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जैन तत्त्व मीमांसा की
होता रहेगा और पुरातन कर्म उदयमें आ श्राकर क्रमबद्ध निर्जरता जायगा इस हालतमें हम कमोंसे कभी अलग नहीं हो सकते इसलिये भगवानका हमारे लिये ऐसा आदेश है कि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो हमारे ज्ञानमें क्या भलका है उस भरोसे पर मत वैठे रहो तुम तो " तपसा निर्जरा च " इस सिद्धान्त के अनुसार तपश्चरण करके वलपूर्वक पुरातन काँकी एक साथ आहुति देकर उसकी निवृत्ति करो और नवीन कर्मके बन्धका संबर करों तव ही तुम्हारा व.ल्यान होगा अन्यथा नहीं अत: भगवान के ज्ञान में जैसा झलका है वैसा ही होगा उसको क्रम द्ध पर्याय मानकर जो स्वच्छंद प्रवृत्ति करते हैं वे महान मूर्ख हैं तीव्र मिथ्यादृष्टि हैं उनका तीनकालमें कभी भी कल्याण नहीं होगा क्योंकि वे भगवानका आदेश नही मानकर भगवान के ज्ञानमें जैसा झलका है वैसा ही निःसंदेह होगा ऐसा मानकर वे स्वच्छंद प्रवृत्ति करते रहते हैं इस कारण आचार्योंने ऐसी मान्यता रखने वालोंको नियतिवाद पाखंडी हैं ऐसा कहा है इसलिये क्रमवद्ध पर्यायका समर्थन करना ही नियतिवाद का समर्थन करना है । क्यों कि दोनोंकी मान्यता में कुछ भी अंतर नहीं है । नियतिवादी जो यह कहते हैं कि जिस समय जिसकर जैसा होना है वैसा ही होगा सो ही वात क्रमबद्ध पर्यायको माननेवाले कहते हैं फिर क्रमवद्ध पर्यायको माननेवाले तो यथार्थ वात को मानने वाले समझे जावें और नियतिवाद अर्थात् सव नियत है जिस कालमें जिस समय जिसकर जैसा होना है वैसा ही होगा उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं होगा ऐसा माननेवाले मिथ्याष्टि पाखंडी क्यों ? जब दोनों की मान्यता एक रूप है तो दोनों ही एक रूप सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि होगें इसलिये क्रमवद्ध पर्यायको मानने वाले सर्वथा जैनागमके प्रतिकूल हैं।
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