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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जन तत्त्व मीमांसा की कहा है इसलिये उसके द्रव्यश्रत नहीं था ऐसा कहना आगमविरुद्ध है। यदि कहो कि उनके पूर्ण श्रत ग्यारह अंग चौदह पूर्व प्रकाणादि का ज्ञान नहीं था इमके हुये विना भी अपनी योग्यतासे उसे केवलज्ञानकी प्राप्ति होगई। ऐमा कहना भी प्रासंगत है क्योंकि ऐसा कोई नियम नहीं हैं। जो पूर्ण अतकवली हुये विना किसी को केवलज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती। यह तो जीवोंकी कर्मोंके क्षयोपशम शक्ति विशेषका माहात्म्य है । वह क्षयोपशम सबका समान होता नहीं। इसीलिये किसीको मति श्रुद अवधि होकर केवल होता है तो किसीको मति अ त मनःपर्यय होकर केवल होता है तो किसीको मति अतसे केवलज्ञान होता है । यह परिणामोंकी विचित्रता है मतिश्रत पूर्णतया न होनेपर भी केवलज्ञानको प्राप्ति होजाती है । इससे यह नहीं कहा जाता कि उसमें पूर्णरूपसे अतकेवली होने की योग्यता नही थी जिसमें पांच ग्राम जानेकी योग्यता हो यदि वह कारणवश एक ग्राम भी न जा सके तो क्या उसमें एक ग्राम जानकी योग्यता नहीं थी ऐसा कहा जा सकता है ? कदापि नहीं जिसमें पांच ग्राम जानेकी शक्ति है वह निमित्तानुसार एक एक ग्रामको उलंघता हुआ भी पांच, ग्राम पहुंच सकता है । अथवा उसको सीधा रास्ता मिल जाय तो वह मव ग्रामीको छोडकर सीधा पांचवे ग्राम भा जा सकता है। उसी प्रकार कर्मो के क्षयोपशम अनुसार कोई मति अत अवधि मनःपर्यय पूर्वक. केवलज्ञान को प्राप्त करता है कोई मतिश्रुतको भा पूर्णतया प्राप्त न कर साधा कर्मोको नष्टकर केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है । अत: जिसमें सीधा केवलज्ञान प्राप्त करनेकी योग्यता है उसमें मति अत पूर्ण रूपसे प्राप्त करने की योग्यता नहीं थी ऐमा कहना न्याययुक्त नहीं For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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