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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १६ का परिणमन जिसरूपमें जिन हेतुओंस जव होना निश्चित है वह उसा क्रमसे होता है उसमें अन्य कोई परिवर्तन नहीं करसकता" इस कथन की पुष्टि करते हुये प्रक्चनसारकी गाथा ६६ की टीका अमृत चंद्रसूरीकी उद्धृत का है उसका भावार्थ आपने जो दिया है वह निम्न प्रकार है। __“जिसप्रकार विवक्षित लम्बाई को लिये हुए लटकती · हुई मोतीकी मालामें अपने स्थानमें चमकते हुये सभी मोतियोंमें आगे आगेके स्थानोंमें आगे आगेके मोतियोंके प्रगट होनेसे अतएव पूर्व पूर्व मातियों के अस्तंगत होते जानेसे तथा सभी मातियों में अनुस्यूतिक सूचक एक डारेके अवस्थित होने से उत्पाद व्यय घाव्य रूप त्रलक्षण्य प्रसिद्धिको प्राप्त होता है । उसीप्रकार स्वीकृत नन्यवृत्तिस नवर्तमान द्रव्यमें अपने अपने कालमें प्रकाशमान होने वाली सभी पर्यायोंमें आगे आगेके कालोंमें आगे श्रागेकी पर्यायोंके उत्पन्न होनेसे अतएव पूर्व पूर्व पर्यायोंका व्यय होनेसे तथा इन सभी पर्यायोंमें अनुस्यूतिका लिये हुये एक प्रकारके अवस्थित होनेस उत्पाद व्यय और ध्रौव्यरूप लक्षण्य प्रसिद्धिको प्राप्त होता है । "पृष्ठ १४६, १५०, १६३ जैन तत्त्व मीमांसा । __ आपके इस उपरोक्त कथनस सब जावांका या अन्य पदार्ण की क्रमवद्धपर्याय ही होता हैं ऐसा सिद्ध नहीं होता । क्योंकि सर्व द्रव्य परिणमन शील है इसलिये उनमें परिणमन तो प्रतिसमय होता ही रहता है वह परिणमन चा है. क्रम द्ध हो चाहं यह परिणमन अक्रमबद्ध हो उस परिणमनका प्रतिबिम्ब भगवानके ज्ञानमें या दिव्यज्ञानीयोंके ज्ञानमें पडता ही है इस लिये वे यह कहदेते हैं कि अमुक पदार्थका अम् ममगई ऐना परिणमन होगा यह उनके ज्ञानकी स्वच्छता है इसकारण सर्वपदार्थोंका त्रिकालिकपरिणमन उनके ज्ञानम झलक जाता है इस For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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