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जैन तत्व मीमामा की
अर्थ-असद्भूत व्यवहार नयहां पर प्रवृत्त होता है जहां कि एक वस्तु के गुण दूसरी वस्तु में पारापित किये जाते हैं । दृष्टान्त जैसे जीव को वर्णादि वाला कहना ।एमा मानने में क्या हानि है ? भावार्थ-प्रन्थकारने उपर अनुपचारत और उपचरित दोनों प्रकार का ही असद्भूत व्यवहार नय तद्वद् गुणारोपा बतलाया है अर्थात् उभी वस्तु के गुण उसी में आरोपित करने को विवक्षा को असद्भूत नय कहा है क्योंकि क्रोधादि भाव भी तो जीव के ही हैं और वे जंव में ही विवक्षित किय गये हैं। जैसा कि समयमार में कहा है कर्ता कर्म क्रिया द्वार में।
"शुद्ध भाव चेतन अशुद्ध भाव चेतन । दहूँ को करनार जीव और नहि मानिये ।। कर्म पिण्डको विलास वर्ण रस गन्ध फास । करतार दहूँ को पुद्गल परमानिये ।। तांतें वर्णादि गुण ज्ञानावरणादि कर्म । नाना परकार पुद्गल रूप मानिये ॥ समल विमल परिणाम जे जे चेतन के। ते ते सब अलख पुरुष यों बखानिये" ।। इस कथन से भी यही बात सिद्ध होती है कि क्रोधादि भाव जीव के ही वैभाविक अशुद्ध भाव हैं। ऐसा जो अलख सर्वज्ञ वीतराग देव ने कहा है। किन्तु शंकाकारका कहना है कि सद्भुत व्यवहार नय को तद्गुण रोपी कहना चाहिये और अमद्भूत नय को अतद्गुणारोगी कहना चाहिये । इस विषय में शंका कार कहता है कि वरणादि पुद्गल के गुण हैं उनको जीव के कहना यही असद्भूत व्यवहार नय का विषय है, आचार्य कहते हैं कि ऐसा नहीं है।
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