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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा का हिसाबसे वे भविष्यवाणी कर देते हैं कि अमुकपदार्थका अमुक समय ऐसा परिणमन होनेवाला है इससे यह वात सिद्ध नहीं होती कि वह परिणमन क्रमवद्ध ही हुआ या अक्रमबद्ध ह। हुआ क्योंकि ऐसा खुलासा कहीं पर नहीं मिलता कि सर्वपदार्थीका परिणमन क्रमवद्ध ही होता हैं अक्रमवद्ध नही होता । जैसा आप अनुमान लगात है कि भगवानके ज्ञानमें भविष्यको बात झलक जाती है इसलिये वे सब परिणमन नियतरूपसे मव द्रव्यों में विद्यमान हैं यदि सव द्रव्योंमें उनका परिणमन नियत. रूपसे विद्यमान नहीं होता तो वे भविष्यवाणामें ऐसा नहीं कर सकते कि अमुक पदार्थका अमुक समयमें अमुक रूपसे परिणमन होनवाला है ऐसा अनुमान लगाना सिद्धान्त शास्त्रीयोंके लिये हास्योत्पादक है : क्योंकि सिद्धान्तका वातको सिद्धान्तशास्त्रा विपरीत प्रतिपादन करे यह विद्वानोंके समक्ष हास्योत्पादक ही है ज्ञानका स्वभाव दर्पणवत् है सो ही अमृतचन्द्रसूरीने पुरुषार्थ सिद्धयु पाय अन्य के प्रथम मंगलाचरणमें कहा है "तज्जयति परंज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायः । दर्पणतल इव सकलाः प्रतिफलंति पदार्थमालिका यत्र। अर्थात् वह परंज्योति ज्ञायक भावस्वरूप चैतन्यमय जयवंत होऊ जिसमे विश्वक सम्पूर्णअनन्तानन्त पदार्थ अपनी अपनी सम्पूर्ण अनन्तानन्त पर्यायोंके साथ युगपत दर्पणकी तरह प्रतिबिम्बत होते रहते हैं । साराश यह है कि जिस प्रकार दर्पणमें पदार्थ झलकते रहते हैं उसी प्रकार केवल ज्ञानमें भी पदार्थ झलका करते हैं यह उस ज्ञानका स्वभाव है । जिस प्रकार दर्पणके समक्ष सम्पूर्ण पदार्थ दर्पणमें यथायोग क्रमवद्ध या अक्रमवद्ध For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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