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जैन तत्त्व मीमांसा की
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णादंजिणेण णियदं जम्म वा अह व मरणं वा ।। ३२१ तं तस्स तम्हि देसे तेण विहाणेण तम्हि कालम्मि । को सक्कइ चालेद् इन्दो वा अह जिणंदो वा ॥ ३२२ "एवं जो णिच्चयदो जाणदि दव्वाणि सव्वपज्जाये। सो सद्दिट्ठो सुंदो जो संकदि सोहु कुट्ठिो ” ३२३
स्वामी कार्तिकेयगनुप्रेक्षा अर्थात् निशंक अंगका धारी सम्यग्दृष्टि जीव यह मानता है कि भगवानके ज्ञानमें सव द्रव्यों की पर्यायें जैसी होनी झलकी हैं वह उसी रूपसे होंगी उसको इंद्र जिनेन्द्र कोई भी निवारणको समर्थ नहीं है क्योंकि भगवान के ज्ञान में पदार्थ अन्यथा नहीं झलकता यह सम्यग्दृष्टिके पूरा विश्वास है इसलिये वह उसमें संदेह नहीं करता । जो संदेह करता है वह मिथ्यादृष्टि है। क्योंकि मिथ्यादृष्टि के ही सर्वज्ञक ज्ञान में और उनके वचनोंमें संदेह होता है । सम्यकदृष्टि के नहीं । यही बात पद्मपु. राण में कही है तथा और भी ग्रयोंमें सर्वज्ञ के जानने की अपेक्षा ऐसा कथन मिलता है । वह सव कथन ज्ञायक पक्ष की अपेक्षा से किया गया है , हमारे कर्तब्य कर्मको अपेक्षा से नहीं । इसलिये हमारे कारकपक्षमें भगवानके ज्ञायक पक्षको लगाना सर्वथा नियतिवादका समर्थन है उसको आप चाहे सम्यकनियति कहैं या क्रमनियमित पर्याय कहैं अथवा नियतिवाद पाखंड कहैं इनमें शब्दभेदके अतिरिक्त अर्थ भेद कुछ भी नहीं है। एक अपे. क्षाको दूसरी अपेक्षा में लगाना यही पाखंड है । आपका जो यह कहना है कि-"इसप्रकार जब हम देखते हैं कि जहां एक ओर जैन धर्म में एकान्त नियतिवादका निषेध किया गया है वहां
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