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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोता रागद्वेषमोहे गो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्ष स्याभावः । अथ केन 'दृष्टांतेन प्रपत्तो व्यवहार इति चेत। अथ-सर्व ही ये अध्यवसानादिकभाव है जोक है ऐसे जो भगवान सर्वज्ञदेव ने कहा है सो अभूतार्थ असत्यार्थ जो यवहारनय ताका दर्शनकरि ये मत है जाते व्यवहार है सो व्यवहारी जीवनिकूपरमार्थका कहनहारा है । जैसे म्लेच्छ की भाषा है सो म्लेच्छनिक वस्तु स्वरूप समझाये है । तातै अपरमार्थभूत है तोऊ धर्मतीर्थ प्रवृत्ति करनेकू व्यवहार नयका वर्णन न्याय्य है । ताते तिस व्यवहारकू कहे विना परमार्थ तो जीवकू शरीरसे भिन्न कहे है । सो याका एकान्त करिये तो बस स्थावर जीवनिका घात निःशंकपणे करना ठहर्या जैसे भस्मके मर्दन करने में हिंसाका अभाव है तैसे तिनके धातमें भी हिसा न ठहरे। और हिंसाका अभाव ठहरे तव तिनके घातते वन्धका भी अभाव ठहरे । तेसे ही रागी दोषी मोही जीव कर्मते वन्धते ताकू छूडावना ऐसे वह्या है सो परमार्थते रागद्वेष मोहते जीव जीवनिकभिन्न दिखावनेकरि मोक्षका उपाय करनेका अभाव होय तब मोक्षका भी अभाव ठहरे । व्यवहारनय कहिये तब बन्ध मोक्षका अभाव न ठहरे । अर्थात् परमार्थनय तो जीवकू शरीर पर रागद्वषमोहते भिन्न कहै है । सो यही का एकान्त करिये तव शरीर अर राग द्वेष मोह पुद्गलमय ठहरे तव पुद्गल के घातनते हिंसा नाही अर रागद्वेष मोहते वन्ध नाही रेसे परमार्थ ते संसार मोक्ष दोऊं का अभाव कहे है, सो यह ठहरे सो ऐसा एकान्त स्वरूप वस्तुका स्वरूप नाहीं, अवस्तुका श्रद्धान ज्ञान आचरण मिथ्या अवस्तुरूप ही है । ताते व्यवहार का उपदेश न्याय्य प्राप्त है। ऐसे स्याद्वादकरि दोऊ नयनिका विरोध मेटि श्रद्धान करना सम्यक्त्व है । For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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