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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .............rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrn २६४ जेन तत्त्व मामांसा की "सब्वाणपज्जयाणं अविजमाणाण होदि उप्पत्ति । कालाई लद्धीए अणाइणिहम्मि दवम्मि" २४४ . भावार्थ-अनादि निधन द्रव्य विषे काल आदि लब्धीपति सर्व पर्यायनिकी अविद्यमानकी ही उत्पत्ति है। अर्थात् अनादि निधन द्रव्यविषे काल आदि लब्धिकरि पर्याय अणछती अवि द्यमान हो उपजे हैं। ऐसा नाही कि सर्व पर्याय एकही समय विद्यमान है ते ढकते जाय हैं किन्तु समय समय प्रति क्रमते नवे नवे ही उपजे हैं । द्रव्य त्रिकालवर्ती सर्वपर्यायनिका समुदाय है, कालभेदकरि क्रमते पर्याय होय हैं। ___ तात्पर्य यह है कि-द्रव्यके और पर्यायके धर्म और धर्मीकी विविक्षा करि भेद है किन्तु वस्तुस्वरूपकरि द्रव्य और पर्याय अभे. दरूप ही है । इस दृष्टिसे कचित् द्रव्य त्रिकाल पर्यायोंका समुदाय कहागया है न कि विद्यमान पर्यायोंकी अपेक्षासे कहा गया है ? यदि विद्यमान पर्यायोंकी अपेक्षासे द्रव्यको त्रिकाल पर्यायोंका समुदाय कहा गया हो तो इस वातका स्वयं प्रथकार निषेध किसलिये करते ? इसलिये यही मानना पडता है कि द्रव्य गुण पर्याय अभेदस्वरूप होनेसे द्रव्यमें कालादि निमित्त कारणों के अनुसार समय समय प्रति नवीन नवीन ही पर्याय उत्पन्न होती है और नष्ट होती जाती है । विद्यमानकी उत्पत्ति कहना अपरमार्थ भूत है क्योंकि वह विद्यमान तो है ही, उसकी उत्पत्ति कैसी ? इसलिये अविद्यमानकी ही उत्पत्ति कही जाती है ऐसा न्याय है। द्रव्यमें न तो भूतकालीन सर्व पर्यायें भी विद्यमान रहती है और न भविष्यकालीन सर्व पर्याये ही विद्यमान रहती हैं सिवाय वर्त. मान पर्यायके, सो भी स्वकाल वीत जानेसे अर्थात् उस पर्यायका काल खतम हो जानेसे वह नष्ट हो जाती है और उसी समय पर For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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