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समीक्षा www.mmsran xmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
मैंने जो क्रमवद्ध पर्याय पर तथा निश्चय व्यवहार पर और उपादानकी योग्यतापर एवं निमित्त उपादानपर जो सोनगढ़के सिद्धांतका मूल उपरोक्त चार विषय हैं। उस पर आगम और युक्तियों द्वारा यथासंभव समालोचना की है अथवा इसके अतिरिक्त और भी “जैनतत्त्वमीमांसा" के विषयभूत अधिकार हैं वे सव उपरोक्त चारों अधिकारोंमें समावेश हो जाते हैं क्योंकि उन सव अधिकारोंमें घुमा फिराकर उन्ही चार विषयोंकी उनमें पुष्टि की है इसलिये उपरोक्त चारों विषयोंकी समालोचना करनेसे सबकी समालोचना हो जाती है तो भो अन्य अधिकारों की यथासंभव समालोचना की गई है। यह समालोचना मैने न तो किसी द्वष बुद्धिसे की है और न किसी मान बढाईके लोभके वशीभूत होकर की है। किन्तु समालोचना करनेका एक ही मूल उद्देश्य यह है कि जैनागमके सिद्धान्त की रक्षा हो । जो विद्वान लोग जैनागमके सिद्धान्तके विपरीत साहित्योंकी रचना कर उसको जैनागमकी यह मान्यता है ऐसा रूप देते हैं जिससे जैनागम के सिद्धान्त का घात होता है और भोले जीव उसीको जैनागमकी यह मान्यता है ऐसा समझकर वैसा श्रद्धान कर बैठते है जिससे उनका अकल्याण होना स्वाभाविक है। अतः भोले जीव जैनसिद्धान्त की विपरीत मान्यताको सही मान्यता मानकर अपना अकल्याण न कर बैठे और जैन सिद्धान्त की मान्यता विपरीतता न घुस जाय इस उद्देश्य को सामने रख कर ही जैनतत्त्वमीमासाकी यह समीक्षा की गई है। जैसे कि अकलंक देवने कहा है
" हिमशीतल की विज्ञसभामें मैंने जो जय लाभ किया। पराजीत करके वोधोंको ताराका घट फोड दिया । सो न किया कुछ द्वेषभावसे अथवा गर्वित हो करके । नास्तिकता से नष्ट हुये जीवों पर किन्तु कृपा करके "
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