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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra T www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २३६ बहुरि वह कह होनहार होय तां तहां उपयोग लागे, विना होनहार काहे को लागे । समाधान जो ऐसा श्रद्धान है तो सर्वत्र कोई भी कार्यका उद्यम मति करे ( स्वकालमें सब कार्य हो हो जायगा ) तूं खान पान व्यापारादिकका तो उद्यम करे, अर यहां होनहार बतावे सो जानिये हैं तेरा अनुराग यहां नाहीं । मानादिक करि ऐसी झूठी बाते बनावे है । या प्रकार जे रागादिक होते तिनकरि रहित आत्माको माने हैं ते मिथ्यादृष्टि जानने । मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २७८ - २७६ "बहुरि कर्म नोकर्मका सम्बन्ध होते आत्माको निर्गन्ध माने सो प्रत्यक्ष इनका बन्धन देखिये हैं । शरीर करि ताके अनुराग अवश्य होता देखिये है, बन्धन केसे नहीं, जो बन्धन न होय तो मोक्षमार्गी इनके नाशका उद्यम काहेको करे " इस कथनसे स्पष्ट सिद्ध होजाता है कि कार्योत्पत्तिमें देव ( भवितव्यता ) और पुरुषार्थ दोनोंकी आवश्यकता है दोनों मिले कार्यसम्पन्न होता है अन्यथा नहीं । तथा स्वकाल आनेपर मोक्षप्राप्ति स्वमेव होजायगी ऐसा मानकर जो निरुद्यमी रहता है मोक्षप्राप्तिका उपाय नहीं करता है वह मिथ्यादृष्टि है | अतः स्वकालप्राप्ति में मोक्ष होना माननेवालोंकी शंकाका समाधान करते ये श्राचार्य भट्टाकलंकदेव कहते हैं कि- " कालानियमाच्च निर्जरायाः ६ यतो न भव्यानां For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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