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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८८ जैन तत्त्व मीमांसा की .. ग्रन्थकारने इस कथनसे सर्वद्रव्यका अपने २ परिणमनके साथ निश्चित रूपसे तादात्मक सम्बन्ध सिद्ध किया है तथा स्वद्रव्य के साथ ही कार्य कारण भाव एवं कर्ता कर्मभाव सिद्ध किया है, पर द्रव्यके साथ नहीं, अतः अमृतचन्द्राचार्य का “क्रमनियमित परिणमन" शब्दके प्रयोग करनेका प्रयोजन उपरोक्त है। अर्थात् निश्चित रूप से सव द्रव्योंका परिणमन अपनेरूप तादात्म्य होता है पर द्रव्यरूप नहीं होता इस कारण परके साथ कर्ता कर्म भाव का और कार्यकारण भावका अभाव है एवं उपादानरूप परिणमन करने का स्व भाव है यह जनानेके लिये ही "क्रमनियमित" परिणमन शब्दका प्रयोग किया गया है। दूसरा अन्य कोई प्रयोजन नहीं है । फिर भी श्राप जो यह सार निकालते हैं । कि " इस प्रकरण का सार यह है कि प्रत्येक कार्य अपने स्व कालमें ही होता है इसलिये प्रत्येक द्रव्यकी पर्यायें क्रमनियमित हैं। एक के बाद एक अपने अपने उपादानके अनुसार होती रहती है । यहां पर क्रमशब्द पर्यायकी क्रमाभिव्यक्तिको दिखला नेके लिये स्वीकार किया है और नियमित, शब्द प्रत्येक पर्याय का स्वकाल अपने अपने उपादानके अनुसार नियमित है। यह दिखलाने के लिये दियागया है। वर्तमानकालमें जिस अर्थको "क्रमवद्धपर्याय " शब्दद्वारा व्यक्त कियाजाता है ‘क्रमनियमित' पर्यायका वही अर्थ है । ऐसा स्वीकार करनेमें आपत्ति नहीं, मात्र प्रत्येक पर्याय दूसरी पर्याय से वधी हुई न हो कर अपने में स्व. तंत्र है यह दिखलानेके लिये यहां पर हमने “ क्रमनियमित" शब्दका प्रयोग किया है । आचार्य अमृतचन्द्रने समयमाभृत गाथा ३०८ आदि की टीकामें क्रमनियमित , शब्दका प्रयोग इसी अर्थमें किया है क्योंकि यह प्रकरण सर्वविशुद्ध ज्ञानका है। For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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