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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८६ जैन तत्त्व मोमामा की वह परिणमन निमित्तनियत है जैसा जीव और पुदल द्रव्यको निमित्त मिलता है वह उसी रूप परिणमन कर जाता है । इसलिये अशुभ निमित्तों को हटाना और शुभ निमित्तों को मिलाना ऐसा आचार्योंका उपदेश है । यदि मव द्रव्योंका परिशमन क्रमनियमित ही होता तो अशुभनिमित्तोंसे वचनेका और शुभनिमित्तों को मिलानेका जो जैनागमका आदेश है वह निरर्थक ठहरेगा ! क्योंकि क्रमनियमित पर्याय में जिमसमय जीवको मोक्ष होना है उससमय स्वतः जीवकी मोक्षरूप पर्याय होजायगी । उसके लिये प्रयत्न करने की अर्थात् वाद्याभ्यन्तर परिग्रहके त्याग करने तथा मुनिव्रत धारण करनेकी शीत उणादि परिषह महनेकी और ध्यानाध्ययन करनेकी जरूरत ही क्या है ! जब क्रमनियतपर्याय का समय श्रावेगा नब विना प्रयत्नके हो निर्वाण पदकी प्राप्ति नो हो ही जायगी अतः श्राचार्योंने जो मोक्ष के लिये पुरुषार्थ करनेका उपदेश दिया है वह सब निरर्थक ही समझना चाहिये । उन्होंने व्यर्थ में ही अपना समय ग्रंथ रचना करने में खोया और अन्य जीवोंको भी व्यर्थ में मोक्ष प्राप्ति के लिये उदाम करनेमें लगाया । क्योंकि अक्रमवद्धपर्याय तो होगी ही नहीं उनका लो नियन बन्धा हुअा समय है जो क्रमनियतिमें जिस जीवको नर्क जाना है वह चाहे जितना तपश्चरण करे अथवा परिषहोंको सहन करे उससे उसको स्वर्ग मोक्षकी प्राप्ति नहीं होगी उसको तो नर्क ही जाना पड़ेगा । तथा जिम जीवको स्वर्ग जानेका क्रमनियत है वह चाहे जितना पापाचार करे उसको तो स्वर्ग ही मिलेगा । क्यों पंडितजो यही बात है न ? क्योंकि आपके सिद्धान्त से क्रमवद्ध में तो अक्रमबद्ध कुछ होही नहीं सकता इसलिये खाओ पीयो मौज उडाओ व्यर्थमें कष्ट सहन करना तो मूर्खता ही है अतः कानजोस्वमीका अवतार भला ही हुआ जो अनादिकी यह For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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