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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २८५ तो "जीवो हि तावत्क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव नाजीवः । एवमजीवोऽपि क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव न जीवः । सर्वद्रव्याणां स्वपरिणामैः सह तादात्म्यात् कंकणादिपरिणामे कांचनवत् । एवं हि जीवस्य परिणामैरुत्पद्यमानस्याप्यजीवेन सह कार्यकारणभावो न सिद्धयति सर्वद्रव्याणां द्रव्यांतरेणोत्पाद्योत्पादकभावाभावात । तदसिद्धौ चाजीवस्य जीवकर्मत्वं न सिद्धयति । तदसिद्धौ च कर्तृकर्मणोरनन्यापेक्ष सिद्धवात् जीवस्याजीवक त्वं न सिद्धयति अतो जीवोऽकर्ता अवतिष्ठते " इस टोकाका अर्थ क्रमनियमित पर्याय को सिद्ध करनेके पक्षमें किया है किन्तु स्व. पं० जयचन्दजीकी टीकासे क्रमनियमित पर्यायकी सिद्धि नहीं होती प्रत्युत असिद्धि ही होती है। क्रमनियमिता परिणामः वाक्यांशका अर्थ आपने जो समझ रक्खा है , वह नहीं है। क्रमः शब्दका अर्थ एकके वाद एकका होना है और नियमित शब्दका अर्थ एकके वाद दूसरी पर्याय होने का नियम है अर्थात् पर्याय नियमसे एक होती है। एकसमयमें दो नहीं होती और सदा कोई न कोई एक पर्याय मौजूद रहती है। यह नहीं कि--किसी समयं कोइ पर्याय रहै नहीं । " क्रममाविन: पर्यायाः वाक्यका जो अभिप्राय है उसीको विशदरूप से यहां बतलाया है । और जो लोग पर्याय शून्य कूटस्थ द्रव्यको मानते अथवा एक समय में एक द्रव्यमें अनेक पर्याय मानते हैं उनका निरसन करनेके लिये 'क्रम और नियमित दो पदोंका प्रयोग किया है । क्रम नियमित शब्दका अर्थ अमुक पर्यायके वाद अमुक पर्याय नियमसे होगी यह अर्थ नहीं है। For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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