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समीक्षा
इसलिये छठे गुण स्थान के ऊपर उपचरित असद्भूत व्यवहार नय की प्रवृत्ति नहीं होती, छठे गुण स्थान तक ही होती है । इससे आगे नहीं। वीज विभावभावा:स्वपरोभयरहतवस्तथा नियमान । सत्यपि शक्तिविशेषे न परनिमित्ताद्विना भवन्ति यतः ।।
५५० पंचाध्यायी अर्थ-जितने भी वैभाविक भाव हैं वे नियम से अपने और परके निमित्त से होते हैं यद्यपि वैभाविक रूप परिणमन करना यह निज गुण है तथापि वैभाविक परिणमन पर के निमित्त बिना नहीं होते हैं । अतः आत्मा के गुणों का पुद्गल कर्मों के निमित्त से वैभाविक रूप होना ही उपचारत असद्भूत व्यवहार नय का कारण है । इस नय का फल- . तत्फलमविनाभावात्साध्यं त्वबुद्धिपूर्वका भावाः । तत्सत्तामात्र प्रांत साधनामहबुदिपूर्वका भावा ।।
५५१ पंचाध्यायी __ अर्थ-बिना अबुद्धि पूर्वक भावों के बुद्धि पूर्वक भाव हो ही नहीं सकता। इसलिय बुद्धि पूर्वक भावों का अबुद्धि पूर्वक भावों के साथ अविनाभाव है अबिनाभाव होने से अबुद्धि पूर्वभाव साध्य है । और उनकी सत्ता सिद्ध करने के लिये साधन बुद्धि पूर्वक भाव है, यही इसका फल है । भावार्थ-बुद्धि पूर्वक भावों से अबुद्धि पूर्व के भावों का परिज्ञान करना ही अनुपरित असद्भूत व्यवहार नय का फल है। शङ्काननु चासद्भूतादिर्भवति स यत्रेत्यद्विगुणारोपः । दृष्टान्तादपि च यथा जीवो वर्णादिमानिहास्त्विति चेत् ॥
५५२ पंचाध्यायी
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