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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की जो कहना है उसको यहां उद्धृत करना उचित समझते हैं। ___ "एक कार्य होनेविषे अनेक कारण चाहिये । तिनविणे जे कारण वुद्धिपूर्वक होंय तिनको तो उद्यमकरि मिलाये अर अबुद्धिपूर्वक कारण स्वमेव मिले तो कार्य सिद्ध होय जैसे पुत्र होनेका कारण वुद्धिपूर्वक तो विवाहादिकका करना है अर अबुद्धिपूर्वक भवितव्य है। तहां पुत्रका अर्थ विवाहादिकका तो उद्यम करे अर भवितव्य स्वमेव होय तव पुत्र होय ! तैसे विभाव दूर करनेके कारण वुद्धिपूर्वक तो तत्त्वविचारादिक है अर अबुद्धिपूर्वक मोहकर्मका उपशमादिक है सो तांका अर्थी तत्वविचारादिक तो उद्यमकरि करे अर मोह कर्मका उपशमादि स्वमेव होय तव रागादिक दूर होय । इहां ऐसा कहै कि जैसे विवाहादिक भी भवितव्य आधीन है तैसे तत्त्वविचार भी कर्मका क्षयोपशमादिक के आधीन है। तातें उद्यम करना निरर्थक है" (जैसा कि आप कहते हैं कि कार्यकी निष्पत्ति स्वकाल आनेपर ही होती है आगे पीछे नहीं होती फिर उद्यम काहेको करना कमनियत पर्याय माननेवालेनेलिये कहते हैं कि -- समाधान "ज्ञानावरणका तो क्षयोपशम तत्वविचारादिक करने की योग्यता तो तेरे भई है याहीते उपयोगकों यहाँ लगावनेका उद्यम कराइये हैं। असंज्ञी जीवनिके तो क्षोपशम नाहीं है तो इनको काहेको उपदेश दीजिये हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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