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समीक्षा
२६१
सामनेवाले ज्ञानका आत्मा अंतरंग निमित्त है और उन ज्ञानीकी वाणी वाह्य निमित्त है " अर्थात् कानजी अपनेको ज्ञानी मानकर जो श्रात्माका अपूर्व ज्ञान प्राप्त करनेवाले जीवके आप अंतरंग निमित्तकारण बनते हैं यही तो परका कर्ता बनना है । अंतरंग निमित्त कारण तो है ज्ञानी वनने वालेकी आत्माके साथ जो मिथ्यात्व लगा हुआ है उसका अभाव, उसको अंतरंग निमित्त कारण न मानकर अपनेको ( ज्ञानीको ) परकी आत्माका अतरंग कारण मान वेठे हैं यही परका कर्तापना है । जो व्यक्ति स्वका कर्तापन छोड़ बैठता है वह परका कर्ता अवश्य बनता है। वह मिध्यात्ववश समझता नहीं कि इस वातसे मैं परका कर्ता वन जाता हूं। इसका कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि स्वका कर्ता बनता है, परका अकर्ता रहता है और मिध्यादृष्टि परका कर्ता बनता है स्वका अकर्ता बनता है । अतः दोनों दोनों बात नही पाईजाती और सम्यदृष्टि परका कर्ता बना रहे और अपना अकर्ता वना रहै तथा मिध्यादृष्टि परका अकर्ता बना रहे और स्वका कर्ता वना रहे यह बात भी नहीं बनती। इसलिये जो जो स्त्रका कर्ता है वह परका अकर्ता है और जो स्वका अकर्ता है वह परका कर्ता अवश्य है । इस सिद्धान्तंसे जो क्रमबद्ध पर्यायके सिद्धान्तको मानता है वह अपने कर्तव्य से पराङमुख होकर स्वका अकर्ता वन जाता है अत: उसका मोक्षमार्ग में स्थान नहीं है वह मोक्षमार्गसे पराङमुख है ऐसा समझना चाहिये ।
नियत शब्दका अर्थ निश्चय रूप अथवा नियतरूप, स्वभावप्रकरणवश किया जा सकता है किन्तु इसका विपर्यास करना अनर्थकारी है। गुण सहभावी हैं, पर्याय क्रमभावी हैं।
"अन्वयिनो गुणा व्यतिरेकिणः पर्यायाः । अन्वयिनो
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