SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २६५ कालादि निमित्त पाकर दूसरी पर्याय अपने स्वकालमें नवीन ही उत्पन्न हो जाती है। जैसे मनुष्यपर्यायका स्वकाल खतम होजाने पर मनुष्य पर्याय नष्ट हो जाती है उसी समय उदयमें आनेवाली देवपर्याय उत्पन्न हो जाती है। देव पर्याय के उदय का स्वकाल और मनुष्यपर्यायका अंतका स्वकाल यह दोनू का स्वकाल एक समय मात्र है अर्थात् समयभेद नही है जिस समय मनुष्यपर्यायका स्वकाल नष्ट होता है उसी समय देवपर्यायका स्वकाल उदयमें आता है इस कारण यह जोव मनुष्यपर्यायसे छटकर देवपर्यायको धारण कर लेता है । मनुष्य और तियंच पर्यायका स्वकाल पूरा प्राप्त न हो कर वीचहीमें नष्ट हो सकता है । " औपपादिकचरमोत्तम देहासंव्येयवर्षायुषोऽनपवायुमः" तत्त्वार्थसूत्र अध्याय२ सूत्र ५३ __इसकथनसे देवनारकी तथा चरम उत्तमशरीर वाले तीथकर तथा भोगभूमिज इनकी आयु विष शस्त्रादिकसे नष्ट नही होती इनके अतिरिक्त सब जीवोंकी श्रायु विष शस्त्रादिकसे नष्ट भी हो जाती है इस कारण इनकी श्रायुका स्वकाल वीचहीमें खतम होजाता है और उसी समय दूसरी पर्यायका स्वकाल उदय में आजाता है । यह सव पर्याय जीवके साथ विद्यमान नहीं रहती इनकी उत्पत्ति निमित्तोंके अनुसार अविद्यमानकी ही होती है। इसीवातका स्पष्टी करण पचास्तिकायकी गाथा ११ से हो जाता टीका'यदा तु द्रव्यगुणत्वेन पर्यायमुख्यत्वेन विवदयते तदा प्रादुर्भवति विनश्यति सत्पर्यायजातमतिवाहितस्वकालमुच्छिनत्ति असदुपस्थितस्वकालमुत्पादयति चेति" इस टीकामें स्पष्ट शब्दोंमें घोषित किया है कि जो वर्तमानमें सतरूपपर्याय है वह तो अपना स्वकाल खतम होनेपर नष्ट हो For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy