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जैन तव मीमांसा की तत्त्व
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प्रकार हमें भी अपने पुरुषार्थद्वारा अपने में उच्च अवस्था प्रगट करनी है। तो हम पूछते हैं कि फिर प्रत्येक कार्य स्वकालमें होता है इस सिद्धान्तको सुनकर उसका विपर्यास क्यों करते हैं | वास्तबमें यह सिद्धान्त किसीको प्रमादी बनानेवाला नहीं है। जो इस का विपर्यास करता है वह प्रमादी वनकर संसारका पात्र होता है और जो इस सिद्धान्त में छिपे हुये रहस्य को जान लेता है वह परकी कर्तृत्वबुद्धिका त्याग कर पुरुषार्थ द्वारा स्वभाव सन्मुख हो मोक्षका पात्र होता है। प्रत्येक कार्य स्वकालमें होता है ऐसी यथार्थ श्रद्धा होने पर परका मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूं ऐसी कर्तृत्वबुद्धि तो छूट हो जाती है साथही मैं अपनी आगे होनेवाली पर्यायों में कुछ भी फेरफार कर सकता हूं इस अहंकार का भी लोप हो जाता है।
परकी कर्तृत्वबुद्धि छूटकर ज्ञाता दृष्टा बनने के लिये और अपने जीवन में बीतरागताको प्रगट करनेके लिये इस सिद्धान्तको स्वीकार करनेका बहुत बडा महत्त्व है जो महानुभाव समझते हैं कि इस सिद्धान्त के स्वीकार करने से अपने पुरुषार्थ की हानि होती है वास्तव में उन्होंने इसे भीतरसे स्वीकार ही नहीं किया ऐसा कहना होगा | यह उस दीपक के समान है जो मार्गका दर्शन कराने में निमित्त तो है पर मार्गपर स्वयं चलना पड़ता है। इसलिये इसे स्वीकार करने से पुरुषार्थकी हानि होती है ऐसी खोटी श्रद्धाको छोडकर इसके स्वीकार द्वारा मात्र ज्ञाता दृष्टा बने रहने के लिये सम्यक् पुरुषार्थको जागृत करना चाहिये । तीर्थकरों और ज्ञानी संतोंका यही उपदेश है जो हितकारी जानकर स्वीकार करने योग्य है" जैनतत्वमीमांसा पृष्ठ ७६-८०
पं० फूलचन्दजीका उपरोक्त कथन हमें वडा पसन्द आया आपका यह कहना यथार्थ है कि जो इस सिद्धान्त के छिपे हुये रहस्य
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