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जैन तत्त्व मीमांसा की
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स्वकालमें मोक्ष जावेंगे ही फिर जैनधर्म धारण करने से ही मोक्षप्राप्ति होती है यह नियम तो रहा नहीं, आपके कथनानुसार सर्व कार्य एक अपने अपने स्वकाल में अपने अपने वल वीर्य द्वारा सिद्ध होते हैं उनमें जैनवर्म के निमित्तकी आवश्यकता क्या है ! अपने अपने स्वकाल में सर्व कार्य होंगे ही यह निश्चित वात है उसमें कुछ भी हेर फेर होनेका नहीं है ऐसा आपका कहना है ही, इस हालत में स्त्री पुरुष नपुंसक धोधी चमार गृहस्थ जैन अजैन सबको ही अपने अपने स्वकाल में मोक्ष मिल ही जायगो यह आपकी मान्यता का "बहुत बडा महत्व है" जो सवको खाते पाते भोज मजा करते करते अपने आप स्वकालमें मोक्ष मिल जायगा । श्वेताम्बरमान्यता में मनुष्य पर्यायस ही मोक्ष मानी है मनुष्य में चाहे स्त्री हो पुरुष हो नपुंसक हा शूद्र हो कोई भी हो आत्माकी भावना करनेसे मुक्ति पा लेता है । इसमें सन्देह नहीं है।
" सेयंवरो असांवरो ये बुद्धो य तह य अण्णोय । समभावभावियप्पा लहेइ सिद्धिं ण संदेहो"
षट्प्राभृतके १२ पृष्ठसे ३० अर्थात् मनुष्य चाहे तो श्वेताम्वर हो या दिगम्बर हो बौद्ध हो अथवा अन्यलिंगधारी ही क्यों न हो अपनी आत्माकी भावना करनेसे मुक्ति मिलजाती है इसमें संदेह करनेकी जरूरत नहीं है।
"इह चउरो गिहलिंगे दसन्नलिंगेसयंचअट्ठहियं । विन्नेपंच सलिंगे समयेणं सिद्धमाणाणं " ४८२
प्रवचनसारोद्धारतीसराभागपृष्ठ १२७ से उद्धृत
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