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समीक्षा
७
कानजीने देखा कि मैंने यह कह दिया है कि “गुरुके निमित्त स श्रद्धा सम्यक्त्व नहीं होती" तो लोग मेरे पास ना आवेंगे ! इसलिय उनको यह कहना पडा कि गुरु के निमित्तसे तो श्रद्धासम्यक्त्व नहीं होती किन्तु श्रद्धासम्यक्त्व होनेमें निमित्त कारण सामने ज्ञानी होना चाहिये । क्योंकि पाप ज्ञानी होनेका ठेका रखते हैं। इसलिये जिसको ज्ञान प्राप्त करना हो वे मेरे पास
आवें । गुरुओंक ( मुनियोंक ) निमित्तसे श्रद्धा सम्यक्त्व नहीं होगी। कागज के दुपडपीटी वात कहने में ऐसा अभिप्राय झलकता
यदि आप यह क है कि मेरे शास्त्री होने में मेरी योग्यता ही कारण हे गुरु या शास्त्र नहीं जैसाकि आपका तुष मास भिन्नक घोषनेकाले शिवभूति मुनिक विषय में कहना है कि
(२) "शास्त्राम अापन तुष मास भिन्नकी कथा पढी होगी वह प्रतिदिन गुरुकी सेवा करता है, अट्ठाईस मूलगुणांका नियमित हंगस पालन करता है फिर भी उसे द्रव्यश्रुतकी प्राप्ति नहीं होता इतनाही नहीं वह तुष मास भिन्न पाठका घोष करता हुआ केवली तो हो जाता है परन्तु द्रव्यश्रुतकी प्राप्ति नहीं । क्योकि उसमें द्रव्यश्रुतको उत्पन्न करने की योग्यता नहीं थी । इसके सिवाय अन्य कोई कारण हो तो बतलाइये । इससे कार्यात्पत्तिम योग्यताका क्या धान है इसका साज ही पता लग जाता है"
प्रथम ती उभ तुष मास भिन्न घोषना करनेवाल मुनि म पाठ ,प्रवचनमातृका का ज्ञान था या नही यदि उनमें यह ज्ञान नहीं था नो उसको केवलज्ञान कसे हुआ ? क्योंकि अ- प्रवचन मातृका ज्ञान हुये विना केवलज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती ऐसा आगम है यदि उनको अप्रवचन मातृकाको ज्ञान था तो वह अतकेवली था क्योंकि आगममें अप्रवचन मातृकाकं ज्ञानवालेको अतकेवली
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