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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १८५ यदि क्रमवद्ध पर्याय मानली जाय तो पंच परार्वतन संमारका प्रभाव होते देरी न लगे क्योंकि वह क्रमवद्ध उदयमें प्राकर पंचपरार्वतन संसारको खतम करदेगी किन्तु संसारी जीवों की क्रमवद्ध पर्याय नहीं होती इसीकारण जीवका पंचपरावर्तन संसार क्रमवद्ध पूर्ण नहीं होपाता एक एक परावर्तन पूरा करनेमें अनंतानंत काल लग जाना है इसका कारण यही है कि क्रमवद्ध परिवर्तन नहीं होता अनंतकाल पीतने र क्रमबद्धका दूसरा नम्बर आता है। यह बात परावर्तनोंका स्वरूप ममझने से ध्यान में आ जाती है। अतः इसपर अधिक लिखनेकी श्रावश्यकता नहीं समझते। विद्वानोंके लिये इशारा ही काफी है। योग्यता मदा तद्रूप ही रहेगी आत्मामें सदा जानने देखने को योग्यता है तो वह सदा जानत देखता ही रहे । कम या ज्यादा अथवा विपरीत जैमा निमित्त मिलता है विना निमित्तके योग्यता काम नहीं देती। जैसे भाव इन्द्रिय दोय प्रकार है एक लब्धि रूप और दूसरी उपयोगरूप । तहां ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमरूपसे आत्मामें शक्ति होती है सो तो लन्धि कहिये सो तो पांच इन्द्रिय और छठा मनद्वारे जाननेकी शक्ति एक काल तिष्ठे हैं । तथा तिनिको व्यक्तिरूप उपयोगका प्रवृत्ति सो ज्ञेयसू उपयुक्त होय है तब एक काल एक ही सूहोय है ऐसा हो योपशम ज्ञानको योग्यता है। ऐसा स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षामें कहा है । "एक्के काले एगं णाणं जीवस्स होदि उवजुचं। णाणा णाणाणि पुणो लद्धिसहावेण बुर्चति" २६० जब षटगुणहानि वृद्धि के कथनसे ही यह स्पष्ट सिद्ध है कि स्वाभाविक परिणमनमें भी क्रमवद्ध परिणमन असिद्ध है। तव वैभाविक परिमणन क्रमवद्ध हो यह वात कैसे बन सकती है क्योंकि For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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