SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७६ जैन तत्त्व मीमामा की नने जैसा देखा है वैसा हमारा परिणमन होगा यह वात सर्वथा श्रागमविरुद्ध है । हमारा परिणमन हमारे आधीन है उनका ज्ञान उनके आधीन है । उनके ज्ञानकी इतनी ग्वच्छता है जो अनन्तानन्त पदार्थोंका त्रिकालीन परिणमन उनके ज्ञानमें झलक जाता है इसकारण वे यह कह देते हैं कि उस समय उसका ऐसा परिणमन होने वाला है। इससे यह भी नहीं समझना चाहिये कि प्रत्येक पदार्थ. साथ त्रिकालीन सर्ग पर्यायें विद्यमान कित रहती हैं इसीलिये वे जानते हैं अतः श्रांकित रहनेकी वात सोया मिथ्या है उत्पाद व्यय और ध्रौव्य यह सत् पदार्थका लक्षण है इस कारणसतपदार्थ में समय समय प्रति उत्पाद व्यय होता ही रहता है। उत्पाद व्ययका अर्थ ही यह होता है कि असत् पर्यायकी उत्पत्ति और सत् पर्यायका नाश । इसके अतिरिक्त विद्यमान पर्यायको उत्पत्ति और विद्यमान पर्याय रहते उसका नाश माननेसे सत् पदार्थका उत्पाद व्यय और ध्रौव्य यह लक्षण ही नहीं बनता इस. लिये द्रव्य के साथ भूत भविष्यत् कालीन सर्वा पर्याय किन रहती हैं ऐसा मानना जैनागमसे सर्वाथा विरुद्ध है। इसका खास कारण यह भी है कि-जो जीवकी भूत भविष्यत् वर्तमान सम्बन्धी सो पर्यायें जीवके साथ कित मानली जांयगी तो वह परिमित होगी,जैसे एक पुस्तकके पेज वे सब पुस्त कमें परिमित अंकित रहते है तैसे जीवके साथ सर्वांपर्याय अंकित होंगी तो वह भी पुस्तकके पेजोंके समान परिमित ही होगी । जैसे पुस्तकके पेज पलटनेसे एकका व्यय और दूसरेका उत्पाद पुस्तकमें ही अंकित रहता है किन्तु पुस्तकका उत्पाद व्यय । तब तक ही रहता है जब तक कि सर्व पेज एक एक कर न . पलट दिये जाय, जव सव पेज पलट दिये जाते हैं तब उसमें उत्पाद व्ययका स्वरूप खतम हो जाता है, पुस्तक कूटस्यरूपमें For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy