ता स्थापित की जायगी वहां न जडको ही सत्ता रहसकती है और न चेतन का ही सत्ता रह सकती है। ऐसी दशामें दोनोंकी सत्ताका ही अभाव सिद्धहोगा इसलिये आप जो परसंग्रहनयके उदाहरण में यह बतलाते हैं कि ___ "अभिप्रायविशेषसे सादृश्य सामान्यरूपस महासत्ताको जैनदर्शनमें स्थान मिला हुआ है । इसद्वारा यह बतलाया गया है कि यदि कोई कल्पित युक्तियोंका द्वारा जड चेतन सव पदार्थोंमें एकत्व स्थापित करना चाहता है तो वह उपचारत महासत्ता को स्वीकार करके उसके द्वारा ही ऐसा कर सकता है " सो क्या यह जैनागममें मानी हुई संग्रहनयका विषय है या परमंग्रहनयका विषय है ? यदि जैनागममें मानी हुई संभह नयका विषय जडचेतनकी एकत्वसत्ता स्थापित करनेका है अथवा उसे महासत्ता वोल कर स्वीकार किया गया है तो बतानेकी वृपा करें कि ऐसा कहां पर लिखा है ? यदि जैनागममें जडचेतनकी अद्वै. तसत्ता कहीं पर भी सत्ता स्वीकार नहीं की गई है नो फिर पर संग्रहनयका उदाहरण देकर समीचीन स्वरूपसका स्थापित करने वाले संग्रहनयको उपचरित ठहरा कर जिम महासत्ताम स्वरूपसत्ताका लोप हो ऐसी जडचेतनकी एकत्तमत्तागे ना मारना क्या यह न्यायसंगत है ? कदापि नहीं । अत: नाम मानी हुई संग्रहनयसे स्वरूपसत्ताका ही बोध होता है, लोप नहीं होता इसवात को हम ऊपरमें संग्रह नयके लक्षणमें दिखा चुके हैं । समयसारके मोक्षद्वारमें भी सत्ता स्वरूपका निर्णय किया गया है वह इस प्रकार है For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ११८ जैन तत्त्वमीमांसा की "लोकालोकमान एक सत्ता है आकाशद्रव्य, धर्मद्रव्य एकसत्ता लोक परिमित हैं। लोकपरिमाण एकसता है अध मंद्रव्य, कालके अणु असंख्यमता अगणित है। पुदगल शु Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क परमाणुकी अनन्त सत्ता, जीवकी अनंतसत्ता न्यारी न्यारो थित है। कोउ सत्ता काहुसो न मिले एकमेक होय सवे असहाय यो अनादि ही की रीत है" "एही छह द्रव्य इनिहीकी है जगतजाल, तामें पांच जड एक चेतन सुजान है । काकी अनन्तसत्ता काइसों न मिले कोई, एक एक सत्ता में अनंतगुण गान है । एक एक सत्तामें अनन्त परजाय फिर, एक में अनेक इहभांति परिमाण है । यह स्यादवाद यह संतनकी मरयाद यह, सुखोष यह मोक्षको निधान है" For Private And Personal Use Only "साधि दधीमंथन में रस पंथन में जहां तहां ग्रंथन में सत्ता हीको सोर है। ज्ञान मान सत्ता में सुधानिधान सत्तामें सत्ताकी दुरनिसंज्ञा सत्ता मुख भोर हैं। सत्ता स्वरूप मोक्ष सत्ता भूले यह दोष सत्ताके उलंघे धूमधाम चहुँ ओर है सत्ताकी समाधिमें विराज रहै सो ही साहू, सत्तातें निकसि और गहै सोई चोर है । I उपजे विनसे थिर रहै यह तो वस्तु वखान । जो मर्यादा वस्तुकी सो सत्ता परमान ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ११६ यह वस्तुस्थिति है । प्रमाणनयनिक्षेपों के विषय में यहांतक आगमानुकूल मामा "जैन तत्वमीमामाको समीक्षा की गई इसके आगे आधारावय और संयोग सम्बन्ध के विषय में थोडा प्रकाश डाला जाता है। आपका कहना है कि "प्रत्येक स्वतंत्र है। इसमें उसके गुण और पर्याय भी उसी प्रकार स्वतंत्र है यः कथन आही जाता है । ( यह कान नाके शब्द है । इसलिये विवक्षित किसी एक द्रव्यका या उसके गुण और पयार्या का अन्य द्रव्य या उसके गुणा और पर्यायांक साथ किसी प्रकारका मा सम्बन्ध नहीं है, यह परमार्थ सत्य है इसलिये एक द्रव्यका दूसरे द्रव्य के साथ जो संयागसम्बन्ध वा आधाराधेयभाव आदि कल्पित किया जाता है उसे अपरमाणभूत हो जानना चाहिय" इस विषयका स्पष्टीकरण करते हुये आपने कटोरी घी का दृष्टान्त दिया है वह निम्नप्रकार है। "हम पूछते हैं कि उस घीका परमार्थभूत आधार क्या है ? कटोरी या घी? आप कहोगे कि धोके समान कटोरी भी है तो हम पूछत है कि कटोरा का आंधा करने पर वह गिर क्यों जाता है ? जो जिसका वास्तविक आधार होता है उसका वह कभी त्याग नहीं करता। इन सिद्धान्त के अनुसार यदि कटारी भी घीका वास्तविक प्राधार है ता उसे कटारीको कभी भी नहीं छोडना चाहिय। ... परन्तु कटारा के आधा .रने पर वह कटोरी को छोड ही देता है। इससे मालुम पढता है कि पटोर घी का वास्तविक "श्राधार नहीं है। उसका वास्तविक आधार तो घो ही है । क्यो कि वह उसे कभी भी नही छोडता वह चाहे कटोरी में रहे चाह वह भूमि पर रहे. या उडकर हवाम विलीन हो जाय वह रहेगा For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२० जैन तत्त्व मीमांसा की ormmmmmmxm.ar सदा घी ही । यहां पर यह दृष्टांत धी रूप पर्याय को द्रव्य मान. कर दिया है इसलिये घी रूप पर्यायके बदलने पर वह बदली जाता है यह कथन प्रकृत में लागू नहीं होता । यह एक उदाहरण है इसी प्रकार कल्पित किये गये जितने भी सम्बन्ध है उन सबके विषय में इसी दृष्टिकोण से विचार कर लेना चाहिये । स्पष्ट है कि माने गये सम्बन्धों में एक मात्र तादात्म्य सम्बन्ध परमार्थ भूत है । इसके सिवाय निमित्तादिकी दृष्टि से अन्य जितने भी मम्बन्ध कस्पित किये गये है उन्हें उपचरित अतएव अपरमार्थ भूत ही जानना चाहिये" -पृष्ठ १७ जैन तत्त्व मीमांसा यह भी आपका कहना एकान्तवाद से दूषित है इसलिये मिथ्या है प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है और उसका परिणमन भी स्वतंत्र है यह बात जीव और पुद्गल द्रव्य में सर्वथा एकान्त रूपसे लागू नहीं होती । क्यों कि इन दो द्रव्यों में बन्ध बन्धक भाव अनादि कालसे स्वसिद्ध है। इन दो द्रव्यों में एक वैमा - विकी स्वभाव रूप शक्ति है । इम शक्ति के कारण जाव और पुद्गल कोका अनादि काल से मंयोग संवन्ध हो रहा है इस कारण दोनों द्रव्य एक क्षेत्रात्र गाही होकर अनादि कालसे दोनों द्रव्य परतंत्र हो रहे हैं । जब तक दोनोंका परस्पर में बन्धन है तब तक दोनों ही परतंत्र हैं पराधीन है ! वह उसको नहीं छोडता, वह उस को नहीं छोडता । ककि मम्वन्ध से यह जीव अनादि कालमे निगोद में परतंत्र हुआ पड़ा है और अनन्त काल तक आगे भी इसी प्रकार पडा रहेगा। स्वतंत्र हो तो कर्मोंक सम्बन्ध से किसलिये दुखी रहे ? चारो गतियों में किसलिये चक्र लगता फिरे ? कर्मों के सम्बन्धसे यह जीव मंमार में अनेक प्रकारके दुख भोग है है यह बात प्रत्यक्ष दृष्टिगावर हो रही है । इसको सर्वथा काल्पनिक असत्य कसे कहा जाय ? यदि जीव द्रव्य सर्वथा स्वतंत्र है तो पण्डितजी आपकी आत्मा भी मर्वथा स्वतंत्र होनी For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोक्षा चाहिये फिर आपकी आत्मा इ. गन्दी दह में क्यों रुकी हुई है । छापकी आत्मा की स्वतंत्रता कहा गइ ? इसलिय मानना पडेगा कि जीव और पुद्गल ये दोनों ही द्रव्य अपनी वैभाविकी शक्ति के कारण परस्पर में एक के आधीन एक हो रहा है। इस पर।धीनता को छुडाने के लिये ही शास्त्रोंमें अनेक प्रकार के उपाय बताये हैं। अन्यथा स्वतंत्र के लिये स्वतंत्र वनानेका उपाय कहना सव व्यर्थ ठहरेंगे। इसलिये संयोग सम्बन्ध या आधाराधेय भाव सर्वथा कल्पनीक नहीं है, वास्तविक भी है । आचार्यों ने जिस अपेक्षासे जो कथन किया है उस अपेक्षा से वह वास्तविक ही है। उसे दूसरी अपेक्षासे मिथ्या सिद्ध करना आगमको झूठा सिद्ध करना है इसका नाम तत्त्व मीमांसा नही है । पर पदार्थकी अपेक्षा भी आधाराधेय भाव प्रमाण सिद्ध है : पात्र के आधार घृत है । वृक्षके आधार फल पुष्पादि है । यदि ऐसा न माना जायगा तो श्राधेयपदार्थकी दुर्दशा ही होगी जैसे कटोरीके विना घृतकी । वैसी दशा आधार छोडनेवाले सर्व पदार्थोंकी होगी इसलिये कथंचित पदाथ स्वाश्रित भी है कथंचित् पदार्थ पराश्रित भी है तीनों लोक अनादि कालसे तीनों वातवलयोंके आधार पर टिका हुआ है और अनन्त काल ऐसे ही टिका रहेगा तथा वातवलय लोकाकाश के आश्रित ठहरा हुआ है । इसी प्रकार तीनों लोकोंमें रहने वाले धर्म द्रव्य अवर्म द्रव्य काल द्रव्य सर्व द्रव्य लोकाकाश के आश्रित है। लोकाकाशेऽवगाहः टीका-उक्तानां धर्मादीनां द्रव्याणां लोकाकाशेऽवगाहो, न वहिरित्यर्थः । यदि धर्मादीनां लोकाकाशमाधार, For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा का आकाशस्य के आधारः इति । आकाशस्य नास्त्यन्य आधारः स्वप्रतिष्ठमाकाशम् । यद्याकाशं स्वप्रतिष्ठं धर्मादीन्यपि स्वप्रतिष्ठान्येव । अथ धर्मादीनामन्य आधारः कम्प्यते, आकाशस्याप्यन्य आधारः कल्प्यः । तथा मत्य नवस्था प्रसंग इति चन्नंष दोषः, धर्मादौनि लोकाकाशाम वहिः सन्तीति एतावदत्राधाराधेयकल्पनासाध्यं फलं । ननु च लोके पूर्वोत्तरकारलभाविनामाधाराधेयभावो दृष्टो यथा कुण्डे बदरादीनां । न तथा आकाशम् पूर्वम् । धर्मान्युत्तरकालभावीनि अतो व्यवहारनयापेक्षयाऽपि 'आधाराधेयकल्पनानुपपत्तिरिति । इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि एक आकाश द्रव्य ही स्वप्रतिष्ठित है और सब द्रव्यों में पराश्रित आधाराधेय भाव घटित होता है । वह सर्वथा असत्य काल्पनिक नही है । इसको सर्वथा काल्पनिक असत्य मानना ही असत्य है। संसारी जीव पांचों शरीरों में से दोय, तीन, चार शरारों के आश्रय रहते हैं जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा है तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्न्निाचतुभ्यः ॥४३॥ टीका-तच्छन्दः प्रकृततेजसकामगप्रतिनिदेशार्थः ते लैजसकामणे आदिर्येषां तानि तदादीनि भाज्यानि विकल्पानि । अकुतः ? आचर्तुभ्यः युगपदकस्यात्मनः कस्य For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समौना चित् द्वं तैजसकार्मणे । अपरस्य त्रीणि औदारिकतैजसकामण नि । वैक्रियिकतै जसकार्मणानि वा अन्यस्य चत्वारि औदारिक आहारक तैजसकार्मणानीति विभागः क्रियते । I मिद्ध भगवान शरीर रहित श्रनादि कालसे अपने अनन्तवल के प्रभाव से अपने हा आधारपर एक ही स्थान पर अवस्थित हैं और इसी प्रकार आगे भी अनन्त काल तक ऐसे ही रहेंगें तो भी वे अधर्म द्रव्यके आश्रय तिष्ठे हुये हैं और सिद्धक्षेत्रके आकाशका आधार लिये हुए हैं। इस बातको कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता । " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुमारीजानोंके साथ कर्मोका अनादिसे सम्बन्ध है यह बात असिद्ध नहीं है प्रमाणसिद्ध है क्या इसको कल्पनीक कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता ! "अनादिसम्बन्धे च " टीका - शब्दो विकल्पार्थः अनादिसम्बन्धे सादिसम्बन्धे चेति । कार्यकारणभावसंतस्था अनादिसम्बन्धे विशेषापेक्षया सादिसम्बन्धेऽपि च वीजवृक्षवत् । यथौ - दारिकवैकियिकाहारकाणि जीवस्य कादाचित्कानि, न तथा तेजसकार्मणे, नित्यसम्बन्धिनी हि ते या संसारक्षयात् १२३. For Private And Personal Use Only अर्थात् कर्मका सम्बन्ध जीवके साथ अनादिकालका भी है और सादि भी है वीजवृक्षवन । तैजसकार्मणशरीरका जीव के साथ अनादि सम्बन्ध है जब तक इस जीव की संसार अवस्था रहेंगी तवतक इसका सम्बन्ध भी रहेगा । तथा इसके निमित्तसे नवीन कमौके सम्बन्धका कारण कार्यभार भी बना हुआ हैं । इसको भी Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ! www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२४ जैन तत्त्वमीमांसा की कोई अस्वीकार नहीं कर सकता है। इस कार्य कारण भावसे ही इस जीवको बन्धरूप संतति आन्न रूपसे आजतक चली आई है तथा आगे भी जब तक बन्ध विच्छेद न होगा तबतक नवीन नवीन बन्धकी संतति चलती हो जायगी । अर्थात द्रव्यकर्म के उदयमें रागद्वेषरूप जीवकं भाव कर्म और इस राग द्वेष रूपभाव कर्मके निमित्तसे नवान मोका आकर्षण होतहो रहेगा. "दति श्रवसो कहिये जहि पुल जीवप्रदेश महासे । भावित आश्रम कहिये जहि राग विरोध विमोह विकासे । सम्यकपद्धनि सो कहिये जहि दवित भवन व नासे । ज्ञानकलाजगटे जहि स्थानक अंतर वाहिर और न मासे ॥" नसयसार आन्न्रव द्वापों एम कहा है। जो तो अविनाश नाही अंतर आत्मा में बारा दोय चरनी। एक नवा एक शुभाशुभकर्मधारा दोका प्रकृती न्यारी न्यारी पर इतना विशेष कर्मधारू पराधीन शकती विविध करनहार दोपहरनहार भौरी करनी । ज्ञानदा सोक्षरूप मोचकी मल्लकार सारांश यह है कि उदयमें गहन रूप जाबके परिणाम होते हैं और रागद्वेष परिधान के निमित्तसे पुकूल कर्म रूप बनकर आत्मा के प्रदेशके चारो तरफ चिपट जाता है । जब तक अष्टकम सर्वथा नाश नहीं होता तब तक आत्मामें ज्ञानधारा और कर्मवारा बनी रहती है। इस कारण अर्हन्त भगवान भी पातिया कर्मो के निमित्त से पूर्णतया स्वतंत्र नहीं है उन्हें भी विहार करना पड़ता है उपदेश देना पडता है कमीको स्थितिम मानकरने लिये समुद्घात भी करना पड़ता है इसलिये यह बात स्वीकार करनी पड़ती है कि सर्व पदार्थ स्वतंत्र होने पर भी कथंचित् परतंत्र भी है। अत: एस मानने लोक मत से संसार For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बार भीख अवस्था ही नहीं बन सकती है । इमलिय प्राचार्य जो एकान्त नय पक्ष गहि छक कहावे दन्न । नों एकान्तवादी पुरुष मृपावत परतक्ष सजा का संमार ओर मुक्तवत्थाको बास्तविक स्वीकार तभा कर्म के मात्र आत्मा के गाम्बन्ध को वास्तविक नहीं ...नले त्या विना का सम्बन्धक ही नाविका संसार अबयादि है तो कर्म रहित सिद्धो को अवस्थान संसार समस्या अतर क्या : *: कमों के सम्बन्ध संजीवका संसार आस्था है और मौके अभाव में जयिका मुन्न स्था है ऐसा का प्राचायों ने स्वीकार किया है । मुक्त होना, मोन्ह होना इस पद का सिद्ध होता है कि पहिले जोव बन्धा हुआ था अव मछुटकारा पाकर मुक्त होगया अत: मंसार पूर्वक ही मोक्ष है याद ममार नहीं है तो मोक्ष भी नहीं है । और वह वास्तविक इस बात का प्रसिद्ध करने के लिये आप जा चइ कहते हैं कि"जीवका संझार उमकी पर्याय में ही है । और मुक्त भी उस पायम दी है । यह वास्तविक कर्म और लामाका संश्लेष नाम शब्द ही जीव और कर्म के प्रथम - हाने । ख्यापन रता है । इमोलिये मथार्थ शार्थका रया न करने हुये शास्त्रकारों ने यह वचन कहा है कि-जिम्म नभय श्रारम, शुभ भावरूपसे परिare है उस समय वह य शुभ है । इस समय अशुभ मत में परिणत होता है उस समय वह स्वय अशुभ है। आर काम पर शुद्धभाष रूपन परिणत होता है उस समय वह स्वयं गत है। यह क न रा ही द्रव्य के आश्रयसे किया गया। दो दया आश्रम से नहीं इनलिये परमार्थ भूत है । और कर्माके कारण जोन शुभ या अशुभ होता है और कमों के अभाव होने से For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२६ जैन तत्त्व मीमांसा की शुद्ध होता है यह कथन उपचरित होनेसे, अपरमार्थ भूत है। क्यों कि जब ये दोनों द्रव्य स्वतंत्र है। और एक द्रव्यके गुण धर्म का दूसरे द्रव्य में संक्रमण होता नहीं तव एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का कारण रूप गुण और दूसरे द्रव्य में उसका कर्म रूप गुण कसे रह सकता है अर्थात् नही रह सकता है यह कथन थोडा सूक्ष्म तो है परन्तु बस्तुस्थिति यही है " पृष्ठ १८-१६ जैन तत्त्व मीमांसा जीवकी संसार अवस्था तथा मुक्त अवस्था यह जीव की हा पर्याय है । तथा जीव शुभरूप अशुभरूप परिणमन भी स्वयं ही कर्ता है तथा शुद्ध रूप परिणमन भी स्वयं ही कर्ता है यह वात ठीक है । परन्तु पंडितजो यह तो बनाने की कृपा करें कि शुभ रूप अवस्था और अशुभ रूप अवस्था जीवकी पर संयोग विना ही होती है या पर संयोगके निमित्तसे होती है । यदि पर संयोगके निमित्त से होती है तो श्रापका यह कहना सर्वथा मिथ्या है कि " कोके कारण जाव शुभाशुभ होता है और कर्मों के अभाव में शुद्ध होता है यह कथन उपचरित है अर्थात् भूठा है अपरमार्थ भून है ,. यदि कांके निमित्तस जोवकी शुभाशुभ रूप अवस्था नहीं होती तो सिद्ध भगवानकी शुभाशुभ रूप अवस्था क्यों नहीं होती ? विना पर निमित्त के जाय व्वय शुभाशुभ परिणमन करता तो सिद्धोंकी आत्माको भो स्वयं शुभ या अशुभ रूप परिणमन करना चाहिये । किन्तु उनके कर्मोका सम्बन्ध छूट गया इसलिये उनका परिणमन सदा शुद्ध होता है पदार्थोमें जो अशुद्धता आती है वह पर मंयोग से ही आती है पर मंयोगके बिना पदार्थो में अशुद्धता नहीं आती यह जैनागमका अटल मिद्धान्त है इसको कोई मंट नहीं सकता है . आपका जो यह भ्रमोत्पादक कथन है कि"जब ये दोनों द्रव्य स्वतंत्र हैं । और एक द्रव्यके गुण धर्मका For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाक्षा दूसरे द्रव्यमें संक्रमण होता नहीं तव एक द्रव्यम दूसरे द्रव्यका कारणरूप गुण और दूसरे द्रव्यमें उसका कर्मरूप गुण कैसे रह सकता है ? अर्थात् नहीं रह सकता है" ठीक है किन्तु पंडितजी यह तो बतानेकी कृपा करें कि क्या निमित्तकारण मानने से एक द्रव्यमें दूसरे द्रव्यके गुणोंका संक्रमण मानना ही पड़ता है ? __और कर्मों के निमित्तसे जीवकी शुभाशुभरूप अवस्था होतो है ऐसा माननेसे जीव द्रव्यकी क्या स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है । इसलिये आप कर्मो के निमित्तसे जीवके शुभाशुभ भाव नहीं होते और कोंके अभावमें जीवके शुद्धभाव नहीं होते ऐसा मानते हैं यदि ऐसाही है तो जीव और पुद्गलका अनादि कालसे संयोग सम्बन्ध चला पारहा है तो भी आजतक किसीका गुणधर्म दूसरे में संक्रमणरूप क्यों नहीं हुआ। और उनकी स्वतंत्रता आजतक नष्ट क्यों नहीं हुई । जीव सदा चैतन्य स्वरूप ही क्यों रहा और पुद्गल सदा पुद्गल रूप ही क्यों रहा । आपके कथनानुसार एकका गुणधर्म दूसरे में आजाना चाहिये था इसलिये मानना पडेगा कि जोव और पुद्गल अपनी भाविकी शक्ति के द्वारा निमित्तानुसार वैभाविक रूप परिणमन तो करते हैं किन्तु निमित्तका गुणधर्म उपादानमें और उपादानका गुणधर्म निमित्तमें नहीं जाता यह अनादिकालकी मर्यादा है । जैसा कि सर्वविशुद्धि द्वार में कहा है __"जीव अर पुद्गल कर्म रहे एकखेत यद्यपि तथापि सत्ता न्यारी न्यारी कही है। लक्षण स्वरूप गण परज प्रकृति भेद दहुँमें अनादि ही की दुविधा ह रही है । ___ एक परिणामके न कर्ता दरख दोय दोय - परिणाम एक दरव धरत है। एक करतूति दोय द्रव्य कवहूं न करे, For Private And Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "जन तत्व मीमामाक. दोय करतूति एक द्रव्य न कन्त है। जीव पुद्गल एक खेत अब गाहि दोऊ अपने अपने रूप वोऊन टरत है। जब परिणामनिको करता है पुद्गल, चिदानन्द चेतनस्वभाव आचरत है। --कामिक्रियाद्वार : अत: माँके निमित्तसे आत्माक रागद्वेष परिणाम होते है और ज.वके रगडष परिणामों के निमित्तसे पुद्गल यामरूप होकर आत्मप्रदेश में एक क्षेत्रावगाही होते हैं ऐसा मानने एक इत्रम दूसरे द्रव्य का कारणरूप गुण और दूसरे द्रव्यां उसका सरूप गुण मानना पड़ता है यह वात सर्वथा अभिद्ध है । क्योंकि जीव और पद्गल यह दोऊ द्रव्य अपनी वैभाविकीशक्ति के द्वारा बाहर निमित्तानुसार विभावरूप परिणमन करते रहते हैं यह उस शक्तिका ऐसा ही परिणमन स्वभाव है। इस परि मन स्वभावको कोई मिटा नहीं सकता। अत: इस परिणमनमें एक दरके गुणधर्म दूसरे द्रव्यमें संक्रमण होनेको आशंका उत्पन्न कर भोले जीवाको वस्तुस्वरूपसे विमुख करना है। ____ यह वात प्रत्यक्ष्य में देखने में आती है कि अग्निके संयोगसे जन गर्भ होजाता है किन्तु अग्निका कोई भी ग्रंश जलरूप नहीं होता और न जलका भी कोई अंश अग्निरूप ही होता है किन्तु जल अपनी वैभाविकी शक्तिस अग्निका निमित पाकर गर्म होजाता है और अग्निका संयोग मिट जाने पर फिर वह जल अपने स्वभावरूप शीत होजाता है ऐसे हा सर्व पदार्थोंमें घटित करलेना चाहिये। "जसे एक जल नानारूप दरवानुयोग भयो बहुभांति पहिचानों न पस्त है। फिर काल पाय दरवानुयोग दूर For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १२६ होत अपने सहज नीचे मारग दरत हैं । तेसे यह चेतन पदार्थ विभातासों गतिजोंनिभेष भवभामर भरत है । सम्यक स्वभाव पाय अनुभौके पंथ धाड़ वन्धकी जुगति भानि मुकति करते है ¦ - कर्ताकर्म क्रियाअधिकार इस कथन से यह भी सिद्ध होजाता है कि विना निमित्तके जीव स्वमेव शुभरूप या अशुभरूप परिणमन नहीं करता है अतः कर्मो के उदद्यानुसार ही यह जीव शुभाशुभरूप अपनी वैभाविकी शक्तिके द्वारा ही होता है । और कर्मों के अभाव में शुद्ध होता है। यही परमार्थभूत सत्य तत्त्वविवेचन है इसमें हेरफेर करनेकी गुंजायल नहीं है। क्योंकि जोव और पुद्रव में एक वैभाविकी नामकी शक्ति है उसका विभावरूप परिणमन हीं पर निमित्तसे होता है, जहां पर निमित्त दूर हुआ कि उस शक्तिका विभावरूप परिणमन नहीं होकर स्वभावरूप परिणमन होने लगता है । इसीलिये सिद्धों में कर्मनिमित्त हटजाने से उनका सदा स्वभावरूप शुद्ध ही परिणमन होता है। और संसारी जीवोंके कर्म निमित्त बना हुआ है इस कारण उनका विभावरूप शुभाशुभ परिणमन होता रहता है अतः वैभाविकी शक्तिका विभावरूप और स्वभा रूप दोय रूप परिणमन होता है ऐसा जिनागम में कहा है उस शक्तिका विभाव स्वभाव परिणमन वद्ध अवद्ध अवस्था में ही होता है अर्थात अवस्था में विभावरूप और श्रवद्ध अवस्था में स्वभावरूप परिणमन होता है। यदि ऐसा न माना जायगा तो संसार और मुक्त जीaint व्यवस्था ही नहीं बनेगी । फिर संसार और मुक्त अवस्था वास्तविक कैसी ? जैसाकि आप मान रहे है । जीवक संसार और मुक्त अवस्था है वह वास्तविक हैं इसमें सदह नहीं जब जीवक्री संसार और मुक्त श्रवस्था वास्तविक है, For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की तब बन्ध और मोक्ष अवस्था भी वास्तविक है इसमें मंदेह कैसा क्योंकि जीवकी संसार अवस्था विना बन्धके नहीं और जीवको मुक्त अवस्था बन्धके अभाव विना नही यह बात सुनिश्चित है। इसको आप कानजीके मताधारसे निम्न प्रकारके बाक्योंसे मिथ्या सिद्ध करनाचाहते है सो हो नहीं सकता क्योंकि यह श्रागमप्रमाण से प्रमाणित है । आप चाहें जितनी सफाई के साथ वाक्यपटुता ओसे अर्थका अनर्थ कर भोले जीवोंको भुलावे में पटक वस्तुस्वरूप तो जैसा आगममें प्रतिपादन किया है वैसा ही रहेगा । जो जीवको संसार और मुक्त अवस्था है उसको तो आप अस्वीकार कर नहीं सकते क्योंकि जीवको संमार अवस्था तो प्रगट दृष्टिगोचर है और संमार का अभाव मो मुक्त अवस्था है उसको भी मानना पडेगा इसलिय इसको तो आपने भी वास्तविक स्वीकार की परन्तु यह वास्तविक किस कारणस है इसको कर्म निरपेक्ष सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। पति "इस आधारसे कर्म और आत्माके संश्लेष सम्बन्धको वास्तविक मानना उचित नहीं है । जीवका संसार उसकी पर्यायमें ही है।" ठीक है जीवकी संसार अवस्था और मुक्तश्रवस्था उसोकी पर्याय में ही है दूसरे की पर्याय में नहीं इस बातको कोई भी विद्वान अस्वीकार नहीं कर सकता किन्तु उम पर्यायका कारण क्या है ? कर्मके निमिनसे तो आप मानते नहीं फिर किस कारणसे संसार अवस्था और मुक्त अवस्था है । यदि स्वत: है तो मुक्त जीव फिर संसारी क्यों नहीं बनता क्या उनमें परिणमन शक्तिका अभाव हो चुका है ! यदि नहीं तो स्वाधीन परिणमनका यह कार्य नहीं है ऐसा मानना पडेगा । क्योंकि स्वाधीन परिणमन शुद्धद्रव्यका ही होता है। उसमें भी यथासम्भव धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य आकाशद्रव्य और कालद्रव्य उदासीनरूप से निमित्त कारण होते For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा अर्थात् जिन पर्यायोंको परनिरपेक्ष या स्वाधीन स्वाश्रित पर्याय कहा जाता है उनमें भी वास्तवम बाहरी निमित्तोंका उदासीनरूपसे कारण बना हुआ है। उनमें किसी प्रेरक निमित्त कार की अपेक्षा नहीं रहती इसकारण उनको परनिरपेक्ष पर्याय कहाजाता है। किन्तु अशुद्धद्रव्य में यह वात घटित नहीं होती अर्थान् संसारी जीवोंका परिणमन परनिरपेक्ष नहीं होता इस लिये परसापेक्ष जो परिणमन होता है वह शुद्धरूप परिणमन जहाँ होता वह परिणमन विभावरूपसे ही होता है । इस कारण संसारी जीवोंकी संसार पयार्य कर्म सापेक्ष है इसलिये वह पर्याय शुद्धरूप मुक्तपर्याय नहीं कही जाती और मुक्तजीवोंकी मुक्तपर्याय कर्मनिरपेक्ष होने से उनकी फिर कभी भी संसार पर्याय नहीं होती। संसारी जीव कर्मोंसे बन्धा हुआ है इसीलिये अपने असली स्व'भावसे रहित अशुद्ध अवस्थाको धारण किये हुये हैं। और मोहनीय कर्मक निमित्तसे मूछित भी हो रहा है। बद्धो तथा स संसारी स्यादलन्धस्वरूपवान् । मूछितो ऽ नादितोष्टाभि नाद्यावृत्तिकर्मभिः ।। पंचाध्यायी ३४ दूसरा अध्याय अर्थात् जीव और काँका सम्बन्ध अनादिकालसे चला मा यथानादिः स जीवात्मा यथानादिश्च पुद्गल: द्वयोर्यन्धोप्यनादिः स्यात्, सम्बन्धो जीवकर्मणोः ३५ अर्थात् यह जीव भी अनादि है और पुद्गल भी अनादि है इसलिये इन दोनू का सम्बन्धरूप वन्ध भी अनादि है । इसवातको। स्पष्ट करते हुय आचार्य दृष्टान्त द्वारा सिद्ध करते हैं। "दुयोरनादिसम्बन्धः कनकोपलसनिमः For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा को . ___अन्यथा दोष एव स्यादितरेतरसंश्रयः ३६। . अर्थात जीव और कर्मका सम्बन्ध अादि कालसे चला पारहा है । यह सम्बन्ध उसी प्रकारका है जिस प्रकार कनक पाषाणका सम्बन्ध अनादिकालीन है । यदि जीव और पुद्गल कर्मों का सम्बन्ध अनादिसे न माना जायगा तो अन्योन्याश्रय दोष श्राता है । अन्योन्याश्रय दोषका स्पष्टीकरण । 'तद्यथा यदि निष्का जीवः प्रागेव तादृशः वन्धाभावेथ शुद्धपि बन्धश्चेन्निवृत्तिः कथम् " ३७ अर्थात् यदि जीव पहिले कामरहित शुद्ध मा जायगा तो बन्ध नहीं हो सकता । और यदि शुद्ध होनेपर भी उसके बन्ध मानलि. . याजायगा तो फिर भोक्ष वि.स प्रकार हो सकता है ? क्योकि आत्मा का जो कर्मन्ध होता है वह आत्माका अशुद्ध अवस्था में होता है। इसलिये न्ध होने में अशुद्धता की आवश्यकता है । अतः पूर्वबन्धक विना शुद्ध आत्मामें अशुद्धा नहीं हो सकता । विना बन्धके शुद्ध आत्मामें भी अशुद्धत. आने लगे ना आत्मा मुक्त हाचुकी है वे भी फिर अशुद्ध होजायगी और अशुद्धहोनेपर त्य भी करती रहेंगी इम हालत में समारी और मुक्त नामें किसी प्रकारका अंतर नहीं रहेगा । इसलिये वन्ध रूप कायक लिये अशुद्धता रूप कारण की आवश्यकता है। और अशुद्धनारूप कार्यके लिये पूवव धरूपकार की आवश्यक्ता है । इमलिये अशुद्धताम बन्धकी और वध अशुद्धताकी अपेक्षा पडनेसे पूर्व कर्म के बन्धे विना अशुद्धता आ नह सकती अतः जीव कर्मका सम्बन्ध अनादि माननस अन्यान्याश्र. यदोष नहीं आता । दूसरी बात यहभा है कि सादि सम्बन्ध माननस पहले तो शुद्धआत्मामें वन्ध हो नहीं सकता क्योंकि विनाकारण के कार्य होता ही नहीं। भवंति दोपा न गणेऽन्यदीये संतिष्ठमानस्य ममत्ववाजं : For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १३३ गणाधिनाथस्य ममत्यहानेविना निमित्त न कुतो निवृत्तिः ५८८ मूलाराधना थोड़ी देर के लिये यह भी मानलियाजाय कि विना रागद्वेष रूपकारण के शुद्ध आत्मा भी बन्ध करता है तो फिर विना कारण हानेवाला बन्ध किस तरह रट सकता है ? नहीं छूट सकता। क्योंकि बिना कारणसे होनेवाले बन्धको दूर करनेका कोई नियमित कारण नहीं है इस अवस्थामें मोक्ष होने का भी कोई निश्चयरूप कारण नहीं है। इमलिये राग द्वेष रूप कारणोंसे बन्ध होता है ऐसा माननेले उन कारणों के हटनेपर वन्ध रूप कार्य भी हट जाता है और आत्मा शुद्ध बन जाती है, फिर उसके बन्ध नहीं होता। क्योंकि पूर्ववन्धक निमित्त विना रागद्वषको उत्पत्ति नहीं होती और रागद्वपके निमित्त विना नर्वन कमवन्ध नहीं होता : जिन्न प्रकार आत्माको सदः शुद्ध माननेमें दोष दिखाया जाचुका है उपी प्रकार पुद्गन को भी सदा शुद्ध माननेमें अनेक दोष आते है इस विषयको पष्ट करतेहुये आचार्य कहते हैं। "अथ चेत्पुद्गः: शुद्धः सर्वथा प्रागनादितः हतादिना यथा ज्ञान तथा क्रोधादिरात्मनः ३८ पं: अर्थात कोई यह कहै कि पुद्गल अनादिसे सदा शुद्धही है। ऐसा कहनवालाक मतमें आत्माके साथ कर्माका सम्बन्ध भी नहीं बनेगा । फिर तो बिना कारण जिस प्रकार आत्माका - ज्ञानगुण स्वाभाविक है, उसी प्रकार क्रोधादिक भी अात्माके स्वाभाविक गुणही ठहरंगे । वह आत्मासे अलग हो नहीं सकते क्योंकि स्वभावका अभाव नहीं होता, इसलिये पुद्गलको अशुद्धकर्मरूपपर्यायके निमित्तसेही आ मामें क्रोधादिक होते हैं ऐसा माननेसे तो क्रोधादिक आत्माके स्वभाव नहीं ठहरते, नैमित्तिक विभावभाव ठहरेंगे For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३४ जैन तत्त्व मीमांसा की -rammrrrrrrrrrrrrrrrmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm. किन्तु पुद्गलको शुद्ध माननेसे आत्मा विकार उत्पन्न करनेवाला फिर कोई पदार्थ नहीं ठहरता । इस हालतमें क्रोधादिकका हेतु आत्मा हो पडेगा और क्रोधादिभाव आत्माहीका स्वाभाविक गुण ममझाजावेगा परन्तु यह वात आगमविरुद्ध है । इसीवातका और भी स्पष्टो करण आचार्य करते हैं। "एवं वन्धस्य नित्यत्वं हेतोःसद्भावतोऽथवा । द्रन्याभावो गुणाभावे क्रोधादीनामदर्शनात् " ३६ अर्था-यदि पुद्गलको अनादिसे शुद्ध मानाजाय तो उस शुद्ध अवस्थामें भी उसका आत्मासे सम्बन्ध मानाजाय तो वह वन्ध सदा रहैगा क्योंकि शुद्धपुद्गलवरूप हेतुके सद्भावको कोन हटासकता है, पुद्गलकी स्वाभाविकता है वह सदाभी रहसकती है और हेतुकी सत्तामें कार्यभी रहेगाही यदि वन्धही नहीं मानाजायगा तो ज्ञानकी तरह क्रोधादिक भी आत्माके गुण ठहरेंगे अतः फिर वही दोष जो कि पहले श्लोकमें कह चुके हैं पाता है । तथा क्रोधादिकको आत्माका गुण स्वीकार करने में दूसरा दोष यह भी आता है कि जिन जिन प्रात्माओंमें क्रोधादिकका अभाव हो चुका हैं उन उन आत्माओं का भी अभाव होजावेगा क्योंकि जब कोदिकको गुण माना जायगा तव गुण के अभावमें गुणांका अभाव होना स्वतः सिद्ध है । तथा यह वात देखने में भी आती है कि किन्ही किन्ही शान्त आत्माओंमें क्रोधादिक बहुत थोडा पाया जाता है। योगीश्वरों में बहुत मंद पाया जाता है और वारहवें गुणस्थानमें तो उसका सर्वथा अभावही होजाताहै । इसलिये अशुद्ध पुद्गलका अशुद्ध आत्माकं साथ बन्ध मानना न्यायसंगत है। सारांश For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममोक्षा " तसिद्ध: सिद्ध सम्बन्धो जीवकम भयोमिथः सादिसिद्धेरसिद्धत्वात असत्संदृष्टितश्च तत् ४० र्थात जीव और कर्मका सम्बन्ध प्रसिद्ध है वह अनादिकाल से बन्धरूप है " श्रनादिमम्बधे च " तत्त्वार्थसूत्रे | यह बात प्रमाण सिद्ध है। अतः जीव कर्म का सम्बन्ध सादि- किसी समय विशेष में हुवा अथवा जीव और पुद्गल यह दोनू द्रव्य स्वतंत्र होनेसे इनका परस्पर में बधान नहीं होता है यह बात असत्य सिद्ध हो चुकी क्योंकि ऐसा मानने में इतरेतर अन्योन्याश्रय आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। और ऐसा मानने में कोई ठीक दांत भी नहीं मिलता है | अतः कनक पाषाणका तिल तेलादिकं दृष्टांतों से जीव कर्मका अनादि सम्बध ही सिद्ध होता है। यहां पर कोई यह तर्क करे कि दो पदार्थोंका सम्बन्ध हमेशा से ही कैसा ? वह तो किसी खास समय में जब दो पदार्थ मिले तभी हो सकता है इसका समाधान यह है कि सम्बन्ध दो प्रकार का होता है । किन्हीं पदार्थो का तो सादिसम्बन्ध होता है जैसाकि मकान बनाने में ईंट चूना पत्थरादिका होता है और किन्हीं पदार्थों का अनादि सम्बन्ध होता है जैसा कि कनकपाषाण अथवा जमीन में मिली हुई अनेक पदार्थोंका अथवा वीजवृक्षका तिलतेल का अथवा जगद्व्यापी महास्कन्धका इत्यादि अनेक पदार्थोंका सम्बन्ध अनादिसे है इसी प्रकार जीव और कर्मका सम्बन्ध भी अनादिका | और यहां अनादि सम्बन्ध जीवकी अशुद्धताका कारण है । जीवस्य शुद्धरागादिभावानां कर्म कारणं । कमणस्तस्य रागादिभावाः प्रत्युपकारिवत् ४१ अर्थात जीवके शुद्ध रागादिक भात्रोंका कारण कर्म है । उस कर्म के कारण जीवके रागादिकभाव हैं। यह परस्परका कार्य For Private And Personal Use Only १३५ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १३६ जैन तत्त्व मीमांसा की कारणपन ऐसा ही है जैसेकि कोई पुरुष किसी पुरुषका उपकार करदे तो वह उपकृत पुरुषभी उसका बदला चुकानेके लिये उपकार करनेवालेका प्रत्युपकार करता है । तैसे ही रागद्वेष परिणामोंके निमित्तसे संसार में मरीहुई कार्मणवर्गणाओंको अथवा विसोपचयों को यह आत्मा खींच कर अपना सम्बन्धी बना लेता है जिस प्रकार अग्निसे तप हुआ लोहेका गोला अपने आसपास भरेहुये जलको खींचकर अपने में प्रविष्ट करलेना है। अतः जिन पुद्गलवर्गणाओं को यह अशुद्ध जीवात्मा खींचता है वही वर्गणाये आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाह रूप एकमेकसे वन्य जाती है और वन्धसमयसे उन्ही वर्गणाओंकी कर्मरूपपर्याय हो जाती है। फिर वह कालान्तर में उन्ही बन्धे हये कमोंके निमित्त से चारित्र के विभावभाव रागद्वेष बनते हैं। फिर उन रागद्वेषभावों से नवीन कर्म चन्धते हैं और उन कर्मों के निमित्तसे फिर आत्मामें रागद्वेष उत्पन्न होते हैं। इसप्रकार पहले कर्मसे रागद्वेष और रागद्वेष से नवीन कर्म वन्धते रहते हैं । यही परस्पर में कारण कार्यभाव अनादि से चला जाता है। " पूर्णकर्मोदयाद्भावो भावात्प्रत्ययसंचयः तस्य पाकात्पुनर्भाव भावाद्वन्धः पुनस्तत: ४२ " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थात् पहले कर्म के उदय से रागद्वेष भाव होते हैं, उन्हारागद्वेषभावों से नवीन कर्मों का संचय होता है। उन आये हये कर्मों के पाक उदय से फिर रागद्वेष भाव उत्पन्न होते है । उनभाबोंसे फिर नवीन कमका वन्ध होता है । इसी प्रकार प्रवाहकी पेक्षा जीवका कम के साथ सम्बन्ध अनादिकाल से चला अ रहा है । इसी सम्बन्धका नाम संसार है । यह संसार विना सम्यक्त्वादि भावोंके नहीं छूट सकत्ता । श्रर्थात् कर्मके निमित्त For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १३७ से चारों गतियों में यह जीव उत्पन्न होता रहता है, इमीका नाम संसार है। इस संसार परिभ्रमणका कारण कर्म है । जैसा कर्मका उदय होता है उसी के अनुसार गति आयु शरीर आदि अवस्था प्रान हो जाती है। "जब जाको जमो उदै तब सो है तिहिथान । शक्ति मरोर जीवकी उदय महावलवान, जसे गजराज परयो कर्दमके कुण्ड वीच. उद्दिम अरूढे प न छूटे दुख दंद सों जैसे लोह कंटककी कोरसों उरभयो मीन पंचत असाता लहै सात लहै संदसों। जसे महाताप सिखाहिंसो गरास्यो नर तके निजकाज उठ सके न सुछंदसो । तसे ज्ञानवत सव जानै न बसाय कछु वन्ध्यों फिरे पूर्व कर्मफल फंदसों समयसारवन्धद्वार इसलिये कर्मवन्ध का कारण आत्माका रागद्वेष परिणाम है और रागद्वेष होनेका कारण पूर्व कृत कर्म का उदय है । उस उद्यानुसार यह जीव गति योनि को प्राप्त होता है। जीवपरिणामहेदु कम्म पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो विपरिणमदि ।८६। -समयसारका कर्माधिकार For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १३८ जैन तत्त्वमीमांसा की "जीवपरिणामहेतु कर्मत्वं पुद्गलाः परिणमति । पुद्गलकर्मनिमित्त' तथैव जीवोपि परिणमति ।। अर्थात् जीवका जो रागद्वेषरूप परिणाम है वह पुद्गल को कर्मरूप परिणमन कराने हेतु है। तथा पुद्गलकर्मके निमित्तसे जीवके रागद्वेषरूप परिणाम होते हैं, ऐसा दोऊके परस्पर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है, इस परिणमन में एक द्रव्यका गुणधर्म दूसरे द्रव्यमें नहीं जाता यह तो द्रव्यका परिणमन स्वभाव है इसमें एक द्रव्य के गुणधर्म दूसरे धर्म संक्रमण होने की बात कहना वस्तुस्वरूपा विपर्यास करना है। आचार्य कहते हैं कि इस परिण नमें न तो जीवका ही गुण पुद्गल में जाता है और न पुद्गलका जीव ही आता है। किन्तु परस्पर के निमित्त से दोऊका विभावरूप परिणमन होता है। "वि कुव्यदि कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अयोगशिमित्त दू परिणाम जाण दोहणं पि ।। ८७ "नापि करोति कर्म गुणान् जीवः कर्म तथैव जीवगुणान् । अन्योन्यनिमित्तेन तु परिणामं जानीहि द्वयोरपि || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थात जीव तो कर्मके गुणको नहीं करे हैं और कर्म है सो जीवके गुणको नहीं करे हैं। अत: इन दोऊनिके परस्पर निमित्त कारणसे एसा परिणाम होय है जैसा कि ऊपरकी गाथामें कहा गया है । श्राचार्य कहते हैं कि पुद्गल कर्मके निमित्तसे आत्मा अपना रागद्वेषरूप परिणाम करता है । तथा पुद्गलकर्मके निमि तसे सुखदुखरूप भाव परिणामोंका वेदन भी स्वयं करता है। अर्थात द्रव्यकर्म के निभितसे आत्मा जिम प्रकार भाव करता उसी प्रकार पुद्गल कर्मोंके निमित्तसे उसके फलको भोगता है । For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १३६ "पुग्गलकम्मणिमित्तं जह आदा कुणदि अप्पणो भावा पुग्गलकम्मणिमि तह वेददि अपणो भावं" ६४ पुद्गलकर्मनिमित्त यथात्मा करोति आत्मनः भावं पुद्गलकर्मनिमित्त तथा वेदयति आत्मनो भाव" अर्थात् समय प्राभृत में कुन्द कुन्द स्वामीने. पहली गाथामें यह दिखाया कि जीव के रागद्वोष परिणामों के निमित्तसे पुद्गल कर्मरूप होकर परिणमता है । तथा पुद्गल कर्माके निमित्तसे जीव रागद्वेष होकर परिणमन करता है । तथा दूसरी गाथा में यह दिखाया है कि इस परिणमन स्वभाव में एक द्रव्यका गुणधर्म दूसरे द्रव्य में संक्रमण नहीं होता है इस तीसरी गाथामें यह दिखाया है कि द्रव्यर्मके निमित्तस आत्मा किस प्रकार उसीके फलको भोगता है । सारांश यह है कि कर्मोके निमित्त से जो जीव के रागद्वेष परिणाम होते हैं और जीवके रागद्वेष परिणामों से पुद्गल कर्म रूपसे परिणमन करता है इस परिणमन में कोई यह न मान बैठे कि पुशल का गुणधर्म जीव में प्राजाता है और जीवका गुणधर्म पुद्गल में चलाजाता है । इस कारण उन्हें स्पष्ट करना पड़ा है कि इस विभाव परिणमन में किसी। का गुण धर्म किसी में नहीं जाता, अपने अपने में ही रहता है। जीव और पुद्गल के परस्पर निमित्त नैमित्तिक परिणमन में एक द्रव्यका गुणधर्म दूसरे द्रव्य में आजाता है ऐसा भ्रम क्यों होजाता है इस का भी कारण यह है कि मिथ्यात्वभाव भी दोय प्रकारका है एक जीव मिथ्यात्व दूसरा अजीव मिथ्यात्व इसीप्रकार अज्ञान भी दो प्रकारका है एक जीव अज्ञान दूसरा अजीव अज्ञान, तेसेही अविरति योग मोह क्रोधादिकषाय जीव अजीवोंके भेदसे दोय होय भेदरूप राय ही भाव हैं। अर्थात् मिथ्यात्वादि कर्मकी For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४० जैन तत्त्व मीमांसा की प्रकृति है वह पुद्गल द्रव्य के परमाणु हैं उनका उदय होनेपर जीवके उपयोग में उसका स्वाद आवे तव तिस स्वादको ही जीव अपना भाव माने । सो यह भ्रम जवतक जीवके भेदविज्ञान नहीं होता तबतक वह दूर नहीं होता । भेदविज्ञान होनेपर वह अजीव भावोंको पुलके भाषजाने और जीवभावको जीवके जाने तव सम्यग्ज्ञान होय । "मिच्छस पुणं दुविहं जीवमजीवं तहेव अण्णायं । अविरदि जोगो मोहो कोधादीणा इमे भावा" मिथ्यात्वं पुनविविध जीवोऽजीवस्तथैवाज्ञानं । अविरतियोगो मोहक्रोधाद्या इमे भावाः । अर्थात् कर्मके निमित्तसे जीव भावरूप परिणमै है ते तो चैतन्य के विकार है ते जीव है । और पुद्गल मिथ्यात्वादि कर्म रूप परिणमै है ते पुद्गलके परमाणू हैं तथा तिनिका विपाक उदय रूप होय है ते मिथ्यात्वादि अजीव है ऐसे मिध्यात्वादिभाव जीवाजीच भेदकरि दोय प्रकार है इस दोय प्रकारके भेदको विना समझे भ्रमते दोनोंमें एकत्व वृद्धि हो जाती है। इसलिये अशानी जीव अजीवभावों को जीवभाव मानलेते हैं । किन्तु तत्त्वज्ञानीके झान में अजीव के भाव अजीव में भासते हैं और जीव के भाव जीव में भासते हैं। आचार्य इसका और भो खुलासा करते हैंपुग्गलकम्म मिच्छं जोगो अविरदि अण्णाणमजीव उवओगो अण्णाणं अविरदिमिच्छत्त जीवो द६६ अर्थात जे मिथ्यात्व योग अविरती प्रज्ञान ए मजीव हैं सो तो पुदल कर्म है । तथा अज्ञान अविरति मिथ्यात्व ए जीव है ते जीवके उपयोग है। For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा niwww उवओगस्स अणाई परिणामा तिषिण मोहजुत्तस्स निच्छत्त अण्णाणं अविरदिभावो य णादन्यो ६७ अर्थात उपयोग के अनादित्ते लेकरि तीन परिणाम हैं सो बह अनादिहीते मोहयुक्त है ताके निमित्तते मिथ्यात्व अज्ञान अविरति भाव ए तीन रूप जानने । भावार्थ-आमा के उपयोगमें तीन प्रकारके विकार परिणाम अनादि कर्म के निमित्तते हैं। ऐसा नहीं है जो पहिले शुद्ध ही था यह अव नवीन हुआ है ऐसा होय तो सिद्धनके भा नवान भया चाहिये किन्तु ऐसा होता नहीं। क्योकि उनके विकाररूप होनेका कारण कर्म रूप निमित्त रहा नाही। अतः ससारी जीवोंको भी त्रिकाल शुद्ध माननेवालोको उपरोक्त समय प्राभूत के कथन से अपनी भूल धारणाको दूर कर देनी चाहिये। एदेसु य उवओगो तिविहो शुद्धो मिरज शो भावो । जं सो करेदि भान उवओगे तस्स सो कत्ता ६८ अर्थात् पूर्व कहा है जो परि में सो कर्ता है । सो इहां अज्ञानरूप होय उपयोग परिणम्या, जिस रू५ ५.: 'सका कर्ता फह्या । शुद्धद्रव्याथि- नय कौर श्रम: का है नाहीं । इहां उपयोग को कर्ता जानना । अतः उपयोग और आत्मा एक ही वस्तु है तातै आत्मा ही कर्ता कहिये। जं कुणदि भावमादा कचा सो करोदि तस्स भाबस्त । कम्मचं परिखमदे तसि सयं पुग्गलं दम् १९ अर्थात् जैसे साधक जो मंत्र साधनेवाला पुरुष यो विष प्रकारका ध्यान रूप भावकरि भापही करि परिणमता संता विसध्यानका कता होष है तथा समस्त जो तिस साधकके पापने For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४२. ਡੋਰ तत्त्वमीमांसा की योग्य वस्तु तिसका अनुकूलपणा करि तिस ध्यान भावकू' निमित्त मात्र होते संते तिस साधक विनाही अन्य सर्पादिकको विषको व्याधि ते स्वयमेव मिटिजाय है। तथा स्त्री जन है ते विडंबना रूप होजाय है बन्धनते खुल जाय है इत्यादिक कार्य मंत्रके ध्यान की सामर्थ ते होजाय है । तैसेही यह आत्मा अज्ञानते मिथ्या दर्शनादि भावकरि परिणमता संता मिथ्यादर्शनादिका कर्ता होय है। तव तिस मिथ्यादर्शनाविभावक अपने करनेके अनु कूलपणे करि निमित्त मात्र होते संते आत्मा जो तिस विनाही पुद्गल द्रव्य आपही मोहनीयादि कर्मभावकरि परिणमे है । : भावार्थ- आत्मा ते अज्ञानरूप परिणामें हैं काहंसो ममत्व करें कासों राग कर हैं का द्वेष करें है । तिनि भावनिका आप कर्ता होय है। अतः तिसकु निमित्तमात्र होते पुद्गल द्रव्य आप अपने भावकरि कर्मरूप होय परिणमें हैं। इनका परस्परि निमित्तनैमित्तकभाव है । कर्ता दोऊ अपने अपने भावोंका है। इस कथनसे यह सिद्ध हुआ कि एकके परिणामोंका दूसरे के परिमन पर असर पडता है यदि ऐसी बात नहीं है तो मंत्र आराकके द्वारा सर्पादिकका विष दूर होना, भूतादिककी बाधा दूरहोना, देवादिकको वशमें करना, तारण, मारण, उच्चाटन, वशीकरण आदि कार्य होते देखे जाते हैं उसका निषेध किस आधारसे किया जायगा ? इसलिये मानना पडेगा कि एकके परिणामोंका असर दूसरे के परिणामों पर पडता है। इसी कारण द्रव्यकर्म के उदयमें जीवके रागद्वेषपरिणाम होजाते हैं और जीवके रागद्वेषपरिणामों के निमित्तसे पुद्गल परमाणु कर्मरूप परिणमन कर जाते हैं। यह प्रमाणसिद्ध वात है अतः इसका आप आगमके ज्ञाता होकर भी निषेध करते हैं यह वडे आश्चर्य की बात है । अज्ञानी जी भी अपना अज्ञानभावरूप शुभाशुभ भावनि For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ही का कर्ता अज्ञान अवस्था में हैं । पर द्रव्बके भावका कर्ता तो यह भी कदाचित नहीं है। : "शुद्धभाव चेतन अशुद्ध भाव चेतन, दुहूंको करतार जीव और नहीं मानिये । कर्मपिण्डको विलास वर्ण गंध रस फास, करतार दोहूं को पुद्गल परमानिये। तात वरणादि गुण ज्ञानावरणादिकम, नानापरकार पुद्गलरूप जानिये । ममल विमल परिणाम जे जे चेतन के, ते ते सब अलख पुरुष यों वखानिये ॥ "ज्ञानभाव ज्ञानी करे अज्ञानी अज्ञान । द्रव्य कर्म पुद्गल करे यह निश्चे परमान" इस विषय में प्राचार्य कहते हैं कि "जं भावं सुहमसुहं करेदि आदा म तस्स खलु कचा तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स हु वेदगो अप्पा ॥ १०६ टीका-सातासातोदयावस्थाभ्यां तीब्रमंदस्वादाभ्यां सुखदुःखरूपाभ्यां वा चिदानंदकस्वभावैकस्याप्यात्मनो द्विधा भेदं कुर्वाणः सन् यं भावं शुभाशुभं वा करोत्यात्मा स्वतंत्ररूपेण व्यापकत्वात्स तस्य भावस्य खलु स्फुटं कर्ता भवति तदेव तस्य शुभाशुभरूपस्य भावकर्मणो वेदको भोक्ता भवति स्वतंत्ररूपेण भोक्तृत्वात् न च द्रव्यकर्मणः। For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४४ जैन तत्व मीमांसा की किंच विशेषः अज्ञानी जीवो शुद्धनिश्चयनयेनाशद्धोपादानरूपेण मिथ्यात्वरागादिभावानामेव का न च द्रव्यकमणः स चाशुद्धनिश्चयः । यद्यपि द्रव्यकर्मक त्वरूपया सद्भ तव्यवहारापेक्षया निश्चयसंज्ञा लभते तथापि शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव । हे भगवन् ! रागादीनामशुद्धोपादानरूपेण कतृ त्वं भणितं तदुपादानं शुद्धाशद्धभेदेन कथं द्विधा भवतीति । तत्कथ्यते । औपाधिकमुपादानमशुद्धं तप्तायःपिण्डवत्, निरुपाधिरूपमुपादानं शद्धं पीतत्यादि गुणानां सुवर्णचत्, अनंतज्ञानादि गुणानां सिद्धजीववत् उष्णत्यादिगुणानामग्निवत् । इदं व्याख्यानमुपादानकारण कारणव्याख्यानकाले शुद्धाशुद्धोपादानरूपेण सर्वत्र स्मरणीयमिति भावार्थः।। ___ अर्थात्-इस लोकविषै आत्मा है सो अनादि अज्ञानते परका अर श्रात्माका एकपणाका निश्चयकरि तीन मंद स्वाद रूप जे पुद्गलकर्मकी दोय दशा तिनकरि यद्यपि आप अचलितविज्ञानघनरूप एक स्वादरूप है तोऊ स्वादकू भेदरूप करता संता शुभ तथा अशुभ जो अज्ञानरूपभाव ताकूको है सो आत्मा तिसकाल तिसभावते तन्मय पणाकरि तिस भावका व्यापकपणाकरि तिस भावका कर्ता होय है । तथा मो वह भाव भी तिस काल आत्माके तन्मयपणाकरि तिस आत्माके व्याप्य होय है । ताते ताका कर्म होय है । तथा सोही प्रात्मा तिसकाल तिसभावतें तन्मयपणाकरि तिसभाषका भावक होय है तातें ताका अनुभवकरनेवाला भोक्ता होय है । अतः सो भाव भी तिसकाल तिस आत्माके तन्मयपणा For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समामा करि तिस अात्माके भावने योग्य होय है । तातें अनुभवनेयोग्यहोय है । ऐसे अज्ञानी है सो भी परभावका कर्ता नाहीं है। "कर्ता परिणामी द्रव्य कर्मरूप परिणाम । क्रियापर्यायकी फेरनी वस्तु एक त्रियनाम ।। कर्ता कर्म क्रिया करे क्रिया कर्म कर्तार । नामभेद वहुविधि भयो वस्तु एक निरधार ॥ एक कर्मकर्तव्यता करे न कर्ता दोय। दुधा द्रव्य सत्ता सु दो एकभाव किम होय।। रागादि अध्यवसानादिभावोंका कर्ता आत्मा है। तथा इन अध्यवसानादिभावोंका उपजानेला ज्ञानावरसादि भाठकर्म है सो पुद्गलमय है ऐसा सर्वज्ञ देव कहै है। "अट्ठविहं पि य कम्मं सव्वं पुग्गलमयं जिणा विति । जस्स फलं तं बुच्चदि दक्खंति विपच्चमाणस्स ॥ टीका-अध्यवसनादिभावनिर्वतकमष्टविधमपि च कर्म समस्तमेव पुद्गलमयमिति । किल सकलज्ञज्ञप्तिः तस्य तु यद्विपाककाष्ठामधिरूढस्य फलत्वेनाभिलप्यते । तदनाकुलत्वलक्षणसौख्याख्यात्मस्वभावविलक्षणत्वात्किल दुःखं तंदतःपाति न एव किलाकुलत्वलक्षणा अध्यवसानादिभावाः ततो न त चिदन्वयविभ्रमप्यात्मस्वभावाः किन्तु पुद्गल स्वभावाः यद्यध्यवसानादयः पुद्गलस्वभावास्तदा कथं जीगरोन मूचिता इति चत, For Private And Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४६ जंन तत्त्व मीमांसा की - - अर्थात् जा कारगते ए अध्यवसान आदि समस्तभाव ते तिनिका उपजावनहारो आठ प्रकार ज्ञानावरणादि कर्म है । सो समस्त ही पुद्गलमय है ऐसे सर्वज्ञका वचन है । तिस कर्मका उदय हदकू पहुंचे ताका फल है सो यह अनाकुलस्वरूप जो सुख नामा आत्मा का स्वभाव ताते विलक्षण है श्राकुलतामय है । ताते दुःख है तिस दुःखके माहिं आय पडे जे अनाकुलता स्वरूप अध्यवसान आदिक भाव ते भी दुख ही है । ताते ते चैतन्य तें अन्वय का विभ्रम उपजावे है तोऊ ते श्रात्माके स्वभाव नाही हैं पुद्गल स्वभाव ही है। सारांश यह हैं कि जिसप्रकार स्त्री पुरुषके निमित्तसे ( सहयोगसे ) पुत्रकी उत्पत्ति होती है उस पुत्रको कोई पिताका पुत्र कहता है तो कोई माताका पुत्र कहता है । उसी प्रकार द्रव्यकर्मके संयोगसे आत्मामें रागद्वेषकी उत्पत्ति होती है उसको जीवके भाव भी कहा जा सकता है और पुद्गलका भाव भी कहा जा सकता है । क्योंकि दोनोंके संयोगसे उत्पन्न हुआ है । इसलिये दोनोंका कहनेमें यह भ्रम हो जाता है कि एक द्रव्यका दोय कर्ता है । किन्तु वास्तवमें एकद्रव्यका दो कर्ता कभी हुआ न होगा तथा दोय द्रव्य का कर्ता भी एक द्रव्य नहीं होता यह अनादिकालकी मर्यादा है। "एक परिणामके न कर्ता दाब दोय, दोय परिणाम न एक दरव धरत है । एक करतूति दोय दरव कवहूं न कर, दोय करतूति एकद्रव्य न करत है । जीव पुद्गल एक खेत अवगाहि दोऊ अपन अपन रूप कोऊ न टरत है। जड परिणामनिको करता है पुद्गल चिदानन्द चेतनस्वभाव आचरत है। For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा इस कथनसे यह वात स्पष्ट होजाती है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कर्ता कदाचित् भी नहीं है अतः एक द्रव्यके दूसरे व्यका कार्य कारण भात्र माननेसे अथवा संयोग सम्बन्ध माननेसे अथवा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध मानने से एक द्रव्यका गुणधर्म दूसरे द्रव्यमें सक्रमण ह जाता है ऐसी धारणासे संयोगसम्बन्धका कार्यकारणभावका निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धका आधाराधेयमाबका एक द्रव्यके साथ दूसरे द्रव्यका सर्वथा निषेध करना आगम विरुद्ध है क्योंकि मिथ्यात्व (दर्शनमोहनीय) कर्मके सम्बन्धसे यह आत्मा अनादिकाल होसे अज्ञानी वनाहुअा है । तथा सप्त तत्त्व नौ पदार्थोंकी जीव अजीवके सम्बन्धसे ही व्यवस्था होती है और इसको समझनेसे ही मम्यक्त्यरूप श्रद्धान होता है। जो मोक्षका कारण है । गुणस्थान मार्गणा, श्रादिकी व्यवस्था भी जीव पुद्गल कर्मके संयोगसे ही वनती है जो यथार्थरूप है । अथवा मति अत आदि ज्ञानांकी संख्या कर्मसंयोग से ही बनीहुई है । इनमें कर्मका निमित्त न माना जायगा तो एक भी व्यवस्था नहीं बनेगी। अर्था कर्मसम्बन्धके विना गुणस्थान मार्गणा सप्ततत्त्व नव पदार्थ मतिअतादिज्ञान सम्यक्त्व मोक्ष आदि एक भी कार्य नहीं होगा। जो आगम सिद्ध है। "भूदत्थेणाभिगदा जीवा जीवा व पुण्णपाव च। आसवसंवरणिज्जरवन्धोमोख्खो य सम्मत्त ॥१३॥ --समयप्राभृत अर्थात् जीवादि नद तत्त्व हैं ते भूतार्थनयकरि जाणे संते सम्यग्दर्शन ही है यह नियम कह्या । जाते ये नवतत्त्व जीव-अजीव पुण्य पाप आस्रव संवर निर्जरा वन्ध मोक्ष For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४८ जैन तत्त्व मीमांसा की है लक्षण जिनिका एसे तीर्थ जो व्यवहारधर्म नाकी प्रवृत्तिके अर्थि अमृतार्थनय जो व्यवहारनय ताकर कहे हुए हैं । तिनिविषे एक पणा प्रगट करनहारा जो भूतार्थनय ताकरि एकपणाकू प्राप्तकरि शद्धपणाकरि स्थाप्या जो आत्मा तांकी आत्मख्याति है लक्षण जाका ऐसी अनुभूतिका प्राप्तपणा है । शुद्धनयकरि नव तत्वकू जाणे आत्माकी अनुभूति होय है । इस हेतुते नियम है । नहां विकार्य जो बिकारी होनेयोग्य अर विकार करनेवाला विकारक ए दोऊ तो पुण्य हैं । ऐसे ही विकार्य विकारक दोऊ पाप हैं तथा आश्रव्य कहिये आस्रव होनेयोग्य अर आस्रवक कहिये आस्रव करनेवाला ए दोऊ आस्रव हैं। तथा संवाय कहिये संवररूप होने योग्य अर संवारक कहिये मंवर करनेवाला ए दोऊ संवर है । तथा निर्जरने योग्य अर निर्जरा करनेवाला ए दोऊ निर्जरा हैं। तथा बन्ध करनेयोग्य अर बन्ध करनेवाला ए दोऊ बन्ध हैं। तथा मोक्ष होने योग्य अर मोक्ष करनेवाला ए दोङ मोक्ष हैं जाने एकहींके आपहीते पुण्य पाप आस्रव संवर निर्जरा वन्ध मोक्षकी उत्पत्ति वने नाहीं । अतः ए दोऊ जीव अर अजीव हैं ऐसे ए नद तत्त्व हैं . इनिकू वाह्य दृष्टिकरि देखिये तव जीवपुद्गलकी अनादि वन्धपर्याय प्राप्तकरि एक पणाकरि अनुभवन करते संते तो ए नवही भृतार्थ हैं For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १४४ सत्यार्थ हैं। तथा एक जीव द्रव्यहीका स्वभावकू लेकरि अनुभवन करते संत अमृतार्थ है असत्यार्थ हैं। जीवके एकाकार स्वरूपमें ये नाहीं है । ताते इनिका तचनिविष भूतार्थनयकरि जीव एक रूप ही प्रकाशमान है । तैसे ही अन्तर दृष्टिकरि देखिये तव ज्ञायकभाव तो जीव है तथा जीवके विकारका कारण अजीव है । अतः पुण्य पापासव संवर निर्जरा बन्ध मोक्ष हैं लक्षण जाका ऐसा केवल एकला जीवका विकार नाही है। पुण्य पाप आस्रव संवर निर्जरा वन्ध मोक्ष ये सात केवल एकला अजीवके विकार ते जीवके विकारकू कारण हैं । ऐसे ये नव तत्त्व हैं ते जीवद्रव्यका स्वभावकू छोडकरि आप अर पर है कारण जाकू एसा एक द्रव्यपर्यायपणाकरि अनुभवन करते संते तो भूतार्थ हैं। तथा सर्व कालमें नाहीं चिगता एक जीव द्रव्यके स्वभावको लेकरि अनुभवन करते संते ये अभूतार्थ हैं असत्यार्थ हैं। ताते इनि नव तत्त्वनि विषे भूतार्थनयकार देखिये तव जीव है तो एक रूप ही प्रकाशमान है । जीवतत्त्व एक पणाकरि प्रगट प्रकाशमान हुआ संता शुद्ध नयपण करि अनुभवन कीजीये है सो यह अनुभवन है सो आत्मख्याति है आत्मा ही का प्रकाश है । अतः For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १५० जिन तत्त्व मीमांसा की आत्मख्याति है सोही सम्यग्दर्शन है ऐसे यह समस्त कहना निर्दोष है, वाधा रहित हैं। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( पं० जयचंदजी कृत भाषा टीका ) सारांश यह है कि नव तत्त्वरूप अवस्था जीवकी जीव और अजीब के मिलापत्रे होती है वे भी व्यवहारदृष्टिसे भूतार्थ हैं सत्यार्थी है क्योंकि इस नव तत्त्वरूप अवस्था का ज्ञान हुये दिना Raat प्राप्ति नहीं होती इसलिये भेदरूप अवस्थाका ज्ञान होनेसेही इन नव तत्त्वमें एक जीव तत्त्वही प्रकाशमान दृष्टिगोचर होता है वही सम्यग्दर्शन है अतः नत्र तत्त्व रूप अवस्थाका ज्ञान व्यवहार नयसे ही होता है इसलिये व्यवहार नय भी भूतार्थ है सत्यार्थ है, तीर्थरूप है । 66 ववहारस्स दरीसामु एसो वरदो जिनवरेहिं । जीवा एदे सब्वे अवसारणादश्रो भावाः । ४६ । -- जीवाजीवाधिकार टीका -- सर्वे एवैतेऽध्यवसानादयो भावाः जीव इति यद्भगवद्भिः सकलज्ञैः प्रज्ञप्तं तदभृतार्थस्यापि व्यवहारस्यापि दर्शनं । व्यवहारी हि व्यवहारिणाम् म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थोपि तीर्थप्रवृत्ति निमित्तं दर्शयितु न्याय्य एवं तमंतरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात् । सस्थावराणां भस्मन इव निःशंकमुपमर्दनेन हिंसाभावाद् भवत्येव वन्धस्याभाव: तथा रक्तद्विष्टविमूढो जीवो वध्यमानो मोचनीय इति । For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोता रागद्वेषमोहे गो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्ष स्याभावः । अथ केन 'दृष्टांतेन प्रपत्तो व्यवहार इति चेत। अथ-सर्व ही ये अध्यवसानादिकभाव है जोक है ऐसे जो भगवान सर्वज्ञदेव ने कहा है सो अभूतार्थ असत्यार्थ जो यवहारनय ताका दर्शनकरि ये मत है जाते व्यवहार है सो व्यवहारी जीवनिकूपरमार्थका कहनहारा है । जैसे म्लेच्छ की भाषा है सो म्लेच्छनिक वस्तु स्वरूप समझाये है । तातै अपरमार्थभूत है तोऊ धर्मतीर्थ प्रवृत्ति करनेकू व्यवहार नयका वर्णन न्याय्य है । ताते तिस व्यवहारकू कहे विना परमार्थ तो जीवकू शरीरसे भिन्न कहे है । सो याका एकान्त करिये तो बस स्थावर जीवनिका घात निःशंकपणे करना ठहर्या जैसे भस्मके मर्दन करने में हिंसाका अभाव है तैसे तिनके धातमें भी हिसा न ठहरे। और हिंसाका अभाव ठहरे तव तिनके घातते वन्धका भी अभाव ठहरे । तेसे ही रागी दोषी मोही जीव कर्मते वन्धते ताकू छूडावना ऐसे वह्या है सो परमार्थते रागद्वेष मोहते जीव जीवनिकभिन्न दिखावनेकरि मोक्षका उपाय करनेका अभाव होय तब मोक्षका भी अभाव ठहरे । व्यवहारनय कहिये तब बन्ध मोक्षका अभाव न ठहरे । अर्थात् परमार्थनय तो जीवकू शरीर पर रागद्वषमोहते भिन्न कहै है । सो यही का एकान्त करिये तव शरीर अर राग द्वेष मोह पुद्गलमय ठहरे तव पुद्गल के घातनते हिंसा नाही अर रागद्वेष मोहते वन्ध नाही रेसे परमार्थ ते संसार मोक्ष दोऊं का अभाव कहे है, सो यह ठहरे सो ऐसा एकान्त स्वरूप वस्तुका स्वरूप नाहीं, अवस्तुका श्रद्धान ज्ञान आचरण मिथ्या अवस्तुरूप ही है । ताते व्यवहार का उपदेश न्याय्य प्राप्त है। ऐसे स्याद्वादकरि दोऊ नयनिका विरोध मेटि श्रद्धान करना सम्यक्त्व है । For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५२ जैन तत्त्व मीमांसा की ___ उपरोक्त कथनसे यह सिद्ध हो जाता है कि व्यवहार नयका उपदेश न्यायप्राप्त है अतः जो व्यवहारनयको सर्वथा अभूतार्थ असत्यार्थ मानता है एवं केवल निश्चयनयकोही एक भूतार्थसत्यार्थ मानता है वह मिथ्यादृष्टि है क्योंकि निश्चयनयसे देखा जाय तो जीव और पुद्गल भिन्न भिन्न ही हैं तथा रागद्वेषरूप परिणाम ते भी जीवका स्वभाव भाव नहीं है। इस कारण उनके मत में बस स्थावर जीवों का वध करनेसे हिसा होती है तथा जीवोंकी रक्षा करनेसे अहिसा धर्मका पालन होता है यह बात सर्वथा मिथ्या ठहरती है इसी कारण निश्चयावलम्बी मिथ्याइपिजीब नीव वध करने में पाप नहीं समझते जसा कि कानजा स्वामी के नीचे लिखे वाक्यों से सिद्ध होता है। "जीव और शरीर भिन्न भिन्न ही हैं और जड़को मारनेमें हिंसा नहीं होती। __ आत्मधर्म पृष्ठ १६ अं० २ वर्ष ४ "मै यह जीवकी रक्षा करू ऐसी दयाकी भावनाभी परमार्थसे जीव हिंसा ही है। ___ आत्म धर्म पृष्ठः १२ अं० १ वर्ष ४ __"अज्ञानी यह मानते हैं कि बहुतसे जीव मरेजारहे है तो उस समय उन्हें बचाना अपना कर्तव्य है और उन्हें बचाने का शुभभाव चेतनका कर्तव्य है इस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव अपनेको पर पदार्थका और विकारका कर्ता मानता है" --आ० ध० पृ० १३ अंक १ वर्ष १ "लौकिक मान्यता एसी है कि पर जीवकी हिंसा न For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा करना ऐसा उपदेश भगवानने दिया है। परन्तु यह मान्यता भूल भरी है कोई जीव किसी जीव की हिंसा नहीं कर सकता है। -आत्मधर्म पृष्ठ १३ अंक १ वर्ष १ "जो शरीरकी क्रियामें धर्म मानता है सो तो बिलकुल वहिदृष्टि मिथ्यादृष्टि है। किन्तु यहाँ तो जो पुण्य में धर्म मानता है सो भी मिथ्यादृष्टी है। आ०ध०पृ० १० अं० १ वर्ष ४ "शरीर अच्छा होगा तो धर्म होगा और पांचों इन्द्रियां ठीक होगी तो धर्म में सहायक होगी इस प्रकार जो परके आधीनसे आत्मधर्म मानता है वह मिथ्यादृष्टी है आध०० १२० अ० ८ वर्ष १ "कोई जीव यह मानता है कि दान पूजा तथा यात्रा आदिसे धर्म होता है और शरीरकी क्रियासे धर्म होता हैं यह मंतव्य मिथ्या है। आत्मधर्म अंक ५ वर्ष ३ ____ इन पंक्तियो से कानजी शरीराश्रित क्रियाओंसे धर्म होना नहीं मानते जब शरीराश्रित क्रियाओंसे धर्म नहीं होता तो शरोराश्रित क्रियाओंसे अधर्म भी नहीं होता यह स्वतः सिद्ध है। क्योंकि औदारिकादि शरीर रहित आत्मा कुछ भी क्रिया नहीं कर सकती फिर शरीराश्रित क्रियाओं के विना शरीर रहित आत्मा कौनसी क्रियाओं को करता है जो उसे धार्मिक क्रिया मानी जाय ? इसलिये शरीराश्रित क्रियाओंसे यदि धर्म होता है तो शरीराश्रित क्रियायोंसे अधर्मभी हाता है । यदि शरीराश्रित For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५४ जन तत्त्व मीमांसा की क्रियाओंसे धर्म नहीं होता है तो शरीराश्रित क्रियाओं से अधर्म भी नहीं होता ऐसा मानना पड़ेगा श्रतः कानजीके मत में शरीरात्रित क्रियाओं से न वन्ध है और न मोक्ष है। उनके मत में श्रात्मा सदा मुक्त ही है अर्थात वन्धरहित सदा शरीर से भिन्न हो है । जो जैनागम में शरीरका आत्मा के साथ अनादि का सम्बन्ध माना है वह मिथ्या है। " श्रनादिसम्बन्धे च" इसको मिथ्या माननेवाले कानजी शरीराश्रित क्रियाओं से धर्म होना नहीं मानते श्रर्थात् शरीरका सम्बन्ध तो आत्मा के साथ अनादिकाल से है ही और जबतक मोक्ष न होगा तबतक शरीर श्रात्मा के साथ रहेगा ही, इस हालत में शरीराश्रित क्रियाओं में धर्म न माननेवाले कानजी स्वामी और उनके भक्तजनों का संसार अवस्था में धर्म साधन भी शरीराश्रित नहीं होगा और विना शरीराश्रित धर्म साधन के उनका संसार से छुटकारा भी नहीं होगा । जो विवेकी पुरुष शरीराश्रित क्रियाओं के द्वारा ही धर्म अधर्म होना मानते हैं। वही पुरुष हिंसादि धर्मको छोडकर धर्मध्यानमें लगकर संसारका अंत कर सकता है अर्थात् मोक्ष प्राप्ति कर सकता है । "काज विना न करें जिय उद्यम लाजविना रमाहि न जूभे डील विना न सधे परमारथ सील विना सतसों न अरू नेम विना न लह्रै निहवे पद प्रेम बिना रसरीति न बूझे ध्यानविना न थमे मनकी गति ज्ञानविना शिवपंथ न सूझे" इसमें बतलाया है कि डील बिना ( शरीर विना) न सधे पर For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाचा 1 सार्थ " "ध्यान विना न थमें मनकी गति" " ज्ञान बिना शिवपंथ न सूझे, यह सब शरिराश्रित ही किया है इसके विना परमार्थ कहिये मां की सिद्धि नहीं होती । मति श्रुत ज्ञान है वह भी शरीराश्रित हा है । निरावरण ज्ञान तो एक केवलज्ञान ही है वह घातिया कर्मों के सद्भाव में प्रगट नहीं होता घातिया कर्मो के सद्भाव में मति श्रुत अवधि और मनपर्यय ज्ञान ही रहता है जो ज्ञानावरण कर्म -मसे प्रगट होता है सो ही ज्ञान शिवपंयको सुझाने वाला है । केवलज्ञान नहीं। वह तो शिव रूप ही है। इसलिये उसकी यहां कथा नहीं है यहां तो शिवपथको सुझाने वाले ज्ञान की कथा है वह ज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान है सो शरीराश्रित है, अतः जो शरीराश्रित क्रियाओं से धर्म होना नहीं मानते हैं उनके मतवन्ध मोक्षको कथा ही बेकार है ! उनकी आत्मा तो त्रिकाल शुद्ध है और केवलज्ञान करि युक्त है इसी लिये उनकी आत्मा पर कर्मकलंक मल नहीं चढता । जैसा कि श्वेताम्बरसूत्र का कहना है ( देखो कल्पसूत्र के पृष्ठ २४ पर तथा भगवती सूत्र के पृष्ठ १२६७ से लेकर पृष्ठ १२७२ तक ) उसी सिद्धान्तको ( श्वेताम्बर सिद्धान्तको ) माननेवाले कानजी स्वामी भी उसीप्रकार की प्रवृत्ति करते हैं। अर्थात् खावो पीवो मौज उडावो भाभका कोई विचार मत करो यह सब शरीराश्रित क्रियायें हैं। इससे आत्माका कोई सम्बन्ध नहीं क्योंकि आत्मा तो चैतन्य स्वरूप है और खान पान की क्रिया सव जड रूप है अतः जड़का और चेतनका मेल कहां ! अर्थात् दोनों भिन्न पदार्थ है । इसी लिये जड की क्रिया जड़ में हैं चेतन की क्रिया चैतन्य में है। ऐसा एकान्न रूपसे मानने वाले कानजीस्वामी के हृदय में अभीतक श्वेताम्बरी बू घुसी हुई है इसी कारण श्वेताrate ही प्रचार करते जारहे हैं । समयसारादि श्रध्या For Private And Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५६ जैन तत्व मीमांसा की त्मिक ग्रंथोंका सहारा लेकर व्यवहारधर्मका लोप एकान्तरूपसे करने में कटिवद्ध होरहे हैं । जो समयसारादि प्रयोका आशय है. उसको छिपाकर या न समझकर अपनी मान्यता के अनुसार विपरीत प्रतिपादन कर दि० जनसमाजके भोले जीवों को व्यवहार धर्मसे विमुख करते जारहै हैं। वे कहते हैं कि "जिस प्रकार कुगुरु कुदेव कुशास्त्र की श्रद्धा और सुदेवादिककी श्रद्धा दोनों मिथ्यात्व है, तथापि कुदेवादिकके श्रद्धानमें तीव्र मिथ्यात्व है और सुदेवादिककी श्रद्धा में मन्द है। श्रा० ध० पू०८६ अं०६ वर्ष ४ " व्यवहार के आश्रयसे मोक्षमार्ग होना मानते हैं ऐसे जीव तो तीन मिथ्यादृष्टी हैं उनमें तो सम्यक्त्व होनेकी पात्रता ही नहीं है" आ० ध० अं १२ वर्ष 8 ___ "पुण्य करते करते धर्म होगा इस मान्यताका निषेध है पुण्यसे न धर्म होता है न आत्माका हित । इससे निश्चय हा पुण्य धर्म नहीं, धर्मका अंग नहीं, धर्मका सहायक भी नहीं । जबतक अंतरंग में पुण्येच्छा विद्यमान है तवतक धर्मकी शुरूआत भी नहीं अत: पुण्यकी रुचि धर्म में . विघ्नकारिणी है। आ० ध० पृ० ८६ अंक ६ वर्ष ४ । इत्यादि इन्ही विचारोंकी पुष्टि में पं० फूलचन्दजी शास्त्रीने "जैनतत्त्वमीमांसा" नामकी एक पुस्तक लिखी है उसी में इन्ही विचारोंफी कमरकश करके पुष्टि की है। For Private And Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १५७ " बहुतसे मनीपी यह मानकर कि इससे व्यवहारका लोप हो जायगा ऐसे कल्पित सम्बन्धोंको परमार्थभृत माननेकी चेष्टा करते हैं। परन्तु यही उनकी सबसे वडी भूल है क्योंकि इसमृलके सुधरनेसे यदि उनके व्यवहारका लोप होकर परमार्थकी प्राप्ति होती है तो अच्छा ही है । ऐसे व्यवहारका लोप भला किसे इष्ट नहीं होगा। इस संसारी जीवको स्वयं निश्चयस्वरूप बनने के लिये अपने लिये अपने में अनादि कालसे चले आरहे इस अज्ञान मूलक इस व्यवहारका ही तो लोप करना है। उसे और करना ही क्या है । वास्तव में देखा जाय तो यही उसका परम पुरुषार्थ है इसलिये व्यवहारका लोप होजायगा इस भ्रान्तिवश परमार्थसे दूर रहकर व्यवहार को ही परमार्थरूप मानने की चेष्टा करना उचित नहीं। ___ क्या पंडितजी ! व्यवहारका लोप करने से परमार्थकी सिद्धि होमकती है ? कभी नहीं यह बात समयप्राभृतकी ४६ वी गाथा जो ऊपरमें उद्धृत की गई है उससे स्पष्ट सिद्ध होजाता है कि व्यवहारका लोप करनेसे परमार्थ भी नष्ट होजाता है । और वह स्वच्छंद होकर कर्मोंका वन्धकर संसार में अनेक प्रकारके दुखोंको भोगता है । इसलिये व्यवहार तीर्थस्वरूप है। तीर्थ उसीका नाम है जिसके द्वारा तिरिये । जव व्यवहार तीर्थ स्वरूप है तवं उसके लोपमें परमार्थकी सिद्धि कैसी ? कदापि नही, परमार्थकी प्राप्ति करने में जो पुरुषार्थ किया जाता है वह व्यवहार ही तो है। For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५८ जैन तत्त्व मीमांसा की चोथे गुणस्थानसे लेकर भातवे गुणस्थान तक जो धर्मध्यान होता है वह व्यवहार ही स्वरूप ही है क्योंकि इन गुणस्थानोमें सावल. म्बन धर्मध्यान ही होता है निरालंबन नीं। इन गुणयानों में भगवान जिनेंद्र देवकी आज्ञानुसार देव पूजादि गृहस्थोंके षट्कम, प्रतिक्रमणादि मुनिराजोके षट्कर्म आदि क्रियायें सब आज्ञाविचय धर्मध्यान में ही गर्भित हैं। जो व्यवहार स्वरूप है। तथा अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय धर्मध्यान है वह भी सावलम्बन धर्मध्यान है। इसलिये व्यवहारस्-रूप है और यह सव धर्मध्यान मोक्षका हेतु है 'परे मोक्षहेतू' ऐसा सूत्रकार का कहना है । अतः व्यवहार धर्म का भी लोप होगा तथा दान पूजा तीर्थयात्रा जप तप आदि सव ही व्यवहार धर्मका लोग करना पड़ेगा जैसा कि कानजी स्वामी दान पूजा तीर्थ यात्रादिकको संसारका कारण मानते हैं। किन्तु यह संसारका कारण नहीं यह धर्मध्यान में गर्मित है इसलिये मोक्षके हेतु हैं । ____ परमुत्तरमन्त्यं तत्सामीप्याद्ध म्य॑मपि परमित्युपचर्यते द्विवचनसामाद् गौणमपि गृह्यते । परे मोक्षहेतू इति वचनात्पूर्वे आतरोद्रे संसारहेतू इत्युक्त भवति । पूज्यपादस्वामीके इन वचनों से धर्मध्यान मोक्षके ही हेतु है संसार का हेतु आतं और रौद्र ध्यान है धर्मध्यान नहीं । अतः व्यवहार धर्मका लोप से परमार्थ की सिद्धि तीनकाल में न हुई, और न होगी न है। "ज्यों नर कोऊ गिरे गिरिसों तिहि होई हितू जु गहे दृढ वाही। For Private And Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १५६ त्यों बुधको व्यवहार भलो तवलौं जवलौ शिव प्रापति नाही! यद्यपि यो परमाण तथापि मधे परमारथ चेतन माहीं जीव अव्यापक है परतों विवहारसों तो परकी परछाहीं अर्थात् परमार्थकी सिद्धि तो चैतन्यमें ही होती है तो भी जवतक शिव प्राप्ति न हो तब तक व्यवहारका साधन करते रहना यह न्याय प्राप्त है प्रमाणभूत है । जैसे कोई पुरुष गिरसों गिरजाय तो उससमय उसका हितू उसका दृढ भूजाही है. उसके द्वारा वह किसी पत्थर या वृक्ष को पकडकर गिरनसे वचजाता है क्षम कुशलस अपन ठिकाने पहुंच जाता है । उसी प्रकार बुध ( ज्ञानी ) जना को तवतक शिव प्राप्ति न हो जवतक बवहारही शरणभूत है क्योंकि व्यवहारही संसार में पडते हुये को बचाता है .. अर्थात् अधर्म जो श्राचरौद्रादि अशुभ ध्यान संसारके पतनका कारण है उनसे बचाता है । इसलिय व्यवहारका लोप करनेसे परमार्थका सिद्धि होगी यह वात सर्वथा आगम विरुद्ध है । आपने पहिले तो व्यवहार धर्मका लोप करने के लिये हरिजनोंको मंदिर , प्रवेश करानेका प्रयत्न किया यहांतक कि आचार्य शान्तिसागरजीको हरिजनमंदिर प्रवेशमें वाधक घोषित कर उनको अपराधी ठहराया और उनको कानूनद्वारा दंडित करनेकी सरकारसे प्रेरणा कीगई । नथा गणेशप्रसादजी वर्णीजी से हरिजन मंदिर प्रवेशका ममर्थन कराया । जिससे यहां तक की नोबत आई कि वीसीको ईसरी छोडनेकेलिये तैयार होना पड़ा। जब वर्णीजी ने अपनी For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की wwwwwwwwwwwwwwr................................... गलती स्वीकारकी तब जनता शान्त हुई । जव आपको उसमें सफलता न मिली तब आप कानजीके मतके समर्थन में "जैनतत्त्वमीमांसा" लिखकर व्यवहार धर्मका लोपसे परमार्थकी सिद्धि सिद्धकरनेका प्रयत्न किया । आप तो चाहते हैं कि "न रहै वास्स और न वजे वांसुरी" अर्थात् न रहै व्यवहारधर्म और न र है किसी प्रकारका रोकटोक पर अभी ऐसा होना बहुत दूर है । अभी तो पंचमकालका ढाई हजार वर्ष ही वीता है। इसलिये जब तक शुद्धोपयोगकी दशाको यह जीव प्राप्त न करसके तवतक शुद्धोपयोगकी प्राप्तिका उपाय करते रहना यही जिनेन्द्र भगवानका आदेश है । अतः इसका लोप कैसे किया जा . सकता है ? आचार्य तो यहांतक कहते हैं कि जो धर्मध्यान सावल. म्बन है वह भी देशवती श्रावकोंके मुख्यतया नहीं होता। देखो भावसंग्रह। "कहियाणीदिद्विवाए पडुच्च गुणठाण जाणि झाणाणी । तम्हा स देसविरयो मुक्खं धम्म ण झाएई ॥ ३८३ ___ यह धर्मध्यान मुख्यपने देशविरत आवकोंक क्यों नही होता इसका कारण यह है कि गृहस्थोंके सहा काल वाह्याभ्यन्तर परिग्रह परिमितरूपसे रहते हैं। तथा आरंभ मा अनेक प्रकारके बहुतसे होते हैं इसलिये वह शुद्ध आत्मा का ध्यान कभी नहीं कर सकता है। 'किं च सो गिहवतो वहिरंगंतरगंथपरिमिओ णिच्च। बहुआरंभपउत्तो कह झायइ शुद्धमप्पाणं " ३८४ इसलिये गृहस्थोंका धर्मध्यान देवपूजादि षट्कर्मो का करना For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा "जिनेच्या पात्रदानादिस्तत्र कालोचितो विधिः । भद्रध्यानं स्मृतं तद्धि गृहधर्माश्रयात् बुधैः " अर्थात् जिनेन्द्र देवकी पूजा करना पात्रदान देना तथा समयानुसार पूजा या दानकी विधि करना भद्रध्यान कहलाता है। ऐसा ध्यान यथोचित गृहस्थधर्म में ही होता है इसीलिये विद्वान लोग इसे धर्मध्यान कहते हैं। क्योंकि भद्रध्यान भी धर्मध्यानमें गर्भित है । यदि ऐसा न माना जायगा तो चौधे पांचवें गुणस्थान चर्तिजोवों के धर्मध्यानका अभाव मानना पडेगा । किन्तु उनके धर्मध्यानका सद्भाव प्राचार्यों ने बतलाया है । देखो सर्वार्थ सिद्धि "तदविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां भवति ।। ___ यह धर्मध्यान चौथे गुणस्थानसे लेकर सातवे गुणस्थान तक होता है । यह धर्मध्यान जो चौथे पांचवे गुणस्थानमें होता है वह पंच परमेष्ठीके आश्रयसे ही होता है। अर्थात् दान पूजा स्वाध्याय आदि षट् कर्म करते समय जो गृहस्थोंके एकात्र परिणाम होते हैं उसीको भद्रध्यान भी कहते हैं । अतः भद्रभ्यान भी धर्मध्यान ही है । भद्रध्यान कोई धर्मध्यानसे अलग बस्तु नहीं है । क्योंकि इस भद्रध्यानमें दानपूजादि द्वारा सर्वज्ञ आज्ञाका प्रकाशन होता है और सर्वज्ञाज्ञाका प्रकाशन करना ही श्राज्ञाविचय धर्मध्यान आचार्योंने बतलाया है । देखो सर्वार्थसिद्धि "सर्वज्ञाशाप्रकाशनार्थत्वादाज्ञाविचय इत्युच्यते " इसलिये यह स्वत: सिद्ध है कि देवपूजा तीर्थयात्रा दान स्वाध्यायादि सब ही कर्म गृहस्थोंके अथवा मुनियोंके आज्ञाविचय धर्मध्यानमें ही गर्भित है। क्योंकि इसमें जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाका प्रतिपालन ही होता है । एवं जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाका प्रकाशन भी होता है। इसलिये यह For Private And Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॐन तत्त्व मीमांसा की आज्ञाविचय धर्मध्यानके अतिरिक्त अन्य कोई भद्रध्यान नहीं है। अपायविचय विपाकविचय और संस्थान विचय धर्मध्यान भी मविकल्प है मालम्बन सहित है व्यवहार वरूप है क्योंकि न ध्यानों में भी अपने तथा पराये जीवोंके दुख दर व.रने के उपा-- यांका विचार होता है कोंके विषाकसे जीवोंकी क्या क्या अबग्था होती है उसका चिन्तवन किया जाता है तथा कर्मोदयसे यह जीव कहां कहां उत्पन्न होकर कैसे कैसे दुख भोगता है । इत्यादिक विकल्पोंके आश्रय विचारकी धारा प्रवाहित होती है । इसलिये यह सर्व धर्मध्यान व्यवहार स्वरूप है । इन ध्यानोंसे अशुभ काँकी गुणश्रेणी निर्जरा भी होती है। • तथा अपाविचय धर्मध्यानक द्वारा तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध कर मोक्षमार्गका प्रकाश भी किया जाता है । इन धर्मध्यानोंमें उत्तम क्षमादि दश धर्मोका सोलह कारण भावनाओंका एवं द्वादश अनुप्रेक्षाका भी चिन्तवन मनन, किया जाता है । वह मव व्यवहार स्वरूप ही है । परमार्थ स्वरूप नहीं है लोभी इनके आश्रयसे आत्म स्वरूपकी प्राप्ति अवश्य होती है । इस व्यवहारके किये विना परमार्थ स्वरूपकी प्राप्ति नहीं हो सकती । श्राप जो व्यवहारका लोप कर परमार्थकी सिद्धि करना चाहते हैं वह कौन सा परमार्थ है जो व्यवहार धमका लोप करनेसे प्राप्त होता है । जैनागम तो इस वातको स्वीकार नहीं करता। जैनागमका तो यह ऋहना है कि परमार्थस्वरूपका लक्ष बनाकर उसकी प्राप्ति के लिये उद्यम करते रहो जव परमार्थस्वरूपको प्राप्ति होजावेगी तव उद्यमकरने का व्यवहार स्वतः छूट. जावेगा । जबतक परमात्मपदकी प्राप्ति नहीं होती तबतक पुरुषार्थ रूपी व्यवहार करना ही पड़ता है। . इसी वातको स्पष्ट करते हुये आचार्य दृष्टांत द्वारा समझाते For Private And Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 4 समोक्षा "यथा अंधके कंध परि चढे पंगु नर कोय | या हग वाके चरण होय पथिक मिल दोय || जहां ज्ञान क्रिया मिले तहां मोक्षमग सोय || वह जाने पदको मरम वह पदमें थिर होय ।.. देखो समयसारका सर्व विशुद्धि द्वार जैसे फलका कारण पुष्प है किन्तु फल लगने के वाद पुष्प स्वत: विनम्र होजाता है उसी प्रकार परमार्थपदकी प्राप्तिके Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६३ लिये व्यवहार भी निमित्तकारण है जब परमार्थ पदकी सिद्धि हो जाती है तब व्यवहार स्वतः छूट जाता है । इसके पहिले नहीं अतः व्यवहारका लोप कर जो परमार्थकी सिद्धि चाहते हैं वह महा पंडित होनेपर भी " पढ पढके पंडित भये ज्ञान भया अपार वस्तु स्वरूप समझे नहीं सब कटी का श्रृंगार " इस कहा के अनुसार वह जैनागम के मर्मज्ञ नहीं हैं । समयसार में व्यवहारको छोडकर केवल निश्चयको ही परमार्थभूत माननेबालोंको भी मिध्यादृष्टि बतलाया है । एवं निश्चयको छोडकर केवल व्यवहार हीं में मग्न हैं उनको भी मिथ्यादृष्टि वतलाया है । यथायोग्य अपने पदस्थके अनुसार व्यवहारका साधन करता रहै परमार्थका लक्ष रक्खे उसीको “स्यादवादका जाननेबाला सम्यग्दृष्टि है " ऐसा कहा हैं । "समुझे न ज्ञान कहै कर्म कियेसे मोक्ष, ऐसे जीव विकल मिथ्यातकी गहल में ज्ञान आत्मा For Private And Personal Use Only अवन्ध सदावर स्वछंदते ह चहलमा यथायोग्य कम करे ममता न घरे रहें सावधान ज्ञान ध्यानकी टहल में । तेई भवसागर के ऊपर है तर जीव जिन्हको निवास Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६४ जैन तत्त्व मीमांसा की स्यादवादके महलमें" ___-पुन्यपापएकत्वकरण अधिकार व्यवहारका लोप मोक्ष प्राप्तिके पहिले नहीं होता क्योंकि विना संयम धारण किये तो मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती तथा संयम है सो व्यवहार है वह दो प्रकारका है एक सागार दूसरा . अनगार । सागार संयम समन्य है और निरागार परिग्रह रहित संयम है । सोही कुन्द कुन्द स्वामीने चारित्र प्राभृत में प्रगट किया है। "दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे निराधारं । सायारं सग्गंथं परिग्गहरहियं खलु निरायारं २० गाथा सागारसंयमका दर्जा या स्वरूप "दसवयसामाइय पोसह सचित्तरायभरोय । वंभांरपरिग्गह अणुमण उदिड देसविरदो य" २१ इसको कुन्दकुन्दस्वामी ने श्रावक धर्म बोलकर घोषित किया है जो व्यवहार स्वरूप है। "एवं सावयधम्म संजमचरणं उदेसियं सयलं मुद्ध संजम चरणं जइधम्म निक्कलं वोच्छे” २६ इसके आगे अनगार धर्मका निरूपण किया है वह भी व्यवहार स्वरूप ही है। "पंचिंदियसंवरणं पंचवया पंचविंसकिरियासु । पंच समिदि त्तयगुत्ती संजमचरणं निराया" २७ अर्थात् पांचों इन्द्रियोंको वश में करणा पांच महाव्रतोको धारण करना पचीस क्रियाओंका पालन करना, पांच समिति तीन गुप्तिका पालन करना यह अनगार (मुनियोंका) चारित्र है। For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा यह व्यवहार चारित्र मुनिलिंग मोक्षमार्गको दिखाता है प्रगट करता है। "दंसेइ मोक्खमग्गं सम्मत्तं संयम सुधम्म च । णिग्गथं गाणमयं जिणमग्गे दंसणं भणिय" ५४ वोधनाभृते सम्यक्त्व उत्पन्न होनेमें जो दश प्रकारका निमित्त कारण बतलाया है उसमें निग्रन्थनिंगका अवलोकन भी एक कारण है दश प्रकारके ब्यबहार सम्यक्त्व प्राप्तिका कारण निम्न प्रकार गुणभद्राचार्य आत्मानुशासनमें बतलाते हैं कि__"आज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रवीजसंक्षेपात् विस्तारार्थाभ्यां भवमवपरमावादिगाढे च" टीका-एवं जिनसर्वज्ञ वीतरागवचनमेव प्रमाणं क्रियते तदा आबासम्यक्त्वं कथ्यते १ निग्रंथलक्षणो मोक्षमार्गोन वस्त्रादिवेष्टितः पुमान् कदाचिदपि मोदं प्राप्स्यति एवंविधो मनोभिप्रायो निग्रंथलक्षणमोक्षमार्गे रुचिर्मार्गस. म्यक्त्वं द्वितीयमुच्यते २ त्रिपष्टिलक्षणमहापुराणसमाकर्म नेन वोधिसमाधिप्रदानकर णेन यदुत्पन्नं श्रद्धानं तदुपदेशनामकं सम्यग्दर्शनं भएयते ३ मुनीनामाचारसूत्रं मूलाचारशास्त्रं श्रुत्वा यदुत्पद्यते तत्सूत्रसम्यक्त्वं कथ्यते ।। ४ ।। उपलब्धिवशाद् दुरमि निवेश विध्वंसार निरुपमोपशमाभ्यन्तरकारणाद् विज्ञातदुर्व्याख्येय जीवादिपदार्थवीजभूतशास्त्रायदुत्पद्यते तद्वीजसम्यकरणं For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६६ : जैन तत्त्व मीमांसा की । ५ । तवार्थसूत्रादि सिद्धान्तनिरूपदार्थान् संक्षेपेण प्ररूप्यते पितजीवादिद्रव्यानुयोगद्वारे ज्ञात्वा रुचि चकार यः स संक्षेपसम्यक्त्वः पुमानुच्यते ६ द्वादशांगश्रवणेन यज्जायते तद्विस्तारसम्यक्त्व प्रतिपाद्यते ७. अंगवाश्रुतक्तात् कुतश्चिदर्थादङ्गवाश्रतं विनावि यत्प्रभवति तत्सम्यक्त्वमर्थसम्यक्त्वं निगद्यते अंगान्यङ्गवाद्यानि च शास्त्राप्यधीत्य यदुत्पद्यते सम्यक्त तदवगाढमुच्यते ६ यत्केवलज्ञानेनार्थानवलोक्य सद्दटर्भवति तस्य परमावगाढसम्यक्त्वं कथ्यते १० | I उपरोक्त सब साधन सम्यक्त्व प्राप्त करने के निमित्तकारण हैं और व्यवहार स्वरूप हैं । इसलिये व्यवहारका लोप करना या मोक्षमार्गका लोप करना एक ही बात है। क्योंकि सम्यग्दर्शनके प्राप्त किये बिना मोक्षमार्ग बनता नहीं और उपरोक्त कारणों के विना सम्यक्त्व प्राप्त होता नहीं । इसलिये व्यवहारका लोप करना या मोक्षमार्गका लोप करना दोनोंमें कोई अंतर नहीं है रोज हम पूजा करते हैं उसमें देव शास्त्र गुरुकी भक्ति करने से सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक चारित्रकी प्राप्ति होकर संसारका नाश होता है और मोक्षकी प्राप्ति होतो है ऐसा बतलाया है । जिने भक्तिर्जिने भक्तिर्जिने भक्तिः सदाऽस्तु मे । सम्यक्त्वमेव संसारवारणं मोक्षकारां श्रुते भक्तिः श्रुते भक्तिः श्रुते भक्तिः सदाऽस्तु मे । सज्ज्ञानमेव संसारवारणं मोक्षकारणं ॥ For Private And Personal Use Only C Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १६७ गुरौ भक्तिगुरौ भक्तिभक्तिः सदाऽस्तु मे । चारित्रमेव संसारवारणं मोक्षकार | क्या यह कथन असत्य हैं ? कदापि नहीं । समंतभद्राचार्य जैसे तार्किक आचार्यने भी जिनेन्द्रकी भक्तिको सर्वदुःखों को नाश करनेवाली अर्थात् मोक्ष सुख को प्राप्त करानेवाली बतलाई है । "देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःखनिर्हरणं । कामदुहि कामदा हिनि परिचिनुवादाहती नित्यं ॥ रत्नकरंडे || कुन्दकुन्दस्वामीने भी पूजा और दानको गृहस्थोंका मुख्य धर्म बतलाया है। और मुनिराजोंका ध्यान और अध्ययन करना मुख्य धर्म बतलाया है जिससे मोह और क्षोभ परिणामों का नाश हो कर आत्मधर्मकी प्राप्ति होती है। दाणं पूजा मुक्खं सावयवम्मेण सावया तेण विखा । झणझणं मुक्खं जधम्मे तं विणा तहा सो वि ॥११॥ जिलपूजामुखिदाणं करेह जो देह सत्तिरुवेण । सम्माट्ठी साधय थम्मी सो होइ मोक्खमग्गरबो || १२|| रयणसारे अर्थात अपनी शक्ति के अनुसार जो श्रावक दान और पूजा करता है वह मोक्षमार्ग में गमन करता है यह कुन्दकुन्द स्वामीके वचन है जो अध्यात्म रसके रसिक पूर्णज्ञाता थे उनके समय सारादि ग्रन्थोंको पढ़कर आप जैसे विद्वान भी व्यवहार धर्मको लोप करने में परमार्थकी सिद्धिका स्वप्न देख रहे हैं यह बडे आश्चर्य की बात है । For Private And Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६८ जैन तत्त्व मीमांसा की नं धम्म केरिसं हवदि तं तहाशिष्यने पछा-उस धर्मका स्वरूप क्या है। इसके उत्तरमें आचार्य कहते हैं"पूजादिसुवयसहियं पुण्णं हि जिणेहि सासणे भणियं । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणी धम्मो ॥ ८१ टीका-पूजादिषु व्रतसहितं पूजा आदिः एषां कर्मणां तानि पूजादीनि तेषु पूजादिषु व्रतसहितं श्रावक व्रतसहितं पुण्यं स्वर्गसौख्यदायकं कर्म जिनैस्तीर्थकरपरमदेवरपरकेवलीभिश्च हि स्फुटं शासने आहतमते उपासकाध्ययननामन्यङ्ग भणितं कर्तृतया प्रतिपादितं । इदं कर्म करणीमिन्यादिष्टं । यदीदं सर्वज्ञ वीतराग पूजालक्षणं तीर्थकरनामगोत्रवन्धकारणं विशिष्टं निर्निदान पुण्यं पारम्पर्येण मोक्षकारणं गृहस्थानां श्रीमद्भिर्भणितं तर्हि साक्षा. न्मोक्षहेतुभूतो धर्मः क इत्याह-मोहः पुत्रकलमित्रधनादिषु ममेदमिति भावः, क्षोभः परीषहोपसर्गनिपाते चित्तस्य चलनं, ताभ्यां बिहीने रहितः मोहक्षोभविहीन एवं गुणविशिष्ट आत्मनः शुद्धबुद्ध कस्वभावस्य स परिणामो गृहस्थानां न भवति पंचसूनासहितत्वात् ! खंडनी पेषणी चुल्ली उदकुंभः प्रमार्जनी । पंचरना गृहस्थस्य तेन मोक्ष न गच्छति ॥ यदि मोक्षं न गच्छति तदा जिनसम्यक्त्वपूर्वकं दानपूजादिलक्षणं, विशिष्टगुणमुपायन् गृहस्थः स्वर्ग गच्छति परंपरया जिनलिंगेन मोक्षमपि प्राप्नोति । ... सम्यक्त्वकी प्राप्तिका कारणभूतहोनेसे दान पूजादि व्यवहार धर्म को परंपरा मोक्षका कारण बतलाया है । इसलिये उपादेय भी For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा karana..... .. .... wwwwww.xxxxmarmarammarwr-raman .vom. है । इसको सर्वथा हेय समझकर जो छोड वेठते हैं वे संसारमे घोर दुःखाको भोगतेहुये परिभ्रमण करते हैं ऐसा आचार्योंका कहना है। “खय कुट्ठ मूल सूलो लूय भयंदर जलोदर खिसिरो। सीदुराह वाहिराई पूजादाणंतराय कम्मफलं" ३७ "गरइ तिरियाइ दुरई दरिद वियलंगहाणिदुक्खाणि । देव गुरु सुत्थ बंदण सुयभेय मझाइ दाणविषणफलं ३७ रयणसारे अर्थात् दान पूजा स्वाध्याय बन्दना आदि व्यवहारधर्मको हेय वतलाकर उमका निषेध करना विन करना उपरोक्त दुःखोंका कारण हे एसा कुन्दकुन्द स्वामीका कहना है । वे बोधप्राभूतमें कहते हैंमो देवो जो अत्थं धम्म कामं सुदेइ णाणं च । सो देइ जस्म अत्थि द अत्थो धम्मो य पच्चज्जा २४ -बोधप्राभृते ___टीका--- स देवो यो ऽर्थ धन निधि रत्नादिकं ददाति धर्म चारित्रलक्षणं दयालक्षणं वस्तुस्वरूपमात्मोपलब्धिलक्षणमुत्तमक्षमादिदशभेदं सु ददाति । मुष्टु अतिशयेन ददाति । काम अर्धमंडलिक मण्डलिक महामण्डलिक वलदेव वासुदेव चक्रवर्तीन्द्रधरणेन्द्रभोगं तीर्थकरभोगं च यो ददाति म देवः सुष्ठु ददाति ज्ञानं च कंवलं ज्योतिः ददाति । स ददाति यस्य पुरुषस्य यद्वस्तु वर्तते 'असत्कथं दातु समर्थः यस्यार्थो वर्तते सोऽर्थ ददाति यस्य धर्मो वर्तते स धर्म ददाति । यस्य प्रवज्या दीक्षा वर्तते स केवलज्ञानहेतुभूतां प्रव्रज्यां ददाति यस्य सर्वसुखं वर्तते स सर्वसौख्यं ददाति । ऐसा ही अन्य प्राचार्यों का कहना है । For Private And Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७० जैन तत्त्व मीमांसा की "एकापि समर्थेयं जिनभक्ति गति निवारयितु । पुण्यानि पूरयितु दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः" (क्षत्रचूडामणी) एवमर्थं ज्ञात्वा ये जिन पूजन स्नपन स्तवन नव जीर्ण चैत्य चैत्यालयोद्धारण यात्रा प्रतिष्ठादिक महापुण्यं कर्म कर्मविध्वंसक तीर्थकर नामकर्म दायकं विशिष्ट निदानरहितं प्रभावनाङ्ग गृहस्था मंतोऽपि निषेधंति ते पापात्मानो मिथ्यादृष्टयो नरकादि दुःख चिरकालमनुभवन्ति, अनन्तसंसारिगो भवन्तीति भावार्थः । इस कथनसे स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहारका गोप नहीं किया जासकता जो व्यवहारका लोप कर परमार्थकी सिद्धि चाहता है। बह मिथ्यादृष्टि है अनन्त समारी है। ___ आचार्यांने व्यलिङ्गको भावलिगका कारण बतलाया है द्रव्यलिंग व्यवहार स्वरूप है उसके विना भावलिंग होता नहीं यह जैनागमका अटल सिद्धांत है इसलिये व्यवहारके बिना निश्चय होता नहीं। "द्रव्यलिग समास्थाय भावलिंगी भवेद्यतिः। विना तेन न बन्धः स्यान्नानावतधरोऽपि सन। द्रव्यलिंगमिदं ज्ञयं भावलिंगस्य कारणं । तदध्यात्मकृतस्पष्टं नेत्राविषयं यतः ।। इसी प्रकार कुन्दकुन्द स्वामीका भी यही कहना है। देखो भावप्राभत गाथा । पयडहि जिनवरलिंगं अभितर भावदोसपरिसुद्धो। For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा भावमलेण य जीवो वाहिरसंगम्मि मयलियइ । ७०॥ टीका--हे जीव हे आत्मन् प्रगटय जिनवरलिंगं पूर्व जिनवर लिंगं त्वं धर नग्नी भव । पश्चात् कथंभूतो भव आभ्यन्तर भावेन जिनसम्यक्त्वपरिणामेन कृत्वा दोषपरिशुद्धो दोषरहितो भव इदमत्र तात्पय-द्रव्यलिंगं विना भावलिङ्गी सन्नपि मोक्षो न लभत इत्यर्थः शिवकुमारो भावलिंगी भूत्वापि स्वर्ग गतो न तु मोक्षं, जम्बूस्वामिभरे द्रव्यालगी अतिकप्टेन संजातस्तस्मिश्च सति भावा लगेन मोक्षं प्राप । भावमलेनापरिशुद्धपरिणामेन जिनसम्यस्वरहिततया, बाह्यसंगे सति मइलियह मलिनो भवति सम्यक्त्वं विना निर्गथाऽपि सग्रयो भवतीति भावार्थः । स्याद्भावेन मोक्षो द्रव्यलिंगापेक्षत्वात् । स्याद्र्व्यलिंगे मोक्षो भावलिंगापेक्षत्वात्, स्थादुभयं क्रमापितामयत्वात, स्यादवाच्यं युगपद्वक्त मशक्यत्वात् स्याद्भावलिंगं चावक्तव्यं च स्याद् द्रव्यलिगं चावक्तव्य च स्यादुमय चावक्तव्यं चेति सप्तभंगी योजनीया । दृष्टान्तं- पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोचि दधिवतः । अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्वं त्रयात्मकं " अतः कुन्दकुन्दस्वामी कहते हैं कि भावलि के बिना केवल द्रव्यलिंगसे कोधिसमाधिकी सिद्धि नहीं होती । और द्रव्यलिंगके विना भावलिङ्ग होता नहीं । इसलिये द्रव्यलिङ्ग सहित भावलिङ्ग और भावलिङ्ग सहित द्रव्यालङ्ग ही मोक्ष प्राप्तिमें साधनभूत है। "भावेण होइ नग्गो मिच्छत्ताईयं दोस चइऊणं । For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७२ जैन तत्त्व मीमांसा की पच्छा दच्चेण मुणी पयडदि लिंगं जिणाणाए" ७३ __टीका-भावेन परमधर्मानुरागलक्षणजिनसम्यक्त्वेन भवति कीडशो भवति ? नग्नः वस्त्रादिपरिग्रहरहितः कि कृत्वा पूर्व मिथ्यात्वादींश्च दोषांस्त्यक्त्वा मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगलक्षणास्रवद्वाराणि त्यक्त्वा । पश्चात् भावलिङ्गधरणादनन्तरं मुनिदिगम्बरः प्रगटयति स्फुटीकरोति । किं तत् ? लिंगं जिनमुद्रां कया ? जिणाणाए जिनस्याज्ञया जिनसम्यक्त्वेन सम्यक्त्वश्रद्धानरूपेणेति वीजांकुरन्यायेनोभयं संलग्नं ज्ञातव्यं । भावलिंगेन द्रव्यलिङ्ग द्रव्यलिगेन भावलिंगं भवतीत्युभयमेव प्रमाणीकर्तव्यं एकान्तमतेन तेन सर्व नष्ट भवतीति वेदितव्यं । अलं दुराग्रहेणेति । __ अर्थात द्रव्यलिंगके विना भावलिङ्ग होता नहीं और भावलिंग के विना भी केवल द्रव्यलिंग से परमार्थकी सिद्धि नहीं होती इस से यह स्पष्ट सिद्ध होजाता है कि व्यवहार को छोडकर निश्चयसे परमार्थ सिद्ध नहीं होता इसलिये निश्चय या परमार्थ सिद्ध करनेके लिये व्यवहारको शरण लेनी पड़ती है । क्यों क इस के विना परमार्थ सिद्ध नहीं हो सकता यह नियम है । इसलिये व्यवहारको भी परमार्थकी सिद्धिकेलिये करते रहना परमावश्यक 'पापारंभणिवित्तीपुरणारंभे पउत्तिकरणं पि । गाणं धम्मझाणं जिणभणियं सच जीवाणं " १७ रयणसारे । कुन्दकुन्दस्वामी कहते हैं कि पापारंभकी तो निवृत्ति कर के For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १७३ पुण्यारंभकी प्रवृत्ति करनी चाहिये यह सम्यग्ज्ञानका कार्य है इससे धर्मध्यानकी सिद्धि होती है और धर्मध्यान प्राप्त करने में प्रधान कारण है। "धम्मज्माणब्भासं करेह तिबिहेण जाव सुद्धेपण परमप्पझाण चेतो तेणेव खवेह कम्माणि" ३६ रयणसार अर्थात् जबतक शुक्लध्यान की प्राप्ति न हो तवतक धर्मध्यान का अभ्यास करते रहना चाहिये । जो अाज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, और संस्थानविचय भेदरूप है। ___ वह छठे गुणस्थान तक तो सबिकल्प आलम्बन सहित है क्योंकि यहां तक परमाद अवस्था है अतः प्रमत्त अवस्था में निर्विकल्प ध्यान वनता नहीं इस वातको ऊपर बताया गया है । श्रेणी प्रारोहणके पहिले व्यवहारका ही आलम्बन है । वह छूट नहीं सकता। अतः आचार्य कहते हैं कि जो निश्चय व्यवहार रत्नत्रय जान नहीं। सो तप करई अपार मृपा रूप जिनवर कह्यो । "णिच्छय ववहारसरूवं जो रयणत्तयं ण जाणइ सो। जंकीरइ तं मिच्छारूवं सब्वं जिणुदिदै, १२५ रयणसारे अर्थात् निश्चय और व्यवहार रत्नत्रयको जो नहीं जानता है वह मिथ्याष्ट्रि है और उसका तपश्चरणादि सर्व व्रत नियम मिथ्या - है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है अर्थात् व्यवहार रत्नत्रय के विना निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं होती ऐसा जाने विना व्यवहारको ' छोडकर केवल निश्चयकी ( परमार्थ स्वरूपकी) सिद्धि करना जो चाहता है वह अथवा परमार्थके लक्ष विना केवल व्यवहारको ही For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की परमार्थ स्वरूप समझकर व्यवहार में ही तल्लीन रहता है वह भी बहिरात्मा है इसलिये एकको छोडकर एक की सिद्धि नहीं होती यह अटल नियम है । अतः अपने पदस्थ के अनुसार परमार्थकी सिद्धिकेलिये व्यवहारका साधन करते रहना चाहिये । यदि ऐसा न माना जायगा और व्यवहारको हेय ही ममझा जायगा तो फिर व्यवहारधर्मको परंपरा मोक्षका कारण वताकर उसको करने का उपदेश आचार्योंने किसलिये दिया है ! इसलिये यही मानना उचित है कि ___ यथायोग्य क्रिया करे ममता न घर रहे सावधान ज्ञानध्यानकी टहलमें । तेई भवसागरके ऊपर कै तिर जीव जिनको निवास स्यादवादके महल में । श्रावकोंके करने योग्य त्रेपन क्रियाश्रीका वर्णन सर्वज्ञ देवने ही तो किया है ! वह व्यवहार स्वरूप नी तो और क्या है ? "गुणवयतबसमपडिमादाणं जलगालगं अणथमिणं दसणणाणचरिच किरिया तेवणावया भणिया १५३ फिर इसके करनेका निषेध कैसा? अथवा इसके न करने से परमार्थकी सिद्धि कैसी ! जिस प्रकार श्रावकों के पालन करने योग्य त्रेपन क्रियायोंका निरूपण किया है उसीप्रकार मुनिराजों के लिये भी अठाईस मूलगुण आदि पालन करने का आदेश किया है जो व्यवहार स्वरूप है जो छठे मातवे गुणस्थान नक अखंडित स्वरूप है। फिर अनतअवस्था में उसके करनेका निषेध कैमा ? क्या रोगका निदान कर रोगका निश्चय कर लेनेसे और इस दवासे यह रोग नष्ट होगा ऐसा जान लेने मात्रसे रोग नष्ट होता है ? नहीं, रोग नष्ट करने के लिये दवाका प्रयोग करना पडेगा इसी प्रकार जिन जिन कारणोंसे संसार परिभ्रमणका रोग इस जीवको हुआ For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ' www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा 做 है जिससे यह जीव इस प्रकारका दुःख सहन कर रहा है और इस दुखको दूर करने का यह उपाय है। उन उपायोंको जान नेमात्र से संसार परिभ्रमणका रोग नष्ट नहीं हो सकता। रोग नष्ट करने के लिये रोग नष्ट करनेवाले उपायोंको करना पड़गा तव ही वह रोग नष्ट हो सकता है अन्यथा नहीं अर्थात् " कायवाङ्मनः कर्म योगः" "स आश्रवः' इसकेद्वारा तो यह जीव कर्मों को आकर्षित करता है और मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषायोगा बन्धहेतवः” इसके द्वारा यह जीव अपने प्रदेशों के साथ कर्मोंका बन्धकर दुःखी होता है अर्थात् चारों गतियों के दुःखों को भोगता हुआ भ्रमण करता है इस रोगको मिटाने के लिये सुगुरु कहते हैं कि प्रथम तो जो कर्म आनेका कारण है ( अपथ्य है ) उसको हटावो अर्थात् श्रावका निरोधकर संवरकरो “आनवनिरोधः संवरः" इसके बाद बन्धे हुये कमको नष्ट करने के लिये तपरूपी चारित्रको धारण करो | ऐसा करनेसे तुम्हारा संसार परिभ्रमणका रोग मिट जायगा । तो ऐसा जानलेने मात्र से क्या संसार परिभ्रमण करनेका हमारा रोग नष्ट होजायगा ? कदापि नहीं इस रोगको नष्ट करने के लिये चारित्र धारण करना ही पड़ेगा इसी बातको स्पष्ट करते हुये कुन्दकुन्द स्वामीने ग्यणसार में घोषित किया है कि --wa गाणी खवेड कम्मं गाजवलेोदि सुवोलये अरणासी । विज्जो भेज्जमहं जाणे इदि किं स्सदे वाही || ७२ ॥ अर्थात् ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञानवलसे कर्मोंको नष्ट कर देता है ऐसा जो कहता है सो अज्ञानी है मिध्यादृष्टि है क्योंकि विना चारित्र के धारण किये विना केवल ज्ञान वलसे कभी कर्म नष्ट नहीं हो सकता है। जैसा कि रोग और औषधिके जानलेने मात्रसे रोग नष्ट नहीं होता। रोग नष्ट कर देने के लिये औषधिका सेवन For Private And Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की करना पड़ेगा और अपथ्यका सेवन छोड़ना पड़ेगा उसी प्रकार संमार परिभ्रमणका रोग दूर करने के लिये चारित्र धारण करना पडेगा और रोग होनेका कारण मिथ्यात्व अविरतादि कुपथ्य को हटाना पडेगा तव ही संसार परिभ्रमण का रोग इस जीवका नष्ट होसकता है अन्य प्रकारने नहीं फिर व्यवहारका लोप करनेसे परमार्थ की सिद्धि कैसी ? व्यवहारका लोप करनेवाला तो दोनो लोकसे भ्रष्ट ही होगा उसके परमार्थकी सिद्धि तीन काल में कमी नही होगी। परमार्थकी सिद्धि तो व्यवहारके आश्रयसे ही होगी यह अटल सिद्धान्त है इमीलिये आचार्योंने गृहस्थाश्रममें दानधूजादि षट कर्म करने का उपदेश दिया है और मुनिराजोंका घट आवश्यकादि पालन करने का उपदेश दिया है इसका लोप करनेवालोंके परमार्थको सिद्ध होगा या अपरमार्थकी मिद्धि होगी इसके लिये हम क्या कहै इस के लिये तो प्राचार्य स्वयं घोषित करते हैं कि “मदिसुदिणाणवलेण हु स्वच्छंदं बोल्लइ जिणुत्तमिदि। जो सो होइ कुदिट्ठी ण होइ जिणमग्गलग्गरवो ॥३॥ रयणसारे अर्थात् जो मनुष्य मति श्रुत ज्ञानके घमंडमें आकर श्रोजिनेन्द्र देवके द्वारा प्रतिपादित तत्त्वोंको अपने मनकल्पित यद्वा तद्वा प्रतिपादन करता है अथवा आगमके सत्यार्थको छिपाकर मिथ्या कहता है वह मिथ्यादृष्टि है। वह जिनधर्मका पालन करता हुआ भी जैनधर्मसे सर्वथा पराङ मुख है जैनधर्मसे बहिभूत मिथ्या:ष्टि है । ऐसा समझना चाहिये ऐसा कुन्दकुन्दस्वामीका कहना है। आचार्य कहते हैं कि मोक्षरूपी तम् (वृक्ष) के सम्यक्त्वरूपी जड है ( मूल है ) वह निश्चय और व्यवहार स्वरूप है । For Private And Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा "सम्मत्तरयणसारं मोक्खमूलमिदि भणियं । तं जाणिज्जइच्छियववहाररूप दोभेद" ||४|| रयणसारे अर्थात मोक्षrरुके निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकारके सम्यक्त्व मूल कांग्रे जड़ हैं इन दोनू जडों में से एक व्यवहार asar काट देने से क्या मोहरूपी तक पनप सकता है ? कभी नहीं । मोक्षरुकी एक जड काटने वाला दूसरा जडको भी नष्ट करदेता है । अर्थात् निश्चय सम्यक्त्वको प्राप्ति का कारणभूत देव शास्त्र गुरु हैं क्योंकि श्रद्धा भक्ति रुचि विश्वास के faar for area हो नहीं सकता इसलिये देव शास्त्र गुरुकी श्रद्धारूपी व्यवहार सम्यक्त्वका जो लोप करता है वह निश्चय सम्यक्त्वको भी नही प्राप्त कर सकता। क्योंकि काररणके विना कार्य की सिद्धि कैसी ? इसलिये जो व्यक्ति व्यवहारका लोप कर परमार्थकी सिद्धि चाहता है वह अपने ज्ञानकी प्रखरता में जिनागभके अर्थको अन्यथा प्रतिपादन कर “आप डूवंतो पाडीयों ले डूवो जजमान" वाली कहावत चरितार्थ कर दिखाता है । सम्यकदृष्टि या सम्यक्त्वके सन्मुख वही जीव है जो आगमानुकूल वस्तुस्वरूपका प्रतिपादन करता है। जो जिनागम को केवली के वचन मानकर उनपर विश्वास करता है। For Private And Personal Use Only १७७ " पुव्वं जिणेहि भरिणयं जहठियं गणहरेहि वित्थरियं । पुव्वइरियक्कमजं तं बोलई जो हु सदिट्ठी " ॥२॥ रयणसारे अर्थात् जिनागमकी रचना केवली भगवानके वचनानुसार गणधर देवने की और उसके बाद द्वादशांगके अनुसार पूर्वाचार्यों ने अनुयोगोंकी रचना की इस अनुक्रमसे चली आई शास्त्रोंकी Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७८ जैन तत्त्व मीमांसा की रचना उसको जिनराजका कहा हुआ है ऐसा मानकर जो श्रद्धान करता है और उसी के अनुसार वस्तुम्ब रूपया प्रतिपादन करता है वहीं सम्यग्दृष्टि है। व्यवहार धर्मकी पुष्टि करते हुये कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि दान और पूजा करनेवाला आव त्रिलोक पूज्य होना मोक्षसुख की प्राप्ति कर लेता है । देखो रयणसार "पूयाफलेण तिल्लोए सुरपुज्जो हवेइ सुद्धमणो । हाणफलेग तिलोए सारसुहं सुजदे मियदं" ||१४|| "दिपणाइ सुपत्तदाणं विसेमतो होइ नोगसग्गमही। शिव्याणसुहं कमसो सिद्दिष्टुं जिनवंरिदेहिं । १६ ।। "खेत्तबिसेसकाले बविय सुवीयं फलं जहा विउलं । होइ तहा तं जाणइ पत्तविसेसेसु दाग फलं" ॥१७॥ "इह णियसुवित्तवीयं जो बबइ जिणुत्तमत्त खेत्तेसु । सो तिहुवणरज्जफलं भुजदि कल्लाण,पंचफलं" ।१८॥ कुन्दकुन्दस्वामी कहते है कि इस व्यवहारधर साधन जो नहीं करने हैं वह पतंगकी तरह लोभकषायरूपी अग्निमें जलकर भस्म हो जाते हैं : वह बहिर आत्मा है। "दाणु ण धम्मु का चागुण भोगु ण वहिरप्पजो पयंगो मो लोहकमायग्गिमुहे पडिउ मरिउ ण संदेहो" ॥१२॥ रयणसारे दानं न धर्मः न त्यागी न भोगो न बहिरात्मा यः पतङ्गः स लोभकषायाग्निमुखे पतितः मृतः न मन्देहः ।। For Private And Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १७६ अब कहिये शास्त्री जी ! व्यवहारका लोप करनेसे परमार्थको मिद्धि होगी, कि व्यवहारका साधन करनेसे परमार्थकी सिद्धि होगी ? इसत्तिये व्यवहार धर्मा लोप करना महान अनर्थ का मूल है। परमार्थकी निद्धि तो होगी ही नही प्रत्युत अपरमार्थकी ही सिद्धि होगी अर्थात् मिथ्यात्व हो पुष्ट होगा इसमें संदेह नहीं है ____ आचार्य कहते हैं कि त के विना (अनशनादि तपके विना) ज्ञान, और ज्ञानके विना तप दोन्ही अकृतार्थ है कार्यकारी नही हैं इसलिये ज्ञान महित तपश्चरण को जो आचरण करता है वही भव्यात्मा निर्वाण पदको प्राप्त कर सकता है। देखो मोक्षप्राभृत-- -- "तवरहियं जं गाणं गाणविजुत्ता तवो वि अकयत्थो। तम्हा णाण तवेण संजुत्तो लहइ णिव्याणं" ॥५६॥ ___ इससे स्पष्ट सिद्ध है कि परमार्थकी सिद्धि, विना व्यवहार 'साधनके नहीं हो सकती है जो लोग समयसारादि अध्यात्म ग्रंथों को पढकर व्यवहारको हेय बताकर व्यवहारसे पराङ मुख होते हैं वह बहिरात्मा हैं । क्योंकि कुन्दकुन्दस्वामीका ध्येय व्यवहारको हेय बताकर व्यवहार को छुडानेका नहीं हैं । यदि उनका ध्येय व्यवहार को छुडानेका होता तो वे व्यवहारकी पुष्टि इसतरह क्यों करते कि विना व्यवहार के परमार्थकी सिद्धि नही होती इसलिये मानना पडेगा कि कुन्दकुन्द स्वामीका ध्येय व्यवहारका लोप करनेका नहीं था । यदि यहांपर कोई यह तर्क करे कि उनका यदि व्यवहारको छुडानका ध्येय नहीं था तो उन्होंने व्यवहारको हेय अथवा 'सत्यार्थ क्यों वतलाया ? इसका समाधान यह है कि आत्मोपलब्धी जो परमार्थभूत है वह तो आत्मामें ही होगी For Private And Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८० जैन तत्त्व मीमांसा की क्योंकि उस का उपादान कारण आत्मा ही है वाह्य द्रव्य नहीं वाह्य द्रव्य तो वाह्य ही है वह केवल निमित्त कारण | अतः निमित्त कारणां कोई उपादान कारण न मान बैठे इसलिये वाह्य निमित्त कारणों को आत्मस्वरूप से भिन्न मनाने केलिये व्यवहारको हेय बतलाया है, न कि व्यवहार के साधन बिना भी आत्मोपलब्धि होजाती है इसलिये व्यवहारको हेय बतलाया है। आत्मोपलब्धि विना व्यवहारके होती नहीं, यह नियम है। इस. कारण आचार्योंने कारणका कार्य में उपचार कर व्यवहारका उपादेय भी बतलाया है। देव शास्त्र गुरु यद्यपि श्रात्मासे भिन्न हैं परस्वरूप हैं तथापि उनके निमित्तसे परणामों में विशुद्धि कर परमार्थ की सिद्धि होजाती है इस कारण देव शास्त्रगुरु पर होनेपर भी उपादेय हैं परमार्थम् रूप मोक्षमार्ग उन्ही देवशास्त्र गुरुके द्वारा उपदिष्ट है अतः उनके बताये हुये मोक्षमार्ग में चलनेसें ही इस जीव की परमार्थरूप सिद्धि होता है और उस मोक्षमार्ग में चलना यही तो व्यवहार है। उस मोक्षमार्ग में गमन किये विना क्या किसी जीवने मोक्षस्वरूप परमार्थ की सिद्धि की है ? कदापि नहीं फिर उस मोक्षमार्ग में गमन करने रूप व्यवहार का लोप करनेसे परमार्थकी सिद्धि का आप जो स्वप्न देखते हैं वह स्वप्रमात्र है मिथ्या है। क्योंकि स्वप्नमें देखो हुई वस्तु आंख खुलने पर ( निद्रा दूर होने पर ) अदृश्य हो जाता है उसका अस्तित्व कुछ भी दिखाई नहीं देता। उसी प्रकार व्यवहार के लोप में परमार्थकी सिद्धिका श्रापका स्वप्न निःसार है। आप की मोहरूपी निद्रा दूर हो जाने पर आपको भी व्यवहारके ले प में परमार्थका सिद्धिका अस्तित्व दिखाई नहीं पड़ेगा "प्रत्येक द्रव्यकी अपनी प्रत्येक समयकी पर्याय अपने परिणमन स्वभावके कारण होनेसे क्रम नियमित For Private And Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १८१ ही होती है । निमित्त स्वयं व्यवहार है इसलिये उसके द्वारा वह आगे पीछे की जा सके ऐसा नहीं है। उपादानको गोणकर उपचरित हेतु वश उसमें आगे पीछे होनका उपचार कथन करना अन्य बात हैं " ऐसा जो आपका कहना है यह भी जैनागमके सर्वथा विरुद्ध है। क्योंकि धर्म द्रव्य अधर्म द्रव्य आकाशद्रव्य और कालद्रव्य इनमें वैभावकी शक्ति नहीं है । इनमें स्वाभाविकी शक्ति ही है इसलिये ये चार द्रव्य परनिमिससे विभावरूप परिणमन नहीं करते क्योंकि उनमें विभावरूप परिणमन करने की वैभाविकी शक्ति ही नहीं है जो पनिमित्त मिलनेपर वह विभावरूप परिणमन करजाय । उनमें तो "उपादानको गौणकर उपचरित वश उनमें आगे पीछे होनेका उपचार करना अन्य बात है" यह संभव ही नहीं, जो उपचरित चश उपादानको गौणकर कुछ कहा जाय । क्योंकि उनकी पर्याय उनमें अपने स्वभावरूप ही होती हैं, उनमें आगे पीछेका कोई मवाल ही नहीं है । किन्तु इतनी वात जरूर है कि उनका परिणमन अपने स्वभावमें होनेपर भी क्रम नियमित ही हो सो भी नियम नहीं है क्योंकि उनमें भी षट्गुण हानि वृद्धि रूप परिणमन हर समयमें होता ही रहता है और वह सर्वथा कमवद्ध ही होता है ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि षटगुण हानी वृद्धि अक्रमवद्ध भी होजाती है । जैसे कि पहिले समयमें संख्यातगुणी वृद्धि हुई तो दूसरे समय में एक अंश अधिक वृद्धि ही होगी या हानि नहीं होगी सा नियम नही हैं। दूसरे समयमें असंख्यात से अनन्तगुणी हानि वृद्धि भी हो सकती है अथवा संख्यात असंख्यात्त अनन्तभाग हानि वृद्धि भी हो सकती हैं। इसलिये इन धर्म द्रव्य अधर्मद्रव्य For Private And Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . ... ... .. ................................... ...... १८२ जैन रत्व मीमां की आकाशद्रव्य और कालद्रव्यमें स्वभावपरिणमन भी सर्वश्रा क्रम नियमित हो होता है ऐसा मानना अनुचित है। . इस प्रकार सिद्धों में भी स्वाभाविक परिणमन क्रमवद्ध अक्रमवद्ध रूपसे ही होता है। उनमें भी क्रमवद्धका नियम नहीं है। और कालद्रव्यका निमित्त सवमें है ही । संसारी जीव द्रव्या और पुद्गल द्रव्यका परिणमन स्वभाव होनेपर भी इनमें वैभाबकी शक्ति के कारण विभावरूप ही इन का परिणमन होता रहता है इस कारण इनको जैसा निमित्त कारण मिलजाता है । वैसा वह परिणमन कर जाता है इसमें क्रमबद्धका सवाल ही उत्पन्न नही होता । क्योंकि ये दोनू द्रव्य स्वतंत्र होनेपर भी वैभावकी शक्ति के कारण ये परतंत्र भी हैं। बद्ध अवस्थाम स्वतंत्र नहीं हैं परतंत्र ही हैं उनको स्वतंत्र शक्तिकी अपेक्षासे कह सकते हैं किन्तु व्यक्तिकी अपेक्षा तो परतंत्र ही हैं । जो परतंत्र है वह क्रमबद्ध अपने स्वभावरूपमें परिणमन नही कर सकता। जैसे जेली जेल में रहनेवाला मनुष्य परतंत्र है वह अपने इच्छा. नुसार कोई भी कार्य नहीं कर सकता है उनको तो जैलर की आज्ञानुसार ही कार्य करना पड़ता है इसी प्रकार संसारी जीव चारगति रूपी जेल में पड़ा हुआ है। उसको तो कर्मरूपी जेलर के उदयानुसार ही कार्य करना (परिणमन करना) पडेगा । वह स्वतंत्र कुछ भी नहीं कर सकता । इसीलिये प्राचार्योन उस जेल के तोड़नेका उपाय बतलाया है । यदि उन उपायोंसे संसार रूपी जेल तोडकर यह जीव निकलना चाहे तो निकल सकता है। ___ यदि वह संसार रूपी जेलमे पडा हुआ जीव उन उपायोंको काममें नहा लाकर क्रमनियमित पर्यायक विश्वासमें बैठा रहे तो क्या वह संसार रूपी जैलसे पार हो सकता है ? कभी नहीं । यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो सब शास्त्र और जिनेन्द्रके वचन For Private And Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १८३ मर्व मिथ्या सिद्ध हो जायगे । क्योंकि क्रम नियमित पर्यायका जब नम्बर आवेगा तव स्वयमेव यह जीव मोक्षमें पहुंच जावेगा उसके लिये प्रयत्न करनेकी । पुरुषार्थ करनेकी ) जरूरत ही नहीं रहनी । परन्तु ऐसा हो नहीं सकता इसलिये ऐसा मानने वालोंको श्राचार्यों ने मिथ्यादृष्टि वतलाया है । देखो समयसार। .. "वन्ध बढ़ावे अंध व ते आलसी अज्ञान । मुनि हेत करनी करे ते नर उद्यम बान" जो मनुष्य क्रमबद्ध पर्यायकी माता पर विश्वास कर मुक्ति प्राप्त करनेके लिये उद्यन ( पुरुषार्थ) नहीं करता है वह आलम है अज्ञानी है । मुक्ति पानके लिये जा उद्यम करता है वह पुरुषार्थी सम्यग्दृष्टि है । अतः क्रमबद्ध . पाय । मान्यता सत्य समझ कः निर उद्यमी नहीं होना चाहिये। . ससारी जीवों की क्रमाद्ध पर्याय नहा हाती इसका एक नहीं अनेक उदाहरण प्रत्यक्ष देखने में आते है । उसका न मानना यही तो अज्ञानता है । मैन मंदिर जानेका विचार किया और जानेके लिये प्रस्तुत भो होगया तथा क्रमबद्ध चलना भी आरंभ कर दिया पर वाच ही में ऐसा कर्म का उदय आया कि किमीने छातीमें छुरा भोंक दिया अथवा लडखडा मार गिरगया जिससे वेहोश होगया । मुझे बेहोशीको हालतमें अस्पताल लेगये । यदि कहाजाय कि उस समय ऐमाही होना था मा हुआ इसीका नामही तो कमबद्ध पर्याय है। किन्तु ऐमा मानना ही तो नियतिवाद पाखंड है। देखो गोमट्टमार कर्मकांड "जत्त जदा जण जहा जस्स य णियमेण होदि तत्त तदा तेण तहा तस्स हवे इदि वादो णियदिवादो हु" ८८२ ___ अर्थात जो जिसकाल जिसकरि जैसे जिसके नियम करि है सो तिसकाल ताहिकरि तैसे तिस हो के होय है ऐमा नियमकरि For Private And Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की ही मवको मानना सो नियतिवाद पाखंड है। इसलिये संसारी जीवोंकी क्रम बद्ध पर्याय मानना ही मिथ्यात्व है । क्योंकि संसारी जीवोंका पंच प्रकार परावर्तन अक्रमवद्ध ही पूर्ण होता है । .मबद्ध नहीं होता। ऐसा नियम नहीं हैं कि जो क्षेत्र परिवर्तन करेगा बह आकाशके प्रदेशों में क्रमवद्ध जन्ममरण करेगा किन्तु कभी कहीं कभी कहीं जन्ममरण करता है । इसीप्रकार अन्य पर लेनों में समझ लेना चाहिये। यदि आप कहैं कि हम तो द्रव्यमें स्वभावसे होनेवाले परिणमन स्वभाव द्वारा होनेवालो द्रव्य की प्रत्येक समयकी पर्यायको नियमित रूपसे मानते हैं। यह आपका बल है क्योंकि प्रत्येक द्रव्य परिणमनशील है वह अपने परिणमन स्वभावसे प्रत्येक समय में परिणमन तो करेगा ही इसमें विवाद ही किसको है । क्योंकि द्रव्यका लक्षण-सत किया है। “सत् द्रव्यलक्षणं २६ और सत्तका लक्षण "उत्पादव्ययधोव्यायुक्त सत् । ३. ऐसा किया है। इसलिये प्रत्येक द्रव्यमें प्रत्येक समय उत्पाद व्यय और धौव्यपना अनिवार्य है इसमें किसीको विवाद नहीं है । विवाद है नियमित क्रमबद्ध पर्यायकी पलटन में । संसारी जीवोंकी जो विभावरूप पर्याय है वह कर्माधीन होनेसे क्रमवद्ध नहीं होती इसको क्रमवद्ध मानना ही अज्ञानता है य पक्षपात है । कानजीके मतका पोषण है। इसविषयमें अधिक लिखनेकी जरूरत नहीं क्योंकि इस विषयमें अनेक विद्वानोंका स्पष्टीकरण हो चुका है। ___ इस उपरोक्त कथनसे निमित्तकी प्रबलता भी सिद्ध हो जाती है । तथा क्रमवद्ध पर्याय का भी नाश होजाता है । तथा वाह्य सामधी एक सी मिलने पर भी सवका समान कोका क्षयोपशम नही होता यह तीन वातें सिद्ध हो जाती है। कारण यह है कि For Private And Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १८५ यदि क्रमवद्ध पर्याय मानली जाय तो पंच परार्वतन संमारका प्रभाव होते देरी न लगे क्योंकि वह क्रमवद्ध उदयमें प्राकर पंचपरार्वतन संसारको खतम करदेगी किन्तु संसारी जीवों की क्रमवद्ध पर्याय नहीं होती इसीकारण जीवका पंचपरावर्तन संसार क्रमवद्ध पूर्ण नहीं होपाता एक एक परावर्तन पूरा करनेमें अनंतानंत काल लग जाना है इसका कारण यही है कि क्रमवद्ध परिवर्तन नहीं होता अनंतकाल पीतने र क्रमबद्धका दूसरा नम्बर आता है। यह बात परावर्तनोंका स्वरूप ममझने से ध्यान में आ जाती है। अतः इसपर अधिक लिखनेकी श्रावश्यकता नहीं समझते। विद्वानोंके लिये इशारा ही काफी है। योग्यता मदा तद्रूप ही रहेगी आत्मामें सदा जानने देखने को योग्यता है तो वह सदा जानत देखता ही रहे । कम या ज्यादा अथवा विपरीत जैमा निमित्त मिलता है विना निमित्तके योग्यता काम नहीं देती। जैसे भाव इन्द्रिय दोय प्रकार है एक लब्धि रूप और दूसरी उपयोगरूप । तहां ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमरूपसे आत्मामें शक्ति होती है सो तो लन्धि कहिये सो तो पांच इन्द्रिय और छठा मनद्वारे जाननेकी शक्ति एक काल तिष्ठे हैं । तथा तिनिको व्यक्तिरूप उपयोगका प्रवृत्ति सो ज्ञेयसू उपयुक्त होय है तब एक काल एक ही सूहोय है ऐसा हो योपशम ज्ञानको योग्यता है। ऐसा स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षामें कहा है । "एक्के काले एगं णाणं जीवस्स होदि उवजुचं। णाणा णाणाणि पुणो लद्धिसहावेण बुर्चति" २६० जब षटगुणहानि वृद्धि के कथनसे ही यह स्पष्ट सिद्ध है कि स्वाभाविक परिणमनमें भी क्रमवद्ध परिणमन असिद्ध है। तव वैभाविक परिमणन क्रमवद्ध हो यह वात कैसे बन सकती है क्योंकि For Private And Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८६ जैन तत्त्व मोमामा की वह परिणमन निमित्तनियत है जैसा जीव और पुदल द्रव्यको निमित्त मिलता है वह उसी रूप परिणमन कर जाता है । इसलिये अशुभ निमित्तों को हटाना और शुभ निमित्तों को मिलाना ऐसा आचार्योंका उपदेश है । यदि मव द्रव्योंका परिशमन क्रमनियमित ही होता तो अशुभनिमित्तोंसे वचनेका और शुभनिमित्तों को मिलानेका जो जैनागमका आदेश है वह निरर्थक ठहरेगा ! क्योंकि क्रमनियमित पर्याय में जिमसमय जीवको मोक्ष होना है उससमय स्वतः जीवकी मोक्षरूप पर्याय होजायगी । उसके लिये प्रयत्न करने की अर्थात् वाद्याभ्यन्तर परिग्रहके त्याग करने तथा मुनिव्रत धारण करनेकी शीत उणादि परिषह महनेकी और ध्यानाध्ययन करनेकी जरूरत ही क्या है ! जब क्रमनियतपर्याय का समय श्रावेगा नब विना प्रयत्नके हो निर्वाण पदकी प्राप्ति नो हो ही जायगी अतः श्राचार्योंने जो मोक्ष के लिये पुरुषार्थ करनेका उपदेश दिया है वह सब निरर्थक ही समझना चाहिये । उन्होंने व्यर्थ में ही अपना समय ग्रंथ रचना करने में खोया और अन्य जीवोंको भी व्यर्थ में मोक्ष प्राप्ति के लिये उदाम करनेमें लगाया । क्योंकि अक्रमवद्धपर्याय तो होगी ही नहीं उनका लो नियन बन्धा हुअा समय है जो क्रमनियतिमें जिस जीवको नर्क जाना है वह चाहे जितना तपश्चरण करे अथवा परिषहोंको सहन करे उससे उसको स्वर्ग मोक्षकी प्राप्ति नहीं होगी उसको तो नर्क ही जाना पड़ेगा । तथा जिम जीवको स्वर्ग जानेका क्रमनियत है वह चाहे जितना पापाचार करे उसको तो स्वर्ग ही मिलेगा । क्यों पंडितजो यही बात है न ? क्योंकि आपके सिद्धान्त से क्रमवद्ध में तो अक्रमबद्ध कुछ होही नहीं सकता इसलिये खाओ पीयो मौज उडाओ व्यर्थमें कष्ट सहन करना तो मूर्खता ही है अतः कानजोस्वमीका अवतार भला ही हुआ जो अनादिकी यह For Private And Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा भूल थी कि पुरुषार्थ करनेसे सुख मिलता है अब यह भूल दूर हागई। लोग समझ गये कि जिस समय जा होना है उस समय वही होगा उसको हटाने के लिये प्रयत्न करनेकी जरूरत नहीं। इसविषयमें आपका यह कहना है कि प्रत्येक उपादान अपनी अपनी स्वतंत्र योग्यता सम्पन्न होता है और उसके अनुसार प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति होती है। तथा इससे यह भी सिद्ध हुआ कि प्रत्येक समयका उपादान पृथक पृथक है इसलिये उनस क्रमशः जो जो पर्यायें उत्पन्न होती है वे अपने अपने काल में नियत हैं वे अपने अपने समय में ही होती है। आगे पीछे नही होतो" इसके उदाहरण स्वरूप प्रमाण आप यह देते हैं कि "जब भगवान ऋषभदेव इस धरणी तल पर विराजमान थे, तभी उन्होंने मरीचि के सम्बन्ध में यह भविष्यवाणी कर दी थी कि वह आगामी तीर्थकर होगा और वह हुआ भी। दूसरा उदाहरण द्वारका-दाह का वे उपस्थित करते हैं । यह भगवान नेमिनाथ को केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद की घटना उन्होंने केवलज्ञान से जान कर एक प्रश्न के उत्तर में कहा था कि आजसे वारह वर्षके अन्त में मदिरा और द्वीपायण मुनिके योगसे द्वारका दाह होगा और वह कार्य भी उनका भविष्य वाणी अनुसार हुआ । इस भविष्यवाणी को विफल करनेकेलिये यादवों ने कोई प्रयत्न उठा नहीं रखा था। परन्तु उनकी भविध्यवाणी सफल होकर हा रही । तीमरा उदाहरण वे श्रीकृष्ण की मृत्युका उपस्थित करते हैं । श्री कृष्णकी मृत्यु भगवान नेमिनाथ ने जरदकुमारके वाणके योगसे क्तलाई थी । जरदकुमारने उसे बहुत टालना चाहा । इस कारण वह अपना घरवार छोडकर जंगल जंगल भटकता फिर! परन्तु अंतमें जो होना था वह होकर For Private And Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की ही रहा ! कहीं भगवान की भविष्य वाणी विफल हो सकती है ! ___ चौथा उदाहरण वे अंतिम शुत केवली भद्रबाहु स्वामी का उपस्थित करते हैं । जव भद्रबाहु बालक थे तव वे अपने दूसरे साथियों के साथ जिस समय गोलियोंसे खेल रहे थे उसी समय विशिष्ट निमित्तज्ञानी एक आचार्य वहां से निकले। उन्होंने देखा कि वालक भद्रवाहुने अपने वुद्धिकौशलसे एकके ऊपर एक इसी प्रकार चौदह गोलिया चढाकर अपने साथी सव बालकों को आश्चर्य चकित कर दिया है यह देखकर आचार्य ने अपने निमित्तज्ञानसे जानकर यह भविष्यवाणा की कि यह वालक ग्यारह अंग और चौदह पूर्वका पाठी अंतिम श्रुत केवली होगा और उनकी वह भविष्यवाणी सफल हुई । पुराणोंमें चक्रवर्ती भरत और चन्द्रगुप्त सम्राट के स्वप्न अंकित हैं वहां उनका फल लिखा हुआ है। तीर्थकरके गर्भ में आने के पूर्व उनकी माताको जो सोलह स्वप्न दिखलाई पड़ते हैं वे भी गर्भमें आने वाले वालकके भविध्यके सूचक माने गये हैं। इसके सिवाय पुराणों में अगणित प्राणीयोंके भविष्य बृतान्त संकलित हैं जिसमें बतलाया गया है कि कौंन कव क्या पर्याय धारण कर कहाँ कहां उत्पन्न होगा यह सब क्या है ? उनका कहना है कि यदि प्रत्येक व्यक्तिका जावन क्रमः सुनिश्चित नहीं हो तो निमित्त शास्त्र ज्योतिषशास्त्र या अन्य विश दज्ञानके अधारसे यह सव कैसे जाना सकता है ? अतः भवि. ध्यसम्बन्धी घटनाओंके होने के पहिले ही वे जानला जातो हैं ऐसा शास्त्रोंमें उल्लेख है । और वर्तमानमें भी ऐसे वैज्ञानिक उपकरण या अन्य साधन उपलब्ध हैं जिनके आधार से अंशतः या पूरीतरहसे भविष्यसम्बन्धी कुछ घटनाओंका ज्ञान किया जासकता है । और किया जाता है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि जिस द्रव्य For Private And Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १६ का परिणमन जिसरूपमें जिन हेतुओंस जव होना निश्चित है वह उसा क्रमसे होता है उसमें अन्य कोई परिवर्तन नहीं करसकता" इस कथन की पुष्टि करते हुये प्रक्चनसारकी गाथा ६६ की टीका अमृत चंद्रसूरीकी उद्धृत का है उसका भावार्थ आपने जो दिया है वह निम्न प्रकार है। __“जिसप्रकार विवक्षित लम्बाई को लिये हुए लटकती · हुई मोतीकी मालामें अपने स्थानमें चमकते हुये सभी मोतियोंमें आगे आगेके स्थानोंमें आगे आगेके मोतियोंके प्रगट होनेसे अतएव पूर्व पूर्व मातियों के अस्तंगत होते जानेसे तथा सभी मातियों में अनुस्यूतिक सूचक एक डारेके अवस्थित होने से उत्पाद व्यय घाव्य रूप त्रलक्षण्य प्रसिद्धिको प्राप्त होता है । उसीप्रकार स्वीकृत नन्यवृत्तिस नवर्तमान द्रव्यमें अपने अपने कालमें प्रकाशमान होने वाली सभी पर्यायोंमें आगे आगेके कालोंमें आगे श्रागेकी पर्यायोंके उत्पन्न होनेसे अतएव पूर्व पूर्व पर्यायोंका व्यय होनेसे तथा इन सभी पर्यायोंमें अनुस्यूतिका लिये हुये एक प्रकारके अवस्थित होनेस उत्पाद व्यय और ध्रौव्यरूप लक्षण्य प्रसिद्धिको प्राप्त होता है । "पृष्ठ १४६, १५०, १६३ जैन तत्त्व मीमांसा । __ आपके इस उपरोक्त कथनस सब जावांका या अन्य पदार्ण की क्रमवद्धपर्याय ही होता हैं ऐसा सिद्ध नहीं होता । क्योंकि सर्व द्रव्य परिणमन शील है इसलिये उनमें परिणमन तो प्रतिसमय होता ही रहता है वह परिणमन चा है. क्रम द्ध हो चाहं यह परिणमन अक्रमबद्ध हो उस परिणमनका प्रतिबिम्ब भगवानके ज्ञानमें या दिव्यज्ञानीयोंके ज्ञानमें पडता ही है इस लिये वे यह कहदेते हैं कि अमुक पदार्थका अम् ममगई ऐना परिणमन होगा यह उनके ज्ञानकी स्वच्छता है इसकारण सर्वपदार्थोंका त्रिकालिकपरिणमन उनके ज्ञानम झलक जाता है इस For Private And Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा का हिसाबसे वे भविष्यवाणी कर देते हैं कि अमुकपदार्थका अमुक समय ऐसा परिणमन होनेवाला है इससे यह वात सिद्ध नहीं होती कि वह परिणमन क्रमवद्ध ही हुआ या अक्रमबद्ध ह। हुआ क्योंकि ऐसा खुलासा कहीं पर नहीं मिलता कि सर्वपदार्थीका परिणमन क्रमवद्ध ही होता हैं अक्रमवद्ध नही होता । जैसा आप अनुमान लगात है कि भगवानके ज्ञानमें भविष्यको बात झलक जाती है इसलिये वे सब परिणमन नियतरूपसे मव द्रव्यों में विद्यमान हैं यदि सव द्रव्योंमें उनका परिणमन नियत. रूपसे विद्यमान नहीं होता तो वे भविष्यवाणामें ऐसा नहीं कर सकते कि अमुक पदार्थका अमुक समयमें अमुक रूपसे परिणमन होनवाला है ऐसा अनुमान लगाना सिद्धान्त शास्त्रीयोंके लिये हास्योत्पादक है : क्योंकि सिद्धान्तका वातको सिद्धान्तशास्त्रा विपरीत प्रतिपादन करे यह विद्वानोंके समक्ष हास्योत्पादक ही है ज्ञानका स्वभाव दर्पणवत् है सो ही अमृतचन्द्रसूरीने पुरुषार्थ सिद्धयु पाय अन्य के प्रथम मंगलाचरणमें कहा है "तज्जयति परंज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायः । दर्पणतल इव सकलाः प्रतिफलंति पदार्थमालिका यत्र। अर्थात् वह परंज्योति ज्ञायक भावस्वरूप चैतन्यमय जयवंत होऊ जिसमे विश्वक सम्पूर्णअनन्तानन्त पदार्थ अपनी अपनी सम्पूर्ण अनन्तानन्त पर्यायोंके साथ युगपत दर्पणकी तरह प्रतिबिम्बत होते रहते हैं । साराश यह है कि जिस प्रकार दर्पणमें पदार्थ झलकते रहते हैं उसी प्रकार केवल ज्ञानमें भी पदार्थ झलका करते हैं यह उस ज्ञानका स्वभाव है । जिस प्रकार दर्पणके समक्ष सम्पूर्ण पदार्थ दर्पणमें यथायोग क्रमवद्ध या अक्रमवद्ध For Private And Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा जैसे होते हैं तैसे झलक जाते है पदार्थोको झलकाना उनका स्वभाव है उम स्वभावमें यह बात नहीं है कि क्रमवद्ध पदार्थोंको ही प्रति विम्बित करे । अक्रमवद्ध पदार्थाको अपने प्रतिविम्बित न करे । उनमें नो सभी तरह के पदार्थ जिस रूपमें क्रमबद्ध या अक्रम बद्ध निष्ठ हो उसी रूपमें झलक जाते हैं। उसी प्रकार सम्पूर्ण अनन्तानन्त पदार्थों की अनन्तानन्त क्रमवद्ध या अक्रम वद्ध पर्यायें केवलज्ञारमें झलक जाती है ऐमा तो नहीं है कि केवलज्ञानमें पदार्थोकी अक्रमवद्ध पर्याय नहीं झलकती क्रमवद्ध पर्याय ही झलकती हैं। उनमें तो मव ही तरहको सम्पूर्ण पदार्थाकी त्रिकालिक पर्यार एक माथ युगपत झलकती रहती है इस कारण केग्ली भगवान भविष्यवाणी कर देते हैं कि अमुक पदार्थका अमुक ममयमें इम रूपमें परिणमन होने वाला है इसपर यह मान लेना कि वह परिणमन क्रमवद्ध ही हुआ है अक्रमबद्ध नहीं हुआ है यह मान्यता सर्वथा आगम विरुद्ध है क्योंकि यदि सर्व पदार्थाका परिणमन क्रमवद्ध ही होता हे तो विपाक निर्जराका एवं कर्मोका उत्कर्षण अपकपण संक्रमणादिकका कथन मिध्या ठहरता है । वली भगवान कहत ह कि जो कालपायकर क्रमवद्ध कर्मोकी निर्जरा होती है उससे तो मंसार ही वढता है आत्मा का कुछ भी हित नहीं होता। किन्तु जो तपके द्वारा अविपाक निर्जरा करता है अर्थात् अक्रमबद्ध निर्जरा करता है वही जीव शिवपदको पाता है इस विषयमें पंडित दौलतरामजी छहढाला में कहते हैं कि - निज काल पाय विधि भरना-तासों निज काज न सरना तपकरि जो कर्म खिपावे, सो ही शिवसुख दरसावे ।। For Private And Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की क्या यह कथन मिथ्या है ? यदि नहीं नो फिर क्रमबद्ध की बात सत्य कैसी ? इस कथनसे स्पष्ट मिद्ध होजाता है कि भगवान ने अपने ज्ञानमें पदार्थाका परिणमन क्रमवद्ध एवं अक्रमवद्ध दोनू रूपमें देखा है। श्रर्थात् सिद्ध जीवोंका परिणमन पर निरपेक्ष होनेसे कथंचित् क्रमबद्ध भी है। किन्तु संसारी जावों का परिणमन पर सापेक्ष होनेस अक्रमबद्ध ही होता है इसी कारण भगवानने तपादिकके द्वारा कर्माको खिपा कर सदा सुखा रहनेका जोवोंको उपदेश दिया है । यदि संसारी जीवोंकी भी क्रमवद्ध पर्याय मान ली जाय तो फिर उपरोक्त भगवानकी वाणी मिथ्या ही सिद्ध होगा और काँकी जदीर्णा, कर्मोंका संक्रमण उत्कर्षण अपकर्षण आदि भी मिथ्या ही सिद्ध होगा एक निकाचित भेद ही सही माना जायगा । वह जिस रूपमें वधा है वह उसी रूपमें उदयमें श्राकर फल देता है । उसमें कमी वेशी नहीं होती। किन्तु इसक सिवाय दूसरी तरह से बन्ध किये हुये कौकी अविपाक निर्जरा भी की जा सकती है और उसमें उत्कपण और अपकर्षण भा हा मकते है। जैसे श्रेणिक महाराजने मातवे नर्ककी श्रायुका बन्ध करके क्षायिक मम्यक्त्व के प्रभावसे पहिले नर्कको जघन्य आयु चोरोसी हजार वर्षकी कर डाली। इसी प्रकार खदिरसार भील ने कागले के मांसका न्याग कर प्रतिज्ञा पर दृढ रहा और आखिर संन्यास पूर्वक मरण कर सौधर्म स्वर्गमें देव हुआ पहिलेके कियेहुये सम्पूर्ण अशुभ कर्मोंका शुभरूप में संक्रमण करदिया । जो अशुभ कर्म नर्कमें दुखरूप उदयमें आते सो वे सब अशुभ कर्म स्वर्गमें सातारूप उदयमें आने लगे। इत्यादिक एक नहीं अनेक आगममें उदाहरण मिलते हैं उनको मन कल्पित मान्यता से मिथ्या (उपचरित) ठहराना सरासर अन्याय है। For Private And Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोक्षा १६३ क्रम नियमित पर्यायकों पुष्टि करने में आपने शास्त्रोंको मिथ्या सिद्ध करनेकी पूरी कोशिस की है जिसका कुछ अंश यहां उद्धरण कर पाठकों के समक्ष रखते है जिससे सिद्धान्तशास्त्रीजी के अभिप्राय का अनायास पता चल जावेगा एक असत्य वात को सत्य सिद्ध करने में एक सौ असत्य बात कहनी पडती हैं तो भी वह सत्य नहीं हो सकती। आपका कहना है कि स्कूल में पढनेवाले छात्रों को सब क्लास में समानरूपसे सव सामग्री मिलती है गुरू भी सब को एक समान मनोयोग देकर पढाता है फिर भी पढनेवाले छात्र समानरूपसे पास नही होते इसमें ज्ञानावरणी कर्मका क्षयोपशम कारण नहीं है. उसमें कारण है उपादानकी योग्यता । देखो जैनतत्त्वममांसा पृष्ठ १५५ "जिस वाह्य साधन सामग्रीको लोकमें कार्योत्पादक कहा जाता है वह सबको सुलभ है और वे पढने में परिश्रम भी करते | फिर वे एक समान क्यों नहीं पढते | यह कहना कि सबका ज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम एकसा नहीं होता इसलिये सव एक समान पढने में समर्थ नहीं होते, ठीक प्रतीत नहीं होता। क्योंकि उसमें भी तो वहीं प्रश्न होता है कि जव सबको एक समान वाह्य सामग्री सुलभ है तब सबका एक समान क्षयोपशम क्यों नहीं होता ? जो लोग वाह्य सामग्रको कार्योत्पादक मानते हैं। उनको अन्तमें इस प्रश्नका ठीक उत्तर प्राप्त करनेकेलिये योग्यता पर ही आना पडता है । तव यही मानना पडता है कि जब योग्यताका पुरुषार्थं द्वारा कार्यरूप परिणत होनेका स्वकाल श्राता है तब उसमें निमित्त होने वाली वाह्य साधन सामग्री भी मिल जाती है ।" For Private And Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ne arear जैन तत्त्व मीमांसा की इस कथनसे पं० फूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री छात्रोंक पढने में पास होने में पास न होने में एक क्लास में पढनेवाले छात्र समानरूपसे न पढने में ज्ञानावरणाकर्मका क्षयोपशम नहीं मानते । किन्तु वे उनकी योग्यतापर निर्भर करते हैं ! उनका यह भी कहना है कि "मोहनीयकर्मके क्षयसे तथा ज्ञानावरण दशनावरण और अंतराय कर्मक क्षयसे केवलज्ञान होता है यह कथन उपचरित है वास्तविक यह बात नहीं है। अर्थात् तत्त्वार्थसूत्रकारने दसवी अध्या. यमें जो यह बतलाया है कि " मोहक्षयाज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्ष्याच्च केवलम् " यह उपचरित कथन है। ____ "स्पष्ट है कि यहां पर जीवकी केवलज्ञान पर्याय प्रगट होनेका जो मुख्य हेतु उपादान कारण है उसे तो गौण कर दिया गया है और जो ज्ञानकी मतिज्ञान आदि पर्यायों का उपचरित हेतु था उसके प्रभावको हेतु बना कर उम की मुख्यतासे ,ह कथन किया गया है यहां दिखलाना तो यह है कि जब केवलज्ञान अपने उपादानके लक्ष्यसे प्रगट होता है तव ज्ञानावरणादि कमरूप उपचरित हेतुका सर्वथा अभाव रहता है। परन्तु इसे (स्वभावको) हेतु बना कर यों कहा गया है कि ज्ञानावरणादि काँका क्षय होनेसे केवलज्ञान प्रगट होता है यह व्याख्यानी शली है जिसके शास्त्रों में पद पद पर दर्शन होते हैं । परन्तु यथार्थ बातको समझे विना इसे ही कोई यथार्थ मानने लगे तो उस क्या कहा जाय ?" जैनतत्त्वमीमांसा पृष्ठ २० अर्थात् आपकी मान्यतामें “ मोहक्षयाज्ञानदर्शनावरणान्तरायच्याच केवलम् " यह यथार्थ वात नहीं है यह तो उपचरित है जैसा कानजी स्वामी मानते हैं उनका वैसा ही आपका समर्थन है। जैसे योग्यता का वे ढींढोरा पीटते हैं वैसा ही आप योग्यता का ढींढोरा पीटते हैं । कानजी कहते हैं कि-"पेट्रोल For Private And Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १६५ समाप्त होगया इसलिये मोटर रुक गई यह बात सच नहीं है। किन्तु वह अपनी योग्यतासे रुकी है। "सूर्यका उदय हुआ इसलिये धूप होगई यह वात मिथ्या है" वस्तुविज्ञान पृष्ठ ४४ "पति पत्नी ब्रह्मचर्य पालन करते हैं इसलिये पुत्र होनेका निमित्त नहीं मिला यह मान्यता मिथ्या है क्यों कि पुत्र अपनी योग्यतामे ही होगा। वस्तु वि० पृ० ४१ "गुरुके निमित्तमे श्रद्धा-सम्यक्त्व नहीं किन्तु स्वयं अपनी योग्यतासे होती है। "शास्त्रके निमित्त से ज्ञान नहीं होता है किन्तु वह अपनी योग्यतासे होता है लकडीको मेरा हाथ उठाता है तब वह ऊपर उठती है यह ठीक नहीं, लकडी स्वयं अपनी योग्यतासे ऊपर उठती है। वस्तुवि० पृष्ठ ३६ क्या इसे श्रुतकेवलीका वचन कहें या मतवालेकी वहक ? पुरुषके संयोग बिना ही पुत्र अपनी योग्यतासे स्वयं स्त्रीके टपक जायगा ? अथवा लकडीको उठाये विना स्वयं अपने आप अपनी योग्यतासे ऊपरको उठ जायगी ? अथवा पेट्रोलके विना भी अपनी योग्यतो से ड्राइवरके चलाये विना भी मोटर चलने लग जायगी अथवा सूर्यके विना भी अपनी योग्यतासे स्वयं धूप होजायगी ? अथवा अनादि मिथ्या दृष्टि जीवके अपनी योग्यतासे विना गुरु उपदेशके सम्यक्त्वको प्राप्ति स्वयमेव होजायगी ? कदापि नहीं For Private And Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्व मीमांसा की कानजीस्वामीको तो जैनसिद्धान्तका रंचमात्र भी बोध नहीं है इसकारण वे अपनी समझके अनुमार सिद्धान्तके विषगमें अंड. घंड भी लिख सकते हैं परन्तु एक जीनसिद्धान्तके ज्ञाता सिद्धान्तशास्त्री विद्वान यदि 'जनतत्व मीमासा' करते समय यह लिखे कि भगवान महावीरम्वामीकी दिव्यध्वनि ६ दिन तक अपनी योग्यतासे नहीं खिरी अथवा भगवानमें लोकान्त तक ही जाने की योग्यता थी इस कारण भगवान लोककं अन्ततक हो जाते है इसमें धर्मास्तिकायके अभावका कारण नहीं है । जो शास्त्राम लिखा है कि "धर्मास्तिकाथाभावात् " अथवा श्रा जयवला में वरिसेन भगवानन जो यह लिखा है कि-- "दिव्वज्झुणीए किमट्ठ तत्थापउत्तो गांणदाभावादो। सोहम्मिदण ततक्खणे चव गणिदो किरण ढाइदा ण काललद्ध ए विणा असहेज्जस्सदविदस्म तड्ढोयणसत्ताएअभावादो" सो सब उ५परित ही है ! उपचारतका आप जा लक्षण करत है वह ऊपर उद्धृत किया जा चुका है तो भी उनक दिय हुयं उदाहरण यहा पर और भी उद्धृत कर देते है जिससे मालुम होजाय कि उपराक्त कथनको आप सही नहीं मानरह है। "एक द्रव्य अपना विवक्षित पर्याय द्वारा दूसरे द्रव्यका कर्ता है और दूसरे द्रव्यका वह पयोय उसका कम ह” अर्थात् कुम्भकार मिट्टीक घटका का है आर मिट्टाका घटरूप पयाय कुमकारका कर्म है यह दोनू हा वात असत्य है क्योकि मिट्टीस पट बनता है उसमें कुभकारका कुछ भी अंश नहीं मिलता इसलिय घटका कर्ता मिट्टी है कुभकार नहीं। तथा घटरूप पर्याय मिट्टी की है इसलिय मिट्टी का वह घटरूप कर्म है । For Private And Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा इसको कुभकार का कहना यहाँ उपचरित है मिथ्या है इसी प्रकार कंवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण जीवका उपादान है। मोहादिक कदयका कारण नहीं जो उनमें मोहादिक कर्मों के क्षयका कारण कहा गया है वह उपचरित है अथवा धर्मास्तिकायके अभावसे भगवान लोकाकाशके आगे गमन नहीं करते यह भी कथन उपचारत ही है क्योंकि धमास्तिकाय तो पर है परके अभावी स्व का गमन नहीं रुक सकता स्वका गमन अपनी योग्यतान हो सकता है अतः भगवान लोकाकाशके आगे गमन नहीं १.रते इसमें कारण भगवानको योग्यता है : अर्थात् लोकाकाशके आगे जाने की उनमें योग्यताही नहीं है । इसीप्रकार भगवान महाबीरस्वाम वि. दिव्यध्वनि ६६ दिनतक न खिरी उसमें गणध. * का अभाव कारण नहीं है किन्तु इतने दिनतक उनमें दिव्यध्वनि करनेको योग्यता ही नहीं थी इसी कारण ६६ दिन उनकी दिव्यअनि नहीं खिरी क्योंकि द्रव्यमें समय : कीबोग्यता भिन्न २ है इसलिये समय समय का कार्य भिन्न भिन्न होता है । ऐसा पंडितजीका कहना है। "इसप्रकार इतने विवेचनसे यह सिद्ध हुआ कि प्रत्यक उपादान अपनी अपनी स्वतंत्र योग्यता संपन्न होता है और उसके अनुसार प्रत्यक कार्यकी उत्पत्ति होती है । तथा इससे यह भी सिद्ध हुआ कि प्रत्येक समयका उपादान पृथक पृथक् है इसलिये उनसे कमशः जो जो पर्याय उत्पन्न होती हैं वे अपने अपने काल. नियत हैं। वे अपने अपने समयम ही होती है। आगे पीछे नहीं होतो " जैनतत्त्व मीमासा पृष्ठ १६२ । इसके कान का सारांश यह है कि भगवान महावीरस्वामाके उपादानमें ३६ दिन तक दिव्यध्वनि खिरनेकी योग्यता नहीं था इसलिये उनको ६६ दिन गणधरका योग न मिला । अथवा For Private And Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जन तत्त्व मीमांसा की आपका यह भी कहना है कि द्रव्यमें पर्याय नियत है वह क्रमशः जिसकालमें उदय में प्रानेवाली हैं उसीकालमें वह उद. यमं आती हैं आगे पीछे नही इसलिये बह क्रमबद्ध है इसके सम्बन्धमें प्रवचनसारकी ६६ वीं गाथा की टीकाका प्रमाण भी दिया है। कि-- ___ "जिसप्रकार विवक्षित लम्बाईको लिये हुये लटकती हुई मोतीकी मालामें अपने अपने स्थानमें चमकते हुये सव मोतीयोंमें आगे आगेके स्थानों में आगे आगेके मोतियोंके प्रगट होनेसे अतएव पूर्वपूर्व के मोतियोंके अस्तंगत होते जानेसे तथा सभी मोतियोंमें अनुस्यूतिके सूचक एक डोरेके अवस्थित होनेसे उत्पाद व्यय धौव्यरूप लक्षण्यप्रसिद्धिको प्राप्त होता है । उसी प्रकार स्वीकृत नित्यत्तिसे निवर्तमान द्रव्यमें अपने अपने कालमें प्रकाशमान होनेवाली सभी पर्यायों में आगे आगेके कालोंमें आगे आगेकी पर्यायोंके उत्पन्न होनेसे अतएव पूर्वपूर्वपर्यायोंका व्यय होनेसे तथा इन सभी पर्यायोंमें अनुस्यूतिको लिये हुये एक प्रवाहके अवस्थित होनेसे उत्पाद व्यय और ध्रौव्य त्रैलक्षण्य प्रसिद्धिको प्राप्त होता है। " इसका स्पष्टीकरण करते हुये आप और लिखते हैं वहते हैं कि___ "इसको यदि और अधिक स्पष्ट रूपसे देखा जाय तो ज्ञात होता है कि भूतकालमें पदार्थमें जो जो पर्याय For Private And Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १६६ हुई थी वे सब द्रव्यरूपसे वर्तमान पदार्थमें अवस्थित हैं। और भविष्यत काल में जो जो पर्याय होंगी वे भी द्रव्यरूपसे बतमान पदार्थमं अवस्थित हैं । अत एव जिस पर्यायके उत्पादका जो समय होता है उसी समयमें वह पयाय .. उत्पन्न होती है। और जिस पयायके व्ययका जो समय होता है उससमय वह विलीन होजाती है। एसी एक भी पर्याय नहीं है जो द्रव्यरूपसे वस्तुमें न हो और उत्पन्न होजाय । और ऐसी भी कोई पयाय नहीं है जिसका व्यय होने पर द्रव्यरूपसे वस्तुमें उसका अस्तित्व ही न हो " पृष्ठ १६४ जैन तत्त्वमीमांसा इसके कहनेका तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार मोतियोंकी मालामें सब मोती अपने अपने स्थानमें चमकते रहते हैं और उनकी गणना करनेसे पूर्व पूर्वके मोतीयोंका व्यय होता जाता है । एवं आगे आगे के मोतियोंका उत्पादन होता जाता है और वह उत्पाद व्यय मालारूपसे वस्तुमें नियत रूपसे मौजूद है और उनका क्रमबद्ध ही उत्पाद व्यय होता है उसीप्रकार सर्ववस्तुमें मोतियोंकी तरह सर्व पयोयें क्रमवद्ध चमकती हुई अवस्थित है । उनका अपने अपने स्वकालमें ही उत्पाद व्यय होता है । इसलिये उनका समय नियत है अर्थात् वस्तुमें भूत भविष्यत और वत मानकालकी सव पर्याय मालामें मोतियोंकी तरह अवस्थित है. वह सब क्रमवद्ध हैं। ऐसा नहीं है कि-भूत भविष्यत और वर्तमानकालकी सव पर्यायें द्रव्य में अविद्यमान हों किन्तु ऐसा मानना सर्वथा जैनागमसे प्रतिकूल है । आप जैसा आशय प्रवचनसारका निकालते हैं वेसा आशय न तो कुन्दकुन्दस्वामका For Private And Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .०० जन तत्त्व मीमामा को ही है और न टीकाकार अमृत चन्द्रसूर का हा है। खचाताना करके आप उनके श्राशयको पलटते है । यह आपकी सम्यग्ज्ञानकी बलिहारी है उनका आशय तो कंवल द्रव्यमें उत्पाद व्यय और धौव्यपणा दिखलानेका है, न कि मालामें मोतियों की तरह वस्तु में भूत भविष्यत और वर्तमान पर्यायांक दिन्नलानेका है ? यदि थोडी देर केलिये हम अापके कहने के बारमार यह मानलें कि पदा में कालिक सर्व पर्यायें विद्यमान रहती हैं तो फिर सिद्धात्मामें और ममारी आत्मामें क्या अंतर रह जायगा जिससे हम उनमें भेद कर सकेंगे? जब सिद्ध अवस्था भी भूत कालीन सर्व अशुद्ध पर्याय विद्यमान है तथा संसार अवस्थामें भविष्यकालीन सर्व शुद्ध सिद्ध पर्यायें विद्यमान है ना तो दोनू अवस्थामें आत्माको अवस्था समान ही होगा । फिर तो सिद्धपद प्राप्त करनेका पुरुषार्थ करना व्यर्थ ही ठहरेगा । इसलियं यातुमें भत भविष्यत् वर्तमान पर्यायें अवस्थित मान कर क्रमबद्ध पर्याय सिद्ध करना सर्वथा आगम विरुद्ध हैं। देखो स्वामिकार्तिकेयानुप्रेा पुष्ठ १३६ गाथा २५३ शंका-द्रव्य विषै पर्याय विद्यमान उपजे हैं कि अविनामात उपजे हैं ? उत्तर"जदि दव्वे पज्जाया वि विज्जमाणा तिरोहिदा संति ता उप्पत्ती विहला पडपिहिदे देवदत्तिव्य ।।२४३॥ स्व० पं० जयचन्दजी की हिन्दी टीका--जे द्रव्यविषे पर्याय हैं ते भी विद्यमान हैं अर तिरोहित कहिये ढके हैं ऐमा मानिये तो उत्पत्ति कहना विफल है । जैसे देवदत्त कपडा ढक्या था ताको उघाड्या तब कहै कि यह उपध्या सो ऐसा उपजना कहना तो परमार्थ नाहीं विफल है। तैसे द्रव्य पर्याय इकीको उघडा For Private And Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २०१ को उपजतो कहना. परमार्थ नाही ताते अविद्यमान पर्यायकी ही उत्पत्ति कहिये। "सव्याण पज्जयाणं अविज्जमाणाण होदि उप्पत्ती । कालाईलद्धीए अणाइणिहसम्मि दन्यम्मि २४४ हिन्दी टोका-अनादिनिधन द्रव्यविषे काल आदि लब्धी करि सर्व पर्यानिकी अविद्यमानकी ही उत्पत्ति है। भावार्थ-अनादिनिधन द्रव्यविषे काल आदि लन्धि करि पर्याय अविद्यमान कहिये अणती उपजे है ऐसा नाही कि सर्व पर्याय एक हो समय द्रव्यविषे विद्यमान हैं ते ढकते जाय हैं समय समय क्रमते नवे नवे ही उपजे हैं। द्रव्य त्रिकालवर्ती सर्व पर्यायनिका समुदाय है काल भेद करि क्रमते पर्याय होय हैं। इस कथनसे यह स्पष्ट सिद्ध होगया कि द्रव्यविषे त्रिकालवी सर्व पर्यायें विद्यमान नहीं हैं। अविद्यमान ही समय समय प्रति नवीन ही उपजे हैं और विनसे है । यदि ऐसा न माना जाय तो पदार्थ विषे उत्पाद व्यय को सिद्धि ही नहीं होती । उत्पाद व्यय का अर्थ ही यह होता है कि वर्तमान पर्यायका नाश उत्तर पर्याय की नवीन उत्पत्ति जैसे घट पर्यायका व्यय और कपाल पर्याय की उत्पत्ति । घट और कपाल ये दोनू ही अवस्था मिट्टीको है। तो भी कपाल पर्याय में घट पर्याय विधमान नहीं है । तथा भागामी कपालपर्यायका नाश होकर उसकी दूसरी जो पर्याय होगी वह भी कपाल (खपरा) पर्याय में या उस मिट्टी में विद्यमान नहीं है । ऐसे ही आत्मा में मनुष्य पर्याय मौजूद रहते उस मात्मामें आगे पीछेकी पर्यायें मौजूद (विद्यमान) नहीं रहती किन्तु काललब्धि आदिका जैसा निमित्त कारण मिल जाता है। सासरूप उत्तर पर्याय उत्पन्न हो जाती हैं। यह वात ऊपर में दिये For Private And Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मोमांसा की गये प्रमाणोंसे अच्छी तरह सिद्ध होजाती है जब द्रव्यमें नियतरूपसे पर्याय मौजूद नहीं हैं और उसमें काललब्धि श्रादिके निमित्तानुसार नवीन नवीन ही उत्पन्न होती रहती है तब काललब्धि आदि निमित्तोंके अनुसार उत्पन्न होने वाली नवीन नवीन पर्यायोंको नियत रूपसे क्रमबद्ध मानना मवेथा मिथ्या है । इस विषय आपने जो प्राप्तमीमांसा का तथा बाट सहस्रीका प्रमाण दिया है वह आपकी मान्यताका पोषक नहीं है उससे ग्रह वात सिद्ध नहीं होती कि मालामें मोतियों की तरह भूत भविष्यत और वर्तमानकी सर्व पर्याय द्रव्यमें श्रावस्थित रहती है । उनसे तो यही वात ध्वनित होती हैं कि यदि पर्याय असत् है तो द्रव्य भी असत् है। क्योंकि पर्याय द्रन्यकी ही है द्रव्यको छोडकर वह कोई अलग पदार्थ नहीं है। जव पदाथ नित्य है तव उसका परिणमन भी नित्य है । यदि ऐसा न माना जायगा तो आकाशके कुसुमवत् अमत् पर्यायकी उत्पत्ति भी नही होगी। इसहाल में कोई कार्य भी नहीं बनेगा । इसलिये जिसप्रकार पदार्थ नित्य है उसीकार उसका परिणमन भी नित्य है । अर्थात् पदार्थ कोई भी अपरिणामी नहीं है। पदाथका परिणमन है वही तो पर्याय है अतः परिणमन कहो या पर्याय कहो एक ही बात है जो लोग द्रव्यको अपरिणामी मानते हैं उनका यहां निषेध किया गया है न कि क्रमवद्ध पर्यायकी .. सिद्धिमें समंतभद्रस्वामीने तथा विद्यानन्दीस्वामीने समर्थन किया है ? कदापि नहीं, देखो उनके वाक्य ।। "यद्यसत् सर्वथा कार्य तन्माजनि खपुष्पवत् । मोपादाननियमो भृन्माश्वासः कार्यजन्मनि ।। आप्त मीमांसा For Private And Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा .. २८३ "स हि द्रव्यस्य वा स्यात्पयोयम्य वा ? न तावद् द्रव्यस्य नित्यत्वात् । नापि पर्यायस्य द्रव्यरूपेण धोव्यात् । तथाहि-विवादापन्न मण्यादो मलादिपायार्थतया नश्वरमपि द्रव्यार्थतया ध्रुवम् सत्त्वान्यथानुपतेः " इनमें ऐसा कौनसा शब्द है जिसके आधार पर हम यह मान लें कि द्रव्यमें मालामें मोतियोंकी तरह पर्यायें अवस्थित हैं। यहां तो उत्पाद व्यय की सिद्धि में पर्याय को द्रव्यसे सर्वथा भिन्न माननेवालोका खंडन है क्योंकि सर्व वस्तु अन्वय रूपकार द्रव्य है सो ही विशेष करि पर्याय हैं इस लिये विशेषकर द्रव्य भी निरंतर उपजे विनसे है । अर्थात अन्वयरूप पर्यायनि विपे सामान्य भावको द्रव्य कहिय तथा विशेष भावको पर्याय कहिये । अतः विशेष रूपकार द्रव्य भी उत्पाद व्ययरूप होय है क्यों कि पर्याय व्यसे जुदी नहीं होती इसलिये अभेद विवक्षासे द्रव्य ही उपजे विनसे है, भेद विवक्षाते जुदे भी कह सकते हैं । पर ऐसे जुड़े नहीं है जैसे मालाके अंदर मोती जुदे जुदे अवस्थित है। "अण्णइरूवं दव्वं विसेसरूवो हवेइ पज्जावो । . दव्वं पि विसेसेण हि उप्पज्जदि मस्सदे सददं २४० द्रव्यमें उत्पादव्ययका स्वरूप - "पडिसमयं परिणामो, पुच्वो णस्सेदि जायदे अण्णो । वत्थुविणासो पढमो उववादो भएणदे विदिओ २३० स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा । अर्थात् जो वस्तुका परिणाम समय समय प्रति पहले तो विनसे है अरु अन्य उपजे है सो पहिला परिणामरूप वस्तुका तो नाश है-व्यय है । पर अन्य दूसरा परिणाम उपजा ताकू, For Private And Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०४ जैन तत्त्व मीमांसा की उत्पाद कहिये । ऐसे व्यथ उत्पाद जानना। . इस कथनसे तो नियतिपर्यायका खंडन ही होता है। समर्थन नहीं । आप जो यह कहते हैं कि लड़कों के पास होने न होने में ज्ञानावरणीचकमके क्षयोपशम का कारण नहीं है । तथा प्रात्मा. में केवलज्ञान उत्पत्ति में मोहादि कर्माके क्षयका कारण नहीं है। उनका कारण उनकी योग्यता ही है। किन्तु यह बात जैनागमसे सर्वथा विरुद्ध है-यह कानजी के नवीन मतका पोषण है। आचार्य तो पुगलकी शक्तिका निरूपण करते यह कहते हैं कि-- "कावि अपुव्या दीसदि पुग्गलदम्बस्स एरिसी सत्ती । केवलषाणसहाओ मिणामिदो जाइ जीवस्स । २११ स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा अर्थात पुद्गलद्रव्यकी कोई ऐसी अपूर्व शक्ति देखिये है। जो जीवका केवलज्ञान स्वभाव है सो भी जिस शक्तिकार विनश्या जाय है । भावार्थ--अनन्तशक्ति जीवकी है तामें केवलज्ञानकी शक्ति ऐसी है कि जाकी व्यक्ति (प्रकाश) होय तक सर्व पदार्थनिकू एके काल जाने ऐसी व्यक्तिको पुद्गल नष्ट कर है, ना होने दे है । सो यह अपूर्वशक्ति है। इस कथमसे स्पष्ट सिद्ध होजामा है कि मोपनीय, ज्ञानाव. रणीय, दर्शनावरणीय और अंतरराय ये चारों ही करने जीव की अनन्तशक्तिको नष्ट सी कर रखी है इस कारण जीवमें अनन्तदर्शन अनन्तमान अनन्तवार्य और अनन्तसुखका प्रादुर्भाव ही होता इसीलिये आचार्य समयसारके मोक्षद्वारमें घोषित करते हैं कि "ज्ञानावरसीके गये जानिये जु है सुसब, दशनावर.. For Private And Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . ...... . .. समीक्षा गीके गये ते सब देखिये । वेदनीकर्मके गयेवे निराबायरस मोहनीके गये शुद्धचारित्र विसेखिये । आयुकर्म गये अत्रगाहना अटल होय, नामकर्म गयेते अमूर्तिक देखिये। अगुरु अलघुरूप होय गोत्र कर्म गये, अन्तराध मयेते अनन्तवल लेखिये ।। ___ अर्थात् आठोंकमोंने जीवके अष्ट गुण नष्टसे कर रखे थे जब वे आठों कर्म जिस जीवसे अलग हाजाते हैं तब वह जीव अपनी शक्तियोंको प्रकाशमान कर अपने स्वभावमें स्थित हो आते हैं। क्या यह कथन मिथ्या है ? कभी नहीं, भापका यह कहना भी मिथ्या है कि___ "सद्भावरूप ही कारण होता है अभावरूपकारण नहीं होता तथा जिस समय केवल पर्याय प्रगट होती है स समय तो जानावरणादि कर्मों । अभाव ही है और प्रभावको कार्यात्पत्तिमें कारण माना नहीं जासकता। यदि अभावको कार्योत्पत्तिमें कारण माना जाय तो खरविषाणको या भावाशकुसुमको भी कायोत्पत्ति में कारण मानना पड़ेगा। कृष्ट १६ । २० यदि कोई मुर्ख ऐसी बात कहै तो उसपर कोई विचार नहीं आता । किन्तु आप एक सिद्धान्त शास्त्री विद्वान कहला कर भी तध्वशून्य वात कहें तो उसका बड़ा आश्चर्य होता है। क्या 'कार्योत्पत्तिमें पदार्थ का अभाव कारण नहीं पड़ता ? क्या पदार्थ * अभावका निमित्त कारण नहीं होनेसे भी कोई कार्यकी त्पत्ति होती है ? कदापि नहीं । कार्योत्पति में तीन कारण For Private And Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन सत्त्व मामांसा की wr........ मिलनेसे ही कार्यकी सिद्धि होती है। अन्यथा नहीं । यह अटल नियम है। . . अनुकूल उपादान. अनुकूल निमित्त और प्रतिकूल निमित्तका प्रभाव इन तीनकारणोंके मिलने पर ही कार्यनिष्पत्ति होती है इनमें यदि एक भी प्रतिकूल रहै तो कार्योत्पत्ति नहीं होती । जीसे रोगी पुरुष रोगसे दुःखी होरहा है तो उम रोगीको अंतरंग उपादान कारण असाता वेदनी कर्मका नो क्षयोपशम अनुकूल हो तथा उस रोगकी दगई भी रोगनाशक अनुकूल, तथा कुपथ्यका अभाव यह तौन कारण मिलनेसे ही वह पुरुष जो रोगग्रसित था उसका रोग दर होसकता है यदि इन तीन कारणोंमें से एक भी कारण अर्थात् कुपथ्य सेवनका अभाव न होनेसे भी उसका रोग उपादाननिमित्त अनुकूल होनेपर भी नष्ट नहीं होसकता । अथवा मंसारी जीचोंके अन्तरंग सातावेदनीका उदय तथा वाह्य इष्ट मामिग्रीका निमित्त अनुकूल होनेपर भी यदि अनिष्ट संयोगका अभाव न हो तो कोई भी संसारी जीव सुखी नहीं होसकता । इसलिये बाधक कारणका अभाव होना भी कार्योत्पत्तिमें निमित्त कारण पड़ता है। अतः । उसके सद्भावमें कार्योत्पत्ति नहीं होती यह अटल नियम है । इसी कारण सव ही प्राचार्योने एकस्वरूपसे इसवातको घोषित किया ___"मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम ___ यदि इन कर्मोके अभाव विना भी केवलज्ञानकी उत्पत्ति आप जैसे मानते हैं उपादानकी योग्यतासे ही होजाती है तो आचार्याने क्या यह भूठा प्रतिपादन किया है ? कभी नहीं | उपादानकी योग्यता भी वाह्यनिमित्तोंके अनुसार वनतो है इसवातको हम सप्रमाण आगे स्पष्ट करके दिखलावेगे। आपने जो यह अभावकारणको न माननेमे खरविषाणका For Private And Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा और आकाश कुसुमका उदाहरण दिया है वह बिषम है । क्योंकि खरके सींग होते नहीं तथा आकाशके भी फूल लगते नही यह वस्तुस्वभाव है इसको कोई मिटा नहीं सकता और न इसमें कुछ हेर फेर भी किया जा सकता है। किन्तु जिस कारणसे हम वन्धे हुये हैं उस कारणका अभाव होनेसे हम खुलेगे या नहीं ? अवश्य खुलेगे इसलिये खुलने में वन्धका अभाव कारण हुआ या नहीं ? क्या जबतक हम रस्सीसे बंधे रहगें तब तक स्वछंद फिर सकेंगे ? कदापि नहीं। यह बात असत्य है तो ___ "आविद्धकुलाल चक्रवद् व्यपगतलेगलाबुवदेरण्डबीजबदग्निशिखावच्च" यह भी मिथ्या ही सिद्ध होगा जो अभावरूप हेतुसे प्रगट होता है इसलिये कार्योत्पत्तिमें बाधककारण के अभावका भी निमित्त मानना अनिवार्य है । उसको आकाशके कुसुमवत् उडाया नहीं जासकता। ___ यह 'जैनतत्त्वमीमांसा' नहीं है किन्तु कानजी मत पोषण है । इस में केबल कानजीके मतका ही पोषण किया गया है । जैसा वे कहते हैं उसीको घुमा फिराकर आप कहते है। जो जैनागमसे सर्वाथा विपरीत है । जिसप्रकार कानजी कहते हैं कि___ "गुरुके निमित्तसे श्रद्धा (सम्यक्त्व) नहीं होती। किन्तु वह स्वयं अपनी योग्यतासे होती है" शास्त्रके निमित्तसे ज्ञान नहीं होता किन्तु वह अपनी योग्यतासे होता है" वस्तु विज्ञानसार पृष्ठ ३६ ___ यदि केवलज्ञान उत्पन्न होने में आत्माको वज्रवृषभिनाराचसंहनना महायताकी आवश्यकता पडनलगे तो For Private And Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०८ जैन तत्व मीमांसा की जड और आत्मा दोनों पराधीन कहलायेंगे। आत्मधर्म अंक ६ वर्ष १ पृष्ठ १२६. "ज्ञान इंद्रियोंकी सहायता से नहीं जानता है यदि यह माना जाय कि ज्ञान इन्द्रियसे जानता है तो वह मिथ्याज्ञान होगा क्योंकि इस मान्यतासे निमित्त उपादान एक होजाता है, आ० धर्म पृ० ४३ अं० ३ वर्ष १ "केवलज्ञान कभी भी पूर्णतया आवृत ढका हुआ नहीं होता अर्थात् केवलज्ञानका एक भाग तो जीवको चाहे जिस अवस्थाके समय भी खुला होता है । मतिज्ञान केवलज्ञानका अंश होनेसे अंश प्रत्यक्ष है वह अंशी भी प्रत्यचा ही हैं। इस न्यायके अनुसार मतिज्ञानमें केवलज्ञान प्रत्यक्ष ही है । आधा० पृष्ट १११ अंक ७ वर्ष २ इसी प्रकार आप भी कहते हैं कि लडकोंके पढने में पास होने में पास नहीं होने में उनके ज्ञानावरणी कर्मके क्षयोपशमका कारण नहीं है । उसमें लडकोंकी योग्यता अयोग्यता का ही कारण है। जैन तत्त्वमीमांसा पृष्ठ १५० केवलज्ञानकी उत्पत्ति में मोहादिक कर्मोंका क्षय कारण नहीं | क्योंकि जो ज्ञानावरणादिरूप जो कर्मपर्याय है उसके क्षयसे उसकी उत्तर कर्मरूप पर्याय प्रगट होगी कि जीवकी केवलज्ञान पर्याय प्रगट होगी। पृष्ठ १६ आपके कहनेका सारांश यह है कि नाश तो कर्मोंका हुआ For Private And Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा उससे जीवकी केवलज्ञान रूप पर्याय प्रगढ कैसे हुई ? क्योंकि एकके अभाव में दूसरा की कार्योत्पत्ति नहीं होती और निमित्त कारण भी श्रावको नहीं माना जा सकता | परन्तु एकके अभाव में दूसरेकी कार्यालत्ति आमानी होसकती है। और प्रतिकूल कणके अभाव विना कार्योत्पत्ति नहीं होती यह ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है। एक दूसरे की कार्यात्पत्ति में एक नहीं अनेक उदाहारण दिये जा सकते हैं। जिस प्रकार आंख का मोतिया विन्दुको हटाने में दूर करने से दीखने लग जाता है। उसी प्रकार आत्मा के ज्ञान पर ज्ञानावरण कर्मका आवरण आया हुआ था वह दूर होनेसे केवलज्ञान गट होगया जिसप्रकार आंखों के द्वारा देखने योग्यता आत्मामें मौजूद होते हुये भी मोतियाविन्दु आजा आजावेसे आत्मा आंखोंके द्वारा कुछ भी नहीं देख सकता, योग्यता देखनेके लिये अयोग्य हो जाती है । उसीप्रकार आत्मा में केवलज्ञानकी योग्यता शक्तिरूप से विद्यमान रहनेपर भी ज्ञानावरीकर्मका पटल आडा आजानेसे श्रात्मा अपने श्रात्मप्रदेशों के द्वारा देख नहीं सकता । जिसप्रकार आंखोंके ऊपर आया हुआ मोतियाविन्द का पटल आपरेशन द्वारा दूर करनेसे दीखने लग जाता है, उसी प्रकार श्रात्मप्रदेशां पर आया हुआ ज्ञानावरण कर्मका पटल ध्यानाग्नि द्वारा नष्ट कर देनेसे आत्मा अपने प्रदेशों द्वारा देखने में समर्थ हो जाता है ! यह प्रत्यक्ष आंखोंका दृष्टान्त देखने में आता है जो मोतियां विन्दुके अभाव में आंखोकी ज्योति प्रगट हो जाती है । उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्म पटलों के नष्ट हो जाने पर केवल ज्योति श्रत्माची प्रगट होजाती है इसलिये यह कहना कि एकके अभाव में दूसरे का कार्य सिद्ध नहीं होता यह बात आगम और युक्तिसे 'दोन प्रकार असिद्ध है : For Private And Personal Use Only २०६ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २१० जैन तत्त्व मीमांसा की कानजीका प्रत्येक वक्तव्य जैनागमके विरुद्ध है उसका आपने जैन तत्त्व मीमांसा में कहीं पर भी खंडन नहीं किया सिवाय मंडन | क्या ज्ञान इन्द्रियोंके द्वारा नहीं जानता यदि नहीं जानता है तो मतिज्ञानका विषय क्या है ? Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " इन्दियजं मदिणा जुग्गं जादि पुग्गलं दबं माणसाच पुणो सुयविषयं अक्खविषयं च स्वामिकार्तिके० गाथा १५८ 21 अर्थात् इन्द्रियनितें उपज्या जो मतिज्ञान सो अपने योग्य विषय जो पुद्गल द्रव्य ताकू' जाते है। जिस इन्द्रियका जैसा विषय है तैसे ही जान हैं । बहुरि मनसस्वधि ज्ञान है सो विषय कहिये शास्त्रका वचन सु 1 तांके अर्थकू' जाने हैं । बहुरि इन्द्रियकर जानिये ताक्रू' भी जाणे है । तथा इन्द्रियज्ञानकी प्रवृत्ति अनुक्रमसे होती है। इस वातको स्पष्ट करते हुये आचार्य कहते हैं। "पंचेंद्रियाणां मज्भे एगं च होदि उवजुतं । मखणाणे उवजुते इन्दियग्णां ग जाएदि || १५६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा अर्थात् पांचों ही इन्द्रिय कारे ज्ञान होय है सांतिनि में सू' एकेन्द्रिय द्वार करि ज्ञान उपयुक्त होय है। पाँचू ही एककाल उपयुक्त होय नाहीं । बहुरि मनः ज्ञानकरि उपयुक्त होय है तब इन्द्रियज्ञान नांही उपजे हैं । भावाम For Private And Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोक्षा २११ इन्द्रिय मन द्वारा जो ज्ञान होय हैं सो तिनकी प्रवृत्ति युगपत् नांहीं एक काल एक ही ज्ञानसू उपयुक्त होय है । जब यह जीव घटकू' जानं तिसकाल पटकू नाहीं जाने 1 ऐसे क्रमरूप ज्ञान है ! यदि इस मति ज्ञानको केवलज्ञानका अंश माना जाय तो केवलज्ञान तो चाविज्ञान है इसलिये वह सकल प्रत्यक्ष है और मति अज्ञान क्षयोपशम ज्ञान है इसलिये वह इन्द्रिय और मनके द्वारा क्षयोपशम अनुसार होता है इसलिये मतिश्रत ज्ञानको केवलज्ञानका अंश मानना सर्वथा आगम विरुद्ध है । इस वातको स्पष्ट करते हुये स्व० पं० टोडरमलजीने मोक्षमार्ग प्रकाशक में कहा ! देखो मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २७४ ु 44 बहुरि आपके केवलज्ञानादिक का सद्भाव माने सो आपके तो क्षयोपशम मति श्रतादिज्ञानका सद्भाव हैं क्षायिकमावतो कर्मका क्षय भये कहिये | यह भ्रमते कर्मका क्षय भये विना ही क्षायिकभाव माने सो यह मिथ्यादृष्टि है। शास्त्रांविषे सर्व जीवनका केवलज्ञानस्वभाव का है सो शक्ति अपेक्षा कला है सर्व जीवनिविषे केवलज्ञानादिरूप होनेकी शक्ति है। वर्तमान व्यक्तता तो व्यक्त भये ही कहिये । कोऊ ऐसा माने है — आत्मा के प्रदेशविषे तो केवलज्ञान ही हैं। ऊपर आवरणते प्रगट न होय है सो यह भ्रम है। जो केवलज्ञान होय तो वज्रपटलादि आडे होते भी वस्तुको जाने । कमके आडे आये For Private And Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४२ जैन तत्त्व मीमांसा की कैसे अटके ! ताते कर्मके निमित्तते केवलज्ञानका अभाव ही है। जो याका सर्वदा सद्भाव रहे तो यां को पारणामिक भाव कहते सा यह तो बाकि है । यो ज्ञानकी अनेक अवस्था मतिज्ञानादिरूप वा केवलज्ञानादिरूप हैं । सो ए पारणामिक भाव नांहीं नाते केवलज्ञान का सर्वदा सद्भाव न मानना । 19 इस कथनसे मतिश्र नज्ञान की केवलज्ञानका अंश मानना मिथ्या है। तथा यह भी मान्यता मिश्रया है कि शास्त्रस्त्राध्यायसे. ज्ञानकी वृद्धि नहीं होती एवं गुरु भी सम्यक्त्वोत्पत्ति में निमित्तकारण नहीं है 1 । यदि ऐसा ही है तो शास्त्रस्वाध्याय करना तथा गुरुमुग्वस) उपदेश सुनना व्यर्थ ठरेगा। जो लोग सोनगढ़ जा जा कर कनजीका उपदेश सुनते हैं उनको मनाई क्यों नहीं की जाती ? किन्तु हाथी के दान्त खानेके और होन हैं और दिखाने के और होते है। शास्त्र स्वाध्यायके विना वस्तु स्वरूप समझ आता नहीं वस्तुस्वरूप समझे बिना अज्ञानता दूर होती नहीं, अज्ञानता दूर हुये विना जीव मोक्षमार्ग से लगता नहीं इसलिये शास्त्र पढना पढाना अकिंचित्कर नहीं है। सम्यक्त्व प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त करने के लिये शास्त्र पढना पढाना परम हितकर इसी ध्येयस गणधर भगवान ने भगवानकी वाणाको चार अनुया गोंमें विभाजित कर जीवीके कल्याणकी भावनासे शास्त्रांकी रचना की है। इसको अप्रयोजनीभूत कैसे मान लिया जाय । स्व पं० टोडरमलजी मोक्षमार्गप्रकाशक में कहते हैं कि For Private And Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा "अथ मिथ्या दृष्टि जीवनिको मोक्षमार्गका उपदेश देय तिनका उपकार करना यही उत्तम उपकार है। तीर्थकर गणधरादिक भी ऐसा ही उपाय कर हैं तात इसशास्त्रवि (मोक्षमार्गप्रकाशकविधे ) भी उन्हीका उपदेशके अनुसार उपदेश दीत्रिय है। तहां उपदेशका स्वरूा जाननके अर्थ किट्र व्याख्यान कीजिये है जातें उपदेशको यथावत न पहिचान तो अन्यथा मानि विपरीत प्रवत ताने उपदेशका स्वरूप काय है। जिनमतविपे उपदेश चार अनुयोगका दिया है । सो प्रथमानुयोग,करमानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग ए चार अनुयोग है। तहां तीर्थकर चक्रवर्ति आदि महान् पुरुषनिक चरित्र जमविप निरूपण किये होय सो प्रथमानुयोग है। बहुरि गुणस्थान मार्गणादिरूप जीयका कर्मनिका वा त्रिलोदिका जाविषे निरूपण होय सो करणानुयोग है । बहुरि गृहस्थ मुनिके धमआचरण करनेका जाविषे निरूपमा होय सो चरणानुयोग है ! बहुरि षद्रव्य सप्ततमाविका का स्वपरभेदविज्ञानदिकका जाविषे निरूवा होय सो द्रव्यानुयोग है। इहां इतना कहने का तात्पर्य यह है वि शास्त्रोंके पठन पाठनके किये बिना स्वयमेव तो योग्यता में हिताहितका स्वर्ग नर्कादिकके मुख दुखोंका पटद्रव्य नवपदार्थाका मुनि श्रावक चारित्रका For Private And Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की गुणस्थान मार्गणाका स्वपरभेदविज्ञानका धर्म शुक्लध्यानादिक का ज्ञान होसकता नहीं इसलिये शास्त्रोंका पठन पाठन कार्यकारी है अकिंचित् कर नहीं है । श्रतः शास्त्रोंके पठन पाठनसे ज्ञानकी वृद्धि अवश्य होती है । गुरुदेशनाके बिना कभी अपनी योग्यतासे सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती यह नियम है । क्षयोपशमलब्धि के विना विशुद्धिलब्धि भी नही होती विशुद्धिलब्धिके विना देशनालब्धि नहीं होती तथा देशनालब्धि के बिना प्रायोग्य लब्धि नहीं होती। तथा प्रायोग्यलब्धि के विना कारणलब्धि नहीं होता और करण लब्धिके बिना सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती यह नियम है । देखो मोक्षमार्गप्रकाशक ___ "जातें शास्त्रविधै सम्यक्त्व होने के पहिले पंचलब्धि का होना कहा है क्षयोपशमलब्धि विशुद्धिलब्धि देशनालब्धि प्रायोग्य लब्धि करणलाब्ध । तहां जिसको होत गते तत्त्वविचार होय सके ऐसा ज्ञानावरणादि कर्मनिका क्षयोपशम होय । उदयकालको प्राप्त सर्वघाती स्पर्द्ध कनिके निषेकनिके उदयका अभाव सो क्षय अर अनोगतकाल विये उद्य श्राने याग्य तिनिही की सत्ता रूप रहना सो उपशम ऐसी देशवाती स्पर्द्ध कनिका उदय सहित कर्मनिकी अवस्था ताका नाम क्षयोपशम है। तांको प्राप्ति सो क्षयोपशमलब्धि है। बहुरि मोहका मंद उदय आबनेते मंदकपायरूप भाव होय तहां तत्त्वविचार होसके मो विशुद्धिलब्धि है। बहुरि जिनदेवका उपदेश्या तत्त्वका धारण होय विचार होय सो देशनालब्धि है। जहां नकोदिक विषे उपदेश निमित्त न होय तहां पूर्व मस्कारते होय । बहुरि कर्मनिकी पूर्व सत्ता घटकरि अंतः कोटाकोटीसागर प्रमाण रहि जय अर नवीन वन्ध अंतःकोटाकोटी प्रमाण ताके संख्यातवे भागमात्र होय सो भी तिस लब्धिकालते लगाय क्रमतें घटता होय, केतीक पाप प्रकृति For Private And Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ममता २१५. निका बन्ध क्रमतें मिट जाय इत्यादिक योग्य अवस्था होना सो प्रयोग्यलब्धि हैं । सो ए चारों लब्धि भव्य वा अभव्यके हो हैं इन चार लब्धि भये पीछे सम्यक्त्व होय तो होय न होय तो नहीं भी होय ऐस लब्धिसार विषे कहा है । तातें तिस तत्त्वविचार लाके सम्यक्त्व होनेका नियम नाहीं । जैसे काहूको हिती शिव दaraो वह जानि विचार करे जो यह सीख दई सो कैसे है । पीछे विचारतां वाके ऐसे ही है ऐसी प्रतीति हो जाय अथवा अन्यथा विचार होय अथवा अन्य विचारविषे लगि तिस सीखका निर्धार न करे तो प्रतीत नाही भी होय Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीगुरु तत्त्वोपदेश दिया ताको जानि विचार करे -- यह उपदेश दिया सो केसे हैं। पीछे विचार करनेते वाके ऐसे ही है ऐसी प्रतीति होय जाय अथवा अन्यथा विचार होय वा अन्य विचार विषे लगि तिस उपदेशका निर्धार न करे, प्रतीति नाही होय ऐसा नियम है । याका उद्यम तो तत्त्वविचारका करने मात्र ही है। बहुरि पांचज करणलब्धि भये सम्यक्त्व हो ही होय ऐसा नियम है । सो जाके पूर्व कही थी च्यार लब्धि ते तो भई हायर अंतर मुहूर्त पीछे जाके सम्यक्त्व होनो होय तिस ही जीवके करणलब्धि होय है सो इस करणलब्धि वालेके बुद्धिपूर्वक तो इतना ही उद्यम होय है जो तत्त्व विचारविषे उपयोग को तदूप होय लगावे । ता करि समय समय परिणाम निर्मल होते जाय है जैसे काहू सखिका विचार ऐसा निर्मल होनेलग्या जाकरि यांके शाघ्र ही ताकी प्रतीति हो जासी । तैसे तत्त्व उपदेश ऐसा निर्मल होने लग्या जा करि यांके शीघ्र ही ताका श्रद्धान होसी । बहुरि इन परिणामनिका तारतम्य केवलज्ञानकरि देख्या तांकरि निरूपण करणानुयोग में किया है । " A 1 इस कथनले आत्मामें सम्यक्त्व प्राप्त करनेकी योग्यता पंचलब्धि भयेही होय है । विना पंचलब्धि प्राप्त किये आत्मा में सम्य For Private And Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१६ जैन तत्त्व मीमांसा की क्त्व प्राप्त करनेकी योग्यता श्राती ही नहीं और पंचलब्धि की प्राप्ति भी उपदेशादि बाह्य निमित्तके बिना नहीं होती ऐसा नियम है तत्र सम्प्राप्ति में गुरु देशना की आवश्यक्ता नहीं है ऐसा कहन। श्रागम विरुद्ध है। आप कार्योत्पत्ति में निमित्त कारणको अनिचित्कर मान कर कार्योत्पत्ति में केवल पदार्थको योग्यता हो सिद्ध करते हैं और योग्यता के विषय में जो जो उदाहरण आपने दिये हैं वे सब योग्यताके पोषक नहीं हैं । अतः हम उन उदाहरणों पर प्रकाश डालेंगे जिससे पता चल जायगा कि उदाहरण युक्तियुक्त हैं या नहीं अथवा आगम उनसे सहमत है या नहीं । (१) बालक स्कूल में पढनेकेलिये जाते हैं और उन्हें अध्यापक मनोयोग पूर्वक पढाता भी है। पढनेमें पुस्तक आदि जो अन्य साधन सामग्री निमित्त होती है वह भी उन्हें सुलभ रहती है । फिर भी अपने पूर्व संस्कारवश कोई बालक पहने में तेज निकलते हैं। कई मध्यम होते हैं केई मन्द होते हैं और कई निमित्तरूपसे स्कूल में जाकर भी पढ़ने में समर्थ नहीं होते। इसका कारण क्या है ? जिस बाह्य साधनसामग्रीको लोकमें कार्योत्पादक कहा जाता है वह सबको सुलभ है और वे पढने में भी परिश्रम करते हैं फिर भी वे एक समान क्यों नहीं पढते ? यह कहना कि सबका ज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम एकसा नहीं होता इसलिये सव एक समान पढने में समर्थ नहीं होते ठीक प्रतीत नही होता क्योंकि उसमें भी तो वही प्रश्न होता है कि जब सबको एक समान बाह्य सामग्री सुलभ है सबका एक समान क्षयोपशम क्यों नहीं होता । जो लोग वाह्य सामग्रीको कार्योत्पादक मानते है उन्हें अंतमें इस प्रश्नका ठीक उत्तर प्राप्त करने के लिये योग्यता पर ही श्राना पडता है ।" पंडितजी आप सिद्धान्तशास्त्री कहलाते हैं किन्तु सिद्धान्तकी For Private And Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २१७ शतसे आप सर्वथा अनभिज्ञ हैं इसीलिये सिद्धान्त विरुद्ध अयुक्त बात लिख रहे हैं। क्या वाह्य सामग्री एकमी मिलने पर मन का एकमा क्षयोपशम होने का नियम है । यदि नियम है तो बतानेकी कृपा करें : याद नियम नहीं है तो फिर ऐसा कहना कि "उसमें भी तो यही प्रश्न होता है कि जब सवो ए, समान बाह्य सामना सुलभ है तब सब का एक समान जयोपशम क्यों नहीं होता क्या यह ठीक है ? कदापि नहीं। इसका कारण यह है कि सबका कम बन्ध एकसा नहीं है इसलिये बाह्य सामग्रा सबको एकसं। मिलने पर भी सवका योशम एकता नहीं होता। प्रदश वन्ध सबका ममान होने पर भी प्रकृतिबन्ध सबका समान नहीं होता। अथवा प्रकृतिबन्ध सत्रका समान होनेपर भी स्थितिबन्ध सब का समान नहीं होता अथवा स्थिनियन्ध सरका समान होने पर भी अनुभाग वन्ध सव का समान नहीं होता। __ इसके भिवा कमका उदय अनुदय काल भी समान नहीं होता इसीलिये किसी भी जीवकी संसारावस्थामें ज्ञानादिकी प्रकटता समान नहीं होता ! इसके सिवा अध्यापक आदिका निमित्त भी सवको समान नहीं मिलता। जिसको आप समान कहते हैं वह आपने बिना भीतरी विचार किये ही लिया है । अतस्तल से विचार कीजिये कि सब लडके क्या अपना उपयोग पढने में समान लगाते हैं, नहीं । क्या यह वात आप नहीं जानते हैं ? अवश्य जानते हैं फिर जानबूझकर विद्वत्समाजमें हास्यके पात्र बनना आप जैसे विद्वानों को शाभा नहीं देता । जेनसमाज तो श्रापसे बडी बडी आशा कर रहा था कि एस उच्च कोटाके विद्वान द्वारा जैनधर्मकी रक्षा होगी किन्तु हुआ इससे विपरीत ! जब बाड ही खेतको खाने लगी तब रक्षा करे कौन ? जव जोन विद्वान ही चैनधर्म पर कुठाराघात करने For Private And Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१८ जैन तत्व मीमांसा की लगजाय तो जैनधर्मकी रक्षा करनेवाले किसको समझे ! श्रातः आपसे प्रार्थना है कि आप अनुचित स्वार्थका त्यागकर जैनधर्म अनुकूल पदार्थका प्रतिपादन करें जिससे उभय जाबोंका कल्याण हो। कर्मको एकस्थितिवन्धक कारण कषायनिके स्थान असंख्यात लोक प्रमाण है । तामें एक स्थितिवन्धस्थानमं अनुभागबन्धकू कारण कषायनिके स्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं । तथा योग स्थान हैं ते जगतश्रेणीके असंख्यातवें भाग है । सो यह जोव तिनिकू परिवर्तन करें हैं । कोई सैनी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक जीव स्वयोग सर्वजघन्य ज्ञानावरणी कमप्रकृतिका स्थिति अंत: कोटाकोटीसागर प्रमाण वांधे ताक कषायनिके स्थान असंख्यात लोकमात्र हैं। ताम मर्वजवन्यस्थान एकरूप परिण, तामें तिस एकस्थानम अनुभाग वन्धकू कारण स्थान ऐसे असंख्यात लोक प्रमाण है। तिनमें सू एकसर्वजघन्य रूप परिणमें' तव जगतश्रेणी असंख्यातवे भाग योगस्थान अनुक्रमते पूर्ण करें बीचिमे अन्य योगम्थानरूप परिणमें तो गिनती में नाही ( इसकथनसे क्रमबद्ध पर्याय का अभाव है ) ऐसे योगस्थान पूर्ण भय अनुभागका स्थान दूसरा रूप परिणमें तहां भी तेसेहा योगस्थान मर्व पूर्ण करे तव तास । अनुभा. गस्थान होय तहा मी तेसेही योगस्थान भुगते ऐसे असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागस्थान अनुक्रमते पूर्ण करें तव दूसरा कषायस्थान लना तहा भा तस हा क्रमत असंरूपात लोक प्रमाण अनुभाग स्थान तथा जगतश्रणाके असंख्यातवेभाग योगस्थान पूर्वाक्त क्रमते भुगते तव तीसरा ऋषीय स्थ न लेणा । ऐसे ही चतुर्थादि असंख्यात, लोकप्रमाण कषाय स्थान पूर्वोक्त क्रमते पूर्ण करें । तव एक समय अधिक जघन्य स्थिति स्थान लेना । ताम मा कषाय स्थान अनुभागस्थान योगस्थान पूर्वोक्त क्रमत भुगते ऐसे दोय समय अधिक For Private And Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा जघन्य स्थितिते लगाय तीसकोड कोडीसागरपर्यंत ज्ञानावरणकर्मकी स्थिति पूर्ण करें ऐसे ही सर्वमूलकर्म प्रकृति तथा उत्तर कर्मप्रकृतिनका क्रम जानना । ऐसे परिणमते अनन्तकाल वीते तिनिकू भेला किये एक भाव परिवर्तन होय है। ऐसा स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है। "परिणमदि सांण जीवो विविकसाएहिं द्विदि णिभित्तेि अणुभागणिमिचेहि पवतो भावसंसारो " ७१ अर्थात् विविधप्रकारकी कषाय के निमित्तसे स्थितिबन्ध तथा अनुभागबंध करता हुआ सेन पंचेन्द्रियजीव भाव संसार को किम्प्र कार पूर्ण करता है उसका स्पष्टीकरण ऊपर में किया गया है । कथन वढ जानेके भय से पांचों परिवर्तनों का स्वरूप नहीं लिखा गया है किन्तु उनका स्वरूप समझ लेनेसे संसार के स्वरूपका ज्ञान अच्छी तरह होजाता है । २१६ अर्थात ज्ञानावरणकमके क्षयोपशमसे लब्धिरूप पांचों इन्द्रियों के द्वारा एक साथ जाननेका योग्यता प्राप्त होनेपर भी एक समय में उपयोग जिस पदार्थ उपयुक्त होता है उसी को जानता अन्यको उस समय अन्य इन्द्रियके द्वारा नहीं जान सकता क्योंकि ऐसी ही क्षयोपशमज्ञान की उपयोगरूप प्रवृत्ति है । इस विषय में स्वः पं० टोडरमलजीने दृष्टान्त द्वारा अच्छी तरह स्पष्ट किया है | For Private And Personal Use Only मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ५१. जैसे काढू पुरुषके बहुत ग्रामनिविष वमन करने की शक्ति ( योग्यता ) है । बहुरि ताकी काढूने रोक्या अर यह कहा -- पाच ग्रामविषे जावा परन्तु एक दिन विषे एक ही ग्राम विषे Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२० जैन तत्त्वमीमांसा की जावो । तहां उस पुरुषके बहुत ग्राम विषे जानेकी शक्ति तो द्रव्य अपेक्षा पाइये है, अन्य कालविषे समर्थ होय, वर्तमान सामर्थ्यरूप नाही है परन्तु वर्तमान पांच ग्रामनिते अधिक ग्रामनिविषे गमन करसके नाही । वहुरि पांच ग्रामनिविपे जानेकी पर्याय अपेक्षा वर्तमान सामर्थ्यरूप शक्ति ( योग्यता ) है ताते इनि विषे गमन करिसके हैं । वहरि व्यक्तता एकदिन विषै एक ग्रामको गमन करने ही की पाइये हैं तेसे इस जोवके सबको देखनेकी जानने की शक्ति है। बहुरि याको कर्मने क्या अर इतना क्षयोपशम भया कि स्पशादिक विषयनिको जानो वा देखो परन्तु एक कालविषे एक ही को जानो वा देखो। तहां इस जीवके सर्वके देखने जानने की शक्ति (योग्यता) तो द्रव्य अपेक्षा पाइये है (अन्य कालविषे सामर्थ्य होय परन्तु वर्तमान काल में सामर्थ्यरूप नाही) जाते अपनेयोग्य विषयनिते अधिक विषयनि को देखि जानि सके नाही । वहुरि अपने योग्य त्रिषयनको जानने देखनेकी पर्याय अपेक्षा वर्तमान सामर्थ्य रूप शक्ति ( योग्यता ) है ताते इनको देखि जानिसके है । वहुरि व्यक्तता एक कालविषे एकको ही देखनेकी वा जानने की पाइये है बहुरि यहां प्रश्न - जो ऐसे हैं तो जान्या परन्तु क्षयोपशम तो पाइये 7. र बाह्य इन्द्रियादिकका अन्यथा निमित्त भये देखना जानना न होय वा थोरा होय । अन्यथा होय सो ऐसे होते कर्म ही का निमित्त तो न रह्या ? ताका समाधान- For Private And Personal Use Only जैसे रोकनहारेने यह कहा कि जो पांच ग्रामनित्रिप एक ग्राम को एक दिन विषे जावो परन्तु इन किकनिका साथ लेकर जावो तहां वे किकर अन्यथा परिणमें तो जाना न होय वा धोरा जाना होय वा अन्यथा जाना होय ! तेसे कर्मका ऐसा ही क्षयोपशम भया हैं जो इतने विषयनिदिष एक विषयको एक कालविषे Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा देखो वा जानो परन्तु बाह्य द्रव्यनिका निमित्त भये देखो जानो । हां वे अन्यथा परिणमें तो देखना जनना न होय बा थोरा होय वा अन्यथा हो ऐसे यह कर्मके क्षयोपशमके विशेष हैं ताते कर्म ही का निमित्त जानना । जैसे बहके अन्धकार बा परमाणु आडा आये देखना न होय । त्रू मार्जारादिकनिळे तिनको आडे आये भी देखना होय सो ऐसा ग्रह क्षयोपराम का ही विशेष है। जैसे जैसे क्षयोपशम होय तेसे तेसे ही देखना जानना होय है । ऐसे इस जीवके क्षयोपशम ज्ञानकी प्रवृत्ति पाइये हैं । बहुरि मोक्षमार्गविषे अवधि मन:पर्यय ज्ञान हो है सो भी क्षयोपशमज्ञान ही है तिनिकी भी ऐसे ही एक कालविषे एकको प्रतिभासना वा पर व्यका अधीनपना जानना बहुरि विशेष है सो विशेषजानना । या प्रकार ज्ञानावरण दर्शनावरण का उदय के निमित्तते बहुत ज्ञान दर्शन के अंशनिका तो अभाव अरतिनिके क्षयोपशमते थोरे अंशनिका सद्भाव पाइये । बहुरि इस जीव के मोहके उदद्यते मिध्यात्व या कषायभाव होय है तहां दर्शनमो के उदयते तो मिथ्यात्व भाव होय है ता करि यह जीव श्रन्यथा प्रतीति रूप अतत्त्व श्रद्धान करे है । जैसे हैं तेसे तो नाही मान है अर जैसे नाही है, तेसे माने हैं: " इस कथनसे निमित्तकी प्रधानता स्पष्ट सिद्ध है जो आप निमित्तको अकिचित्कर मान निमित्तको कार्योत्पत्ति में सहायक नहीं मानते प्रत्युत विना निमित्त हो केवल वस्तुकी योग्यता से ही कार्योत्पत्ति मानते हैं यह सर्वथा मिथ्या है। कर्मके निमितसे जीवकी कितनी पराधीनता होरही है इस बात का पता ऊपर के कथनस चल जाता है। कर्मकि निमित्त से वस्तुकी योग्यता भी अयोग्य होजाती है। वस्तुकी योग्यता से विना निमित्त कोई भी कार्यकी सिद्धि नहीं होती । For Private And Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की आत्मा असंख्यात प्रदेशी है तो भी कर्मों के निमित्तसे संकोच विस्तार रूप सदा परिणमन करता रहता है। जब कर्म का सम्बन्ध छूट जाता है तब संकोच विस्ताररूप होना भी छूट जाता है । यह जीव जिस शरोरपे सिद्ध होता है उभ शरीरके प्रमाण प्रदेश सब स्थिर हो जाते हैं । यह कर्मोके निमित्तका ही कारण है । कर्मोंके निमित्त से अनादि कालसे यह तीव निगादमें पडा रहा, वहांसे निकलकर चारोंगति रूप समाग्में परिभ्रमण करके फिर भी निक्षमें चला जाता है । क्या उनमें केवलज्ञान प्राप्त करनेकी और सम्यक्त्व प्राप्त करनेकी योग्यता नही है ? यदि नही है तो फिर नवीन आग्यता कहांसे आयगी ? यदि योग्यता शक्तिरूप मोजूद है तो वह योग्यता व्यक्त क्यों नहीं होती । तो कहना पडेगा कि उस योग्यताके प्रगट होने में कर्मबाधक हैं जैसा कि ऊपरमें उदाहरण सहित सिद्ध किया गया है । इस लिये योग्यता रहते हुये भी वाधक कारण रहते योग्यता का कार्य नहीं होता अतः स्कूल में पढ़ने वाले वाल काका ज्ञानावरणादि कर्मोका क्षयोपशम ममान न होनस बाह्य साधन समान मिलने पर भी समान पढाई नहीं होती । योग्यता भी निमित्तानुसार प्रगट होती है अन्यथा नही । ___ " इस संसार अटवी विषे ममस्त जार है ते कर्मके निमित्त ते निपजै जे नाना प्रकार दुःख दिनकर पीडिन हो रहे है । वहुरि तहां मिथ्या अन्धकार व्यास हो रहा है तांकरि तहां ते मुक्त होने का मार्ग पावते नाही तडफ तडफ ताही दुःखको सहे हैं वहुरि ऐसे जीवनिका भला होनेको कारण तीर्थकर केवली भगवान साही भया सूर्य ताका भया उदय ताकी दिव्यध्वनि रूपी किरणनिकरि तहांते मुक्त होने का मार्ग प्रकाशित किया। जैसे सूर्यके ऐसी इच्छा नाहीं जो मैं मार्ग प्रकासू परन्तु सहजही वांकी किरण For Private And Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा फेले हैं ताकरि मार्गका प्रकाशन होय ही है । तेसे ही केवली वीतराग है ताते ताक ऐसी इच्छा नाही जो हम मोक्षमार्ग प्रगट करें परन्तु महजही अधाति कनिका उदय कार तिनिका शरीररूप पुद्गल दिव्यध्वनि रूप परिणमै है ताकरि मोक्षमार्गका प्रकाशन हो है । बहुरि गणधर देवनिके यह विचार प्राया जहां केवली सूर्यका अस्तपना होय तहां जीव मोक्षमार्गको कैसे पावे अर मोक्षमार्ग पाये विना जीव दुःख महेंगे ऐ । करुणा बुद्धिकरि अंग प्रकीर्णकादि रूप ग्रंथ तेही भये महान दीपक तिनिका उद्योन किया " मोक्षमार्ग प्र०२६ इस कथनसे निमित्तकी सार्थकता अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है जिसप्रकार सूर्यके उदय विना अन्धकारका अभाव हाता नही तथा मार्गका प्रकाशन भी होता नाहीं उसी प्रकार केवली भगवान रूपी सूर्यके उदय विना मोक्षमार्गका प्रकाशन होता नाहीं तथा मिथ्या अन्धकार दूर होता नाहीं। इसके विपरीत कानजो जो यह कहते हैं कि "सूर्यका उदय हुआ इसलिये धूप होगई (प्रकाश होगया) यह बात मिथ्या है " जो वात प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है कि सूर्यके उदयमें या दापक के उजालेमें प्रकाश होता है उसका निषेध करना इसस चढकर और गहलपना क्या होगा ? कानजी भी निमित्तको अकिचित्त कर मानते है उसी तरह आप भी निमित्तको अकिंचित्कर मानते हैं । कानजी भी योग्यताका हिढोरा पीटते हैं आप भी याग्वताका ही वो वाला सिद्ध करते है । कानजी क्रमवद्ध पर्याय होना मानते हैं आप भी क्रमनियमित पर्याय मानते हैं आपकी मान्यतामें और कानजीकी मान्यतामें रंचमात्रका फरक नहीं है फरक केवल शब्दोंका है । वे सीधे शब्दोम कहते है For Private And Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२४ जैन तत्व मीमांग की आप घुमाफिरा कर उसी की पुष्टि करते हैं : उनसे उतना बुरा नही होगा क्योंकि वे विधर्मी हैं किन्तु उनसे श्रमख्यातगुणा बुरा आपसे होगा क्यों कि आप स्वधर्मी है। ___यह कहावत है कि बाहर के शसे जो हानि नहीं होती वह हानि बरके शत्रुसे महज में हो जाती है . "घर फूटे रावण मरे" यह कहावत असत्य नहीं है पंडितजी पाप करना उतना बुरा नहीं है जितना बुरा पापको पीठ ठोकना है। "वसु झूठसेती नर्क पहुंचा” क्या वतु भूठ वालनेसे नर्क गया था नहीं परन्तु पशु यज्ञका समर्थन किया इसलिये तो नर्क गया । यह वात आप अच्छी तरह जानते हैं फिर भी छाप जानबूझकर गढे में पड़ते हैं यहवड़े आश्चर्यकी बात है। इस विषयमें स्व. पं० टोडरमलजीने मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ५६ में जो लिखा है उस पर विचार करिये । और सत्य मार्ग पर आइये । ___"असत्यार्थ पदनिकी रचना अति तीव्र कषाय भये विना वन नाहीं । जातें जिस असत्य २ चना करि परंपरा अनेक जीवनिका महावुरा होइ । आपको ऐसी महाहिसा फलकरि ननिगोदविधे गमन करना होय सो ऐसा महा विपरीत कार्य क्रोध मान माया लोभ अत्यंत तीत्र भये ही होय" स्कूल में पढ़नेवाले वालकोंकी वाह्य सामग्री एकसी होनेपर भी एक्सा क्षयोपशम नहीं होता इस वातको सप्रमाण ऊपर में सिद्ध किया जाचुका है। फिरभी स्व० ५० टोडरमल जीके वचनोंसे और भी तसल्ली करा देते हैं। ___ "इहां इतना जानना-इस जीवके समय : प्रति अनंत परमाणु बन्धे हैं तहां एक समय विषे वन्धे परमाणु ते आबाधाकाल छोडकर अपनी स्थितिके जेते समय होय तिनि विषे क्रमतें उदय श्रावे है बहुरि बहुत समय विधे बन्धे परमाणु जे एक समय विषे उदय For Private And Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २२५ में आवने योग्य है से इऋट होय उदय आवे हैं । तिनि सब परमाणुनिक अनुभाग मिले जेता अनुभाग होय तितना फल तिस काल विषे निपजे ।" अर्थात किसी जीवके अनेक कालका संचय किया हुआ कर्मा एक काल में उदय आवे अथवा किसी जीवके थोडे कालका संचय किया हुआ कर्म एक कालमें उदय आवे किसीका मंद उदयमें श्रावे किसीके संक्रमण रूप होकरि उदयमें आवे, किसीके उत्कर्षण अपकर्षण रूप होकर उदयमें आवे । किसीके सत्तामें ही नष्ट होजाय उदय में ही नहीं आवे इत्यादि अनेक रूप अवस्था होकर उदयम आते हैं उनका अनेक रूप क्षयोपशम होता है इसलिये काँके निमित्तम होनेवाली अनेक अवस्था तिसको न मानकर योग्यता का गीत गाना सर्वाथा आगविरुद्ध है । योग्यता भी निमित्तानुमार उपलब्ध होती है इसका निषेध नहीं किया जा सकता । ___ गुरुकी देशनासे और शास्त्रके पठन पाठन से सम्यग्ज्ञानका प्राप्ति होती है इसके विना नहीं होती यह जैनागमका अटल सिद्धान्त है इसको अकिंचितकर मानकर उडाना चाहते हो सो यह आपके उद्घानसे उड नहीं सकता क्योंकि इसके बिना सद्ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। आपको जो सिद्धान्तशास्त्रीकी पदवी मिली है क्या वह बिना गुरुके या शास्त्रों के पठन पाठनके ही मिली है कदापि नहीं । इस रूप योग्यता आपको स्वयमेव प्राप्त नहीं हुई उसमें निमित्त कारण गुरु और शास्त्रोंका पठन पाठन है इसको आप इनकार नहीं कर सकते । ___ "गुरुके निमित्तसे श्रद्धा सम्यक्त्व नहीं होती " ऐसा माननेवाले कानजी, वे भी अब रास्ता पर थोडे थोडे आये हैं। वे भी अब कहने लगे हैं कि For Private And Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २२६ जैन तत्त्व मीमांसा की "निमित्त अकिंचितकर है फिरभी सम्यग्ज्ञान प्राप्त करनेवालेको निमित्त कैसा होता है वह जानना चाहिये । आत्माका अपूर्व ज्ञान प्राप्त करनेवाले जीवको सामने निमित्तरूपसे ज्ञानी ही होते हैं। वहां सम्यग्ज्ञानरूप परिणमित सामने वाले ज्ञानीका आत्मा अन्तरङ्ग निमित्त हैं और उन ज्ञानीकी वाणी बाह्य निमित्त है " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञानस्वभाव और ज्ञेयस्वभाव के पृष्ठ २६० कानजी एक तरफ तो कहते हैं कि गुरुके निमित्तसे श्रद्धा सम्यक्त्व नहीं होता (वस्तु विप्र ) दूसरी तरफ कहते हैं कि "आत्माका अपूर्ण ज्ञान प्राप्त करनेवाले जीवको सामने निमिरूपसे ज्ञानी ही होते हैं" यह दुण्डप डी बात कैसी "मेरी मा और वांझ" खैर इस कथन से यह भी पता चल जाता है कि वे कितने ज्ञानी है जिसकी पीठ हमारे सिद्धान्तशास्त्र जैसे विद्वान ठीक रहे हैं क्या सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करनेवालोंके अन्तरंग निमित्तकारण सामनके ज्ञानी होते हैं ? या सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करनेवालक अंत रङ्ग कारण उनका ज्ञानावरणादिकर्मा का क्षयोपशम है ? जिसको इतना भी बोध नहीं है कि दूसरे की आत्मा दूसरे की आत्मा का अंतरङ्गकारण कैसे हो सकती है ? अंतरङ्ग कारण तो स्वका स्व ही होगा दूसरा नहीं, दूसरा तो वाह्य निमित्त कारण ही होगा। यदि ऐसा न माना जायगा तो एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कर्ता मानना पड़ेगा जो होता नहीं । अतः ऐसी भयंकर गलती करने वाला व्यक्ति ज्ञानी गुरु कहलाये और उसके पीछे शास्त्री विद्वान लोग नांचे, हरे कलिकाल ! जो तू न कर राजरे सो सव थोडा है । For Private And Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ७ कानजीने देखा कि मैंने यह कह दिया है कि “गुरुके निमित्त स श्रद्धा सम्यक्त्व नहीं होती" तो लोग मेरे पास ना आवेंगे ! इसलिय उनको यह कहना पडा कि गुरु के निमित्तसे तो श्रद्धासम्यक्त्व नहीं होती किन्तु श्रद्धासम्यक्त्व होनेमें निमित्त कारण सामने ज्ञानी होना चाहिये । क्योंकि पाप ज्ञानी होनेका ठेका रखते हैं। इसलिये जिसको ज्ञान प्राप्त करना हो वे मेरे पास आवें । गुरुओंक ( मुनियोंक ) निमित्तसे श्रद्धा सम्यक्त्व नहीं होगी। कागज के दुपडपीटी वात कहने में ऐसा अभिप्राय झलकता यदि आप यह क है कि मेरे शास्त्री होने में मेरी योग्यता ही कारण हे गुरु या शास्त्र नहीं जैसाकि आपका तुष मास भिन्नक घोषनेकाले शिवभूति मुनिक विषय में कहना है कि (२) "शास्त्राम अापन तुष मास भिन्नकी कथा पढी होगी वह प्रतिदिन गुरुकी सेवा करता है, अट्ठाईस मूलगुणांका नियमित हंगस पालन करता है फिर भी उसे द्रव्यश्रुतकी प्राप्ति नहीं होता इतनाही नहीं वह तुष मास भिन्न पाठका घोष करता हुआ केवली तो हो जाता है परन्तु द्रव्यश्रुतकी प्राप्ति नहीं । क्योकि उसमें द्रव्यश्रुतको उत्पन्न करने की योग्यता नहीं थी । इसके सिवाय अन्य कोई कारण हो तो बतलाइये । इससे कार्यात्पत्तिम योग्यताका क्या धान है इसका साज ही पता लग जाता है" प्रथम ती उभ तुष मास भिन्न घोषना करनेवाल मुनि म पाठ ,प्रवचनमातृका का ज्ञान था या नही यदि उनमें यह ज्ञान नहीं था नो उसको केवलज्ञान कसे हुआ ? क्योंकि अ- प्रवचन मातृका ज्ञान हुये विना केवलज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती ऐसा आगम है यदि उनको अप्रवचन मातृकाको ज्ञान था तो वह अतकेवली था क्योंकि आगममें अप्रवचन मातृकाकं ज्ञानवालेको अतकेवली For Private And Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जन तत्त्व मीमांसा की कहा है इसलिये उसके द्रव्यश्रत नहीं था ऐसा कहना आगमविरुद्ध है। यदि कहो कि उनके पूर्ण श्रत ग्यारह अंग चौदह पूर्व प्रकाणादि का ज्ञान नहीं था इमके हुये विना भी अपनी योग्यतासे उसे केवलज्ञानकी प्राप्ति होगई। ऐमा कहना भी प्रासंगत है क्योंकि ऐसा कोई नियम नहीं हैं। जो पूर्ण अतकवली हुये विना किसी को केवलज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती। यह तो जीवोंकी कर्मोंके क्षयोपशम शक्ति विशेषका माहात्म्य है । वह क्षयोपशम सबका समान होता नहीं। इसीलिये किसीको मति श्रुद अवधि होकर केवल होता है तो किसीको मति अ त मनःपर्यय होकर केवल होता है तो किसीको मति अतसे केवलज्ञान होता है । यह परिणामोंकी विचित्रता है मतिश्रत पूर्णतया न होनेपर भी केवलज्ञानको प्राप्ति होजाती है । इससे यह नहीं कहा जाता कि उसमें पूर्णरूपसे अतकेवली होने की योग्यता नही थी जिसमें पांच ग्राम जानेकी योग्यता हो यदि वह कारणवश एक ग्राम भी न जा सके तो क्या उसमें एक ग्राम जानकी योग्यता नहीं थी ऐसा कहा जा सकता है ? कदापि नहीं जिसमें पांच ग्राम जानेकी शक्ति है वह निमित्तानुसार एक एक ग्रामको उलंघता हुआ भी पांच, ग्राम पहुंच सकता है । अथवा उसको सीधा रास्ता मिल जाय तो वह मव ग्रामीको छोडकर सीधा पांचवे ग्राम भा जा सकता है। उसी प्रकार कर्मो के क्षयोपशम अनुसार कोई मति अत अवधि मनःपर्यय पूर्वक. केवलज्ञान को प्राप्त करता है कोई मतिश्रुतको भा पूर्णतया प्राप्त न कर साधा कर्मोको नष्टकर केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है । अत: जिसमें सीधा केवलज्ञान प्राप्त करनेकी योग्यता है उसमें मति अत पूर्ण रूपसे प्राप्त करने की योग्यता नहीं थी ऐमा कहना न्याययुक्त नहीं For Private And Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाता २२६ ....-- .-.-... - -- जिसमें लाख रूपया कमानकी योग्यता है उसके विषयमें यह कहा जाय कि इसमें लाख रुपया कमानेकी योग्यता है किन्तु इसमें मौ रुपया क्रमानेकी योग्यता नहीं है ता वेसा कहना युक्तियुक्त नही है । अतः शिवभूतिमुनिमें द्रव्यश्रत प्राप्त करनेको योग्यता नही थी इसलिये वह द्रव्यश्रु त प्राप्त नहीं कर सका किन्तु उसमें केवल ज्ञान प्राप्तकरनेकी योग्यता थी इसलिये उसने कवलज्ञान प्राप्त करलिया ऐसा कहना आगम युक्ति और न्याय बाधित है । योग्यताके सम्बन्धम कहीं पर तो आप दैवका अर्थ योग्यता करते हैं तो कहीं पर कार्य निष्पत्तिकी सामर्थ्य रूप उपादानको शक्तिको योग्यता फरमाते हैं, सो दैव तो पर है अत: परका तो उपादानको योग्यताके साथ निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । फिर देव ( कर्म ) का अर्थ योग्यता करना कैसा ? क्या कर्मको योग्यता ही जीवके उपादान की योग्यता है। यदि है तो स्पष्ट करें ? यदि नही है तो फिर निःप्रयोजन ऐसी असंगत वात लिखनेकी जरूरत क्या थी। ___ "यहांपर यद्यपि दैवका अर्थ योग्यसा और पुरुषार्थ का अर्थ अपना वल वीर्य करके उक्त श्लोकका अर्थ उपादानपरक भी होसकता है पर इस प्रकरणका प्रयोजन आगममें निमित्तको स्वीकार किया है यह दिखलाना मात्र है " जैनतत्त्वमीमांसा पृष्ठ ३७ . यदि यह कहा जाय कि कर्मों के निमित्त से जीवकी जो अवस्था होती है उसीका नाम योग्यता है इसी कारण कारणमें कार्यका उपचार कर दैवका अर्थ योग्यता किया है तो कथंचित ठीक है । जोवके साथ तो ऐसा घटित हो सकता है परन्तु पुद्गल के साथ यह घटित नहीं होता क्योंकि उसके साथ देव ( कर्म ) का कोई For Private And Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३० जन तत्त्व मीमांसा की सम्बन्ध ही नहीं है इसलिये दैवका अर्थ योग्यता करना प्रमाणवाधित है। योग्यता तो उपादानकी कार्य निष्पत्तिका नाम है । सो वह विना निमित्त केवल उपादानको योग्यतासे नहीं होती। उपादान और निमित्त मीमांसा के कथन में आपने प्रकारान्तरमे नियमित वादको और योग्यता को सिद्ध करनेकी चेला की है। तथा निमित्त को मात्र उपस्थित मानकर कार्योत्पत्ति केवल उपादानकी योग्यता से ही होती है ऐसा दरशानेका प्रयत्न किया है किन्तु इसमें भी आप सफल नही हो सके हैं। आप जो यह कहते हैं कि " जैसा कि पहिले लिख आये हैं भवितव्यता उपादान की योग्यता का ही दूसरा नाम है । प्रत्येक द्रव्य में कार्यक्षम भवितव्यता होती है इसका समर्थन करते हुये स्वामी समन्तभद्राचार्य अपने स्वयम्भू स्तोत्र में कहते हैं-"अलंघ्यशक्तिर्भवितव्यतयं हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिंगा | अनीश्वरो जंतुरहंक्रियार्चः संहत्य कार्येष्विति साध्ववादी : " आपने ( जिनदेवने ) यह ठीक ही कहा है कि हेतुद्वयसे उत्पन्न होने वाला कार्य हो जिसका ज्ञापक है ऐमी यह भवितत्र्यता अलंघ्य शक्ति है, क्योंकि संसारी प्राणां मैं इस कार्यको कर सकता हूं इस प्रकारके अहंकार से पीडित है वह उस ( भवितन्यता) के विना अनेक सहकारी कारणोंको मिला कर भी कार्यों के संपन्न करने में समर्थ नही होता । "सव द्रव्योंमें कार्योत्पादनक्षम उपादानगत योग्यता होती है इसका समर्थन भट्टाकलंक देवने अष्टशती टीका में भी किया है। प्रकरण संसारी जीवके देव पुरुषार्थवादका है। वहां वे दैव व पुरुषार्थका स्पष्ट करते हुये For Private And Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममीक्षा २३१ योग्यता कर्म पूर्व वा देवमुभयमदृष्टम् पौरुषं पुनरिह चेपितं दृष्टम् । ताभ्यामर्थसिद्धिः तदन्यतरापायेऽवटनात् पोरुपमात्रेऽर्थादर्शनात । देवमात्रे वा समीहानर्थक्यप्रमंगात् । "योग्यता या कर्म देव कहलाता है । ये दोनो अदृष्ट है। तथा इह चेष्टिनको पौरुष कहने हैं। इन दोनोंसे अर्थसिद्धि होती है ! क्योंकि इनमें से किसी एकके अभावमें अर्थसिद्धि नहीं हो सकती। केवल पौरुषसे अर्थसिद्धि मानने पर अर्थका दर्शन नही होता और केवल देवसे मानने पर समोहाकी निष्फलताका प्रसंग आता है." ___“ उपादानकी योग्यतानुसार कार्य होता है इसका समर्थन वे तत्त्वार्थ वार्तिक (अः १ सूत्र.) में इन शब्दोमें करते हैं " " यथा मृदः स्वयमन्तर घटभवनपरिणामाभिमुख्ये दण्डचक्रौरुषेय प्रयत्नादि निमिामात्रं भवति यतः सत्स्वपि दंडादिनिमित्त शर्करादिप्रचितो मृपिण्डः स्वयमन्तरघटभवनपरिणामनिरुत्सुकत्वान्न घटो भवति अती मृत्पिण्ड एव बाह्य इंडादिमित्तसापेन आभ्यन्तपरिणामसानिध्यात् घटो भवति न दण्डादयः इति दण्डादीनां निमित्तमात्रत्वं भवति" __ " जैस मिट्टीके स्वयं भीतरसे घट भवन रूप परिणामके - अभिमुख होनेपर दण्ड चक्र और पुरुष कृत प्रयत्न आदि निमित्तमात्र होते हैं। क्योंकि दण्डादि निमित्तों के रहनेपर भी वालुकाबहल मिट्टी का पिण्ड स्वयं भीतरसे घट भवन रूप For Private And Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की परिणाम ( पर्याय ) से निरुत्सुक होनेके कारण घट नहीं होता अतः बाह्यमें दण्डादि निमित्त सापेक्ष होनेसे घट होता है। दण्डादि घट नहीं होते । इसलिय दण्डादि निमित्त मात्र है" " इस प्रकार इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि उपादानगत योग्यताके कार्य भवनरूप व्यापारके सन्मुख होने पर ही वह कार्य होता है अन्यथा नहीं होता" । जैन तत्त्वमीमांसा पृष्ठ ७१-७.-७३ इसके आगे आप लिखते हैं कि-- "यदि तत्त्वार्थवार्तिक के उक्त उल्लं ख पर बारीकी से ध्यान दियाजाय तो उससे यह भी विदित हो जाता है कि घट निष्पत्तिके अनूकूल कुम्हारको जो प्रयत्न प्रेरक निमित्त कहा जाता है वह निमित्तमात्र है । वास्तव में प्रेरक निमित्त नहीं । उनके निामतमात्र है ऐसा कहने का यही तात्पर्य है। ___"हम पहिले प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति स्वकाल ( समर्थ उपादानके व्यापार क्षण ) के प्राप्त होनेपर होती है यह लिख आये हैं। इसलिये यहां पर संक्षेपमें उसका भी विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है । यह तो सुनिश्चित है कि प्रत्येक कार्यका स्वकाल होता है। न तो उसके पहिले ही वह कार्य हो सकता है और न उसके बाद ही। जो जिस कार्यका स्वकाल होता है उसके प्राप्त होनेपर अपने पुरुषार्थ ( वलवीर्य ) द्वारा वह कार्य होता है । और अन्य द्रव्य जिसमें उस कार्यके निमित्त होनेकी योग्यता होती है, निमित्त होते हैं। प्रत्येक भव्य जीव का मुक्ति लाभ भी एक कार्य है अतः उसका भी स्वकाल है उक्त । नियम द्वारा उसीकी स्वीकृति दीगई है । केवल यह वात हम तर्कके वलसे कह रहे हों ऐसा नहीं है । क्योंकि कई प्रमुख आचार्योंके इस सम्बन्ध में जो उल्लेख मिलते हैं उन से इस For Private And Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा कथनकी पुष्टि होती है । आचार्य विद्यानन्दिन आतमीमांसा और अष्टशताके आधारसे जब यह सिद्ध करदिया कि---जो शुद्धि शक्तिकी अभिव्यक्ति द्वारा शुद्धिको प्राप्त कर लेते हैं वे मुक्ति के पात्र होजाते है । और जो अशुद्धि शक्तिको अभिव्यक्ति द्वार अशुद्धिका उपभोग करते रहते हैं उनके संसारका प्रवाह चालू रहता है । तब उनके सामने यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि सब संसारी जाव जिस प्रकार अनादि कालसे अशुद्धिका उपभोग करते आरहे हैं उन्म प्रकार वे सदा काल शुद्धिका उपभोग करते हुये मुक्तिके पात्र क्यों नहीं होत ? इसी प्रश्न का उत्तर देते हुये कहते हैं कि - "कषांचित् प्रतिमुक्तिः स्वकाललब्धौ स्यादिति प्रातपत्तव्यम् " किन्ही जीवोंकी प्रतिमुक्ति स्वकालके प्राप्त होने पर होती है। ऐसा जानना चाहिये" ___ " आचार्य विद्यानन्दिने इस कथन द्वारा यह बतलाया है कि शुद्धि नामक शक्ति होती तो सबके है। परन्तु जिन जीवोंके उसके पर्यायरूपसे व्यक्त होनेका स्वकाल आजाता है उन्हीके अपने पुरुषार्थ द्वारा उसकी व्यक्ति होती है और वे ही मोक्षके पात्र होते हैं।" ____ "यह कथन केवल आचार्य समन्तभद्र और विद्यानन्दिने श्री किया हो यह बात नहीं है । भट्टाकलंक देवने भी तत्त्वार्थचार्तिक (अ० १ सू: ३) में इस नभ्यको स्वीकार किया है। वह पकरण निमर्गज और अधिगमज सम्यग्दर्शनका है। इसी प्रसंगको लेकर उन्होंने मर्व प्रथम यह शंका उपस्थित की है 7 " भव्यस्य कालेन निःश्रेयसोपपत्त: अधिगमसम्यक्वाभावः ।। ७ । यदि अबधृतमोनकालात् प्रागधि For Private And Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३४ जैन तत्व मीमांसा की गमसम्यक्त्ववलात् मोक्षः स्यात् स्यादधिगमसम्यग्दर्शनस्य साफल्यम् । न चादोऽस्ति । अतः कालेन योऽस्य मोनोऽमौ निमर्गजसम्यक्त्वादेव सिद्ध इति " " इस वार्तिक और उसकी टीकामें कहागया है कि यदि नियत मोक्षकालके पूर्व अधिगम सम्यक्त्वके वलसे मोक्ष होवे तो अधिगम सफल होवे । परन्तु ऐमा नहीं है इसलिये स्वकालके आश्रयसे जो इस भव्य जीवके मोक्ष प्राप्ति है वह निसर्गज सम्यक्त्वसे ही सिद्ध है। "इस प्रकार हम देखते हैं कि उक्त कथन द्वारा भट्टाकलंक देवने भी इस तथ्यको स्वीकार किया है कि प्रत्येक भव्यजीवको उसकी मोक्षप्राप्तिका स्त्रकाल आने पर मुक्तिलाभ अवश्य होता है । इस से सिद्ध है कि लोकमें जिसने भी कार्य होते हैं वे अपने कालके प्राप्त होनेपर ही होते हैं। आगे पीछे नहीं " जैन तत्वमीमांसा पृष्ठ ७४-७५ - पंडितजी ! आपके उपरोक्त कथन से न तो प्रत्येक कार्यकी निष्पत्तिमें स्वकाल ही सिद्ध होता है और न कार्योत्पत्ति, निमित्त विना केवलद्रव्य की योग्यतासे ही सिद्ध हो पाई है, और न उपादान अपने पुरुषार्थ द्वारा वाह्य निमित्त के विना कार्य कुशल हो सकता है ऐसा आपके कथनसे स्पष्ट होजाता है फिर भी आपने उक्तविषय को सिद्ध करने में परिश्रम किया है वह श्रापका परिश्रम आपकी मान्यताका घातक बनगया यह दुःख की बात है। ___ आपने जो भट्टाकलंकदेवका निसर्गज और अधिगमज सम्यक्त्वके विषयका प्रमाण देकर उसके द्वारा मोक्षप्राप्ति में स्वकाल सिद्ध करनेकी चेष्टा की है वह प्रयोजनभूत नहीं है। For Private And Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा क्योंकि वह कथन शंका रूप में किया गया है । उसका उत्तर इखिये, जिससे स्पष्ट होजाता है कि मोक्ष प्राप्तिका कोई निश्चित काल नहीं है । क्यों कि कर्मोंकी निर्जरा पूर्वक मोक्ष होती है। अतः यह जीव जिस समय में पूर्ण कर्मोकी नर्जरा करदेता है उसी समय उसको मोक्ष हो जाती है उसमें कालका नियम नहीं है और वह मोक्ष प्राप्ति निसर्गज (स्वभावसे उत्पन्न होनेवाले ) सम्यक्त्वसे ही मोक्षप्राप्ति होती है अधिगमज मम्यक्त्व में नहीं है इसका कारण यह है कि परनिमित्तसे ( उपदेशादि वाह्यनिमित्त से ) जो आत्मामें सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है वह भी तो निसर्गज ही है अर्थात् वह आत्माका ही तो स्वभाव स्वरूप आत्मा ही में है । इसलिये निज स्वभाव रूप जो परिणमन है वह निसर्गज रूप ही है और वह निर्विकल्प है। किन्तु अधिगमज सम्यक्त्व है वह सविकल्प है इस कारण जहां सविकल्पता है वहां ध्यानकी सिद्धि नहीं है तथा ध्यानकी सिद्धि विना कमों की पूर्ण निर्जरा नहीं होती और पूर्ण निर्जराके बिना मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती इस ट्रिकोगको ध्यानमें (लक्षमें) रखकर अकलंकदेवने निसर्गज सम्यक्त्वसे ही मोक्ष प्राप्ति कही है। परन्तु इससे कोई यह नहीं समझे कि अधिगमज सम्यक्त्व मोक्ष प्राप्तिमं कारण ही नहीं है । विना अधिगमजसम्यक्त्व के निसर्गज सम्यक्त्व होता ही नहीं यह नियम है । अतः अधिगमज सम्यक्त्व कारण है और निसर्गजसम्यक्त्व कार्य है। अनादि मिथ्यावष्टि जीवके वाम उपदेशादिकका निमित्त मिले विना सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती यह वात हम ऊपरमें मोक्षमार्ग प्रकाश ग्रन्थके प्रमाण से सिद्ध कर आये हैं ! अधिगमज सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद यह जीव अधिकसे अधिक संसार परिभ्रमण करता है तो अर्धपुरलपरावर्तन काल तक ही कर सकता है इससे For Private And Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २३६ जैन तत्त्व मीमांसा की अधिक नही यह तो नियम है परन्तु यह नियम नहीं है कि वह इसके बीच में मोक्ष प्राप्त नही कर सकता है । वह देव और पुरुषार्थके बलसे जब कभी भी मक्षिका प्राप्ति करसकता है। विना देव और पुरुषार्थ के कोई भी कार्यको सिद्धि नहीं होती यह बाल आपके दिये गये प्रमाण से भी सुसिद्ध है । " योग्यता कर्म पूर्व वा दैवमुभयमदृष्टम् पौरुषं पुन रिहचेष्टितं दृष्टम् । ताभ्यामर्थसिद्धिः । I 66 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थात देव और पुरुषार्थ के मिलनेपर ही कार्यसिद्धि होती हैं इनसे एककी कमी होने पर कार्यसिद्धि नहीं होती। तदन्यतरापायेऽघटनात् । पौरुपमात्रेऽर्थादर्शनात् देवमात्र वा समानर्थक्यप्रसंगात " अर्थात् केवल पौरुषसे अर्थको सिद्धि माननेपर अर्थका दर्शन नहीं होता तथा केवल दैवसे माननेपर समीहाकी निष्फलताका प्रसंग आता है । इस कथनसे केवल उपादानकी योग्यतासे पुरुषार्थ करनेपर भी कार्य सिद्धि नहीं होती उसमें देव (कर्म) का भी निमित्त अवश्य होना चाहिये। जो आप निमित्तको अकिंचित् कर मान ते हैं उसका इस कथन से खंडन होजाता है। आचार्य कहते हैं--- कि विना निमित्त के कोई भी कार्य नहीं होता । निमित्त चाहे उदासीन हो सहायक हो बलदायक हो अथवा प्रेरक हो इन में से कोई भी हो, कार्योत्पत्ति में इनकी नियुक्ति आवश्यक है । इन निमित्तोंके विना केवल उपादान की योग्यता से कार्योत्पत्ति नहीं होती अतः उपादानकी योग्यता को व्यक्त करने में भी निमित्त प्रधान है। जैसे आत्मा में केवलज्ञान या सम्यक्त्व प्राप्त करने की For Private And Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममोक्षा योग्य शक्तिरूपसे विद्यमान है किन्तु बाह्यनिमित्त श्रानुकूल न मिलने से अथवा प्रतिकूल (वाधक) निमित्तके रहनपर अनादिकाल से आजतक केवलज्ञानादिक की व्यक्तता इस जीवको न हुई और जवन, ऐमा कारण बना रहेगा नबतक फिर भी कवण - ज्ञानादिककी प्राप्ति नहीं होगी । केबलदर्शनावरणीके उदयमें केवलदर्शन व्यक्त नहीं होना तथा केवलज्ञानावरणाके उदयमें केवलज्ञान प्रगट नहीं होता तथा मोहनीय. कर्मके उद्यमें मम्यरदर्शनकी प्राप्ति नही होती तथा चारित्र मोहनीय कर्मके उदयमें देशचारित्र या सकल चारित्र प्रादुर्भाव नहीं होता तथा वेदन.यकर्म के सद्भावमें अव्यावाधसुखको प्राप्ति नहीं होती, शरीरमें रोग निरोगपने की नाना प्रकारकी अवस्था होती रहती है । अत. रायकर्मके उदय में दानादिक देने की योग्यता होनेपर भी दान नहीं देसकता, आयुकर्मके उदय में मनुष्यादि पर्यायको स्थिति बनी रहती है। इस संसार में जन्म जीवन मरणका कारण आयुकर्म ही है। नामकर्मके उदयमं यह जीव मनुष्यादि गतिमें प्राप्त होकर तिमपर्यायरूप अपनी अवस्था समझे तहां नोकर्मरूप शरीर में अंगोपांगादि योग्य स्थान परिमाण लिये आत्मप्रदेश संकोच विस्तार रूप होय शरीर प्रमाण रहै तथा शरीर विषे नानारूप श्राकारादिकका होना नानारूप वरणादिकका होना स्थूल सूक्ष्मादिका होना इत्यादिक नामकर्मके उदयमें कार्यकी निष्पत्ति होती है . गोत्रकमक उदय में यह जीव ऊंच नीच पर्याय प्राप्त होय है ! इसप्रकार अनादिसंसार विषे घाति अवाति कर्मके निमित्तते जीवका अवस्था होती है सो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर है और युक्ति प्रागमस प्रमाणित है इसको अस्वीकार कैसे किया जासकता है ? कभी नहीं, विना निमित्तका रणके मिले केवल उपादानकी योग्यतासे कोई भी कार्य नहीं होता इसविषयमें स्व० पं० टोडरमलजीका For Private And Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की जो कहना है उसको यहां उद्धृत करना उचित समझते हैं। ___ "एक कार्य होनेविषे अनेक कारण चाहिये । तिनविणे जे कारण वुद्धिपूर्वक होंय तिनको तो उद्यमकरि मिलाये अर अबुद्धिपूर्वक कारण स्वमेव मिले तो कार्य सिद्ध होय जैसे पुत्र होनेका कारण वुद्धिपूर्वक तो विवाहादिकका करना है अर अबुद्धिपूर्वक भवितव्य है। तहां पुत्रका अर्थ विवाहादिकका तो उद्यम करे अर भवितव्य स्वमेव होय तव पुत्र होय ! तैसे विभाव दूर करनेके कारण वुद्धिपूर्वक तो तत्त्वविचारादिक है अर अबुद्धिपूर्वक मोहकर्मका उपशमादिक है सो तांका अर्थी तत्वविचारादिक तो उद्यमकरि करे अर मोह कर्मका उपशमादि स्वमेव होय तव रागादिक दूर होय । इहां ऐसा कहै कि जैसे विवाहादिक भी भवितव्य आधीन है तैसे तत्त्वविचार भी कर्मका क्षयोपशमादिक के आधीन है। तातें उद्यम करना निरर्थक है" (जैसा कि आप कहते हैं कि कार्यकी निष्पत्ति स्वकाल आनेपर ही होती है आगे पीछे नहीं होती फिर उद्यम काहेको करना कमनियत पर्याय माननेवालेनेलिये कहते हैं कि -- समाधान "ज्ञानावरणका तो क्षयोपशम तत्वविचारादिक करने की योग्यता तो तेरे भई है याहीते उपयोगकों यहाँ लगावनेका उद्यम कराइये हैं। असंज्ञी जीवनिके तो क्षोपशम नाहीं है तो इनको काहेको उपदेश दीजिये हैं। For Private And Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra T www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २३६ बहुरि वह कह होनहार होय तां तहां उपयोग लागे, विना होनहार काहे को लागे । समाधान जो ऐसा श्रद्धान है तो सर्वत्र कोई भी कार्यका उद्यम मति करे ( स्वकालमें सब कार्य हो हो जायगा ) तूं खान पान व्यापारादिकका तो उद्यम करे, अर यहां होनहार बतावे सो जानिये हैं तेरा अनुराग यहां नाहीं । मानादिक करि ऐसी झूठी बाते बनावे है । या प्रकार जे रागादिक होते तिनकरि रहित आत्माको माने हैं ते मिथ्यादृष्टि जानने । मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २७८ - २७६ "बहुरि कर्म नोकर्मका सम्बन्ध होते आत्माको निर्गन्ध माने सो प्रत्यक्ष इनका बन्धन देखिये हैं । शरीर करि ताके अनुराग अवश्य होता देखिये है, बन्धन केसे नहीं, जो बन्धन न होय तो मोक्षमार्गी इनके नाशका उद्यम काहेको करे " इस कथनसे स्पष्ट सिद्ध होजाता है कि कार्योत्पत्तिमें देव ( भवितव्यता ) और पुरुषार्थ दोनोंकी आवश्यकता है दोनों मिले कार्यसम्पन्न होता है अन्यथा नहीं । तथा स्वकाल आनेपर मोक्षप्राप्ति स्वमेव होजायगी ऐसा मानकर जो निरुद्यमी रहता है मोक्षप्राप्तिका उपाय नहीं करता है वह मिथ्यादृष्टि है | अतः स्वकालप्राप्ति में मोक्ष होना माननेवालोंकी शंकाका समाधान करते ये श्राचार्य भट्टाकलंकदेव कहते हैं कि- " कालानियमाच्च निर्जरायाः ६ यतो न भव्यानां For Private And Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *૪૦ जैन तत्त्वमीमांसा कृत्स्नकर्म निर्जरापूर्वकमोक्षकालस्य नियमोऽस्ति । केचिद् भव्याः असं व्येन कालेन सेत्स्यन्ति केचिद् संख्येन, केचिदनन्तेन, अपरे अनन्तानन्तनापि न सेत्स्यन्तीति ततश्च न युक्त' भव्यस्य कालेन निःश्र यमोपपत्त ेः इति" अर्थात् भव्य जीवों लिये मोक्ष जानम कोई कालका नियम नहीं है । इसलिये भव्यजीव कालद्वारा मोक्षलाभ करेंगे यह वचन ठीक नहीं है। इसके सम्बन्ध में आपका कहना है कि- ." कुछ विचारक इसे पढकर उसपर से ऐसा अर्थ फलित करते हैं कि मट्टाकलंकदेवने प्रत्येक भव्यजावकं मोक्षजान के कालनियमका पहिले शंकारूपमें जो विधान किया था इस कथन द्वारा सर्वथा निषेध कर दिया है परन्तु वस्तुस्थिति एसी नहीं है । यह सच है कि उन्होंने पिछले कथनका इस कथ द्वारा निषेध किया है। परन्तु उन्होंने यह निषेध नयविशेषका आश्रय लेकर ही किया है सर्वथा नहीं। वह नयविशेष यह है कि पूर्वोक्त कथन एक जीवके आश्रयसे किया गया है और यह कथन नाना जीवोंके श्रभयसे किया गया है। सव भव्यजीवों की अपेक्षा देखा जाय तो सबके मोक्ष जानेका एक काल नियम नही बनता, क्योंकि दूरभव्योंको छोड़कर प्रत्येक भव्य जीवके मोच जानेका कालनियम अलग अलग है। इसलिये सबका एक कालनियम कैसे वन सकता है ? इसका यदि कोई यह अर्थ लगावे कि प्रत्येक भव्यजीवका भी मोक्ष जानेका कालनियम नहीं है तो उसका उक्त कथनद्वारा अर्थ फलित करना उक्त कथन के अभिप्रायको ही न समझना कहा जायगा । अतः प्रकृत में यही समझना चाहिये कि भट्टाकलंकदेव भी प्रत्येक भव्यजीवके मो जानेका नियम मानते रहे हैं । For Private And Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २४१ ___पंडितजी ! भट्टाकलंकदवक कथनको श्राप ही नहीं समझे या समझ करके भी सोनगढकी पक्षमें आपको समर्थन करना है इसलिये स्पष्ट अर्थको रखेंचातानी कर विपरीत अर्थ किया है सो विद्वानोंकी गोष्ठीमें हास्योत्पादक है। क्योंकि शंका एक जीव की अपेक्षा की जाय और उत्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा दिया जाय यह बात भट्टाकलंक देव जैसे तार्किक विद्वानोंका काम नहीं है। प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । धनंजयकवेः काव्यं रत्नत्रयमकंटकम् । अतः भट्टाकलंकदेव द्वारा ऐसा नहीं होमकता है । उन्होंने जिसरूपमें शंका उठाई है उत्तर भी उन्होंने उसी रूप में दीया है। शंकाके शब्द इस रूप हैं-भव्यस्य कालेन निःश्रेयसोपपत्तेः इसका उत्तर निम्न प्रकार शब्दो में दिया है ततश्च न युक्त भव्यस्य कालेन निःश्रेयसोपपत्त: अतः प्रश्न भी एक जीवकी अपेक्षा है और उत्तर भी एक जीवकी अपेक्षा है। उनका कहना है कि भव्य जीवों केलिये मोक्ष जाने में कोई कालका नियम नहीं है । जब जिस भव्यजीवको मोक्ष जानका सुवाग प्राप्त हो जाता है तव तिस भव्य जीवका मोक्ष की प्राप्ति होजाती है । अतः भव्य जीव कालकी अपेक्षा नहीं करते कि हमको जिसकालमें मोक्ष होनी है उसी कालमें ही हमको मोक्ष की प्राप्ति होगी, पहिले नही होगी ऐसा विचार करके निरुद्यमी नहीं होते, मोक्ष जाने केलिये प्रयत्न करते ही हैं। पं० फूलचंदजीने जितने उद्धरण दिये हैं सव अधूरे दिये हैं। जैसे भट्टाकलंक दवका अभिप्राय सम्पूर्ण रीतिसे उनके पार For Private And Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की कानजी के मत विरुद्ध है तो भी उसको उद्धृत कर लोगोंको प्रतारित किया है । आगेका उद्धरण छोड दिया है जिसमें श्राचास्पष्टता का नियमका निषेध किया है । वे लिखते हैं चोदनानुपपत्तेश्च ॥ १० ॥ अर्थ- जो केवल ज्ञानसे ही मोच माननेवाले हैं वा केवल चारित्रसे, वा ज्ञान चारित्र दोनोंसे अथवा सभ्यग्दर्शन सम्यग् ज्ञान और सम्यक चारित्र तीनोंसे मोच मानते हैं उनके शास्त्र में यह कहीं नहीं माना गया कि मन्यको कालब्धिसे मोक्षकी प्राप्ति होती है इसलिये काल मोचाकी प्राप्ति में कारण नही हो सकता । यदि समस्त मतके अनुयायी मोक्षाकी प्राप्ति में कालही कारण मानेंगे तो प्रत्यक्ष वा अनुमान से मोचके कारण निश्चित हैं वे सब विरुद्ध होजायेंगे इसलिये मोक्षकी प्राप्ति में काल किसी तरह कारण नही होसकता । म तत्त्वार्थ राजवार्तिकालंकार पृष्ठ १०० वां पूर्वाद्ध स्वर्गीय पं० गजाधरलालजी न्यायतीर्थकृत हिंदी अनुवाद | इसके आगे आपने जो पंचास्तिकायकी गाथा १८ और १८ का प्रमाण दिया है उससे भी आपके मन्तव्यको पुष्टि नहीं होती वृथा ही आपने परिश्रम कर कागद काले किये हैं। वे प्रमाण हैं इस प्रकार 1 "देवमनुष्यादिपर्यायास्तु क्रमवर्तित्वादुपस्थिता - तिवाहितस्वसमया उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चेति | १८ | For Private And Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २४३ 41 यदा तु द्रव्यगुणत्वेन पर्यायमुख्यत्वेन विवक्ष्यते तदा प्रादुर्भवति विनश्यति : सत्पर्यायजातमतिवाहितस्वकालमुच्छिनत्ति असदुपस्थितस्व कालमुत्पादयति चेति इसका अर्थ देखिये "देव और मनुष्यादिपर्याये तो बर्ती हैं उनका स्वसमय उपस्थित होता है और बीत जाता है इसलिये वे उत्पन्न होती हैं और नाशको प्राप्त होती है। तात्पर्य यह है कि देव और मनुष्य आदि पर्यायें अपने अपने स्वकाल के प्राप्त होने पर उत्पन्न होती हैं और स्वकाल के अतीत होने पर नष्ट होजातीं है । १६ । + " और जब यह जीवद्रव्यकी गौणता और पर्यायकी मुख्यतासे विक्षित होता है तब वह उपजता है और नाशको प्राप्त होता है जिसका स्वकाल बीत गया है ऐसे सत् ( विद्यमान ) पर्यायसमूहको नष्ट करता है और जिसका स्वकाल उपस्थित है ऐसे असत् (अमान) पर्यायसमूहको उत्पन्न करता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है सिद्धांत शास्त्रीजी उक्त कथनका (पंचास्तिकायका) ऐसा तात्पर्य निकालते हैं किन्तु पंचास्तिकाय के कथनका उक्त आशय नही है । आपने खींचातानी करके भानुमतिका कुनवा जोडनेवाली कहावत यहां पर चरितार्थ की है। अर्थात् ग्रन्थकारका तो कथन इतना ही है कि देव मनुष्यादिपर्यायें क्रमवर्ति हैं अर्थात् वह एकके पीछे एक उत्पन्न होती हैं तो भी उसमें कालभेद नहीं है इसीलिये आचार्य कहते हैं कि "स्वरमया उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चेति " स्वसमयका अर्थ यहां एक समयका है एकसमय में ही उत्पाद व्यय होता है । स्वसमका दूसरा अर्थ वर्तमान पर्यायका जो समय है वह उस पर्याय For Private And Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४ जेन तत्त्व मामांसा को का स्वसमय है । जैसे मनुष्यपर्यायका स्वसमय मनुष्य प्रायु पयत है वह उसपर्यायका स्वकाल है वह उसकालमें सत् पर्यायबान है । जब उसका आयु (स्वकाल) खतम होता है तब उसीसमयमें जो विद्यमान नहीं है ऐसी देवादिपर्याय उसीसमय उत्पन होजाती है उसमें कालभेद नहीं है वही उस देवादिपर्यायका स्वसमय है। अर्थात् जो स्वसमय मनुष्यपर्यायका था वहीं स्वसमय देवादिपर्यायका है क्योंकि मनुष्यपर्यायका नाश और देवपर्यायकी उत्पत्ति एक ही समयमें होगी इसलिये दोनू पर्यायों का स्वकाल वही एकसमय है । यदि ऐसा न माना जायगा तो सतपदार्थकी सिद्धि ही नहीं होगी क्योंकि सत्का लक्षण ही प्राचार्यान ऐसा ही किया है " उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्" ३० तत्त्वार्थसूत्र” इसलिये उत्पादव्यय दानोंका स्वकाल एक ही समयमात्र है। ऐसा नहीं है कि मनुष्यपर्यायका नाश होनेके बाद दूसरे समयमें जिस पर्यायका स्वकाल उपस्थित हुआ है वही पर्याय उत्पन्न होगी दूसरी नहीं। यदि ऐसा मान लिया जायगा तो जिसको मनुष्य पर्याय के नाशके बाद देवपर्यायका नम्बर आया है वह यदि मनुष्यपर्याय में पापाचार करता रहै तो क्या उसका नम्बर देवपर्याय में ही प्राप्त होगा कभी नहीं । 'जैसा करेगा, तेसा भरेगा' यह अटल सिद्धान्त है । इसी बातका समर्थन पूज्यपादस्वामीने इष्टोपदेशमें किया है। " वरं व्रतैः पदं देवं नाववत नारकं । छायातपस्थयार्भेदः प्रतिपालयतोमहान् " प्राचार्य कुन्दकुन्दस्वामी भी इसवातका समर्थन करते हैं। देखो मोक्षपाहुड गाथा २५ । । " वरवयतवेहि सग्गो मादुक्खं होउ निरइतिरेहिं । For Private And Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा छायातवटियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं " टीका-वरं ईपद्र चौ वरैः श्रेठ'तैस्तपोभिश्च स्वर्गो भवति तयार । मादुःग्वं भवतु निरये नरकावासे इतरैरवतैस्तपोभिश्च । छायातपस्थितानां ये छायायां स्थिता अनातपे वर्तते ते सुखेन तिष्ठति, ये बातपे धर्मे स्थिना वर्तन्ते ते दुःखेन तिष्ठन्ति । ___ प्रतिपालयतां व्रतानि अनुतिष्ठतां स्वर्गो भवति तदरं संसारिस्वेनापि ते सुखिनः । अब्रतानि प्रतिपालयतां नरके दुःखमनुभवतां अतिनिदितमिति महान् भेदो वर्तते । प्राचार्य कुन्दकुन्दस्वामी कहते हैं कि जैसे छाया में तिष्ठना सुखप्रद है तैसे व्रतादि धारण कर स्वर्गादिमें रहना संसारमें सुखदायक है । किन्तु धूपमें तिटना जैसे दुःखदायक है तैसे ही अवतसहित रहकर नरकादिक के दुख भोगना संसार में दुःखदायक है इसलिये दाना अवस्था में महान अन्तर है। ___क्या यह कथन मिथ्या है ? यदि है तो ब्रतादिक धारण करना निष्प्रयोजन है क्योंकि व्रतादिक धारण करने पर भी जो पर्याय जिस समयमें नियत है वह आपके कथनानुसार आगे पीछे तो होगी ही नही, फिर व्रतादिक धारण करना स्वतः निष्प्रयोजन है । यदि यह बात सत्य है तो व्रतादिक धारण करनेसे स्वर्गादिककी प्राप्ति होती है तो नियमितपर्यायका कथन आपका असत्य है । इसके अतिरिक्त आप जो द्रव्यमें भूत भविष्यत् वर्तमानसम्बन्धि समस्त पर्यायें विद्यमान मान मान कर एकके पीछे एक उदयमें आती हैं ऐसा कहते हैं उसका खंडन आपके दिये गये पंचाग्तिकायके प्रमाणसे होजाता है। क्योंकि उसमें कहा गया है कि___ " असदुपस्थितस्वकालमुत्पादयति चेति " इसका अर्थ करते हुये ओप भी स्वीकार करते हैं कि "जिस For Private And Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org "" २४६ जैन तत्त्वमीमांसा की का स्वकाल उपस्थित है ऐसे असत् ( अविद्यमान ) पर्यायसमूहको उत्पन्न करता है Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब कहिये पंडितजी ! आपका कौनसा कथन सत्य माने ? त्र्यमें त्रिकालपर्यायविद्यमानवाला या अविद्यमान असत् पर्याय उत्पन्न होनेवाला ? यदि पहिले वाला सत्य मानते हैं तो यह पीछेवाला कथन ( असतृपर्याय के उत्पन्नवाला ) मिथ्या सिद्ध होता है । यदि यह पीछेवाला कथन सत्य कहा जाय तो इसके पहिलेवाला कथन मिथ्या सिद्ध होता है और इसके साथ साथ नियमित पर्याय वाला कथन भी मिथ्या सिद्ध होजाता है क्यों किं सत् ( अविद्यमान ) पर्याय की उत्पत्ति में स्वकालका कोई नियम लागू नहीं पडता इसका कारण यह है कि जब वह पर्याय ही विद्यमान नहीं है तो उसका स्वकाल कैसा ? स्वकाल तो उसका माना जासकता है जो वस्तु ट्राकम हो, पहले से विद्यमान हो और उसके प्रगट होनेका काल निश्चित किया गया हो तो वह नियमितकालमें हो प्रगट होगी और जो असत् पर्याय उत्पन्न होगी उसके उत्पन्न होने में जैसा निमित्तों का साधन मिलेगा वह तप अर्थात् बुरे निमित्त मिलेंगे तो जीवको नर्कादि बुरी पर्याय उत्पन्न होगी अथवा अच्छा निमित्त मिलेगा तो देवादिककी अच्छी पर्याय धारण होगी। इसमें क्रमवद्धताका कोई नियम नहीं है। तो भी जिसप्रकार धतूरा खानेवालोंको सब और पीला ही पीला दिखाई देता है उसी प्रकार पंडितजी ! आपको भी सव ओर क्रमबद्धपर्याय हीं दिखाई पड़ती है । इसीलिये जो प्रमाण स्वपक्षका घातक है उसीप्रमाणको आप स्वपक्ष मडन में देरहे हैं । मोक्षपाहुड़ और स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाके आपने जो प्रमाण दिये हैं उनसे भी नियमितपर्यायकी सिद्धि नहीं होती प्रत्युत असिद्धि अवश्य होता है । For Private And Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा "अइसोहण जोएणं शुद्ध हेमं हवेइ जहतहम् । कालाइलद्धीए अप्पा परमप्पओ हवदी " २४ मो नपाहुड " कालाइल द्विजुत्ता णाणासत्तीहि संजुदा अत्था । परिणममाणेहि सयं ण सक्कदे कोवि वारेदु" - १६ स्वामिका इन दोनों गाथाओंसे न तो प्रत्येक कार्य म्वकाल में ही होते है आगे पीछे नहीं, यह सिद्ध होता और न निमित्तके विना केवल उपादानकी योग्यता से ही कार्योत्पत्ति होजाती है इसीवातकी सिद्धि होती है । प्रत्युत इससे तो यही सिद्धि होती है कि जिसप्रकार अनंधपाषाणादि गुरु उपदिष्ट अग्नि आदिक सुयोगसाधन द्वारा शुद्ध सुवर्ण हो जाता है उसीप्रकार कालादिलब्धीके संयोग प्राप्त होने पर यह छात्मा परमात्मा बन जाता है। __ इससे यह सिद्ध हुआ कि सुवर्णपाषाणको जिससमय विधिपूर्वक सोधा जायगा बह उसीममय सुवर्ण होजायगा। वह स्वकाल की अपेक्षा नहीं रखता । उसीप्रकार संसारी जीवोंको जिससमय काललाब्ध आदिका सुयोग निमित्त प्राप्त होता है वह उसीमामय मिद टोजाना है अतः इसमें स्वकालका पचडा लगानेको कोई गावश्यक्ता नहीं,क्योंकि काल लब्धि तो जिसकालमें जो कार्य बने सो काललब्धि, इसलिये काललब्धिका कोई नियत समय नहीं है । तथा होनहार भी जिससमय जो कार्य बन जाय उससमय उसका वह होनहार, अतः इनदोनों का कोई नियतकाल नहीं है । इनको तो बनाया जाता है । इसविषयमें स्व० ५० टोडरमल जी का यह कहना है कि "काललब्धि वा होनहार तो किछु वस्तु ही नाही जिसकालविषे कार्य वने सो ही काललब्धि और जो कार्य भया सो ही होनहार" मो०प्र०पृ०४६२ For Private And Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २४८ जैन तत्त्व मीमांसा की इससे स्पष्ट है कि काललब्धि और होनहार को पुरुषार्थद्वारा बनाया जाता है वह अपने श्राप विनाउद्यम ( पुरुषार्थ ) के नहीं बनता । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दूसरी गाथाका अर्थ है - कालादिलब्धि के संयोग पदार्थ नाना शक्तिसंयुक्त होता है अर्थात् वाह्यनिमित्तों के मिलनेपर पदार्थ कार्योत्पत्ति करने में समर्थ होता है क्योंकि वह परिणमनशील है इसलिये उसके परिणमन करने में कोई बाधा नहीं दे सकता है । जैसा कि समयसार में कहा है " पुद्गल परिणामी दरव, सदा परणवे सोग । यातें पुद्गलकर्मको, कर्ता पुद्गल होय" अतः सर्व द्रव्य परिणमन शील हैं इसलिये वे सदा परिणमन करते रहते हैं अन्यथा उनमें उत्पादव्ययकी सिद्धि ही नहीं होता अत एव पदार्थ सर्वही परिणमनशील हैं इसी बात को दिखाने के हेतु उक्त गाथा प्रगट की है। इसके पहिले गाथा २१७ में परिमनशक्तिका निरूपण करते हुये कार्तिकेय स्वामी कहते हैं कि"शियणियपरिणामाणं यि गिय दव्णं चि कारणं होदि । अणं वाहिरदव्वं णिमित्तं वियाह" २१७ भावार्थ-जैसे घट आदिकू माटी उपादान कारण है । अर चाक दंडादि निमित्त कारण हैं । तैसे सर्वद्रव्य अपने अपने पर्यायकू' उपादान कारण हैं । काल द्रव्य निमित्त कारण है। इससे स्पष्ट है कि कार्यरूप स्वयं द्रव्य परिणमन करता है किन्तु उसमें वाह्य निमित्त कारण हैं । ऐसे सर्वद्रव्य अपने पर्यायकू' उपादानकारण हैं, काल द्रव्य निमित्त कारण है । 1 है कि कार्यरूप स्वयं द्रव्य परिणमन करता इससे हिन्तु उसमें वाह्य निमित्तकी आवश्यक्ता अनिवार्य है । जैसे घटरूप For Private And Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोक्षा २४६ मिट्टीका परिणाम है पर उसपरिणमनमें कुभकारादि निमित्त कारणको अनिवार्य श्रावश्यक्ता है। बिना कुभकारादि निमित्तोंके म्वयं उपादान मिट्टी की योग्यतासे घट की उत्पत्ति नहीं होती तेसे ही सर्वकार्यमें निमित्तकारणों के बिना कंवल उपादानशक्तिको व्यक्ति नहीं होती यह नियम है। ___कार्योत्पत्तिमें आप निमित्तकारणोंको अकिंचित्कर मान कर भी कार्यात्पत्ति के ममय निमित्त स्वयं उदामीन रूपमें उपस्थित होजाते हैं किन्तु वे निमित्तकारण कार्योत्पत्तिमें कुछ भी प्रेरणा नहीं करते और न आदानमें कार्योत्पत्तिकी शक्तिमें योग्यता प्राप्त कराते हैं । कार्यात्पत्ति उपादानके अनुसार ही होती है निमित्त केवल निमित्तमात्र उपस्थित होते हैं इतनी वात जरूर स्वीकार करते हैं कि विना निमित्त की उपस्थिति के कार्य नहीं होता । __पंडितजी कहते हैं कि “यहांतक जो हमने उपादानकारणके स्वरूपकी मीमांसाके साथ प्रसंगसे उपादानकी योग्यता और स्वकालका विचार किया उससे यह स्पष्ट होजाता है कि जो क्रियावान निमित्त प्रेरक कहे जाते हैं वे भी उदासीन निमित्तोंके समान कार्योत्पत्तिके समय मात्र महायक होते हैं। इसलिये जो लोग इस मान्यतापर बल देते हैं कि जहां जैसे निमित्त मिलते है वहां उनके अनुसार ही कार्य होते है उनको वह मान्यता समाचीन नहीं है। किन्तु इमके स्थानमें यही मान्यता समीचीन और तथ्यको लिये हुये है कि प्रत्येक कार्य चाहैं वह शुद्ध द्रव्यमम्बन्धी हो और चाहै अशुद्धद्रव्य सम्बन्धी हो अपने अपने उपादानके अनुसार ही होता है। उपादानके अनुसार ही होता है इसका यह अर्थ नहीं है कि वहां निमित्त नहीं होता, निमित्त तो वहांपर भी होता है । पर निमित्त के रहते हुये भी कार्य उपादानके अनुसार ही होता है। यह एकान्त सत्य है । इसमें सन्देहके लिय स्थान नहीं है । यह For Private And Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्वमीमांसा की कारण है कि मोक्षके इच्छुक पुरुषों की अनादिरूढ लोकव्यवहारसे मुक्त होकर अपने द्रव्यस्वभावको लक्षमें लेना चाहिये ऐसा उपदेश दिया जाता है" ___पंडितजी ! आप जैसा कहते हैं वैसा उपदेश आचार्योंने तो नहीं दिया है आपकी और कानजीस्वामीको ऐसी मान्यता है उसमें आपको और उनको संदेः हो ही कैसे सकता है ? आपको और कानजीस्वामीका संदेह है तो आचायवचनोंमें है। इसलिये उनको झूठा तो लोक यसे कह नहीं सकते पर प्रकारान्तरसे उनको झूठा सिद्ध करने में और अपनी मान्यता सत्य सिद्ध करनेमें किसी प्रकार को श्राप लोगोंने कमी नहीं रखी । जो हो, आप लोगोंके प्रयत्नसे आचार्यवचन कभी मिथ्या नहीं होसकते क्योंकि प्राचार्योंके वचन केवली भगवानके ही वचन हैं प्राचार्य अपनी तरफसे कुछ नहीं कहते । वे तो केवली भगवानके वचनोंका ही प्रतिपादन करते हैं इसलिये उनके वचन मिथ्या नहीं होसकते । ___ उपादानकी योग्यता भी विना निमित्त के प्रगट नहीं होती मिट्टी में घट उत्पन्न करने की योग्यता शक्ति रूपसेविद्यमान रहने पर भी खानसे मिट्टी निकाल कर चाकके सामने रख देनेसे वह मिट्री घटरूप परिणमन नहीं करती ! उसमट्टी में बटरूप परिणमन करने की योग्यता स्वमेव प्राप्त नहीं होती । कुभकार के द्वारा उम मिट्टी में पानी देनेसे उसको गूदनेसे पीटने से उस मिट्टीमें घदरूप परिरणमन करने की योग्यता जो शक्तिरूप विद्यमान थी वह व्यक्त रूप प्रगट होती है अन्यथा नहीं । फिर भी वह मिट्टी अपना योग्यतासे स्वमेव घटादिरूप परिणमन नहीं करसकता । उसको कुभकार अपनी इच्छाअनुसार घटरूप परातरूप हांडीरूप दीपकरूप शिकोरा रूप परिणमाता है वह उसरूप परिणमन करती है । यह प्रत्यक्ष है इसीवातकी पुष्टिमें आचार्य अमृत चन्द्र कलश रूप काव्य कहते है । For Private And Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा न जातु रागादि निमित्तभावमात्मात्मनो याति यथाकान्तः नस्मिन्निमित्त परसंग एवं वस्तस्वभावोऽयमुदेति तावत्" __ अर्थात् जिसप्रकार सूर्यकान्तमणि स्वय अग्निरूप परिणमन नहीं करतो उसीप्रकार आत्मा कमा भा स्वमेव रागादिरूप परिरणमन नहीं करना ' परन्तु जिसप्रकार सूर्यकान्त मणीमें अग्निरूप परिणमनकरनेकी योग्यता विद्यमान होतेहुये भी सूर्यकी किरणों का जवतक निमित्त नही प्राप्त होता है तबतक वह अग्निरूप परिणत नहीं होती जब उसको सूर्यको किरो'का निमित्तलता है तब बद अग्निरूपमें परिणत होजाती है । उसीप्रकार आत्मामें रागादिरूप परिणमन करने की योग्यता वैभाविको शक्तिद्वारा विद्यमान है तो भो वह स्वयं रागादिरूप विना निमित्त के परिणमन नह! करता। जब उसको रागादिरूप परिणमन करने का निमित्त मिलता है तव ही वह रागादिरूप परिणभन करता है अन्यथा नही । इस कथनसे निमित्तके विना उपादान स्वयं कार्यरूप नहीं परिणमन करता है और वः प्रेरक निमित्त के अनुसार परिणमन करता है ऐमा सिद्ध होता है। प्रेरक कारणका निषेध करते हुये सिद्धान्त शास्त्रीजीने पंचास्तिकायकी गाथाकी टीका उद्घृत की है उससे प्रेरक कारणका निषेध नही होता प्रत्युन सिद्ध ही होता है। "यथा हि गतिपरिणतः प्रभंजनो वैजन्तीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्ताऽवलोक्यते, न तथा धर्मः । स खलु निष्क्रियत्वान्न कदाचिदपि गतिपरिणाममेवापद्यते कुतोऽस्य सहकारित्वेन परेषां गतिपरिणामस्य हतुकर्तृत्वम् किन्तु सलिलमिव मत्स्यानां जीवपुद्गलानामाश्रयकारणत्वेनोदासीन एवासौ गते प्रसरो भवति" For Private And Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 70% जैन तत्र मीमांसा की अर्थात् जिसप्रकार गतिपरिणत पवन ध्वजाओंके गतिपरिणामका हेतु - कर्ता दिखाई देता है उस प्रकार धर्मद्रव्य नहीं । इसका कारण यह है कि पवन प्रेरक निमित्तकारण है इसलिये जिस तरफकी हवा चलती है उसोतरफ वह ध्वजाको फहराती है किन्तु धर्मद्रव्य निष्क्रिय उदासीन निमित्तकारण है दमलिये वह जीव और पुद्गलद्रव्यको गमन करनेमें सहकारी कारण है जिसप्रकार पानी (जल) मीनको गमनकराने में सहकारी कारण है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस कथन से प्रो रककारणकी सिद्धि हो होती है खंडन नही होता | अतः जैनागम में उदामानकारण, सहायक कारण, वलदानकारण, और प्रेरक कारण इसतरह निमित्तकारणोंकी संख्या अनेक प्रकार बतलाई है। जिस कार्योत्पत्तिमं जिस निमित्तकी आवश्यक्ता होती है वह कार्य उसनिमित्तके बिना नहीं होसकता । यदि होता है तो एकादि उदाहरणस्वरूपतलाने की कृपा करें। केवल कह देने से काम नहीं चलता । उपादान निमित्त संवादने आप- निमित्तकी अकिंचित्करता सिद्धकरने में उद्धृत किया है किन्तु उससे भी निमित्तकारणकी अकिंचित्करता सिद्ध नहीं होती प्रत्युत निमित्तकी प्रबलता ही सिद्ध होती है । भैया भगौती दासजीने निमित्तको हारमें जो आखरी दोहा कहा है उससे भी निमित्तकी जीतकीही सिद्धि होती है । देखो वह दोहा ४० "तव निमित्त हारयो तहां अब नहीं जोर वसाय | उपादान शिवलोक में पहुँच्यो कर्म खिपाय " अर्थात् उपादान जव शिवलोक में पहुंच जाता है तब वहांपर निमित्तका कुछ जोर नहीं चलता । यह बात सत्य है क्योंकि वहां पर निमिनका कार्य कुछ भी न रहा किन्तु इसके पहिले तो For Private And Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा निमित्तका हो बोलवाला रहा । अथवा निमित्त जव स्वयं उपादानको इस्तावलम्वन देकर शिवलोकमें पहुंचा देता है तब उसकी हार कैसी ? वह तो परोपकारी रहा । उपादानको शिवपुर पहुंचा कर सदाके लिये सुरखी बना देता है। निमित्तका आखरी दोहा "सम्यग्दशन भये कहा त्वरित मुक्तिमें जाहिं । आगे ध्यान निमित्त है वह मोक्ष पहंचाहि" ३६ ग्रह यात सत्य है पानके विना मोक्षकी सिद्धि नहीं होती मोक्षप्राप्तिमं ध्यान प्रधान कारण है। कहा भी है। “परे मोक्षहेतू " "पर केवलिनः " ३८ तत्त्वार्थसूत्र अर्थात धर्म और शुक्लध्यान ये दोनों ही ध्यान मोक्षके हेतु हैं जिसमें शुक्लध्यान साक्षात् मोक्षका हेतु है इसके विना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती अतः ध्यानरूपीनिमित्त कारण जीवको मोक्षमें पहुंचा देता है । निमित्त कारणकी अंतिम सीमा यहीं तक है इसलिये वह अपनी सीमाको उलंघन कर आगे नहीं जाता। तथा आत्मा अपने घरमें पहुंच जाता है फिर उसको बाहर फिरने की जरूरत नहीं पडती इसलिये वहां पर उसको निमित्त की जरूरत भी नहीं रहती। इसदृष्टिकोणको लक्षम लेकर भैया भगोतीदासजीने हार जीतकी बात लिखी है। वास्तवमें देखा जाय तो इसमें हार जीत किसी की नहीं है। सब अपने अपने स्वभावमें स्थित है। __सम्यक्त्वकी प्राप्ति भी विना निमित्त के नहीं होती इसलिये भैया भगोती दामजीके उक्त दोहा से कोई यह न समझले कि सम्यक्त्व की प्राप्ति तो स्वमेव विना निमित्तके ही होजाती होगी किन्तु यह बात नहीं है वह भी विना निमित्त के स्वमेव नहीं होता संसार अवस्था में उपादान का कार्य निमित्त मिलनेपर ही होता है अन्य प्रकारसे नहीं। For Private And Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २५४ जैन तत्त्वमीमांसा की भैया भगोती दास जीने उपादानकी तरफ से जो यह दोहा कहा है वह सर्वथा आगमविरुद्ध पडता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " छोर ध्यानकी धारणा और योगकी रीत । तोरि कर्मके जालको, जोर लई शिवप्रीत " ३३ इस दोहाका अर्थ पं० फूलचन्द्रजीने निम्नप्रकार किया है। सो सत्य है इस दोहाका अर्थ ऐसा ही बैठता है । " जो जीव ध्यान की धारणाको छोडकर और योगकी परि पाटीको मोड कर कर्मके जालको तोड देते हैं वे मोक्षसे प्रीति जोडते हैं । अर्थात् मोक्ष जाते हैं "" संभव है, कानजी स्वामी और आप इसीलिये निमित्तको अकिंचित्कर समझ रहे है किन्तु पंडितजी ! ऐसा एकाध तो उदाहरण पेस करिये कि ध्यानकी धारणा को छोड़कर योगों से मुहमोडकर को तोड कर अमुक अमुक जीव मोक्ष गये। जिना गम तो ऐसा नहीं कहते कि ध्यानकी धारणा को छोडने वाले जीव कर्मोंको काट सकते हैं और मोक्ष जासकते हैं। जिनागम तो डंके की चोट यह कहते हैं कि " इदानीं शुक्लध्यानं निरूपयितव्यम् । तद्वच्यमाणचतुर्विकल्पम् । तत्राद्ययोः स्वामिनिर्देशार्थमिदमुच्यते 11 अर्थात् शुक्लध्यानके चार भेदोंमें आदिके दोय ध्यानके स्वामी कौन होते हैं उसका आचार्य यहां निरूपण करते हैं - For Private And Personal Use Only शुक्ले चाद्य पूर्वविदः || ३७ || तत्वार्थ सूत्रे टीका - पूर्वविदो भवतः श्रुतकेवलिन इत्यर्थः श्रेण्यारोहखात्प्राग्धय श्रेण्यां शुक्ले इति व्याख्यायते । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा अर्थात् प्रथमके दो शुक्लध्यान पूर्वधारी यतियोंके श्रेणी आरोहण के समय होते हैं । पृथक्त्ववितर्क एकत्ववितर्क इन दोनों ध्यानो में प्रथम पृथक्त्ववितर्क ध्यान तीन योगोंके सहारे होता है। दूसरा एकवितक ध्यान तीनो योगोंमें से किसी एक योगके सहारे होता है। वियोगम्य पृथक्त्ववितर्क त्रिपु योगेप्वेकयोगस्यैकत्ववितक ऐसा आगमवाक्य है । इसके आगे सयोगकेवलीका ध्यान काययोगके सहारे होता है और अयोगकेवलीका ध्यान योग रहित होता है। "काययोगस्य सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति अयोगस्य व्युपरतक्रियानिवौति" इस कथनसे स्पष्ट होजाता है कि मयोगकेवलीतक योगोंके सहारे ही ध्यान होता है और वह ध्यान ६ वर्ष घाट कोटिपूर्वतक भी होता है इसके आगे अयोगकेवलीका ध्यान योगरहित होता है उसका काल पंच लघु अक्षर उच्चारणमात्र है इस पंच लघु अक्षर उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने समय में कर्मकी एकसोअठतालीस प्रकृतियोमें मे ८५ पिचासी प्रकृतियों को "व्युपरक्रियानिवर्ती" ध्यान के द्वारा नष्ट करके कमरहित होकर मोक्षमें यह जीव पहुंच जाता है । इसके पहिले एकत्ववितक दूसरे ध्यानके द्वारा ६३ वेसठ प्रकृतियोंका नाश कर यह जीव केवली बन जाता है। यह ध्यानकी महिमा है । इसकी धारणा छोडनेवाले और योगोंसे मुह मोडनेवाले कर्मोको किस प्रकारसे तोडकर मोक्ष जासकते हैं सो शास्त्रीजी उदाहरणपूर्वक वतावें । अन्यथा उक्तकथनको मिथ्या स्वीकार करें । यदि कहो कि यह कथन चउदहवेंगुणस्थानके अंतसमयका है इसलिये मिथ्या For Private And Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५६ vwwwrmwinni..... ..... जैन तत्त्व मोमांसा की नहीं क्योंकि वहां पर न ध्यान है और न योग है कर्मों का क्षा होही जाता है। तो ठीक है पर चउदवे गुणस्थानत # तो ध्यान का निमित्त है यह वात तो मिद्ध होचुकी । चवदचे गुगास्थानके अंतसमय तो मोक्षप्राप्ति में समयभेद भो नहीं है जिसममय उक्त गुणस्थानका अंत हुश्रा उसीममय में मोक्ष की प्राप्ति हुई। फिर हार जीत किसकी ? उपादान अपने ठिकाने पहुंचे और निमित्त अपने ठिकाने रहे दोनों के परस्परका संबंध छूट गया । जब तक मोक्षप्राप्ति उपादानको न हुई तब तक निमित्तका संबंध रहा । इस कथनसे भी निमित्तकी हार नही हुई । प्रत्युत निमित्तकी सार्थकता ही सिद्ध हुई । अतिम निष्कर्ष भैया भगोतीदासजी ने जो निकाला है उससे भी निमित्तको मार्थकता ही सिद्ध होती "उपादान अरु निमित्त ये सव जीवनप वीर। जो निजशक्ति सम्हाल ही सो पहुचे भवतीर" ४२ अर्थात् निमित्त और उपादानका मम्बन्ध मवजीवोंके माथ है किन्तु जो जीव अपनी शक्ति ( भेदविज्ञान ) से निमित्त के द्वारा अपना कार्य सिद्ध करलेते हैं वे जीव मंमारसे पार होजाते हैं । जिसप्रकार पोत ( नाव ) के द्वारा नदी म मुसाफिर पार होजाते हैं उसीप्रकार निमित्तके सहयोगस यह संसारी जोव संसार समुद्रसे पार हो जाते हैं। उपरोक्त दोहा का यह तात्पर्य है। अतः भैया भगोतीदासजी कहते हैं कि उपादान अरु निमित्तको सरस वन्यो सम्बाद । समदृष्टि को सरल है, मूरखको वकवाद ४४ अर्थात् उपादान और निमित्तका यह मैने सरस सम्बाद For Private And Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा बनाया है । जो ज्ञानी समष्टि कहिये समान दृष्टि है जैसा को संसा मानने वाले समझनेवाले हैं उनके लिये तो यह सम्वाद समझने में सरल है । किन्तु जो मिथ्यारष्टि हैं मूर्ख उनकेलिये तो केवल वकवाद ही है दोहाका ऐसा तात्पर्य है। प्रेरक निमित्तवादीकी तरफसे शंका उठा कर आपने जो समाधान किया है वह उस शंकाका समधान नहीं है । किन्तु हर एक स धारणव्यक्तिके समझमें ही नहीं आसकता कि प्रश्नका उत्तर हुअा या नहीं इसढंगसे आपने वाक्यपटुतासे काम लिया है। खेर समीक्षा में सब खुलासा होजायगा। ___"प्रेरक निमित्तवादा कहेगा कि हमारी मान्यताका आशय यह है कि विवक्षित द्रव्यसे कार्य तो उसीके अनुरूप होगा पर हम बह कार्य आगे पीछे हो यह कर सकते हैं । उदाहरणार्थ जो आमका फल १५ दिन बाद पकेगा उसे हम प्रयत्नविशेषसे १५ दिन से पहले पका सकते हैं या जो फल ४ दिनमें नष्ट होनेवाला है उसे हम प्रयत्न विशेषसे चार माहतक रक्षित रख सकते हैं ! यही हम री या अन्य निमित्त की प्रेरता है परन्तु जब प्रेरक बादीके इस कथन पर विचार करते हैं तो इसमें रंचमात्र भी सार प्रतीत नहीं होता क्योंकि जिसप्रशार तिर्यकप्रचयरूपसे उपस्थित द्रव्यका एकप्रदेश उसीके अन्यप्रदेशरूप नहीं हो सकता एक गुण अन्य गुणरूप नहीं होसकता अथवा एक द्रव्य के प्रदेश अन्य द्रव्य के प्रदेशरूप नहीं ममते या एक द्रव्य गुण अन्य द्रव्यके गुणरूप नहां हामकते उमीप्रकार प्रत्येक द्रव्यकी ऊर्ध्वप्रवयरूपसे अवस्थितपर्याय में भी परिवर्तन होना संभव नहीं है । प्रत्येक द्रव्या' द्रव्यपीयें अ र गुगपर्यायें तुल्य हैं। उनमें से जिम पर्याय : जाम : .. है उसके प्राप्तहोने पर ही वह पर्याय होती है " पृष्ठ , जैनतत्त्वमीमांसा । पंडितजी ! जिस शंकाका For Private And Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५८ जैन तत्व मीमासा की समाधान अपनेसे न बने वेसी शंकाको उपस्थित करना विद्वानों का काम नहीं है। __ शंका तो थी प्रेरक निमित्त के सम्बन्ध कि प्रेरकनिमित्त द्वाग जो आम १५ दिन बाद पकनेवाला था उग्ने प्रयत्न द्वारा चार दिन में ही पका सकते हैं। अथवा जो आटा ४ दिन में नष्ट होने वाला है ( चलितरस होने वाला है ) उसे हम पौडर आदि के प्रयोगद्वारा चार माह नष्ट नहीं होने देते हैं इसलिये प्रेरक निमित्त द्वारा कार्य की सिद्धिोत है इसके मान से किम प्रकार की हानि नहीं है । अतः इस आशय के प्रश्न का उत्तर आपको प्रेरक निमित्त के निषेध में उदाहरण पूर्वक देना था जैसी शंका उदाहरणपूर्वक की गई है वैसा समाधान उदाहरणपूर्वक करना था जिससे मयंक गले उतर जाता परन्तु सत्य वात असत्य कैसे की जाय ! नहीं की जासकती इसाकारण प्रश्नका उत्तर न बननसे आपने असली वातको छिपाकर असंबद्ध उत्तर देदिया, इम ढंगसे कि साधारण लोग न समझ सकें कि उत्तर ठीक बना या नहीं। एक द्रव्य अन्य द्रव्य रूप नहीं परिणामन करता अथवा एक द्रव्यका गुण अन्य द्रव्यके गुणरूप परिणमन नहीं कर सकता यह तो द्रव्यगत स्वभावकी वात है इसके माथ तो प्रेरकनिमित्तका सवाल ही नहीं उठता। तथा स्वद्रव्यमें एक गुण अन्य गुणरूप परिणमन नहीं करता यह भी द्रव्यगत स्वभाव है तथा अगुरुलघु नामका एक गुण है वह सब द्रव्योंमें पाया जाता है उस गुणका कार्य सव द्रव्य के मव गुणोंकी मीमा वांध रखना है किसी द्रव्य या गुणको अपनी मीमाको उलंघन नहीं करने देशा इसकारण सव द्रव्य और सब द्रव्योंके गुण ये मब अपने अपने स्वरूप में राहा आश्रित रहने हैं अपने पसे बेकार नहीं होते इसलिगे इसके साथ प्रेरक निमित्तका सम्बन्ध ही क्या है ! For Private And Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ५६ कुछ नहीं अर्थात ज्ञान कभी दर्शन नहीं होता अथवा दर्शन कभी ज्ञान नहीं होता इसलिये इसके साथ प्रेरकनिमित्त का मम्बन्ध लागू नहीं होता। किन्तु जो गुणोंका परिणमन है उसके साथ प्रेरकनिमित्तका सम्बन्ध अवश्य है जैसा कि शंकामें श्रामादिके रसके परिणमन में बताया गया है। जो श्रामके रसकी अभी खट्टी पर्याय है और वह पक कर पंद्रह दिन बाद मीठी होगी तो उम्पको प्रेरक निमित्त चार दिन में मीठी पर्याय बना सकता है तथा प्राटेके रस गुण की वर्तमान में मीठी पर्याय है वह चार दिन बाद खट्टा हानबाली थी उसको प्रेरक निमित्त चार माह तक खट्टी पर्याय नहीं होने देता यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो अविपाक निर्जगका स्वरूप ही नहीं बनेगा और किसी जीवको सविपाक निर्जरा द्वारा मोक्ष नहीं होगा सब शास्त्र भूठे होजायगे। पंडित जो ! आप द्रव्य में जिसप्रकार गुण मदा विद्यमान रहते हैं उसी प्रकार द्रव्य में पर्याय भी सदा विद्यमान मानते हैं और उसका क्रमबद्ध स्वकाल में उदय आना मानते हैं यह आपकी आगमाविरुद्ध मान्यता है , इसीलिये श्राप कहते हैं कि-"प्रत्येक द्रव्यकी ऊर्जप्रचयरूपसे अवस्थित पर्यायों में भी परिवर्तन होना सम्भव नहीं है । प्रत्येक द्रव्यकी द्रव्य पर्यायें और गुणपर्याय तुल्य हैं उनमें से जिसपर्याय का जो स्वकाल है उसके प्राप्त होनेपर ही वह पर्याय होती है" पृष्ठ ६४ जैन मी० पंडितजी ! जव स्वभाः से आम १५ दिन बाद पकनेवाला था वह प्रेरणाद्वारा चार दिन में पका दिया अथवा जो आटा चार दिन में नष्ट होनेवाला था उसे प्रेरणापूर्वक चार मास तक सुरक्षित रक्खा तब उसका स्वकाल कहां गया ? स्वकाल तो तव माना जाता जव कि वह प्रेरणाद्वारा आगे पीछे न होकर ठीक समय पर पकता या नष्ट होता सो तो होता नहीं, निमित्तानुसार For Private And Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६० जैन तत्त्व मीमांसा की वह आगे पीछे भी होता देखा जाता है उसे मिथ्या कैसे कहा जासकता है ! इसलिये कार्योत्पत्ति में एवं द्रव्यके परिणमन में कालका कोई नियम नहीं है वह निमित्तके अनुसार कार्योत्पत्ति 'या द्रव्यकी पर्याय होजाती है। यदि ऐसा नही माना जायगा तो अकालमृत्यु, कमका उत्क अपकर्षण संक्रमणादि कोई भी व्यवस्था बन नहीं सकेगी यदि वन सकती है तो उदाहरणपूर्वक बताने की कृपा करें | हम देखते हैं और आगम में उदाहरण भी पाते हैं कि सप्त व्यसनी जीव उमरभर अशुभ कर्मोंको बान्धता है और उनकी स्थिति सागरों पर्यंत होती है तथा उनका अनुभाग भी बहुत कटु होता है तोभी यदि वह शेष समय में अच्छे निमित्तादि मिलने पर सुधर जाता है तो वह नर्कादिगतियोंके दुख न भोग कर स्वर्गादिमें सुख भोगता है । अर्थात् श्रशुभवन्धका उदय उसके शुभरूप में परिणत होजाता है। अथवा व्यसनी जीव गुरु आदिके उपदेश से जिनदीक्षा धारण कर उन सत्र कर्मको काटकर शिवधाम में प्राप्त होजाता है । कर्मके संयोग से सागरापर्यन्त उदयमें आनेवाली सर्वपर्यायोंको क्षणभर में नष्ट कर दिया जाता है अतः पंडितजी के कथनानुसार तो उसको इतनी जलदी मोक्ष नहीं होनी चाहिये अथवा शुभकर्मका शुमरूप में और शुभकर्मका अशुभरूप में भी परिणमन नहीं होना चाहिये जिसने जैसा कर्मोका बन्ध किया है उनकी जितनो स्थिति पडी है और उनमें जैसा अनुभाग रस पडा है। उनके अनुसार ही उसको ( उपादानको) कर्मके उदयानुसार ही क्रम द्ध पर्यायोंका स्वकालमें ही फल भोगना चाहिये आगे पीछे नहीं अथवा उदयमें आनेवाली कर्मपर्यायें नष्ट भी नहीं होनी चाहिये क्योंकि आगे पीछे उदयमें आनेसे अथवा नष्ट होजानेसे पंडितजी के स्वकालका नियम नहीं रहता । कहांतक कहैं, पंडितजो एक दो For Private And Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २६१ बाकी गलती हो तो उसका सुधार भी हो सकता है किन्तु जिस का घान ही बिगड चुका है उसका सुधार कैसे होय ? अर्थात् नही होय । ऐसा एक भी आगमप्रमाण नहीं मिलता जो कि यह जीव शुभाशुभ कर्म कैसे ही करते जावें किन्तु उसका फल बन्धके अनुसार न मिलकर जो भविष्य में नियत समय में जो पर्याय उदयमें आनेवाली है उसके अनुसार ही फल मिलेगा ! परन्तु आपके कथनानुसार जीवके साथ त्रिकालमम्बन्ध पर्यायें विद्यमान रहती हैं उसमें से जो भविष्यकाल में क्रमवार जो पर्यायें होनेवाली हैं वही होगी, कर्मवन्धके अनुसार नहीं होगीं यह बात जैनागमसे सर्वथा विपरीत है। ऐसा माननेसे न तो घरवार छोडकर तपश्चरण करनेकी ही जरूरत है और न पापसे डरनेकी ही जरूरत है क्योंकि हमारी आत्मा के साथ जो भविष्य में उदयमें आनेवाली अनन्तानन्त पर्यायें विद्यमान हैं उन्ही में से क्रमबद्ध उदयमें नियतसमय में आवेगी उसके अतिरिक्त टमसे मस और कुछ होनेवाला नहीं है। फिर हमको तपश्चरण करनेकी और पापकर्म करनेसे डरने की जरूरत ही क्या है ? क्योंकि उसका फल तो हमको मिलेगा ही नहीं, फल तो हमको स्वकालमें उदयमें आनेवाली पर्यायके अनुसार ही भोगना पड़ेगा जो जीवके साथ नियत है । यदि ऐसा कहा जाय कि जो वर्तमानमें शुभ अशुभकर्म करते अथवा जो पूर्व में शुभाशुभकर्म किये हैं उनसत्रका परिणमन स्वकालमें उदयमें आनेवाली पर्यायानुसार होजाता है इसलिये शुभाशुभ कर्मवन्धके अनुसार उदयमें न श्राकर वन्धका संक्रमण स्वकाल में उदय में आनेवाली पर्यायके अनुसार होजाता है, परन्तु इसकेलिये भी कोई आगमप्रमाण होना चाहिये । विना प्रमाणके सव श्रप्रमाण है तभी थोडीदेरके लिये यदि हम आपके कथनको For Private And Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की सत्यभी मानलें तो भी इस कथनसे नियत समयमें होने वाली पर्यायके अनुसार शुभाशुभ कर्मवन्धका परिणमन होजाता है गह सिद्ध नहीं होता। क्योंकि ऐमा नियम नहीं है कि वन्ध होने के वाद सबही कर्मोंका क्रमवद्ध पर्यायके अनुसार संक्रमण होता ही रहै । निमित्तानुसार किसी कर्मका उत्कर्षण किसीका अपकर्षण किसीका संक्रमण, किसीको उदीरणा, किसीका सत्तामें ही उदय आये विना ही नष्ट हो जाना और किसीका जैसा वन्ध किया है पैसा ही उदय, आना इत्यादि कर्मों की निमित्तानुसार अनेक अवस्था होती हैं इसलिये क्रमबद्ध नियम पर्यायानुसार सर्वाकर्मों का संक्रमण होकर परिणमन होजाय यह बात बनती नही । निकांवित कर्मका कुछ भी हेरफेर नहीं होता जैसा बन्ध किया है वैसा ही उदयमें आता है । इसलिये पर्यायका कोई स्वकाल निश्चित नहीं है वह तो नवीन नवीन उपजती है और नष्ट होती है इस वातको ऊपरमें आगम प्रमाणसे सिद्ध कर आये है अतः जीवके साथ त्रिकाल सम्बन्या सर्वा पर्याय विद्यमान अवस्थित रहती हैं यह आपकी मान्यता सर्वाथा आगमविरुद्ध है। ___ आयुकर्मका वन्ध त्रिभागीमें होता है उसकी आठ विभागी होती है आठ त्रिभागीमें यदि आयुर्मका वन्ध न हुआ हो तो "अंतमता सो मता" अर्थात् अंत समयमें जैसा परिणाम होता है उसके अनुसार आयुका बन्ध हो जाता है । अतः यह वन्ध क्रमवद्ध पर्यायके अनुसार ही हो ऐसा नियम नहीं है और ऐसा नियम हो भी नहीं सकता है । इसका कारण यह है कि कर्मों का वन्ध तो समय समय प्रति अपने परिणामोंके अनुसार वन्धता रहता है और उनकी स्थिति और अनुभाग बन्ध भी परिणामोंके अनुसार ही होता है । स्था वर्तमान परिणाम भी वर्तमान शुभाशुभ निमित्तोंके अनुसार ही होते हैं। परन्तु ऐसा कोई कहीं पर For Private And Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २६३ भी आगम प्रमाण देखनेमें नहीं आता कि भविष्य में स्वकालमें उदयमें आनेवाली पर्यायके आकर्षणसे आत्माके पहिले ही उस रूप परिणाम होकर वन्ध भी स्वकालमें उदयमें आनेवाली पर्यायके अनुसार सत्तर कोडाकोडी तीस कोडाकोडी आदि स्थितिको लेकर होता हो और फिर वह स्वकालमें उदयमें आनेवाली पर्यायके अनुसार उदयमें आता रहै। यदि ऐसा आगम प्रमाग' आपको कहीं मिला हो और उसीक वल पर आप क्रमवद्ध पर्यायका समर्थन करते हो तो उसको प्रगट करें अन्यथा क्रमवद्ध पर्यायका समर्थन स्वकाल पयायके रूपमे, क्रम नियमित पर्यायके रूपमें, स्व सम्यकनियति रूपमें, कर रहै हैं सो सर्व मिथ्या है । क्योंकि आत्माके साथ एक वर्तमान पर्यायको छोडकर और कोई भी भूत भविष्यत पर्याय विद्यमान नहीं रहती जो क्रम क्रम से . नम्बरवार उदयमें आती रहै । पर्यायें तो असत् ही समय समय प्रति उत्पन्न होती रहती हैं और विनशती जाती हैं। इसका स्पष्टी करण स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथा २४३ २४४ द्वारा उपरमे कर आये हैं फिर भी यहां प्रकरणवश और भी उसको उद्धृत कर देते हैं। शंका-द्रव्यविषे पर्याय विद्यमान उपजे हैं या अविद्यमान उपजे हैं ? इसका समाधान करते हुये प्राचार्य कहते हैं कि जदि दब्वे पज्जाया विविज्जमाणा तिरोहिदा संति । ता उप्पत्ती विहला पडपिहिदे देवदत्तिव्य " २४३ भावार्थ-जो द्रव्यविषे पर्याय हैं ते भी विद्यमान हैं तिरोहित कहिये ढके हैं। ऐसा मानिये तो उत्पत्ति कहना विफल है : (मिथ्या है, जैसे देवदत्त कपडासू ढक्या था ताका उघाड्या तव : कहैं कि यह उपज्या सो ऐसा उपजना, कहना तो परमार्थ नही, तातें अविद्यमान पर्यायकी उत्पत्ति कहिये। For Private And Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .............rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrn २६४ जेन तत्त्व मामांसा की "सब्वाणपज्जयाणं अविजमाणाण होदि उप्पत्ति । कालाई लद्धीए अणाइणिहम्मि दवम्मि" २४४ . भावार्थ-अनादि निधन द्रव्य विषे काल आदि लब्धीपति सर्व पर्यायनिकी अविद्यमानकी ही उत्पत्ति है। अर्थात् अनादि निधन द्रव्यविषे काल आदि लब्धिकरि पर्याय अणछती अवि द्यमान हो उपजे हैं। ऐसा नाही कि सर्व पर्याय एकही समय विद्यमान है ते ढकते जाय हैं किन्तु समय समय प्रति क्रमते नवे नवे ही उपजे हैं । द्रव्य त्रिकालवर्ती सर्वपर्यायनिका समुदाय है, कालभेदकरि क्रमते पर्याय होय हैं। ___ तात्पर्य यह है कि-द्रव्यके और पर्यायके धर्म और धर्मीकी विविक्षा करि भेद है किन्तु वस्तुस्वरूपकरि द्रव्य और पर्याय अभे. दरूप ही है । इस दृष्टिसे कचित् द्रव्य त्रिकाल पर्यायोंका समुदाय कहागया है न कि विद्यमान पर्यायोंकी अपेक्षासे कहा गया है ? यदि विद्यमान पर्यायोंकी अपेक्षासे द्रव्यको त्रिकाल पर्यायोंका समुदाय कहा गया हो तो इस वातका स्वयं प्रथकार निषेध किसलिये करते ? इसलिये यही मानना पडता है कि द्रव्य गुण पर्याय अभेदस्वरूप होनेसे द्रव्यमें कालादि निमित्त कारणों के अनुसार समय समय प्रति नवीन नवीन ही पर्याय उत्पन्न होती है और नष्ट होती जाती है । विद्यमानकी उत्पत्ति कहना अपरमार्थ भूत है क्योंकि वह विद्यमान तो है ही, उसकी उत्पत्ति कैसी ? इसलिये अविद्यमानकी ही उत्पत्ति कही जाती है ऐसा न्याय है। द्रव्यमें न तो भूतकालीन सर्व पर्यायें भी विद्यमान रहती है और न भविष्यकालीन सर्व पर्याये ही विद्यमान रहती हैं सिवाय वर्त. मान पर्यायके, सो भी स्वकाल वीत जानेसे अर्थात् उस पर्यायका काल खतम हो जानेसे वह नष्ट हो जाती है और उसी समय पर For Private And Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २६५ कालादि निमित्त पाकर दूसरी पर्याय अपने स्वकालमें नवीन ही उत्पन्न हो जाती है। जैसे मनुष्यपर्यायका स्वकाल खतम होजाने पर मनुष्य पर्याय नष्ट हो जाती है उसी समय उदयमें आनेवाली देवपर्याय उत्पन्न हो जाती है। देव पर्याय के उदय का स्वकाल और मनुष्यपर्यायका अंतका स्वकाल यह दोनू का स्वकाल एक समय मात्र है अर्थात् समयभेद नही है जिस समय मनुष्यपर्यायका स्वकाल नष्ट होता है उसी समय देवपर्यायका स्वकाल उदयमें आता है इस कारण यह जोव मनुष्यपर्यायसे छटकर देवपर्यायको धारण कर लेता है । मनुष्य और तियंच पर्यायका स्वकाल पूरा प्राप्त न हो कर वीचहीमें नष्ट हो सकता है । " औपपादिकचरमोत्तम देहासंव्येयवर्षायुषोऽनपवायुमः" तत्त्वार्थसूत्र अध्याय२ सूत्र ५३ __इसकथनसे देवनारकी तथा चरम उत्तमशरीर वाले तीथकर तथा भोगभूमिज इनकी आयु विष शस्त्रादिकसे नष्ट नही होती इनके अतिरिक्त सब जीवोंकी श्रायु विष शस्त्रादिकसे नष्ट भी हो जाती है इस कारण इनकी श्रायुका स्वकाल वीचहीमें खतम होजाता है और उसी समय दूसरी पर्यायका स्वकाल उदय में आजाता है । यह सव पर्याय जीवके साथ विद्यमान नहीं रहती इनकी उत्पत्ति निमित्तोंके अनुसार अविद्यमानकी ही होती है। इसीवातका स्पष्टी करण पचास्तिकायकी गाथा ११ से हो जाता टीका'यदा तु द्रव्यगुणत्वेन पर्यायमुख्यत्वेन विवदयते तदा प्रादुर्भवति विनश्यति सत्पर्यायजातमतिवाहितस्वकालमुच्छिनत्ति असदुपस्थितस्वकालमुत्पादयति चेति" इस टीकामें स्पष्ट शब्दोंमें घोषित किया है कि जो वर्तमानमें सतरूपपर्याय है वह तो अपना स्वकाल खतम होनेपर नष्ट हो For Private And Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६६ जैन तत्त्वमीमांसा की जाती है और जो विद्यमान नहीं है अविद्यमान असतरूप है वह अपने स्वकालमें उत्पन्न हो जाती है । इस कथनसे यह तो अच्छी तरह सिद्ध हो ही जाता है कि जो पर्याय नवीन उत्पन्न होती है वह जीवके साथ विद्यमान नहीं थी अतः अविद्यमान ( असत् ) की ही उत्पत्ति होती है जिसका स्वकाल उदयमें श्राजाता है । यह सामान्य कथन है इससे यह भी नहीं समझना कि सर्व पर्यायोंका स्वकाल नियमित है। उसमें हेर फेर नहीं होता जैसा कि पं० फूलचन्दजी शास्त्रीका कहना है। ___ कालादिलब्धीयोंके अनुसार इनमें हेरफेर भी होता है उत्कर्षण,अपकर्षण संक्रमणादि सव होते हैं । मनुष्यादि पर्यायोंका वन्ध समय समय प्रति होता रहता है और उसका विनाश भी प्रतिसमयमें होता रहना है, इनका यह नियम नहीं है कि जो पर्यायें समय समय प्रति वन्धको प्राप्त हुई हैं उनका उदय भी उसी रूपमें समय समय प्रति क्रमवद्धसे आये विना नहीं रहेगा इसका कारण यह है कि यह नामकर्म की प्रकृति है इसका वन्ध प्रतिसमय होता ही रहता है किन्तु आयुकर्म का वन्ध त्रिभागीमें ही होता है इसलिये जिस आयुका वन्ध हुआ है वह उस पर्यायको अवश्य ही धारण करेगा इसके अतिरिक्त अन्य पर्यायोंका जो वन्ध किया था वह वट्टा खातेमें जायगी अर्थात् उदयमें आये विना ही निर्जर । जायगी। इसलिये क्रमवद्ध (नियमितपर्याय) पर्यायकी मान्यता सर्वथा एकान्तरूप से मिथ्या है।' पं० फूलचन्दजीका इस सम्बन्धमें आखरी वक्तव्य निम्न प्रकार है। ___"इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट होजानेपर भी कि प्रत्येक कार्य अपने अपने स्वकालमें अपनी अपनी योग्यतानुसार ही होता है, और जव जो कार्य होता है तव निमित्त भी तदनुकूल For Private And Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . समीक्षा २६७ मिल जाते हैं । यहां यह विचारणीय होजाता है कि प्रत्येक समयमें वह कार्य होता कैसे है ? क्या वह अपने आप हो जाता है या अन्य कोई कारण है जिसके द्वारा वह कार्य होता है ? विचार करने पर विदित होता है कि वह इस साधन सामग्रीके मिलनेपर अपने अपने वल, वीर्य, या पुरुषार्थके द्वारा होता है अपने आप नहीं होता है , इसलिये जीवके प्रत्येक कार्यमें पुरुषार्थकी मुख्यता है। यही कारण है कि जिन पांच कारणोंका (निमित्तोंका ) पूर्व में उल्लेख कर आये हैं उनमें एक पुरुषार्थभी परिगणित किया गया है । हम कार्योत्पत्तिका मुख्य साधन जो पुरुषार्थ है उस पर तो दृष्टिपात करें नहीं और जव जो कार्य होना होगा होगाही यही मानक' प्रमादी वनजांय यह उचित नहीं है । सर्वत्र विचार इस बातका करना चाहिये कि यहां ऐसे सिद्धान्तका प्रतिपादन किस अभिप्रायसे किया गया है। वास्तवमें चारों अनुयोगोंका सार वीतरागता ही है जैसे विपर्यास करने के लिये सर्वात्र स्थान है । उदाहरणस्वरूप प्रथमानुयोगको ही लेलीजीये । उसमें महापुरुषोंकी अतोत जीवन घटनाओं के समान भविध्यसम्बन्धी जीवन घटनायें भी अंकित की गई हैं। अब यदि कोई व्यक्ति उनकी भविष्यसम्बन्धी जीवन घटनाओंको पढकरि ऐसा निर्णय करने लगे कि जैसे महापुरुषोंकी भविष्य जीवनघटना सुनिश्चित रही है उसीप्रकार हमारा भविष्यतभी सुनिश्चित है अतएव अव हमें कुछ भी नही करना है जव जो होना होगा होगा ही,तो क्या इस आधारसे उसका ऐसा निर्णय करना उचित कहा जायगा ? यदि कहो कि इस आधारसे उसका ऐसा निर्णय करना उचित नहीं है। किन्तु उसे उन भविष्य सम्बन्धी जीवन घटनाओं को पढकर ऐसा निर्णय करना चाहिये कि जिस प्रकार ये महापुरुष अपनी अपनी हीन अवस्थासे पुरुषार्थद्वारा उच्च अवस्थाको प्राप्त हुये हैं उसी For Private And Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तव मीमांसा की तत्त्व २६८ प्रकार हमें भी अपने पुरुषार्थद्वारा अपने में उच्च अवस्था प्रगट करनी है। तो हम पूछते हैं कि फिर प्रत्येक कार्य स्वकालमें होता है इस सिद्धान्तको सुनकर उसका विपर्यास क्यों करते हैं | वास्तबमें यह सिद्धान्त किसीको प्रमादी बनानेवाला नहीं है। जो इस का विपर्यास करता है वह प्रमादी वनकर संसारका पात्र होता है और जो इस सिद्धान्त में छिपे हुये रहस्य को जान लेता है वह परकी कर्तृत्वबुद्धिका त्याग कर पुरुषार्थ द्वारा स्वभाव सन्मुख हो मोक्षका पात्र होता है। प्रत्येक कार्य स्वकालमें होता है ऐसी यथार्थ श्रद्धा होने पर परका मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूं ऐसी कर्तृत्वबुद्धि तो छूट हो जाती है साथही मैं अपनी आगे होनेवाली पर्यायों में कुछ भी फेरफार कर सकता हूं इस अहंकार का भी लोप हो जाता है। परकी कर्तृत्वबुद्धि छूटकर ज्ञाता दृष्टा बनने के लिये और अपने जीवन में बीतरागताको प्रगट करनेके लिये इस सिद्धान्तको स्वीकार करनेका बहुत बडा महत्त्व है जो महानुभाव समझते हैं कि इस सिद्धान्त के स्वीकार करने से अपने पुरुषार्थ की हानि होती है वास्तव में उन्होंने इसे भीतरसे स्वीकार ही नहीं किया ऐसा कहना होगा | यह उस दीपक के समान है जो मार्गका दर्शन कराने में निमित्त तो है पर मार्गपर स्वयं चलना पड़ता है। इसलिये इसे स्वीकार करने से पुरुषार्थकी हानि होती है ऐसी खोटी श्रद्धाको छोडकर इसके स्वीकार द्वारा मात्र ज्ञाता दृष्टा बने रहने के लिये सम्यक् पुरुषार्थको जागृत करना चाहिये । तीर्थकरों और ज्ञानी संतोंका यही उपदेश है जो हितकारी जानकर स्वीकार करने योग्य है" जैनतत्वमीमांसा पृष्ठ ७६-८० पं० फूलचन्दजीका उपरोक्त कथन हमें वडा पसन्द आया आपका यह कहना यथार्थ है कि जो इस सिद्धान्त के छिपे हुये रहस्य For Private And Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २६६ को जान लेता है वह परको कर्तृत्ववुद्धिका त्याग कर पुरुषार्थद्वारा स्वभाव सन्मुख हो मोक्षका पात्र हो जाता है और जो इसका विपर्याम करता है वह प्रमादो बनकर संसारका पात्र हो जाता है " क्योंकि " तीर्थंकरों और ज्ञानी सन्तोंका यही उपदेश है।" ___ वास्तवमें पंडितजी सिद्धान्त शास्त्री हैं इसलिये सिद्धान्तके रहस्य को श्राप अन्छी तरहसे समझ चुके हैं। इसके अतिरिक्त का नजो स्वामी जैसे सन्तपुरुषोंका समागम यह सोनेमें सुगन्धवाली कहावत चरितार्थ हुई । उक्त सिद्धान्तके छिपे हुये रहस्यको समझनेवाले आप और कानजी स्वामी ही मोक्षको जानेके पात्र हैं और सब आपके समझे हुये रहस्यका विरोध करनेवाले संसारके ही पात्र हैं। इसमें कोई संदेह की बात नहीं है क्योंकि उन सककी श्रद्धा पुरानी है इसलिये आपकी नवीन श्रद्धाका विरोध करते हैं इस कारण वे संसार में ही परिभ्रमण करेंगे। और आप समीचीन श्रद्धासे अवश्यही मोक्ष जांयगे यही बात है ना। पंडितजी ! यह बात तो हमारे समझमें आगई पर एक बात समझ में न आई वह यह है कि जव मोक्ष जाना सवका सुनिश्चित समय है तव वह कदाचित् अपने स्वकाल में आपसे भी पहिले मोक्ष जा सकते हैं । आपसे भी पहिले मोक्ष जानेका स्वकाल उनका आसकता है फिर आपका जो यह कहना है कि " इस सिद्धान्तके छिप हुये रहस्य को समझनेवाले ही मोक्ष जांयगे और जो इस सिद्धान्तके छिपे हुये रहस्यको नहीं समझते हैं नहीं जानते हैं वे संसारमें ही परिभ्रमण करेंगे सो सव स्वतः मिथ्या सिद्ध होजाता है । अतः श्रापकी मान्यताके रहस्यको समझनेवाले और न समझनेवाले दोनू हो अपने अपने स्वकालमें तो मोक्ष जावेंगे ही फिर आपकी समीचीन मान्यताको क्या कीमत रही। आपकी मान्यतानुसार जो जैनधर्म से वहिर्मुख है वह भी अपने अपने For Private And Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की .... ............... ....................... स्वकालमें मोक्ष जावेंगे ही फिर जैनधर्म धारण करने से ही मोक्षप्राप्ति होती है यह नियम तो रहा नहीं, आपके कथनानुसार सर्व कार्य एक अपने अपने स्वकाल में अपने अपने वल वीर्य द्वारा सिद्ध होते हैं उनमें जैनवर्म के निमित्तकी आवश्यकता क्या है ! अपने अपने स्वकाल में सर्व कार्य होंगे ही यह निश्चित वात है उसमें कुछ भी हेर फेर होनेका नहीं है ऐसा आपका कहना है ही, इस हालत में स्त्री पुरुष नपुंसक धोधी चमार गृहस्थ जैन अजैन सबको ही अपने अपने स्वकाल में मोक्ष मिल ही जायगो यह आपकी मान्यता का "बहुत बडा महत्व है" जो सवको खाते पाते भोज मजा करते करते अपने आप स्वकालमें मोक्ष मिल जायगा । श्वेताम्बरमान्यता में मनुष्य पर्यायस ही मोक्ष मानी है मनुष्य में चाहे स्त्री हो पुरुष हो नपुंसक हा शूद्र हो कोई भी हो आत्माकी भावना करनेसे मुक्ति पा लेता है । इसमें सन्देह नहीं है। " सेयंवरो असांवरो ये बुद्धो य तह य अण्णोय । समभावभावियप्पा लहेइ सिद्धिं ण संदेहो" षट्प्राभृतके १२ पृष्ठसे ३० अर्थात् मनुष्य चाहे तो श्वेताम्वर हो या दिगम्बर हो बौद्ध हो अथवा अन्यलिंगधारी ही क्यों न हो अपनी आत्माकी भावना करनेसे मुक्ति मिलजाती है इसमें संदेह करनेकी जरूरत नहीं है। "इह चउरो गिहलिंगे दसन्नलिंगेसयंचअट्ठहियं । विन्नेपंच सलिंगे समयेणं सिद्धमाणाणं " ४८२ प्रवचनसारोद्धारतीसराभागपृष्ठ १२७ से उद्धृत For Private And Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोक्षा २७१ अर्थात् एक समय में अधिक से अधिक गृहस्थलिंगसे चार मनुष्य सिद्ध होते हैं। दश अन्य तापस आदि अजैन लिंगधारी मोक्ष पाते हैं 1 यह तो श्वेताम्बर सम्प्रदायकी मान्यता है, इससे भी अधिक मान्यता श्रापकी है जो मोक्ष जानेमें किसीको कुछ अड़चन भी नहीं रहती, चाहे वह मनुष्य हो चाहे वह तियंच हो अथवा नारकी या देवी क्यों न हो जब जिसका मोक्ष जानेका स्वकाल आवेगा वह उसी समय मोक्ष प्राप्त करेगा ही इसमें कुछ भी हेर फेर नही है. इसलिये आपको मान्यताको सर्वोदय मान्यता कही जाय तो अयुक्त नहीं होगी । श्रतः दिगम्बरजैन सिद्धान्त कासार रहस्य आपको ही कानजी स्वामीकी बदौलत प्राप्त हुआ है वह आपको मुबारिक हो, जो सबको अपने अपने स्वकालमें मोक्ष जानेका टिकट मिल जायगा, पंडितजी ! यह तो अच्छा ही हुआ जो किसीको मोक्ष जानेकी चिन्ता ही न करनी पड़ेगी क्रमवद्धपर्यायका --- जव मोक्ष जानेका नम्बर आयगा उसी समय मोक्ष हो ही जायगो किन्तु इसमें एक थोड़ीसी वाधा आती है वह किस तरह दूर होगी सो वतानेको कृपाकरें। एक तो यह कि छह महीना आठसमय में जो ६०८ जीव मोक्ष जानेका जो आपने नियम वतलाया है उसकी far faस प्रकार से बैठ सकती है ? जबकि असंन्तानन्त जीवराशि है तब उनमें से छहमहीना आठ समय में छहसोआठ जीवोंका ही मोक्षजाने का स्वकाल प्राप्त हो अधिकका नहीं होय यह वात संभव प्रतीत नहीं होती क्योंकि इससे अधिक न होने में कोई वाधक कारण भी दिखाई नहीं देता और न ऐसा कोई आगमप्रमाण ही मिलता है अनंतानन्त जीवराशी में से मोक्ष जानेका स्वकाल छह महीना आठ समय में छहसो आठ जीवांको ही प्राप्त होता है अधिकको नहीं For Private And Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७२ जैन तत्त्व मीमांसा की होता यह वात तो तवहीं बन सकती है जबकि स्वकालका कोई नियम न रहै । जव इस जीवको मोक्ष प्राप्त करनेका साधन ऊंचकुल, वनवृषभनाराच संहनन, चतुर्थकाल, जैनधर्म, जिनदीक्षा, शुक्लध्यान इत्यादि सब निमित्तकारण मिले तब जाकर मोक्षकी प्राप्ति होती है। मोक्ष जानेके साधनमें एक साधन की भी कमी रहजाय तो उसको मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती। ऐसे साधन हर एक जीवको नहीं मिलते, ऐसे साधन जिसको मिलते हैं वही मोक्ष जाते हैं । इसमें स्वकालका नियम नहीं है । इसीलिये भट्टाकलंकदेवने मोक्ष जानेमें स्वकालका निषेध किया है वह ऊपरमें उधृत किया जाचुका है। अतः मोक्षजाने में कोई स्वकालका नियम नहीं है । जो स्वकालका नियम मानकर उसकी प्रतीक्षा करते हैं वे अज्ञानी हैं। क्योंकि स्वकाल का नियम माननेवालोंके लिये कोई नियम लागू नहीं पडता उसके लिये तो सर्व अवस्थामें स्वकाल प्राप्त होने पर सव जीव मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं । इसलिये मोक्ष प्राप्तिमें स्वकालका नियम मानना सर्वथा जैनागमसे विरुद्ध है। __आपका जो यह कहना है कि " प्रत्येक कार्य स्वकालमें होता है ऐसी यथार्थश्रद्धा होनेपर परका में कुछ भी कर सकता हूं ऐसी कर्तृत्व बुद्धि तो छूट ही जाती है, साथ हीमें अपनी आगे होने वाली पर्यायोंमें कुछभी हेर फेर कर सकता हू इस अहंकार का भी लोप हो जाता है। परकी कर्तृत्वकी बुद्धि छूटकर ज्ञाता दृष्टा वननेके लिये और अपने जीवनमें वीतरागताको प्रकट करनेके लिये इस सिद्धान्तको स्वीकार करनेका वडामारी महत्व है " जैनतत्त्वमीमांसा पृष्ठ ८० __पंडितजी ! या तो आप भूल करते हैं या जान बूझकर(कारण पश) लिखते हैं अन्यथा ऐसी असत्यवातें नहीं लिखते स्वकालमें For Private And Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २७३ सर्वकार्यको सिद्धि मानने वाला व्यक्ति सदा सर्वथा पुरुषार्थी ही नहीं होगा। क्योंकि उनकी मान्यतामें तो कोई भी कार्य स्वकाल के विना होगा नहीं फिर वे पुरुषार्थ किसलिये करेंगे ? मनुष्य पुरुषार्थ तो तो करता है जब कि वह यह समझता है कि इस कार्यको मैं कर सकता हूं अन्यथा पुरुषार्थ करने की जरूरत क्या ? आपके सिद्धान्तानुसार कोई भी कार्यस्वकाल के बिना आगे पीछे होनेवाला नहीं फिर उस कार्य के लिये पुरुषार्थ करनेवाला समझदार समझा जावेगा या मूर्ख ? अत: यह बात आपको भी स्वीकार करना पडेगी कि जो कार्य पुरुषार्थ साध्य नहीं स्वकाल साध्य उस कार्य करने में पुरुषार्थ करनेवाला व्यक्ति मूर्ख ही है । आप भी तो छिपे शब्दों में स्वकालमें कार्यकी सिद्धि माननेवालों को निरुद्यमी पुरुषार्थहीन आलसी मानते हैं । " मैं अपन आगे होनेवाली पर्यायोंमें कुछ भी हेरफेर कर सकता हूं इस अहंकार का भी लोप हो जाता है " अर्थात् हार मानकर बैठ जाता है कि इस कार्यको करने में मैं असमर्थ हूं यह कार्य तो मेरे आधीन नहीं है भवितव्यके श्राधीन है ऐसा मानकर वह पुरुषार्थ करनेका अहंकार छोडकर श्रालसी वन जाता है। तथा स्वकाल में कार्यकी सिद्धि मानने वाला व्यक्ति स्व में भी तृव बुद्धिका लोप कर निरुद्यमी वन बैठता है । इसीको आाप वीतरागता समझते हैं तो ठीक है। इसके अतिरिक्त स्वकाल में कार्य सिद्धि माननेवाले व्यक्तियोंको किसी प्रकार की वीतरागता प्राप्त नहीं होती । हाथके कंकणको आरसेकी क्या जरूरत है ? आप और कानजी स्वामी उक्त सिद्धान्तके मानने वाले हैं अतः आप लोगोंको कहतिक वीतरागता प्रगट हुई है सो स्वयं अनुभव करके देखें । वीतरागताकी शुरूआत चौथे गुणस्थान से होती है और वह उत्तरोत्तर पांचवें छठे सातवें आदि गुणस्थानों प्रति For Private And Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७४ जैन तत्त्व मामांसा की -~~ .www.xnxx.mmmmmmmmm वृद्धिको प्राप्त होती है । जो व्यक्ति पुरुषार्थ हीन है स्वकालके भरोसे पर मुह बाहै बैठा है जिसके खानपानकी शुद्धिका तथा भक्षाभक्ष का विचार नहीं, उसके पास वीतरागता कैसी ? भेद विज्ञानसे बीतरागता आती है और भेद विज्ञानवाला विषयाशक्त हो यह वात वनती नही। प्राचार्य कहते हैं कि"ज्ञानकला जिसके घट जागी,ते जगमाहिं सहज वेरागी। ज्ञानी मगन विषय सुख मांही,यह निपरीत संभवे नाही" "ज्ञानशक्ति वैराग्य वल, शिव साधे समकाल । ज्यों लोचन न्यारे रहैं, निरखे दोऊ ताल" ४२ - समयसार नाटक निर्जराद्वार इस कथनसे भेदविज्ञानी जीव स्वकाल पर निर्भर नहीं करता वह तो विषयसुखोंसे विमुख होकर शिव साधनमें लग जाता है । आचार्यकहते हैं कि ज्ञानी होकर विषय सुखमें राचे यह विपरीत बात है । क्योंकि ज्ञानी अज्ञानीमें इतना ही तो अंतर है जो कि ज्ञानी विषयसुखसे विरक्त है और अज्ञानी विषय सुख में तल्लीन है । अतः जहां विषयसुख में तल्लीनता है वहां वीतरागता कहां ? वीतरागता तो राग मिटे होय विषय बांच्छा मिटे विना वीतरागताका गीत गाना अपरमार्थभूत है, वहांपर वीतरागता का सद्भाव लेशमात्र भी नही है। • क्रमवद्ध पर्यायमें आप एक यह हेतु देते हैं कि "उदाहरणस्वर, रूप प्रथमानुयोगको ही लेलीजीये। उसमें महापुरुषोंकी अतीत जीवन घटनाओं के समान भविष्य सम्बन्धी जीवनघटनायें भी अंकित की गई हैं।" जैनतत्त्वमीमांसा पृष्ठ ७६ For Private And Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २७५ अर्थात सर्वज्ञके ज्ञानमें अथवा अवधि मनपर्यय ज्ञानोके ज्ञानमें भूत भविष्यत् काल की जीवन घटना भी झलक जाती है । इसकारण भूत भविष्यत् कालीन सर्वे पर्यायें जीवके साथ विद्य अंकित रहती हैं। यदि उसको जीवके साथ अ ंकित न माना जाय तो वह झलके कैसे ? विद्यमान पदार्थ हो ज्ञानमें ज्ञयरूप झलकता है अविद्यमान पदार्थ ज्ञानमें ज्ञयरूप नहीं पडता, इसलिये जो जीवके साथ भूत भविष्यत काल सम्बन्धी पर्याये अ ंकित हैं वह सवपर्याय क्रमबद्ध हैं और वह उदयमें भी क्रमबद्ध अपने अपने स्वकाल में आती हैं। वह आगे पीछे उदयमें नहीं आती एकके पीछे एक लगातार उदयमें श्राती है अतः उसका हेरफेर नहीं किया जा सकता है। पंडितजीके कहनेका ऐसा तात्पर्य है । इसीयुक्ति के बलपर पंडितजी क्रमवद्ध पर्यायका समर्थन कर रहे है किन्तु यह युक्ति परमार्थभूत नहीं है । मनुष्यको पुरुषार्थहीन वनानेकी यह युक्ति है । अर्थात् भगवानने जैसा देखा है वैसाही होगा उसमें कुछभी हेरफेर होनेका नहीं है फिर कार्यसिद्धिके लिये उद्यम करना निरर्थक है ऐसा विचार कर मनुष्य पुरुषार्थहीन हो जाता है एक बात, दूसरी बात यह है कि भगवानने देखा वैसा हम करेंगे या हम करेंगे हमारा जैसा परिणामन होगा तैसा भगवानने देखा है ? यदि भगवानने जैसा देखा है जैसा हमारा। परि मन होगा तो हमारा स्वतंत्र परिणमन न रहा, केवली भगवान के आधान रहा, भगवानने जैसा देखा जैसा हमको परिणमन करना पडेगा तो मेरे परिणमनका कर्ता भगवानको मानना पडेगा अथवा भगवानका ज्ञान हमारा परिणमन कराता है या हमारे परिणमननें भगवानका ज्ञान अतिशय उत्पन्न करता है यह मानना पडेगा अथवा भगवानका ज्ञान हमारे परिणमन में हेतु है उसके विना हमारा परिणमन होता नहीं यह मानना पड़ेगा, इसलिये भगवा For Private And Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७६ जैन तत्त्व मीमामा की नने जैसा देखा है वैसा हमारा परिणमन होगा यह वात सर्वथा श्रागमविरुद्ध है । हमारा परिणमन हमारे आधीन है उनका ज्ञान उनके आधीन है । उनके ज्ञानकी इतनी ग्वच्छता है जो अनन्तानन्त पदार्थोंका त्रिकालीन परिणमन उनके ज्ञानमें झलक जाता है इसकारण वे यह कह देते हैं कि उस समय उसका ऐसा परिणमन होने वाला है। इससे यह भी नहीं समझना चाहिये कि प्रत्येक पदार्थ. साथ त्रिकालीन सर्ग पर्यायें विद्यमान कित रहती हैं इसीलिये वे जानते हैं अतः श्रांकित रहनेकी वात सोया मिथ्या है उत्पाद व्यय और ध्रौव्य यह सत् पदार्थका लक्षण है इस कारणसतपदार्थ में समय समय प्रति उत्पाद व्यय होता ही रहता है। उत्पाद व्ययका अर्थ ही यह होता है कि असत् पर्यायकी उत्पत्ति और सत् पर्यायका नाश । इसके अतिरिक्त विद्यमान पर्यायको उत्पत्ति और विद्यमान पर्याय रहते उसका नाश माननेसे सत् पदार्थका उत्पाद व्यय और ध्रौव्य यह लक्षण ही नहीं बनता इस. लिये द्रव्य के साथ भूत भविष्यत् कालीन सर्वा पर्याय किन रहती हैं ऐसा मानना जैनागमसे सर्वाथा विरुद्ध है। इसका खास कारण यह भी है कि-जो जीवकी भूत भविष्यत् वर्तमान सम्बन्धी सो पर्यायें जीवके साथ कित मानली जांयगी तो वह परिमित होगी,जैसे एक पुस्तकके पेज वे सब पुस्त कमें परिमित अंकित रहते है तैसे जीवके साथ सर्वांपर्याय अंकित होंगी तो वह भी पुस्तकके पेजोंके समान परिमित ही होगी । जैसे पुस्तकके पेज पलटनेसे एकका व्यय और दूसरेका उत्पाद पुस्तकमें ही अंकित रहता है किन्तु पुस्तकका उत्पाद व्यय । तब तक ही रहता है जब तक कि सर्व पेज एक एक कर न . पलट दिये जाय, जव सव पेज पलट दिये जाते हैं तब उसमें उत्पाद व्ययका स्वरूप खतम हो जाता है, पुस्तक कूटस्यरूपमें For Private And Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २७७ रह जाती है । तैसे जीवके साथ जा पर्याये अकित हैं वह पुस्तक के पन्नों की तरह परिमित ही होंगी क्योंकि जो अंकित चोज होती है वह परिमित है। होती है अपरिमित नहीं होती इसकारण वह क्रमबद्ध उदयमें आकर अल्पकाल में ही खतम हो जायगी इसके वाद जीव भी कूटस्थ रह जायगा क्यों कि पर्यायें खतम होनेसे उत्पाद व्यय भी उ में कैसे होगा ? नहीं होगा । इस हालतमें जीवादि पदार्थ सर्व ही असत मानने पडेंगे क्योंकि सतका जो लक्षण प्राचार्यों ने किया है वह उनमें घटित नहीं होता। अतः पर्यायों को द्रव्यके साथ अंकित मानने से पर्यायोंके साथ द्रव्य का भी खातमा हो जाता है इसलिये द्रव्यके साथ पर्यायें अंकित नहीं रहती वह तो समुद्र में लहरोंकी तरह नवी नवी उत्पन्न होती हैं और वर्तमान पर्याय लहरोंकी तरह द्रव्यमे ही विलीन हो जाती हैं । उसका आदि अत नहीं होता और इसमें क्रमवद्धता भी नहीं वनतो क्योंकि जिसप्रकार समुद्र में पवनका या जहाजका झकोर लगने से लहरें उल्ट पुल्ट हो जाती हैं उसी प्रकार जीवका भी परिणमन कोके झकोरोंसे उल्ट पुल्ट होता ही रहता है उस समय क्रमबद्ध पर्यायका चकनाचूर हो जाता है। अतः इस वातको न मानने से और क्रमवद्ध पर्यायको माननेसे स्वयं जीवद्रव्यका ही प्रभाव मानना पडता है । इस वातको हमने अच्छी तरह सिद्ध कर दिखला दिया है अतः क्रमवद्धपर्याय आगम और युक्ति दोनों से वाधित है इस कारण अपरमार्थभूत है। पंडितजीकी दलील में एक वात शेष रह जाती है वह यह है कि भगवानके ज्ञानमें हमारा जैसा होना है वैसा ही तो झलका है। और वह वैसा ही होकर रहैगा उसमें तो रंचमात्र भी हेर फेर नहीं होगा । नेमिनाथ भगवानके ज्ञानमें वारह वर्ष वाद द्वारका जलकर खतम हो जायगी मदराके संयोगसे दीपायनमुनिके द्वारा For Private And Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७८ जैन तत्त्व मीमासा की द्वारका नष्ट होगी और जरदकुमारके तीरसे कृष्णकी मृत्यु होगो वह सब बातें होकर रहीं इस कारण जो होना है वह सव नियत समय में ही होगा आगे पीछे नहीं होगा ऐसा मानने में क्या बाधा है ? कुछ भी नहीं । भगवानके ज्ञानमें जो एकके बाद एक पर्याय द्रव्यकी होने वाली है यहो तो क्रमबद्ध झलकी है और जैसे की है वैसे ही कमबद्ध उदयमें आती है इसको क्रमबद्ध पर्याय का रूप क्यों नहीं देना चाहिये ? अवश्य देना चाहिये पंडितजीके क्रमवद्ध पर्यायका यह सारांश है । इस पर विचार करना है । प्रथम तो द्रव्यका जो परिणमन होता है वह क्रमबद्ध और श्रद्ध दोनों रूपसे होता है और वह दोनों रूप से ही भगबानके ज्ञानमें झलकता है। जैसे जरदकुमारका तीर लगने से कृष्णजीकी युके निषेक एक साथ झड गये जिससे उनकी अपमृत्यु हो गई । क्रमबद्ध मृत्यु न हुई कारण कि उनके आयुका निषेक क्रमवद्ध न झडा ऐसा भगवानके ज्ञानमें उनका परिणमन झलका। इसी प्रकार द्वारिकाका विनाश भी श्रपक्रम से हुआ जो द्वारिका क्रमरूप से हजारों वर्षो में नष्ट होने वाली नहीं था वह दीपायन मुनि के योग से बारह वर्ष के अंत में समूल नष्ट होगई यह अपक्रम नहीं तो और क्या है ? यह प्रगटरूप में भासता है कि यादव प्यास के मारे अज्ञानवश मदिराका पानी पीगये जिससे वे पागल होकर दीपायनमुनिको देखते ही कोपायमान हो गये और उनको बुरी तरह से मारने लगगये यहांतक कि वे मुनि बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ो तो भी उन्होंने समता नहीं छोड़ी । आखिर जब यादव उनके मुख में पेशाव तक करनेके लिये उतारू होगये तव वे दीपायनमुनि अत्यंत क्रोधित हुये जिससे तैजस पुतला For Private And Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २७६ air कन्धे से निकला और द्वारिका भस्म होने लगी । अनेक उपाय करने पर भी न बची। न वचनेका कारण यही था कि उसका इसी तरह अपक्रम से विनाश होना था, इसके साथ अनेकों का अपक्रम नाश हुआ केवल कृष्ण और बलदेव यह दो वचे तथा इनमें से भी कृष्णकी जरदकुमारके तीरसे अमृत्यु हुई. उन सबका अपक्रमरूप से ही परिणमन करनेका प्रेरक निमित्त मिला जिससे उन सबकी क्रमबद्ध परिणमन करनेकी योग्यता उस समय नष्ट हो गईं। भगवान के ज्ञानमें उन सबका जैसा परिणमन होने वाला था वैसा ज्ञेय रूप झलका तैसा ही उन्होंने दिव्यध्वनि में प्रगट किया। भगवान के ज्ञान में तो सब ज्ञेय रूप झलकता हो रहता है उससे हमको क्या ? उनके ज्ञान का परिणामन उनके पास है हमारा परिणमन हमारे पास है हमारा जैसा परिणमन होगा वैसा उनके ज्ञान में झलक जाता है पूछने पर वता भी देते हैं कि तुम्हारा परिणमन उस समय इस रूप में होने वाला है । इससे क्या हुआ ! उनके ज्ञान में हमारा ही तो क्रमबद्ध या अक्रमवद्ध परिणमन पडा इसके अतिरिक्त यह तो न हुआ कि उनके ज्ञानके अनुसार हमको परिणमन करना पड़ा । यदि उनके ज्ञानके आधार पर हमारा परिणमन हम मान लेते हैं तो इसमें दोनोंकी स्वतंत्रता नष्ट होती है। इसलिये उनके ज्ञानका . . परिणमन उनके पास है, हमारा परिणमन स्वतंत्र निमित्तानुसार हमारे पास है। हम क्रमवद्ध परिणमन करें या अक्रमबद्ध परिणमन करें । केवली भगवान तो केवल साखा गोपाल हैं । जैसा हम करेंगे वैसा वे पूछने पर बता देंगे इससे हमारा परिणमन ( सर्व पर्यायें ) क्रमबद्ध होता है ऐसा सिद्ध नहीं होता भगवान के ज्ञान में ज्ञेय झलकने की बात भगवान के ज्ञान में रही। हमारा कर्तव्य हमारे पास रहा भगवान का हमारे लिये For Private And Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८० जैन तत्त्व मीमांसा की - आदेश भी यही है कि हमारे ज्ञानमें सब कुछ झलकता है वह झलकने दो तुम तो तुम्हारा कर्तव्य कर्म करते रहो तुमको यह मालूम नहीं है कि हमारा किस समय क्या होने वाला है इसलिये तुम तो हमारे वताये हुये मोक्षमार्ग में गमन करते रहो इसीमें तुम्हारा कल्याण है । हमारे ज्ञान के बल पर तुम उदासीन होकर बैठोगे तो खता खाओगे । इस उपदेशको न मानकर जो क्रमवद्ध पर्याय के ऊपर निर्भर कर रहता है वह आलसी है। "वन्ध वढावे अंध व्है, ते आलसी अजान । मुक्तहेतु करणी. कर ते नर उद्यमवान" १० बन्धद्वार समयसार नाटक ओ व्यक्ति भगवानके ज्ञानके वल पर अपनी क्रमवद्ध पर्याय मानकर निराश होकर बैठता है वह अज्ञानी है, आलसी है, कर्मके बन्धको बढाने वाला है। किन्तु जो सज्जन अपने पैरा पर खडे होकर भगवानके वताये हुये मोक्षमार्ग में गमन करते हैं वे उद्यमी हैं पुरुषार्थी हैं वे ही संसारसे पार होते हैं। केवलज्ञानीकी वात तो जाने दीजिये, मति श्रुत झान वाला भो निमित्तशामी भूत भविष्यत् की बात बता देता है जिससे क्या क्रमवद्ध पर्याय सिद्ध हो जाती है ? और क्या वह पर्याय जोत्रके साथ अंकित रहती है इसलिये वह वता सकता है ! कदापि नहीं। वह तो अणछती होनेवाली पर्यागको ही निमिच झानसे बताता है उसमें निमित्त ही प्रधान है । एक उदाहरण स्वरूप दृष्टान्त उधृत कर देते हैं यह किस शास्त्र में वर्णित है यह तो इस वक्त स्मरण । नहीं है पर उसका भाव यह है कि एक निधन ब्राह्मण भोजन करने के लिये घर पर आया तो उसकी स्त्रीने उसकी थाली में कोडियां लाकर पटकदी और कहा कि घरमें तो कुछ नहीं है For Private And Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा . मैं काहेका खाना पकाऊँ ? मेरे पास तो यह कोडियां थी सो आपको थाली में रखदी । अतः वह ब्राह्मण उसी समय निमित्त विचार कर पोदनापुरके राजाके पास गया और राजासे कहा कि हे राजन ! आजसे सातवें दिन पोदनापुरके राजा पर विजली पडेगी। राजाने क्रोधित होकर कहा तुम्हारे पर क्या पडेगा । ती उस ब्राह्मणने कहा-मेरे मस्तकपर दूधका अभिषेक होगा । इसपर राजाने कहा कि यह वात तुम कैसे जानी ? तो ब्राह्मणने कही मैं निमित्तज्ञानसे जानी अतः राजाने उसको वहां ही रक्खा और मंत्रीयों में मंत्र करके राजा आप तो राज्यका त्याग कर वनमें चले गये और राजा जैसा ही पुतला बनवाकर राजभवनमें विराजमान करदिया और घोषणा करदी कि राजा वीमार है वैद्योंने बोलनेकी मनाई करदी है इस लिये उनसे कोई वार्तालाप न करे जो आवे मो मुजरा भरकर चले जावें । ऐसे सातदिन पूरा होनेके समय उस स्थापित राजाके ऊपर वज्रपात पडा जिससे वह खतम होगये । आगम में स्थापनाको भी साक्षात के तुल्य ही माना है इस कारण उस पुतले में राजाकी स्थापना कर उमको गजा ही मान कर सव चलने थे और जो राजा थे उन्होंने राज्य का त्याग करदिया था इस कारण वह राजा उस समय रहा नहीं, जिसको पोदनापुरका राजा बनाया था उम पर विजली पडो इसलिये भूतकालीन राजा वच गया। इसके बाद उस ब्राह्मणका दूधसे अभिषेक हुआ वहुत धन दिया। इसके कहनेका तात्पर्य यह कि निमित्तज्ञानी भी निमित्त के वलपर अप्रगट अविद्यमान होने वाली वातको बता देता है। इस ब्राह्मणाने राजाको भी नही देखा उनको देखे विना भी निमित्तज्ञान से यह जानलिया कि पोदनापुरके राजा पर सातवें दिन वनपात पडे । इस वातको सुनकर मंत्रीयोंने For Private And Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ܘܟܐ जैन तत्त्व मीमांसा की राजाके बचाने का उपाय करदिया । यदि वह ब्राह्मण होनहार पर निर्भर कर पोदनापुर न जाता और राजा भी ब्राह्मणकी वातसुनकर वचनेके लिये पुरुषार्थ न करता तो क्या ब्राह्मणका दुग्धाभिषेक होकर उसको धन मिलता ! अथवा राजाभी वचनेत्रा उपाय न करता तो क्या वह बच सकता था ! कभी नहीं । यदि कहा जाय कि भगवानने ऐसा ही होना देखा था इसलिये ऐसा स्वयमेव निमित्त मिल गया ठीक है स्वयमेव ही निमित्त मिला सही किन्तु कार्य तो निमित्त मिलने पर ही हुआ निमित्त कुछ नहीं करते यह वात तो न रही ब्रह्मण ने राजा का मुंह तक नहीं देखा था और न उसने उसका स्मरण भी करके निमित्त पर विचार किया किन्तु उसने थाली में कोडीयां पडने पर ही उस पर निमित्त विचार कर सव निश्चय कर लिया कि राजा पर सातवें दिन वापात पड़ेगा और हमारा दूध से अभिषेक होकर धन मिलेगा, अतः भविष्य की बात कुछ अंशोंमें निमित्त ज्ञानी भी बता सकता है तो अवधिज्ञानी मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी बता दे इसमें तो आश्चर्य ही क्या है ? यह तो उनके ज्ञानकी पराकाष्ठा है । उनके ज्ञानके साथ हमारे परिणमनका ज्ञेय ज्ञायकके सिवाय और कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं 'सकल ज्ञेय ज्ञायक तप निजानन्द रसलीन' अर्थात् सर्वज्ञ देव सकल ज्ञेयके ज्ञायक होने पर भी निजानन्द रम में लवलीन रहते हैं । ज्ञेय से उनको क्या तालुक है और ज्ञेयका भी उनसे क्या तालुक है। अपने २ स्वभाव विभाव में सब मरत हैं । भगवानके ज्ञानमें हमारी एकके बाद एक पर्याय होनेवाली है वह सब झलकती है तो झलको जिससे हमको क्या ? उनके ज्ञान में हमारी सर्व पर्यायें झलकतो रहै उससे हमारा भला बुरा कुछ भा नहीं होने का है हमारा भला बुरा तो हमारे कर्तव्यपर निर्भर करता है। उनके जानने पर नहीं । ज्ञायक पक्षसे यह कहा जा सकता है कि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २८३ "जं जस्स जम्हि देसे जेण विहाणेण जम्हि कालम्मि णादं जिणेण णियदं जम्मं वा अह व मरणं वा ।। ३२१ तं तस्स तम्हि देसे तेण विहाणेण तम्हि कालम्मि । को सक्कइ चालेदुं इन्दो वा अह जिणंदो वा ।। ३२२ -स्वामी कातिकेयानुप्रेक्षा । अर्थात् जो जिस जीवके जिस देशविषे जिस काल विषे जिस विधानकरि जन्म तथा मरण उपलक्षणते दुःख सुख रोग दारिद्र आदि सर्वज्ञदेवने जाण्या है जो ऐसे ही नियमकरि होयगा, सो ही तिस प्राणीके तिसही देशमें तिसही कालमें तिसही विधानकरि नियमते होय है ताकू इन्द्र तथा जिनेन्द्र तीर्थकरदेव कोई भी निवार नाहीं सके हैं । भावार्थ-सर्वत्रदेव सर्वद्रव्य क्षेत्र काल भाव की अवस्था जाणे हैं सो जो सर्वज्ञके ज्ञानमें प्रतिभास्या है सो नियमकरि होय है तामें अधिक होन कुछ होता नाहीं ऐसा झायक पक्षसे कहा जासकता है। किन्तु कारकपक्षमें उसको लगाया जाय तो समझना चाहिये कि अभी उसका संसार बहुत वाकी है इस लिये वह अपने कर्तव्यसे च्युत होकर क्रमवद्ध पर्यायकी वाट मुंह वाये जो रहा है क्योंकि भगवानक ज्ञानमें उनका परिणमन ऐसा ही होना झलका है इस लिये उनकी ऐसो वुद्धि होती है कि भगवानके ज्ञानमें जैसा झलका है वैसा ही होयगा हमको पुरुषार्थ करने की जरूरत नहीं ऐसे ज्ञायकपक्ष ग्रहणकर निरुद्यमी हो जाता है किन्तु जिसके संमाका अत हो आया है उसके जैसी विपरीत वुद्धि नहीं होती वे ज्ञायक पक्षके ऊपर निर्भर कर निरुद्यमी नहीं होते वे तो कारक पक्षके पक्षपाती होकर जिनेन्द्रदेवके वताये हुये मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करनेका पुरुषार्थ करते हैं अतः वे ही मोक्ष पुरुषार्थी कहलानेके हकदार हो सकते है किन्तु जो ज्ञायक पक्षको ग्रहणकर क्रमवद्ध पर्यायपर निर्भर करते हैं वे दीर्घ संसारी हैं। For Private And Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८४ जैन तत्त्व भीमांसा की क्योंकि वे होनहार पर निर्भर करते हैं पुरुषार्थ पर नहीं। होनहार तो हारेका जामिन है अर्थात् पुरुषार्थ करते हुये साधक निमित्तों को मिलाते हुये वाधक कारणों को हटाते हुये भी कार्य सिद्ध न होय तो उस जगह हार मानकर कहना पडता है कि भवि तत्र्य ऐसा ही था । किन्तु इसके पहिले ही भवितव्यके भरोसे पर बैठ रहना यह परमार्थभूत कार्य नहीं कहा जासकता। इस मान्यता से तो अकल्याण ही होगा इसलिये क्रमबद्ध ( निय(मत ) पर्याय का ध्येय ठीक मान कर जो व्यक्ति उसपर निर्भर करते हैं वे आलसी निरुद्यमी पुरुषार्थहीन हैं अतत्त्व श्रद्धानी है । तत्त्वश्रद्धान वही है जिससे अपना कल्याण हो, जिसके श्रद्धा से अपना अकल्याण हो वह तत्व कैसा ? बह तो अतत्त्व ही है । जो इसके श्रद्धानसे आप ( पंडित फूलचन्द्रजी ) ने लाभ होना बतलाया था उसका आगम और युक्तियों द्वारा अच्छो तरह समालोचना की गई। क्रमबद्ध (नियमित) पर्यायको मानकर चलने वाला कभी भी अपना कल्याण नहीं कर सक्ता है । इसका कारण यही है कि कारकपक्षमें, ज्ञायकपक्षका प्रयोगकर आलसी पुरुषार्थ हीन बन जाते हैं । पंडित फूलचन्दजीने "जैनतत्त्वमीमांसा” के प्रथम प्रवेश द्वार में सब अधिकारोंमें संक्षेपस प्रवेश किया है इस कारण हमको भी उनके पीछे पीछे गमन करना पडा है । अर्थात् उनके सव विषयपर संक्षेप से प्रायः प्रकाश डाला गया । अव उनके विशेष विशेष वक्तव्य पर प्रकाश डालना अवशेष जो रह गया है उस पर अव थोडा प्रकाश डाल देना भी अत्यावश्यक है | क्रम नियमित पर्याय के सम्बन्ध में आपने जो समयप्राभृतकी टीका उद्धृत की है और उसका अर्थ आपने अपने मनःकल्पित किया है। उससे आगम सहमत नहीं है । स्व० पं० जयचन्दजीकी हिन्दी टीका में और आपके मनकल्पित अर्थ में वडा अंतर है । आपने For Private And Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २८५ तो "जीवो हि तावत्क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव नाजीवः । एवमजीवोऽपि क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव न जीवः । सर्वद्रव्याणां स्वपरिणामैः सह तादात्म्यात् कंकणादिपरिणामे कांचनवत् । एवं हि जीवस्य परिणामैरुत्पद्यमानस्याप्यजीवेन सह कार्यकारणभावो न सिद्धयति सर्वद्रव्याणां द्रव्यांतरेणोत्पाद्योत्पादकभावाभावात । तदसिद्धौ चाजीवस्य जीवकर्मत्वं न सिद्धयति । तदसिद्धौ च कर्तृकर्मणोरनन्यापेक्ष सिद्धवात् जीवस्याजीवक त्वं न सिद्धयति अतो जीवोऽकर्ता अवतिष्ठते " इस टोकाका अर्थ क्रमनियमित पर्याय को सिद्ध करनेके पक्षमें किया है किन्तु स्व. पं० जयचन्दजीकी टीकासे क्रमनियमित पर्यायकी सिद्धि नहीं होती प्रत्युत असिद्धि ही होती है। क्रमनियमिता परिणामः वाक्यांशका अर्थ आपने जो समझ रक्खा है , वह नहीं है। क्रमः शब्दका अर्थ एकके वाद एकका होना है और नियमित शब्दका अर्थ एकके वाद दूसरी पर्याय होने का नियम है अर्थात् पर्याय नियमसे एक होती है। एकसमयमें दो नहीं होती और सदा कोई न कोई एक पर्याय मौजूद रहती है। यह नहीं कि--किसी समयं कोइ पर्याय रहै नहीं । " क्रममाविन: पर्यायाः वाक्यका जो अभिप्राय है उसीको विशदरूप से यहां बतलाया है । और जो लोग पर्याय शून्य कूटस्थ द्रव्यको मानते अथवा एक समय में एक द्रव्यमें अनेक पर्याय मानते हैं उनका निरसन करनेके लिये 'क्रम और नियमित दो पदोंका प्रयोग किया है । क्रम नियमित शब्दका अर्थ अमुक पर्यायके वाद अमुक पर्याय नियमसे होगी यह अर्थ नहीं है। For Private And Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८६ जैन तत्वमीमांसा की TAJA दूसरी बात यह है कि टीकाकार अमृतचन्द्र आचार्य ने सुवर्णका दृष्टान्त दिया है जिससे भी क्रमनियमित पर्याय सिद्ध नहीं होती उससे तो यही सिद्ध होता है कि सुवर्णका कंकणादि कुछ भी बनावो उन सबका परिणमन सुवर्ण रूप ही है उसमें ऐसी क्रमनियमितता नहीं है कि कंकणके बाद कुंडल होगा उसके वाद हार होगा इत्यादि । यह तो स्वर्णकारके आधीनकी बात है जो उसकी इच्छा हो सो वनावे इसमें क्रमवद्धपर्यायका कोई सवाल नहीं है । उसी प्रकार जीवका परिणमन चैतन्य स्वरूप ही होगा जड स्वरूप नहीं होगा। वे कर्माधीन किसी पर्याय में परिणमन करे उनका परिणमन आत्मस्वभाव रूपसे ही होगा इसी बात का स्पष्टीकरण करनेके लिये टीकाकार ने सुवर्ण का दृष्टान्त दिया है, न कि क्रमनियमित पर्याय की सिद्धि करनेके लिये ? यदि क्रमनियमित पर्यायकी सिद्धि करनेके लिये वह सुवर्णका दृष्टान्त दिया है तो सिद्धकर बतलावें कि इस सुवर्णके गहकी ( डलीकी ) यह क्रमनियमित पर्याय होने वाली है अन्यरूपसे नहीं। यदि कहो कि यह तो केवलीगम्य हैं तो कारक पक्षमें केवल गम्य की वातका क्या लेनदेन है वह तो ज्ञायक पक्ष की बात हैं यहां तो द्रव्यके परिणमनकी बात है सो द्रव्यका परिमन अपने उपादानरूप ही होता है अन्यस्वरूप नहीं होता यही वात दिखलानेके लिये अमृतचन्द्र आचार्यने सुवर्णका दृष्टान्त दिया है और अन्यका कर्ता कर्मपनेका अभाव सिद्ध करनेके लिये एवं अन्य के साथ कार्यकारणभावका अभाव सिद्ध करनेकेलिये सुवर्णका दृष्टान्त दिया है । भावार्थ यह है कि सर्वद्रव्यनिके परिणाम न्यारे २ हैं अपने अपने परिणामके सर्व कर्ता हैं ते तिनिके कर्ता हैं ते परिणाम तिनिके कर्म हैं । निश्चयकरि कोईके काहतें कर्ता कर्म सम्बन्ध नाही है । तातें जीव अपने परिणामोंका कर्ता है, अपना परिणाम कर्म है । तैसे ही अजीब l For Private And Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोक्षा २८७ अपना परिणामनिका कर्ता है अपना परिणाम कर्म है। ऐसे अन्यके परिणामनिका जीव अकता है। उपरोक्त पं० जयचन्द जी का भावार्थ है इसमें क्रमनियमित पर्यायका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। नो भी आपने उस टोकाको क्रमनियमितपर्यायकी सिद्धिके लिये उधृत की है यह आश्चर्यकी वात है कि आपने विद्वान होकर भी " कहीं की ईट कहीं का रोडा । भानमतीने कुनवा जोडा " वाली कहावत सिद्ध कर दिखाई है । उक्त टीका का अर्थ भी स्व० ५० जयचन्दजी का देखिये उसमें भी क्रमनियमित पर्यायकी गंध भी नहीं है। टीका-जीव है सो तो प्रथम ही क्रमकरि अर नियमित निश्चित अपने परिणाम तिनिकरि उपजता संता जीव ही है । अजीव नाहीं है। ऐसे ही अजीव है सो भी क्रमही करि अर निश्चित जे अपने परिणाम तिनि कार उपजता संता अजीव ही है जीव नहीं हैं । जाते सर्व ही द्रव्यनिके अपने परिणाम करि सहित तादात्म्य है । कोई ही अपने परिणाम ने अन्य नाहीं, ऐसे अपने परिणामको छोडि अन्य में जाय नाहीं । जैसे कंकणदि परिणामकरि सुवर्ण उपजे है सो कंकणादि से अन्य नाही है। तिनितें तादात्म्य स्वरूप है । तेसे सर्व द्रव्य हैं ऐसे ही अपने परिणामकार उपजा जो जीव ताके अजीवकरि सहित कार्यकारण भाव नाही मिद्ध होय है । जाते सर्वद्रव्यनिके अन्य व्यकरि सहित उत्पाद्य अर उत्पादक भावका अभाव है, अर तिस कारणकार्यभावकी सिद्धि न होते अजीवके जीवका कर्मपणा न सिद्ध होय है । अर अजीवके जीवका कर्मपणा न सिद्ध होय कर्ता कर्म के अनन्य पेक्ष सिद्धपणाते जीवके अजीवका कर्ता पणा न ठहस्या। यातें जीव है सो पर द्रव्यका कर्ता न ठहर्या अकर्ता ठहया " For Private And Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८८ जैन तत्त्व मीमांसा की .. ग्रन्थकारने इस कथनसे सर्वद्रव्यका अपने २ परिणमनके साथ निश्चित रूपसे तादात्मक सम्बन्ध सिद्ध किया है तथा स्वद्रव्य के साथ ही कार्य कारण भाव एवं कर्ता कर्मभाव सिद्ध किया है, पर द्रव्यके साथ नहीं, अतः अमृतचन्द्राचार्य का “क्रमनियमित परिणमन" शब्दके प्रयोग करनेका प्रयोजन उपरोक्त है। अर्थात् निश्चित रूप से सव द्रव्योंका परिणमन अपनेरूप तादात्म्य होता है पर द्रव्यरूप नहीं होता इस कारण परके साथ कर्ता कर्म भाव का और कार्यकारण भावका अभाव है एवं उपादानरूप परिणमन करने का स्व भाव है यह जनानेके लिये ही "क्रमनियमित" परिणमन शब्दका प्रयोग किया गया है। दूसरा अन्य कोई प्रयोजन नहीं है । फिर भी श्राप जो यह सार निकालते हैं । कि " इस प्रकरण का सार यह है कि प्रत्येक कार्य अपने स्व कालमें ही होता है इसलिये प्रत्येक द्रव्यकी पर्यायें क्रमनियमित हैं। एक के बाद एक अपने अपने उपादानके अनुसार होती रहती है । यहां पर क्रमशब्द पर्यायकी क्रमाभिव्यक्तिको दिखला नेके लिये स्वीकार किया है और नियमित, शब्द प्रत्येक पर्याय का स्वकाल अपने अपने उपादानके अनुसार नियमित है। यह दिखलाने के लिये दियागया है। वर्तमानकालमें जिस अर्थको "क्रमवद्धपर्याय " शब्दद्वारा व्यक्त कियाजाता है ‘क्रमनियमित' पर्यायका वही अर्थ है । ऐसा स्वीकार करनेमें आपत्ति नहीं, मात्र प्रत्येक पर्याय दूसरी पर्याय से वधी हुई न हो कर अपने में स्व. तंत्र है यह दिखलानेके लिये यहां पर हमने “ क्रमनियमित" शब्दका प्रयोग किया है । आचार्य अमृतचन्द्रने समयमाभृत गाथा ३०८ आदि की टीकामें क्रमनियमित , शब्दका प्रयोग इसी अर्थमें किया है क्योंकि यह प्रकरण सर्वविशुद्ध ज्ञानका है। For Private And Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ह . .. ..........rrrrrrrrrrrrrrrrrm सर्वविशुद्ध ज्ञान कैसे प्रगट होता है यह दिखलाने के लिये समय प्राभृतकी गाथा ३०८ से ३११ तककी टीकामें मीमांसा करते हुये आत्माका अकर्तापन सिद्ध कियागया है । क्योंकि अज्ञानी जीव अनादिकालसे अपने को परका कर्ता मानता पारहा है । यह कर्तापनका भाव कैसे दूर हो यह उन गाथाओंमें बतलानेका प्रयोजन है। जव इस जीवको यह निश्चय होता है कि प्रत्येक पदार्थ अपने अपने क्रमनियमितपनेसे परिणमता है इस लिये परका तो कुछ भी करनेका मुझमें अधिकार है नहीं, मेने पर्यायों में भी मैं कुछ हेर फेर कर सकता हूं यह विकल्प भी शमन करने योग्य है। तभी यह जीव निज आत्माके स्वभाव सन्मुख होकर ज्ञाता दृष्टारूपसे परिणमन करता हुआ निजको पर का अकर्ता मानता है और तभी उसने " क्रमनियमित " के सिद्धान्तको परमार्थरूप से स्वीकार किया यह कहा जा सकता है क्रमनियमित का सिद्धान्त स्वयं अपने में मौलिक होकर आत्माके अकर्तापनको सिद्ध करता है । प्रकृतमें अकर्ताका फलितार्थ ही ज्ञाता दृष्टा है। ___आत्मा परका कर्ता होकर ज्ञाता दृष्टा तभी हो सकता है जब वह भीतरसे "क्रमनियमित" के सिद्धान्तको स्वीकार कर लेता है इसलिये मोक्षमार्गमें इस सिद्धान्तका बहुत बडा स्थान है ऐसा प्रकृत में जानना चाहिये" पृष्ठ १७६ । प्रकृतमें यदि पं० जी "क्रमनियमित" सिद्धान्तको स्वीकार करने मात्रसे ही जो कोई ज्ञाता दृष्टा वन जाता है तथा परका अकर्ता होजाता है तो इस सिद्धा. तुको स्वीकार करनेवाले सभी ज्ञाता दृष्टा बन गये एवं परका अकर्ता होगये इसकारण उनका मोक्षमार्गमें बहुत बडा स्थान है ऐसा मान लेना उचित है किन्तु यह वात सर्वथा निराधार है श्वास करने योग्य नहीं है। क्योंकि आपके माने हुये क्रमबद्ध For Private And Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६० जन तत्त्व मीमामा की पर्यायको स्वीकार करनेवाले मोक्षमार्गसे योजनों दूर होते जा रहे हैं। अर्थात् देवपूजादि षटकर्म करना छोड बैठे हैं। इसका कारण एक तो यह है कि इनको पुण्यवन्धका कारण मानकर पुण्यको संसारका हेतु समझते हैं । दूमरा कारण यह है कि अपना किया तो कुछ होगा नहीं भगवानके ज्ञानसे जैसा होना झलका है वहीं होगा उससे होनाधिक कुछ भी होने वाला नहीं है फिर पुरुषार्थ करनेकी जरूरत ही क्या है ? अतः क्रमबद्ध (क्रमनियमित) पर्यायको मानने वाले सभी सज्जन षट्कर्म करनेसे उदासीन होते जा रहै हैं और स्वमेव भो कतृत्व बुद्धिसे शून्य बन बैठे है। इसका कारण वही है जो क्रमनियमित पर्याय होनेवाली है वही होगा उसीपर विश्वासकर का कर्तव्य कर्म भी नहीं करते । यह अपूर्व लाभ क्रमवद्धपर्यायको स्वीकार करनेवालोंको मिल रहा है । कुन्दकुन्दस्वामी तो यह कहते हैं कि"अन्तरदृष्टि लखाव, अरु स्वरूपका आचरण । ये ही परमार्थभाव, शिवकारण यही सदा ॥ अर्थात् भेदविज्ञान जिसको होगया है उसीकी अन्तरदृष्टी वनजाती है । इस कारण वह अपने स्वरूप में आचरण करता हुआ परस्वरूपका ज्ञातादृष्टा बन जाता है वस यही परमार्थभाव है और यही मोक्षमार्ग है । इसके अतिरिक्त और सब क्रमवद्धादि पर्यायको मानकर प्रमादी बनना है । जो व्यक्ति क्रमबद्ध पर्यायकी मान्यताका पक्षपाती है वह कभी भी अपना आत्मकल्याण नहीं कर सकता है । क्योंकि उसकी स्वमें कर्तृत्वबुद्धि नष्ट होजाती है इसकारण वे स्वच्छन्द हुश्रा परका कर्ता बन जाता है जैसे, कानजी स्वामी परका कर्ता वनकर बैठे हैं । उनका कहना है कि "श्रात्माका अपूर्वज्ञान प्राप्त करने वाले जीवको सामने निमितरूप से भी ज्ञानी ही होते हैं। वहां सम्यग्ज्ञानरूप परिणामत For Private And Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २६१ सामनेवाले ज्ञानका आत्मा अंतरंग निमित्त है और उन ज्ञानीकी वाणी वाह्य निमित्त है " अर्थात् कानजी अपनेको ज्ञानी मानकर जो श्रात्माका अपूर्व ज्ञान प्राप्त करनेवाले जीवके आप अंतरंग निमित्तकारण बनते हैं यही तो परका कर्ता बनना है । अंतरंग निमित्त कारण तो है ज्ञानी वनने वालेकी आत्माके साथ जो मिथ्यात्व लगा हुआ है उसका अभाव, उसको अंतरंग निमित्त कारण न मानकर अपनेको ( ज्ञानीको ) परकी आत्माका अतरंग कारण मान वेठे हैं यही परका कर्तापना है । जो व्यक्ति स्वका कर्तापन छोड़ बैठता है वह परका कर्ता अवश्य बनता है। वह मिध्यात्ववश समझता नहीं कि इस वातसे मैं परका कर्ता वन जाता हूं। इसका कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि स्वका कर्ता बनता है, परका अकर्ता रहता है और मिध्यादृष्टि परका कर्ता बनता है स्वका अकर्ता बनता है । अतः दोनों दोनों बात नही पाईजाती और सम्यदृष्टि परका कर्ता बना रहे और अपना अकर्ता वना रहै तथा मिध्यादृष्टि परका अकर्ता बना रहे और स्वका कर्ता वना रहे यह बात भी नहीं बनती। इसलिये जो जो स्त्रका कर्ता है वह परका अकर्ता है और जो स्वका अकर्ता है वह परका कर्ता अवश्य है । इस सिद्धान्तंसे जो क्रमबद्ध पर्यायके सिद्धान्तको मानता है वह अपने कर्तव्य से पराङमुख होकर स्वका अकर्ता वन जाता है अत: उसका मोक्षमार्ग में स्थान नहीं है वह मोक्षमार्गसे पराङमुख है ऐसा समझना चाहिये । नियत शब्दका अर्थ निश्चय रूप अथवा नियतरूप, स्वभावप्रकरणवश किया जा सकता है किन्तु इसका विपर्यास करना अनर्थकारी है। गुण सहभावी हैं, पर्याय क्रमभावी हैं। "अन्वयिनो गुणा व्यतिरेकिणः पर्यायाः । अन्वयिनो For Private And Personal Use Only ' Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६२ जैन तत्त्वमीमांसा की ज्ञानादयो जीवस्य गुणाः । पुद्गलादीनां च रूपादय: तेषां विकारा विशेषात्मना विद्यमाना पर्यायाः “पर्याया इति स्वभावविभावरूपतया परिसमन्तात्परिप्राप्नुवन्ति परिगच्छन्ति ये ते पर्यायाः पर्यणं पर्यय इति वा स्वभावविभावरूपतया परिप्राप्तिरित्यर्थः || - सर्वार्थसिद्धौ जब जीबका परिणमन स्वभाव है तब वह समय समय प्रति परिणमन निश्चय रूपसे करते ही हैं इसी हेतुसे आचार्य अमृतचन्द्रने क्रमनियमित परिणमन शब्दका प्रयोग सर्व विशुद्धिद्वारकी प्रथम गाथाकी टीका करते हुये किया है उसका आशय यही है कि क्रमरूपसे ( समय समय प्रति ) निश्चयसेती जीव परिणमन करता है । किन्तु श्राप उसका अर्थ क्रमनियमित पर्याय करते हैं यही अर्थ विपर्यास है। इस वातको हम ऊपर में स्पष्ट कर वता चुके हैं। इस नियतिवादको सम्यक् नियति सिद्ध करनेके लिये जो आपने आगम प्रमाण दिये हैं वे प्रमाण ज्ञायक पक्षके हैं, कारक पक्षके नहीं इसकारण आपका दिया हुआ प्रमाण सम्यक नियतिको सिद्ध नहीं करता । क्योंकि आपकी सम्यक नियतिमें और नियतिवाद में कुछभी अतर नहीं है । आपका सम्यक नियतिस्वरूप भी कारक पक्षका है और नियतिवादभी कारक पक्षका है इस लिये दोनों एक कोटीके हैं । नियतिवादवाला भी यही मानता है कि- "जत्तु जदा जेण जहा जस्स य खियमेण होदि तत्तु तदा । तेण तहा तस्स हवे इदि वादो यिदिवादी हु८८२ गोमट For Private And Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २६३ अर्थात् जो जिसरूपसे जिसप्रकार जिसके जव होना है वह तब उस रूपसे उस प्रकार उसके नियमसे होता है इस प्रकारका जा कहना है वह नियतिवाद है। यह नियति वादका लक्षण है। और आपभी यही कहते हैं कि-"इस प्रकरणका सार यह है कि प्रत्येक कार्य अपने स्वकाल में ही होता है इसलिये प्रत्येक द्रव्यकी पयायें क्रमनियमित है, एकके वाद एक अपने अपने उपादानके अनुसार होती रहती है" अव कहिये पंडितजी आपकी मान्यतामें और नियातादमें क्या अंतर है ? शब्दोंका या अर्थका ? शब्दोंका हेरफेर करदेनेसे क्या होगा जवतक अर्थमें हेरफेर न हो तवतक शब्दोंका हेरफेर करते रहो नियतिवादकी मान्यता दूर नहीं होगी आप भी यही कहते हैं कि 'जिस समय जो पर्याय होने वाली है वही होगी उसमें कुछभी हेरफेर नहीं होगा पृष्ठ १७६ तथा नियतिवाद वाला भी यही मानता है कि जिस प्रकार जहां जैसा होना है वही होगा उसमें कुछ भी हेरफेर नहीं होगा अतः इन शब्दोंमें अंतर है अर्थमें कुछ भी अतर नहीं हैं। यह सम्यक नियति है और यह मिथ्या नियति है ऐसा श्रागममें कहीं पर भी निरूपण नहीं किया गया है । आप जो स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षाके कथनसे या पद्मपुराणके कथनसे सम्यनियतिकी कल्पना करते हैं यह वात विद्वानोंकेलिये योग्य नहीं है । क्योंकि इससे परस्पर आगममें विरोव उत्पन्न होता है । गोम्मटसारके कती तो जिसको नियतिवाद घोषित करते हैं उसीको स्वामी कार्तिकेय और प्राचार्य विषेण सम्यक् नियति बोलकर प्रतिपादन करे यह नहीं हो सकता इसलिये उक्त दोनों आचार्योने जो यह प्रतिपादन किया "नं जस्स जम्हि देसे जेण विहाणेण जम्हि कालम्मि For Private And Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६४ जैन तत्त्व मीमांसा की SA णादंजिणेण णियदं जम्म वा अह व मरणं वा ।। ३२१ तं तस्स तम्हि देसे तेण विहाणेण तम्हि कालम्मि । को सक्कइ चालेद् इन्दो वा अह जिणंदो वा ॥ ३२२ "एवं जो णिच्चयदो जाणदि दव्वाणि सव्वपज्जाये। सो सद्दिट्ठो सुंदो जो संकदि सोहु कुट्ठिो ” ३२३ स्वामी कार्तिकेयगनुप्रेक्षा अर्थात् निशंक अंगका धारी सम्यग्दृष्टि जीव यह मानता है कि भगवानके ज्ञानमें सव द्रव्यों की पर्यायें जैसी होनी झलकी हैं वह उसी रूपसे होंगी उसको इंद्र जिनेन्द्र कोई भी निवारणको समर्थ नहीं है क्योंकि भगवान के ज्ञान में पदार्थ अन्यथा नहीं झलकता यह सम्यग्दृष्टिके पूरा विश्वास है इसलिये वह उसमें संदेह नहीं करता । जो संदेह करता है वह मिथ्यादृष्टि है। क्योंकि मिथ्यादृष्टि के ही सर्वज्ञक ज्ञान में और उनके वचनोंमें संदेह होता है । सम्यकदृष्टि के नहीं । यही बात पद्मपु. राण में कही है तथा और भी ग्रयोंमें सर्वज्ञ के जानने की अपेक्षा ऐसा कथन मिलता है । वह सव कथन ज्ञायक पक्ष की अपेक्षा से किया गया है , हमारे कर्तब्य कर्मको अपेक्षा से नहीं । इसलिये हमारे कारकपक्षमें भगवानके ज्ञायक पक्षको लगाना सर्वथा नियतिवादका समर्थन है उसको आप चाहे सम्यकनियति कहैं या क्रमनियमित पर्याय कहैं अथवा नियतिवाद पाखंड कहैं इनमें शब्दभेदके अतिरिक्त अर्थ भेद कुछ भी नहीं है। एक अपे. क्षाको दूसरी अपेक्षा में लगाना यही पाखंड है । आपका जो यह कहना है कि-"इसप्रकार जब हम देखते हैं कि जहां एक ओर जैन धर्म में एकान्त नियतिवादका निषेध किया गया है वहां For Private And Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २६५ दूसरी ओर सम्यक नियतिको स्थान भी मिला हुआ है, इसलिये इसको स्थान देने से हमारे पुरुषार्थकी हानि होती है और हमारे समस्त कार्यं यन्त्र के समान सुनिश्चित हो जाते हैं यह कह कर सम्यक नियतिका निषेध करना उचित नहीं है इत्यादि पृष्ठ १८४ पडितजी ! सम्यक नियतिका आगम में कहीं विधान हो तो उसका निषेध करना उचित नही कहा जा सकता किन्तु श्रागम में कहीं पर भी सम्यक नियतका विधान नहीं है फिर उसका निषेध करने में अनुचितता किस बात की है ! ध्यागम के विपरीत कथनका निषेध करना सवथा उचित हो है । जैसा आप सम्यक नियतिका लक्षण करते हैं वैसा ही आचार्योंने नियतिवाद पाखंडका लक्षण किया है। यत्तु यदा येन यथा यस्य नियमेन भवति तत्तु तद् तेन तथा तस्यैव भवेदिति नियतिवादार्थः ८८२ भावार्थ- जो जिस काल जिहि जैसे जिसके नियम करि है सो तितकाल तिहि करि तैसे तिसहीके हो है ऐसा नियमकरि ही सवको मानना सो नियतिवाद है। इस नियतिवाद में भी कार्यकारण भावका अभाव नहीं हैं, इसमें भो "जिहिकरि जैसे जिसके नियम करि है यह जो शब्द है वह कार्य कारणभावको ही प्रगट करते हैं। अर्थात् जिसकालमें जिसके जरिये जैसा जिसके होना है वह उसी प्रकार सबके होता है ऐसा मानना सो नियतिवाद है । आपकी मान्यता भी तो यही है कि - "जिस जन्म अथवा मररणको जिस जीवके जिस देश में जिस विधि से जिसकाल में नियत जाना है उसे उस जीवके उस देशमें उस विधिसे उसकाल में शक्र अथवा जिनेन्द्रदेव इनमें से कोन चलायमान कर सकता है अर्थात् कोई भी चलायमान नहीं कर सकता है" पृष्ठ १८३ For Private And Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६६ जैन तत्व मीमासां की अव कहिये पंडितजी ! आपकी मान्यतामें और नियतिवाद में क्या अंतर है ? यदि कहो कि यह, मान्यता हमारी नहीं है स्वामी कार्तिकेयाचार्य की है सो भी कहना ठीक नहीं है क्योंकि उनका कहना सर्वज्ञ पक्षका है सर्वज्ञके ज्ञान में अन. न्तानन्त पदार्थोकी अनन्तानन्त भूत भविष्यत् वर्तमान सम्बन्धी सर्वपर्यायें भासती हैं उस दृष्टिसे (ज्ञायकपक्ष की दृष्टि से ) उनका कहना नियतिवाद नहीं है किन्तु भगवानके ज्ञानमें सम्यम्दृष्टि निशंक होता है यह दिखलानेका उनका प्रयोजन था उसको आप कारक पक्षों ( अपने कर्तव्य पक्षा) लगाते हैं यही विपरीतता है। शास्त्रोंमें जिस प्रकार सम्यकदृष्टिका और मिध्या दृष्टिका लक्षण किया है उसीप्रकार सम्यक निर्यातका और मिथ्यानितिका लक्षण नहीं किया है । सम्यक और मिथ्या नियतिकी मान्यता कानजीस्वामीकी है उस मान्यताको ठीक आगमानुकूल वतलानेके हेतु आपका प्रयत्न है । सो अनुचित है। आगम विरुद्ध पक्षका समर्थन करना स्त्रपरका अकल्याण करनहारा है इसलिये उसका निषेध करना परम उभय हितकर -- सम्यक् नियतिके समर्थनमें आपने जो अकृत्रिम पदार्थोंका दृष्टान्त दिया है. वहभी अप्रासंगिक है क्योंकि पर्यायें कृत्रिम हैं. इसलिये वे क्षणभंगुर हैं और अकृत्रिम पदार्थ सदा शाश्वत है. उसमें हेरफेर नहीं होता इसकारण कृत्रिम पदार्थके साथ अकृत्रिम पदार्थका दृष्टान्त देना विषम. है इस वातको आप जानते ही है फिर भी जान बूझकर अनुचित दृष्टान्त देकर आगम विरुद्ध पदार्थकी सिद्धि करना यह कहांका न्याय है ? जिस प्रकार भूगोल लवादी कहते हैं कि सूर्य चन्द्रमा तारा वगैरह गोल हैं इसलिये पृथ्वी भी गोल है सूर्य चन्द्रादि घूमते हैं इसी प्रकार पृथ्वी भी For Private And Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोक्षा घूमती है तो क्या उनका ऐसा कहना न्याययुक्त है ? कदापि नहीं, उसी प्रकार आपका भी अकृत्रिम पदार्थोके साथ कृत्रिम पर्याय की तुलना करना क्या न्याय संगत है ? कभी नहीं । एकपदार्थ गोल है तो दूसरा पदार्थ भी गोल होय यह नियम नहीं है उसका नियम बतलाना यही अनीतिवाद है । उसी प्रकार आपका दिया गया अकृत्रिम पदार्थोंका दृष्टान्त क्रमनियमित पर्याय के साथ लागू नहीं पडता । पाठकोंकी जानकारीके लिये आपका इस विषयका वक्तव्य यहां उद्धृत करना उचित समझते - " द्रव्यकी अपेक्षा-सव द्रव्य छः हैं। उनके अवान्तर भेदोंकी सख्या भी नियत है । सब उत्पाद व्यय और ध्रौव्य स्वभावसे युक्त है, उनका उत्पाद और व्यय प्रतिसमय नियमसे होता है। फिरभी द्रव्योंकी संख्या में वृद्धि हानि नहीं होती। सबद्रव्योंके अलग अलग गुण नियत है। उसमें भी वृद्धि हानि नहीं होती। अनादिकालसे लेकर अनन्तकाल तक जिस द्रव्यकी जितनी पर्याय हैं वे भी नियत हैं उनमें भी वृद्धि हानि होना संभव नहीं है फिर भी लोक अनादि अनन्त है । अनन्तका लक्षण-जिसका व्यय नोट-१ सव द्रव्योंकी पर्याय नियत नहीं हैं क्यों कि पदाथोंमें उत्पादव्यय होना नियत है वह उनका स्वभाव है पर उत्पाद व्यय होनेकी संख्या नियत नहीं है यदि उनकी संख्या नियत हो तो एक दिन वह खतम हो जायगा जव पदार्थमें उत्पाद व्यय होना खतम हो जायगा तो पदार्थ ही खतम हो जायगा इसलिये पदार्थ की पर्याय नियत नहीं है अनियत है समय २ प्रति नवीन २ उत्पन्न होती रहती हैं इस कारण उसका अंत नहीं होता इस की संख्या नियत कर ली जाय तो उसका अंत एक दिन अवश्य हो जायगा । For Private And Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६८ जैन तत्त्वमीमांसा की होनेपर भी कभी अंत नहीं होता। जीवों पुद्गलों तथा आकाश प्रदेशोंकी संख्या में तथा सव द्रव्योंके गुण और पर्यायों में ऐसी अनन्तता स्वीकार की गई है। क्षेत्रकी अपेक्षा-लोकके तीन भेद हैं--ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक। इनमें जहां जो व्यवस्था है वह नियत है। उदाहरणार्थ-सोलह कल्प नौग्रेवेयक नोअनुदिश और पांच अनुत्तर विमानोंमें विभक्त है । इसके ऊपर एक पृथ्वी और पृथ्वी के ऊपर लोकान्तमें सिद्ध लोक है । अनादि कालसे यह व्यवस्था इसी प्रकारसे नियत है और अनन्तकाल तक नियत रहेगी। मध्य लोक्में असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र है। उनमें जहां कर्मभूमि या भोगभूमिका या दोनोंका जो क्रमनियत है उसीप कार सुनिश्चित है, उसमें परिवर्तन होना संभव नहीं । अधोलोक में रत्नप्रभादि सात पृथिवियां और उनके आश्रयसे सात नों की जो व्यवस्था है वह भी अपवरिर्तनीय है। कालकी अपेक्षा-ऊर्ध्वलोक अधोलोक और मध्यलोक के भोगभूमि सम्बन्धी क्षेत्रोंमें तथा स्वयंभूरमा द्वीपके उत्तरार्ध और स्वयंभूरमण समुद्र में जहां जिस कालकी व्यवस्था है वहां अनादिकालसे उसी कालकी प्रवृत्ति होती आरही है । और अनन्तकाल तक उसी कालकी प्रवृत्ति होती रहेगी। विदेह सम्बन्धी कर्म भूमि क्षेत्र में भी यही नियम जानलेना चाहिये । इसके सिवाय कर्मभूमि सम्बन्धी जो क्षेत्र वचता है, उसमें कल्पकालके अनुसार निरंतर और नियमित ढंगसे उत्सर्पिणी और अवसपिणी कालकी प्रवृत्ति होती रहती है। एक कल्पकाल वीस कोडा कोडी सागरका होता है। उसमें से दस कोडाकोडी सागरकाल उत्सपिणीके लिये सुनिश्चित है। उसमें भी प्रत्येक उत्सपिणी और अवसर्पिणी छः छः कालोंमें विभक्त हैं। उसमें भी जिस For Private And Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २६ .inwrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrameramanaraurrrrrrrrrrror कालका जो समय नियत है उसके पूरा होने पर स्वभावतः उस के वादके कालका प्रारंभ होजाता है। उदाहरणार्थ-अवसर्पिणी कालमें जीवोंकी आयु और काय ह्रासोन्मुख पर्यायों के होने में निमित्त होते हैं। किन्तु अवसर्पिणी कालका अंत होकर उत्सर्पित णीके प्रथम समयसे ही यह स्थिति बदलने लगती है। कर्म और नोकर्म श्रादिभी उसी प्रकारके परिणमनमें निमित्त होने लगते हैं। विचार तो कीजिये कि जो औदारिक शरीर नामकर्म उत्तम भोगभूमि में तीन कोसके शरीरके निर्माण में निमित्त होता है वही औदारिक शरीर नामकर्म अवसर्पिणीके छटेकालके अंत में एक हाथके शरीरके निर्माणमें निमित्त होता है। कोई अन्य सामग्री तो होनी चाहिये जिससे यह भेद स्थापित होता है। इन कालों की अन्तर व्यवस्था को देखें तो ज्ञात होता है कि उत्मर्पिणी के तृतीयकालमें और अवसर्पिणीके चतुर्थ कालमें चौवीस तीर्थकर वारह चक्रवर्ती नौ नारायण नौ प्रतिनारायण नौ बलभद्र ग्यारह रुद्र और चौवीस कामदेवोंका उत्पन्न होना निश्चित है । निमित्तानुसार ये पद कभी अधिक और कभो कम क्यों नहीं होते ? विचार कीजीये । कर्मभूमिमें आयुकर्मका बन्ध आठ अपकर्षण कालोंमें या मरणके अन्तमुहूर्त पूर्व ही क्यों होता है ? इसके बन्ध के योग्य परिणाम उसी समय क्यों होते हैं ? विचार कीजिये । जो इस अवस्थाके भीतर कारण अन्तर्निहित है उसे ध्यानमें लीजिये। छह माह आठ समय में छह सौ पाठ जीव ही मोक्ष लाभकरते है ऐसा क्यों हैं विचार कीजिये । काल नियमके अन्तगत और भी बहुत सी व्यवस्थायें हैं जो ध्यान देने योग्य हैं। भावकी अपेक्षा कषायस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं वे न्यूनाधिक नहीं होते स्थूलरूपसे सब लेश्यां छह हैं। उनके अवान्तर भेदोंका प्रमाण भी निश्चित है । For Private And Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०० जैन तत्त्व मीमांसा को wwwmninowowowo .. देव लोकमें तीन शुभ लेश्यायें और नरक लोक में तीन अशुभ लेश्यायें ही होती हैं उसमें भी प्रत्येक देवलोककी और प्रत्येक नरक लोक की लेश्यायें नियत हैं । वहां उनके निमित्त कारण द्रव्य क्षेत्रादि भी नियत है। इतना अवश्य है कि भवनत्रिकोंके कपोत अशुभ लेश्या अपर्याप्त अवस्थामें संभव है। पर वह कैसे भवनत्रिकोंक होती है यह भी नियत है । इसी प्रकार भोगभूमि के मनुष्यों और तियचोंमें भी लेश्याका नियम है। कर्मभमि क्षेत्रमें और एकेन्द्रियादि जीवोंमें लेश्या परिवर्तन होता है अवश्य पर वह नियत क्रमसे ही होता है। गुणस्थानों में भी परिणामोंका उतार चढाव होता है वह भी शास्त्रोक्त नियतक्रमसे ही होता है । अधःकरण आदि परिणामोंका क्रमभी नियत है। तथा उनमें से किस परिणामके सद्भावमें क्या कार्य होता है वह भी नियत है एक नारकी जो नरकमें प्रथमोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है उसके और एकदेव जो देवलोकमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करता है उसके जो अधःकरण आदि रूप परिखामों की जाति होती है वह एकसी होती है उसके सद्भावमें जो कार्य होते हैं वे भी प्रायः एकसे होते हैं । अन्य द्रव्यक्षेत्रादि वाह्य निमित्त उनमें हेर फेर नहीं कर सकते यद्यपि एक समयवति और भिन्न समयवर्ती जीवोंके अधःकरण परिणामोंमें भेद देखा जाता है पर वह भेद नरक लोकमें संभव हो और देवलोक में संभव हो न हो ऐसा नहीं है । अतः इससे उपादानकी विशेष ता ही फलित होती है।" __पंडितजी के उपरोक्त कथनका सार इतना ही है कि जब ये उपरोक्त सव व्यवस्थायें नियतरूप से सुसिद्ध हैं तो द्रव्यकी पर्याये भी निश्चित रूपसे सिद्ध क्यों नहीं हैं ? अवश्य ही निश्चित है अब इसपर विचार करना है कि उनके उपरोक्त वक्तव्यसे क्रम For Private And Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ३.६ वद्ध पर्यायका समर्थन होता है या नहीं । तथा आपके दिये गये उदाहरणोंका क्रमनियमित पर्याय के साथ मेल खाता है या नहीं अथवा पंडितजी का उपरोक्त कथन यथार्थ है या नहीं इत्यादि विषयोंकी आलोचना करके सत्य असत्य का निर्णय करना है। __पंडितजीने द्रव्य क्षेत्र काल और भावोंकी अपेक्षासे उपरोक्त पदार्थोकी अवस्था निश्चितरूपसे स्वसिद्ध है उसमें किसी निमित से फेर फार नहीं होता ऐसा सिद्ध करनेकी चेष्टाकी हैं । किन्तु पंडितजी ने प्रथम गलती तो यह की है कि आपने व्यवहारका लोपकर परमार्थकी सिद्धि करनेवाले होकर भी व्यवहारका आश्रय लिया है। अर्थात् द्रव्य क्षेत्र काल और भाव स्वरूपसे प्रत्येक पदार्थ विद्यमान है इसलिये उसके सहारेसे पडितजीको कथन करना उचित था किन्तु पंडितजीने स्वचतुष्टयके आश्रय पदार्थ का विवेचन न करके व्यवहार क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा से कथन किया है । पदार्थका स्वद्रव्य तो पदार्थका संपूर्ण अवयवोंका समुदाय है तथा पदार्थका स्वक्षेत्र पदार्थके प्रदेशमात्र, पदार्थका स्त्र काल पदार्थका परिणमन है और पदार्थका स्वभाव औपशमिकादि पंच प्रकारके भाव हैं । ( औपशमिक, क्षायिक, चायोपशमिक औदयिक, पारिणामिक ) इनके आश्रयसे कथन किया होता तो वह नियत दृष्टिसे समझा जाता । किन्तु आपने ऐसा न कर व्यवहार दृष्टिसे जो पर चतुष्टय रूप तीन लोकके क्षेत्र हैं तथा काल जो तीन लोकमें व्यवहार कालके आश्रय की व्यवस्था है तथा भाव जो कषाय लेश्यादि औदायिक परिणाम है। - उनके आश्रयसे कथन किया है । यह आपकी मान्यतामें दूषण है। क्योंकि आप निश्चयावलम्बी हैं अतः आपको तो व्यवहार का और निमित्तोंका लोप करना ही उचित था। खेर-"अर्थी दोपन्न पश्यति" छहों द्रव्य नित्य हैं अकृत्रिम हैं और उनमें रहनेवाले For Private And Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org के म ३०२ जैन तत्त्वमीमांसा की उनके गुण भी नित्य हैं क्योंकि गुण गुणी अभेद हैं परन्तु उनकी पर्यायें अनित्य हैं वह सदा सास्वती रहनेवाली नहीं हैं। इसलिये नित्य पदार्थ के साथ अनित्य पदार्थकी समान तुलना करनी सर्वथा अनुचित है। अर्थात् जब द्रव्य और द्रव्यके गुण नित्य हैं और नियत हैं तो उनकी पर्यायें भी नित्य और नियत होनी ही चाहिये यह नियमकी बात नहीं हैं। क्योंकि गुण सहभावी हैं और पर्यायें क्रमभावी हैं इसलिये जो क्रमभावी वस्तु है वह अनित्य ही होती है क्योंकि उसकी उत्पत्ति नवीन नवीन क्रमरूप से होती है जिसकी नवीन उत्पत्ति होती है उसका विनाश भी अवश्य होता है। अतः उत्पाद व्यय में नित्यता और नियमितता नहीं रहती । इसलिये द्रव्य और गुणों के साथ पर्यायों की नियतता सिद्ध करना सर्वथा युक्ति और आगम विरुद्ध है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसका कारण यह कि गुण धर्म पदार्थमे नवीन पैदा नहीं होते और न उसका कभी विनाश होता है इसलिये वे जेता हैं तेता ही वे पदार्थ के साथ सदा विद्यमान नियंतरूपसे रहते हैं अतः उनकी संख्या नियमित बनी हुई है किन्तु पदार्थ में पर्यायें गुणों की तरह सदा विद्यमान नहीं रहतीं। वह एक विनशती है उसी समय दूसरी उत्पन्न हो जाती है जैसे मिट्टी रूप पदार्थकी घटरूप पर्याय का नाश होते ही उसी क्षण में कपालरूप पर्याय उसकी उत्पन्न हो जाती है । उसीप्रकार मनुष्य पर्यायका नाश होते ही देवादि पर्या की उत्पत्ति हो जाती है इसलिये पर्यायें पदार्थ के साथ सहभावी नहीं हैं इसलिये उनकी संख्या नियमितरूपसे नियत नहीं रहती इसीकारण उसका ( द्रव्यका ) उत्पाद व्यय स्वभावका कभी अभाव नहीं होता और इससे पदार्थकी भी हानि वृद्धि कुछ भी नहीं होती क्योंकि वह पदार्थका स्वभाव है स्वभावमें कभी हानि वृद्धि होती नहीं । यदि पदार्थ में स्वभावकी हानि वृद्धि मान लीजाय For Private And Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा तो पदार्थकी भी सिद्धि नहीं होती अत: पदार्थोंमें स्वभावकी हानि वृद्धि नहीं होती इसकारण पदार्थोकी संख्या नियत है । और पर्यायोंका क्रम उत्पाद व्यय स्वरूप है इस कारण उनकी संख्या नियत नहीं है अतः उसको नियमित नियत मानना सर्वथा आगम विरुद्ध है । इसी कारण प्राचार्योने क्रमबद्ध पर्याय (क्रमनियमितपर्याय ) को मानने वालों को नियतिवाद पाखंडी वतलाया है। यदि मिथ्या नियतिवादकी तरह सम्यनियति भी कोई वस्तु होती तो प्राचार्य उसका भी सम्यनियति बोलकर उल्लख अवश्य करते जैसे सम्यकदर्शन और मिथ्यादर्शनका उल्लेख किया है । इसलिये मानना पडता है कि सम्यनिर्यातका आगममें कहीं पर भी उल्लेख नहीं है क्योंकि सम्यनियति कोई पदार्थ ही नहीं है । और न कोई क्रमनियमित सम्यकपर्याय है जो उसका आगममें उल्लेख मिलता । आगममें तो एकही उल्लेख मिलता है कि क्रमवद्धपर्याय ( क्रमनियमित पर्याय ) को माननेवाला नियतिवाद है । क्रमवद्ध पर्यायको मानने वालोंको श्राचार्यो ने. नियतिवादी क्यों कहा इसका कारण क्या है ? इस पर विचार करनेसे यही ज्ञात होता है कि क्रमवद्ध पर्याय पर निर्भर करनेवाला दोनों तरफसे मिथ्यादृष्टि होता है । अर्थात् भगवानके ज्ञानमें हमारा परिणमन किस समय कैसा होगा वैसा झलका है वह उसीके माफक होगा उसमें न्यूनाधिक नहीं होगा इस ज्ञायकपक्ष पर निर्भर करने वालोंकी दशा मारीचकी और द्वीपायनमुनि आदिकी सी होती है । जो अपने कल्याणकी वात जान लेता है वह भी मारीचकी तरह स्वछंद होकर मिथ्यादृष्टि वन जाता है और अनंतकाल तक संसारमें परिभ्रमण करता है । तथा जो अपने अकल्याणकी वात जान लेता है वह भो द्वीपायनमुनि और यादवोंकी तरह डरके मारे उमसे वचनेका उपाय करनेके लिये प्रयत्न करते हैं इस कारण वे भी मिथ्यादृष्टि बनकर अनन्त संसारमें परिभ्रमण करते For Private And Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०४ जैन तत्त्व मीमांसा की हैं। इसलिय जाते हैं। याने बालोक हैं। इसलिये ज्ञायकपक्षका ग्रहणकर चलनेवाले दोनों तरहसे मिथ्यादृष्टि बन जाते हैं। यह निश्चित वात है । इसी कारण आचार्यों ने ज्ञायकपक्ष पर नाचने वालोंको नियतिवादी घोषित किया है। अतः आचार्यों ने नियतिवादका सम्यकनियति बोलकर कहींपर भी समर्थन नहीं किया। आपने जो द्रव्य अपेक्षा नियतिवादको सम्यनियति कहकर समर्थन किया है वह सर्वथा एकान्त रूपसे मिथ्या है। द्रव्यकी पर्यायें नियमित नियत नहीं है वे नवीन नवीन ही उपजे है। इस सम्बन्धमें आगम प्रमाण देखिये । स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २२६ । २३० । २३१ । २३२ ।। "णव णव कज्ज विसेसा तीसुवि कालेसु होति वत्थूणं एक्कक्कम्मि य समये पुव्वुत्तरभावमासिज्ज" २२२ ___ भावार्थ-जीवादि वस्तुनिके तीनूही कालविषे एक एक सम-- यविषे पूर्व उत्तर परिणामका आश्रयकरि नवे नवे कार्य विशेष होय हैं नवे नवें पर्याय उपजे हैं। आगे इसी कारण कार्यभावको दृढ करें है। "पुव्वपरिणामजुत्त' कारणभावेण बट्टदे दव्वं । उत्तरपरिणामजुदं तं चिय कज्ज हवे णियमा ॥२३० अर्थात् पूर्वपरिणामकरि युक्त द्रव्य है सो तो कारणभावकार वर्ते हैं। तथा सोही द्रव्य उनरपरिणामकरि युक्त होय तव कार्य होय है यह नियमते जाणू । भावार्थ जैसे माटीका पिंड तो कारस है अर ताका घट वन्या सो कार्य है तैसे पहिले पर्याय का स्वरूप-: करि अव जो वह पिछले पर्याय सहित भया तव सोही कार्यरूप भया ऐसे नियमरूपसे वस्तुका स्वरूप कहिये है । अव जीव द्रव्यके भी तेसे ही अनादि निधन कार्यकारणभाव है सो ही दिखावे हैं For Private And Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा "जीवो अणाइणिहणो परिणयमाणो ह णवणवभावं । सामग्गीसु पवदृदि वज्जाणि समासदे पच्छा ।। २३१ अथात् जीव द्रव्य है सो अनादिनिधन है सो नये नये परियायरूप प्रगट परिणमें हैं सो पहिले द्रव्य क्षेत्र काल भावको सामग्री विषे प्रवर्ते है पीछे कानिक पर्यायनिक प्राप्त होय है भावार्थ-जैसे कोई जीव पहिले शुभ परिणामरूप प्रवर्ते पीछे स्वर्ग जाय तथा पहिले अशुभ परिणामरूप प्रवर्ते पीछे नरक आदि पर्याय पावें ऐसे जानना । आगे जीव द्रव्य अपने द्रव्य क्षेत्र काल और भावविषे तिष्ठया ही नवे पर्यायरूपकू करे है ऐसे करें हैं। "ससरूवत्थो जीवो कज्ज साहेदि वट्टमाणं पि । खेचे एकम्मि ठिदो णियदच्वं संठिदो चेव ॥ २३२ अर्थात् जीवद्रव्य है सो अपने चैतन्यस्वरूप विषे तिष्ठ्या अपने ही क्षेत्रवि तिष्ठा अपने परिणमनरूप समय विषे अपनी पर्याय रूप कायकू साधे है । भावार्थ-परमार्थते विचारिये तव अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव स्वरूप होता संता जीव पर्याय स्वरूप कार्यरूप परिणमें है । पर द्रव्य क्षेत्रकाल भाव है सो निमित्तमात्र है। आपका जो यह कहना है कि-- ___"इसको याद और अधिक स्पष्टरूपसे देखाजाय तो ज्ञात होता है कि भूतकालमें पदार्थमें जो जो पर्याय हुई थी वे सब द्रव्यरूपसे वर्तमान पदार्थ में स्थित है और भविष्य कालमें जो जो पाये होगी वे भी द्रव्यरूपसे वर्तमान पदार्थमें अवस्थित है अतएव जिस पर्याय उत्पादका जो ममय होता है उसी समयमें वह पर्याय उत्पन्न होती है और जिस समय जिस पर्याय का व्यय होना है वह उस समय विलीन हो जाती है। ऐसी एक भी पयाय नहीं है For Private And Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०६ जन तत्त्व मीमांसा को जो द्रव्यरूपसे वस्तुमें न हो और उत्पन्न हो जाय और ऐसी भी कोई पर्याय नहीं है जिसका व्यय होने पर व्यरूपसे वस्तुमें उसका अस्तित्व ही न हो । इमी वातको स्पष्ट करते हुये प्राप्तमीमांसामें स्वामी समंतभद्र कहते हैं कि "यद्यसत् सर्वथा कार्य तन्मा जनि खपुष्पवत् मोपादाननियामोभून्माश्वासः कायजन्मनि ॥ ४२ ।। अर्थात् यदि कार्य सर्वथा असत् है अर्थात जिसप्रकार वह पर्याय रूप से असत् है उसीप्रकार वह द्रव्यरूपसे भी असत् है तो जिसप्रकार आकाश कुसुमकी उत्पत्ति नहीं होती उसी प्रकार कार्यकी भी उत्पत्ति मत होओ तथा उत्पादन का नियम भी न रहै और कार्य के पेदा होनेमें समाश्वास भी न रहै। इसी वातको आचार्य विद्यानन्दने उक्त श्लोकको टीकामें इन शब्दोंमें स्वीकार किया है। "कथञ्चित्त एव स्थितत्वौत्पन्नत्वघटनाद्विनाशघटवत् " जैसे कथंचित सत्का ही विनाश घटित होता है उसी प्रकार कथंचित् सतका ही ध्रौव्य और उत्पाद घटित होता है। प्रध्वंसाभावके ममर्थनके प्रसंगमें इसीवातको और भी स्पष्ट करते हुये आचार्य विद्यानन्द श्रष्टसहस्रीमें कहते हैं | पृष्ठ ५३ "स हि द्रव्यस्य वा स्यात्पर्यायस्य वा ? न तावद् द्रव्यस्य नित्यत्वात् । नापि पर्यायस्य द्रव्यरूपेण ध्रौव्यात् । तथाहि विवादायन्नं मण्यादौ मलादि पर्यायार्थतया, . नश्वरमपि द्रव्यार्थतया ध्रुवम् , सत्त्वान्यथानुपपत्तेः" वह अत्यंत विनाश द्रव्यका होता या पर्यायका ? द्रव्यका तो For Private And Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०७ समीक्षा हो नहीं सकता क्योंकि वह नित्य है पर्यायका भी नहीं होता क्यों कि वह द्रव्यरूपसे,प्रौव्य है । यथा विवादास्पद मणि आदिमें मल आदि पर्याय रूपसे नश्वर होकर भी द्रव्य रूपसे ध्रुव है अन्यथा उनकी सत्त्वरूपसे, उत्पत्ति नहीं होती । जैन तत्त्व मीमांसा पृष्ठ १६४, १६५ आप जो उपरोक्त प्रमाणोंसे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि " ऐसी एक भी पर्याय नहीं जो द्रव्यरूपसे वस्तुमें और उत्पन्न होजाय भोर ऐसीभी कोई पर्याय नहीं है जिसका व्यय होनेपर द्रव्य रूपसे वस्तुमें उसका अस्तित्व ही न हो" १६४ इस कथनसे आपका अभिप्राय यह है कि जिन पर्यायों का व्यय हो चुका है उनका और आगे जो जो पर्यायें द्रव्यमें होने वाली हैं उन सव पर्यायों का अस्तित्व द्रव्यरूपसे वर्तमान वस्तु में मौजूद है। किन्तु आचार्योंके कहनेका यह अभिप्राय नहीं है कि भूत भविष्यत काल सम्बधी सर्व पर्यायों का अस्तित्व द्रव्यमें रहता है। उनके कहने का स्पष्टरूपसे अभिप्राय उक्त वाक्योंसे झलक रहा है कि _"तथाहि-विवादापन्न भण्यादौ मलादि पर्यायार्थतया नश्वरमपि द्रव्यार्थतया ध्रुवम्" अर्थात मणि श्रादिमें मलादि पर्याय का नाश होनेपर भी द्रव्यरूपसे वह ध्रुव है । सारांश यह है कि पर्यायका नाश होनेपर भी पर्यायके साथ द्रव्यका नाश नहीं होता क्योंकि द्रव्य नित्य है " न तावद् द्रव्यस्य नित्यत्वात " इन शब्दोंसे द्रव्यका कभी नाश नहीं होता । विभाव पर्यायका प्रध्वंसाभावसे अभाव होता है जैसे मणिमें मलका अभाव होता है किन्तु उस मलका द्रव्यरूपसे नाश नहीं होता इस लिये उसका मलरूप पर्यायका अभाव होकर दूसरी पर्यायरूप उसका परिणमन हो जाता है For Private And Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०८ . जैन सत्त्व मीमांसा की अर्थात मल पर्याय से पहले भी काई न कोई पर्याय था इसलिये परपंरा की अपेक्षा सामान्य पर्याय भी नित्य है, द्रव्य की कोई न कोई पर्याय भी सदा रहने वाली है ! अतः यह कथन सतके लक्षण सम्बन्धी है और द्रव्य है सो सतरूप है। "सत् द्रव्यलक्षणम् अर्थात् द्रव्यका लक्षण सत् है, जो सत् है सो ही द्रव्य है यह सामान्य अपेक्षा करि द्रव्यका लक्षण है इसी कारण सर्व द्रव्य सतमयी ही है । तथा सत किसको कहते हैं इसका आचार्य स्पष्टीकरण करते सूत्र कहते हैं। ___ " उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्' अर्थात् उत्पाद व्यय और ध्रौव्य इन तीनो करि युक्त है सो सत् है । तहां चेतन या अचेतन द्रव्यके अपनी जाती कू नहीं छोडनेके निमित्तके वशतें एकभावते अन्यभावकी प्राप्ति होना सो उत्पाद है । जैसे माटीक पिण्डके घट पर्याय होना । तेसे ही पहिले भावका अभाव होना सो व्यय है। जैसे घटकी उत्पत्ति होते पिण्डके आकारका अभाव होना । बहुरि ध्र व का भाव तथा कर्म होय ताकू ध्रौव्य कहिये जैसे माटीका पिण्ड तथा घट आदि अवस्थाविषे माटी है सो ध्रव कहिये । सो ही पिण्डमें था सो ही घटमें है तैसे ऐसे उत्पाद व्यय ध्रौव्य इन तीनू ही कार युक्त होय सो सत है । ___इहां तर्क-जो युक्त शब्द तो जहां भेद होय तहां देखिय है जैसे दण्डकरि युक्त देवदत्त कहिये। कोई पुरुष होय ताकू दण्डयुक्त कहिये । जो ऐसे तीनि भाव जुदे २ करि युक्त है तो द्रव्यका अभाव आवे है । ताका समाधान--जो यह दोष नाहीं है । जातें अभेदविषे भी कथंचित् भेदनयकी अपेक्षाकरि युक्त शब्द देखिये है। जैसे सारयुक्त स्शंभ है इहां स्थम्भसे सार जुदा For Private And Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ३०६ _..-... नाहीं तो भी युक्त शब्द देखिये हैं । तैसे उत्पाद व्यय प्रौव्य इन तीनोंका अविनाभावले सत्का लक्षण वणे है । अथवा युक्त शब्द का समाहित भी अर्थ होता है । युक्त कहिये समाहित तादात्मक तत्म्वरूप ऐमा भी अर्थ है ! तातें उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूप सत् है ऐसा अर्थ निर्दोष है । तातें यहां ऐसा सिद्ध होय हैजो उत्पाद आदि तीनों तो द्रव्यके लक्षण हैं अरु द्रव्य लक्ष्य है नहां पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा करि तो तीनू ही द्रव्यते तथा परस्पर अन्य अन्य पदार्थ हैं । बहुरि द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा करि जुड़े नाही दिखें है । तातें द्रव्यतें तथा परस्पर एक ही पदर्थ है । ऐसे भेदाभेद नयकी अपेक्षा कार लक्ष्य लक्षण भावकी सिद्धि होय है। ___ इहां कोई कहै कि-जो ध्रौव्य तो द्रव्यका लक्षण और उत्पाद व्यय पर्यायका लक्षण ऐसे कहना था यामें विरोध न आवता त्रयात्मक लक्षण कहनेमें विरोध आवे है । ताका समाधान जो ऐसे कहना अयुक्त है जातें सत्ता तो एक है सो ही द्रव्य है। ताके अनन्तपर्याय हैं । द्रब्य पर्यायकी न्यारी न्यारी दोय सत्ता नाहीं है । बहुरि एकान्तकरि ध्रौव्य ही को सत् कहिये तो उत्पाद व्यय रूप प्रत्यक्ष व्यवहारके असत्पना आवे तब सर्व व्यवहार का लोप होय । तथा उत्पाद व्ययरूप ही हान्तकरि सत् कहिये लो पूर्वापरका जोडरूप नित्यभाव विना भी सर्व व्यवहार का लोप होय तातें त्रयात्मक सत हो प्रमाणसिद्ध है ऐसा ही वस्तु स्वभाव है सो कहनेमें आवे है। यह सर्वार्थसिद्धिकारका वचन है इन वचनोंके अनुसार ही समन्तभद्राचार्यके और विद्यानन्दि आचार्यके वचन हैं जो आपने अपने ध्येयकी सिद्धि करने के हंतु प्रमाण में दिये है, किन्तु उक्त प्रमाणोंसे क्रमनियमित पर्याय की सिद्धि नहीं होती । क्योंकि सत् है सो वह उत्पाद और For Private And Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१० जैन तत्त्व मीमांसा की व्यययुक्त होकर भी ध्रौव्यरूप है। इस कारण कशंचित् सत्का भी विनाश पर्याय अपेक्षा घटित होता है अर्थात् सत् जिस पर्याय स्वरूपमें अवस्थित है उस पर्यायका नाश होने से उस पर्याय रूप मतका भी विनाश देखा जाता है इस अपेक्षा कचित् सत्का भी विनाश कहा जा सकता है। तथा उसी सत्का पूर्व पर्यायके विनाश कालमें नवीन पर्याय का उत्पाद होजाता है और उसी सत का पूर्वपर्याय में भी जैसा धौव्यपणा अवस्थित था वैसा ही उस का उत्तर पर्याय में भी ध्रौव्यपणा मौजूद है । इस अपेक्षा सतका ही कथंचित् ध्रौव्यपणा और उत्पादपणा घटित होता है। तथा उत्पाद व्यय कथंचित असत इमलिये नही है कि उसका उत्पाद व्यय सत् पदार्थ में ही होता है, जो सत की सत्ता है वही सत् के उत्पाद व्यय की सत्ता है उत्पाद ब्यय की कोई अलग दूसरी सत्ता नहीं है इस कारण कथंचित उत्पाद ब्यय का सत्के माथ तादात्मक सम्बन्ध भी कहा जा सकता है। इसी कारण सत का कार्य (.पर्याय ) भी असत् नहीं है । अतः यह सव कथन नय विवक्षासे किया गया है यदि सत को सर्वथा ही उत्पाद व्यय से भिन्न मान लिया जाय तो सत्का कोई कार्य ही नहीं रहता वह श्राकाशके कुसुमवत् असत् सिद्ध हो जाता इस लिये सत पदार्थसे उसकी उत्पाद ब्यय रूप पर्यायें भी कथंचित् अनन्न होनेसे सत् रूप समझी जाती है वह सर्वथा असत् नही कहीं जासकती है । आप्तमीमांसामें समन्तभद्राचार्यने यही बात कही है, इसी परसे आप पर्याय स्वरूप कार्यको सर्वथा सत् मानकर क्रमवद्ध पर्याय की सिद्धि करते हैं सो इस से क्रमवद्ध पर्याय सिद्ध नहीं होती क्योंकि पर्याय यदि सर्वथा सत् रूप होती तो उसका सत् की तरह सदा ध्रौव्यपणा वण्या रहना चाहिये सो ऐसा देखने में नहीं आता और आगम प्रमाण ही ऐसा नहीं मिलता इस कारण पर्याय कथंचित असत For Private And Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा .mmm.mir...wwwwwwwwwwwwwwwwww.wwwma...... भी है इस कारण उसका उत्पाद ब्यय होता रहता है इसी कारण वह व्यतिरेकी है अन्वयी नहीं हैं अतः अन्वयी नहीं होने पर भी उत्पाद व्ययको अन्वयी कहा है वह द्रव्यार्थिकनय अपेक्षासे कहा है क्योंकि वह द्रव्यमें ही होता है उससे कोई उत्पाद ब्यय अलग पदार्थ नहीं है। किन्तु पर्यायार्थिक नयकरि उत्पाद व्यय और प्रौव्य यह तीनों ही अन्य अन्य पदार्थ है इसकारण पर्यायार्थिक नयार सर्व पर्याय व्यतिरेकी ही हैं। अन्वयी नहीं हैं। इस लिये पर्यायोंको अन्वयी मानकर ‘क्रमनियमित ' मानना सर्वथा आगम विरुद्ध है। छहों द्रव्य और उनके गुणोंकी संख्या नियत है इसका कारण राह है कि वे सब द्रव्य अन्वयी हैं उनका द्रब्यके साथ तादात्मक सम्बन्ध है इसी लिये उनमें हानि वृद्धि नहीं होती किन्तु द्रब्यकी पर्याय ब्यतिरेकी हैं इसकारण उनकी संख्या नियत नहीं होसकती क्योंकि अनादि कालसे लेकर अनन्तकाल तक द्रव्यका सद्भाव रहैगा ही द्रव्य के सद्भावमें उनका परिणमन रूप पर्याय नवी नवी उत्पन्न होती ही रहेंगी क्योंकि उनका उत्पाद ब्यय रूप परिणमन स्वभाव है स्वभावका कभी अभाव होता नहीं इसकारण द्रब्य की पर्याय नियमित नियत नहीं हो सकती अत: द्रव्य अपेक्षा भी पर्यायोंको क्रमनियमित मानना आगम और युक्तियों से भी सर्वथा विरुद्ध है। क्षेत्र अपेक्षा भी क्रमनियमित या सम्यकनियति पर्यायों की सिद्धि नहीं होती । क्योंकि तीन लोककी जो रचना है वह अकृत्रिम है यदि अकृत्रिम रचनामें कृत्रिम रचना की तरह हेर फेर होने लगे तो छहों द्रब्यों में भी फेर फार होकर लोक की व्यवस्थाका हो अभाव होजाता इसलिये अकृत्रिम ऊर्ध्वलोकमें सोलह कल्प नौ प्रैवेयक नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर विमान और For Private And Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमासां की mmmar इनके ऊपर सिद्धशिला और सिद्ध क्षेत्र यह अनादि निधन व्यवस्था है। इसी प्रकार मध्य लोकके असंख्यात द्वीप समुद्र उस में कर्मभूमि भोगभूमि कुलाचलादि सब व्यवस्थित हैं। अधोलोकमें भी रत्न शर्करादि सात पृथ्वी और उसके आश्रय सात नरकों के पटल विला आदि सब नियतरूप से ब्यवस्थित हैं। उसी प्रकार कृत्रिम पदार्थ नियतरूपसे व्यवस्थित नहीं रह सकता इसलिये अकृत्रिम पदार्थोकी व्यवस्थाके साथ क्षणिक पर्यायकी ब्यवस्था व्यवस्थित बतलाना क्या न्यायसंगत है ? कभी नहीं अतः क्षणिक पदार्थकी ब्यवस्था नियमित रूपसे नहीं रह सकती यह अटल नियम हैं । इस लिये क्षेत्र अपेक्षा भी क्रमवद्ध पर्याय की सिद्धि नहीं हो सकती अतः आपने जो क्षेत्र अपेक्षा सम्यक नियति वोलकर क्रमबद्ध पर्यायकी पुष्टि करने का प्रयत्न किया है वह सर्वथा न्याय युक्ति और आगम विरुद्ध है। ___कालकी अपेक्षा भी क्रमवद्ध पर्यायकी पुष्टि नहीं होती। जो आपका यह कहना है कि "काल अपेक्षा जिस प्रकार अवलोक अधोलोक और मध्यलोक भोगभूमि सम्बन्धि क्षेत्र में तथा स्वयंभूरमणद्वीपके उत्तरार्ध और स्वयंभूरमणसमुद्रमे जहाँ जिसकाल की ब्यवस्था है वहा अनादिकालसे वहां उसी कालकी प्रवृत्ति होती रहेगी और विदेह क्षेत्र सम्बन्धी कालका भी यही नियम है। इसके सिवाय जो कर्म भूमिकाक्षेत्र बचा है उसमें कल्पकालके अनुसार निरन्तर और नियमित ढंगसे उत्सर्पिणी और अवस. र्पिणी कालकी प्रवृत्ति होती रहती है । इन कालोंकी स्थिति दस दस कोडा कोडी सागरकी निश्चित है तथा इनमें जो छः छः कालोंकी प्रवृत्ति होती है वह भी निश्चित है अर्थात् कालोंके अनुसार आयु कायादिकी घटा वढी नियमानुसार ही होती है । इनमें दूसरा कोई निमित्त कारण नहीं है जो उसके जरिये ऐसा होता For Private And Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ३१३ हो अर्थात यह faar faमित्त कारण के ही होता रहता है। उत्स पिंणी के तृतीय काल में और अवसर्पिणी के चतुर्थकाल में चौबीस तीर्थकर वारह चक्रवर्ती नौ नारायण नौ प्रतिनारायण, नौ बलभद्र ग्यारे रुद्र और चौवीस कामदेवका उत्पन्न होना निश्चित है ये निमित्तानुसार पद प्राप्त कभी कम जादा नहीं होते । आयुका बन्ध भी आठ अपकर्षरण कालमें ही क्यों होता है ? या मरणके अन्तर मुहूर्त पूर्व ही क्यों होता है ? तथा छह महीना आठ समय में छहसौ आठ जीव ही मोक्ष क्यों जाते हैं ? अधिक या कम क्यों नहीं जाते ? इत्यादि कहनेका सारांश यह है कि परिणामोंकी सबके नियतता है इसी कारण तीथङ्करादि पद कम जादा नहीं होते और छह महीना आठ समय में छह सौ आठ जीवोंके ही मोक्ष प्राप्ति रूप परिणाम होते हैं तथा आयुबन्धके परिणाम आयुके आठ अपकर्षण काल में ही होते हैं या मरणसमय के अन्तर्मुहूर्त पहिले ही होते हैं। इस कारण सबके परिग्राम नियमरूपसे है । परिमित हैं । इसीलिये जिसकाल में जिसके जैसा परिणाम होना है वैसा ही होता है इसी कारण सव निय मित कार्य होते है । " किन्तु कालगत यह मान्यता भी मिथ्या है। क्योंकि एक नियमित कार्य होनेसे सब ही नियमित कार्य हो ऐसी कोई व्याप्ती नहीं है। अवसर्पिणीके चौथे कालमें और उत्सर्पिणी के तीसरे कालमें तीर्थङ्करादि जो नियमित रूपसे होते तो सव द्रव्योंकी पर्यायें भी नियमित रूपसे होनी चाहिये यह कोई नियम की बात नहीं है । जो नियमित रूपसे जिस कालमें जो होता है उस में भी काल दोषसे कम जादा और आगे पीछे होता देखिये हैं। जैसे इस हुण्डावसर्पिणी कलमें आदिनाथ भगवानने तीसरे कालमें ही मोक्ष पदकी प्राप्ति करली तथा बाहुवलस्वामी आदि For Private And Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की नाथ भगवानके पहिले ही मोक्ष में जा पहुंचे और भरतचक्रीका मानभंग हुआ छोटे भाईसे युद्ध में हार खाई तथा आदिन'श भगवानके दो कन्या उत्पन्न हुई यह कार्य अनियमित हुआ । नियम तो यह हैं कि अवसर्पिणीके चौथे काल में ही तीर्थङ्कर मोक्ष जाते है और उनके पहिले कोई भी मोक्ष नही जाते तथा चक्रवर्ती किसीके सामने हार नही खाते और तीर्थङ्करोंके कन्या उत्पन्न नहीं होती अतः इस नियम का भी कालके निमित्तसे भग हुआ। इसके अतिरिक्त रुद्रोंकी उत्पत्ति किसी कालमें नहीं होती सो भी इसीकालमें हुई । तथा जो पदवीधारी पुरुष होते हैं वे वि अलग अलग ही होते हैं एक पुरुष दोय तीन पदवीयों को प्राप्त नहीं होते ऐसा नियम है किन्तु इस काल के प्रभावसे एक एक पुरुषने दोय दोय तीन २ पदवीयां धारण करली था जैसे शान्ति कुथु अर्हनाथ भगवान तीर्थकर चक्रवर्ती और कामदेव भी हुये । इसप्रकार महावीर म्वाभीके जीवने नारायण पद प्राप्त कर तीर्थकर पद भी प्राप्त किया। ये सव अनियमित कार्य इस कालके प्रभावसे हुआ । केई नारायण प्रतिनारायण तीसरे नरक गये तो केई चौथे नरक भी गये । आठ वलभद्र मोक्ष गये एक वलभद्र स्वर्गमें ही गये । ग्यारे चक्रवर्ती मोक्ष गये एक नर्क गया ऐसा क्यों हुश्रा आपकी मान्यताके अनुसार सबका एकसा नियम रहना था । इसलिये यह मानना पडेगा कि जो नियमित कार्य हैं वे भी निमित्ताधीन उलट पलट होजाते हैं तो जो द्रव्यकी पर्याय सदा उलट पलट होती रहती है उनको नियमित कार्योंके समान नियमित रूपसे नियत वतलाना सर्वथा मिथ्या है तार्थकरोंकी जन्म अयोध्या नगरीमें ही होनेका नियम है और श्रीसम्मेदशिखरजी से ही मोक्ष जानेका नियम है किन्तु इस हुंडावसर्पिणी कालमें हेरफेर होगया । छह For Private And Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ३१५ महिने आठ समयमें कमसे कम छहसौ आठ जीव मोक्ष जानेका जो नियम है उसमें भी एक महीने में एकसौ और आठ समयमें आठजीव न जाकर कभी कभी छह महीने तक एक भी जीव मोक्ष नहीं जाते है शेष आठ समयमें ही छहसौराठ जीव मोक्ष चले. जाते हैं । यह नियतपणाका क्रम भंग किसलिये हुआ ? तो मानना पडेगा कि उसरूप निमित्त नहीं मिला । इस कारणसे छह महिने तक कोई जीव मोक्ष नहीं गये । ___कर्मभूमियां मनुष्य और तियचों का आयु वन्ध भुज्यमान कायुके आठ अपकर्षणों में होता है ऐसा क्यों ? एक ही अपकर्षणम क्यों नहीं होता ? तो यही कहना पड़ेगा कि उस समय आयु वन्ध होने योग्य परिणाम नहीं हुये तो क्रमवद्धता परिणामोंकी कहाँ रही । आठ अपकर्षणों में भी आयु वन्धके योग्य परिणाम अनेक जीवोंके नहीं होते हैं और किन्ही किन्ही के पहिले अपकर्षणमें भी आयुका वन्ध होने योग्य परिणाम होजाते हैं तो किसी के दूसरे तीसरे चौथे पांचवे छठे और सातवें अपकर्षणमें आयुव-धके योग्य परिणाम होते हैं और किसोके मरणसमयसे कुछ पूर्वमें नवीन पायुका वन्ध होता है ऐसा अनियम क्यों ? सवका समान नियम होना चाहिये : तो यही कहना पडेगा कि सवको नवीन आयुवधके योग्य निमित्त नहीं मिला इसकारण उस रूप सबके परिणाम नहीं हुये, आयुवन्ध होने योग्य जिसको जैसा निमित्त मिला उसका उस रूप परिणाम होकर उसके अनुसार उस रूप देवादि आयुका बन्ध हुआ। परिणामोंकी गति निमित्तानुसार परिवर्तन होती रहती है इसी कारण सको त्रिभागी में अंतर रहता है एकरूप त्रिभागी किसीकी भी नहीं पडती तथा सब जीवोंकी आयु वन्ध होनेका एकरूप नियम भी नहीं है । देव नारकीके जीवोंकी आयु न्ब श्रायुके छह मास बाकी रहनेपर आठ त्रिभागी होती हैं For Private And Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१६ जैन तत्त्व मीमांसा की उसमें उनके नवीन आयुका वन्ध होता है, सो भी किसीके त्रिभागीमें किसीके किसी त्रिभागीमें श्रायुका बन्ध होता है । तथा भोगभमियां मनुष्य तिर्यचोंकी नवीन आयुका नौमास वाकी रहनेपर आठ विभागीमें किसी एक त्रिभागीमें नवीन आयुका बन्ध होता है। सबको एकसा नियम नियतरूपसे नहीं है जिसका श्रकालमरण होता है उसके लिये त्रिभागीका नियम भिन्न प्रकार है। इसका कारण यह है कि जिसने ६६ वर्षकी आयुका वन्ध किया था किन्तु कारणवश उसकी आयुका अपकर्षण त्रिभागी पडनेके पहिलेही होगया ता उसके भोगोहुई आयुसे आधी या उस से कम आयु शेष रहनेपर ही अगदी आयुका वन्ध होता है किन्तु जिसने एक त्रिभागीकी आयु भोग ली अर्थात् ६६ वर्षकी आयुबाला ६६ वर्षकी आयु भोगचुका और परभयकी आयुका बन्ध करलिया है तो उसका अकाल मरण नहीं होगा । किन्तु जिसके परभवकी आयुका वन्ध नहीं हुआ है और यदि उसका अकाल मरण होता है तो भोगी हुई आयुसे आधी श्रायुसे कम आयु शेष रहनेपर नवीन आयुका वन्ध होगा ऐसा जैनागमका कहना है । षट् खडागम पुस्तक ६ पृष्ठ १७० . उपरोक्त आगम प्रमाण कथनसे यह स्पष्ट सिद्ध होजाता है कि क्रमनियमित पर्यायको माननेवाले आगम विरुद्ध बोलते हैं । क्रमनियमित पर्यायके मानने वालों के मतमें उपरोक्त अकालमृत्यु आदि कर्मोंका अपकर्षण उत्कर्षण और संक्रमण नहीं बनता । इसलिये कालअपेक्षा पंडितजीने सम्यक नियति की सिद्धि करनेकी चेष्टा की है वह असफल होचुकी । अर्थात् सम्यकनियतिकी वजाय मिथ्या अनियति प्रमाणित हो चुकी अतः जो आपने कालगत नियम बतलाये थे उनमें भी परिवर्तन होता है यह उपरोक्त कथन से अच्छी तरह सिद्ध हो चुका है। For Private And Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ३१७ भाव अपेक्षा भी सब जीवोंके एकसे क्रमवद्ध परिणाम नहीं होते, कषायस्थान असंख्यात लोकप्रमाण है यह ठीक है कषायों के स्थान इतने ही हैं कम जादा नहीं है पर कषायोंका उदय तो क्रमबद्ध नहीं है अर्थात् ऐसा तो नहीं हो सकता कि कषायों के स्थान एक के बाद एक स्थान उदयमें आते हों। यदि ऐसाही मान लिया जाय तो असंख्यात लोक प्रमाण समय बीत जानेके बाद सर्व जीव निः कषाय हो जाने चाहिये क्योंकि कषायके स्थान श्रसंख्यात लोकप्रमाण ही हैं वह क्रमबद्ध उदय में आकर असंख्यात लोकप्रमाण काल में खतम हो जायंगे फिर तो सर्व जीव वीतराग क्यों नहीं बनेंगे ! इस हालत में असंख्यात लोकप्रमाण काल के बाद सब जीवोंके संसार ही खतम होजायेगा सो होता नहीं । सिद्धराशि के अनंतवें भाग तो अभव्यराशि जीव हैं उनसे अनन्तगुणे दूरानदूर भव्यराशि जीव हैं उनका कभी भी संसार खतम ही नहीं होगा । परन्तु कषायांका उदय क्रमबद्ध मान लिया जाय तो उनका भी संसार असंख्यात लोक प्रमाण कालके वाद खतम हो जायगा सो होता नहीं इसलिये परिणामों को क्रमवद्ध मानना सर्वथा आगम विरुद्ध है । संसारी जीवों के निमित्तानुसार कषायों के परिणाम तरह २ के वनते रहते हैं उनकी संख्या असंख्यात लोक प्रमाण है । इसी प्रकार लेश्याओंसे रंजित परिणामको समझ लेना चाहिये । अधः करण के परिणाम सब जोवोंके समान नहीं होते इस बातको आप भी मानते हैं। अतः परिणामों के कार्य श्रानयत रूपसे होते हैं अर्थात् परिणाम के अनुसार ही कमकी स्थिति और अनुभाग तन्ध होता है और गति भी परिणामोंके अनुसार मिलती है । इसीलिये आचार्य कहते हैं कि परिणामों की सम्हाल हरसमय रक्खों श्रन्यथा संसार में दुख भोगना पड़ेगा । यदि परिणामों का परि For Private And Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१० जैन तत्त्व मीमांसा की मन ( पर्याय ) क्रमबद्ध होना मानलिया जाय तो परिणामोंकी सम्हाल करने की जरूरत नहीं होगी क्योंकि वह सम्हाल करने पर भी उदय में तो क्रमबद्ध ही आयेंगे श्रतः सम्हाल करना व्यर्थ ही समझा जायगा इमलिये भावगत क्रमनियमित पर्याय मानना मिथ्यावाद की पुष्टि करना है। निमित्तकारण की स्वीकृति के कथन में आपने कार्यात्पत्ति में निमित्तकारण को स्वीकार तो किया है जो आपकी मान्यताके विरुद्ध है। इसी लिये आपने केवल मान्यता की सुरक्षा करनेके लिये " प्रत्येक कार्य में निमित्त अवश्य होता है" इन शब्दों में निमित्तकी स्वीकृति स्वीकार की है । अर्थात् कार्योत्पति जो होतो है वह तो उपादान को योग्यता से ही होती है निमित्तकारण उस कार्योत्पतिके समय उपस्थित हो जाते हैं। पंडितजीकी मान्यता है कि "कार्योत्पत्ति के समय निमित्त उपादान को न कुछ सहायता ही देता है अथवा न कुछ उनको प्रेरणा ही करता है और न कुछ उपादान में वलही उत्पन्न करना है । वह तो केवल उदासोनरूपसे उपस्थित रहता है क्योंकि कार्योत्पतिके ममय प्राचार्योंने उसकी उपस्थिति व्यवहार दृष्टि से स्वीकार की है इसलिये निमित्त की स्वीकृति स्वीकार करनी पड़तो है । वास्तवमें निमित्त अकिंचित कर हो है । कार्यकी निष्पत्ति उपादान की योग्यता से ही होता है यह वास्तविक सिद्धान्त है । " किन्तु आचार्योंने इस मान्यताके विरुद्ध केवल उपादानकी योग्यता से विना निमितके कार्यकी निष्पत्ति नहीं होती ऐसा घोषित किया है। "भविया सिद्धिं जेसि ते हवंति भवसिद्धा । तब्बिीरियाऽभव्वा संसारादो ण सिझंति" ५५७ --भव्यमार्गणाधिकार For Private And Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममीक्षा टीका-भव्या भवितु योग्या भाविनी वा सिद्धिः अनंतचतुष्टयरूपस्वस्वरूपोपलब्धिर्येषां तं भव्यसिद्धाः। अनेन सिद्धलब्धियोग्यताभ्यां भव्यानां द्वविध्यमुक्तं । तद्विपरीता' उक्तलक्षणद्वयरहिताः ते अभव्या भवंति अतएव ते अभव्या न सिद्धति संसारान्निःसत्य सिद्धि न लभते" गोम्मटसारे ५५७ एवं द्विविधानामपि भव्यानां सिद्धि लाभप्रसक्ती तद्योग्यतामात्र वतामुपपत्तिपूर्वकं तां परिहरति" ___ अर्थात् भव्या कहिये होने योग्य बा होनहार है सिद्धि कहिये अनन्त चतुष्टय रूप स्वरूपकी प्राप्ति जिनके ते भव्यसिद्ध जानने यः कार सिद्धिकी प्राप्ति अर योग्यताकार भव्यनिके द्विविधपना कहया है। भावार्थ-भव्य दोय प्रकारक हैं केई तो भव्य ऐसे हैं जे मुक्ति होने का कंवल योग्य ही है परि कवहूं सामग्रीको पाय मुक्त न होई बहुरि कई भव्य ऐसे हैं जे कालपाय मुक्त होहिगे। बहुरि तद्विपरीताः कहिये पूर्वोक्त दोऊ लक्षण रहित जे जीव मुक्त होने योग्य भी नाहिं अर मुक्त भी होते नाहि ते अभव्य जानने । तातें ते वे भव्यजीव संसार निकास कदाचित् मुक्तिको प्राप्त न होंगे ऐसाही कोई द्रव्यत्व भाव है। यहां कोऊ भ्रम करेगा जो अभव्य मुक्त न होय तो दोऊ प्रकार के भव्यनिक तो मुक्त होना ठहग्या तो जे मुक्त होनेके योग्य कहे थे तिन भव्यनिके भी कवहूं तो मुक्त प्राप्ति होसी सो एसे भ्रमको दूर करने के लिये आचार्य करते हैं"भव्बत्तणस्स जोग्गा जे जीवा ते हवंति भव्य सिद्धा। गहु मलविगमे णियमा ताणं कणओवलास मिय" ५५८ टीका-ये भव्यजीवाः भव्यत्वस्य सम्यग्दर्शनादिसामग्री For Private And Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२० जैन तत्त्व मीमामा की प्राप्यानन्तचतुष्टयस्वरूपेण परिणमनस्य योग्याः केवल योग्यतामात्रयुक्ताः ते भा सिद्धा संसारप्राप्ता एवं भवन्ति । कुतः तेषां मलस्य विगमे विनाशकरणे केषांचित्कनकोपलानामिव नियमेन सामग्री न संभवतीति कारणात् " ५५८ अर्थात् जे भव्यजीव भब्यत्व जो सम्यग्दर्शनादि सामग्रोको पाइ अनन्तचतुष्टय रूप होना ताको केवल योग्य ही है तद्रूपहोने के नाही ते भव्य सिद्ध हैं। सदाकाल संसारको प्राप्त रहै हैं काहेते सो कहिये हैं । जैसे केई सुवर्ण सहित पाषाण ऐसे हैं तिनके कदाचित मलके नाश करनेकी सामग्री न मिले तैसे केई भ य ऐसे हैं जिनके कर्ममल नाश करनेकी कदाचित मामग्रा नियमकरि न संभवे हैं । भावार्थ भव्यजीव दोय तरह के होते हैं एक भब्य और दूसरा दूरानदूर भब्य इनमें जे भब्य हैं ते तो सम्यग्दर्शनादि प्राप्त होनेके कारणोंको प्राप्त करि सम्यग्दर्शनादिकी प्राप्त कर लेते हैं और मोक्षमें पहुंच जाते हैं । किन्तु जे दूरानदूर भव्य हैं ते सम्यग्दर्शनादि प्राप्त करनेकी योग्यता रखते हुये भी सम्य ग्दर्शनादि प्राप्त करनेके कारणों को प्राप्त नहीं होते हैं जैसे सती विधवा स्त्री संतान पैदा करनेकी योग्यता धारण करती हुई भी पुरुषका संयोग रहित होनेसे पुत्र उत्पन्न नहीं करसकती उसी प्रकार दूरानदूर भव्य जीव सम्यग्दर्शनादि उत्पन्न कर मोक्ष जानेकी योग्यता रखतेहुये भी सम्यग्दर्शनादि प्राप्त करनेकी सामग्रीका समागम प्राप्त न होनेसे उनके सम्यग्दर्शनादिका प्रादुर्भाव नहीं होता इस कारण वे भब्यत्वकी योग्यता रखते हुये भी अभव्योंके समानही संसारमें परिभ्रमण करते ही रहते हैं मोक्षपदकी प्राप्ति वे भी नहीं कर सकते । क्योंकि उनको मोक्षप्राप्ति करने For Private And Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा का कारण ही नहीं मिलता जैसाकि सती विधवा स्त्रीको पुरुषक: समागम नहीं मिलता अथवा अनेक कनकपाषाण जमीनमें ही पड़े रहते है उनको मलको दूर करनेवाले रजसोधा ( न्यारिया ) आदिका समागम ही नहीं मिलता । उसी प्रकार दूरामदूर भराजीवोंको गुरुदेशनादिका ममागम ही नहीं मिलता जो प्रात्माके साथ कर्ममल लगा हुआ है उस को दूर करनेका उपाय करें। ___इन उपरोक्त प्रमाणोंसे यह अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है कि केवल उपादानकी योग्यतासे कोई भी कार्य नहीं होता विना निमित्तकारणके मिलाये । बिना निमित्तके योग्यता भी अयोग्यता रूप होकर एक तरफ पडी रहती है। जैसे कि दूरानदूर भव्य संसारबन्धन के छेदनेके कारणोंको प्राप्त न होनेसे अभव्यकी तरह संसार में ही भ्रमण करते हुये सदाकाल चक्र लगाते रहेगे। इस-- लियेो केवल अकेला उपादानकी योग्यता विना निमित्त के कार्योत्पन्न करनेमें समर्थ नहीं है। "भवंति दोषा न गणेऽन्यदीये संतिष्ठमानस्य ममत्ववीज गणाधिनाथस्य ममत्वहाने-विनानिमित्तेन कुतो निवृत्तिः ___ उपरोक्त कथनसे निमित्तकारणकी सार्थकता और विना निमितके उपादानकी योग्यताको अयोग्यता अच्छी तरह सिद्ध हो चुकी अर्थात् निमित्तकारण अकिंचित्कर नहीं है किन्तु उपादानकी योग्यताकी उपलब्धि में अनिवार्य कारण स्वरूप है । निमित्तके विना केवल उपादानकी योग्यतासे ही कार्य होता हो तो पंडितजी या कानजीस्वामो करके दिखावे या उपादानके द्वारा विना निमितके कोई कभी कार्य हुआ हो तो उदाहरण देकर बतलायें अन्यथा आगम विरुद्ध प्रचार करनेका परित्याग करें। __मिट्टीमें घट आदि बननेकी योग्यता है किन्तु निमित्त विना ( कुम्हार चाक चीवर दण्डादिके विना ) घट बनता हो तो घट वनाकर दिखलावें। For Private And Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की अथवा टेकी रोटी बाटी विना बनानेवालेके, तथा विना अग्नि पानी आदि साधनोंके अपने आप बनती हो तो मन कर दिखलानें । या रेलगाडी मोटर गाडी आदि को ड्राइवर के विना अथवा पेट्रोल पटरी अग्नि पानीके विना केवल उनकी योग्यता से चलती हो तो चलाकर दिखलावें । अन्यथा निमित्त कारण की सार्थकता स्वीकार करें । निमित्त कारण उदासीन रूप भी होते है जैसे कालद्रव्य आदि रेलकी पटरी आदि ये उदासीन कारण हैं। ड्राइवर माष्टर रसोइया कुम्भकारादि प्रेरक निमित्त कारण हैं दान कारण पेट्रोल अग्नि पानी हवा आदि ये बलदान चारण । सहायक कारण सहायता करने वाला मदद पहुंचानेवाला उपकार करनेवाला सहायक कारण कहलाते हैं। ये सब निमित्त कारण आगम निर्णीत हैं उपादान के द्वारा होनेवाले कार्य में ये निमित्त कारण सहायता करते हैं प्रेरण करते हैं बल बढाते हैं । और साथी भी वन जाते हैं । इन निमित्त कारणोंक विना उपा दान पंगु हैं उनकी योग्यता कुछ भी काम नहीं देती । यांद उपादान की योग्यता से ही कार्य होजाता है ऐसा मान लिया जाय तो दूरानदूर भव्य, मोक्ष क्यों नहीं जाते क्या उनमें भव्यत्व गुण नहीं है ? क्या सम्यग्दर्शनादि प्राप्त करने की योग्यता उन में नहीं है ? सब कुछ है । पर उनको उनकी योग्यता के अनुरूप परिणमन करनेका निमित्तकारण नहीं मिलता इसलिये उनको योग्यता का कुछ भी कार्य नहीं होता । आपका जो यह कहना है कि- " अधिकतर स्थलों में जीवको उध्वगमन स्वभावाला कहा है । लोकान्त गमन स्वभाववाला नहीं कहा है। इसलिये यह प्रश्न होता है कि जब जीव ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला है तो वह लोकक ही क्यों स्थित हो जाते हैं । अपने ऊर्ध्वगमन स्वभावक कारण वह लोकान्तको उल्लङ्घन कर आगे क्यों नहीं चला जाता. For Private And Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममीक्षा ३२३ ...... murn. marrrrrrrrr.rr..~ यह ए : प्रश्न है। जिसका उत्तर नियसमार गाथा १-३ में उपादान की मुख्यतासे दिया गया है वहां बतलाया गया है कि कर्मों से मुक्त हुआ आत्मा लोक.न्त तक ही जाता है । यद्यपि भूल गाथा में कारण निर्देश नहीं किया है। पर समर्थ उपादान को दृष्टि से विचार करने पर यही प्रतीत होता है कि उसकी योग्यता ही उतनी है इस लये वे लोकान्तक तक ही गमन करते हैं । उससे आगे नहीं जाते । जिस प्रकार सर्वार्थसिद्धि के देवामें सातवें नरक तक जानेकी शक्ति मानी गई है परन्तु उनके समर्थ उपादान की व्यक्ति अपने नियमित क्षेत्र तक ही होती है इसी प्रकार प्रत्येक जीवका ऊर्ध्वगमन स्वभाववाला माना गया है परन्तु जिमकाल में जिस जावका जितने क्षेत्रतक गमन करने की योग्यता होती है उस कालमें उस जीवका वहीं तक गमन होता है । उस क्षेत्र को उल्लङ्घन कर उसका गमन नहीं होता। यह वस्तुस्थिति है इसके रहते हुए भी इस प्रश्नका निमित्त की मुख्यता से व्यवद्वार न्यसे तत्वार्थ सूत्र में यह समाधान किया है कि लोकके आगे धर्मास्तिकाय द्रव्य नहीं है इमलिये मुक्त जीव का उससे ऊपर गमन नहीं होता पंडितजीने योग्यता की पुष्टि करने में कितना निराधार मनकल्पित कथन किया है इसका पाठक गण स्वयं विचार करें। नियमसार की गाथा १८३ में कारणका निर्देश नहीं किया जिससे आप अपनी कल्पना से यह अर्थ निकालते हैं कि मुक्त जीवकी योग्यता ही इतनी ही है कि वे लाकान्त के आगे गमन नहीं कर सकते । यदि मुक्त जीव में लोकान्त तक ही गमन करनेकी योग्यता है इमसे अधिक नहीं तो फिर आचार्योंने जीवको लोकान्त तक गमन स्वभाव वाला क्यों नहीं कहा ? ऊर्ध्वस्वभाव वाला क्यों कहा ? याग्यता के अनुसार हा कथन करना था जिससे यह सूत्र For Private And Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२४ - जैन तत्त्व मीमांसा की ही बनानेकी नौवत न श्राती कि "धर्मास्तिकायाभावात् " इस सूत्र की रचना तो इसीलिये करनी पड़ी है कि मुक्त जीवों में ऊर्ध्वगमन करने की शक्ति तो विद्यमान है किन्तु उस शक्तिका कार्य लोकान्तके भागे धर्मास्तिकायका अभाव है इस कारण नहीं होता । इसीलिये सब ही आचार्योंने इस तथ्यको स्वीकार किया है कि लोकान्तके आगे धर्मास्तिकायका अभाव है इस कारण मुक्त जीव उसके सहारे विना आगे गमन नहीं कर सकता । यदि कुन्दकुन्द स्वामीको श्रापको मान्यता स्वीकार होतो तो उन्है भी नियमसार में निम्न प्रकारकी गाथा बनाने की जरूरत नहीं पडती । "जीवाण पुग्गलाणं च गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थी। धम्मस्थिका अभावे तत्तो परदो ण गच्छती" १८४ अर्थात् जहां तक धर्मास्तिकाय है तहां तक जीव और पुद्गल का गमन है । धर्मास्तिकायक अभाव में वे आगे गमन नहीं करते। इस कथन से यह अच्छी तरह सिद्ध होजाता है कि गाथा १८३ में हेतु नहीं बतलाया था इस कारण इस गाथा में लोकान्त के आगे गमन नहीं करने के हेतू का निर्देश किया है । पूज्यपाद अकलंकदेव विद्यानन्दि ममन्तभद्र आदि सत्र ही श्राचार्योंने इसी तत्वको स्वीकार किया है । आपकी मान्यताका किसी भी आचाोंने समर्थन नहीं किया आप अपनी कल्पनासे गलत अर्थ खींचकर भव्यजनों में भ्रम पैदा करते हैं। उपादानकी योग्यताका कार्य निमित्तानुसार होता है निमित्त न हो तो उसका कार्य भी नहीं जैसा कि धर्मास्तिकायके अभाव में मुक्त जीव या पुद्गल परमाणु कोई भी लोकान्तके आगे गमन करने में समर्थ नहीं होते इसका कारण यही है कि जीव और पुद्गल धर्मास्तिकाय के सहारे ही For Private And Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा गमन कर सकते हैं उनमें इतनी ही योग्यता है अधिक नहीं । इमलिये धर्मास्तिकायके अभाव में जीव और पुद्गल लोकान्तके आगे गमन नहीं य र सकते । इसी कारण लोकालोककी मर्यादा अनादिकाल से बनी हुई है। ___ सर्वार्थ मिद्धिक देवा में सातवें नरक तक जानेकी शक्ति विद्यमान भी आप मानते हैं और उनमें वहां तक जाने की योग्यताका अभाव भी मानते हैं यह कैसा ? क्या योग्यता और शक्ति में अंतर है ? कुछ भी नहीं केवल नामान्तर है शक्ति कहो या स्वाभाविक हो या योग्यता कहो सव एकार्थवाची शब्द हैं । इसलिये सर्वार्थसिद्धि के देवोमं सातवे नरक तक जानेको योग्यता तो है किन्तु उनको वैसा निमित्त ही नहीं मिलता जो वे स्वक्षेत्रको छोडकर अन्य क्षेत्रमें गमन करें जैसा कि सिद्ध भगवान अनन्त शक्तिके धारक होकर भी वे एक स्थानसे टससे मस नहीं होते इसका कारण यहा है कि निमित्त कारणके अभाव में उनका हलन चलन नहीं होता । इसी तरह सर्वार्थसिद्धि के देवोंको सातवें नरक तक जानेका निमित्त नहीं मिलता इसीलिये वे स्वक्षेत्रको छोडकर अन्य चोत्र में नहीं जाते । इससे यह सिद्ध नहीं होता कि उनमें स्वक्षेत्र छोडकर अन्य क्षेत्रमें जानेकी योग्यता ही नहीं है। अतः योग्यताकी उपयोग्यता विना निमित्त के सिद्ध नहीं होती ऐसा स्वीकार करना होगा। ___ कर्तृत्व कर्म और षट् कारक मीमांसा में भी आपने एकान्त पक्षका ग्रहण किया है अर्थात् व्यवहार दृष्टिको छोडकर केवल निश्चय का ग्रहण कथन किया है । किन्तु आचार्योंने व्यवहार दृष्टिको साथमें रखकर ही निश्चयनयका कथन किया है क्यों कि व्यवहार दृष्टिको छोडकर केवल निश्चय दृष्टिसे कथन करनेसे वस्तु स्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती दोनो पक्ष दिखानेसे For Private And Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जैन ३२६ यथार्थबोध हो जाता है इस कारण आचार्यनि व्यवहार दृष्टिका साथ में रखकर वस्तु स्वरूपका प्रतिपादन किया है किन्तु पं० फूलचन्द जी ने व्यवहार दृष्टि को सर्वथा छोडकर कंबल निश्चय अपेक्षा से विवेचन किया है इस कारण उनका वह कथन एकान्त यादसे दूषित है। अनादि काल से जीवका पुद्गल के साथ एक क्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध हो रहा है इस कारण दोनों की संमिलित अवस्थाका ज्ञानीक नहीं होता अतः उनको उसका भेद विज्ञान करानेके लिये आचार्यों ने दोनों पक्ष समान रखकर वस्तु स्वरूपका 'मार्थबोध कराया है । आचार्य कहते हैं कि आत्माको कर्ता अकर्ता दोऊ रूप कहा है जो इस नय विभागको जानता है सो ही ज्ञानी है । "कत्ता आदा भवदो ग ग कत्ता केश सोउवाए । धम्मादी परिणामे जो जादि सो हवदि गाणी ॥७॥ टीका - कर्त्तात्मा भणितः सो न च कर्ता भवति स आत्मा केनाप्युपायेन नय विभागेन । केन नय विभागेनेति चेत निश्चयनयेन अकर्त्ता व्यवहारेण कर्तेतिकान् पुण्यपापादि कर्म जनितोपाधि परिणामान जो जादि सो हवदिगाणी ख्याति पूजा लाभादि समस्त रागादि विकल्पोपाधि रहित समाधौ स्थित्वा यो जानाति स ज्ञानी भवति इति निश्चय नय व्यवहाराभ्याम् कर्तृत्व कथन रूपेण तत्र मीमासां की Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गाथांगाता ।। अर्थात् आत्माको कर्त्ता और अकर्त्ता दोनों कहा है जो इस नय विभागको जानता है सो ही ज्ञानी है। भावार्थ - आत्मा पुण्य For Private And Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा पापादि का व्यवहार नयसे कती है करने वाला है और निश्चय नयसे अकर्ता है नहीं करने वाला है जो इस प्रकार जानकर ख्याति पूजा लाभादि रहित होय आत्माका अनुभव करता है वह ज्ञानी है पुद्गल कर्मके निमित्त से आत्मा जिस प्रकार भाव करता है उसी प्रकार कर्मोके निमित्त उसके फलको भोगता है। . "पुग्गल कम्म निमित्तं जह आदा कुणदि अप्पणो भाव । पुग्गल कम्म निमित्त तह वेददि अपणो भावं" १६ -समयप्राभूत टीका--उदयागतं द्रव्य कम निमित्रं कृत्वा यथात्मा निर्विकार स्व संवित्ति परिणाम शून्यः सत्करोत्यात्म नः संबंधिनं सुख दुः खादिभाव परिणामं । तथैवोदयागत द्रव्यकर्म निमितं लब्ध्वा स्वशुद्धात्मभावनोत्थ वास्तवसुखास्वादमवेदयन्सन् तमेव कर्मोदयजनित स्वकीय रागादि भावं वेदयत्यनुभवति । न च द्रव्यकर्म रूप परभावमित्यभिप्रायः ... इस कथनसे निमित्तिकी सार्थकता भी भली भांति सिद्ध हो . बाती है । मिथ्यादर्शन अज्ञान अविरति इत्यादिक जो भाव हैं ते प्रत्येक न्यारे न्यारे मयूर मुकुरंद ( दर्पण ) की ज्यों जीव जीव करि भाये हुये है । तातें जीन भी है अजीव भी है। "मिच्छत्तं पुण दुविहं जीवमजीवं तहेव अण्णाणं । अविरदि जोगो मोहो कोधादिया इमे भावा" । १६ समयप्राभृत For Private And Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३२८ जैन तत्त्व मोमांसा की टीका -- मिध्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो हिभावाः ते तु प्रत्येकं मयूर मुकुरंदवज्जीवाजीवाभ्यां भाष्यमानत्वाज्जीवाजीवौ । तथाहि यथा नील कृष्ण हरित पीतादयो भावास्वद्रव्य स्वभावत्वेन मयूरेण भाव्यमाना: मयूर एव यथा च नील हरित पीतादयो, भावा: स्वच्छता विकार मात्रेण मुकुरुन्देख भाव्यमाना मुकुरंद एव तथा मिध्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयोभावाः स्वद्रव्य स्वभावत्वेन जीवेन भाव्यमाना अजीव एव तथैव च मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरातिरित्यादयो भावाश्चैतन्य विकार मात्रेण जीवेन भाव्यमाना जोव एव काविह जीवाजीवाविति चेत्" । अर्थात् - जैसे मयूर के नील कृष्ण हरित पीत आदि वरण रूप भाव हैं ते मयूर निज स्वभाव करि भाये हुये मयूर ही है। बहुरि जैसे दर्पण विषे तिनि वर्णनिका प्रतिविम्ब दाखे हैं ते दर्पण की स्वच्छता निर्मलता का विकार मात्र करि भाये हुये ते दर्पण ही है । मयूर की अह आरसा की अत्यंत भिन्नता है । तैसे ही मिथ्या दर्शन अज्ञान अविरति इत्यादिक भाव हैं अपने . अजीव के द्रव्य स्वभाव करि अजीब पणे करि भाये हुये हैं ते अजीव ही है बहुरि ते मिथ्यादर्शन अज्ञान अविरति श्रादि भाव चैतन्य के विकार मात्र करि जीव करि भाये हुए जीव ही हैं । भावार्थ -- कर्म के निमन्त तें जीवविभाव रूप परिणा में हैं ते तो चैतन्य के विकार है ते जीव हैं । बहुरि जे पुद्गल मिथ्यात्वादि कर्म रूप परिणमे हैं ते पुद्गल के परमाणु हैं। तथा तिनका Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाक्षा ३ विपाक उदय रूप होय स्वाद रूप होय है ते मिथ्यात्वादि अजीव हैं । ऐसे मिथ्यात्वादि भाव जीवाजीव भेद करि दोय दोय प्रकार हैं । सो याका भेद ज्ञान हुये विना जीव भावकू जीव भेद अर अजीव भावकू' अजीव जाने नाही ताते यह जीव अजीव भाव का कर्ता होय है। इस का कारण क्या है ? "उवओगस्स अणाई परिणामा तिरिण मोह जुत्तस्स। मिच्छत्तं अण्णाणं अविरदि भावो य णादबो' ।। २१ समयप्राभूत टीका-उपयोगस्य हि स्वरस तएव समस्तवस्तु स्वभावभूतस्वरूपपरिणामसमर्थत्वे सत्यनादिवस्त्वंतरभूतमोहयुक्तत्वान्मिध्यादर्शनमज्ञानाविरतिरितित्रिविधः परिणामविकारः स तु तस्य स्फटिकस्वच्छताया इव परितोषि प्रभवन् दृष्टः । यथाहि स्फटिक स्वच्छतायाः स्वरूपपरिणामसमर्थचे सति कदाचिन्नीलहरितपीत तमाल कदली कांचन पात्रोपाश्रय युक्तत्वान्नीलो हरितः पीत इति त्रिविधः परिणाम विकारोदृष्टव्यः अथात्मनस्त्रिविधपरिणाम विकारस्य कर्तृत्वं दर्शयति" ___अर्थात्-आत्मा के उपयोग में मिथ्यादर्शन श्राज्ञान अविरति ये तीन प्रकार के परिणाम विकार अनादि कर्म के निमित्तते है। ऐसा नाहीं जो पहले शुद्ध ही था यह नवीन भया है ऐसा होय तो सिद्धनिके भी नवीन भया चाहिये सो यह है नाही ऐसे जानना । आगे आत्मा के इस तीन प्रकार के परिणाम विकार का कर्तापमा दिखावै हैं। For Private And Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - - - ३३० जैन तत्त्व मीमांसा को " एदेसु य उवयोगी तिविही शुद्धो णिरंजणो भावो जं सो करेदि भावं उपयोगो, तस्स सो कत्ता" २२ टीका-- अथैवमयमनादि वस्त्वंतरभूत मोह रक्त वादात्मन्युत्प्लवमानेषु मिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिभावेषु परिणाम विकारेषु त्रिष्येतेषु निमित्त भूतेषु परमार्थतः शुद्ध निरंजनानादिनिधन वस्तु गर्व म्बभूत चिन्मात्र भावत्वेनेसविधोप्यशुद्ध सांज नानकमावत्वमापद्यमानस्त्रिविधो भूत्वा स्वयमज्ञानीभृतः कतत्वप्नुपढोकमानो विकारसा परिणम्य यं यं भावनात्मनः करोति तस्य किलोपयोगः कर्तास्यात् गथात्मनस्त्रिविध परिणाम विकार कत - स्वे सति पुद्गलद्रव्यं स्वतएव कर्मत्वेन परिणमतीत्याह ।। भावार्थ--पूर्वे कहा है जो परिणमे सो कर्ता है सो यहां अज्ञान रूप होय उपयोग परिणम्या जिस रूप परिणम्या तिसका कतो कह्या शुद्ध द्रव्याथिक नय करि आत्मा कर्ता है नाही इहां उपयोगकू कर्ता जानना । बहुरि उपयोग अर आत्मा एक ही वस्तु है ताते श्रात्मा ही कूकर्ता कहिये। आगे आत्म:के तीन प्रकार परिणाम विकार का कर्तापण होते संते पुद्गल द्रव्य है सो आप ही कर्मपणा रूप होय परिणमें है ऐसे कहै हैं। गाथा--जं कुणादि भावमादा कत्ता सो होदि तरस भावस्स कम्मत्तं परिगमदे तहि सयं पुग्गलं दव्यं ।। २३ ॥ ___टीका:-----आत्माह्यात्मना तथा परिण मनेन यं भावं किल करोति तस्यायं कर्तास्यात्साधक दत् तस्मिन्निमिते. For Private And Personal Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममोक्षा ३३१ सति पुद्गलद्रव्यं कर्मत्वन स्वमेव परिणमते तथाहि यथासाधकः किल तथा विध ध्यानभावनात्मना परिणाममानोध्यानस्य कर्तास्यात् । तस्मिस्तु ध्यानभाव सकल साध्य भावानुकूलतया निमित्तमात्रीभृते सति साधक कर्तारमतरेणापि स्वयमेव बाध्यते विषव्याधयो विडंव्यते योपितोवस्यंत बंधास्तथायमज्ञानादात्मा मिथ्यादर्शनादि भावनात्मने परिणममाने मिथ्यादर्शनादि भावस्य कर्ता स्यात् तस्मिस्तु मिथ्यादर्शनादि भावै स्वानुकूलतया निमित मात्रीभृते सत्यात्मनं कर्तार मंतरेणापि पुद्गलद्रव्यं मोहनीयादिकर्म वेन स्वमेव परिणमते अज्ञानादेव कम प्रभवतीति तात्पर्यमाह ।। ___ अर्थ-आत्मा है सो जिस भाव को करे है ताका कर्ता श्राप होय है वहरि तिस कू' कर्ता होते पुद्गल द्रव्य है मो आपे श्राप कर्म रूप परिगामें हैं । जैसे साधक जो मंत्र साधन वाला पुरुष सो जिस प्रकार का ध्यान रूप भाव करि आप ही करि परिणमता संता तिस ध्यान का कर्ता होय है। वहुरि तिस साधक के जो समस्त साधन योग्य वस्तु तिसका अनुकूल, पणा करि तिस ध्यानकू निमित्त होते मंते तिस साधक के विना ही अन्य सादिक की विषकी व्याधि ते स्वमेव मिट जाय हैं। तथा स्त्री जन हैं ते विडंबना रूप होय जाय हैं बहुरि न्धन हैं : खुलि जाय हैं इत्यादिक कार्य मंत्रके ध्यानकी सामर्थते होय जाय है । तेसे ही यह आत्मा अज्ञानते मिथ्यादर्शनादि भावकरि परिणमता संता मिथ्यादर्शनादि भावका कर्ता For Private And Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३२ जेन तत्त्व मीमांसा की होय तव तिस मिथ्यादर्शनादि भावकू अपने करनेके अनुकूल पण करि निमित्त मात्र होते संते आत्मा जो कर्ता निस बिना ही पुद्गलद्रव्य अप ही मोहनीयादि कर्म भाव करि परिणमे हैं। ऐसा अनादिकालका आत्मा के साथ पुद्गल द्रव्यका ौर पुगलद्रव्यका श्रात्मा के साथ परस्पर निमित्त नैमित्तिक भाव है । कर्ता दोऊ अपने अपने भावों के हैं यह निश्चय है । इस कथन से निमित्ती भी प्रधानता सिद्ध होजाती है। क्योंकि विना आत्मा के रागद्वेष परिणाम के पुद्गलद्रव्य भी कर्म - रूप नहीं परिणमन करता तथा कर्मके उदयके निमित्त विना आत्मा के भो रागद्वेष परिणाम नहीं होते हैं यह अटल नियम है। अतएव दोनोंका विभावरूप परिणमन परस्पर निमित्त नैमि तिक सम्बन्ध होने से ही होता है इसका निषेध करना जैनामसे सर्वथा विरुद्ध है । यह भी निश्चित है कि आत्मा अपने अज्ञान भावसे ही कर्मका कर्ता होय है मो ही आचार्य कहै हैं । " परमप्पाणं कुव्वदि अप्पा पियवरं करतो सो अण्णागमओ जीवो कम्माणं कारगो होदि " ॥ २४ ॥ टीका -- अयं किलाज्ञानेनात्मा परमात्मनोः परस्पर विशेषानिर्ज्ञाने सति परमात्मानं कुर्वन्नात्मानं च परं कुर्वस्वयमज्ञानमयीभूतः कर्मणां कर्ता प्रतिभाति तथाहि तथाविधानुभव संपादनसमर्थायाः रागोपसुखदुःखादिरूपाया: पुद्गलपरिणामावस्थायाः शीतोष्णानुभव संपादन समर्थायाः शीतोष्णायाः पुद्गल परिणामावस्थाया इव For Private And Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समीक्षा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३३ पुद्गलादभिन्नत्वेनात्मनो नित्यमेवात्यंतभिन्नायास्तन्निपित्त' तथाविधानुभवस्य चात्मनो भिन्नत्वेन पुद्गलान्नित्यमेवात्यंतभिन्नस्याज्ञानात्परस्परविशेषानिर्ज्ञाने सत्येकत्वाध्यासात् शीतोष्णरूपेणैवात्माना परिणमित्तमशक्येन रागद्वेषसुखदुःखादिरूपेणाज्ञानात्माना परिणममानो ज्ञानस्याज्ञानत्वं प्रगटीकुर्वन्स्वयमज्ञानमयीभूत एपोहं रज्ये इत्यादिविधिना रागादेः कर्मणः कर्ता प्रतिभाति । ज्ञानात न कर्म प्रभवतीत्याह । For Private And Personal Use Only · अर्थ-जीव है सो आप अज्ञानमयी भया संता परकू' आप करे हैं बहुरि आपकू' पर करे हैं। ऐसे कर्मनिका कर्ता होय है । भावार्थ - रागद्वेष सुखदुःख आदि अवस्था पुद्गल कर्मके उदयका स्वाद है मो यह पुल कर्मते भिन्न है आत्मातें अत्यंत भिन्न है जैसे शांतपणा है तेसे सो आत्मा के अज्ञानते याका भेदज्ञान नाही यातें ऐसा जाने है जो यह स्वाद मेरा ही है । जातें ज्ञान की स्वच्छता ऐसी ही है जो रागद्वेषादिक का स्वाद शीत उष्ण की ज्यां ज्ञानमें प्रतिबिम्बित होय तव ऐसा प्रतिभासे जानू' कि एज्ञान ही है तातें ऐसे अज्ञान या अज्ञानी जीवके इनका कर्तापणा भी आया जातें याके ऐसी मान्य भई जो मैं रागी हूं द्वेषी हूं क्रोधी हूं मान हूं इत्यादि ऐसे कर्ता होय है । For से अज्ञानभाव से परका कर्ता भी कहिये यदि अज्ञाभाव से परका कर्ता (रागद्व ेषादि विभाव भावों का ) न मानिये तो फिर संसार ही काहेका ? इसलिये अज्ञानभावसे कथंचित कर्ता भी कहिये । जब तक भेद विज्ञान न होय तव तक रागद्वेषादि विकार भावोंका कर्ता जीव होता है । क्योंकि रागद्वेष परिणाम Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३४ जैन तत्त्व मीमांसा की wwamremarrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr.... ..... .. ... जीवका ही है । परन्तु यह रागद्वेष परिणाम जीवके करके निमितसे होय है इस वातका ज्ञान अज्ञानी जीवको न होनेसे वे गगहषका कर्ता हो जाता है। यह बात सर्वथा असत्य भी नहीं है । क्योंकि ज्ञानकी स्वच्छतामें कर्म के उदय जनित कर्मके गिद्ध परिणाम ज्ञानमें प्रतिबिम्बित होता है अतः ज्ञानका स्वभाव झेगाकार परिणमन करनेका होनेसे ज्ञान ज्ञ य रूप परिणमन होता है जिसको देखकर भेदविज्ञान रहित अज्ञानी जीव निमित्त नैमित्तिक दोनू' अवस्थाको एक मान लेता है बस यहीं अज्ञानी जीवके रागद्वषादिक परिणाम का कर्तापना है । इसी बातको स्पष्ट करते हुये समयसार नाटकमें कहा है। ___ "शुद्धभाव चेतन अशुद्धभाव चेतन दुईको कस्तार जीव और नाहि मानिये । कर्मपिण्डको विलास वर्मा रस गंध फास कर्तार दुहुँको पुद्गल पखानिये जाते वरणादि गुण ज्ञानावरणादि कर्म नाना परकार पुद्गलरूप जानिये समल विमल परिणाम जे जे चेतनके ते ते सब अलख पुरुष यो वखानिये" __अर्थात् अलखपुरुष कहिये अरहंत भगवान कहते हैं कि शुद्धभावोंक। और अशुद्धभावोंका दोनू प्रकारके भावोंका कर्ता जावात्मा हो है दूसरा कोई नहीं है इसलिये समस्त परिणामोंका भी आत्मा कर्ता है ऐसा मानना कोई श्रागमविरुद्ध नहीं है क्योंकि ज्ञानी जीव राग द्वेष का कर्ता है ही ! इस वातका खुलासा ऊपरम किया जाचुका है। संकल्प विकल्पके सिवाय जीवात्मा पुद्गलादि पर पदार्थोका कर्ता नहीं है। गजेंद्र मृगेंद्र गहयो तू छुड़ावै । महा आगते नागते तू बचावै ॥ महावीरतें युद्धमें तू जितावे । महारोगतै बंधतें तू For Private And Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा बुलावै ।। दुखी-दुःखहर्ता सुखी-सुक्खकर्ता । सदासेवकोको महानंदभर्ना ॥ हरे यक्ष राक्षस भृतं पिशाचं । विषं डाकनी विघ्नके भय अबाचं ।। दरिद्रीनको द्रव्यके दान दीने । अपुत्रीनको तू भले पुत्र कीने । महासंकटोंसे निकारै विधाता । सवै सम्पदा सर्वको देहि दाता ॥ महाचोरको वज्रको भय निवारे । महाशैन के पुजत तू उबारै ।। महाक्रोधकी अग्निको मेघधारा । महालोभ शैलेशको वज्र भारा ।। महामोह अन्धेरको ज्ञानभानं । महाकर्म कांतारको दौ प्रधानं ।। किये नाग नागिन अधोलोक स्वामी । हरौ मान तू दैत्यको हो अकामी ।। तुही कल्पवृक्ष तुही काम नं । तुही दिव्यचिंतामणी नाग एनं ।। पशू नर्कके दुःख से तू छुड़ावै । महास्वर्ग में मुक्तिमें तू बसावै ।। करै लोहको हेमपाषाण नामी । रट नाम सो क्यों न हो मोक्षगामी || कर सेव ताकी कर देव सेवा । सुने वैन सी ही लह ज्ञान-मेवा ।। जपै जाप ताको नहीं पाप लग । धरै ध्यान ताके सबै दोप भाजै बिना तोहि जाने धरे भव घनरे तुम्हारी पाने सरें काज मेरे।। इत्यादि शब्दोंमें भगवानको कर्ता कहा गया है ऐसा बोध होता है परन्तु वास्तवमें विचारकर देखाजाय तो काई भी स्तोत्रकारन भगवानको कर्ता घोषित नहीं किया है। किन्तु कारणमें कार्यका उपचार करके कहागया है । अर्थात भगवानके गुणानुवाद करने मे परिणामोंकी निर्मलता होजाती है । परिणामोंकी निर्मलतासे For Private And Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३६ जैन तत्त्व मीमांस, की कर्मोकी निर्जरा होकर अशुभकर्मका फल नष्ट होजाता है । इस हेतुको लेकर ऐसा कहदिया जाता है कि हे भगवान तेरे ही प्रसाद से ऐसा हुआ है, ऐसा कह देनेसे कोई भी स्तोत्र स्तुतीको भगवान को कर्ता नहीं मानता। यदि ऐसा न माना जायगा तो अनेक आचार्योंने कर्तावादका खंडन भी किया है और उपरोक्त शब्दों में कर्ता भी ठहराया है तो क्या यह परस्पर विरोधी वात हैं ? कदापि नहीं देखो कुन्दकुन्द स्वामीने समयसारादि ग्रंथोंम परके कर्तापनेका पूरीतौरसे निषेध भी किया है और वोधपाहुडमें देवके स्वरूपका निरूपण करते हुये बतलाया है कि मनवांच्छित फलको देवे सो देव । "सो देवो जो अत्थं धर्म काम सुदेइ णाणंच । देवो ववगयमोहो उदयकरोभव्यजीवाणं" २५ ॥ ___टीका–स देवो यो ऽर्थ धनं निधिरत्नादिकं ददाति । धर्म चारित्रलक्षणंवस्तुस्वरूपमात्मोपलब्धिलक्षणमुत्तमक्षमादि दशभेदं सु ददाति । सुष्टु अतिशयेन ददाति । काम अर्धमण्डलिक महामण्डलिक वलदेव वासुदेव चक्रवर्तीन्द्रधरणेन्द्रभोगं तीर्थंकरभोगं च यो ददाति स देवः । सुष्टु ददाति ज्ञानं च केवलंज्योतिः ददाति । स ददाति यस्य पुरुषस्य यद्वस्तु वर्तते असत्कथं दातु समर्थः यस्यार्थो वर्त ते सोऽर्थ ददाति ! यस्य धर्मोवर्तते सधर्मददाति । यस्य. प्रव्रज्या दीक्षा वर्तते स केवलज्ञानहेतूभूतां प्रवज्यां ददाति । यस्य सर्व सुखं वर्तते स सर्व सौख्यं ददाति उक्त च गुणभद्रणगणिना For Private And Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३७ समीक्षा "सर्वः प्रक्षति सत्सुखाप्तिमचिरात् सा सर्वकर्मक्षयात् सद्वृत्तात् स च तच्च वाधनियतं सोऽप्यागमात्सश्रुतेः सा चाप्तात् सच सर्वदोषरहितोरागादयस्तेऽप्यतस्तं युतया सविचार्य सर्वसुखदं सन्तः श्रयन्तु श्रिये" सारांश---यह है कि वीतराग भगवान का उपासक अपने आराध्य वीतराग देव का स्तवन स्तोत्रादि करते हुये उनको अपना निकटवर्ती हितैषी मित्र उपकारी मानकर भाव के आवेश में आकर ऐसा कह बैठते हैं कि जो वीतराग भगवान के स्वरूप के अनुरूप नहीं है । इस बातको उपासक जानते हुये भी बीतगग भगवान से सब कुछ मांग बैठते हैं। इसका कारण यही है कि स्तुती स्तोत्रादि करने की प्रणाली ही इस ढंग की है अतः इस पद्धति को समझनेवाले विद्वान तो ईश्वर कर्तृत्व वादी, स्तोत्र स्तुती करने वाले आचार्यादिकों को नहीं मानते । वे जानते हैं कि यह जैनागममें स्तोत्रं स्तुती करने की एक प्रणाली है जो कारण में कार्य का उपचार कर वीतराग भगवान को कर्ता ठहरा दिया जाता है ऐसा न माना जायगा तो समंतभद्राचार्य जैसे तार्किक विद्वान भी स्वयंभू स्तोत्रमें सर्व तीर्थकरों की स्तुती भगवान से अपनी अभीष्ट सिद्ध चाही है । जैसे अजितनाथ भगवान की स्तुती में कहा है कि "जिन श्रियं मे भगवान् विधत्ताम्" अर्थात् हे अजितनाथ भगवान मुझको मुक्ति रूपी लक्ष्मी देहु । । इसी प्रकार सम्भवनाथ स्वामीसे भी प्रार्थना की है कि हे सम्भवनाथस्वामी " ममार्य देयाशिवतातिमुच्चे " अर्थात् मुझको उत्कृष्ट कल्याण परंपरा देखें । इत्यादि सवही तीर्थंकरोंसे प्रार्थनाकी है तो क्या वे समंतभद्र स्वामी इस बात को नहीं जानते थे कि बीत For Private And Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३८ जैन तत्त्व मोमांसा की राग भगवान किसीको कुछ देते लेते नहीं है फिर ऐसी स्तुति क्यों की ? तो कहना पडेगा कि यह एक स्तोत्र स्तुति करनेकी प्रणाली है जो कारणमें कार्य का उपचार कर कारण को कर्ता ठहरा दिया जाता है । इस प्रणालीको कोई न समझनार ऐसा मान बैठे कि भक्तों पर भगवान खुश होकर उनके दुःख दर्द दूर कर देता है । नो यह उनका समझना गलत है । वे जैनागमके श्राम्नायको ही नहीं समझते हैं । देखो स्व० पं० वृन्दावन कृत दुःखहरणस्तुतिमें क्या लिखते है "काहू को भोगमनोग करो काहू को स्वर्ग विमाना है। काहूको नाग नरेशपती काहूको ऋद्धिनिधाना है। अब मोपर क्यों न कृपा करते यह क्या अन्धेर जमाना है इनसाफ करो मत देर करो सुख वृन्द भयो भगवाना है " एक तरफ तो ऐसा कहते हैं और इस ही तरफ यह कहते हैं कि "यद्यपि तुमारे रागादि नही यह सत्य सर्वथा जाना है। चिन्मूरति आप अनन्तगुनी नित्य शुद्ध दशा शिवथाना है । तद्यपि भक्तनकी भीड हरो सुख देत तिन्है जु सुहाला है । यह शक्ति अचित तुम्हारीका क्या पावे पार सयाना है " इस से यह सिद्ध होता है कि भगवान तो वीतराग हैं । इसकारण वे तो कुछ देते लेते नहीं है किन्तु वीतराग भगवानके भक्त वीतराग भगवान की स्तुती करते हैं अतः उनकी स्तुती में ( उनके गुणानुवाद) यह शक्ति है कि भक्त जनों के दुःख स्वयमेव दूर होजाते हैं । जैसे पारसको स्पर्श करने मात्रसे लोहा कंचन हो जाता है। उसी प्रकार भगवान के गुणानुवाद करने से अशुभ कर्म झड जाते हैं या वे शुभरूप में परिणत हो जाते है। जैसे वादिराज सूरीके एकीभावस्तोत्रके प्रभावसे कुष्टरोग निमूल नष्ट हो गया । मानतुङ्ग आचार्यके भक्तामर स्तोत्र के द्वारा सव बन्धन टूट गये, इत्यादि । यह सव भगवानकी भक्ति For Private And Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा - का ही माहात्म्य है । जिसप्रकार मंत्रके द्वारा सर्पादिक का विष दूर हो जाता है उसी प्रकार भगवानकी स्तुती स्तोत्रादि द्वारा सब विघ्न बाधायें दूर हो जाती हैं, यह भगवानके गुणोद्गान में शक्ति है जिस से यह भान होता है कि मानो भगवानने ही हमारे दुःख दूर किये इसलिये ऐसा कहने में आता है कि हे भगवन " तुमारी कृपा से सरे काज मेरे" किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि हम अन्यमतियों की तरह भगवानको कर्ता मानत है सभी पूर्वाचार्योंने ईश्वर कर्तावाद का खण्डन किया है जैसा कि आदिपुराणमें भगवान जिनसेनाचार्यने किया है । उस के आधार पर " ईश्वर कर्ता हर्ता नाही रक्षक भी नहीं बनता है। सृष्टी रचना है अनादिसे जो नहीं माने जडता है। जिसको समझा कर्ता हर्ता विन पृथ्वी वह रहै कहाँ ? है अमूर्तिक निराधार तो जगत बनाकर रक्खे कहां ? १ ईश अकेला क्या क्या रचता जगता प्रमेय अनन्ता है। अभूतिक से ना जग बनता है विश्व मूर्तिकवंता है । यदि वनता तो कैसे बनता क्या प्रमाण तुम दे सकता ? मूर्तिक से ही मूर्ति बनती यह सिद्धान्त नही टल सकता २ विना उपकरण ईश्वर जगको कैसे कहो, बनाता है ? जो पहिले उपकरण बनाकर फिर कहो जगत बनाता है । तो लन उपकरणों को कैसे विन उपकरण घडाता है। यदि दूजे उपकरणों से तो उनको कैसे रचाता है । ३ इस प्रकार जो होत अवस्था अन अवस्था है उसका नाम । जो अनादि का है वह कारण तो अनादि का क्यों नही धाम । स्वयं सिद्ध भी मानो ईश्वर है अनादि से भी कहते हो । तो क्या वाधा जग अनादि में किसलिये सादि कहते हो ।४ For Private And Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४० जैन तत्व मीमासा की विना उपकरण जगतकी रचना ब्रह्म इच्छा से होती है। क्या इच्छासे जग बनता है ? झूठ कल्पना खोटी है । जगदीश्वर है कृत्य कृत्य तो करचुके हैं सारे काम । यदि नहीं है तो हैं अपूरण उनसे भी नही होता धाम । ५ जग व्यापक अरु अचल ईश तो हलन चलन ना कर सकता हलन चलन विन सृष्टि न होतो व्यापक अचलता सब खोता निविकार है यदि ईश्वर तो विकारता क्यों मन भाती । जग रचनाकी इच्छा होती विकारता तब आ जाती । ६ क्या ईशका यह स्वभाव जो विन रचना ना चैन परे । ऐसा है तो है संसारी जग चिन्ता कर दुख भरे। . अथवा ईश्वर क्रीडा अर्थी रचना कर सुख माना है। खेल कूद तो बालक करते ज्ञान हीन जग जाना है। " कर्मोदय अनुमार जीव का ईश्वर शरीर बनाता हैं। नर नरकादिक चारों गतिमें गति आकार रचाता है। संभव ऐसा होता नाही वृथा युक्ति मत हिये धरो। जैसे तांती कपडा बुनता क्या ब्रह्मा यह नाम खरो ? | पुण्य पाप कर जीव जगत में नाना गतिमें भ्रमता है। पुण्य पापकालेखा करके ईश्वर फल को देता है। इस प्रकार की झूठी युक्ति महिमा झूठी गाई है। न्यायाधीश भी न्याय करता क्या हम कहै गुसाई है ? : पराधीनता रहती इसमें ईश्वरता सब जाती है। निराबाध स्वाधीन सुखी है ईश्वरता कहां पाती है। पूर्वोपार्जित कर्मोदय से प्राणी सुख दुःख भोगे हैं। निःकारण अरु वृथा ईशका उसमें कारण झोके हैं । १० गाछ गछीला आदि पदार्थ स्वतः फूल फल फला करे । हाड मांस मज्जगदिक धातु स्वयं अन्नसे वनो करे For Private And Personal Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ३४१ इत्यादिक जो वस्तु अनंती ईस निमित्त विन हुआ करे । वृथा निमित्त माना तुमने मिथ्या श्रेय सुधी न धरे ११ प्रभु जीवों पर वत्सल रखकर अथवा अनुग्रह चित' धरके इस कारण वह सृष्टी रचता ईस अवतार बन करके ॥ यह भी कारण है सव मिथ्या सुख सामग्री है कहुं नाहि दुःख मय वस्तु जगतमें ढ़ेरी अतः विश्वका करता नाहिं । १२ बुद्धिमान जो कर्ता हो सुख मय जगत बना देता। वाघ वघेरा रीछ रोझादिक दुष्टों को ना रच देता। असत्य वस्तु ना पैदा होती सतका कभी न होत विनाश । यह स्वभाव है अटल जगतका इसका कैसे होत विनाश १३ सत्तारूप से जो मौजूदा ईश्वर उसमें रचता क्या ? अथवा असत् की रचना करता खर विशाण बनाता क्या ? जैसे ग्राम नगर की रचना करे चतुर कारीगर है। तैसे सत् प्रमेय रचना में ईश्वर निपुण कारीगर है । १४ असत् कल्पना सुखदायक सुनारवत उसको समझो । सुनार ना सोनेका करता कुण्डलादि कर्ता समझो । तैसे वस्तु पलटने वाला है असंख्य स्वीकार करो। अतः विश्वका कर्ता नाहि सत्य पक्ष का मान करो ५५ मुक्त जीव को ईश्वर करते कृत्य कृत्य भी हो चुके । इस कारण वह वीतराग है विश्व वनानेमें किम दुके ? कर्मोदय क्या वाकी उनके तुम हम जैसा समझो ईश। तुम हम जैसा क्या कर सकता मिथ्यावादी नमावो शीश १६ जो पहले तो जगत वनावे पीछे उसका करे विनाश ऐसी दुष्ट बुद्धि क्यों होती फिर क्या नई लगाई आश या दुष्टोंको मारण हेतू ईश्वर प्रलय कराता है कैसा अच्छा न्याय ठहराकर मूखौंको समझाता है १७ For Private And Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४२ जेन तत्त्वमीमांसा की जो सज्जन विष वृक्ष लगाये अपने आप न डारे काट | तो क्या ऐसा संभव सत्रका ईश्वर करदे सपन पाट । कीच लगा क्या धोना अच्छा अच्छा है ना स्पर्श करे वह कहां की है बुद्धिमानी ? दुष्ट वनाय संहार करें १८ विरधी धर्म न वस्तु मांहि ना स्वभावको तजती है। अग्निम जो रहे उष्ण तो शीतलता नहीं भजती हैं । इस सिद्धान्त अनुसार बस्तुका ना स्वभाव भी हट सकता अतः ईस भी जगत बना कर फिर विनाश क्या कर सकता ? १६ अव ईश्वरकी रक्षा परखो कैसी अच्छी किया करे । निस दिन असंख्य प्राणी मरते उन पर क्यों न दया घरे ? अथवा केवल भक्त बचावे भक्तों को क्यों मरने दे ? नित प्रति भक्त पिटाये जाते दुखमें क्यों वह पडने दे । २० मंदिर मूर्ति टूटे उनकी कैसे समझे रक्षावान । क्या ईश्वर में शक्ती नही । श्रथग तोड कटी वलवान ? क्यों कर रक्षा ना वे करते इसका जरा करो विचार मिथ्यावाद को दूर हटा कर प्रगट करहु सत्य विचार २१ उक्त हेतुसे ईश्वर करता हरता नाहीं रक्षक बान मिथ्याबुद्धिसे कर्ता माने अतः करता वादा झूठ बखान । विश्व अनादिमें जिय भ्रमता कर्मोदयसे जगत जहान सम्यकू सहित तपश्चरण करके करों जीवका (राशि) कल्याण २२ ་ इत्यादि युक्तियोंसे ईश्वर कर्तापनेका खंडन किया है फिर उनको कर्ता मान कर उनकी स्तुति करें यह वात तो वन नहीं सकती भतः स्तुति स्तोत्रोंमें जो श्राचार्योंने ईश्वर कर्तापने के शब्दों का प्रयोग किया है वह कारण में कार्य का उपचार करके किया है । बर्तमान समय में भी यह पद्धति देखने में आती है कि कोई किसी के जरिये लाभ उठाता है तो यही कहने में आता है For Private And Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संमोक्षा कि इनकी मेहरवानी से हमको लाभ मिला है । किन्तु वास्तव में देखा जाय ता लाभ मिला है अपने अंतराय कर्म के क्षयोपशम से और अपनी मेहनत से ( पुरुषार्थ से ) दूसरा तो केवल निमित्त मात्र है उसी निमित्तको मुख्य करके यह कह दिया जाता है कि उनकी मेहरवानी से ऐसा हुवा है उसी प्रकार भगवानकी भक्ति करने से परिणामोंकी विशुद्धि हो जाती है और अशुभ कर्मकी निर्जरा होकर अशुभ कर्मके उदयसे आने वाली वाघायें टल जाती है इस कारण यह कह दिया जाता है कि हे भगवान तुम्हारी कृपासे यह मेरे दुःख दूर हो गये हैं । वास्तव में देखा जाय तो दुःख दूर हुवा अपने ही पुरुषार्थके द्वारा परिणामों की विशुद्धि करने से कि परिणामों की विशुद्धि हुई भगवानके गुणोद्गान करने से इसलिये उनके गुणों का मुख्य लक्ष करके यह कह दिया जाता है कि है भगवान ! यह तुम्हारी हो कृपा है। ऐसा न्याय है जो कृत्यज्ञ पुरुष होता है वह जिस निमित्त से जो कार्य सिद्ध हुआ है उस निमित्त का उपकार नहीं भूलते हैं। बस, यही कारण है कि भगवान के निमित्त से हमारे परिणामों की विशुद्धि होकर हमारा कार्य सिद्ध हो जाता है इसलिये हम भगवानके गुणोंके स्मर्ण का उपकार मान कर उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रगट कर कहते है कि "तुम गुण चिन्तत नशत तथा भय, ज्यों घन वलत समीर" अर्थात् तुम्हारे गुणोमें ही वह शक्ती है जो तुम्हारा गुण चिन्वत करता है उनका सब दुःख दूर होकर वह निर्भय हो जाता है जैसे पवनके जोग से घन ( वादल ) छिन्न भिन्न हो जाते हैं । इसके उदाहरण एक नहीं अनेक हैं। जो व्यक्ति भगधानके चरणों में संलग्न हो कर पूर्णतया आत्मा के साथ अपना दुःख निवेदन करता है तो उनका दुःख अवश्य ही दूर हो जाता है । यह भगवानकी भक्तिकी अचिन्त्य महिमा है अतः वादिराज सूरि कहते हैं कि- For Private And Personal Use Only ३४३ का Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४४ जैन तत्त्व मीमांसा की "आनन्द आंसू बदन धोय तुम सो चित साने । गद गद सुरसों सुयश मंत्र पढि पूजा ठाने । ताके बहु विधि व्याधि व्याल चिरकाल निवासी भाजै थानक छोड देह वांवई के वासी । ३ दिवते आवनहार भये भविभाग उदय वल । पहले ही सुर आय कनक मय कीय मही तल : मन गृह ध्यान दवार आय निवसी जग नामी । जो सुवरन तन करो कौन यह अचरज स्वामी । ४ प्रभु सय जगके विना हेतु वांधव उपकारी | निरावरण सर्वज्ञ । शक्ति जिनराज तिहारी । भक्ति रचित मम चित्त सेज नित वास करोगे । मेरे दुःख सन्ताप देख किम धीर धरोगे । ५ भव वनमें चिर काल भ्रम्यो कछु कहिय न जाई । तुम धुति कथा पियूष वापिका भागन पाई । शशि तुषार धनसार हार शीतल नहिं जा सम । करत न्होंन ता माहि क्यों न भव ताप वुझे मम। ६ ___ इत्यादिक शब्दों में वादिराजसूरिने स्तुती की जिससे कुष्ट रोग दूर हुआ इसी प्रकार मानतुङ्ग श्राचार्य ने आदिनाथ भगवानकी स्तुती की थी जिससे उनके बन्धन सब खुल गये जिसको कथा,सब जानते ही है जिनेन्द्र की भक्ति से क्या २ नहीं होता ? सब कुछ होता है। भक्ति मार्ग मोक्ष मार्ग में प्रधान अंग है । इसलिये प्राचार्य कहते हैं कि"एकापि समर्थेयं जिनभक्ति दुर्गति निवारयितु । पुण्याणि च पूरयितु दातु मुक्तिश्रियं कृतिनः " For Private And Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ३४५ "जिने भक्ति जिने भक्ति जिने भक्तिः सदाऽस्तुमे सम्यक्त्वमेन संसारवारणं मोक्ष कारण" इत्यादि__जय जिनेन्द्रदेवकी भक्तिसे सम्पूर्ण दुःखों का नाश होकर परंपरा अविनाशी मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है तब इस भक्तिमार्ग (व्यवहार धर्म) का लोप करना मोक्ष मार्ग का ही लोप करना है । त: सोनगढ के अनुयाई सज्जन इस भक्ति मार्ग को ईश्वर कर्ता वाद का रूप देकर अन्य मतावलम्बियोंकीतरह दि० जैनमत की मान्यता का सादृश्यपना दिखलाकर भोले जीवोंको इस भक्ति मार्ग से वंचित रखते है यह महान अनर्थकारी प्रचार है । वाह्य प्रवृति और शब्दोंका प्रयोग तो प्रायः करके सव मतावलम्बियों के सादृश्य ही दिखाई पड़ते हैं परन्तु अन्तरंग मान्यता में वडा भारा, अंतर है जिसको भोले जीव समझते नहीं उनको तो जैसा समझा दिया जाता है वैसा समझ लेता है । परन्तु समझाने बाला यदि जान बूझकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये उल्टा समझाकर मोक्ष मार्ग से विमुख कर देता है तो इससे बडकर और अन्याय क्या होगा ? अन्याय करनेमे भी अन्याय प्रवृत्ति करने वाले को पोठ ठोंकना उनकी हां में हां मिलाना उसका साथ देना उसको अच्छा कहना इसके समान कोई दूसरा पाप नहीं है उदाहरण स्वरूप वसुराजा को ही ले लीजीये वह झूठ बोलने से ही नर्क गया सो वात नहीं है किन्तु परवतकी हिंसा प्रवृत्ति का समर्थन किया इसलिये वह सिंहासन सहित जमीनमें धंस गया और मरण करके नर्क धरामें जा पहुंचा । अतः शास्त्रीजी आप सोनगढके आगम विरुद्ध सिद्धांतका समर्थन कर रहै हैं इससे अधिक दूसरा कोई भी पाप नहीं है मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति व्यवहार धर्मका लोप करना यही सबसे तीव्र मिथ्यात्व है इसका फल अवश्य भोगना पडेगा । For Private And Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३४६ जंन तत्त्व मोमांसा की कुन्दकुन्द स्वामी ने केवलज्ञानी आत्मा को ही रागद्वेष का कर्ता कहा है न कि अज्ञानी जीवको भी रागद्वेषका अकर्ता कहा हैं? यदि रागद्वेष का भी आत्मा कर्ता नहीं है तो क्या उसका कर्ता पुल जड़ पदार्थ है ? कदापि नहीं । जड़ पदार्थ भी रागद्वेष करने लग जाय तो उसके चेतना माननी पड़ेगी इस हालत में जड़ चेतन एक हो जावेगा । इसलिये रागद्वेष परिणाम का कर्ता सर्वथा आत्मा नहीं है ऐसा कहना सर्वथा आगम विरुद्ध है । कुन्दकुन्द स्वामी ने रागद्वेष का कर्ता आत्मा ही को घोषित किया है यह कथन हम ऊपर कर आये हैं तो भी यहां पर स्पष्ट करनेके लिये और भी उद्धृत कर देते हैं। देखो समयसार नाटक -- " शुद्ध भाव चेतन अशुद्ध भाव चेतन दुहुंकों करतार जीव और नही मानिये । कर्म पिंडको विलास वर्ग रस गंध फास करता दुहुँ पुद्गल पखानिये । तातें वरणादि गुण ज्ञानावरणादि कर्म नाना परकार पुद्गल रूप जानिये । समल विमल परिणाम जे जे चेतनके ते ते सव अलख पुरूष यों बखानिये" 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थात् अलख पुरुष कहिये भगवान ऐसा कहते हैं कि समल विमल परिणामों का कर्ता आत्मा ही है दूसरा कोई नही है इसका निषेध नहीं किया जा सकता क्योंकि उसका उपादान आत्मा ही है पुल नहीं । पूर्वाचार्योंने निमित्तके बिना कार्योत्पति नहीं होती ऐसा घोषित किया है " विना निमित्ते न कुतो निवृत्तिः " ऐसा हम ऊपर बतला चुके जब निमित्त के विना कार्य सिद्ध नहीं होता विनमित्तको मुख्य करके कारण में कार्य का उपचार करके For Private And Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ३४७ निमित्त को भी हम कार्य का वर्ता कह सकते हैं जैसा पूर्वाचार्यों के अनेक स्थलों पर कहा है। इस वातको आप भी स्वीकार करते है । 46 इस प्रकार हम देखते है कि शास्त्रों में निमित्त कारण का निमित्त आलम्बन साधन हेतु प्रत्यय, कारण प्रेरक उत्पादक कर्ता हेतु कर्ता, और निमित कर्ता इत्यादि विविध रूप से कथन किया गया है " पृष्ठ २१० जैनतत्त्वमीमांसा जव पूर्वाचार्योने शास्त्रों में निमित्त कारणों को भी कर्ता, घोषित किया है तव भगवानकी स्तुती स्तोत्रादिक निमित्त कारणों से हमारे अभीष्टकी सिद्धि होती है तो हम यदि भगवान को हमारे श्रभीष्टकी सिद्धि करने वाले कह दें तो इसमें कौन सामिध्यात्व है और कौन सी आगम विरुद्ध वात है ? क्योंकि हम भगवानको उपचारसे कर्ता मानते हैं न कि अन्य मतावलम्बियों की तरह साक्षात् कर्ता मानते हैं जो मिथ्यात्वका प्रसंग 1 श्रावे | अतः भक्ति मार्गको मिध्यात्व बताकर मिथ्यात्व की पुष्टि करना है यह आगम विरुद्ध बात है और मिथ्यात्व वर्धक है कारक अपेक्षा भी घटका कर्ता कुम्भकार को कहा जाता है यह भी लोकव्यवहार प्रसिद्ध है यह भी एक नय अपेक्षा कथंचित सत्य है। लोक व्यवहार भी सत्य के आधार पर ही चलता है । अन्यथा लोक व्यवहार की भी शृखंला छिन्न भिन्न हुये विना नहीं रहती । स्व उपादान की अपेक्षा देखा जाय तो घटका कर्ता मृत्तिका है मृतिका से ही घटोत्पत्ति होती है। मृत्तिका का ही यह कर्म है. मृत्तिका ही इसका करण है मृत्तिका ही इस का सम्प्रदान है मृत्तिका ही इसका अपादान है और मृतिका ही इसका अधिकरण है For Private And Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४८ जैन तत्त्वमीमांसा की किन्तु निमित्त की अपेक्षा घटका कर्ता कुम्भकार है क्योंकि वह घट रूप क्रिया निष्पत्ति के प्रति कुम्भकार होता है । कुम्भ उस का कर्म हैं चक्रादि उसका करण है जल धारण रूप उसका प्रयोजन सम्प्रदान, है कुम्भकार का अन्य व्यापार से अलग होकर इसमें लगना अपादान है पृथ्वी आदि उसका अधिकरण आधार है इस प्रकार घटका कर्ता कुम्भकार का होना संभव है क्योंकि घटोत्पत्ति स्वयमेव केवल मृतिकामे नहीं होती कारण कुम्भकारादि होने से ही मृतिका से घटोत्पत्ति होती है । 'अव कुम्भका घटरूप परिणमन करने वाली मृतिका को खानसे लाकर चलता है फिर उसमें पानी देता हैं तत्पश्चात उस मृतिका को रोधते हैं अर्थात् उसमें चिकनाई लोचादि घटरूप होनेका वल पैदा करते है । उस मृतिका में पड़ी पडी में अपने आप घटरूप होनेकी शक्ति उत्पन्न नहीं होती अतः कुम्भकार ही उस मृर्तिका में घटरूप परिणमन करनेका बलदान पेदा करते हैं इसका नाम है वलदान निमित्त | फिर वह कुम्भकार उस मृतिका को घटरूप परिणमन कराने में प्रेरणा करता है इसलिये वह कुम्भकार प्रेरक निमित्त कारण भी है तथा चाक चीवर आदि सहाय निमित्त कारण हैं उनके बिना भी घटोत्पत्ति नहीं होती अत: कार्योत्पत्ति केवल उपादानसे ही होना आप जो सोनगढ के सिद्धान्तानुसार मानते हैं वह सर्वथा श्रागमविरुद्ध मिथ्या है विना निमित्त के उपादान केवल पंगूवत पडा रहता है इसलिये आचार्योंने कार्योत्पत्ति में निमित्त नैमित्तिक दोनोंका सम्बन्ध बतलाया है अर्थात नैमित्तिक के साथ वलदान प्रेरक, सहायक आदि निमित्त हो तो नैमित्तिकका कार्य निष्पन्न हो सकता है अन्यथा नही इस हेतुसे निमित्त में कारणमें कार्य का उपचार करके आचार्योंने कारणको भी कर्ता कहा है यह सर्वथा असत्य नहीं है। नय अपेक्षा सव सत्य है । एकान्त बाद सब मिथ्या है 1 For Private And Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समीक्षा ३४६८ विना निमित्त कार्योत्पत्ति नही होती ऐसा माननेमें आप को यह भय लगता है । कि एसा माननेके उपादान अपरिणामां ठहरता है इसलिये आप निमित्त को अकिचित्कर मानते हैं यह आप की भ्रम धारणा है। क्योंकि सर्व पदार्थ परिणमन: शील है चाहे शुद्ध द्रव्य हो चाहे अशुद्ध हो सबमें परिणमन शक्ति मौजूद है तो भी उस परिणमन में निमित्त की आवश्यक्ता पडती है। धर्म अधर्म आकाश और शुद्ध जीव तथा शुद्ध पुद्गल परमाणु इनके षट गुण हानि वृद्धि रूप परिणमन में काल द्रव्य निमिन कारण पडता है इस बातको आप भी स्वीकार करेंगें फिर निमित्त अकिंचित् कर है वह केवल कार्य के समय उपस्थित रहता है ऐसा कहना न्याय आगम और युक्ति से सवर्थ शून्य है क्योंकि ऐसा आप लोग एक भी कार्यकी उत्पति नही बता सकेंगे जो निमित्त तो खडा खड़ा देखता रहे और उपादानसे स्वयं में कार्य का निर्माण होजाय अतः निमित्तों को अकिचितकर ठह राकर मोक्षमार्गका साधन भूत देवपूजा गुरूपास्ति स्वाध्याय तीर्थयात्रादि भक्तिमार्गका लोप करना घोर अन्याय है । आपने " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्तृकर्म मीमांसा " के अनुसार ही " घट कारक मीमांसा " में भी एकान्त पक्षको ग्रहणकर व्यवहार धर्म का लोप करनेकी पूरी चेष्टा की है और सोनगढ के एकान्त वादकी पुष्टि करनेमें पूर्णतया प्रयत्न किया है अर्थात् व्यवहार निर्पेक्ष, केवल निश्चय सापेक्ष पट कारकों की सिद्धि की गई है इसलिये यह कथन एकान्तवादसे दूषित है क्योंकि जबतक निश्चय स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती तबतक निश्चय स्वरूपकी प्राप्तिके लिये व्यवहार करना पडता है। " जहं ध्यान ध्याता ध्येयको विकल्प बच भेद न जहां | चिद्भाव कर्म चिदेश कर्ता चेतना क्रिया तहां ॥ For Private And Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्व मीमासां की तीनों अभिन्न अखण्ड शुद्ध उपयोगकी निश्चल दशा । प्रगटी जहां दृग ज्ञान व्रत ये तीनधा एके लसा" यह अवस्था वारहवें गुणस्थान के अंतको है। इसके पहिले जो अर्थात् वारहवें गुणस्थानके पहले चौथे गुणस्थान तक तो सालम्बन अवस्था ही है अतः सालम्बन अवस्था है वह व्यवहार है इसीलिये पंचास्तिकायकी टीकाकार लिखते हैं कि"व्यवहार नयेन भिन्नसाध्य साधनभावमवलम्व्यानादि भेदवासित बुद्ध यः सुखेनैवावतरन्ति तीर्थ प्राथमिका" गाथा १७२ अर्थात् अनादि कालसे भेदवासित वृद्धि होनेके कारण प्राथमिक जीव व्यवहार नयसे भिन्न साधन साध्य भावका अवलम्बन लेकर सुखसे तीर्थका प्रारंभ करते हैं । यह वात असिद्ध नहीं हैं । प्रथम अवस्था में व्यबहारका शरण तीर्थ के समान है । इस वातको इस व्यवहार की सार्थकता बतलाते हुये पहले प्रगट कर आये हैं । विना व्यवहारके निश्चयकी सिद्धि आज तक किसी के न हुई और न किसी के आगे भी हो सकेगी। इसलिये आप जो यह लिखते हैं कि "जो व्यवहार कथन है वह मूल वस्तुको सपर्श करनेवाला न होनेसे उपचरित है, अभूतार्थ है और कर्ता कर्म आदिकी वास्तविक स्थितिकी विडम्बना करनेवाला है । जो पुरुष व्यवहार कथनका आश्रय कर प्रवृत्ति करते हैं वे शुद्ध आत्मस्वरूप की उपलब्धि में समर्थ नहीं होते अतएव संसारके ही पात्र बने रहते हैं " पृष्ट १४५ ।। ___ यह आपका कथन व्यवहार निर्पेक्ष केवल निश्चय परक है इसलिये मिथ्या है । व्यवहार सापेक्ष कथन ही वस्तुत्व सही और आदरणीय होता है। इसका कारण यह है कि मोक्षमार्गकी शुरुआत चौथे गुणस्थानसे होजाती है और जहां मोक्षमार्ग की शुरु. For Private And Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ३५१ आत हुई कि वहीं से शुद्धोपयोग की शुरुआत प्रारंभ हो जाती है किन्तु इसकी पूर्णता तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में जाकर होती है । इसलिये जबतक शुद्धोपयोगकी पूर्णता अर्थात् शुद्धोपयोगकी निश्चलदशा नहीं होती तबतक निश्चल शुद्धोपयोगकी पूर्ण अवस्था प्राप्त करने के लिये प्रयत्न ( पुरुषार्थ ) करना पडता है उसीका नाम व्यवहार है यदि ऐसा न माना जायगा तो " तपसा निर्जरा च " यह तत्त्वार्थकारका वचन मिथ्या सिद्ध होगा । अर्थात् तपसे निर्जरा और संवर होता है और तप है सो अनशनादिके भेदसे बारह प्रकार के हैं वे सव व्यवहार हैं ध्यान हैं सो भी जहां तक सालम्बन है ध्यान ध्याताका विकल्प है तहां तक व्यवहार पर - कही है। इस व्यवहार पर ध्यान से और अनशनादि अन्य तपों के द्वारा पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा होकर आत्मामें इतनी विशुद्धि पवित्रता आजाती है कि जिससे जो कर्मोंके निमित्तसे परिणामों में चंचलता, सकम्यपना हो रहा था वह कारणके अभा व कार्यका अभाव होकर परिणामोंमें निश्चलध्यान करने की सामर्थ प्रगट हो जाती है इसलिये व्यवहार परमार्थका साधन भूत है आप जो व्यवहार को " उपचारित और बिडम्बना " रूप घोषित करते हैं और कहते हैं कि "जो व्यवहार कथन मूलवस्तुको स्पर्श करने वाले न होनेसे उपचारित हैं व्यवहार कथन मूलवस्तुका स्पर्शन ही नहीं करता है तो वह उपचरित कैसा ? और वह अभूतार्थ कैसा ? क्योंकि पर्यायाश्रित कथन को ही अभूतार्थ और उपचारित कथन कहते हैं इस बात को हम पहले सिद्ध कर आये हैं। भूतार्थ कहो या द्रव्यार्थिक कहो Wear निश्चयात्मक कहो ये सब एकार्थवाची शब्द हैं। और अभूतार्थ कहो या पर्यायार्थिक कहो अथवा व्यवहार कहो ये सव एका वाची शब्द हैं तथा उपचारित हैं वह व्यवहार नथका ही भेद हैं । और व्यवहार नय है वह गुण गुणी में भेद कल्पना करता For Private And Personal Use Only " जब Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५२ जैन तत्त्वमीमांसा की इस लिये भेद का नाम ही व्यवहार है फिर व्यवहार है। सो मूलवस्तुका स्पर्श ही नहीं करता ऐसा करना क्या यह न्याय संगत है ? कभी नहीं व्यवहार नय ही उपचरित हैं और वह वस्तु के पर्यायोंका कथन करने वाला है इसलिये वस्तुको स्पर्श नहीं करता ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या हैं क्योंकि पर्यायें वस्तुसे भिन्न दूसरा कोई पदार्थ नही है अतः पर्यायोंका प्रतिपादन करने वाला व्यवहार नय मूल वस्तु स्वरूपका अच्छी सरह बोध करा देता है इस बात को हम ऊपर में अच्छी तरह सिद्ध कर आये हैं इस लिये यहां पर दुबारा बताने की आवश्यक्ता नही है । पर्यायार्थिक नय को ही व्यवहार नय कहते हैं । इस वातका प्रमाण यह है- "पर्यायार्थिकनयइति यदि वा व्यवहार एव नामेति एकार्थोस्मादिह सर्वोप्यु, चारमात्रः स्यात् ५२१ पंचाध्यायी अर्थात् पर्यायार्थिक न कहो अथवा व्यवहार नम कहा दोनों का एक ही अर्थ है सभी उपचार मात्र है । व्यवहार नयके भेद - “व्यवहारनयो द्वेधा सद्भूतस्त्वथभवेद् सद्भूत । सद्भूतस्तद्गुण इति व्यवहारस्तत्प्रवृतिमात्रत्वात् ५ अर्थात व्यवहार नयके दो भेद हैं । सद्भूत व्यवहार नय असद्भूत व्यवहार नय | सद्भूत उस वस्तुके गुणोंका नाम है व्यवहार उसकी प्रवृत्तिका नाम है। भावार्थ - किसी द्रव्यके गुण उसी द्रव्यमें विवक्षित करने का नाम ही सद्भूत व्यवहार नय! है । यह नय उसी वस्तुके गुणों का विवेचन करता है। इसलिये यथार्थ है । अतः सत्यार्थ को मिथ्या कहना इससे बढकर और क्या अन्याय हो सक्ता है ? कुछ भी नहीं । आपके चार मूलभूत For Private And Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोसा विषय हैं ? ५-व्यवहारका लोप करना -निमित्तको अकिंचित कर ठहराना ३-क्रमबद्ध पर्याय की सिद्धि करना ४-उपादान की योग्यता से हो कार्य का सम्पादन होना वस इन्ही चार विषयों को घुमा फिराकर १२ अधिकारों में "जैनतत्त्वमीमांसा " की गई है । इसके अतिरिक्त और कुछ भी तत्त्व मीमांसा नही है ! जिसपर विचार किया जाय। षट कारकों की प्रवृत्ति निमित्त और उपादानके आश्रयसे होती है दोनों में परस्पर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है । यद्यपि मृत्तिका का घट परिणमनरूप व्यापार मृत्तिका में ही होरहा है और कुम्भकार का घट निर्माण रूप अनुकूल व्यापार अपने में हो रहा है दोनों का परिणमन स्वतंत्र है तथापि कुम्भकारादिक बिना मृत्तिका द्वारा स्वयमेव घटकी उत्पत्ति नहीं होती और न मृत्तिका विना कुम्भकार भी घटोत्पत्ति कर सकता है दोनोंका सम्बन्ध मिलनेले ही घटोत्पति हो सकती है अन्यथा नहीं इसलिये चटका व.र्ता कुम्भकार कहा जाता है कुम्भ कर्म है। चक्र और चीवर आदि करण हैं। जल धारण रूप प्रयोजन सम्प्रदान है कुम्भकारका अन्य व्यापार से निवृत्ति होना अपादान है और पृथ्वी आदि अधिकरण है। इस प्रकार षट कारक की प्रवृत्ति होती है यह असत्य नहीं है । यद्यपि सर्व ही पदार्थों का परिणमन स्वतंत्र है क्योंकि सब ही पदार्थ परिणमनशील है। इसलिये सवका परिणमन ग्वतंत्र रूपसे क्षण क्षण में होता ही रहता है । तथापि उस परिणमन में अन्य द्रव्य निमित्त कारण अवश्य पडते है। इससे यह नहीं समझना चाहिये कि अन्य द्रव्य के निमित्त विना उम का परिणमन स्वभाव ही नष्ट हो जाता हो किन्तु प्रत्येक पदार्थके परिणमनमें अन्य पदार्थ सहायक होते हो हैं विना सहायताकं किसी द्रव्यका स्वतंत्र पार मन नहीं For Private And Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३५४ जैन तत्त्वमीमांसा को होता शुद्ध जीवके या परमाणुओंका परिणमन भी कालद्रव्य के निमित्तसे ही होता है । यदि ऐसा न माना जायगा तो “धर्मास्तिकायाभावान्, यह सूत्र मिथ्या सिद्ध होगा क्योंकि मुक्तजीवका ऊर्ध्वगमन स्वभाव है इसलिये धर्मास्तिकाय के अभाव में भी मुक्तजोवोका गमन स्वतंत्ररूपसे आकाश में होते रहना चाहिये मो होता नहीं जहां धर्मास्तिकाय का सभाव है वहीं तक मुक्त जीवोंका गमन है आगे नहीं। इससे कोई अज्ञ यह मान बैठे कि मुक्तजीवोंमें इसके आगे जानेकी योग्यता नहीं है इसलिये वे लोकशिखर के आगे नहीं जाते किन्तु यह बात नहीं है मुक्तजीबों में उसके आगे जाने की योग्यता मौजूद है क्यों कि वे अनन्तशक्ति धारक हैं इस कारण वे अनन्तानन्त कालतक लोकशिखर पर विराजमान रहते हैं इससे मस नहीं होते इसलिये अनन्तशक्तिके धारक होनेसे उनमें आगे जाने की योग्यता विद्य मान है परन्तु आगे जानेके लिये निमित्त कारण धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे वे आगे गमन नहीं कर सकते । जिस प्रकार विना पटरीके इंजिन नहीं चल सकता जहां तक पटरी रहती है वहां तक ही वह चल सकता है आगे नहीं ! इससे यह नहीं कहा जा सकता कि उसमें उससे आगे जाने की योग्यता नहीं है। उसमें उससे आगे जाने की योग्यता (शक्ति) मौजूद हैं पर पटरी का आगे अभाव है इस कारण बिना पटरी के चलने की उसमें शक्ति नहीं है यदि पटरी उसके आगे और लगा दी जावे तो वह उसके आगे भी चल सकता है। चलने की शक्ति उसमें मौजूद है पर बिना पटरी के चलनेकी शक्ति उसमें नहीं है उसमें इतनी ही योग्यता है कि वह पटरीके सहारे चल सके इसी प्रकार मुक्त जीवमें लोकाकाश के आगे ऊद्ध गमन करनेकी योग्यता रहने पर भी धर्म द्रव्यके सद्भाव विना लोकाकाशके Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोक्षा ३५५ आगे गमन वे नहीं कर सकते क्योंकि कारण के अभाव में सर्य का अभाव अवश्यम्भावी होता ही है । विना निमित्त के नैमित्तिक कार्य नहीं होता यह अटल नियम है । यदि होता हो तो निमित्तों को अकिंचित कर मानने वाले सज्जन करके बतलावे अन्यथा निमित्त अकिंचितकर नहीं है ऐसा स्वीकार करें । ❤ आप जो यह कहते है कि "सामान्य नियम यह हैं कि प्रत्ये द्रव्य व स्वभाव होकर भी स्वभावसे परिणमनशील है । उससे पृथक अन्य द्रव्य उसे परिणमन करावें तब वह परिणमन करे अन्यथा वह परिणमन न करे तो परिणमन करना उसका स्वभाव नहीं ठहरेगा इसलिये जिस द्रव्यके जिस कार्यका जो उपादान क्षण है उसके प्राप्त होनेपर वह द्रव्य स्वयं परिणमन कर उस कार्य के आकार को धारण करता है यह निश्चित होता है और ऐसा निश्चित होनेपर कारकका जो क्रियाको उत्पन्न करता है वह कारक कहलाता है यह लक्षण अपने उपादानरूप मिट्टी में ही घटित होता है क्योंकि परिणमन रूप क्रिया व्यापारको मिट्टा स्वयं कर रही है कुम्भकार चक्र चीवर और पृथिवी अदि नहीं - जैन तत्र मीमांसा पृष्ठ १३३ 15 इस कथन से आप यह सिद्ध करना चाहते हैं कि प्रत्येक पदार्थ स्वयं परिणमनशील है और वे स्वयं परिणमन करते हैं, उसके परिणमन करनेमें अन्य पदार्थ सहायक नहीं माने जा सकते क्योंकि अन्य पदार्थको उसमें सहायक मानने से वह स्वयं अपरिणामी ठहरता है इसलिये उपादानमें जिस समय जो कार्य उत्पन्न होता है वह उस कार्यरूप आकार को स्वयं परिणमन करता है। जैसा कि मिट्टी स्वयं घटरूप परिणमन करती है कुम्भकारादि नही । किन्तु इस कथन से न तो निमित्त ही किचितकर सिद्ध होते है और न व्यवहार नर ही मिथ्या सिद्ध होता है क्योंकि प्रत्येक पदार्थ परिणमनशील है इसलिये वह For Private And Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५६ जैन तत्त्व मीमांसा की परिणमन करता है यदि वह परिणमन शील न हो तो दूसरा द्रव्य उसको परिणमन नहीं करा सकता ऐमा होने पर भी प्रत्यक पदार्थ निमित्तानुसार ही परिणमन करता है यह अटल सिद्धान्त हैं यदि मिट्टीको कुम्भकारादिका निमित्त न मिले तो वह स्वयं घटरूप परिणमन करनेमें असमर्थ है घट रूप परिणमन करने चाली मिट्टी में घटरूप परिणमन करनेका बल ( योग्यता ) यिना कुम्भाकारादि निर्मितोंके असिद्ध है। इस बातको आप भी स्वीकार करते हैं “ उपादान के अपने परिणमनरूप क्रिया व्यापार के समय ये कुम्भका र आदि वलाधान निमित्त होते हैं । इतना अवश्य है " जैन तत्त्व मीमांसा पृष्ठ १३४ जब बलाधान निमित्तके ( कुम्भकारादिके ) होने पर ही मिट्टी घटरूप परिणमन करती हे अन्यथा नहीं तब निमित्त अकिंचितक र कैसा ? अतः यह भय दिखलाना कि उपादानके परिणमनमें दूसरा द्रव्य निमित्त मान लेनेसे वह स्वयं उ.परिणामः ठहरता है मह निःसार बात है क्यों कि- दूसरे पदार्थके निमित्तानुसार परिणमन करना यह जीव और पुद्गलमें स्वयं परिणमन शालता सिद्ध होती है । तथा जीव ार पुद्गलका अनादिकालसे पार. स्परिक सम्बन्ध चला आरहा है इसलिये जैसा जैसा इनको निमित्त मिले वैसा वैसा यह दोनों परिणमन करते रहते हैं जव नक इनका पारस्परिक सम्बन्ध रहेगा तव तक यह निमित्तानुमार परिणमन करते रहेगे। अतः षट् कारकोंकी प्रवृत्ति स्वयं सपादानमें होते हुये भी वह प्रवृत्ति वाह्य निमित्तानुसार ही होती है यह वात असिद्ध नहीं है । अर्थात् निश्चयसे अभिन्न कारक होने से कर्म और जीव स्वयं अपने २ स्वरूप के कर्ता है कर्म कर्मरूपसे प्रवर्तमान पुद्गल स्कन्ध रूपसे कर्तृत्वको प्राप्त होता है । (6) कर्म पणा प्राप्त करनेकी शक्तिरूप करणपणे को अगीकार करता है। For Private And Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ३५७ • - - .....- marrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr. ramreminararw.m ( ३ ) प्राप्य ऐसे कर्मत्व परिणमनरूपमे कर्मपनेको संपादन करता है (४) पूर्व भावका नाश हो जाने पर भी ध्र वपनेका अवलम्बन करने से अप,दानपने को प्त होता है । (५) उपजनेवाले परिणाम रूप कर्म द्वारा आश्रयमाण होनेसे सम्प्रदानपने को प्राप्त करता है । (६) धारण किये जाते हुये परिणाम का आधार होनेसे अधिकरणपनेको ग्रहण करता है । इसी प्रकार स्वयं हा पुद्गल षटकारक रूप परिणमन करता है। उसी प्रकार जाव भी ( १ ) भाव पर्याय रूपसे प्रवर्तमान आत्म द्रव्यरूपसे कर्तृत्वको धारण करता है। ( - ) भावपर्यायका प्राप्त करनेकी शक्तिरूपसे करणपना अंगीकार करता है । (३) प्राप्य ऐसी भावपर्यायरूपसे कर्मपनको स्वीकार करता है । (४) पूर्व भाव पर्यायका नाश होने पर भी ध्रु बत्वका अवलम्बन होनेसे अपादानपने को प्राप्त होता है (७) उपजाने वाले भाव पर्यायरूप कर्मद्वारा आश्रयमाण होनेसे सम्प्रदानपनेको प्राप्त होता है । (६) धारण की जाती हुई भावपर्यायका आधार होनेसे अधिकरणपने को प्राप्त होता है । इस प्रकार स्वयं ही जीव षट् कारक रूप परिणमन करता है यद्यपि निश्चयसे कर्मरूप कर्ताका जीव कर्ता नही है। और जीवरूप कर्ताका कर्म कर्ता नहीं है । तथापि जीवके रागादि विभावोंके विना निमित्तके न तो पुद्गल कर्मरूप परिणमन करता है। और द्रव्य कर्म के निमित्त विना न जीव ही रागद्वेष रूप परिणमन करता है इस बातको हम पहले अच्छी तरह सप्रम ण सिद्ध कर चुके हैं इसलिये यहां उसे दुहरानेकी आवश्यक्ता नहीं है । जीवके राग द्वेष रूप परिणाम होने में द्रव्यकर्म निमित्त पडता है और पुद्गल द्रव्य कर्मरूप होनेमें जीवके रागद्वेष परिणाम निमित्तभूत होते हैं ऐसा होने में इनके परस्पर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध हैं इस बातको आप भी अस्वीकार नहीं करसकते फिर निमित्त अकिंचित For Private And Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MANN ३५८ जैन तत्त्व मीमामां की कर कैसा ? जव निमित्तों के अनुसार पदार्थों का परिणमन होता है तव क्रमवद्ध पर्याय कैसी ? और विना तपके कर्म की निर्जरः और संवर नहीं होता फिर व्यवहार धर्म उपादेय नही ऐमा क्यों ? यद्यपि व्यवहारधर्म साधनेमें सरागता है तथापि वह सरागतः संसारका कारण न होनेसे उपादेव ही है क्योंकि दूर किया है अज्ञान अन्धोर जाने ऐसा जीव ताके तप संयम शास्त्रादिव सम्बन्धी राग भी है वह कल्याणके अर्थ ही है जैसे सूर्य के प्रभात संध्या सम्बन्धी आरक्तता है वह उदयके अर्थ है । " विधूततमसोरागस्तपःश्रुतनिवन्धनः । संध्याराग इवार्कस्य जंतोरभ्युदयाय सः ॥ १२३ ॥ --आत्मानुशासन ___ अर्थात् जैस सूर्यके जैसी अस्त समय संध्या विषे लाली हो हे तैसी ही प्रभात समय संध्या समय लाली हो है परन्तु प्रभात की लाली में अर संध्याकी लाली में वडा अंतर है जो प्रभातसमय विषे रात्री सम्बन्धी अन्धकार का नाश करि संधी विषे जो लाली भई सो आगामी सूर्यका शुद्ध उदय को कारण है । तैसे जीव के जैसा विषय आदिक विषे राग हो है तैसा राग तप शास्त्रादिक विषे भी हो है । परन्तु जो विषयादिक सेवनमें राग हो है वह मिथ्यात्वका कारण है. संध्या समय की लाली समान है आगामी अज्ञान अन्धकारके द्योतक है और जो तप शास्त्रादिक विषे राग भाव है सो मिथ्यात्व सम्बन्धी अज्ञानता को नाशकरि आगामी जीवका शुद्ध केवलज्ञानके उदयको कारण है इसलिये पूजा दान तप आदिमें जो सराग भाव है वह हेय नहीं है उपादेय ही है । इसको संसारका कारण समझ कर इसके लोप करनेकी चेष्टा करना प्रयत्न करना और भोगोंमें तल्लीन For Private And Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा rammmmm.inma..inmurnmarrrrrrrammmmmmmmmmmarnam रहने वालेको सद्गुरु मानना यह क्या है ? महान तोत्र मिथ्यात्वके उद का कारण है क्योंकि व्यवहार धर्मका लोप करने वालों को दृष्टिमें । षयभोगोंके सेवनकी सरगतामें और पूजा दानादिक करनेकी मरागनामें कुछ भी अंतर नहीं भासता है । यदि भासता है तो इतना ही भासता है कि एक लोहको वेडी है और वह मोनेकी वेडी है अत: दोनों ही वेडी है किन्तु यह बात नहीं है ऊपरके दृष्टान्तसे यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहार धर्म मोक्षमार्ग है इस लिये आचार्योंने इस व्यवहार धर्मके साधन करनेका आदेश दिया है। यदि यह व्यवहार धर्म संसार का कारण होता तो क्या जीवों को संसारमें रुलानेका आचार्य उपदेश देते ? कभी नहीं । " दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे निरायारं मायारं मग्गंथे परिग्गहा रहिय खलु निरायारं" २० दसणवयसामाइयोसहसचितरायभत्तेय । 'भारं भपरिग्गह अणुमण उदिट्ट देस विरदो य ।। २१ चारित्रपाहुड कुन्दकुन्द आचार्य कहते है कि दान और पूजा करनेवाला भाक्षमागम दाड लगाता है । देखो रयणसार" जिणपूजा घुणिदाणं करेइ जो देई सचिरूवेण । सम्माइट्ठी सावय धम्मी सो होइ मोक्खमग्गरओ" १३ तथा और भी-- इह णियसुवित्तबीयं जो ववइ जिणुत्त सत्तखेसु । For Private And Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जन तत्व मोमासा को सो तिहुवण रज्जफल भुजदि कल्लाण पंचफलं" १८ -रयणसार इत्यादि सर्व ही आचार्योने व्यवहार धर्मको मोझकारण मानकर उसके करनेका जीवोंको उपदेश दिया है फिर भला बह अनादेय कैसे हो सकता है जिसके नाश करनेका पुरुषार्थ किया जाय अतः निश्चयधर्मका साधनभूत छ वहारधर्म साधक अवस्थामें सर्व प्रकारसे उपादेय है जब साध्यसिद्ध अवस्था प्राप्त हो जाती है तव साधनकी जरूरत नहीं रहती वह स्वयमेव छूट जाता है इसके पहले उसके अभाव करने का पुरुषार्थ करनेका प्रयत्न करना अपनी आत्माको धोखा देना है क्योंकि विना साधनके साध्यदशा प्राप्त नहीं होती यह अटल नियम है। अव इस विषयको यहीं खतम करके आगे केवलज्ञानमीमांसा पर थोडा प्रकाश डालकर इस निवन्धको पूरा करूगा । हम ऊपर वतला चुके हैं कि सारी “जैनतस्वमीमांसा" क्रमवद्ध पर्यायकी सिद्धि, निमित्त अकिचितकर, व्यवहार मिथ्या, कार्य को निष्पत्ति में, उपादानकी योग्यता । यह मूल विषय हैं । इसीकी पुष्टिमें आपने सारा बल प्रयोग किया है पर जो वात आगविरुद्ध है वह किसी हालतमें सही सिद्ध नहीं होनी ऋात: इसके बलज्ञान स्वभाव मीमांसां में भी क्रमवद्ध पर्यायकी पुष्टि करनेका प्रयत्न किया गया है आपका जो यह कहना है कि... जवसे द्रव्योंकी क्रमबद्ध पर्याय होतो हैं यह तथ्य प्रमुख पसे सबके सामने आया है तबसे ऐसे प्रश्न एक दो विद्वानों की ओर से भी उपस्थित किये जाने लगे हैं। उनके मनमें यह शल्य हैं कि केवलज्ञानको सव द्रव्यों और उनकी सव पर्यायों का ज्ञाता मान लेनेपर सव द्रन्योंकी पर्यायें क्रमवद्ध सिद्ध हो जावेगी किन्तु वे For Private And Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ३६१ ऐसा नहीं होने देना चाहते हैं। इसलिये वे केवलज्ञानको सामथेके ऊपर ही उक्त प्रकारकी शंकायें करने लगे हैं । किन्तु वे ऐसे प्रश्न करते हुये यह भूल जाते हैं कि जैनधर्म में तत्त्व प्ररूपणाका मुख्य आधार ही केवलज्ञान है। जैन धर्म में तत्त्व प्ररूपणा ही क्या समस्त श्रलोकाकाश सहित तीनों लोकोंका और उनमें स्थित समस्त पदार्थों का और उनकी समस्त त्रिकालवर्ती पर्याय केवलज्ञानमें प्रतिभासित होती हैं इसलिये उन सबकी प्ररूपणा उस केवलज्ञान द्वारा ही होती है इस बातका बोध क्रमबद्ध पर्याय मानने वालों के ही ज्ञानमें हुआ हो और क्रमबद्ध पर्याय नहीं माननेवालों के ज्ञानमें इसका बोध न हुआ हो सो वात नहीं है । क्रमबद्ध पर्यायको माननेवालों को नियतिवाद पाखंड घोषित करने वाले नेमचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्त जैसे दिग्गज आचार्यों के ज्ञानमें भी केवलज्ञानमें उपरोक्त सर्व विषय झलकते हैं । ऐसा बोध नहीं हुआ हो सो वात नहीं है क्रमवद्ध पर्यायकी प्ररूपणा केवलज्ञानियोंकी नहीं है यदि क्रमद्ध पर्यायकी प्ररूपणा केवलज्ञानियों की होती तो उसका उल्लेख शास्त्रों में पाया जाता, क्योंकि सर्व शास्त्रों की रचना आचार्यों ने केवलज्ञान द्वारा निर्णीत विषयोंके आधार पर की है। इस लिये मानना पडेगा कि क्रमवद्ध पर्याय नियतिवाद पाखंड है । जो पूर्वाचार्यों ने घोषित किया है । यह छद्मस्थों की सूज है दि० जैन धर्म में एक यह काल दोषसे नया पाखंड खडा हुआ है केवलज्ञान के विषय में किसी विद्वानको कुछ भी शंका नहीं है । सब विद्वान जानते हैं कि- " त्रैलोक्यं सकलं त्रिकाल विषयं सालोक मालोकितं । साचाद्येन यथा स्वयंकरतले रेखात्रयं सांगुलिं " For Private And Personal Use Only - Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३६२ जैन तत्त्व मीमांसा की केवलज्ञानका ऐसा प्रभाव है फिर भी आज तक किसी श्राचाय ने किसी विद्वानने क्रमबद्ध पर्यायका उल्लेख नहीं किया | यदि यह मान्यता यथार्थरूप में होती तो इसका उल्लेख शास्त्रों में अवश्य मिलता किन्तु इसका उल्लेख शास्त्रों में नहीं मिल रहा हैं इससे यह सिद्ध होता है कि इसकी मान्यता यथा रूप में नहीं है । क्यं कि केवलज्ञानमें हमारी त्रिकालवर्ती समस्त अवस्था झलकती है तो भलकती रहो जिससे हमको क्या ? दर्पन की तरह केवलज्ञान को स्वच्छता है इसलिये हमारा परिणमन केवलज्ञान में झलकता है यह उसका स्वभाव है । वह अपने स्वभावानुसार समस्त पदार्थों को प्रतिबिम्बित करता रहता है और हम हमारे स्वभावानुसार परिणमन करते रहते हैं। न तो हमारे परिणमन में केवलज्ञान कुछ बाधा डाल सकता है और न केवलज्ञानके परिणमन में हमारा परिणमन कुछ बाधा डाल सकता है दोनोंका परिणमन स्वतंत्र है इस बातको आप भी स्वीकार करते हैं कि किसी पदार्थका परिणमन किसी दूसरे पदार्थ के आधीन नहीं है फिर हमारा परिणमन केवलज्ञानमें झलका इसलिये हमारा परिणमन क्रमबद्ध होगया यह वात कैसी ? हमारा परिणमन क्रमबद्ध हुआ या अक्रमवद्ध हुआ जैसा हुआ वैसा केवलज्ञानमें झलका हां इतनी बात जरूर है कि केवलज्ञानकी इतनी स्वच्छता जवरदस्त हैं कि हमारा भविष्यकाल में क्रमबद्ध या श्रक्रमबद्ध जैसा परिणमन होन वाला है वैसा परिणमन उनके वर्तमानकाल में झलक जाता है इस अपेक्षाको लेकर ऐसा कह दिया जाता है कि " जो जो देखी वीतरागने सो सो होसी वीरा रे । अहोगी कबहु न होसी काहे होत अधीरा रे || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोक्षा __अर्थात् जैसा जैसा निमित्तों के अनुसार भविष्यमें हमारा परिणमन होने वाला है वह सब वीतरागके ज्ञानमें झलक चुका है सो ही होगा इसके अतिरिक्त अणहोनी कुछ भी नहीं होगी अर्थात् होनेवाली बात ही होगी इसलिये तुझको अधीर होने की जरूरत नहीं है। इस कथन का सारांश यही है कोई श्रकस्मात् भयसे भयभीत है उनको धैर्य धारण करानेके लिये ऐसा कहा गया है। न कि क्रमबद्ध पर्यायकी सिद्धि करने के लिए ऐसा कहा गया है। जो व्यक्ति इस कथनका क्रमबद्ध पर्यायकी अपेक्षा मानते हैं वे पुरुषार्थ हीन है क्यों कि उसकी विचारधारामें यह बात समा जाती है कि जैसा केवली के ज्ञानमें झलका है वैसा ही होगा इसलिये हमको पुरुषार्थ करनेकी जरूरत नहीं इसलिये ऐसी मान्यताको श्राचार्योंने पाखंड वोलकर कहा है। पाखंडियों को भगवानके वचनों पर विश्वास नहीं होता इसलिये वे मनकल्पित अनेक प्रकार का सिद्धान्त बना लेते हैं। वीतराग भगवानके ज्ञानमें जैसी जिसप्रकार हमारी पर्यायें होने वाली झलकी हैं वैसी ही उसी प्रकार हमारी पर्यायें होगों इसमें कुछ भी संदेह नहीं हैं किन्तु इसको हम हमारी क्रमवद्ध पर्याय मान लें तो यही हमारी एक पहले सिरे की महान मूर्खता है क्योंकि भगवानके ज्ञानके साथ हमारे परिणमन होने का कोई सम्बन्ध नही हमारा परिणमन स्वतंत्र है वह क्रमवद्ध भी होता है और अक्रमबद्ध भी होता है। यदि हम हमाग परिणमन क्रमवद्ध मानलें तो हमारे मुक्ति को नही होगी इसका कारण यह है कि जबतक हमारे पूर्व सचित कर्मोका सविपाक क्रमवद्ध निर्जरा होती रहेगी तबतक कोंसे हमारा छुटकारा नही होगा क्योंकि पुरातन कोंके उदयानुसार ही हमारा परिणमन होगा और उस पारणमन के अनुसार हमारे नवीन कर्मोंका बन्ध For Private And Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६४ जैन तत्त्व मीमांसा की होता रहेगा और पुरातन कर्म उदयमें आ श्राकर क्रमबद्ध निर्जरता जायगा इस हालतमें हम कमोंसे कभी अलग नहीं हो सकते इसलिये भगवानका हमारे लिये ऐसा आदेश है कि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो हमारे ज्ञानमें क्या भलका है उस भरोसे पर मत वैठे रहो तुम तो " तपसा निर्जरा च " इस सिद्धान्त के अनुसार तपश्चरण करके वलपूर्वक पुरातन काँकी एक साथ आहुति देकर उसकी निवृत्ति करो और नवीन कर्मके बन्धका संबर करों तव ही तुम्हारा व.ल्यान होगा अन्यथा नहीं अत: भगवान के ज्ञान में जैसा झलका है वैसा ही होगा उसको क्रम द्ध पर्याय मानकर जो स्वच्छंद प्रवृत्ति करते हैं वे महान मूर्ख हैं तीव्र मिथ्यादृष्टि हैं उनका तीनकालमें कभी भी कल्याण नहीं होगा क्योंकि वे भगवानका आदेश नही मानकर भगवान के ज्ञानमें जैसा झलका है वैसा ही निःसंदेह होगा ऐसा मानकर वे स्वच्छंद प्रवृत्ति करते रहते हैं इस कारण आचार्योंने ऐसी मान्यता रखने वालोंको नियतिवाद पाखंडी हैं ऐसा कहा है इसलिये क्रमवद्ध पर्यायका समर्थन करना ही नियतिवाद का समर्थन करना है । क्यों कि दोनोंकी मान्यता में कुछ भी अंतर नहीं है । नियतिवादी जो यह कहते हैं कि जिस समय जिसकर जैसा होना है वैसा ही होगा सो ही वात क्रमबद्ध पर्यायको माननेवाले कहते हैं फिर क्रमवद्ध पर्यायको माननेवाले तो यथार्थ वात को मानने वाले समझे जावें और नियतिवाद अर्थात् सव नियत है जिस कालमें जिस समय जिसकर जैसा होना है वैसा ही होगा उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं होगा ऐसा माननेवाले मिथ्याष्टि पाखंडी क्यों ? जब दोनों की मान्यता एक रूप है तो दोनों ही एक रूप सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि होगें इसलिये क्रमवद्ध पर्यायको मानने वाले सर्वथा जैनागमके प्रतिकूल हैं। For Private And Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६५ समीक्षा www.mmsran xmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm मैंने जो क्रमवद्ध पर्याय पर तथा निश्चय व्यवहार पर और उपादानकी योग्यतापर एवं निमित्त उपादानपर जो सोनगढ़के सिद्धांतका मूल उपरोक्त चार विषय हैं। उस पर आगम और युक्तियों द्वारा यथासंभव समालोचना की है अथवा इसके अतिरिक्त और भी “जैनतत्त्वमीमांसा" के विषयभूत अधिकार हैं वे सव उपरोक्त चारों अधिकारोंमें समावेश हो जाते हैं क्योंकि उन सव अधिकारोंमें घुमा फिराकर उन्ही चार विषयोंकी उनमें पुष्टि की है इसलिये उपरोक्त चारों विषयोंकी समालोचना करनेसे सबकी समालोचना हो जाती है तो भो अन्य अधिकारों की यथासंभव समालोचना की गई है। यह समालोचना मैने न तो किसी द्वष बुद्धिसे की है और न किसी मान बढाईके लोभके वशीभूत होकर की है। किन्तु समालोचना करनेका एक ही मूल उद्देश्य यह है कि जैनागमके सिद्धान्त की रक्षा हो । जो विद्वान लोग जैनागमके सिद्धान्तके विपरीत साहित्योंकी रचना कर उसको जैनागमकी यह मान्यता है ऐसा रूप देते हैं जिससे जैनागम के सिद्धान्त का घात होता है और भोले जीव उसीको जैनागमकी यह मान्यता है ऐसा समझकर वैसा श्रद्धान कर बैठते है जिससे उनका अकल्याण होना स्वाभाविक है। अतः भोले जीव जैनसिद्धान्त की विपरीत मान्यताको सही मान्यता मानकर अपना अकल्याण न कर बैठे और जैन सिद्धान्त की मान्यता विपरीतता न घुस जाय इस उद्देश्य को सामने रख कर ही जैनतत्त्वमीमासाकी यह समीक्षा की गई है। जैसे कि अकलंक देवने कहा है " हिमशीतल की विज्ञसभामें मैंने जो जय लाभ किया। पराजीत करके वोधोंको ताराका घट फोड दिया । सो न किया कुछ द्वेषभावसे अथवा गर्वित हो करके । नास्तिकता से नष्ट हुये जीवों पर किन्तु कृपा करके " For Private And Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६६ जैन तत्व मीमासां की ___ अतः प्रयोजन वश अथवा धर्म बुद्धिके आवेशमें आकर यदि कहीं पर कटु शब्दका प्रयोग हुआ हो तो उसको द्वषवुद्धि से किया गया है ऐसा न समझकर मेरे प्रति रोष न करें मैं उन से यही क्षमा याचना करता हूं और विद्वानोंसे यह भी प्रार्थना करता हूं कि ज्ञानकी मंदतासे यदि कहीं पर आगमविरुद्ध वात लिखी गई हो तो वे मुझे धर्म बुद्धिसे मेरी समझको धारणाको बागभानुकूल करे मैं उनका पूरा आभार मानूगा । और उनको मैं मेरा हितैषी समझगा। इति शुभं भूयात् For Private And Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acharya Shr जिनवाणी प्रार्थना जिनवाणो माता ! रतन वय निधि दीजिये । मिथ्या दर्शन ज्ञान चरण में, काल अनादी घूमे । सम्यग्दर्शन भयो न तातै, दुख पाये दिन दूने ।। जिनवाणी माता ! रतनत्रय निधि दीजिये। है अभिलाषा सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरण दे माता॥ पावें हम निज सरूप अपनो भव-भव हो सुखसाता । जिनवाणी माता ! रतनत्रय निधि दीजिये । जीव अनन्तानन्त पठाये, स्वर्ग मोक्ष में तूने । अब है बारी हम जीवों की होवें कर्म बिहूने ॥ जिनवाणी माता ! रतनत्रय निधि दीजिये। भव्यजीव हैं सुपुत्र थारे चहुँगति दुख से हारे ।। इनको जिनवर बना शीघ्र अब देदे गुण गण सारे जिनवाणी माता ! रतनत्रय निधि दीजिये। औगुण तो अनेक होते हैं बालक में ही माता। पें जब माता पाई तुमसी क्यों न वने गुण ज्ञाता ।। जिनवाणी माता ! रतनत्रय निधि दीजिये। क्षमा क्षमा हों क्षमा हमारे दोष अनन्ते भव के ॥ सुखका मार्ग बतादो माता-लेहुँ शरण में अबके । जिनवाणी माता ! रतनत्रय निधि दीजिये ।। जयवन्तो जग में जिनवाणी मोक्षमार्ग परिवरतो। श्रावक हो 'जयकुंवर' वीन पद दे अजर अमरतो ॥ For Private And Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनवाणी प्रचार करना हर एक आत्महितैषी का कर्तव्य है / पुत्र पुत्रियोंके विवाह, मुंडन, यज्ञोपवीत आदि संस्कारों और तीर्थयात्रा आदि पुण्य कार्योंकी स्मृति चिरस्थायी करनेके लिये अपने इष्ट मित्रों में उपहार बांटनेकी जरूरत होती हैं / उस समय आप अन्य पदार्थ न बांटकर यदि संस्थाके पवित्र प्रेसमें छपे उत्तमोत्तम ग्रन्थों को खरीदकर उपहार बाटे तो आप का और आपके इष्ट बन्धुओंका आत्मकल्याण हो जाय, चंचल लक्ष्मी स्थिर हो जाय। ___ संस्थाके एक साथ कम से कम पचास रुपयेके ग्रन्थ बांटने वालों का नाम उन ग्रन्थों में बिना किसी अतिरिक्त खर्च के छपाकर चिपका देगी। संस्थाके ग्रन्थ लागत दाममें दिये जाते हैं कारण यह संस्था धर्म प्रचारार्थ दान देकर जिनवाणी भक्त लोगोंने स्थानित की है और इसके मन्त्री महामंत्री मूलसंस्थापक संरक्षक संस्थापक सब निःस्वार्थ भावसे तन मन धन लगाकर सेवा करते हैं। कोई भी इससे आर्थिक लाभ नहीं उठाते / ___ आपका भी कर्तव्य है कि इस जिनवाणी प्रचार में स्वयं स्वाध्यायार्थ ग्रन्थ लेकर इष्ट मित्रों तथा पुस्तकालयों और शास्त्र भंडारोंमें लेने की प्रेरणा कर सहायक बनें। श्रीशांतिसागरजैनसिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था आचार्यश्रीशांतिवीरनगर, पो० श्रीमहावीरजी (राजस्थान) For Private And Personal Use Only