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जैन तत्त्व मीमांसा की
ही मवको मानना सो नियतिवाद पाखंड है। इसलिये संसारी जीवोंकी क्रम बद्ध पर्याय मानना ही मिथ्यात्व है । क्योंकि संसारी जीवोंका पंच प्रकार परावर्तन अक्रमवद्ध ही पूर्ण होता है । .मबद्ध नहीं होता। ऐसा नियम नहीं हैं कि जो क्षेत्र परिवर्तन करेगा बह आकाशके प्रदेशों में क्रमवद्ध जन्ममरण करेगा किन्तु कभी कहीं कभी कहीं जन्ममरण करता है । इसीप्रकार अन्य पर लेनों में समझ लेना चाहिये।
यदि आप कहैं कि हम तो द्रव्यमें स्वभावसे होनेवाले परिणमन स्वभाव द्वारा होनेवालो द्रव्य की प्रत्येक समयकी पर्यायको नियमित रूपसे मानते हैं। यह आपका बल है क्योंकि प्रत्येक द्रव्य परिणमनशील है वह अपने परिणमन स्वभावसे प्रत्येक समय में परिणमन तो करेगा ही इसमें विवाद ही किसको है । क्योंकि द्रव्यका लक्षण-सत किया है।
“सत् द्रव्यलक्षणं २६ और सत्तका लक्षण "उत्पादव्ययधोव्यायुक्त सत् । ३. ऐसा किया है। इसलिये प्रत्येक द्रव्यमें प्रत्येक समय उत्पाद व्यय और धौव्यपना अनिवार्य है इसमें किसीको विवाद नहीं है । विवाद है नियमित क्रमबद्ध पर्यायकी पलटन में । संसारी जीवोंकी जो विभावरूप पर्याय है वह कर्माधीन होनेसे क्रमवद्ध नहीं होती इसको क्रमवद्ध मानना ही अज्ञानता है य पक्षपात है । कानजीके मतका पोषण है। इसविषयमें अधिक लिखनेकी जरूरत नहीं क्योंकि इस विषयमें अनेक विद्वानोंका स्पष्टीकरण हो चुका है। ___ इस उपरोक्त कथनसे निमित्तकी प्रबलता भी सिद्ध हो जाती है । तथा क्रमवद्ध पर्याय का भी नाश होजाता है । तथा वाह्य सामधी एक सी मिलने पर भी सवका समान कोका क्षयोपशम नही होता यह तीन वातें सिद्ध हो जाती है। कारण यह है कि
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