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समीक्षा
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सर्वविशुद्ध ज्ञान कैसे प्रगट होता है यह दिखलाने के लिये समय प्राभृतकी गाथा ३०८ से ३११ तककी टीकामें मीमांसा करते हुये आत्माका अकर्तापन सिद्ध कियागया है । क्योंकि अज्ञानी जीव अनादिकालसे अपने को परका कर्ता मानता पारहा है । यह कर्तापनका भाव कैसे दूर हो यह उन गाथाओंमें बतलानेका प्रयोजन है। जव इस जीवको यह निश्चय होता है कि प्रत्येक पदार्थ अपने अपने क्रमनियमितपनेसे परिणमता है इस लिये परका तो कुछ भी करनेका मुझमें अधिकार है नहीं, मेने पर्यायों में भी मैं कुछ हेर फेर कर सकता हूं यह विकल्प भी शमन करने योग्य है। तभी यह जीव निज आत्माके स्वभाव सन्मुख होकर ज्ञाता दृष्टारूपसे परिणमन करता हुआ निजको पर का अकर्ता मानता है और तभी उसने " क्रमनियमित " के सिद्धान्तको परमार्थरूप से स्वीकार किया यह कहा जा सकता है क्रमनियमित का सिद्धान्त स्वयं अपने में मौलिक होकर आत्माके अकर्तापनको सिद्ध करता है । प्रकृतमें अकर्ताका फलितार्थ ही ज्ञाता दृष्टा है। ___आत्मा परका कर्ता होकर ज्ञाता दृष्टा तभी हो सकता है जब वह भीतरसे "क्रमनियमित" के सिद्धान्तको स्वीकार कर लेता है इसलिये मोक्षमार्गमें इस सिद्धान्तका बहुत बडा स्थान है ऐसा प्रकृत में जानना चाहिये" पृष्ठ १७६ । प्रकृतमें यदि पं० जी "क्रमनियमित" सिद्धान्तको स्वीकार करने मात्रसे ही जो कोई ज्ञाता दृष्टा वन जाता है तथा परका अकर्ता होजाता है तो इस सिद्धा. तुको स्वीकार करनेवाले सभी ज्ञाता दृष्टा बन गये एवं परका अकर्ता होगये इसकारण उनका मोक्षमार्गमें बहुत बडा स्थान है ऐसा मान लेना उचित है किन्तु यह वात सर्वथा निराधार है श्वास करने योग्य नहीं है। क्योंकि आपके माने हुये क्रमबद्ध
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