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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २६३ भी आगम प्रमाण देखनेमें नहीं आता कि भविष्य में स्वकालमें उदयमें आनेवाली पर्यायके आकर्षणसे आत्माके पहिले ही उस रूप परिणाम होकर वन्ध भी स्वकालमें उदयमें आनेवाली पर्यायके अनुसार सत्तर कोडाकोडी तीस कोडाकोडी आदि स्थितिको लेकर होता हो और फिर वह स्वकालमें उदयमें आनेवाली पर्यायके अनुसार उदयमें आता रहै। यदि ऐसा आगम प्रमाग' आपको कहीं मिला हो और उसीक वल पर आप क्रमवद्ध पर्यायका समर्थन करते हो तो उसको प्रगट करें अन्यथा क्रमवद्ध पर्यायका समर्थन स्वकाल पयायके रूपमे, क्रम नियमित पर्यायके रूपमें, स्व सम्यकनियति रूपमें, कर रहै हैं सो सर्व मिथ्या है । क्योंकि आत्माके साथ एक वर्तमान पर्यायको छोडकर और कोई भी भूत भविष्यत पर्याय विद्यमान नहीं रहती जो क्रम क्रम से . नम्बरवार उदयमें आती रहै । पर्यायें तो असत् ही समय समय प्रति उत्पन्न होती रहती हैं और विनशती जाती हैं। इसका स्पष्टी करण स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथा २४३ २४४ द्वारा उपरमे कर आये हैं फिर भी यहां प्रकरणवश और भी उसको उद्धृत कर देते हैं। शंका-द्रव्यविषे पर्याय विद्यमान उपजे हैं या अविद्यमान उपजे हैं ? इसका समाधान करते हुये प्राचार्य कहते हैं कि जदि दब्वे पज्जाया विविज्जमाणा तिरोहिदा संति । ता उप्पत्ती विहला पडपिहिदे देवदत्तिव्य " २४३ भावार्थ-जो द्रव्यविषे पर्याय हैं ते भी विद्यमान हैं तिरोहित कहिये ढके हैं। ऐसा मानिये तो उत्पत्ति कहना विफल है : (मिथ्या है, जैसे देवदत्त कपडासू ढक्या था ताका उघाड्या तव : कहैं कि यह उपज्या सो ऐसा उपजना, कहना तो परमार्थ नही, तातें अविद्यमान पर्यायकी उत्पत्ति कहिये। For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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