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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *૪૦ जैन तत्त्वमीमांसा कृत्स्नकर्म निर्जरापूर्वकमोक्षकालस्य नियमोऽस्ति । केचिद् भव्याः असं व्येन कालेन सेत्स्यन्ति केचिद् संख्येन, केचिदनन्तेन, अपरे अनन्तानन्तनापि न सेत्स्यन्तीति ततश्च न युक्त' भव्यस्य कालेन निःश्र यमोपपत्त ेः इति" अर्थात् भव्य जीवों लिये मोक्ष जानम कोई कालका नियम नहीं है । इसलिये भव्यजीव कालद्वारा मोक्षलाभ करेंगे यह वचन ठीक नहीं है। इसके सम्बन्ध में आपका कहना है कि- ." कुछ विचारक इसे पढकर उसपर से ऐसा अर्थ फलित करते हैं कि मट्टाकलंकदेवने प्रत्येक भव्यजावकं मोक्षजान के कालनियमका पहिले शंकारूपमें जो विधान किया था इस कथन द्वारा सर्वथा निषेध कर दिया है परन्तु वस्तुस्थिति एसी नहीं है । यह सच है कि उन्होंने पिछले कथनका इस कथ द्वारा निषेध किया है। परन्तु उन्होंने यह निषेध नयविशेषका आश्रय लेकर ही किया है सर्वथा नहीं। वह नयविशेष यह है कि पूर्वोक्त कथन एक जीवके आश्रयसे किया गया है और यह कथन नाना जीवोंके श्रभयसे किया गया है। सव भव्यजीवों की अपेक्षा देखा जाय तो सबके मोक्ष जानेका एक काल नियम नही बनता, क्योंकि दूरभव्योंको छोड़कर प्रत्येक भव्य जीवके मोच जानेका कालनियम अलग अलग है। इसलिये सबका एक कालनियम कैसे वन सकता है ? इसका यदि कोई यह अर्थ लगावे कि प्रत्येक भव्यजीवका भी मोक्ष जानेका कालनियम नहीं है तो उसका उक्त कथनद्वारा अर्थ फलित करना उक्त कथन के अभिप्रायको ही न समझना कहा जायगा । अतः प्रकृत में यही समझना चाहिये कि भट्टाकलंकदेव भी प्रत्येक भव्यजीवके मो जानेका नियम मानते रहे हैं । For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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