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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोक्षा २८७ अपना परिणामनिका कर्ता है अपना परिणाम कर्म है। ऐसे अन्यके परिणामनिका जीव अकता है। उपरोक्त पं० जयचन्द जी का भावार्थ है इसमें क्रमनियमित पर्यायका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। नो भी आपने उस टोकाको क्रमनियमितपर्यायकी सिद्धिके लिये उधृत की है यह आश्चर्यकी वात है कि आपने विद्वान होकर भी " कहीं की ईट कहीं का रोडा । भानमतीने कुनवा जोडा " वाली कहावत सिद्ध कर दिखाई है । उक्त टीका का अर्थ भी स्व० ५० जयचन्दजी का देखिये उसमें भी क्रमनियमित पर्यायकी गंध भी नहीं है। टीका-जीव है सो तो प्रथम ही क्रमकरि अर नियमित निश्चित अपने परिणाम तिनिकरि उपजता संता जीव ही है । अजीव नाहीं है। ऐसे ही अजीव है सो भी क्रमही करि अर निश्चित जे अपने परिणाम तिनि कार उपजता संता अजीव ही है जीव नहीं हैं । जाते सर्व ही द्रव्यनिके अपने परिणाम करि सहित तादात्म्य है । कोई ही अपने परिणाम ने अन्य नाहीं, ऐसे अपने परिणामको छोडि अन्य में जाय नाहीं । जैसे कंकणदि परिणामकरि सुवर्ण उपजे है सो कंकणादि से अन्य नाही है। तिनितें तादात्म्य स्वरूप है । तेसे सर्व द्रव्य हैं ऐसे ही अपने परिणामकार उपजा जो जीव ताके अजीवकरि सहित कार्यकारण भाव नाही मिद्ध होय है । जाते सर्वद्रव्यनिके अन्य व्यकरि सहित उत्पाद्य अर उत्पादक भावका अभाव है, अर तिस कारणकार्यभावकी सिद्धि न होते अजीवके जीवका कर्मपणा न सिद्ध होय है । अर अजीवके जीवका कर्मपणा न सिद्ध होय कर्ता कर्म के अनन्य पेक्ष सिद्धपणाते जीवके अजीवका कर्ता पणा न ठहस्या। यातें जीव है सो पर द्रव्यका कर्ता न ठहर्या अकर्ता ठहया " For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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