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समाचा
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सार्थ " "ध्यान विना न थमें मनकी गति" " ज्ञान बिना शिवपंथ न सूझे, यह सब शरिराश्रित ही किया है इसके विना परमार्थ कहिये मां की सिद्धि नहीं होती । मति श्रुत ज्ञान है वह भी शरीराश्रित हा है । निरावरण ज्ञान तो एक केवलज्ञान ही है वह घातिया कर्मों के सद्भाव में प्रगट नहीं होता घातिया कर्मो के सद्भाव में मति श्रुत अवधि और मनपर्यय ज्ञान ही रहता है जो ज्ञानावरण कर्म -मसे प्रगट होता है सो ही ज्ञान शिवपंयको सुझाने वाला है । केवलज्ञान नहीं। वह तो शिव रूप ही है। इसलिये उसकी यहां कथा नहीं है यहां तो शिवपथको सुझाने वाले ज्ञान की कथा है वह ज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान है सो शरीराश्रित है, अतः जो शरीराश्रित क्रियाओं से धर्म होना नहीं मानते हैं उनके मतवन्ध मोक्षको कथा ही बेकार है !
उनकी आत्मा तो त्रिकाल शुद्ध है और केवलज्ञान करि युक्त है इसी लिये उनकी आत्मा पर कर्मकलंक मल नहीं चढता । जैसा कि श्वेताम्बरसूत्र का कहना है ( देखो कल्पसूत्र के पृष्ठ २४ पर तथा भगवती सूत्र के पृष्ठ १२६७ से लेकर पृष्ठ १२७२ तक ) उसी सिद्धान्तको ( श्वेताम्बर सिद्धान्तको ) माननेवाले कानजी स्वामी भी उसीप्रकार की प्रवृत्ति करते हैं। अर्थात् खावो पीवो मौज उडावो भाभका कोई विचार मत करो यह सब शरीराश्रित क्रियायें हैं। इससे आत्माका कोई सम्बन्ध नहीं क्योंकि आत्मा तो चैतन्य स्वरूप है और खान पान की क्रिया सव जड रूप है अतः जड़का और चेतनका मेल कहां ! अर्थात् दोनों भिन्न पदार्थ है । इसी लिये जड की क्रिया जड़ में हैं चेतन की क्रिया चैतन्य में है। ऐसा एकान्न रूपसे मानने वाले कानजीस्वामी के हृदय में अभीतक श्वेताम्बरी बू घुसी हुई है इसी कारण श्वेताrate ही प्रचार करते जारहे हैं । समयसारादि श्रध्या
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