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जैन तत्त्व मीमासा की
द्वारका नष्ट होगी और जरदकुमारके तीरसे कृष्णकी मृत्यु होगो वह सब बातें होकर रहीं इस कारण जो होना है वह सव नियत समय में ही होगा आगे पीछे नहीं होगा ऐसा मानने में क्या बाधा है ? कुछ भी नहीं । भगवानके ज्ञानमें जो एकके बाद एक पर्याय द्रव्यकी होने वाली है यहो तो क्रमबद्ध झलकी है और जैसे की है वैसे ही कमबद्ध उदयमें आती है इसको क्रमबद्ध पर्याय का रूप क्यों नहीं देना चाहिये ? अवश्य देना चाहिये पंडितजीके क्रमवद्ध पर्यायका यह सारांश है । इस पर विचार करना है ।
प्रथम तो द्रव्यका जो परिणमन होता है वह क्रमबद्ध और श्रद्ध दोनों रूपसे होता है और वह दोनों रूप से ही भगबानके ज्ञानमें झलकता है। जैसे जरदकुमारका तीर लगने से कृष्णजीकी युके निषेक एक साथ झड गये जिससे उनकी अपमृत्यु हो गई । क्रमबद्ध मृत्यु न हुई कारण कि उनके आयुका निषेक क्रमवद्ध न झडा ऐसा भगवानके ज्ञानमें उनका परिणमन झलका।
इसी प्रकार द्वारिकाका विनाश भी श्रपक्रम से हुआ जो द्वारिका क्रमरूप से हजारों वर्षो में नष्ट होने वाली नहीं था वह दीपायन मुनि के योग से बारह वर्ष के अंत में समूल नष्ट होगई यह अपक्रम नहीं तो और क्या है ? यह प्रगटरूप में भासता है कि यादव प्यास के मारे अज्ञानवश मदिराका पानी पीगये जिससे वे पागल होकर दीपायनमुनिको देखते ही कोपायमान हो गये और उनको बुरी तरह से मारने लगगये यहांतक कि वे मुनि बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ो तो भी उन्होंने समता नहीं छोड़ी । आखिर जब यादव उनके मुख में पेशाव तक करनेके लिये उतारू होगये तव वे दीपायनमुनि अत्यंत क्रोधित हुये जिससे तैजस पुतला
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