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१८ जैन तत्त्व मीमांसा की "गुणसंक्रातिमृते यदि कर्ता स्यात्कर्मणश्च भोक्तात्मा सर्वस्य सर्वशंकरदोषः स्यात् सर्वशून्यदोषश्च" । ५७४ पं०
अर्थ-मूर्त कोका जीव को कर्ता भोक्ता बतलाने वाला व्यवहार नय नयाभास है यह बात प्रसिद्ध नहीं है । कारण ऐमा व्यवहार नय सिद्धान्त विरुद्ध है । सिद्धान्त विरुद्धता का भी कारण यह है कि जब कर्म और जीव दोनों भिन्न भिन्न पदार्थ हैं, तब उनमें गुण संक्रमण किस प्रकार से होगा ? अर्थात् नहीं होता । तथा बिना गुणों के परिवर्तन हुये जीव कम का कर्ता भोक्ता नहीं हो सकता । यदि विना गुणों की संक्राति के ही जीव कर्म का कर्ता भोक्ता हो जाय तो सब पदार्थों में मर्व शंकर दोष उत्पन्न होगा तथा सर्व शून्य दोष भी उत्पन्न होगा। इसलिये जीवके गुण पुद्गल में नहीं चले जाने से जीव पुद्गल कर्मका कर्ता भोक्ता नहीं हो सकता है ।
भ्रमका कारण अस्त्यत्र भ्रमहेतु वस्याशुद्धपरणतिं प्राप्य ! कर्मत्वं परिणमते स्वयमपि मूर्तिः मद्यतो द्रव्यम् ।।
५७५ पंचाध्यायी. अर्थ-जीव कर्मों का कर्ता है इस भ्रम का कारण भी यह है कि जीव की अशुद्ध परणति के निमित्तसे पुद्गल द्रव्य कार्माण वर्गणा स्वयं उपादान कर्म रूप परिणत हो जाती है। अर्थात जीव के राग द्वेष भावोंके निमित्त से कार्माण वर्गणा कर्म पर्याय को धारण करती है । इमालये उसमें जीव कर्तृता का भ्रम होता है। "इदमत्र समाधानं कर्ता य: कोपि स स्वभावस्य । परभावस्य न कता भोक्ता वा तन्निमिनमात्रेषि"
५७६ पंचाध्यायी
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