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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६० जन तत्त्व मीमामा की पर्यायको स्वीकार करनेवाले मोक्षमार्गसे योजनों दूर होते जा रहे हैं। अर्थात् देवपूजादि षटकर्म करना छोड बैठे हैं। इसका कारण एक तो यह है कि इनको पुण्यवन्धका कारण मानकर पुण्यको संसारका हेतु समझते हैं । दूमरा कारण यह है कि अपना किया तो कुछ होगा नहीं भगवानके ज्ञानसे जैसा होना झलका है वहीं होगा उससे होनाधिक कुछ भी होने वाला नहीं है फिर पुरुषार्थ करनेकी जरूरत ही क्या है ? अतः क्रमबद्ध (क्रमनियमित) पर्यायको मानने वाले सभी सज्जन षट्कर्म करनेसे उदासीन होते जा रहै हैं और स्वमेव भो कतृत्व बुद्धिसे शून्य बन बैठे है। इसका कारण वही है जो क्रमनियमित पर्याय होनेवाली है वही होगा उसीपर विश्वासकर का कर्तव्य कर्म भी नहीं करते । यह अपूर्व लाभ क्रमवद्धपर्यायको स्वीकार करनेवालोंको मिल रहा है । कुन्दकुन्दस्वामी तो यह कहते हैं कि"अन्तरदृष्टि लखाव, अरु स्वरूपका आचरण । ये ही परमार्थभाव, शिवकारण यही सदा ॥ अर्थात् भेदविज्ञान जिसको होगया है उसीकी अन्तरदृष्टी वनजाती है । इस कारण वह अपने स्वरूप में आचरण करता हुआ परस्वरूपका ज्ञातादृष्टा बन जाता है वस यही परमार्थभाव है और यही मोक्षमार्ग है । इसके अतिरिक्त और सब क्रमवद्धादि पर्यायको मानकर प्रमादी बनना है । जो व्यक्ति क्रमबद्ध पर्यायकी मान्यताका पक्षपाती है वह कभी भी अपना आत्मकल्याण नहीं कर सकता है । क्योंकि उसकी स्वमें कर्तृत्वबुद्धि नष्ट होजाती है इसकारण वे स्वच्छन्द हुश्रा परका कर्ता बन जाता है जैसे, कानजी स्वामी परका कर्ता वनकर बैठे हैं । उनका कहना है कि "श्रात्माका अपूर्वज्ञान प्राप्त करने वाले जीवको सामने निमितरूप से भी ज्ञानी ही होते हैं। वहां सम्यग्ज्ञानरूप परिणामत For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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