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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४४ जैन तत्व मीमांसा की किंच विशेषः अज्ञानी जीवो शुद्धनिश्चयनयेनाशद्धोपादानरूपेण मिथ्यात्वरागादिभावानामेव का न च द्रव्यकमणः स चाशुद्धनिश्चयः । यद्यपि द्रव्यकर्मक त्वरूपया सद्भ तव्यवहारापेक्षया निश्चयसंज्ञा लभते तथापि शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव । हे भगवन् ! रागादीनामशुद्धोपादानरूपेण कतृ त्वं भणितं तदुपादानं शुद्धाशद्धभेदेन कथं द्विधा भवतीति । तत्कथ्यते । औपाधिकमुपादानमशुद्धं तप्तायःपिण्डवत्, निरुपाधिरूपमुपादानं शद्धं पीतत्यादि गुणानां सुवर्णचत्, अनंतज्ञानादि गुणानां सिद्धजीववत् उष्णत्यादिगुणानामग्निवत् । इदं व्याख्यानमुपादानकारण कारणव्याख्यानकाले शुद्धाशुद्धोपादानरूपेण सर्वत्र स्मरणीयमिति भावार्थः।। ___ अर्थात्-इस लोकविषै आत्मा है सो अनादि अज्ञानते परका अर श्रात्माका एकपणाका निश्चयकरि तीन मंद स्वाद रूप जे पुद्गलकर्मकी दोय दशा तिनकरि यद्यपि आप अचलितविज्ञानघनरूप एक स्वादरूप है तोऊ स्वादकू भेदरूप करता संता शुभ तथा अशुभ जो अज्ञानरूपभाव ताकूको है सो आत्मा तिसकाल तिसभावते तन्मय पणाकरि तिस भावका व्यापकपणाकरि तिस भावका कर्ता होय है । तथा मो वह भाव भी तिस काल आत्माके तन्मयपणाकरि तिस आत्माके व्याप्य होय है । ताते ताका कर्म होय है । तथा सोही प्रात्मा तिसकाल तिसभावतें तन्मयपणाकरि तिसभाषका भावक होय है तातें ताका अनुभवकरनेवाला भोक्ता होय है । अतः सो भाव भी तिसकाल तिस आत्माके तन्मयपणा For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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