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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममोक्षा योग्य शक्तिरूपसे विद्यमान है किन्तु बाह्यनिमित्त श्रानुकूल न मिलने से अथवा प्रतिकूल (वाधक) निमित्तके रहनपर अनादिकाल से आजतक केवलज्ञानादिक की व्यक्तता इस जीवको न हुई और जवन, ऐमा कारण बना रहेगा नबतक फिर भी कवण - ज्ञानादिककी प्राप्ति नहीं होगी । केबलदर्शनावरणीके उदयमें केवलदर्शन व्यक्त नहीं होना तथा केवलज्ञानावरणाके उदयमें केवलज्ञान प्रगट नहीं होता तथा मोहनीय. कर्मके उद्यमें मम्यरदर्शनकी प्राप्ति नही होती तथा चारित्र मोहनीय कर्मके उदयमें देशचारित्र या सकल चारित्र प्रादुर्भाव नहीं होता तथा वेदन.यकर्म के सद्भावमें अव्यावाधसुखको प्राप्ति नहीं होती, शरीरमें रोग निरोगपने की नाना प्रकारकी अवस्था होती रहती है । अत. रायकर्मके उदय में दानादिक देने की योग्यता होनेपर भी दान नहीं देसकता, आयुकर्मके उदय में मनुष्यादि पर्यायको स्थिति बनी रहती है। इस संसार में जन्म जीवन मरणका कारण आयुकर्म ही है। नामकर्मके उदयमं यह जीव मनुष्यादि गतिमें प्राप्त होकर तिमपर्यायरूप अपनी अवस्था समझे तहां नोकर्मरूप शरीर में अंगोपांगादि योग्य स्थान परिमाण लिये आत्मप्रदेश संकोच विस्तार रूप होय शरीर प्रमाण रहै तथा शरीर विषे नानारूप श्राकारादिकका होना नानारूप वरणादिकका होना स्थूल सूक्ष्मादिका होना इत्यादिक नामकर्मके उदयमें कार्यकी निष्पत्ति होती है . गोत्रकमक उदय में यह जीव ऊंच नीच पर्याय प्राप्त होय है ! इसप्रकार अनादिसंसार विषे घाति अवाति कर्मके निमित्तते जीवका अवस्था होती है सो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर है और युक्ति प्रागमस प्रमाणित है इसको अस्वीकार कैसे किया जासकता है ? कभी नहीं, विना निमित्तका रणके मिले केवल उपादानकी योग्यतासे कोई भी कार्य नहीं होता इसविषयमें स्व० पं० टोडरमलजीका For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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