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समीक्षा
"जीवो अणाइणिहणो परिणयमाणो ह णवणवभावं । सामग्गीसु पवदृदि वज्जाणि समासदे पच्छा ।। २३१
अथात् जीव द्रव्य है सो अनादिनिधन है सो नये नये परियायरूप प्रगट परिणमें हैं सो पहिले द्रव्य क्षेत्र काल भावको सामग्री विषे प्रवर्ते है पीछे कानिक पर्यायनिक प्राप्त होय है भावार्थ-जैसे कोई जीव पहिले शुभ परिणामरूप प्रवर्ते पीछे स्वर्ग जाय तथा पहिले अशुभ परिणामरूप प्रवर्ते पीछे नरक आदि पर्याय पावें ऐसे जानना । आगे जीव द्रव्य अपने द्रव्य क्षेत्र काल और भावविषे तिष्ठया ही नवे पर्यायरूपकू करे है ऐसे करें हैं। "ससरूवत्थो जीवो कज्ज साहेदि वट्टमाणं पि । खेचे एकम्मि ठिदो णियदच्वं संठिदो चेव ॥ २३२
अर्थात् जीवद्रव्य है सो अपने चैतन्यस्वरूप विषे तिष्ठ्या अपने ही क्षेत्रवि तिष्ठा अपने परिणमनरूप समय विषे अपनी पर्याय रूप कायकू साधे है । भावार्थ-परमार्थते विचारिये तव अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव स्वरूप होता संता जीव पर्याय स्वरूप कार्यरूप परिणमें है । पर द्रव्य क्षेत्रकाल भाव है सो निमित्तमात्र है। आपका जो यह कहना है कि-- ___"इसको याद और अधिक स्पष्टरूपसे देखाजाय तो ज्ञात होता है कि भूतकालमें पदार्थमें जो जो पर्याय हुई थी वे सब द्रव्यरूपसे वर्तमान पदार्थ में स्थित है और भविष्य कालमें जो जो पाये होगी वे भी द्रव्यरूपसे वर्तमान पदार्थमें अवस्थित है अतएव जिस पर्याय उत्पादका जो ममय होता है उसी समयमें वह पर्याय उत्पन्न होती है और जिस समय जिस पर्याय का व्यय होना है वह उस समय विलीन हो जाती है। ऐसी एक भी पयाय नहीं है
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