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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८६ जैन तत्वमीमांसा की TAJA दूसरी बात यह है कि टीकाकार अमृतचन्द्र आचार्य ने सुवर्णका दृष्टान्त दिया है जिससे भी क्रमनियमित पर्याय सिद्ध नहीं होती उससे तो यही सिद्ध होता है कि सुवर्णका कंकणादि कुछ भी बनावो उन सबका परिणमन सुवर्ण रूप ही है उसमें ऐसी क्रमनियमितता नहीं है कि कंकणके बाद कुंडल होगा उसके वाद हार होगा इत्यादि । यह तो स्वर्णकारके आधीनकी बात है जो उसकी इच्छा हो सो वनावे इसमें क्रमवद्धपर्यायका कोई सवाल नहीं है । उसी प्रकार जीवका परिणमन चैतन्य स्वरूप ही होगा जड स्वरूप नहीं होगा। वे कर्माधीन किसी पर्याय में परिणमन करे उनका परिणमन आत्मस्वभाव रूपसे ही होगा इसी बात का स्पष्टीकरण करनेके लिये टीकाकार ने सुवर्ण का दृष्टान्त दिया है, न कि क्रमनियमित पर्याय की सिद्धि करनेके लिये ? यदि क्रमनियमित पर्यायकी सिद्धि करनेके लिये वह सुवर्णका दृष्टान्त दिया है तो सिद्धकर बतलावें कि इस सुवर्णके गहकी ( डलीकी ) यह क्रमनियमित पर्याय होने वाली है अन्यरूपसे नहीं। यदि कहो कि यह तो केवलीगम्य हैं तो कारक पक्षमें केवल गम्य की वातका क्या लेनदेन है वह तो ज्ञायक पक्ष की बात हैं यहां तो द्रव्यके परिणमनकी बात है सो द्रव्यका परिमन अपने उपादानरूप ही होता है अन्यस्वरूप नहीं होता यही वात दिखलानेके लिये अमृतचन्द्र आचार्यने सुवर्णका दृष्टान्त दिया है और अन्यका कर्ता कर्मपनेका अभाव सिद्ध करनेके लिये एवं अन्य के साथ कार्यकारणभावका अभाव सिद्ध करनेकेलिये सुवर्णका दृष्टान्त दिया है । भावार्थ यह है कि सर्वद्रव्यनिके परिणाम न्यारे २ हैं अपने अपने परिणामके सर्व कर्ता हैं ते तिनिके कर्ता हैं ते परिणाम तिनिके कर्म हैं । निश्चयकरि कोईके काहतें कर्ता कर्म सम्बन्ध नाही है । तातें जीव अपने परिणामोंका कर्ता है, अपना परिणाम कर्म है । तैसे ही अजीब l For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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