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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६२ जैन तत्त्वमीमांसा की ज्ञानादयो जीवस्य गुणाः । पुद्गलादीनां च रूपादय: तेषां विकारा विशेषात्मना विद्यमाना पर्यायाः “पर्याया इति स्वभावविभावरूपतया परिसमन्तात्परिप्राप्नुवन्ति परिगच्छन्ति ये ते पर्यायाः पर्यणं पर्यय इति वा स्वभावविभावरूपतया परिप्राप्तिरित्यर्थः || - सर्वार्थसिद्धौ जब जीबका परिणमन स्वभाव है तब वह समय समय प्रति परिणमन निश्चय रूपसे करते ही हैं इसी हेतुसे आचार्य अमृतचन्द्रने क्रमनियमित परिणमन शब्दका प्रयोग सर्व विशुद्धिद्वारकी प्रथम गाथाकी टीका करते हुये किया है उसका आशय यही है कि क्रमरूपसे ( समय समय प्रति ) निश्चयसेती जीव परिणमन करता है । किन्तु श्राप उसका अर्थ क्रमनियमित पर्याय करते हैं यही अर्थ विपर्यास है। इस वातको हम ऊपर में स्पष्ट कर वता चुके हैं। इस नियतिवादको सम्यक् नियति सिद्ध करनेके लिये जो आपने आगम प्रमाण दिये हैं वे प्रमाण ज्ञायक पक्षके हैं, कारक पक्षके नहीं इसकारण आपका दिया हुआ प्रमाण सम्यक नियतिको सिद्ध नहीं करता । क्योंकि आपकी सम्यक नियतिमें और नियतिवाद में कुछभी अतर नहीं है । आपका सम्यक नियतिस्वरूप भी कारक पक्षका है और नियतिवादभी कारक पक्षका है इस लिये दोनों एक कोटीके हैं । नियतिवादवाला भी यही मानता है कि- "जत्तु जदा जेण जहा जस्स य खियमेण होदि तत्तु तदा । तेण तहा तस्स हवे इदि वादो यिदिवादी हु८८२ गोमट For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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