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जन तत्त्व मीमांसा को
जो द्रव्यरूपसे वस्तुमें न हो और उत्पन्न हो जाय और ऐसी भी कोई पर्याय नहीं है जिसका व्यय होने पर व्यरूपसे वस्तुमें उसका अस्तित्व ही न हो । इमी वातको स्पष्ट करते हुये प्राप्तमीमांसामें स्वामी समंतभद्र कहते हैं कि
"यद्यसत् सर्वथा कार्य तन्मा जनि खपुष्पवत् मोपादाननियामोभून्माश्वासः कायजन्मनि ॥ ४२ ।।
अर्थात् यदि कार्य सर्वथा असत् है अर्थात जिसप्रकार वह पर्याय रूप से असत् है उसीप्रकार वह द्रव्यरूपसे भी असत् है तो जिसप्रकार आकाश कुसुमकी उत्पत्ति नहीं होती उसी प्रकार कार्यकी भी उत्पत्ति मत होओ तथा उत्पादन का नियम भी न रहै और कार्य के पेदा होनेमें समाश्वास भी न रहै। इसी वातको
आचार्य विद्यानन्दने उक्त श्लोकको टीकामें इन शब्दोंमें स्वीकार किया है। "कथञ्चित्त एव स्थितत्वौत्पन्नत्वघटनाद्विनाशघटवत् "
जैसे कथंचित सत्का ही विनाश घटित होता है उसी प्रकार कथंचित् सतका ही ध्रौव्य और उत्पाद घटित होता है।
प्रध्वंसाभावके ममर्थनके प्रसंगमें इसीवातको और भी स्पष्ट करते हुये आचार्य विद्यानन्द श्रष्टसहस्रीमें कहते हैं | पृष्ठ ५३ "स हि द्रव्यस्य वा स्यात्पर्यायस्य वा ? न तावद् द्रव्यस्य नित्यत्वात् । नापि पर्यायस्य द्रव्यरूपेण ध्रौव्यात् । तथाहि विवादायन्नं मण्यादौ मलादि पर्यायार्थतया, . नश्वरमपि द्रव्यार्थतया ध्रुवम् , सत्त्वान्यथानुपपत्तेः"
वह अत्यंत विनाश द्रव्यका होता या पर्यायका ? द्रव्यका तो
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