SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १७६ अब कहिये शास्त्री जी ! व्यवहारका लोप करनेसे परमार्थको मिद्धि होगी, कि व्यवहारका साधन करनेसे परमार्थकी सिद्धि होगी ? इसत्तिये व्यवहार धर्मा लोप करना महान अनर्थ का मूल है। परमार्थकी निद्धि तो होगी ही नही प्रत्युत अपरमार्थकी ही सिद्धि होगी अर्थात् मिथ्यात्व हो पुष्ट होगा इसमें संदेह नहीं है ____ आचार्य कहते हैं कि त के विना (अनशनादि तपके विना) ज्ञान, और ज्ञानके विना तप दोन्ही अकृतार्थ है कार्यकारी नही हैं इसलिये ज्ञान महित तपश्चरण को जो आचरण करता है वही भव्यात्मा निर्वाण पदको प्राप्त कर सकता है। देखो मोक्षप्राभृत-- -- "तवरहियं जं गाणं गाणविजुत्ता तवो वि अकयत्थो। तम्हा णाण तवेण संजुत्तो लहइ णिव्याणं" ॥५६॥ ___ इससे स्पष्ट सिद्ध है कि परमार्थकी सिद्धि, विना व्यवहार 'साधनके नहीं हो सकती है जो लोग समयसारादि अध्यात्म ग्रंथों को पढकर व्यवहारको हेय बताकर व्यवहारसे पराङ मुख होते हैं वह बहिरात्मा हैं । क्योंकि कुन्दकुन्दस्वामीका ध्येय व्यवहारको हेय बताकर व्यवहार को छुडानेका नहीं हैं । यदि उनका ध्येय व्यवहार को छुडानेका होता तो वे व्यवहारकी पुष्टि इसतरह क्यों करते कि विना व्यवहार के परमार्थकी सिद्धि नही होती इसलिये मानना पडेगा कि कुन्दकुन्द स्वामीका ध्येय व्यवहारका लोप करनेका नहीं था । यदि यहांपर कोई यह तर्क करे कि उनका यदि व्यवहारको छुडानका ध्येय नहीं था तो उन्होंने व्यवहारको हेय अथवा 'सत्यार्थ क्यों वतलाया ? इसका समाधान यह है कि आत्मोपलब्धी जो परमार्थभूत है वह तो आत्मामें ही होगी For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy