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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा १५७ " बहुतसे मनीपी यह मानकर कि इससे व्यवहारका लोप हो जायगा ऐसे कल्पित सम्बन्धोंको परमार्थभृत माननेकी चेष्टा करते हैं। परन्तु यही उनकी सबसे वडी भूल है क्योंकि इसमृलके सुधरनेसे यदि उनके व्यवहारका लोप होकर परमार्थकी प्राप्ति होती है तो अच्छा ही है । ऐसे व्यवहारका लोप भला किसे इष्ट नहीं होगा। इस संसारी जीवको स्वयं निश्चयस्वरूप बनने के लिये अपने लिये अपने में अनादि कालसे चले आरहे इस अज्ञान मूलक इस व्यवहारका ही तो लोप करना है। उसे और करना ही क्या है । वास्तव में देखा जाय तो यही उसका परम पुरुषार्थ है इसलिये व्यवहारका लोप होजायगा इस भ्रान्तिवश परमार्थसे दूर रहकर व्यवहार को ही परमार्थरूप मानने की चेष्टा करना उचित नहीं। ___ क्या पंडितजी ! व्यवहारका लोप करने से परमार्थकी सिद्धि होमकती है ? कभी नहीं यह बात समयप्राभृतकी ४६ वी गाथा जो ऊपरमें उद्धृत की गई है उससे स्पष्ट सिद्ध होजाता है कि व्यवहारका लोप करनेसे परमार्थ भी नष्ट होजाता है । और वह स्वच्छंद होकर कर्मोंका वन्धकर संसार में अनेक प्रकारके दुखोंको भोगता है । इसलिये व्यवहार तीर्थस्वरूप है। तीर्थ उसीका नाम है जिसके द्वारा तिरिये । जव व्यवहार तीर्थ स्वरूप है तवं उसके लोपमें परमार्थकी सिद्धि कैसी ? कदापि नही, परमार्थकी प्राप्ति करने में जो पुरुषार्थ किया जाता है वह व्यवहार ही तो है। For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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