________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१५६
जैन तत्व मीमांसा की
त्मिक ग्रंथोंका सहारा लेकर व्यवहारधर्मका लोप एकान्तरूपसे करने में कटिवद्ध होरहे हैं । जो समयसारादि प्रयोका आशय है. उसको छिपाकर या न समझकर अपनी मान्यता के अनुसार विपरीत प्रतिपादन कर दि० जनसमाजके भोले जीवों को व्यवहार धर्मसे विमुख करते जारहै हैं। वे कहते हैं कि
"जिस प्रकार कुगुरु कुदेव कुशास्त्र की श्रद्धा और सुदेवादिककी श्रद्धा दोनों मिथ्यात्व है, तथापि कुदेवादिकके श्रद्धानमें तीव्र मिथ्यात्व है और सुदेवादिककी श्रद्धा में मन्द है।
श्रा० ध० पू०८६ अं०६ वर्ष ४ " व्यवहार के आश्रयसे मोक्षमार्ग होना मानते हैं ऐसे जीव तो तीन मिथ्यादृष्टी हैं उनमें तो सम्यक्त्व होनेकी पात्रता ही नहीं है" आ० ध० अं १२ वर्ष 8 ___ "पुण्य करते करते धर्म होगा इस मान्यताका निषेध है पुण्यसे न धर्म होता है न आत्माका हित । इससे निश्चय हा पुण्य धर्म नहीं, धर्मका अंग नहीं, धर्मका सहायक भी नहीं । जबतक अंतरंग में पुण्येच्छा विद्यमान है तवतक धर्मकी शुरूआत भी नहीं अत: पुण्यकी रुचि धर्म में . विघ्नकारिणी है। आ० ध० पृ० ८६ अंक ६ वर्ष ४ ।
इत्यादि इन्ही विचारोंकी पुष्टि में पं० फूलचन्दजी शास्त्रीने "जैनतत्त्वमीमांसा" नामकी एक पुस्तक लिखी है उसी में इन्ही विचारोंफी कमरकश करके पुष्टि की है।
For Private And Personal Use Only