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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०४ जैन तत्त्व मीमांसा की हैं। इसलिय जाते हैं। याने बालोक हैं। इसलिये ज्ञायकपक्षका ग्रहणकर चलनेवाले दोनों तरहसे मिथ्यादृष्टि बन जाते हैं। यह निश्चित वात है । इसी कारण आचार्यों ने ज्ञायकपक्ष पर नाचने वालोंको नियतिवादी घोषित किया है। अतः आचार्यों ने नियतिवादका सम्यकनियति बोलकर कहींपर भी समर्थन नहीं किया। आपने जो द्रव्य अपेक्षा नियतिवादको सम्यनियति कहकर समर्थन किया है वह सर्वथा एकान्त रूपसे मिथ्या है। द्रव्यकी पर्यायें नियमित नियत नहीं है वे नवीन नवीन ही उपजे है। इस सम्बन्धमें आगम प्रमाण देखिये । स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २२६ । २३० । २३१ । २३२ ।। "णव णव कज्ज विसेसा तीसुवि कालेसु होति वत्थूणं एक्कक्कम्मि य समये पुव्वुत्तरभावमासिज्ज" २२२ ___ भावार्थ-जीवादि वस्तुनिके तीनूही कालविषे एक एक सम-- यविषे पूर्व उत्तर परिणामका आश्रयकरि नवे नवे कार्य विशेष होय हैं नवे नवें पर्याय उपजे हैं। आगे इसी कारण कार्यभावको दृढ करें है। "पुव्वपरिणामजुत्त' कारणभावेण बट्टदे दव्वं । उत्तरपरिणामजुदं तं चिय कज्ज हवे णियमा ॥२३० अर्थात् पूर्वपरिणामकरि युक्त द्रव्य है सो तो कारणभावकार वर्ते हैं। तथा सोही द्रव्य उनरपरिणामकरि युक्त होय तव कार्य होय है यह नियमते जाणू । भावार्थ जैसे माटीका पिंड तो कारस है अर ताका घट वन्या सो कार्य है तैसे पहिले पर्याय का स्वरूप-: करि अव जो वह पिछले पर्याय सहित भया तव सोही कार्यरूप भया ऐसे नियमरूपसे वस्तुका स्वरूप कहिये है । अव जीव द्रव्यके भी तेसे ही अनादि निधन कार्यकारणभाव है सो ही दिखावे हैं For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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