SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६६ जैन तत्त्वमीमांसा की जाती है और जो विद्यमान नहीं है अविद्यमान असतरूप है वह अपने स्वकालमें उत्पन्न हो जाती है । इस कथनसे यह तो अच्छी तरह सिद्ध हो ही जाता है कि जो पर्याय नवीन उत्पन्न होती है वह जीवके साथ विद्यमान नहीं थी अतः अविद्यमान ( असत् ) की ही उत्पत्ति होती है जिसका स्वकाल उदयमें श्राजाता है । यह सामान्य कथन है इससे यह भी नहीं समझना कि सर्व पर्यायोंका स्वकाल नियमित है। उसमें हेर फेर नहीं होता जैसा कि पं० फूलचन्दजी शास्त्रीका कहना है। ___ कालादिलब्धीयोंके अनुसार इनमें हेरफेर भी होता है उत्कर्षण,अपकर्षण संक्रमणादि सव होते हैं । मनुष्यादि पर्यायोंका वन्ध समय समय प्रति होता रहता है और उसका विनाश भी प्रतिसमयमें होता रहना है, इनका यह नियम नहीं है कि जो पर्यायें समय समय प्रति वन्धको प्राप्त हुई हैं उनका उदय भी उसी रूपमें समय समय प्रति क्रमवद्धसे आये विना नहीं रहेगा इसका कारण यह है कि यह नामकर्म की प्रकृति है इसका वन्ध प्रतिसमय होता ही रहता है किन्तु आयुकर्म का वन्ध त्रिभागीमें ही होता है इसलिये जिस आयुका वन्ध हुआ है वह उस पर्यायको अवश्य ही धारण करेगा इसके अतिरिक्त अन्य पर्यायोंका जो वन्ध किया था वह वट्टा खातेमें जायगी अर्थात् उदयमें आये विना ही निर्जर । जायगी। इसलिये क्रमवद्ध (नियमितपर्याय) पर्यायकी मान्यता सर्वथा एकान्तरूप से मिथ्या है।' पं० फूलचन्दजीका इस सम्बन्धमें आखरी वक्तव्य निम्न प्रकार है। ___"इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट होजानेपर भी कि प्रत्येक कार्य अपने अपने स्वकालमें अपनी अपनी योग्यतानुसार ही होता है, और जव जो कार्य होता है तव निमित्त भी तदनुकूल For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy