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समीक्षा
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रह जाती है । तैसे जीवके साथ जा पर्याये अकित हैं वह पुस्तक के पन्नों की तरह परिमित ही होंगी क्योंकि जो अंकित चोज होती है वह परिमित है। होती है अपरिमित नहीं होती इसकारण वह क्रमबद्ध उदयमें आकर अल्पकाल में ही खतम हो जायगी इसके वाद जीव भी कूटस्थ रह जायगा क्यों कि पर्यायें खतम होनेसे उत्पाद व्यय भी उ में कैसे होगा ? नहीं होगा । इस हालतमें जीवादि पदार्थ सर्व ही असत मानने पडेंगे क्योंकि सतका जो लक्षण प्राचार्यों ने किया है वह उनमें घटित नहीं होता। अतः पर्यायों को द्रव्यके साथ अंकित मानने से पर्यायोंके साथ द्रव्य का भी खातमा हो जाता है इसलिये द्रव्यके साथ पर्यायें अंकित नहीं रहती वह तो समुद्र में लहरोंकी तरह नवी नवी उत्पन्न होती हैं और वर्तमान पर्याय लहरोंकी तरह द्रव्यमे ही विलीन हो जाती हैं । उसका आदि अत नहीं होता और इसमें क्रमवद्धता भी नहीं वनतो क्योंकि जिसप्रकार समुद्र में पवनका या जहाजका झकोर लगने से लहरें उल्ट पुल्ट हो जाती हैं उसी प्रकार जीवका भी परिणमन कोके झकोरोंसे उल्ट पुल्ट होता ही रहता है उस समय क्रमबद्ध पर्यायका चकनाचूर हो जाता है। अतः इस वातको न मानने से और क्रमवद्ध पर्यायको माननेसे स्वयं जीवद्रव्यका ही प्रभाव मानना पडता है । इस वातको हमने अच्छी तरह सिद्ध कर दिखला दिया है अतः क्रमवद्धपर्याय आगम और युक्ति दोनों से वाधित है इस कारण अपरमार्थभूत है।
पंडितजीकी दलील में एक वात शेष रह जाती है वह यह है कि भगवानके ज्ञानमें हमारा जैसा होना है वैसा ही तो झलका है।
और वह वैसा ही होकर रहैगा उसमें तो रंचमात्र भी हेर फेर नहीं होगा । नेमिनाथ भगवानके ज्ञानमें वारह वर्ष वाद द्वारका जलकर खतम हो जायगी मदराके संयोगसे दीपायनमुनिके द्वारा
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