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समीक्षा
२६३
अर्थात् जो जिसरूपसे जिसप्रकार जिसके जव होना है वह तब उस रूपसे उस प्रकार उसके नियमसे होता है इस प्रकारका जा कहना है वह नियतिवाद है। यह नियति वादका लक्षण है। और आपभी यही कहते हैं कि-"इस प्रकरणका सार यह है कि प्रत्येक कार्य अपने स्वकाल में ही होता है इसलिये प्रत्येक द्रव्यकी पयायें क्रमनियमित है, एकके वाद एक अपने अपने उपादानके अनुसार होती रहती है" अव कहिये पंडितजी आपकी मान्यतामें और नियातादमें क्या अंतर है ? शब्दोंका या अर्थका ? शब्दोंका हेरफेर करदेनेसे क्या होगा जवतक अर्थमें हेरफेर न हो तवतक शब्दोंका हेरफेर करते रहो नियतिवादकी मान्यता दूर नहीं होगी
आप भी यही कहते हैं कि 'जिस समय जो पर्याय होने वाली है वही होगी उसमें कुछभी हेरफेर नहीं होगा पृष्ठ १७६ तथा नियतिवाद वाला भी यही मानता है कि जिस प्रकार जहां जैसा होना है वही होगा उसमें कुछ भी हेरफेर नहीं होगा अतः इन शब्दोंमें अंतर है अर्थमें कुछ भी अतर नहीं हैं। यह सम्यक नियति है
और यह मिथ्या नियति है ऐसा श्रागममें कहीं पर भी निरूपण नहीं किया गया है । आप जो स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षाके कथनसे या पद्मपुराणके कथनसे सम्यनियतिकी कल्पना करते हैं यह वात विद्वानोंकेलिये योग्य नहीं है । क्योंकि इससे परस्पर आगममें विरोव उत्पन्न होता है । गोम्मटसारके कती तो जिसको नियतिवाद घोषित करते हैं उसीको स्वामी कार्तिकेय और प्राचार्य विषेण सम्यक् नियति बोलकर प्रतिपादन करे यह नहीं हो सकता इसलिये उक्त दोनों आचार्योने जो यह प्रतिपादन किया
"नं जस्स जम्हि देसे जेण विहाणेण जम्हि कालम्मि
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