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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २७५ अर्थात सर्वज्ञके ज्ञानमें अथवा अवधि मनपर्यय ज्ञानोके ज्ञानमें भूत भविष्यत् काल की जीवन घटना भी झलक जाती है । इसकारण भूत भविष्यत् कालीन सर्वे पर्यायें जीवके साथ विद्य अंकित रहती हैं। यदि उसको जीवके साथ अ ंकित न माना जाय तो वह झलके कैसे ? विद्यमान पदार्थ हो ज्ञानमें ज्ञयरूप झलकता है अविद्यमान पदार्थ ज्ञानमें ज्ञयरूप नहीं पडता, इसलिये जो जीवके साथ भूत भविष्यत काल सम्बन्धी पर्याये अ ंकित हैं वह सवपर्याय क्रमबद्ध हैं और वह उदयमें भी क्रमबद्ध अपने अपने स्वकाल में आती हैं। वह आगे पीछे उदयमें नहीं आती एकके पीछे एक लगातार उदयमें श्राती है अतः उसका हेरफेर नहीं किया जा सकता है। पंडितजीके कहनेका ऐसा तात्पर्य है । इसीयुक्ति के बलपर पंडितजी क्रमवद्ध पर्यायका समर्थन कर रहे है किन्तु यह युक्ति परमार्थभूत नहीं है । मनुष्यको पुरुषार्थहीन वनानेकी यह युक्ति है । अर्थात् भगवानने जैसा देखा है वैसाही होगा उसमें कुछभी हेरफेर होनेका नहीं है फिर कार्यसिद्धिके लिये उद्यम करना निरर्थक है ऐसा विचार कर मनुष्य पुरुषार्थहीन हो जाता है एक बात, दूसरी बात यह है कि भगवानने देखा वैसा हम करेंगे या हम करेंगे हमारा जैसा परिणामन होगा तैसा भगवानने देखा है ? यदि भगवानने जैसा देखा है जैसा हमारा। परि मन होगा तो हमारा स्वतंत्र परिणमन न रहा, केवली भगवान के आधान रहा, भगवानने जैसा देखा जैसा हमको परिणमन करना पडेगा तो मेरे परिणमनका कर्ता भगवानको मानना पडेगा अथवा भगवानका ज्ञान हमारा परिणमन कराता है या हमारे परिणमननें भगवानका ज्ञान अतिशय उत्पन्न करता है यह मानना पडेगा अथवा भगवानका ज्ञान हमारे परिणमन में हेतु है उसके विना हमारा परिणमन होता नहीं यह मानना पड़ेगा, इसलिये भगवा For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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