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. समीक्षा
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मिल जाते हैं । यहां यह विचारणीय होजाता है कि प्रत्येक समयमें वह कार्य होता कैसे है ? क्या वह अपने आप हो जाता है या अन्य कोई कारण है जिसके द्वारा वह कार्य होता है ? विचार करने पर विदित होता है कि वह इस साधन सामग्रीके मिलनेपर अपने अपने वल, वीर्य, या पुरुषार्थके द्वारा होता है अपने आप नहीं होता है , इसलिये जीवके प्रत्येक कार्यमें पुरुषार्थकी मुख्यता है। यही कारण है कि जिन पांच कारणोंका (निमित्तोंका ) पूर्व में उल्लेख कर आये हैं उनमें एक पुरुषार्थभी परिगणित किया गया है । हम कार्योत्पत्तिका मुख्य साधन जो पुरुषार्थ है उस पर तो दृष्टिपात करें नहीं और जव जो कार्य होना होगा होगाही यही मानक' प्रमादी वनजांय यह उचित नहीं है । सर्वत्र विचार इस बातका करना चाहिये कि यहां ऐसे सिद्धान्तका प्रतिपादन किस अभिप्रायसे किया गया है। वास्तवमें चारों अनुयोगोंका सार वीतरागता ही है जैसे विपर्यास करने के लिये सर्वात्र स्थान है । उदाहरणस्वरूप प्रथमानुयोगको ही लेलीजीये । उसमें महापुरुषोंकी अतोत जीवन घटनाओं के समान भविध्यसम्बन्धी जीवन घटनायें भी अंकित की गई हैं। अब यदि कोई व्यक्ति उनकी भविष्यसम्बन्धी जीवन घटनाओंको पढकरि ऐसा निर्णय करने लगे कि जैसे महापुरुषोंकी भविष्य जीवनघटना सुनिश्चित रही है उसीप्रकार हमारा भविष्यतभी सुनिश्चित है अतएव अव हमें कुछ भी नही करना है जव जो होना होगा होगा ही,तो क्या इस आधारसे उसका ऐसा निर्णय करना उचित कहा जायगा ? यदि कहो कि इस आधारसे उसका ऐसा निर्णय करना उचित नहीं है। किन्तु उसे उन भविष्य सम्बन्धी जीवन घटनाओं को पढकर ऐसा निर्णय करना चाहिये कि जिस प्रकार ये महापुरुष अपनी अपनी हीन अवस्थासे पुरुषार्थद्वारा उच्च अवस्थाको प्राप्त हुये हैं उसी
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