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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १३६ जैन तत्त्व मीमांसा की कारणपन ऐसा ही है जैसेकि कोई पुरुष किसी पुरुषका उपकार करदे तो वह उपकृत पुरुषभी उसका बदला चुकानेके लिये उपकार करनेवालेका प्रत्युपकार करता है । तैसे ही रागद्वेष परिणामोंके निमित्तसे संसार में मरीहुई कार्मणवर्गणाओंको अथवा विसोपचयों को यह आत्मा खींच कर अपना सम्बन्धी बना लेता है जिस प्रकार अग्निसे तप हुआ लोहेका गोला अपने आसपास भरेहुये जलको खींचकर अपने में प्रविष्ट करलेना है। अतः जिन पुद्गलवर्गणाओं को यह अशुद्ध जीवात्मा खींचता है वही वर्गणाये आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाह रूप एकमेकसे वन्य जाती है और वन्धसमयसे उन्ही वर्गणाओंकी कर्मरूपपर्याय हो जाती है। फिर वह कालान्तर में उन्ही बन्धे हये कमोंके निमित्त से चारित्र के विभावभाव रागद्वेष बनते हैं। फिर उन रागद्वेषभावों से नवीन कर्म चन्धते हैं और उन कर्मों के निमित्तसे फिर आत्मामें रागद्वेष उत्पन्न होते हैं। इसप्रकार पहले कर्मसे रागद्वेष और रागद्वेष से नवीन कर्म वन्धते रहते हैं । यही परस्पर में कारण कार्यभाव अनादि से चला जाता है। " पूर्णकर्मोदयाद्भावो भावात्प्रत्ययसंचयः तस्य पाकात्पुनर्भाव भावाद्वन्धः पुनस्तत: ४२ " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थात् पहले कर्म के उदय से रागद्वेष भाव होते हैं, उन्हारागद्वेषभावों से नवीन कर्मों का संचय होता है। उन आये हये कर्मों के पाक उदय से फिर रागद्वेष भाव उत्पन्न होते है । उनभाबोंसे फिर नवीन कमका वन्ध होता है । इसी प्रकार प्रवाहकी पेक्षा जीवका कम के साथ सम्बन्ध अनादिकाल से चला अ रहा है । इसी सम्बन्धका नाम संसार है । यह संसार विना सम्यक्त्वादि भावोंके नहीं छूट सकत्ता । श्रर्थात् कर्मके निमित्त For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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